________________
५८
हरिवंशपुराणे
तावन्त्येव पुनस्तानि योजनानि परस्परम् । प्रकीर्णकान्तरं तस्यां तृणीयं तु धनुःशतम् ||२३२|| विनैकेन तु पञ्चादिन्द्रकाणां शतान्यपि । द्वात्रिंशच्च तृतीयायां पञ्चत्रिंशद्धनुः शतैः ॥ २३३॥ योजनानि हि यावन्ति द्विसहस्रधनूंषि च । श्रेणीगतान्तरं तस्यां लब्धवर्णैः प्रवर्णितम् ॥ २३४॥ चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर्द्वात्रिंशच्च शतानि वै । धनूंषि पञ्चपञ्चाशच्छतान्येतत्प्रर्क के ।। २३५|| पञ्चषष्टिश्च षट्त्रिंशच्छतातीन्द्र कगोचरम् । धनुःशतानि तद्वेद्यं चतुर्थ्यां पञ्चसप्ततिः ।।२३६ ।। योजनानि हि तावन्ति श्र ेण्यां पञ्चनवांशकैः । धनूंषि पञ्चपञ्चाशत्तावन्त्येव शतानि तत् ॥ २३७॥ चतुःषष्टिश्च षट्त्रिंशद् योजनानां शतानि तु । सप्तसप्ततिसंख्यानैस्तथा चापशतैरपि ॥ २३८ ॥ द्वाविंशतिधनुर्मिश्व नवभागद्वयेन च । प्रकीर्णकान्तरं बोध्यं तस्यामेव प्रकीर्तितम् ॥२३९॥ सहस्राणि तु चत्वारि तच्चत्वारि शतानि च । योजनानि समस्तानि नवतिश्व नवोत्तरा ॥ २४० ॥ धनुःशतानि पञ्चैव पञ्चम्यामिन्द्र केष्विदम् । भेदान्तरप्रपञ्चज्ञैरन्तरं प्रतिपादितम् ॥ २४१ ॥ सहस्राणि च चत्वारि श्रेण्यां तावच्छतानि च । अष्टानवति नन्वेतत् षट्सहस्रधनूंषि च ॥ २४२ ॥ तच्चत्वारि सहस्राणि शतान्यपि च सप्तभिः । नवतिः शेषके चापपञ्चवष्टिशतानि च ॥ २४३ ॥ सहस्राणि च षट्षष्ट्यां शतानि नव चाष्टभिः । नवतिः पञ्चञ्चाशद्धनुः शतयतीन्द्र के ॥ २४४ ॥ तावन्त्येव भवन्त्यस्यां योजनानि तदन्तरम् । श्रेणीमद्वेषु वक्तव्यं द्विसहस्रधनुर्युतम् ||२३५|| सहस्राणि षडेवास्यां नवतिश्च पटुत्तरा । शतानि जब सप्तत्या शेषे पञ्चधनुःशती ॥ २४६ ॥ ऊर्ध्वास्त्रिसहस्राणि नवतिश्च नवोत्तरा । शतानि नव गव्यूतिः सप्तम्यामिन्द्रकान्तरम् ॥२४७॥ श्रीमद्धान्तरं चास्यां योजनानि भवन्ति हि । गव्यूतेश्व त्रिभागेन तावन्त्येवेति निश्चयः ॥ २४८॥ दशवर्षसहस्राणि नारकाणां लघुस्थितिः । सीमन्तके विनिर्दिष्टा नवतिस्तु परा स्थितिः ॥ २४२॥
भी पारस्परिक अन्तर उतना हो अर्थात् दो हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और तीन सौ धनुष है ||२३२|| तीसरी पृथिवी में इन्द्रक विलोंका विस्तार बत्तीस सौ योजन और पैंतीस सो धनुष प्रमाण है ।। २३३ ॥ श्रेणीगत विलोंका अन्तर विद्वानोंने बत्तीस सौ योजन और दो हजार धनुष बतलाया है || २३४|| तथा प्रकीर्णंकों का अन्तर बत्तीस सौ अड़तालीस योजन और पचपन सौ धनुष कहा है || २३५ || चोथो पृथिवीमें इन्द्रकविलोंका विस्तार छत्तीस सौ पैंसठ योजन और पचहत्तर सो धनुष प्रमाण है || २३६ || श्रेणिबद्ध विलोंका अन्तर छत्तीस सौ पैंसठ योजन, पचहत्तर सौ धनुष और एक धनुषके नौ भागों में से पाँच भाग प्रमाण है ॥ २३७॥ तथा प्रकीर्णक विलोंका विस्तार छत्तीस सौ चौंसठ योजन, सतहत्तर सो वाईस धनुष और एक धनुषके नी भागों में दो भाग प्रमाण है ।। २३८- २३९ ।। पाँचवीं पृथिवीके इन्द्रक विलोंका अन्तर भेद तथा अन्तरोंका विस्तार जाननेवाले आचार्योंने चार हजार चार सौ निन्यानबे योजन और पाँच सौ धनुष बतलाया है || २४०-२४१ ॥ श्रेणिबद्ध विलों का अन्तर चार हजार चार सौ अंठानबे योजन और छह हजार धनुष है ॥ २४२॥ तथा प्रकीर्णक विलोंका अन्तर चार हजार चार सौ सन्तानबे योजन और छह हजार पाँच सौ धनुष है ।। २४३ || छठी पृथिवीके सो अंठानबे योजन और पचपन सो धनुष प्रमाण है || २४४ श्रेणिबद्ध बिलोंका अन्तर छह हजार नौ सौ अंठानबे योजन और दो हजार धनुष है || २४५ || तथा प्रकीर्णक विलोंका अन्तर छह हजार नौ सौ छियानबे योजन और सात हजार पाँच सौ धनुष है || २४६ || सातवीं पृथिवीमें इन्द्रक विलका अन्तर ऊपर-नीचे तीन हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और एक गव्यूति अर्थात् दो कोश प्रमाण है || २४७ || तथा इसी सातवीं पृथिवीं में श्रेणिबद्ध विलोंका अन्तर तीन हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और एक कोशके तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ऐसा निश्चय है || २४८ ॥ अब सातों पृथिवियों में जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुका वर्णन करते हैं- पहली पृथिवीके
इन्द्रक विलोंका अन्तर छह हजार नौ
||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org