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________________ ( १७७ ) प्रत्यक्षादि प्रसिद्धार्थ विरुद्धार्थाभिधायिनः वेदान्ता यदि शास्त्राणि, बौद्धैः किमपराध्यते ॥१॥ अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभाव प्रसिद्धये । अद्वैतदेशनाशास्त्रे निर्दिष्टा नतु तत्वतः ॥ (शा. वा० स०८ ) अर्थ-जैन वेदान्तियोंको कहते हैं कि शास्त्र में जो अद्वैततत्व का उपदेश दिया गया है वह अद्वैततत्वकी वास्तविकता बतानेले लिये नहीं किन्तु जगतमें मोह प्राप्त करके जीव रागद्वेपको प्राप्त करते हैं उसे रोकनेके लिये और समभावकी प्रीति करानेके लिये सथा शत्रु मित्रको एक दृष्टिसे देखने के लिए है वह उपदेश "अरमैवेदं सर्व” इत्यादि रूप हैं । जगतको श्रसार तुच्छ मानकर सर्वको आत्मसमदृष्टिसे देखनेका उपदेश देना ही शास्त्रकारका प्राशय है। इससे तुम्हारी एक वाक्यता है । इत्यलम। * आर्य समाजके अनुपम वैदिक विद्वान् श्रीमान पं० सातवलेकर जी की सम्मति। यज्ञों में देवों की उपस्थिति । आधिभौतिक यज्ञका अर्थात् मानव व्यवहारका रूप (यज्ञका वास्तविक स्वरूप) समझने के लिये इसका विचार अवश्य करना चाहिये कि देव यझोंमें जाकर स्वयं उपस्थित होते थे या नहीं। ब्राह्मणादि ग्रन्थोंमें और पुराणोंमें भी यही लिखा है कि प्राचीन कालमें देवताएँ स्वयं यज्ञमें श्राती थीं और विभाग अर्थात् अन्न * नोट-अद्वैतवाद पर विशेष विचार, दर्शन प्रकरण में किया जायेगा।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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