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________________ बस जब शरीर की प्रत्येक क्रिया का कुछ प्रयोजन है. सों श्वास प्रश्वास भी क्रियायें हैं। अतः इन का भी प्रयोजन है ! प्रयोजनवती क्रिया ज्ञान पूर्वक होती है। ज्ञानपूर्वक क्रिया के लिये इच्छा का होना परमावश्यक है। अतः श्वासादि भी इच्छापूर्वक होने से कम हैं। इससे आपने जो कम का लक्षण किया है वह ठीक महीं ! जिस प्रकार श्राप कर्म के लक्षण में भूल कर गये हैं. उसी प्रकार कम फल के लक्षण में भी आप से भूल हुई ! आपने लिखा है कि "जिस प्रयोजन से कम किया जाता है या जो कर्म का मन्त होता है उसको कम का फल नहीं कहते ।" आपने 'श्रास्तिकवाद' पुस्तक बेचने के लिये, मंगलाप्रसाद पारितोषक पुरस्कार अथवा आस्तिकता का प्रचार करने के लिए लिखी ! जब इन प्रयोजनों की पूर्ति हो गई तो क्या यह पुस्तक लिखनेरूपी कर्म का फल नहीं! कर्म का अंत आपने कर्म के अंत के विषय में परस्पर विरुद्ध बात लिखी है ! 'प्रास्तिकबाद 'पृ. २६८ में लिखा है--चोरी करने का अम्ल कभी धन की प्राप्ति तथा कभी पकड़ा जाना भी होता है, परन्तु हम इन दोनों को फल नहीं कह सकते। यहां पर आपने पकड़ा जामा या धन प्राप्ति चोरी रूपी फर्मका अन्त माना है, परन्तु भागे बल कर पृष्ट ३०८ पर लिखा है कि संस्कार कर्मका अन्त है । इन दोनों बातों में से कम का अन्त किस को माना जाय ! सच बात तो यह है कि कर्म का फलप्रदाता ईश्वर को मानने में अनेक शंकाएं हैं जिनका समाधान आज़ तक वैदिक दर्शन नहीं कर सका है। इसी लिये इस मिथ्या कल्पना को सिद्ध करने के लिये नित्य नई कल्पना घटती बढ़नी हैं।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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