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________________ .... . . . . जो ईश्वर के दो रूप (शक्ल व श्याम) वताये हैं वे भी प्रात्मा के ही भेद है, नकि ईश्वर के । अदि ये भेद (शुद्ध और अशुद्ध ) ईश्वर के माने जाये तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ईश्वर को अशुद्ध करने वाली कौन सी वस्तु है, क्या वेदान्तियों की माया से आपका अभिप्राय है, यदि ऐसा है तो आपको स्पष्ट लिखना चाहिये था। अथवा आपने किसी अन्य पदार्थ का आविष्कार किया है, जिसको आप अभी प्रकट करना उचित नहीं समझते। तथा च आपने जो 'अविति, प्रजापति. पुरुष, हिरण्य गर्भ' आदि को समष्टि रूप दिया है, अर्थात् इन नामों से ईश्वरके समष्टि रूप का कथन किया है यह विश निरवार को इस सा का अर्थ भी वैदिक साहित्य में ईश्वर नहीं, अपितु जड़ सूर्य आदि अथवा जीवात्मा है । प्रजापति प्रकरण में हमने सप्रमाण व विस्तार पूर्वक लिखा है । अतः देवता ईश्वर की शक्तियां नहीं हैं अपितु जड़ सूर्य श्रादि अथवा प्रात्मा की शक्तियां हैं। इन सब बातों पर विचार न करके यदि आपकी ही बात मान ली आये. तो भी इस देवताओं की दुर्बुद्धियों का कथन मिलता है जैसे कि (मा ते अस्मान दुर्मतयो) ऋ०७। १ । २२ हे अग्ने तुम्हारी दुबुद्धि. हमें ज्याप्त न हो। तथा इन्द्र का भ्रम में पड़ना (०८। ५२ । ७1) तथा इन्द्र का विरोध और इन्द्र पूजकों द्वारा अग्नि की मिन्दा मादि का जो वेदों में कथन है (जिनका वर्णन हम अमि देवता प्रक- . रण और इन्द्र प्रकरण में कर चुके हैं. ) तो क्या यह सब परमेश्वर के ही गुण हैं। क्या आपका परमेश्वर भी भ्रम में पड़ जाता है और क्या उसकी भी बुद्धि मलिन है। तथा क्या मन्त्र करता ऋषि ईश्वर का भी विरोध करते थे अथवा उसको भी दुष्ट आदि कहतेथे । यदि ऐसा है तब तो ऐसे ईश्वर को आप श्वर मानें हम
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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