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________________ ऋग्वेद के मुक्त भी दो श्रेणियों में विभक्त है । ऋग्वद में इन्द्र. अमि, सूर्य. प्रभृति देवताओं के प्रति कुछ ऐसे विशपरग प्रयुक्त हुम हैं कि ये मनुष्योचित गुणग्रामविशिष्ट हैं। दृष्टान्त के लिये, इन्द्रादि देवता के रथ, अश्व, सारथी, भूषण, केश, भश्रु हस्त प्रभृति का उल्लेख किया जा सकता है । इतना ही क्यों, कितने ही सूक्तों में देवताओं में मनुष्यों की मांति कोध. हिंसा श्रादि का होना लिया हुआ है । हमारा विश्वास है कि, इस प्रकार के सून निकृष्ट साधकों के पक्ष में कथित हुए हैं। जो लोग अग्नि आदि कार्यों को स्वतंत्र शक्ति-शानशाली देवता समझ कर सकाम यनों का अनुष्ठान किया करते हैं—यह आदर्श उनके ही लिये है। जो लोग हि सुख समृद्धि के अतिरिक्त परकाल और परब्रह्म की बात किंचिन भी नहीं जानते, उनके मन में धीरे-धीरे ब्रह्म का प्रकाश डालनेके उद्देश्य से, प्रथमतः मनुष्य के साथ तुल्य गुणादि विशिष्ट रूप से ही देवता का आदर्श उपस्थित किया गया है। यदि केवल कर्मी संसारी पुरुषों के आगे एकबार ही मनुष्य राज्य के बाहर बाला निर्गुण निष्क्रिय उपास्य देव का बादश लाया जाय. तो निकृष्ट साधक उसमे भी लाभ नहीं उठा सकता। साधारण साधक के चित्त में ऐसा उच्च श्रादर्श चढ़ नहीं सकता। अस्तु देवनाओं के रथ, सारथी अादि का वर्णन करने वाले मंत्र कार्यावस्था के सूचक हैं. १. ___ किन्तु जब देवोपासना करते करत चित्त शुद्ध निर्मल होकर स्थिर होने लगा जब बिस उन्नत होकर अग्न आदि कार्यों का स्वतंत्र सत्ता के बदले उनके भीतर अनुस्यूत हुई कारण सत्ता* __ * "कारण, ब्रोदासका मध्यम दृष्टया अानन्द गिरि एवं शंकर | (कदा तेमा 'अमृतस्य धाम यदन्तो न भिनन्नि स्क्यायः १६६६६।३
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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