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________________ डालते परन्तु यह बात है बड़ी; क्यों कि अगर मन के विचारों के बल से शरीर का स्थूल पुतला दलने में इस प्रकार नर्म हो तो उसमें क्या अचरज या न मानने की बात है कि सूक्ष्म पदार्थ की शक्लें भी इतनी ही नर्म मान ली जावे कि जिससे इसमें इस अमर कारीगर अर्थात चितमन शक्ति वाला मनुष्य जो जो रूप अपनी कुशल अंगुलियों से बनाना चाहे वे सब इस में सहज ही बन जाव । ४४ यहां यह मानलिया है कि मन असल में रूप अथवा शकल बनाने वाली शक्ति है और गोचर अर्थात् बाहरी वस्तुओं के प्रगट करनेका क्रम इस भांति है कि पहले मन किसी विचारको निकालता है और वह विचार मन लोक में एक रूप धारण कर लेता है, यह काम मनोमय लोक में जाकर कुछ गाढ़ा हो जाता है, और यहां से आसना लोक में जाता है यहां और भी गाढ़ा हो जानेसे दिव्यदर्शी की भांख को दिखलाई पड़ सकता है। अगर किसी अभ्यासी ने अपनी इच्छा से इसको जान बूझकर भेजा है तो यह विचार भूलोक (जागृत) में तत्क्षणचला भाला है और यहां स्थूल अणुओं से मंड कर वनित हो जाता है, और इस प्रकार सबको दिखलाई पड़ने लगता है परन्तु अन्यथा प्रायः यह वासना लोकमै ही सांचे की नरह रह जाती है और स्थूल लोकमें अनुकूल देशकाल मिलने पर उस सोचे से स्थूल वस्तु बन जाती है । एक ऋपि ( गुरुदेव ] ने यह लिखा है कि "माहारमा उन शकलों को जोकि उसने कल्प. ना शक्ति से सूक्ष्म लोक की जड़ सामग्री से बनाया है, स्थूल लोक में डाल कर स्थूल बना देता है" । महात्मा कोई वस्तु नई नहीं बनाते हैं, तो वे केवल उन चीजों को जो उनके चारों ओर प्रकृतिने संचय कर रही है. उस सामग्री को कल्पांतरों में सब रूपों में रह चुकी है काम में लाते हैं । उन्हें ना केवल इतना करना होता है कि
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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