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हरिवंशपुराणे
दशार्णवास्तमोनाम्नि जघन्या सा पडे मता । सह पञ्चमभागाभ्यामुत्कृष्टैकादशार्णवाः ॥ २८६ ॥ इयमेव भ्रमे ह्रस्वा स्थितिः संप्रतिपादिता । चतुर्भिः पञ्चमैर्भागैः परा द्वादशसागराः ॥ २८७॥ एषैव हि झपे हीना स्थितिरुत्कर्षिणी पुनः | साकं पञ्चमभागेन चतुर्दशपयोधयः ॥ २८८ ॥ इयमेवात्ररःऽन्ध्रे सा सत्यसंधैरुदीरिता । सत्रिपञ्चमभागास्तु परा पञ्चदशाब्वयः ॥ २८९ ॥ एषैव च तमिस्रेऽपि जघन्या स्थितिरिष्यते । पञ्चम्यां सुप्रतीतास्ते परा सप्तदशार्णवाः ॥ २९० ॥ अवरा तु स्थितिः प्रोक्ता हिमे सप्तदशार्णवाः । पराऽपि द्वित्रिभागाभ्यामष्टादश पयोधयः ॥ २९६ ॥ वर्दले स्थितिरेषैव जघन्या समुदीरिता । परा त्रिभागसंमिश्राः विंशतिस्तु पयोधयः ॥ २९२॥ लल्लके तु जघन्येयमजघन्या स्थितिः पुनः । षष्ठयां प्रोक्ता मुनिश्रेष्ठैर्द्वाविंशतिपयोध्यः ॥ २०३ ॥ इयमेवाप्रतिष्टाने जघन्या स्थितिरुच्यते । योत्कृष्टा सा हि सप्तम्यां त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥ २२४ ॥ नारकाणां तनूत्सेधो हस्ताः सीमन्तके त्रयः । तरके तु धनुर्हस्तः सार्धान्यष्टाङ्गुलान्यसौ ॥ २२५॥ शैरुके धनुरुत्सेधस्त्रयो हस्ताः शरीरिणाम् । अङ्गुलान्यपि तत्रैव भवेत् सप्तदशैव सः ॥२९६।।
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स्थिति कही गयी है । इस प्रकार चौथी पृथिवी में सामान्य रूपसे दश सागर स्थिति प्रसिद्ध है ।। २८५|| ऊपर जो स्थिति कही गयी है वही पांचवीं पृथिवीके तम नामक प्रथम इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है । और ग्यारह सागर पूर्ण एक सागरके पाँच भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ।। २८६ ॥ भ्रम नामक दूसरे इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति कहो गयी है और बारह सागर पूर्ण तथा एक सागरके पांच भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २८७ ||
झष नामक तीसरे इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति कही गयी है और चौदह सागर पूर्णं तथा एक सागर के पांच भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २८८ || अन्ध्र नामक चौथे इन्द्रकमें सत्यवादी जिनेन्द्र भगवान्ने यही जघन्य स्थिति कही है और पन्द्रह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पाँच भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है || २८९|| तमिस्र नामक पाँचवें इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति मानी जाती है और सत्रह सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी जाती है। इस प्रकार पाँचवीं पृथिवी में सामान्य रूपसे सत्रह सागरकी आयु प्रसिद्ध है ||२९० ||
छठी पृथिवी हिम नामक प्रथम इन्द्रकमें सत्रह सागर प्रमाण जघन्य स्थिति कही गयी है और अठारह सागर पूर्ण तथा एक सागरके तीन भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २९१ || वर्दल नामक दूसरे इन्द्रक विलमें यही जघन्य स्थिति कही गयी है और बीस सागर पूर्ण तथा तीन भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २९२ || मुनियों में श्रेष्ठ गणधरादि देवोंने लल्लक नामक तीसरे इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति कही है तथा बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है । इस प्रकार छठी पृथिवो में सामान्य रूपसे बाईस सागर प्रमाण आयु कही गयी है || २९३ ||
सातवीं पृथिवी में केवल एक अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रक है सो उसमें यही जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और जो उत्कृष्ट स्थिति है वह तैंतीस सागर प्रमाण है। इस प्रकार सातवीं पृथिवी में सामान्य रूपसे तैंतीस सागर प्रमाण आयु प्रसिद्ध है || २९४ || अब नारकियोंके शरीरकी ऊँचाईका वर्णन किया जाता है
पहली पृथिवी के सीमन्तक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियोंके हाथ है। तरक नामक दूसरे प्रस्तार में एक धनुष एक हाथ तथा साढ़े रोरुक नामक तीसरे प्रस्तारमें एक धनुष तीन हाथ तथा
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शरीरकी ऊँचाई तीन
आठ अंगुल है | २९५॥ सत्रह अंगुल है | २९६ ||
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