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________________ : ( ३४१ ) एक ही सत्) यहाँ विभिन्न स्थान सत्ता में परिणत होने से मुक्ति सबक मिलकर एक होगी।" प्र०४५५ इस प्रकार आपने कर्म सिद्धान्त तथा मुक्ति, और मुक्ति के साधन. तप आदिके लिए सन्यास धारण आदि सबको वैदिकधर्म पर जैनियों की अमिट छाप बताया है। परंतु इस प्रश्न का इनके पास कोई उत्तर नहीं है कि यह ईश्वर विना कारण चोर, डाकू लुटेरा, व्यभिचारी, घातक आदिबनने के लिए क्यों प्रवृत्त होता है dersharaare के मानने पर पाप और पुण्य श्रादि आप की व्यस्था का आधार क्या है ? क्योंकि आपके मत से जन्म कर्म मूलक तो है नहीं! अपितु आपके मतानुसार तो ईश्वर बिना प्रयोजन. और बिना किसी कारण के स्वयं ही प्रत्येक समय गधा घोड़ा कुत्ता बिल्ली पशु पक्षी व मनुष्य आदि का रूप धारण करता रहता है । इस प्रकार अनेक शंका हैं जिनका विवेचन हम आगे वेदान्त दर्शन प्रकरण में करेंगे । यहां तो यही कहना है कि आपकी यह मान्यता भी वैदिक है। क्योंकि आपने जिन वैदिक मंत्र आधारसे अपने मड़की स्थापना की हैं, हमने उन सब मन्त्रोंके यथार्थ अर्थ लिख कर सप्रमाण यह सिद्ध कर दिया है कि सब कथन जीवात्मा की अवस्था है। अर्थात् किसी जगह तो निश्चय नयसे शुद्धात्मा (परमात्मा) का वर्णन है. और कहीं अन्तरात्मा (आत्मज्ञानी महात्मा) का कथन हैं, तो कहीं वहिरात्मा. अर्थात संसारी आत्मा ( संसार में लिका वर्णन है। यह वर्णन रुद्रका है. जिसको आपने स्वयं (महाभारतकी समालोचना में) सूत जाति (भूटान) का तथा पिशाच जातिका राजा निज किया है ता यह चोरी व डाका डालने वाली जातियोंका श्रविपति था यह सिद्ध है | इसकी ईश्वर कहना ईश्वरका मजाक उड़ाना है ।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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