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________________ (५६) जय न तो ईश्वरका पहले कथन है और न बादमें ही कहीं जिंकर है तो यहां 'तत्' में ईश्वर ने आकर कैसे प्रवेश कर लिया। अतः यहां ईश्वर अर्थ करना जनता में भ्रम फैलाना है तथा सुप्रसिद्ध वैशेषिक टीकाकार शंकर मिश्र ने अपनी उपस्कार नामक टीका तत् शब्दका अर्थ धर्मही किया है। इसी प्रकार अन्य भाष्यकारों ने तथा टीकाकारोंने भी यही अर्थ किया है। इसी प्रकार अध्याय २१२१८ में जहां योगियों के प्रत्यक्षका कथन है वहां भी इन भक्तोंने ईश्वरको घर घसीटा है ? इत्यादि व्यर्थ प्रयासों से इस दर्शनको ईश्वरवादी बनाने का प्रयत्न किया है, नवीन वैशेषिकों ने जो ईश्वर कल्पना की है, उसका विचार हम तर्क प्रकरण में करेंगे, यहां तो ऐतिहासिक दृष्टि से यह बतलाया गया है कि करण के समय तक भी भारत में ईश्वर का आविष्कार नहीं हुआ था । बा० सम्पूर्णानन्दजी लिखते हैं कि "वैशेषिकका मत तो बहुत ही स्थूल है। आज अनात्मवादी वैज्ञानिक और समाजवादी दार्शनिक भी इतने स्वतंत्र पदार्थोंकी श्रावश्यकता नहीं समझता । परमाओं को सरेणु सूर्य किरणोंमें देख पड़ने वाले रजकरण के छह भाग के बराबर मानना हास्यास्पद है। उससे भी अधिक हास्यास्पद सोनेको शुद्ध तेज मानना है" 'भारतीय सृष्टिक्रम' यहां प्रश्न यह है कि इन द्रव्योंका (जो वैशेषिकदर्शनमें हैं ) नियामक क्या है तथा व जो इस दर्शन में ६ पदार्थ माने गये हैं उनका भी नियामक क्या है ? अर्थात् यह पदार्थ न्यूनाधिक नहीं हो सकने इसमें क्या प्रमारण हैं । तथा च मनको द्रव्य माना तो बुद्धिमें क्या दोष था जो उसको तिलाञ्जलि देदी । तथा यह नियम है कि स्वतन्त्र पार्थ किसीके आश्रित नहीं होता परन्तु करणादने गुण
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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