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हरिवंशपुराणे
स्थितिरेषैव विज्ञेया स्तनकेऽनन्तरावरा । चतुरेकादशांशाश्च सागरश्च परा तथा ॥ २२०॥ अनन्तरा विनिर्दिष्टा मुनिभिर्मनकेश्वरा । षडैकादश मागाश्च सागरश्च तथा परा ॥ ३६१ ॥ एषैवावादिविद्वद्भिर्वनके चावरा स्थितिः । अष्टैकादशभागाश्च सागर परा तथा ॥ २६२ ॥ सैषैवाद्या विधाटेsपि पटुभिः प्रकटावरा । दशैकादश भागाश्च सागरश्च परा तथा ॥ २६३ ॥ इन्द्र के स्वियमेव स्यात् संघाटेऽनन्तरा । तत्रैकादशभागश्च सागरौ च परा स्थितिः ॥ २६४ ॥ स्थितिरेषैव बोधव्या जिल्लाख्येऽपीन्द्रकेश्वरा । त्रयस्त्वेकादशांशास्ते सागरौ च तथा परा ॥ २६५॥ असावेव समादिष्टा जिह्निकाख्येन्द्रकेश्वरा । पञ्चैकादश भागाश्च सागरौ च परा स्थितिः ॥ २६६॥ एषैवानन्तरा वेद्या लोलनामेन्द्रकेश्वरा । सप्तैकादश भागाश्च सागरौ च परा तथा ॥ २६७ ॥ भवत्यनन्तरैवैषा लोलुपेऽपीन्द्रकेश्वरा । नचैकादशभागाश्च सागरौ च परा तथा ॥ २६८ ॥ अवरैषा परापीष्टा स्तनलोलुपनामनि । सागरत्रयमेतेषु वंशाया सागरास्त्रयः ॥ २६९ ॥ सागरत्रयमेवासाववरा तप्तनामनि । चत्वारो नवभागाश्च परमा सागरास्त्रयः || २७० ।। इयमेवावराव पितेऽपीन्द्र के स्थितिः । तथाऽष्टौ नवभागाश्र परमा सागरात्रयः ॥ २७१ ॥ तपनेऽप्यवरेषैव नव भागास्त्रयोऽपि तु । चत्वारश्च समादिष्टा परमा सागराः स्थितिः ॥२७१॥ इयमेवोपगीता सा तापनेऽप्यवरा स्थितिः । सा सप्त नवभागास्तु चत्वारः सागराः परा ॥ २७३॥
है || २५९ || स्तनक नामक दूसरे प्रस्तारमें यही जघन्य स्थिति है तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६०|| मनक नामक तीसरे प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और एक सागर पूर्ण तथा एक सागरके ग्यारह भागों में छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥ २६९ ॥ वनक नामक चौथे प्रस्तार में विद्वानोंने यही जघन्य स्थिति तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में आठ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही है || २६२ ॥ विघाट नामक पांचवें प्रस्तारमें यही जघन्य स्थिति तथा एक सागर पूर्णं और एक सागरके ग्यारह भागोंमें दश भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति विज्ञ पुरुषोंने प्रकट की है— बतलायी है || २६३ || संघाट नामक छठे इन्द्रक अथवा प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६४ || जिह्व नामक सातवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्णं तथा एक सागरके ग्यारह भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६५ || जिह्विक नामक आठवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्णं तथा एक सागरके ग्यारह भागोंमें पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६६ || लोल नामक नौवें प्रस्तारमें यही जघन्य स्थिति तथा दो सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिए || २६७ || लोलुप नामक दसवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और दो सागर पूर्ण तथा एक सागरके ग्यारह भागों में नौ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६८ || एवं स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और तीन सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । इस तरह वंशा नामक दूसरी पृथिवीमें सामान्य रूपसे तीन सागर प्रमाण स्थिति प्रसिद्ध है || २६९ ||
तीसरी पृथिवी के तप्त नामक प्रथम इन्द्रकमें तीन सागर जघन्य और तीन सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में चार भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है ॥२७० || तपित नामक दूसरे इन्द्रकमें यही जघन्य तथा तीन सागर पूर्ण और एक सागरके नौ भागों में आठ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वर्णन करने योग्य है || २७१ ।। तपन नामक तीसरे इन्द्रकमें यही जघन्य और चार सागर पूर्ण तथा एक सागरके नौ भागों में तीन भाग पूर्ण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है || २७२ ॥ तापन नामक चौथे इन्द्रक में यही जघन्य स्थिति और चार सागर पूर्ण तथा एक सागरके नौ
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