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चतुर्थः सर्गः केवलैव तु लक्षका योजनानां प्रकीर्तितः । अप्रतिष्ठानविस्तारो वस्तुविस्तरवेदिमिः ॥२१७।। इन्द्रकेषु च बाहुल्यं धर्मायां क्रोश एव च । श्रेणिवेषु स सत्यशो द्वौ सव्यंशौ प्रकीर्णके ।।२१।। क्रोशः सार्धस्तु वंशायामिन्द्रकेषु तदीरितम् । श्रेजीगतेषु तु कोशौ त्रयः सार्धाः प्रकीर्णके ॥२१९।। मेघायाभिन्द्र कपूक्तं बाहुल्यं कोशयोयम् । स द्विव्यं तच्छण्यां संयुक्त तत्प्रकीणके ॥२२॥ साधी द्वाविन्द्ववेती चतयां शकस्त्रयः। श्रेण्यांकन केष्वेते षड्भागैः पञ्च पञ्चभिः ॥२२१।। इन्द्रकेपु वयः क्रोशाश्वत्वारः श्रेयुपाश्रयः । स प्रकीर्णकेष्वेते पञ्चम्यामुपवर्णिताः ॥२२२।। सार्धाः षष्ठ्यां त्रयः क्रोशा इन्द्रकै श्रेण्युपाश्रिताः। चत्वारस्वयंश काटौते पदभागाः प्रकीर्णके ॥२२३।। सप्तम्यामप्रतिघाने चत्वारस्ते समुच्छुधाः । श्रेणिबद्धेषु पचव सत्रिभागाः प्रकीर्तिताः ॥२२४॥ योजनानां चतःषष्टिः शतानि प्रथम क्षिती: जतिन वलयका कोरगोश्वयं तथा ॥२२५।। बोगद्वादशभागाश्च तथैकादशापरे । इन्द्रकाणामिदं शेयकमा मदरं बुधैः ॥२२६।। चतापष्टिशतान्येव नवतिश्च नवोत्तरा । श्रेणीगतान्तरं क्रोशी मापनाशकाः ।।२२७।। नवतिर्नव चैतानि चतुःपष्टिशतानि तत् । कोशाः सप्तदशारोगा कोशपत्रिंशदंशकाः ॥२२॥ इन्द्रकाणां द्वितीयायां पृथिव्यां तु पृथुश्रुताः । तद्योजनशतान्याहुरेकान्नत्रिपदन्तरम् ॥२२९।। नव मिश्च नवत्या च योजनैः सहितानि तु । चत्वारिंशच्छतैर्युका तथा सप्तधनुःशती ॥२३०।। तावन्त्येव च जायन्ते योजनान्यन्ययाऽनया। श्रोणिचद्धस्थितानां च या पदागिद्धनुःशती ॥२३॥
सातवीं पृथिवीमें केवल अप्रतिष्ठान नामका एक ही इन्द्रक है तथा वस्तुके विस्तारको जाननेवाले सर्वज्ञ देवने उसका विस्तार एक लाख योजन बतलाया है ।।२१७।।
घर्मा नामक पहली पृथिवीके इन्द्रक विलोंकी मुटाई एक कोश, श्रेणिबद्ध विलोंकी एक कोश तथा एक कोशके तीन भागों में एक भाग और प्रकीर्णक विलोंकी दो कोश तथा एक कोशके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ।।२१८।। दूसरी वंशा पृथिवीके इन्द्रक विलोंकी मुटाई डेढ़ कोश, श्रेणिबद्धोंकी दो कोश और प्रकीर्णकोंकी साढ़े तीन कोश है ।।२१९।। तीसरी मेघा पृथिवीके इन्द्रकोंकी मुटाई दो कोश, श्रेणिबद्धोंकी दो कोश और एक कोशके तीन भागोंमें दो भाग, तथा प्रकोणंकोंकी चार कोश और एक कोशके तीन भागोंमें दो भाग है ।।२२०|| चौथी अंजना पृथिवीके इन्द्रकों की मुटाई अढ़ाई कोश, श्रेणिबद्धोंकी तीन कोश और एक कोशके तीन भागोंमें एक भाग तथा प्रकीर्णकोंकी पाँच कोश और एक कोशके छह भागोंमें पाँच भाग है ।।२२१।। पाँचवीं अरिष्टा पथिवीके इन्द्रकोंको मटाई तीन कोश, श्रेणिबद्धोको चार और प्रकीर्णकोंको सात कोश है ॥२२२॥ छठी मघवी पृथिवीके इन्द्रकोंकी मुटाई साढ़े तीन कोश, श्रेणिबद्धों की चार कोश और एक कोशके तीन भागोंमें दो भाग तथा प्रकीर्णकोंकी आठ कोश और एक कोशके आठ भागोंमें छह भाग प्रमाण है ।।२२३।। एवं माधवी नामक सातवीं पृथिवीके अप्रतिष्ठान इन्द्रकको मुटाई चार कोश, श्रेणिबद्धोंकी पाँच कोश और एक कोशके तीन भागोंमें एक भाग है। सातवों पृथिवीमें प्रकीर्णक बिल नहीं है।।२२४।। अब विलोंका परस्पर अन्तर कहते हैं-प्रथम पृथिवीके इन्द्रक विलोंका अन्तर बुद्धिमान् पुरुषोंको चौंसठ सौ निन्यानबे योजन (छह हजार चार सौ निन्यानवे योजन) दो कोश और एक कोशके बारह भागोंमें-से ग्यारह भाग जानना चाहिए ।।२२५-२२६।। श्रेणिबद्ध विलोंका चौंसठ सौ निन्यानवे योजन दो कोश और एक कोशके नौ भागोंमें पांच भाग है ॥२२७॥ तथा प्रकीर्णक विलोंका अन्तर चौंसठ सौ निन्यानबे योजन दो कोश और एक कोशके छत्तीस भागों में सत्रह भाग प्रमाण है ।।२२८॥ द्वितीय पृथिवीके इन्द्रक विलोंका अन्तर बहुश्रुत विद्वानोंने दो हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और चार हजार सात सौ धनुष कहा है ।।२२२-२३०॥ श्रेणिबद्ध विलोंका अन्तर दो हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और तीन हजार छह सौ धनुष है ।।२३१।। एवं प्रकीर्णक विलोंका
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