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________________ वेद भी जगतको प्रकृतिका ही कार्य मानता है। वहां भी ईश्वरकी कोई आवश्यकता नहीं है। 1 जो लोग ईश्वरके अस्तित्व और अधिष्ठातृत्व में अन्यान्य युक्तियां दिखाते हैं। उनका भी सांख्यने खूब खंडन किया है। यह खंडन भी पाँचवें अध्याय में ही हैं। पहले पूर्व पत्र देखिये । कुछ लोग कहते हैं कि जैसे राजा अपने साम्राज्य में दुष्टों को दंड और सज्जनों का सम्मान करता है। वैसे ही ईश्वर भी प्राणियों के कर्मानुसार उन्हें फल देता है। इसपर सांख्य कहता है । ईश्वर कर्मासार फल प्रदान करता है या अपनी इच्छा अनुसार यदि कर्मानुसार तब कर्म ही अपने स्वभावानुसार जीवोंको फल दे लेगा ईश्वरकी क्या जरूरत है। यदि अपनी इच्छानुसार फल देता है तो यह प्रश्न सहज ही है कि इस इच्छामें उसका क्या स्वार्थ है । क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि किसी उद्देश्य या स्वार्थ के वश होकर ही कोई भी जीव काम करता है। फिर यदि ईश्वर भी अपने स्वार्थ के लिये ही कार्य करता है तो वह भी एक सामान्य राजा ही ठहरा, और राजाकी तरह वह भी दुखी होगा । स्पष्ट बात यह है कि बिना राग. या इच्छा के सृष्टि नहीं हो सकती । और राग वाला ईश्वर साधारण जीवों की तरह ही विनाशशील होगा हां एक बात और भी है। यदि प्रकृतिकी इच्छाशक्तिको संग ले कर तुम्हारा ईश्वर सब कर्म करता है । तो वह इस इच्छा था वासना संग दोषसे उसी तरह प्रसित हो जायगा जिस तरह एक साधारण जीवः । कोई २ यह भी कहते हैं कि प्रकृतिकी सहायतासे ईश्वर-धि कहता है। इस पर सांख्य कहता है कि तब तो सभी पुरुष ईश्वर हो सकते हैं। ऊपरी इन कई युक्तिोंसे सांख्य दर्शन ने.बिरीश्वरवाद स्थापित किया है। साथ ही तीसरे शुध्यायमें जो सिद्धिः सिद्धाः .." सूत्र है उससे, यह भो dev
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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