SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४९८ ) न्द्रियों की और 'च' से पांच कर्मेन्द्रियोंकी रचना की। तेषां स्वयवान् सूक्ष्मान् षण्णामध्यमितौजसाम् । सन्निवेश्यात्मात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे । ( प० १११६ ) अर्थ - परमित शक्तिशाली पांच तन्मात्राएं और अहंकार इन छ: तत्वों को और इन सूक्ष्म अवययों को आत्मा के सूक्ष्म अंशों में मिला कर देव, मनुष्य आदि सर्व भूतों का सृजन करता है, कारण कि उक्त मिश्रा ही सृष्टिका उपादान कारण हैं मेधातिथि तथा कल्लूक भट्ट दोनों टीकाकारोंका उपर्युक्त अभिप्राय है। परन्तु टीकाकार राघवानन्द दोनों से अलग रास्ते पर जाते हैं और अपना आश्रय नीचे करते हैं 'पण पन श्रादोनाममितौजसाम्। श्रात्ममात्रा अपरिच्छिन्नस्यैकस्यात्मन् उपाधिवशात् अवयव - प्रतीयमानेषु आत्मसु ॥ "ममेयांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः" इति स्मृते । "शो नाना व्यपदेशादित्यादि सूत्र, तासुमन श्रादि षड्वयवान् सूक्ष्मान् संनिवेश्य सर्व भूतानि सर्वान् जीवान् निर्मम इत्यन्वयः ।" I अर्थात राघवानन्द ने पांच तन्मात्रा के उपरान्त छठे श्रहंकार के बदले मनको रक्खा है । श्रात्म मात्रा शब्द से एक ब्रह्म के उपाधिभेद से पृथक हुए अनेक अंश रूप जीवात्माओं का महण किया है । मन आदि छः तत्वों के अवयवों को आत्ममात्रा के साथ मिश्रण करके ब्रह्मा ने सब जोनों का निर्माण किया। इस प्रकार जीव रचना सम्बन्धी राघवानन्द का अभिप्राय है ।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy