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________________ भलाई के लिये फल नहीं देना अपितु उसको और गर्नमें गिराने के लिये ऐसा करता है । ऐसा करना परमात्मा के योग्य नहीं समझा जाता । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा कर्मोका फल देने वाला नहीं है किन्तु कर्म अपने आप फल देते हैं। आस्तिकवाद और कर्मफल श्री पं० गङ्गाप्रसादजी उपाध्याय एम ए ने आस्तिकवाद नामक एक गवेषणात्मक सन्दर प्रन्थ लिग्न में उममें कर्म और कर्मफल पर भी विचार किया है। उस पर भी विचार करना आवश्यक हैं। आपने कर्मका लक्षण करत हुए लिखा है कि कर्म उसको कहते हैं जिसमें कर्ता स्वतन्त्र हो अर्थात--करना न करना कर्ताके आधीन हो । जो कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक इकछासे किया जाय वह कर्म हैं। आप लिखते हैं कि हम स्वासादि लेते हैं वे क्रियायें तो हैं परंतु हम उनको इच्छापूर्वक नहीं करते इसलिये वे कर्म नहीं हैं। स्थूल द्रष्टि से देखने पर तो यह कथन कुछ ठीक सा प्रतीत होता है परन्तु मूक्ष्म दृषिसे देखने पर उपरोक्त कथन में कुछ सार नजर नहीं आता। क्योंकि इस शरीर में जो भी किया होती है यह जीव की इच्छा से ही होती है, विना जीव के किये इसमें कुछ भी क्रिया नहीं होती ! यह दूसरी बात है कि वह इच्छा इतनी सूक्ष्म हो कि हम उसको साधारण बुद्धि से न जान सके । यथा देखना सुनना आदि सब कम होत हैं, इच्छापूर्वक परन्तु उनको स्वाभाविक समझा जाता है। आपने स्वयं जीवात्मा नामक पुस्तक के ०२३१ पर लिखा है कि "शरीर का प्रत्येक व्यापार पहिले तो शरीर विकास के लिए और अन्त में मानसिक या आस्मिक विकास के लिए है. ! इन सत्र में प्रयोजनबत्ता है. प्रयोजन शून्य कुछ नहीं । "
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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