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________________ ( २६ ) तद् यदेव प्राणैः समैन्धं स्वदिन्द्र स्पेन्द्र त्वम् ।। देवताओं ने इसे सन्दीपन किया है इस लिये प्राणों के यह इन्द्र है। ऐतरेयोपनिषद में लिखा है कि -.. स जातोभूतान्यभिव्यैरुयत कि मिहान्यं वाचदिवदिति । स एवमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत् | दमदर्शमिति ||१३|| तस्मादि दन्द्रो नामेन्द्रो हौनाम । तमिदन्द्रं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते पगेक्षेण । परोक्षप्रिया व हि देवाः ||१ | ३|१४ इस शरीर में प्रवेश करके आत्मा ने भूतों ( प्राखों ) को तादात्म्य भाव से ग्रहण किया। तथा आत्म ज्ञान होने पर यहाँ मेरे सिवा अन्य कोन हैं उसने ऐसा कहा । और मैंने इस अपने आत्म स्वरूप को देख लिया है । इस प्रकार इसने अपने को हो रूप से देखा || १३ ॥ i. क्योंकि उसने इस आत्मब्रह्म का दर्शन किया इसलिये उसका नाम इन्द्र प्रसिद्ध हुआ । इसी इवेंद्र" को aarat लांग परोक्षरूप से इन्द्र कहते है । क्योंकि देवता - परोक्ष प्रिय होते हैं ॥१४॥ यही भाव मयांका है। जिसको निरुक्तकार ने उन किया है। वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों में ऐसा ही वर्णन है। अतः वेदों में आत्मा अथवा ब्रह्मज्ञानी का नाम भी इन्द्र आया है। इसी प्रकार आत्मा, प्राण, इन्द्रिय, वायु श्रादित्य राजा. सेनापति आदि ऐतिहासिक अर्थ में भी इन्द्र का वर्णन है । :
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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