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________________ ( ৬৯७ ; अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। लौकिक भाव में किसी द्रव्य के भीतर पाये जाने वाले किसी विशेष धर्मके लिये गुण शब्दका प्रयोग होता है। महर्षि कणाद ने भी गुण का लक्षण करते हुये उसे द्रव्याश्रयी धर्म बतलाया है, परन्तु सांख्य के गुण वाद का गुण शब्द उससे भिन्न हैं। सत्व रज और तम किसी पदार्थ धर्म नहीं हैं. हां किसी रूप में उनको शक्ति कहा जासकता है। जिस प्रकार उपरिलिखित शक्तिवादके सिद्धान्त में परमाणु अनेक शक्तियांका केन्द्र मानाजाता है । परन्तु वह कोई ऐसी वस्तु नहीं जो शक्तिले भिन्न हो या जिसे शक्ति का आधार कहा जा सके, इसी प्रकार प्रकृति सत्व रज और मकी समष्टि का नाम हैं । उनमें भिन्न यह कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे उन गुणों का श्राश्रय कहा जा सके। यहां गुण शब्द गौण वृत्ति से अपने अर्थ का बोधन करता है । प्रकृति रूप समष्टि के भीतर कार्य करने वाली यह तीनों व्यष्टियां गुणों के भिन्न भिन्न कार्य हैं जिनका संग्रह सांख्यकारिका के लेखक ने इस प्रकार किया है। सत्वं लघुप्रकाशमिष्ट, उपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरुवरणकमेव तमः । अर्थात् मूल प्रकृति के भीतर काम करने वाले इन गुणों में से प्रत्येक के दो दो कार्य है। सांख्याचार्य के मत में सत्व गुण लाघत्र और प्रकाश से युक्त है. रजोगुण उपलम्भक एवं चल है. और तमोगुण गुरु एवं आवरण करने वाला है। अभी सम्भवतः कारिकामें प्रयुक्त शब्दोंके स्पष्टीकरण के लिये कुछ पंक्तियोंकी अपेक्षा है। लाघवका अर्थ हैं हलकापन, जिसके कारण पदार्थ ऊपर को उठते हैं । प्रकाशके कारण पदार्थ अभिव्यक्त होते हैं । । उपष्टंभ
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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