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. अतः स्पष्ट हो गया कि उस समय इन्द्र आदि देवताओं को बेचा जाता था। यह प्रथा आज भी भारत में प्रचलित है। जयपुर आदि में आज भी मेवताओं की प्रतिमायें बना बना कर येची जाती हैं तथा उनके जलस आदि निकाले जाते हैं। शायद उस समय राजा लोग मंग्राम में जाते समय अपने अपने देवताओं की प्रतिमाओं को भी रथों में बिठा कर साथ ले जाते थे, और अपनी विजय को अपने देवताओं की विजय कहत थे । यही देवों का विजय !! आज भी अनल उस पर साला अपने अपने उपास्य देवता की कृपा का फल मानते हैं। और यदि पराजय अथवा असफलता प्राप्त होता है, तो अपने भाग्य का दोष बताते हैं । उसी प्रकार उस समय भी इन्द्र आदिक भक्तजन अपनी विजयों का नथा अपनी सफलताओं को अपने अपने कुल देवता की विजय और सफलता मानते थे।
अन्नादि देवता वेदों में, अमि. इन्द्र. वरुण, आदि देवताओं की तरह ही अन्न, अखल. मूमल. आदि पदार्थों को भी देवता माना गया है. नथा उनका यर्शन भी अग्नि देवताओं की तरह ही किया गया है । यथा ऋग्वेद मं० १ का २८ वा सूक्त ऊखल और मूसल की स्तुति में ही लिखा गया है। इसके मन्त्र सात में ऊखल और मूसल को अन्न दाता आदि कहकर इनकी स्तुति की गई है। इसी प्रकार अन्न की स्तुति करते हुये वैदिक ऋषियों ने अन्नको ही सर्व देव मय माना है । ऋग्वेद मं सूक्त. १८७ अन्न की ही स्तुति में लिखा गया है । उसके प्रथम मन्त्रों में ही लिखा है कि
यस्य त्रितो योजमा यत्रं विश्वमदयत् ।। १।१८७१॥ अर्थात्-सर्वाधार बलात्मक अन्नदेव की शक्ति से ही त्रित