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युजन्ति नमरुप चरन्तं परितस्थुषुः । . रोचन्ते गेचना दिवि ।। १।६।१।।
चतुर्दिगवर्ती सब जीच, इन्द्र के सहित सूर्य, अग्नि यायु और मक्षत्रगणका सम्बन्ध स्थापन करते हैं। अर्थान् सूर्य, अमि, यायु, और नक्षत्रगण इन्द्र के ही मृत्य॑न्तर मात्र इन्द्रक ही भिन्न २ मूर्ति विशेषमात्र हैं, यह बात जोवगण समझ जाते हैं। इस सूक्त के तृतीय मंत्रमें भी इन्द्रका सूर्यरूपमें वरान है।
निम्र लिखित मंत्रोंमें इन्द्र, विष्णु, ब्रह्माणस्पति. वरुण, मित्र, अर्यमा, रुद्र. पूषा, सविता, प्रभूति नामोंसे अग्निदेषका बोध होता है
त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सतामसि, त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्या त्वं ब्रह्मा रयिवित् ब्रह्मणस्पते त्वं विधतः सचसे पुरन्ध्या । २०१३ स्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतः, त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्यः । त्वपर्यमा सत्पतिर्यस्य संभुज, स्व मंशो विदथं देव भाजयुः।२।१।४ स्वमग्ने वरुणो जायसे यचं मित्रो भवसि । ५३ स्वमग्ने रुद्रो असुरो महोदिवः त्वं श|मारुतं पृक्ष ईशषे त्वं पूषा ॥ २२११६ स्वं देवः सविता त्वं भगः । १७ अन्तरिच्छन्ति तं जने रुद्रं परो मनीषया ।। ८१७१३
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