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________________ ( ७७० ) कार्य यदि कार्य का लक्षण 'प्रागभाव प्रतियोगित्व' करें तो सूर्य आदि का प्रभाव सिद्ध नहीं है। स्वयं वेदों में भी इनको नित्य माना है । जैसा कि हम से सिप कर चुके हैं। वर्ततान विज्ञान ने उपरोक्त मतकी पुष्टि की है। अतः यह लक्षण जगत को कार्य सिद्ध करने में असमर्थ है । यदि कार्य का लक्षण, सावयवत्व करें तो भी ठीक नही क्यों कि उसमें भी अनेक दोष हैं। प्रथम तो यही प्रश्न है कि सावयत्र कहने का अभिप्राय क्या हैं । (२) क्या साचय्यका अर्थ अवयव प्रवृत्ति है ( अर्थात् अवयवों का अविष्कार ) ऐसा इसका अर्थ है। यदि यह अर्थ किया जाये तब तो यह लक्षण अवयवों में भी है। अतः लक्षण व्यभिचारी है । ( २ ) अवयवों से बना हुआ यह अर्थ करें, तो साध्य सम हेत्वाभास है । क्यों कि जगत का अभाव ही असिद्ध है। जैसा कि हम पहले लक्षण में लिख चुके हैं । ( ३ ) यदि इसका अर्थ अवयव ( बहुप्रदेशी ) बाला करें तो आकाशादि में अतिव्याप्ति हैं। क्यों कि वे भी बहुत अवयव वाले ( बहुप्रदेशी) हैं। ऐसी अवस्था में वे सब तथा स्वयं ईश्वर भी सकर्तृक सिद्ध होगा। क्यों कि वह भी सर्वव्यापक माना जाता है। पावोऽस्य विश्वाभूतानि” मन्त्र में ही उसके चार अवयव बताये गये हैं । अतः यह लक्षण भी अयुक्त हैं । | (४) शेष रहा 'विकारी' अर्थात् यदि सावयव का अर्थ विकारी अर्थात् परिणमन शील किया जाये तो प्रकृति परमाणु, आत्मा और ईश्वर भी सब कार्य हो जायेगे, पुनः उनका भी कर्त्ता मानना पड़ेगा। प्रकृति और परमाणु विकारी है यह हम पहले सिद्ध कर चुके
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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