SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४०१ ) I 9 की आवश्यकता नहीं कि सात्विक राजस और तामस भेदों से बुद्धि के समान अहंकार के भी अनन्त प्रकार हो जाते हैं। इसी तरह उनके बाद के गुणों के भी प्रत्येक के विधातः अनन्त भेद हैं अथवा यह कहिये कि व्यक्त सृष्टि में प्रत्येक वस्तु के इसी प्रकार श्रनन्त सात्विक, राजस और वामस भेद हुआ करते हैं. और इसी सिद्धान्त को लक्ष्य करके, गीता में गुणत्रय - विभाग और श्रद्धात्रयविभाग बतलाये गये हैं ( गी० अ० १४ और १७ ) व्यसायात्मिक बुद्धि और अहंकार, दोनों व्यक्त गुग्छ, अब मूल साम्यावस्था का प्रकृति में उत्पन्न हो जाते हैं, तब प्रकृति की एकता भंग हो जाती है और उससे अनेक पदार्थ बनने लगते हैं तथापि उसकी सूक्ष्मता अब तक कायम रहती है। अर्थात् यह कहना अयुक्त न होगा कि अब नैय्याथिकोंके सूक्ष्म परमाणुयका आरम्भ होता है। क्योंकि अहंकार उत्पन्न होने के पहले प्रकृति अति और निरवयव थी। वस्तुतः देखने से तो प्रतीत होता है कि निरी बुद्धि और निरा अहंकार केवल गुण हैं, अतएव उपर्युक्त सिद्धान्तों से यह मतलब नहीं लेना चाहिये कि वे (बुद्धि और अहंकार ) प्रकृति के द्रव्य से पृथक् रहते हैं। वास्तव में बात यह है कि जब मूल और श्रवयव-रहित एक ही प्रकृति में वन गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है, तब उसी को विविध और sara orक व्यक्त रूप प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार जब अहंकार से मूल प्रकृति में भिन्न पदार्थ बनने की शक्ति आ जाती हैं, तब आगे उसकी बुद्धिकी दो शाखाएं हो जाती हैं। एक पेड़ मनुष्य आदि सेन्द्रिय प्राणियों की सृष्टि और दूसरी निरिन्द्रय पदार्थों की सृष्टि। यहां इन्द्रिय शब्दसे केवल इद्रिय' बान् प्राणियों की इन्द्रियों की शक्ति ' इतना अर्थ लेना चाहिये इसका अर्थ यह है कि सेन्द्रिय प्राणियोंके जब देहका समावेश जड़ 1 :
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy