Book Title: Adarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Krushnalal Varma
Publisher: Granthbhandar Mumbai
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002671/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ଓ7) - ନନ୍ତ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवल्लभ-ग्रंथ-सीरीज-ग्रंथ ८ वाँ । आदर्श जीवन | या आचार्य महाराज १००८ श्रीमद् विजयवल्लभ - सूरि-चरित्र | लेखक श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा. प्रकाशक ग्रंथभंडार, मादूँगा बाई 1 बंबई में ग्रंथ मिलने पतीग्रंथभंडार, हीराबाग, रंगने वीर संवत् २४५२. आत्म संवत् ३०. मूल्य साढ़े तीन रुपये. ( सर्व हक स्वाधीन ) _____ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक----- कृष्णलाल वर्मा. प्रोप्राइटर ग्रंथभंडार, लेडी हार्डिजरोड, माहूँगा, बंबई. रा. चिंतामण सखाराम देवळेद्वारा मुंबईवैभव प्रेस, सँडहर्स्ट रोड, सर्व्हेट्स ऑफ इंडिया सोसायटीज् बिल्डिंग्ज्, गिरगांव, मुंबई में पूर्वार्द्ध पेज ४९ से ५२० तक और उत्तरार्द्ध पेज ११३ से पेज २४० तक मुद्रित और ठक्कर अंबालाल विठ्ठलदासद्वारा लुहाणामित्र प्रेस, शियापुर बडोदेमें पूर्वार्द्ध पेज १ से ४८ तक और उत्तरार्द्ध पेज १ से ११२ तक मुद्रित. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा की लिखित पुस्तकें । स्वलिखित। अनुवादित। " १ आदर्श जीवन २ पुनरुत्थान ३ चंपा (अप्राप्य ) ४ दलजीतसिंह , ५ स्त्रीरत्न ६ बालविवाहका हृदयद्रावक दृश्य ( अप्राप्य ) ७ धर्म प्रचार (अप्राप्य ) ८ सुर सुंदरी ९ वीर हनुमान १० सच्चा बलिदान ११ तीर्थंकरचरित्रभूमिका १२ आदिनाथ चरित्र १३ अजितनाथचरित्र १४ रमाकान्त (अप्रकाशित) १५ बूढ़ेबाबाका व्याह ( अप्राप्य) १६ मनोरमा ( ,) १७ हिन्दी प्रवेश १८ महासती सीता १९ सती दमयन्ती २० अनन्तमती १ सूरीश्वर और सम्राट अकबर २ जनरामायण ३ अपूर्व आत्मत्याग ४ गृहिणी गौरव ५ सर्वोदय ६ स्वदेशी धर्म ७ गाँधीजीका बयान ८ तीन रत्न ९ पंचरत्न १० राजपथका पथिक ११ दरिद्रतासे बचनेका उपाय १२ सामायिक रहस्य (अप्रकाशित) १३ धर्मदेशना (,) १४ अकबरके दर्बारमें हीरविजय सूरि १५ पैंतीस बोल १६ पन्द्रहलाखपरपानी १७ भावनाबोध ( अप्रकाशित) १८ जैनदर्शन ( अप्राप्य ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण । स्वर्गीय युगप्रधान, आचार्य महाराज १००८ श्रीमद्विजयानंदमूरिजीके पादपद्मोंमें, पूज्यवर्य, जिस आत्माको आपने पदाश्रय देकर उन्नत्त बनाया, जिस । आत्माको योग्य समझ कर आपने अपने लगाये हुए बागीचेका माली नियत किया, जिस आत्माको आपने अपना असीम प्रेम के । देकर प्रेममूर्ति बनाया, जिस आत्माकी वाणीमें, आपने अपना । वाक्चातुर्य देकर, जादूका असर पैदा किया, जिस आत्माको आपने अपने अथाग परिश्रम द्वारा प्राप्त किये हुए ज्ञानका * कवच पहनाकर अजेय कर दिया, उसी आपके अनन्य भक्त, आपके नामपर प्राण न्योछावर * करने की हौस रखनेवाले, आपकी सरस्वती मंदिर बनानेकी अधूरी रही हुई इच्छाको पूर्ण करनेके लिए अपनी सारी शक्ति लगा देनेवाले, समस्त भारतमें आपके नामका डंका बजाने वाले, आपहीके समान जीवनभर ब्रह्मचर्य पालकर जप तपा है संयमसे रहनेवाले, ___ महान् नरकी जीवन-घटनाओंका संग्रह आपके पादपों में 1 अर्पण करता हूँ। चरण-चंचरीक कृष्णलाल वर्मा. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. १००८ न्यायाम्भोनिधितपगच्छाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरि ऊर्फ श्रीआत्मारामजी महाराज. जन्य सं १८९: अवसान संबत १९५३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) प्राक्कथन । हों सन्त जिस पथके पथिक, पावन परम वह पंथ है। आचरण ही उनका जगत् में पथ-प्रदर्शक ग्रंथ है ॥ जो जमानेकी आवश्यकताको समझकर, लोकोपकार करते हैं; लोगोंकी भलाईमें ही अपना जीवन बिताते हैं; जीवनका प्रत्येक श्वासोश्वास जिनका परोपकारके लिए होता है; प्रत्येक विचार जिनका दूसरोंको लाभ-आत्मलाभ-पहुँचानेके लिए होता है; जिनका जीवन सदा सत्यमय होता है; इन्द्रिय संयमका जो आचरणीय पाठ पढ़ाते हैं; रागद्वेषकी परिणति दूर हो और वीतरागभाव फैले इसी उद्देश्यसे जो जीवनकी प्रत्येक क्रिया करते हैं; वे महात्मा धन्य हैं, उनका जीवन सफल है और उन्हींका जीवन आदर्श जीवन है । ऐसे आदर्शजीवनसे जो शिक्षा मिलती है और हमारे जीवनमें जो परिवर्तन हो जाते हैं; वे सैकडों, हजारों उपदेशोंसे भी नहीं होते । इसी लिए भक्त तुलसीदासजी कह गये हैं एक घड़ी आधी घड़ी, आधीमें भी आध। तुलसी संगति साधुकी, कटे कोटि अपराध ___ यदि प्रत्यक्ष साधु-महात्माकी संगति नहीं मिले तो उनकी जीवन-कथा भी हमें अनेक अपराधोंसे छुड़ा सकती है। आज पाठकोंके हाथोंमें, ऐसे ही एक आदर्शजीवनको देते हमें बड़ी प्रसन्नता होती है । आशा है पाठक इस जीवनसे स्वयं लाभ उठायँगे और अपने इष्ट मित्रोंको भी उठानका अवसर देंगे। गये चौमासेमें अर्थात् सं० १९८१ के चौमासेमें १०८ पंन्यासजी महाराज .. श्रीललितविजयजी गणीने १००८ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) श्रीआचार्य महाराज श्रीविजयवल्लभ सरिजीका एक छोटासा जीवनचरित्र लिख देनेके लिए कहा । कारण जोधपुरसे निकलनेवाले 'ओसवाल' पत्रके संपादकने, कई बार पंन्यासजी महाराजसे आचार्यश्रीका चरित्र 'ओसवाल । पत्रमें प्रकाशित करानेके लिए लिखकर भेजनेकी, विनती की थी। पंन्यासजी महाराज इतने मीठे बोलनेवाले हैं और लोगोंके दिलोंको इतने अच्छे ढंगसे अपने करनेमें कर लेनेवाले हैं कि, मैं उसको बता नहीं सकता । मेरी इच्छा न होते हुए भी यंत्रचालित फोनोग्राफकी भाँति मैं बोल उठाः-" आप मुझे चरित्र सुनाइए, मैं लिख दूंगा।" ___आचार्यश्रीका चरित्र वैसे ही उत्तम है उस पर पंन्यासजी महाराजकी, वर्णन करनेकी शैली इतनी सुंदर थी कि मेरे हृदयमें आनच्छाकी जगह श्रद्धा उत्पन्न हो गई । जिस समय मैंने यह सुना कि, आपने कैसे मिलके चरबीवाले वस्त्रोंका, अधर्म समझ कर, त्याग किया, कैसे हजारों लाखों कीडोंके संहारसे बनते हुए रेशमके कपड्के व्यवहारको बंद करनेका उपदेश दिया, उपदेश ही नहीं उनका व्यवहार श्रावकोंसे बंद कराया, कैसे आपने गोरवाडकी शिक्षाविहीनविकट भूमिमें, विहार कर अनेक तरहके कष्ट सह, लोगोंके दिलोंमें शिक्षाप्रचार का बीज बोया, शिक्षाप्रचारके लिए लोगोंसे लाखों रुपये इकट्ठे करवाये, कैसे आपने अनेक स्थानोंमें श्रावकोंके आपसी विवाद मिटाये, कैसे आपने जमानेके अनुसार पश्चिमी सभ्यतामें बहकर धर्मसे विमुख बनते हुए युवकोंको धर्ममें स्थिर रखनेके लिए संस्थाएँ स्थापित कराई आदि; तब मेरे हृदयमें भक्तिभाव उत्पन्न हो गये । मैंने छोटासा चरित्र लिख देनेकी बात छोड़ दी और एक बृहद् चरित्र लिखकर प्रकाशित करानेका विचार कर लिया। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ग ) उसी समय से मैं सम्पूर्ण चरित्र लिखनेके लिए सामग्री इकट्ठी करमें लगा । कारण पंन्यासजी महाराजको भी चरित्र मालूम नहीं था, तो भी मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि, चरित्र लिखनेके लिए सामग्री जुटा देनेकी सहायता पूर्ण रूपसे पंन्यासजी महाराज ललितविजयजीने ही दी है । इस लिए मैं उनका अत्यंत कृतज्ञ हूँ । १०८ उपाध्यायजी महाराज श्री सोहनविजयजी से प्रार्थना करने पर उन्होंने स्वतंत्र रूपसे, जितना हाल उन्हें मालूम था, उतना लिख भेजनेका कष्ट उठाया इस लिए उनके प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । १०८ पंन्यासजी महाराज श्रीउमंगविजयजी गणी, मुनिश्री प्रभाविजयजी महाराज, मुनि श्रीचरणविजयजी महाराज, और होशियारपुरके लाला नानकचंदजीका भी उपकार मानता हूँ कि जिनके द्वारा मुझे अनेक बातें मालूम हुई हैं । 'आत्मानंद जैनपत्रिका ' लाहोर ( हिन्दी ) और 'श्रीआत्मानंदप्रकाश' भावनगर (गुजराती) के संपादकों का भी उपकार मानता हूँ । क्योंकि पुराने बहुतसे हालात इन्हीं पत्रोंकी पुरानी फाइलोंसे मुझे मालूम हुए हैं । इनके अलावा उन सज्जनोंका भी उपकार मानता हूँ जिनसे कुछ बातें मालूम हुई हैं; परन्तु जिनके नाम मुझे याद नहीं रहे हैं । इसमें एक दो घटनाएँ ऐसी छोड़ दी गई हैं, जो यद्यपि आपके चरित्रको महिमान्वित करने वाली थीं, किन्तु दूसरोंके हृदयोंमें दु:ख पहुँचाने वाली थीं । मैंने लिखते समय इस बातका खास ध्यान रक्खा है कि, कोई ऐसी बात न लिखी जाय जिससे किसीका मन दुखे; तो भी छद्मस्थावस्थाके कारण किसीको किसी बातसे दुःख पहुँचे तो । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) उसके लिए 'मिच्छामि दुक्कड' देता हूँ। किसीका मन दुखानेका इरादा बिल्कुल ही नहीं है। . इसमें 'आप' शब्दका प्रयोग सिर्फ इस चरित्रके नायकके लिए ही किया गया है औरोंके लिए नहीं । इससे किसीको यह खयाल न करना चाहिए कि, दूसरोंके लिए 'आप' शब्द न लिखकर उनका अपमान किया गया है। अनेकोंके लिए 'आप' शब्दका उपयोग करनेसे समझनेमें गड़बड़ी होनेकी संभावना थी। चरित्र स्वतंत्र रूपसे लिखा और प्रकाशित कराया जा रहा है। इसमें किसीसे किसी तरहकी आर्थिक सहायता धर्मके या गुरुभक्तिके नामसे नहीं ली गई है। हाँ पहलेसे ग्राहक बनानेका प्रयत्न अवश्य मेव किया गया है। और जिन सज्जनोंने पहलेसे ग्राहक होकर मुझे उत्साहित किया है उनका उपकार मानता हूँ। महावीर जैनविद्यालयके संचालकोंसे पाँच ब्लॉक छापनेके लिए मिले इस लिए उनका भी उपकार मानता हूँ। अनेक परिस्थितियोंके कारण चरित्रको मैं जिस रूपमें पाठकोंके सामने रखना चाहता था उस रूपमें न रख सका, इसका मुझे खेद है; मगर जिस रूपमें पाठकोंके सामने आ रहा है वह भी उत्तम है और भक्तोंकी मनस्तुष्टिके लिए सम्पूर्ण है। पूजा और पदवीप्रधानका वर्णन लाहोरवालोंका प्रकाशित ही हुबहू दे दिया है भाषाभाव सभी उसीमेंके हैं। इस चरित्रमें केवल लाहोरके चौमासे तकका ही वर्णन है। आगेकी बातें फिर कभी पाठकोंको भेट की जायेंगी। भूलचूकके लिए क्षमा प्रार्थी, जैनत्वका सेवक - कृष्णलाल वर्मा। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. हमारे चरित्रनायक. मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन पूर्वाई। * बहुत प्रयत्न करनेपर भी हमें चरित्रनायकका दीक्षासे पहलेवाला और अजमेरवाला फोटो न मिल सका, पाठक क्षमा करें। प्रकाशक. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन प्रथम खंड | धकेल रहे थे । इस ( सं. १९२७ से सं. १९४४ तक ) बड़ोदेके जानीसेरीका उपाश्रय नरनारियोंसे भरा हुआ थ महात्माकी जलद गंभीर वाणीका श्रवण करनेके लिए लोग आगे बैठने का प्रयत्न करने में एक दूसरेको धकापेलमें लोगों की उपदेशामृत की बहुत ही थोड़ी बूँदें पान करनेको मिल रही थीं। ऐसे समय में भी एक दीवार के सहारे एक १५ वर्षीय बालक एकाग्रचित्तसे उस अमृत वाणीका पान कर रहा था । उसकी आँखें महात्माके भव्य तेजोदीप्त मुख मंडल पर स्थिर थीं और उसके कान अस्खलित भावसे उस अमृतको पीकर अपने अन्तस्थल में पहुँचा रहे थे और वहाँसे अनन्त जीवनके बद्ध कर्म मलको, उस अमृतद्वारा ढीलाकर, बाहर फेंक देनेका यत्न कर रहे थे । व्याख्यान समाप्त हुआ । श्रोता लोग महात्माको वंदना कर, एक एक करके अपने घर चले गये, मगर वह बालक उसी तरह स्थिर बैठा रहा । महात्माने पूछा :- " बालक क्यों बैठे हो ? ” Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । wwww---- - बालक चौंक पड़ा। उसके सुख स्वप्नकी सुंदर मूर्तिके निर्माणमें वाधा पड़ गई। उसके नेत्रोंमें जल भर आया । उससे उठा न गया । वह करुणा पूर्ण दृष्टिसे महात्माकी ओर देखता रह गया । उस दृष्टिने महात्माके हृदय पर गहरा असर किया । वे उठे; बालकके पास गये और पितृप्रेमसे उसके मस्तक पर हाथ रखकर बोले:-" वत्स ! इस तरह क्यों बैठा बालकने महात्माके दोनों पैर पकड़ लिए। उसकी आँखोंसे जलधारा बह चली। जुबानसे शब्द न निकले। दोनों पैर वाष्पोष्ण वारिसे परिप्लावित हो गये । महात्मा बालकको उठानेका प्रयत्न करते हुए स्नेह गद्गद कण्ठसे बोले:-" भद्र ! क्या दुख है ? धन चाहता है ?" बालक पैर छोड़ उठ खड़ा हुआ और आँखें पौंछते हुए बोला:-" हाँ, महात्मा:-" कितना" बालकः-“ गिन्ती मैं नहीं बता सकता।" म०-" अच्छा किसीको आने दे।" बा०-" नहीं मैं आपहीसे लेना चाहता हूँ।" म.-" हम पैसा टका नहीं रखते।" बा०-“ मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है । वह तो विनश्वर है।" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । महात्माने कुतूहलके साथ पूछा:-" तब कौनसा धन चाहता है ? "" (6 "" बालक, वह धन जिससे अनन्त सुख मिले । -- महात्माको बालक बुद्धिकौशल पर आश्चर्य हुआ । उन्होंने ध्यान से बालकके चहरेकी ओर देखा । ललाट पर भावी जीवनकी उज्ज्वल रेखाएँ दिखाई दीं । उन्होंने देखा, - इस महान आत्माद्वारा समाजका कल्याण होगा; इसके द्वारा धर्मका उद्योत होगा; इसके द्वारा शासनकी प्रभावना होगी। महात्मा बोले, - वत्स ! योग्य समय पर तेरी मनोकामना पूरी होगी । .<< 99 बालकका मुखकमल आनंदसे खिल उठा । भक्तिपूर्ण हृदयसे महात्माको नमस्कार कर वह धीरे धीरे चला गया । X X हमारे इस चरित्र नायक ही यह बालक था और महात्मा थे जगत्पूज्य श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरिजी महाराज । हमारे चरित्र नायकका जन्म बड़ोदेमें, सं० १९२७ के कार्तिक सुदी २ ( भाईदूज ) के दिन हुआ था । आपका गृस्थावस्या में नाम छगनलाल था । आपके चार भाई थे । सबसे I आप ( छगनलाल ) और बड़े हीराचंद, दूसरे खीमचंद तीसरे -सबसे छोटा मगनलाल । आपके तीन बहिनें थीं। उनके नाम X Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । - - - थे महालक्ष्मी, जमुना और रुक्मणी; पिताका नाम श्रीयुत दीपचंदभाई था और उनका देहान्त आप जब छोटी उम्र में थे तभी हो गया था। आपकी माता श्रीमती इच्छाबाई आपसे बहुत ही ज्यादा स्नेह रखती थीं। धर्मात्मा भी अपने शहर में अद्वितीय थीं । अपनी धर्मभावनाओंका सारा ख़ज़ाना वे अपने स्नेहभाजन इसी पुत्रको दे गई थीं। इच्छाबाईका अन्त समय निकट था । मनुष्य--आयुरूपी कर्म-रज्जूका एक एक तार वेगपूर्वक प्रत्येक श्वासोश्वासके साथ टूटता जा रहा था । धर्मात्मा देवी बड़ी कठिनताके साथ शब्दोच्चार कर सकती थीं। जिस समय उनके मुँहसे शब्द निकलता 'अहंत ' । प्यारी सन्तान सामने विलखका रो रही थी। स्वजन सम्बंधी व्याकुलतासे देवीकी ओर देख रहे थे। देवी सबको हाथ उठाकर अपनी अन्तिम अवस्थामें भी आश्वासन दे रही थीं और मुखसे अहंत शब्दका उच्चारण कर रही थी। इस शब्दोच्चार और स्वाभाविक शान्तिसे जो आश्वासन मिलता था वह संभवतः अनेक व्याख्यानों और उपदेशोंसे भी नहीं मिल सकता था। देवी थोड़ी देर हमारे चरित्रनायककी ओर स्थिर दृष्टिसे देखती रहीं और बोलीं,-" छगन ! तू भी इतना दुर्बल ? " ___ आप अबतक धीरे धीरे आँसू बहा रहे थे अब अपने आपको न सम्भाल सके उच्च स्वरमें करुणकंदन करने लगे । कुछ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । शान्त होने पर डसूके भरते बोले,-" माँ ! हमें किसके भरोसे छोड़ जाती हो ? " ___माँके हृदय में मोहकी एक आँधी उठी । सन्तान-स्नेहके तूफान में धार्मिक ज्ञानके कारण शान्त बना हुआ चित्त क्षुब्ध हो उठा । प्रसन्नतापूर्ण चहरे पर म्लानता दिखाई दी। आँखों में पानी भर आया । एक दीर्घ निःश्वास डालकर बोली:-“अहंत !" इस निःश्वासके साथ ही मानों सारी क्षुब्धता निकल गई। चहरेपर. फिरसे प्रसन्नता दिखाई दी । वे बोली:-" छगन ! " इस शब्दने हमारे चरित्र नायकको सजग किया। बचपनसे माता संसारकी असारताके जो उपदेश दिया करती थीं वे एक एक करके आपकी आँखोंके सामने खड़े होने लगे। अविनाशी आत्माकी भावना, विनाशी पुद्गल धर्मके विचार, कर्मोदयके कारण होनेवाला संसारके परिवर्तनका खयाल सभी आपको स्थिर करने लगे । आपने माताके संबोधनका अर्थ समझा, आँखें पौंछ डालीं और पूछा:-" माँ क्या आज्ञा है ? " - माता स्नेहगद्गद स्वर में बोली:-" बेटा ! अविनाशी सुखधाममें पहुँचानेवाले धनको प्राप्त करने और जगत्का कल्याण करने में अपना जीवन बिताना ।" - माताने एक निःश्वास छोड़ी; अहंत शब्दका उच्चारण किया और उसके साथ ही उनका जीवनहंस भी उड़ गया । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । - उसी समयसे आप माताकी आज्ञाका पालन कैसे हो इसकी चिन्तामें रहते थे। आप में सामान्य बालकोंसा न खिलाड़ीपन था न उधम । एक गंभीर शान्तिसे आप अपने दिन निकालते थे । आपकी इस गंभीरताको देखकर लोग आपके विषयमें तरह तरहके अनुमान बाँधा करते थे। सं० १९४० की बात है। श्रीआत्मारामजी महाराजके सिंघाडेके साधु मुनिराज श्रीचंद्रविजयजी महाराजका चौमासा, बड़ोदेमें, पीपलासेरीके दर्वाजे पर हुआ था। हमारे चरित्रनायकका घर भी पीपलासेरीहीमें था । इसलिए आप प्रायः चंद्रविजयजी महाराजके पाप्त आया जाया करते थे । पूर्वजन्मके सुकृत, माताके जीवनव्यापी धर्मोपदेश और साधु महाराजकी संगति तीनोंने मिलकर आपके मनको संसारसे उदास किया; आपके हृदयमें दीक्षा लेने की इच्छा हुई । दूसरे चार साथियोंने आपके साथ ही दीक्षित होनेका विचार प्रदर्शित कर इस इच्छाको कार्यके रूपमें परिणत करनेके लिए आपको दृढ बना दिया। वे चार साथी थे,-हरिलाल, साँकलचंद खूबचंद खंभाती,. वाडीलाल लालभाई गाँधी और मगनलाल मास्तर । मगनलाल अंग्रेजीका अध्ययन करते थे और अनेक प्रकारकी सांसारिक उच्च आशाएँ रखते थे; उन्हें उनसे छूटना था। वाडीलाल विवाहित थे और उन्हें पत्नीके मोह-पिंजरेसे निकल भागना था; हरिलाल जौहरी हीराचंद ईश्वरदासके यहाँ रहते थे लोग उनको 'सूबा' Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । . - ~ कहकर पुकारते थे । उनके एक वृद्ध माता थी । उसका आधार वेही थे। उन्हें वृद्ध माताको त्याग करना पड़ता था । तीनोंके हृदयोंमें द्वंद्व मचा हुआ था; वैराग्य और बंधनमें युद्ध हो रहा था, मगर बाहर वे पक्का वैराग्य ही दिखाते थे। __ पाँचोंने मिलकर एक दिन घरसे निकलनाना निश्चित किया। तारीख और समय मुकर्रर हुए। हरिलालके वैराग्यने सबसे पहले हार खाई। उसने किप्सीके द्वारा पाँचोंके अभिभावकों को खबर दे दी। उनकी सलाह निष्फल गई । उनके संरक्षकोंने उन्हें कहीं जाने न दिया । कुछ समयके बाद श्रीचंद्रविजयजी महाराजका भी स्वर्गवास हो गया। इसलिए सबके वैराग्य शान्त हो गये। सभीने फिरसे विद्याध्ययनमें चित्त लगाया। __ आपने भी छठी क्लाप्तका इम्तहान दिया और सफलता पाई। जब आप सातवीं क्लासमें पढ़ते थे परीक्षाका समय पास था, तब वि० सं० १९४२ था । उसी साल स्वर्गीय १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरिजी महाराका बड़ोदेमें आगमन हुआ। आपकी सोईहुई भावना फिर जागृत हुई और एक दिन जो घटना हुई उसका वणन हमने पुस्तकके आरंभहीमें दे दिया है। एक महीने तक महाराज साहबका यहाँ बिराजना हुआ। फिर विहार करके छाणी पधारे । अनेक श्रावक छाणी तक गये । आप भी अपने बड़े भाई खीमचंद्रजीके साथ छाणी गये । आपकी ईच्छा वापिस बड़ोदे आनेकी न थी। मगर भाईके डरके मारे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । कुछ बोल न सके । चुपचाप भाईके साथ ही बड़ोदे लौट आये । यद्यपि महाराज साहब विहार कर गये थे तथापि उनके शिष्य मुनिराज श्रीहर्षविजयजी महाराज वहीं थे। दो तीन साधु बीमार हो गये थे इसलिए उनकी सेवाशुश्रूषा करनेके लिए आचार्य महाराज उन्हें छोड़ गये थे । इसलिए व्याख्यान सुननेके लिए नियमित रूपसे आप जाते रहते थे। मुनि श्रीहर्षविजयजी महाराजके उपदेश बालजीवोंके साध्य मोहरोगको नष्ट करनेके लिए रसायन थे । इसलिए रातके समय भी अनेक भव्य जीव उनके पास आया करते थे। आप भी जाया करते थे। एक दिन आपके सिवा अन्य कोई श्रावक नहीं आया था। मौका देख आपने अपने हृदयकी भावना कही। उन्होंने इस भावनाको पल्लवित किया और समय पर दीक्षा दिलानेका भी आश्वासन दिया । - एक महीनेके बाद उनका भी वहाँसे विहार हुआ। अपने भाईके साथ आप भी उनके साथ छाणी गये। मुनि श्रीहर्षविजयजी महाराजके उपदेशसे और संगसे आपके हृदयमें कुछ विशेष निर्भयता आमई थी । इसलिए आपने भाईसे कहाः" कल स्कूलकी छुट्टी है, इसलिए यदि आप इजाजत दे तो मैं महाराज साहबके साथ अगले गाँवतक विहार में जाऊँ। कलशामको घर पहुँच जाऊँगा।" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । - • माईके दिलमें अब अगला संदेह बाकी नहीं रहा था; क्योंकि आप नियमित रूपसे सभी काम किया करते थे; इसलिए उन्होंने प्रसन्नतासे इजाजत दे दी। वे खुद घर चले गये। __ आपके लिये यह स्वाधीनताका पहला दिन था। आपने मुनि महाराज श्रीहर्षविजयजीके साथ जी खोलकर बातें की और निश्चय किया कि, अपने आप वापिस घर न जाऊँगा । यदि भाई साहब आयेंगे तो जैसा मौका होगा किया जायगा । आप मुनिराजोंके साथ अहमदाबाद पहुँचे। उसी दिन आपके भाई खीमचंदनी बाहर ही आमिले। दो चार चपत लगाये कान पकडकर आगे किया । आप रोते धोते भाईके साथ घर चले गये। इस बार पूरी देखरेख होने लगी । एक क्षणके लिए भी आप अकेले नहीं रह सकते थे। इच्छा न रहने पर भी नियमित रूपसे स्कूल जाना पड़ता था। आ के भाई अपने साथ ले जा कर स्कूल मास्टरके सिपुर्द कर आते थे; उसे सावधान कर आते थे और शामको छुट्टी होते ही वापिस स्कूल आकर ले जाते थे। पहले कभी बाहरकी हवा न लगी थी, इसलिए आप अपने भाईसे बहुत ज्यादा डरते थे; कहीं बाहर निकलनेका साहस भी नहीं होता था । अब बाहरकी हवा खा चुके . थे; कर्मरोगके Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - जीवन । वैद्योंकी संगति में रह चुके थे इसलिए आपके हृदयसे भय बहुत कुछ निकल गया था । तो भी भाईके सामने बोलनेका हौसला नहीं पड़ता था । एक तरफ भाईका प्रबंध था दूसरी तरफ आप निकल भागनेका अवसर देखते थे । एक दिन अवसर मिल गया । छुट्टीका दिन था । देखरेख करनेवाला कोई नहीं था । इसलिए आप घर से यह कहकर रवाना हुए कि दुकान पर जाता हूँ | रवाना हुए मगर सीधे बाजारके रस्ते होकर जाना कठिन था; क्योंकि बाजार में खीमचंदभाई अपनी दुकान पर बैठे थे । सिंहके सामनेसे बकरीका भागना जितना कठिन है उतना ही आपके लिए खीमचंदभाईके सामनेसे होकर चला जाना था । अतः अपने जंगलका रस्ता लिया । गरमीका मोसिम था । अष्टमीका दिन था । आपने एकासन किया था । पैरों में जूते न थे । जमीन आगकी तरह तप रही थी । उसी जमीनमें आप धुन लगाये चले जा रहे थे । प्यासके मारे हलक सूखने लगा; पैरोंमें जल जल कर छाले पड़ने लगे; मगर आपका इस ओर ध्यान नहीं था । आप तो इस जेलखानेसे आत्माको सदाके लिए मुक्त करनेकी धुन थे; वैराग्यका प्रेमी भला इन शरीरके कष्टों की क्या परवाह करने लगा था ? वैराग्य इसीको कहते हैं । कवि दाग कहते हैं— कमाल इश्क है ए दाग़ महव हो जाना; मुझे ख़बर नहीं नफा क्या जरर कैसा । १० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । स्टेशन पर पहुँचकर आपने अहमदाबादका टिकिट लिया। दिनभर प्रासुक पानी न मिलनेसे जी बड़ा बेचैन रहा। जीवनमें आजका दिन सबसे पहला था कि, आपको परिसहका अनुभवजन्य ज्ञान हुआ; आजतक साधुओंके परिसह सहनकी केवल बातें पढ़ा और सुना करते थे; आज आपको विदित हुआ कि, परिसह कैसे सहा जाता है और मनको अधिकारमें रखनेके लिए कितनी कठिनताका सामना करना पड़ता है। - ... शामको अहमदाबाद पहुँचे । प्यास बुझानेके लिए आप सीधे सेठ भूराभाईके घर पहुँचे । इनका घर आपने पहली बार आये थे तब देख रक्खा था । इनके घर हमेशा प्रासुक पानी रहा करता था और उस दिन तो खास अष्टमी थी। जाते ही पानी मिल गया । पानी पी कर मन शान्त हुआ । वहाँ कुछ. क्षण बातचीत कर आप मुनि महाराजके पास गये । स्वर्गीय १००८ श्री आत्मारामजी महाराज अपनी शिष्यमंडली सहित प्रतिक्रमण करनेकी तैयारी कर रहे थे। आपने जाकर वंदना की। महाराज बोले:-" ले * भाई छगन आ गया । वैराग्यमें पूरा रंग गया है। धर्मकी इसके कारण बहुत * मुनि श्रीहर्षविजयजी महाराजको सब साधु भाईजी महाराज कहा करते थे; इस लिए सूरिजी महाराज भी आपको कई बार भाई ही कहा करते थे। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । mmar-rrrrrrn - प्रभावना होगी। यह मेरी भविष्य वाणी रही।" आपने यथाक्रम सबको वंदना की । रात आनंदसे बीती। . दूसरे दिन जब आप भोजन करके वापिस लौटे तो सामने खीमचंदभाई खडे दिखाई दिये । आपके तो हाथके तोते उड़ गये; आनंद विषादमें परिवर्तन हो गया । हँसते हुए चहरे पर उदासीकी छाया आ पड़ी। आप बड़े चक्करमें पड़े। सांसारिक विवेक कहता था कि जिन्होंने तुझे पाला पोसा पढ़ा लिखाकर इतना बड़ा किया उन्हींका दिल दुखानेकी धृष्टता करता है ! वैराग्य कहता था,-ये सब खयालात फिजूल हैं । जीव कर्माधीन है । सांसारिक भलाई बुराई कर्मोंके रचे हुए आडंबर हैं । जब तक जीव इनमें फँसा रहता है तबतक उसे अपनी भलाईका खयाल नहीं होता । इसलिए संसारके जंजालसे छूटनेका यत्न कर । इस कर्मके जालमें न फँस । मगर खीमचंद भाईने आपको इस झंझटसे क्षणभरके लिए बचा दिया । वे ठहरे वणिक् | कहावत प्रसिद्ध है वणिग्गेहे च धर्तता' उसीसे उन्होंने अपना काम निकाला । उन्होंने निराशा व्यंजक करुण स्वरमें सूरिजी महारानसे अर्ज की,-" महाराज ! आप ज्ञानी छो! हुं मूर्ख आपने वधारे शुं कहुं ? छगन नासीने आपनी पासे आव्यो छे । एनी मरनी हशे तो हुं ना नथी कहेतो । घणी खुशीथी ए संयम ले । पण हाल एनी उमर बहुन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषर्श-जीवन । manuman.ru न्हानी छे । आप एने दीक्षा आपवामां उतावळ न करशो । हाल एने भणावो । पछी ज्यारे ए मोटो थाय अने आपने योग्य लागे त्यारे मने फरमावशो। हुं पोते आवीने बहु आनंदनी साथे एने दीक्षा अपावीश ।" . खीमचंदभाईकी बातें सुनकर सभी साधु प्रसन्न हुए। किसीने इन्हें भव्यजीव, किसीने, उदार, किसीने सरल हृदयी और किसीने धर्मपरायण बताया । आपने भी आनंदोल्लासके साथ ये बातें सुनीं । ऐसा मालूम हुआ मानों स्वर्गका राज्य मिल गया है। सूरिजी महाराजने कहाः—" जैसा तुम कहते हो वैसा ही होगा । तुम बेफिकर रहो। मगर साधुओंके सामने मिथ्या बोलनेसे बचना । ” फिर आपकी तरफ़ मुखातिब होकर कहाः" छगन ! तुमने अपने भाईकी बातें सुन लीं न ? शान्ति और धैर्यके साथ विद्याध्ययन करना होगा । दीक्षा तभी मिलेगी जब तुम्हारे बड़े भाई इजाजत देंगे ।" आपको तो विश्वास हो गया था कि, अब मेरी दीक्षामें कोई विघ्न नहीं आयगा इसलिए आप प्रसन्नतासे बोले:-" मैं आपके चरणोंमें रहकर विद्याध्ययन और संयम साधनेका अभ्यास कर सकूँगा। अभी मेरे लिए इतनाही बस है । जब आप और भाई मुझे योग्य देखें तभी दीक्षा दें, दिलावें । मेरा हृदय संसारके बंधनोंसे छूटनेके लिए तड़पता था सो आज मेरी वह तड़प मिट. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । खीमचंदभाई प्रसन्न होकर उठे । आपको दो चार उपदेश देकर अपने घर बड़ोदे चले गये । खीमचंदभाईके हृदयको कोई भी न पहचान सका । किस तरकीबसे वे अपना अभिप्राय सिद्ध कर गये, इस बात का किसीको विचारतक न आया । वे समझते थे कि, अहमदाबाद बड़ा शहर है। यहाँ यदि कुछ गड़बड़ी करूँगा तो छगन कहीं जाकर छिप जायगा और उसे वापिस ढूँढ लाना असाध्य हो जायगा । साधु यहीं तों रहेंगे ही नहीं। जब ये छोटे गाँवमें विहार कर पहुंचेंगे तभी छगनको पकड़ लेनाऊँगा । साधुओंके पास क्या अपने भाईको रहने दूंगा। 'कार्यदक्षो वणिक पुत्रः' के अनुसार अपना कार्य करके वे चले गये। खीमचंदभाईके एक मुनीम था। जातिका पाटीदार, नामथा भगवानदास । उसकी सुसराल अहमदाबादमें थी । खीमचंदभाई बडोदे जाते समय आपको देखते रहनेकी सूचना भगवानदासके सालेको देते गये । बड़ोदे जाकर भगवानदाससे अपनी सुसराल में एक पत्र लिखवा दिया। उसका आशय यह था कि,छगनको एक दो बार दिनमें देख आना और साधु किधर विहार करते हैं और छगन किनके साथ जाता है इस बातका खयाल रखना । विहार होते ही तारद्वारा सूचना देना । मुनीमका साला उपाश्रयमें आया। लोगोंने उसको आनेका Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । कारण पूछा । उसने जवाब दिया कि, मेरे बहनोईके सेठका साला यहाँ पढ़ता है। उसकी सार सम्भाल लेने और उसे किसी चीजकी जरूरत हो तो लादेनेके लिए आया हूँ। फिर किसीने उससे कोई बात न पूछी । वह रोज एक चक्कर लगा जाता । आप भी उससे अच्छे हिलमिल गये। उस समय अहमदाबादके नगरसेठ श्रीयुत प्रेमाभाई थे। वे बड़े धर्मात्मा और भव्य जीव थे । आत्मारामजी महाराजके प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। वे अक्सर कहा करते थे कि, मैंने आजतक सच्चा गीतार्थ यदि कोई देखा है तो वे आत्मारामजी महाराज ही हैं । वे बहुत वृद्ध थे । पचीस पचास कदम भी कठिनतासे चल सकते थे; तो भी आत्मारामजी महाराजके व्याख्यानमें हमेशा आते थे और नौकर उन्हें छोटीसी डोलीमें बिठाकर ऊपर, जीना चढ़ा, रख देते थे । दुपहर में भी वे हमेशा आते और एक दो सामायिक कर जाते । सामायिकमें वे महाराज साहबके साथ तत्वचर्चा किया करते । एक दिन इन्होंने आपको देखा । महाराज साहबसे दर्याफ्त किया। महाराज साहबने सारी बातें कह सुनाई। दूसरे दिन सेठ व्याख्यान सुनकर घर जाने लगे तब उन्होंने श्रीयुत नानचंद केवल नामके श्रावकको कहा कि, आज दुपहरमें Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । छगनको लेकर मेरे घर आना। श्रीयुत नानचंद अच्छे श्रद्धालु श्रावक थे । साधुओंके पूरे भक्त थे। नगरसेठके यहाँ अक्सर जाया आया करते थे । सेठकी इच्छानुसार नानचंदभाई आपको लेकर सेठके घर गये । सेटने आपसे पूछा:- "तुम साधु क्यों होना चाहते हो ?" आपने उत्तर दियाः-" आत्मकल्याणके लिए।" " तुम्हें किसीने बहकाया है ? " " नहीं।" "घरमें दुःख है ?" " नहीं।" सेठने इसी तरहकी अनेक बातें पूछीं। आपको डराया; लालच दिखाया, मगर आप अपनी भावना पर स्थिर रहे। सेठने एक जरीकी टोपी मँगाई और कहा:-" यह तुम पहनो; मुझे तुम्हारी सादी टोपी दे दो। मैं इसको बतौर यादगारके अपने संदूकमें रक्तूंगा।" आपने फर्माया:-"यदि आप इस टोपीको रखना चाहते हैं तो इसमें मेरी कोई हानि नहीं है। चार दिन बाद इसे उतारता चार दिन पहले ही आपके भेट कर जाऊँगा। मगर आपकी जरीकी टोपीका बोझा उठानेके लिए मुझसे न कहिए । सादी टोपीका बोझा उठानेमें भी असमर्थ, आपकी जरीकी टोपीका मार कसे सह सकूँगा ? Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। सेठ हँस पड़े और स्नेहसे सिरपर हाथ फिराते हुए बोले:"कल्याण हो बेटा ! तुम शासनको दिपाओगे और अपने कुलको उज्जवल करोगे।" __ आप वापिस लौट आये । आत्मारामजी महाराजने पूछाः" सेठके पास हो आया ? " ___हाँ साहब ।" कह कर आप एक और जा बैठे और पढ़ने में लीन हुए। ___दूसरे दिन सेठ आये। उन्होंने सारी बातें महाराज साहबको सुनाई और प्रसन्नता प्रकट की। महाराजने भी कहाः" सेठजी ! मैंने जिस दिनसे इसे देखा है उसी दिनसे मेरे हृदयमें भी ये ही भाव हैं । ऐसे जीवोंहीसे शासनकी ज्योति अखंड जागती रहेगी।" इसी वर्ष ( यानी सं. १९४२ में ) पालीताणेके राजाके साथ जैन श्रीसंघका जो मुकदमा चलता था उसका फैसला हुआ। सिद्धाचलजीकी यात्राके लिए जानेवालोंसे राजा जो मूडका (प्रत्येक व्यक्तिसे टेक्स ) लिया करता था वह बंद हुआ और तीर्थों तथा यात्रियोंकी हिफाजतके लिए जैनोंसे, राजाको पन्द्रह हजार रुपये सालाना दिलायाजाना नक्की हुआ । ..इस निमित्तसे बड़ोदेके सेठ गोकलभाई दुल्लभदास, भरोचके सेठ अनूपचंद मलूकचंद, सूरतके सेठ कल्याणभाई, धूलियाके ... 2 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन। %3 सेठ सखाराम दुल्लभदास और खंभातके सेठ पोपटभाई अमरचंद आदिने आकर आत्मारामजी महाराजसे विनती की कि यदि आप इस वर्ष पालीतानेहीमें चौमासा करेंगे तो बड़ा उपकार होगा। आपके वहाँ विराजनेसे अनेक जीवोंको विशेषरूपसे यात्राका और तीर्थ-भक्तिका लाभ होगा। आत्मारामजी महाराजने फर्माया:---... आपलोगोंका कहना ठीक है, मगर वहाँ साधुओंका निर्वाह कैसे हो सकता है ? यद्यपि कहनेको वहाँ श्रावकोंके पाँच सौ घर हैं तथापि साधु साध्वियोंके लिए तो पाँच भी कठिनतासे होंगे। ऐसी हालतमें चौमासा कैसे हो सकता है ? " पालीतानेकी उस वक्तकी हालतमें और इस वक्तकी हालतमें बहुत फर्क हो गया है। मगर जिन्होंने उस समयकी दशा देखी है वे जानते हैं कि, वहाँके श्रावक सभी गरीब थे। उनकी आजीविका यात्रियोंके आधार थी। इसके अलावा वे सभी यतियों-गोरजी के सेवक थे । बहुत समयसे वहाँके यतिनीने आनंदनी कल्याणजीकी पेढीमें भी अपना दखल जमा रक्खा था; इससे सभी श्रावक यतियोंसे डरते भी थे । यति लोग संवेगी साधुओंके साथ ऐसा सद्भाव नहीं रखते थे जैसा आज रखते हैं । इसलिए साधुओंको आहारपानी मिलना तो दूर रहा रह. नेको स्थान भी कठिनतासे मिलता था। ऐसी दशामें अनेक Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन | १९ कष्ट सहकर आत्मारामजी महाराजने वहाँ चौमासा किया था और भविष्य के साधुसाध्वियोंके लिए मार्ग निष्कंटक बना दिया था। कहा जाता है कि, सैकड़ों वर्षोंके बाद आत्मारामजी महाराजका ही चौमासा सबसे पहले इस परम प्रभाविक तीर्थ पर हुआ था और उन्हींने पालीतानेके श्रावकवर्ग में साधुभक्ति का बीज बोया था। उसके बाद अनेक मुनिराजोंके -- महाजनो येन गतःस पंथाः ' कहावत के अनुसार वहाँ चौमासे हुए हैं । अस्तु । श्रावकोंने विनती की, " यदि आप वहाँ चौमासा करना स्वीकार करें तो हम लोग भी सकुटुंब वहाँ चौमासेमें रहेंगे।" सेठ प्रेमाभाई और सेठ दलपतभाईने जो अहमदाबाद संघके मुखिया थे विनती की स्वीकार करनेका अनुग्रह करें। ठीक हो जायगा । ” “ आप इस प्रार्थनाको आपके पुण्यप्रतापसे सबकुछ " कि, - -- महाराजने फर्मायाः - " अच्छी बात है । ज्ञानीने जैसी स्पर्शना देखी होगी, वैसा ही होगा । " बाहर आये हुए श्रावकोंने प्रेमाभाई और दलपतभाई से कहा कि- " आप महाराज साहबका विहार पालीतानेकी तरफ ही करावें और पालीतानेकी तरफ विहार होनेपर हमें सूचना दें ताके हम वहाँ जानेकी तैयारी करें । " Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० आदर्श जीवन । - बाहर से आये हुए श्रावकलोग महाराजसे बार बार विनती करके अपने अपने घर चले गये । आत्मारामजी महाराजने अपने साधुओंकी सलाह माँगी । सबने प्रसन्नतापूर्वक पालीतानेमें चौमासा करनेकी सम्मति दी । I महाराजने फर्मायाः " इरादा बहुत अच्छा है । वहाँ जानेसे तीर्थसेवा, शासनसेवा, आत्मसाधन सभी कार्य सरलता से हो सकेंगे । पवित्र वातावरण में, प्रतिक्षण, अनायास ही, पवित्र और आत्मजागृतिकी भावनाएँ आती रहेंगी । जो श्रावक विनती कर गये हैं वे भी वहाँ अवेंगे और रहेंगे; उनके वहाँ रहने से वे आरंभ समारंभसे, छलकपटसे और व्यापार रोजगारसे होनेवाले पापात्रवसे मुक्त होंगे और ब्रह्मचर्यव्रतसे रहकर धर्मध्यानमें विशेषरूपसे अपने मनको लगासकेंगे। उन्हें भी लाभ है और हमें भी । उनके कारण हमें कठिनता कम पड़ेगी । तो भी मैं उनके ही भरोसे पालीताने में जाकर चौमासा करना नहीं चाहता । यदि आप लोगों में आत्मबल विकसित करनेके भाव हों ? धैर्यके साथ परिसह सहने की शक्ति हो और सभी तरहके उपद्रव, यदि हों, शान्ति के साथ सहनेका सामर्थ्य हो तो चलिए; हम लोग पालीतानेही में चौमासा करेंगे । इतना मुझे विश्वास है कि, थोड़े दिन के बाद शासनदेव हमारे लिए सब तरहके सुभीते कर देंगे । श्रावकोंमें से यदि एक भी किसी कारणसे पीछा हटा तो फिर सभी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | बहाने बनायेंगे; एक भी न आयगा । इसलिए अपने ही भरोसे 19 पर उधर जानेका विचार करना चाहिए । सब साधुओंने एक स्वर से कहा:- " हमें कष्टों की कोई परवाह नहीं है । हम पंजाबसे यहाँ तक आये हैं। रास्ते में कहाँ सब जगह श्रावकों के घर थे। कहीं जाट जमींदारोंके घरोंसे आहारपानी ले आये थे और कहीं निराहार ही, दोष रहित आहार न मिलनेसे रहना पड़ा था । वहाँ तो पाँच सौ श्रावकोंके घर हैं; और अगर बीच बीचमें आहारपानी नहीं मिलेगा तो भी कोई चिन्ता नहीं है । आप तो केवल वहाँ चौमासा करनेकी आज्ञा भर दे दीजिए । " > महाराजने जब साधुओंका इस तरह उत्साह देखा तब कहाः " अच्छी बात है । उधर ही विहार करेंगे । एक बार दादा की यात्रा करले, फिर जैसी स्पर्शना होगी होगा । २१ 11 पालीतानेकी तरफ विहार करनेका विचार स्थिर होगया । महाराजका इरादा था कि, पहले थोड़े थोड़े साधु उस तरफ़ जायँ फिर मैं यहाँ से विहार करूँगा । मगर सेठ प्रेमाभाईने विनती की कि, " पहले आपका ही यहाँ से विहार करना उचित होगा; क्योंकि लोगोंको इस समाचारसे उत्साह मिळेगा और जो भाग्यवान वहाँ जानेका इरादा रखते होंगे वे अपनी तैयारीयाँ करने लग जायेंगे । अन्यथा सभी सोचेंगे कि, महाराज साहबने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - जीवन | तो उधर विहार किया ही नहीं है । शायद इरादा कम होगा । " महाराज साहबने ही, प्रेमाभाईकी सलाह मानकर, पहले विहार किया । आप साबरमतीके पास सरखेज गाँवमें जाकर ठहरे।. विहार के समाचार सुनकर मुनीमका साला आया और उसने आपसे पूछा:-" क्या तुम भी आज ही जाओगे ! " २२ आपने उत्तर दिया :- " आज नहीं एक दो दिन के बाद ।" वह चला गया और उसने बड़ोदे सूचना भेज दी कि, - " मैं ये लोग जब रवाना होंगे तब तार द्वारा खबर दूँगा । "" महाराज श्रीहर्षविजयजीका भी अहमदाबादसे विहार हुआ। पहला मुकाम सरखेज, दूसरा मोरैया और तीसरा बावला गाँवमें हुआ । यहाँ पर दुपहर में जब साधु धर्मशाला में विश्राम ले रहे थे तब एक बैलगाड़ी घर घर करती हुई आकर वहाँ थम गई । गाड़ी के थमते ही एक आवाज आई । परिचित मगर क्रोधपूर्ण । आवाज सुनकर आपके हृदयमें एक भय पैदा हुआ । आपने उठकर नीचे की तरफ़ देखा । इतनेहीमें धड़ 'वड़ करते तीन आदमी ऊपर चढ़ आये । उनमें से एक आपके भाई खीमचंद थे; दूसरा मुनीम भगवानदास: था और तीसरा आदमी था आपके बहनोई नानाभाई | उन्होंने आते ही आपका हाथ पकड़ा और घसीटकर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । २३ नीचे ले गये । साधु चुपचाप देखते रहे; फकत इतना कहाः“खीमचंदभाई बातोंहीसे काम चल सकता है। ऐसी खींचतान क्यों करते हो ?" मगर उनकी बात पर किप्तीने ध्यान नहीं दिया। क्षमा प्रधान धर्मके साधु पंच महाव्रत पालनेगले शान्तिके साथ देखते रहने और कर्मकी विचित्र गतिका विचार करनेके सिवा और करते ही क्या ? कुछ श्रावक भी वहाँ जमा हो गये थे। उन्होंने भी आपको धमकाया और खीमचंदभाईके साथ जानेका उपदेश किया । कारण यह था कि गाँवका पटेल मुनीम भगवानदासके सालेका सुसरा था । गाँवोंमें तो, इस बातको सभी जानते हैं कि, निधर पटेल पटवारी होते हैं उधर ही सभी होते हैं। उस दिन अपने पकड़नेवालोंके साथ आप बावलेहीमें पटेलके घर रहे । दूसरे दिन अहमदाबादकी तरफ रवाना हुए। दुपहरमें एक वृक्षके नीचे गाड़ियाँ खोलकर सभी कुछ विश्राम कर खा पी चलनेकी तैयारी कर रहे थे उसी समय वीरविनयनी महाराज आदि कुछ साधु, अहमदाबादसे पालीतानेकी तरफ जाते यहाँ आ मिले । आप उनके चरणोंमें गिर गये और गिडगिड़ाकर बोले:-" महाराज ! रक्षा कीजिए।" __ वीरविजयजी महाराजने कहाः-" इतना उदास क्यों होता है ? अपने भाईको प्रसन्न करके, उनसे इजाजत लेके, आना। हमने भी तो बड़ी उम्रहीमें दीक्षा ली है।" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । AARAAAAAAAAAAAAAAAAA. वीरविजयजी महाराजने यह बात चाहे किसी भी विचारसे कही हो, मगर उसका असर आपके दिल पर हताश करनेवाला और खीमचंदभाईके दिल पर उत्साह बढ़ानेवाला हुआ । शामको अहमदाबाद पहुंचे और मुनीमके सालेके मकान पर रहे । यहाँसे आपने भाग जानेका प्रयत्न किया; मगर नाकामयाब हुए। बड़ोदे पहुँचे । यहाँ, कहीं भाग न जाय इस खयालसे, आपकी कैदीकी तरह रक्षा होने लगी । आपने भी - 'मौनं सर्वार्थ साधक' का पाठ पढ़ा । न किसीसे विशेष बातचीत न किसीके साथ ऊठ बैठ । चुपचाप अपने धर्म ध्यान में लगे रहते । नित्य प्रासुक जल पीते; एकासना, बीआसना, उपवास इच्छानुसार करते; कंबल पर सोते सुबेशाम प्रतिक्रमण करते और साधुकी तरह अपना जीवन बिताते । __आपको यह मालूम था कि, आत्मारामजी महाराज खीमचंदभाईकी आज्ञाके बिना कभी दीक्षा न देंगे इसलिए आपने सोचा कि, ऐसा काम करना चाहिए जिससे तंग आकर खीमचंद भाई आप ही छुट्टी दे दें । आपने, अपने पासकी चीजें याचकोंको देनी शुरू की । जब वे पूरी हो गई तब घरकी चीजोंमेंसे जो चीज समय पर आपके हाथ आ जाती वही याचकको Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन | दे देते । दुकान पर भी इसी तरह करते । माँगने आए हुए याचकको कभी यथासाध्य, वापिस न जाने देते । हीराचंद ईश्वरदास जौहरी के यहाँ, खीमचंदभाईकी ज्यादा बैठक थी। दोनों सगे मासीके लड़के भाई; हीराचंदभाईके कारण ही खीमचंदभाई भी कुछ गिन्ती में आये थे इसलिए ये उनका उपकार भी मानते थे; इन पर उनका प्रभाव भी था; साथ ही वे धर्मात्मा और नेक सलाहकार भी थे । वे हमेशा यथासाध्य, दो, तीन, चार - जितनी हो सकती थीं उतनी - सामायिक किया करते थे । यदि कभी ज्यादा नहीं होती थीं तो एक तो नित्य करते ही थे । सामायिक में वे अध्ययनके सिवा कभी दूसरी बातें न करते थे; इसलिए उन्हें तत्त्वोंका बोध भी अच्छा था । बड़ोदेमें आत्मारामजी महाराजके व्याख्यानोंको भही प्रकार समझने और - उनपर मनन करनेवाले हीराभाई ही थे । आत्मारामजी महाराजपर उनकी असाधारण भक्ति हो गई थी । 1 ६५ एक दिन खीम चंदभाईने जाकर हीराचंदभाईसे कहा कि, “छगन मुझे तंग कर रहा है और घरकी चीजें लुटा रहा है । " उन्होंने कहा, " खीमचंद ! तुम उसे व्यर्थ ही बाँध कर रखनेका प्रयत्न करते हो। मैं तो बराबर देख रहा हूँ कि, बचपनही से वह उदासीन है; वैरागी है। मैंने उसको सांसारिक कामों में कभी उत्साहसे भाग लेते नहीं देखा । महाराज आत्मारामजी जब Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । यहाँ पधारे थे तब नित्य प्रति वह व्याख्यानमें आता था एकाग्रता पूर्वक व्याख्यान सुनता था और एकटक महाराजकी तरफ देखा करता था। जब गुँहलीका वक्त आता यह उठकर चला जाता । एक दिन महाराजने पूछा,-" हीराचंदभाई वह कौन है और व्याख्यान समाप्त होते ही क्यों चलाजाता है ? " मैंने उत्तर दिया था कि;-" यह मेरी मासीका लड़का है। सातवीं क्लासमें पढ़ता है। स्कूलका वक्त हो जानेसे चला जाता है। " महारानने फर्माया था;-"हीराचंदभाई ! मुझे यह लड़का होनहार मालूम होता है । इससे शासनकी शोभा बढ़ेगी। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, यह गृहस्थीके बंधन में न रहेगा।" महात्माके ये वचन मिथ्या न होंगे। अब तो यह उनके चर-- णोमें रह भी आया है इससे उसका मन दृढ हो गया है। श्रीचंद्रविजयजी महाराजके समयसे इसके अंदर वैराग्यभावके अंकुर दिखे थे अब तो वे वृक्षके रूपमें बदल गये हैं । अब उसे इसके विरुद्ध कुछ कहना पाप है। " एक बार मैंने चुन्नीभाईसे कहा था, ''चुन्नीभाई देख लो जीवकी अवस्था कैसी बदल जाती है। एक दिन किसीकी जेबमें से कोई चीज चली गई थी । तुमने छगनपर ही संदेह करके उसे रस्सीसे बाँधकर पीटा था; मगर उसके पाससे कुछ भी न निकला था। उस समय वह एक मामूली लड़का था और अब वह एक महान वैरागी है।" चुनीभाईको भी खेद था कि उन्होंने Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | खी० 0 sup ऐसे उच्च आत्माको सताया था । अस्तु । अब तू मुझसे क्या चाहता है ? " -" मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि वह भाग न जाय ।" ही ० - " मैं उसे समझा दूँगा । मगर मैंने सुना है तू उसकी धर्मक्रियामें वाधा डालता है । वह गरम पानी पीना चाहता हैं;: तू गड़बड़ कर देता है । परिणाम में वह दिन दिन भर भूखा प्यासा रह जाता है । ऐसा अनुचित काम कर पाप न बाँध । भावीमें जो होनेवाला है वही होकर रहेगा । " २७ खीमचंदभाईने कहाः “ मैं छगनको आपके पास भेज: देता हूँ । आप जैसा उचित समझें करें । " जैन और जैनेतर सभी लोगों में यह बात प्रसिद्ध थी कि, हीराचंदभाई सच्चे सलाहकार हैं । जो उनके पास सलाह लेने जाता था वे उसे उचित ही सलाह देते थे । उनकी सलाहके अनुसार काम करनेवालोंको प्रायः सफलता ही मिलती थी । यदि कोई अनुचित बात उनके सामने करता और सलाह चाहता तो वे बड़े नाराज़ होते और उस मनुष्यको फटकार देते । . आप हीराचंदभाई के पास गये । इन्होंने प्यारसे सिर पर हाथ फेर कर कहा : " छगन ! तू धर्म करने निकला हैं फिर इस तरह लोगोंकी आत्माको दुःख पहुँचाना तुझे शोभा नहीं देता । घरको उजाड़ना क्या तेरे लिए उचित है ? तू तो साधु Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आदर्श-जीवन। होगा मगर दूसरे भी क्या साधु होंगे ? घर उजाड़ कर क्या तू उनसे भीख मँगवायगा ? आजसे फिर कभी ऐसी बेजा हरकत न करना । भोजन तू चाहे यहाँ कर चाहे वहाँ । तेरे लिए दोनों घर खुले हैं। भोजन करके यहाँ आ जाया कर और कुछ पढ़ कर मुझे सुनाया कर । यहीं अपना अभ्यास भी किया कर । देख मेरे कहनेके माफिक चलेगा तो तेरा मनोर्थ सफल होगा; अन्यथा पछतायगा।" आपने हीराचंदभाईकी बात स्वीकार की। उनके कथनानुसार निश्चिन्त होकर धर्माराधन करते हुए अपना जीवन बिताने लगे। . खीमचंदभाईके लिए यह बात असह्य थी कि छगनलाल आनंदसे अपने इष्ट मार्गकी साधनामें लगा हुआ है। वे हर समय यही सोचा करते थे कि, कोई ऐसी घटना हो कि छगनके भाव बदल जाय। ऐसा अवसर भी आया। आपके मामा जयचंदभाई के लड़के नाथालालका ब्याह था। खीमचंदभाईने उसमें आपको लेजाना स्थिर किया । सब जानते हैं कि, ब्याहोंमें गया हुआ मनुष्य वैरागी नहीं रह सकता । खीमचंदभाईने भी इसी ज्ञानका उपयोग किया । आपने ब्याहमें जानेसे इन्कार किया। खीमचंदभाईने कहा,-" अगर छगन नहीं जायगा तो मैं भी ब्याहमें न Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | जाऊँगा । " आखिर सबके दबाव से आपने व्याहमें जाना स्वीकर कर लिया । साधकोंके लिए संसार में कठिनाइयाँ हमेशा आया करती हैं । ये कठिनाइयाँ ही साधककी उच्चताका सबसे पहले परिचय कराती हैं। खीमचंदभाई समझते थे कि अब छगन सत्र वैराग्य भूलकर ठिकाने लग जायगा । मगर उन्हें यह ज्ञात न था कि, कुदरत उन्हें ही अपना विचार छोड़ देनेका आग्रह करेगी । २९ शामको बरात रवाना होकर मामाकी पोलमें ठहरी। स्टेशन वहाँसे नजदीक था और सवेरे जल्दी खाना होना था इसीलिए बराती यहाँ आ रहे थे । - आपको वह जगह मालुम थी इसलिये सबके पहले ही आप वहाँ पहुँच गये और प्रतिक्रमण कर एक कोने में खेस ( दुपट्टा ) बिछा सो रहे । । 1 रात आई । सब लोगोंने अपने अपने सोनेका इन्तजाम किया । खीमचंदभाई अबतक तो गड़बड़ी में लगे हुए थे। सोनेके वक्त छगनकी सुध आई। उसे न देखकर घबरा गये । सोचा,-- मौका पाकर भाग तो नहीं गया है । मगर वापिस उन्हें खयाल आया कि, छगन जबानका सच्चा है । जब उसने ही चंदभाईको उनकी आज्ञाके विना कहीं न जानेका बचन दे दिया था तब वह जायगा तो नहीं; फिर वह गया कहाँ ? इधर उधर खोजते उन्हें Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन। एक कोने में गठडीसी पड़ी दिखाई दी। वहाँ जाकर देखते हैं कि, छगनलाल सुकड़कर दोनों हाथों में सिर रख सो रहा है। वे स्तब्ध होकर खड़े हो रहे । आँखोंमें प्रेमाश्रु भर आये । हाय ! मेरा भाई इस दशामें पड़ा है । मैंने इसके संथारियादि साधुओंके से बिछोने छिपा दिये थे; मगर यह उनके बगेर भी आरामसे सो रहा है। सबसे पहले आज खीमचंदभाईके हृदयमें विचार आया कि मेरे किये कुछ न होगा; मेरा भाई शासनके लिए जन्मा है हमारे लिए, केवल कुटुंबके दायरेहीमें बंद रहनेके लिए नहीं। उन्होंने एक निश्वास डाला और पुकाराः" छगन !" आप उठ बैठे और आँखं मलते हुए पूछाः-" क्या ? " खीमचंदभाईने पूछाः- क्या बिस्तरे नहीं थे सो जमीनपर सो रहा है ? लोग मुझे क्या कहेंगे ? " आप बोले:- कोई कुछ न कहेगा; और किसीके कहने सुननेसे क्या नियम तोड़ दिया जाता है ? ". इतनेहीमें रुक्मणी बहिनने आकर आपको संयारियादि दे दिये और खीमचंदभाईसे कहा:-" भाई, छगनको इसके रस्ते जाने दो; फिजूल दुःख न दो। यह घरमें बैठा है इतना ही हमारे लिए बहुत है।" १. गुजरातमें स्त्रियाँ भी बरातोंमें जाया करती हैं। ऐसा रिवाज है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन। खीमचंदभाईने मन ही मन कहा,-."घरके लोग ही जत्र मेरे विरुद्ध इसे सहायता देते हैं तब मेरे अकेलेके किये क्या होगा ?" उनका मोहावरण कुछ हटा । वे सोचने लगे,-मैं क्यों अपराध करूँ ? क्यों अन्तराय कर्मको बाँधूं ? यह विवाहित नहीं है कि, इसके चले जाने पर मेरे सिर दुखद उत्तर दायित्वकाजवाबदारीका--भार आपड़ेगा । यदि विवाहित होता तो भी मैं क्या कर सकता था ? श्रीकान्तिविजयजी महाराज और श्रीहंसविजयजी महाराज भी तो विवाहित ही थे। वे अपनी पत्नियों और कुटुंबके लोगोंको छोड़कर चले गये; किसीने क्या कर लिया ? यदि इसके भाग्यमें साधु ही बनना लिखा है तो फिर मेरे लाख उपाय करने पर भी वह न मिटेगा और यदि नहीं लिखा है तो यह चाहे जितनी कोशिश करे कभी साधु न बन सकेगा । सच है-- येदभावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा ! इति चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः किं न पीयते ।। वे फिर सोचने लगे,-हरिभाई सूबा, मगनलाल मास्टर, वाडीलाल १. गृहस्थावस्थामें इनके नाम क्रमशः छगनलाल और छोटालाल थे । २ भावार्थ-~-जो अनहोनी है वह कभी न होगी और जो होनी है वह कभी न टलेगी। यह विचाररूपी ओषधि चिन्ताको मिटानेवाली है । इसलिए इसको पीना चाहिए । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन। गाँधी और साँकलचंद खंभाती भी तो इसीके साथी थे। वे तो इससे उम्रमें भी बड़े थे। जब वे ही अपनी वैराग्य भावनाओं पर स्थिर न रह सके तब यह कैसे रह सकता है ? दो दिन धक्के खाकर आप ही ठिकाने आनायगा। फिर बोले:-“ छगन ! जैसी तेरी इच्छा ! मगर एक बात कह देता हूँ-जो कुछ करे बहुत सोच समझ कर; मनको दृढ़ बनाकर करना ।" __ खीमचंदभाई चले गये । बिस्तरों पर लेटते ही निद्रादेवीने उन्हें अपनी गोदमें आराम दिया। ___सवेरा हुआ । बरातने चलनेकी तैयारी की । आप जानते ही थे। इसलिए सवेरे ही उठे और अपने आवश्यक कार्यसे निश्चिन्त हो गये । प्रतिक्रमण हो चुका था। सामायिक पारनेकी देरी थी। खीमचंदभाई सबको रवाना कर आपके लिए ठहर गये। थोड़ी देरके बाद आप भी तैयार हो गये और अपना संथारिया बाँधकर बोले,-" चलिए ।" खीमचंदभाईने कहा:-" ला, तेरा संथारिया मुझे दे । मैं ले चलूँगा।" __ आप बोले-" यह नहीं हो सकता। आप बड़े हैं । आपको अपने बिस्तर उठवानेके बराबर मेरी और कौनसी असभ्यता हो सकती है ? " " बस बस रहने दे अपनी सभ्यता !" कहते हुए Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । खीमचंदभाई बिस्तर उठाकर रवाना हुए। आपने भाईके हाथसे बिस्तर ले लिए। दोनों स्टेशन पर दोनों भाइयोंका कैसा स्नेह था । सच है - सब दिन जात न एक समान । सभी रेलमें बैठे । गाड़ी रवाना हुई । बरात गाँव समनी में जानेवाली थी, इसलिए पालेज के स्टेशन पर उतर गई । समनी - वाले गाड़ियाँ और छकड़े लेकर बरातको लेने के लिए सामने आये थे । उन्हें कहा गया कि, " बरात में एक लड़का है । उसका नाम छगनलाल है । वह प्रासुक पानी पीता है और रातको भोजन नहीं करता । इसलिए पहले एक आदमीको भेजकर उसके लिए भोजनका इन्तजाम कराओ । ऐसा न हो कि, बरात पहुँचे तबतक रात हो जाय या तबतक भोजनकी वहाँ तैयारी ही न हो और उसे भूखा रहना पड़े । " समनीवालोंने एक आदमीको घोड़ेपर आगे भेज दिया । उसने वहाँ जाकर सब प्रबंध कर दिया । बरात भी एक घंटा दिन रहते ही समनी गाँव के पास पहुँच गई । गाँवके बरात ठहर गई । समैयाकी - जुलसके साथ बरातको जानेकी - तैयारी होने लगी । लड़कीवालोंकी तरफ़के एक आद मीने आकर कहा कि, " सामैये में अभी देर लगेगी; रातहोगी । ज्यादा रात भी हो जाय । इसलिए जिनको रात्रिका नियम है वे चलकर भोजन करले । छगनलालजीको भेज दीजीए । 92 3 ३.३. दौड़कर अपने पहुँचे । आज बाहर ही गाँव में ले Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - जीवन । । गाँवोंमें सामैये प्रायः रातही को हुआ करते हैं। भोजन करनेमें विवेक जैसा अभी देखाजाता है वैसा उस समय नहीं था । आप खाना हुए। आपके साथ ही खीमचंदभाई आदि दूसरे भी कई चले । ३४ - समनी के भाइयोंने बड़े आदर के साथ सभीको भोजन कराया । आपकी तो उन्होंने इसलिए बहुत ज्यादा खातिरी की कि, आप छोटी उम्र में ही धर्माचरणमें इतने दृढ हैं । स्त्री पुरुषोंने मुक्त कंठसे प्रशंसा करते हुए कहा कि, यह कोई होनहार जीव है । खीमचंदभाई आदि कहने लगे, " धर्मकी बलिहारी है । एक धर्मात्मके कारण हम इतने आदमियोंकी कितनी खातिर तवाजे हुई और वह भी आशातीत । अगर बरात के साथ जीमते तो न जाने कब पेटमें पड़ता और वह भी ठंडा । अभी कैसा गरमा गरम मिल गया है ! इसकी रीस हो सकती है ? हम तो जबतक यहाँ रहेंगे छगनके साथ ही जीमते रहेंगे । 99 खीमचंदभाई के हृदय में धर्म की श्रद्धा तो थी ही । इस विशेषताने आपके मार्गकी घटनाने उसमें विशेषता ला दी । इस भी बहुतसी असुविधाएँ निकाल दीं । बरात से वापिस बड़ोदे आगये । थोड़े दिन बाद समाचार मिले कि, महाराज साहब श्री आत्मारामजी पालीताने पहुँच गये हैं । वहाँ अहमदाबादके नगर सेठ प्रेमाभाई हेमाभाई, तथा सेठ दलपतभाई भग्गुभाईके पत्रके कारण सेठ आनंदजीकी पेढीकी 1 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । mamawe - तरफसे और पालीताना दर्बारकी तरफ़से आत्मारामजी महाराजका, बड़ी धूमके साथ स्वागत किया गया और नगरप्रवेश कराया गया । आपके दिलमें पालीताने जानेकी चटपटी रगी। आपने सुना कि, बड़ोदेसे परम श्रद्धालु, धर्मात्मा सुश्रावक सेठ गोकुलभाई दुलभदास और परम श्राविका विजली बहिन आदि कई श्रावक श्राविकाएँ पालीताने जानेवाले हैं। उनमेंसे कई तो पालीतानेहीमें चौमासा बितायँगे और कई यात्रा करके लौट आयेंगे । आप सैठ गोकुलभाई और विजली बहिनके पास पहुँचे और बोले:-“ मुझे भी अपने साथ ले चाहिए।" उन्होंने उत्तर दियाः-" आनंदसे हमारे साथ चलो; हमारे साथ ही रहना और अध्ययन करते रहना।हाँ तुम्हें अपने भाईकी आज्ञा जरूर ले लेनी होगी । उनकी इजाजतके बिना हम तुम्हें नहीं ले जा सकेंगे; क्योंकि उनका मिजाज तेज है । वे हमसे कुछ कह बैठे तो अच्छा न हो।" . आप बोले:--" मैं इसका प्रबंध कर लूँगा । मुझे तो केवल गुरु महाराजके चरणोंमें पहुँचू तबतकके लिए साथकी जरूरत है। मैं कभी गया नहीं हूँ इसी लिए मार्गसे अपरिचित आपके साथ जाना चाहता हूँ।" आप हीराभाईके पास गये और नम्रताके साथ बोलेः" मुझे पालीताने जानेकी इजाजत दिला दीजिए।" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ आदर्श-जीवन । - . हीराभाईने खीमचंदभाईको बुलाया और कहाः-" छगन पालीताने जाना चाहता है। साथ भी अच्छा है । यात्रार्थ भेजनेमें क्या कोई हर्ज है ?" .. खीमचंदभाईने उत्तर दिया:--" यात्रा जाते मैं नहीं रोकता । इसकी इच्छा हो वहाँ जाय; यदि पालीतानेहीमें चौमासा करना चाहे तो भी करे । मगर इसको प्रतिज्ञा करके जाना होगा कि, यह वापिस बड़ोदे जरूर आयगा ।" आपने सोचा सस्तेहीमें छूटते हैं । झटसे बोल उठे,-" मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि बड़ोदे जरूर जाऊँगा।" खीमचंदभाईने इजाजत दे दी । उन्होंने खर्चेके लिए सेठ. गोकुलभाईको रुपये दिये और उनको कहाः- जैसे आप इसे अपने साथ ले जाते हैं वैसे ही वापस ले आना । मैं इसे आपको सौंपता हूँ।" गोकुलमाई बोले:--" साथ में ले जाना और सार सम्भाल रखना हमें मंजूर है मगर वापस ले आनेका निम्मा हम नहीं ले सकते । यदि यह रानीखुशी हमारे साथ आयगा तो हम ले आवेंगे नहीं आयगा तो हम उत्तरदाता नहीं । इच्छा हो भेजो न हो न भेजो।" आप बोले:--" जब मैं वापस आना स्वीकार कर चुका हूँ तब इनके साथ कौल करार करनेकी क्या जरूरत है ?" खीमचंदभाईने वैसे ही जानेकी इजाजत दे दी । पालीताना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन ३७ पहुँचे । अपनी आयु में पहली ही बार आपने दादा के दर्शन किये । आपको उस समय जो आनंद हुआ वह वर्णनातीत है । सं० १९४३ का चौमासा आपने पालीतानेही में स्वर्गीय श्री आत्मारामजी महाराजके पास बिताया । यथाशक्ति विद्याभ्यास भी करते रहे। पंजाबी पंडित खीमचंदजी ओसवालके - पास चंद्रिका पढ़नी शुरू की । पंडित अमीचंदजी पट्टी जिला लाहोरके निवासी थे । जिस समय आत्मारामजी महाराजकी श्रद्धा स्थानकवासियोंके पंथसे हट गई, उस समय अमीचंदनीके पिता घसीटामलको स्वर्गीय महाराजने कहा कि, - तुम्हारे तीन पुत्र हैं । उनमें अमीचंद्रकी बुद्धि तेज है । तुम इसे संस्कृतादि विद्या पढ़ाओ । फिर जो कुछ सत्य बात होगी सो तुम्हें मालूम हो जायगी । तुम्हारा बेटा तो तुम्हें असत्य बात नहीं कहेगा न ? लाला घसीटामलके दिलमें यह बात जच गई । उन्होंने अमीचंद्रको संस्कृत पढ़ाना प्रारंभ कर दिया। जब व्याकरण न्याय, धर्मशास्त्र आदिमें अमीचंद्र प्रवीण हो गये तब उनके पिताने उनसे पूछा: " बेटा बता, सूत्रोंका अर्थ पूज्य अमरसिंहनी करते हैं वह सत्य है या आत्मारामजी महाराज करते हैं वह सत्य है ? " - - अमीचंद्रजीने उत्तर दिया:-" पिताजी ! श्री आत्मारामजी महाराज फर्माते हैं वही सत्य है। ये ही जैनधर्मका - सत्य मार्गका उपदेश देते हैं । " Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । - '. उसी दिनसे लाला घसीटामलनीकी श्रद्धा ढूँढकपंथसे हट गई। यह बात तो निश्चित है कि, विद्वानोंसे कभी दुकान्दारी नहीं होती। यही हालत पंडित अमीचंद्रजीकी भी हुई। उन्हें अपने योग्य कामकी जरूरत मालुम हुई । एक बार मुर्शिदाबादवाले बाबू धनपतिसिंहनीने कहा:-" आप गुरु महाराजकी (स्व० आत्मारामजी महाराजकी) सेवामें रहिए और साधुओंको पढ़ाइए । साधर्मीभाई समझकर आपकी योग्य सेवा होती रहेगी। तभीसे वे साधुओंके साथ ही रहते थे । स्वर्गीय आचार्य महारान श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरिजीके प्रायः सभी साधु आपके पाससे कुछ न कुछ सीखे हैं, उस समय सीखते थे । पालीतानेके चौमासेमें चौबीस साधु थे उनमें से पन्द्रह सोलह साधु अमीचंद्रनीके पास उस समय पढ़ते थे। ... ___आपकी बुद्धि तेज थी । इसलिए आपने चौमासेहीमें चंद्रिकाका पूर्वार्द्ध समास तक समाप्त कर दिया। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि, स्वर्गीय महाराज आप पर उसी दिनसे विशेष स्नेह रखते थे जिस दिनसे आपको उन्होंने देखा था और आपकी बुद्धिका परिचय पाया था। अब चौमासेमें साथ होनेसे विशेष अनुग्रह हो गया। आप अभी अदीक्षित थे तो भी महाराज आपहीके पाससे अपना लिखानेका और पत्रव्यवहारका कार्य कराते थे। आपका भी स्कूलके अध्ययनके कारण लिख Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । नेमें अच्छा अभ्यास था इसलिए फुर्तीके साथ हरेक कार्य कर. दिया करते थे । गुरु महाराजका अनुग्रह देखकर अन्यान्य साधु भी आपसे स्नेह करने लग गये थे। सच है 'यथा राजा तथा प्रजा।' . आनंदके साथ चौमासा समाप्त हुआ। लोग यात्रार्थ आने लग गये । इस वर्ष आपकी बहिन श्रीमती जमनाबहन भी यात्रार्थ आई थीं। ... नरसि केशवजीकी धर्मशालामें-जहाँ स्वर्गीय महाराजका चौमासा था-अठाई महोत्सवके लिए एक भव्य मंडप तैयार हो रहा था; क्योंकि उसमें धुलियावाले सेठ सखारामजी बारह व्रत ग्रहण करनेवाले थे । मंडपको जमनाबहनने देखा। उन्होंने किसीसे कुछ पूछताछ किये बिना ही यह निश्चित कर लिया कि, यह तैयारी मेरे भाई छगनलालको दीक्षा देनेके लिए हो रही है। उन्होंने तत्काल ही बड़ोदे खीमचंदभाईको तार दे दिया कि,शीघ्र ही पहुँचो । मिगसर बुदी (गुजराती कार्तिक बुदी) पंचमीके दीन छगनलालको दीक्षा दी जायगी। खीमचंदभाईने तत्काल ही एक तार स्वर्गीय आचार्यश्रीको दिया कि, छगनको दीक्षा न देना । और दूसरा तार पालीताना दर्बारको दिया कि,-अमुक साधुको रोको, वे मेरे भाई छगनको बगैर मेरी इनाजतके दीक्षा न दें। . पालीताना दर्बारने अपना कर्तव्य किया। एक राजपुरुष Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० मादर्श-जीवन । सूरिजी महाराजके पास आया और तारका अभिप्राय बतलाकर बोला:-" आपको दर्बारमें आना होगा; यदि आप नहीं आसकते हों तो अपनी ओरसे किसी विश्वस्त मनुष्यको भेन दीनिए।" उस समय वहाँ बड़ोदावाले सेठ गोकुलभाई, धूलियावाले सेठ सखारामभाई, भरूचवाले सेठ अनूपचंदभाई और खभातवाले सेठ पोपटभाई ऐसे चार श्रावक मौजूद थे। वे बोले:-" चलो हम आते हैं।" कलकत्तावाले राय साहब बद्रीदासनी मुकीम भी उस समय यात्रार्थ आये हुए थे और वे खास पालीताना दर्वारके महेमान थे; महलोंहीमें ठहरे हुए थे। सभी उनके पास गये और सारा हाल उन्हें कह सुनाया । राय साहब हमारे चरित्र नायकको साथ लेकर पालीताना दर्वारके पास पहुँचे । उन्होंने सत्य बात दर्बारको बताई और कहा कि-" किसीने दीक्षाकी झूठी अफवा उड़ादी है। जिस लड़केको दीक्षा देनेके विषयमें लिखा गया है वह आपके सामने खड़ा है।" दर्बार बोले:--" जब दीक्षा दी ही नहीं जाती है तब विशेष छानबीनकी हमें कोई जरूरत नहीं दिखती । हमारे पास एक आदमीने अर्जी भेनी उसकी जाँच करना हमारा कर्तव्य था। हमने जाँच की और हमें मालूम हो गया कि, बात गलत है। अगर दीक्षा देनेकी बात सच होती तो यह देखना हमारा फर्ज Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । था कि लड़का छोटी उम्रका तो नहीं है। मगर लड़केको देखनेसे और जाँचसे हमें यह निश्चय हो गया है कि, लड़का बड़ी उम्रका है.और अच्छा पढ़ा लिखा होशियार भी । आप लड़केको लेजाइए और महाराज साहबसे अर्ज कीजिए कि, कष्टके लिए क्षमा करें। चौमासा समाप्त हो गया । महाराज साहबका विहार पालीतानेसे होनेवाला था । जमना बहिनने आपको अपने साथ चलनेके लिए बहुत आग्रह किया मगर आप राजी न हुए। वे चली गई । स्वर्गीय महाराजका वहाँसे विहार हुआ। हमारे चरित्रनायकने भी उनके साथ ही अपने बिस्तरे और पढ़नेके ग्रंथ उठाकर प्रयाण किया । क्रमशः विहार करते हुए आचार्य महारान राधनपुर पधारे । आप भी साथ ही राधनपुर पहुँच गये। इसी तरह करीब तेरह चौदह महीने गुजर गये। आपने दो बार दीक्षा लेनेका प्रयत्न किया और दोनों ही बार असफल हुए । खीमचंदभाईकी आशा दोनों ही बार सफल हुई। अब तीसरी बार इम्तहानका समय आया शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, माकुरु यत्नं विग्रह संधि । १. भावार्थ हे जीव ! यदि तू शीन ही मोक्ष चाहता है तो शत्रु और मित्र, पुत्र और बंधुके साथ झगड़ा या मेल करनेका यत्न न कर; सबके साथ समानताका वर्ताव कर । ( चर्पट पंजरी ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । - - भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, 'वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ॥ दुनिया है वह सय्याद कि सब दाममें इसकेआ जाते हैं लेकिन कोई दाना नहीं आता। हमारे चरित्र नायक तो कबसे मोक्षके अभिलाषी थे । उस मार्ग पर चलनेका यत्न करते थे; कवि जौकके कथनानुसार आप दाना बनकर इस दुनियाकी जाल में फँसना नहीं चाहते थे। ___लगभग दस महीने तक आप स्वर्गीय महाराज साहबके पास रह चुके थे । साधुसंगति और श्रावकोंके घर भोजन करने जाया करते थे इससे दिलकी झिझकन मिट गई थी। एक तो साधर्मी भाई और दूसरे दीक्षा लेनेका उम्मेदवार; श्रावक लोग सोचते हमारा धनभाग है कि, हमें ऐसे सुपात्रको भोजन करानेका अवसर मिलता है । वे बड़े आदर और आग्रहके साथ आपको अपने यहाँ ले जाते और प्रेमके साथ भोजन कराते । स्त्री पुरुष आपकी प्रशंसा करते,-तुम धन्य हो ! तुम्हारा जीवन धन्य है ! आप सिर झुका लेते। लोग कहते,कैसे विनयी हैं ? इनसे शासनकी प्रभावना होगी। इतना होनेपर भी आपके दिलमें बेचैनी थी। आपका १. संसार ऐसा शिकारी है कि, सभी उसकी जालमें फँस जाते. हैं; कोई दाना- बुद्धिमान ही उसमें नहीं आता है । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । wwwmarrrrrrrrrमन आपसे बार बार पूछता,-इस तरह कबतक रहोगे ? कोई जवाब न मिलनेसे अन्तरात्मामें एक दर्द पैदा होता । इस स्थितिका अन्तलानेके लिए आपका मन इसी तरहसे तड़पताथा जिस तरहसे पानी में डूबनेवाला आदमी बाहर निकलने के लिए तड़पता है। वोह कौनसा उदो है जो वो हो नहीं सकता ? हिम्मत करे इन्सान तो क्या हो नहीं सकता ? जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पेठ । मैं बोरी ढूँढन गई, रही किनारे बैठ ॥ आप हमेशा सोचते कि,-किस तरह इस बातका फैसला हो ? किस तरह मैं इस झंझटसे निकलूँ ? एक दिन इसी तरह सोचते सोचते आपके चहरेपर प्रसन्नता छा गई। आप सहसा बोल उठे,-हाँ यह मार्ग बहुत अच्छा है। एकान्तमें बैठकर आपने तीन पत्र लिखे । उनमेंसे एक खीमचंदभाईके नाम था जिसे रजिस्ट्री कराके भेना; दूसरा सेठ हीराभाई ईश्वरदासके. नामका था और तीसरा था सेठ गोकुलभाई दुल्लभदासके नामका । दोनों डाकमें डाल दिये । पत्रों में लिखा था कि,-अमुक दिन. मेरी दीक्षा होनेवाली है । आप दीक्षा महोत्सव पर अवश्य पधारें। १ कठिन बात; २ हलहोना... Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आदर्श-जीवन । - - पत्र पाते ही खीमचंदभाई राधनपुर जानेको तैयार हो गये । हीराचंदभाईने उन्हें रवाना होते समय समझाया, देखना वहाँ कुछ गड़बड़ न करना । छगनको समझाना । यदि वह आवे तो ले आना न आवे तो उसकी मर्जी । खीमचंद भाई अपने साथ अपनी भूआ दीवाली बहिनको भी लेते गये। उस समय राधनपुर तक रेल नहीं थी। दूसरे स्टेशन पर उतरकर जाना पड़ता था । खीमचंदभाई जब रेलसे उतरे तो उस समय वहाँ उन्हें कोई गाड़ी आदि न मिले | आपने दीक्षाकी जो मिति लिखी थी उसमें दो दिन ही बाकी रह गये थे। तत्काल ही राधनपुर पहुँचना खीमचंदभाईके लिए जरूरी था । इसलिए ऊँट पर ही सवारी करके राधनपुर पहुँचे। क्योंकि उस समय वही मिला था। कभी ऊँट पर चढ़े न थे इसलिए उन्हें रास्तेमें बड़ी तकलीफ हुई। राधनपुरमें ऊँटसे उतरते ही खीमचंदभाई सीधे स्वर्गीय महाराज साहबके पास पहुँचे; चरणवंदना की हमारे चरित्र नायकका पत्र सामने रक्खा और संक्षेपमें सब हाल कहा। कहते कहते वे रो पड़े,-" महाराज साहब मेरा छगन मुझे दे दीजिए।" -मोह कैसा प्रबल होता है ? सांसारिक संबंध कितने सुदृढ होते हैं ? धन्य हैं वे नर जो मोहममत्वका त्याग कर आत्मकल्याणमें लगते हैं। आचार्यश्रीने खीमचंदभाईको समझाकर ढारस बंधाया। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । ४५ इतनेहीमें सीरचंदभाई, मोहनलाल पारख, गोड़ीदासभाई आदि कुछ राधनपुरके मुखियालोग आगये । उन्होंने भी खीमचंदभाईको धीरज दिया और कहाः-" हमारे घर चलो स्नान पूजा करके जीमो फिर शान्तिसे बातें करना । यहाँ तो कोई दीक्षाकी बात तक नहीं जानता । राधनपुर जैसे शहर में भी दीक्षा क्या चुपचाप ही होगी ? जब होगी तब बड़ी धूमके साथ । महोत्सव करनेवाले तो हम लोग ही हैं।" ... खीमचंदभाईने आपकी चिट्ठी सबको दिखाई और कहा:" देखिए यह छगनकी चिट्ठी है।" __आत्माराजी महाराजने फर्मायाः-“ खीमचंदभाई, तुम्हें हमारा विश्वास है या नहीं ? " __ खीमचंदभाई बोले:-" महाराज ! आपके वचनोंपर मुझे पूरा विश्वास है । आर उन साधुओंमेंसे नहीं हैं जो छोकरोंको बहकाकर भगा देते हैं और फिर चुपकेसे दीक्षा दे देते हैं। मगर मुझे यह विचार आता है कि, आपने सूचना न दी और छगनने दीक्षाकी सूचना क्यों दी ?" आचार्यश्रीने फर्मायाः-" भोले ! इस चिट्ठी में दीक्षाका जो दिन लिखा है वह मुहूर्त्तका हो ही नहीं सकता। मीनार्को कहीं दीक्षा हुआ करती है ? जान पड़ता है छगनहीने अपने मनसे यह चिट्ठी लिख दी है । अच्छा बुलाओ छगनको ! " Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । - आप बुलाये गये । आप आचार्यश्रीके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये । महाराजने पूछा:-" पत्रकी क्या बाता है ? " ___ आप नम्रता पूर्वक बोले:-" कृपानाथ ! अपराध क्षमा कीजिए । मुझे यह विश्वास हो गया था कि, जबतक खीमचंदभाईकी तरफ़से सफाई न हो जाय तबतक आपके चरणोंमें अर्ज करना फिजूल है। कारण,-आप खीमचंदभाईको फ़र्मा चुके हैं कि, जबतक तुम इजाजत न दोगे हम छगनको दीक्षा न देंगे। खीमचंदभाई आपके इस वचनपर निश्चिन्त होकर बैठे हैं। उन्होंने सोच लिया है कि, न मैं इजाजत दूंगा और न महाराज साहब दीक्षा देंगे। ऐसी हालतमें छगन व्याकुल होकर आप ही घर आजायगा।" . इसबातको सुनकर खीमचंदभाई सहित सभी हँस पड़े। आचार्य महाराज भी मुस्कुराये और बोले:-" तो खीमचंदअब तुझे इजाजत दे देंगे ? " आपत्रोले:-“ कृपालो ! स्थानप्रधानं न बलप्रधान । गरज बुरी बला है । गरज मुझे है खीमचंदभाईको नहीं । मैंने सोचा,-खीमचंदभाई अपने आप तो फैसला करेंगे नहीं, इसलिए मैंने ही फैसला करा लेना स्थिर किया । बड़ोदेमें ये अपनी इच्छानुसार कर सकते थे। इसलिये मैंने इन्हें यहाँ बुलानेकी तरकीब सोची । मुझे विश्वास था कि आपके सामने खीमचंदभाई Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-जीवन । की सोई हुई आत्मा जरूर जागृत होगी और फैसला मेरे हकमें होगा । बड़ोदेमें तो इन पर अनेक पानी चढ़ानेवाले हैं मगर आपके कदमोंमें पहुँच कर तो चढ़ा हुआ पानी भी उतर जायगा। इसी लिए आपको न बताकर इनके पास पत्र भेज दिया। पत्रकी रजिस्ट्री इसलिए करा दी थी कि, यहाँ आ जायँगे तो ठीक ही है वरना ये फिर यह बहाना न कर सकेंगे कि मुझे पत्र मिला ही नहीं। अच्छा हुआ कि ये आ गये । अगर न आते तो मैं आपसे अर्ज करता कि,-मैंने इस तरहका पत्र भेजा है, मगर वे नहीं आये । न कुछ लिखा ही । इसलिए उनका मौनावलंबन ही एक तरहकी इनाजत है। कहा है कि . 'नानुषिद्धममुमतम् ।' इसलिए आप मुझे दीक्षा दे दीजिए । मैंने यह भी स्थिर कर लिया था कि, यदि आप मेरी प्रार्थना अस्वीकार करेंगे तो मैं श्रीसंपतविजयनी' महाराजकी तरह दीक्षित होजाऊँगा।" . .. शान्तमूर्ति मुनिमहाराजश्री १०८ श्रीहंसविजयजी महाराजके परम भक्त सुशिष्य पंन्यासजी महाराज श्रीसंपतविजयजी पाटनके रहनेवाले थे । इनका गृहस्थ नाम वाडीलाल था । ये अपनी माता आदिको समझा कर दीक्षा लेनेको उद्यत हुए । बड़ोदेमें दीक्षा महोत्सव होना स्थिर हुआ । किसीके बहकानेसे इनकी माताने दीक्षामें रुकावट डाल दी । इन्होंने माताको समझा दिया कि अच्छा मैं दीक्षा न लूंगा । माता घर चली गई । इन्हें मालूम था कि, माताकी इजाजतके बिना हंसविजयजी महाराज हरगिज दीक्षा न देंगे । कारण आत्मारामजी महा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ भादर्श-जीवन । _ महाराज साहबने खीमचंदभाईसे कहा:-" क्यों भाई सुन लिया ? देखो तुम भी श्रावक हो । तुम्हें कुछ सोच विचार कर लेना चाहिए। _ 'अति सर्वत्र वर्जयेत् ।' किसी बातका अन्त लेना अच्छा नहीं होता । इसने अपनी अन्तिम इच्छा भी प्रकट कर दी है । क्या अब भी तुम सोचते हो कि यह वापिस घर जायगा ?" . सीरीचंद सेठ बीचहीमें बोल उठे:-“ कृपानाथ ! अभी इन्हें भोजनादिसे निश्चिन्त हो लेने दीजिए बादमें शान्तिके साथ सब कुछ निश्चित किया जायगा । उठिए खीमचंद सेठ ! भोजनके लिए चालिए।" खीमचंदभाई बोले:- छगनको भी साथमें ले चलो । आज दोनों भाई साथ ही. भोजन करेंगे।" आपने कहा:-" आज चर्तुदशी है। मेरे उपवास है । मैं आकर क्या करूँगा ? " खीमचंदभाई बोले:-" कुछ खाना मत । मेरे सामने बैठा ही रहना । मुझे संतोष होगा।" राजके सिंघाड़ेका यही दस्तूर है । इसलिए आप कुछ दिनके बाद मातर गाँव में गये और वहीं आपने सच्चे देव श्रीसुमतिनाथ स्वामीके सामने मुनिवेष धारण कर लिया । माताको समाचार मिले । वह दुखी होती हुई आई और इन्हें दीक्षा लेनेकी इजाजत दे दी। तब गुरुमहाराजने इन्हें संस्कारोंद्वारा अपनाया । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन । आपने कहा :- " अच्छी बात है। चलिए मैं तैयार हूँ ।" सब उठे । अपने अपने घर गये । आप भाईके साथ पारख मोहन टोकरसीके घर गये । खीमचंदभाईने स्नान पूजन करके भोजन किया। दोनों भाई एक जगह बैठकर बातें करने लगे । खीमचंदभाई बोले :- " मैं समझ गया कि तू करेगा अपना धारा ही । मगर छः सात महीने और ठहर जा । चौमासे बाद खुशी से दीक्षा ले लेना । " 46 आपने कहाः – “ छः सात महीने ही क्यों मैं तो छः सात बरस ठहर सकता हूँ । मगर आप मुझे इस बातका निश्चय करा दीजिए कि मैं इन छः सात महीनोंमें मरूँगा नहीं । " खीमचंद क्या मुझे भविष्यका ज्ञान है सो मैं निश्चय करा सकूँ ?” 44 ● आप - " जब आप मुझे यह निश्चय नहीं करा सकते हैं तब मैं कैसे आपके कहनेसे अपना स्वार्थ- आत्मलाभ - बिगाड़ दूँ ? " ' स्वार्थ भ्रंशो हि मूर्खता । ' मैं तो अब देर न करूँगा । यदि कालने अचानक ही आ दबाया तो मेरे मनोरथ मनमें ही रह जायँगे । काल करंतो आज कर, आज करंतो अब्ब । पलमें परले होयगी, फेर करेगो कब्ब ॥ मैं अब देर करना नहीं चाहता । कालका कुछ भरोसा नहीं । आप कृपा करके आज्ञा दे दीजिए। इतना ही नहीं आप अगुवा बनकर मुझे दीक्षा दिला दीजिए। आपने अहम 8 ४९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन | • दाबादमें गुरु महाराजस कहा भी था कि, थोड़े समयतक आप इसको अपने पास रखकर पढ़ाइए; फिर समय आनेपर मैं खुद ही इसको दीक्षा दिला दूँगा । मैं समझता हूँ आप यह बात अबतक भूले न होंगे ? महाराज साहबने अपने वचनानुसार अबतक मेरी दीक्षाका नाम भी नहीं लिया है। अब समय आ गया है कि, आप अपना वचन पालिए और अपनी धर्मज्ञता और उदारताका परिचय दीजिए । " ५० पासहीमें भूआजी बैठी हुई थीं । वे बोलीं- “ खीमा ! देख तो किस तरह बातोंके तड़ाके लगा रहा है ! है जरा भी लाज शरम ! आगे कभी तेरे सामने बोला भी था ? तू अब इसको घर ले जाकर क्या करेगा ? इससे क्या तेरा दरिद्र दूर होगा ? उठ ! चल अपने घर चलें । " आप तो यह चाहते ही थे कि, ये लोग राजीखुशी या नाराज होकर किसी भी तरहसे घर चले जायँ और आप अपने साध्यको सिद्ध करें - अपनी इच्छानुसार दीक्षा ले लें । इसलिए आप इस गीदड़भपकीका कुछ जवाब न देकर मौन रहे । कहा है < मौनं सर्वार्थसाधकम् ' थोड़ी देर सभी चुप एक दूसरेकी तरफ देखते रहे फिर आप उठ खड़े हुए और यह कहते हुए चले गये कि, प्रतिक्रम १ मौन सारे कामों को सिद्ध करनेवाली है । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजविन | का समय हो गया, अब मैं जाता हूँ । भूआ भतीजे बैठे सलाह करते रहे कि, अब क्या करना है ? राधनपुर में गोड़ीदासभाई अच्छे जानकार और धर्मके कामोंमें मुखिया समझे जाते थे । उस समय वहाँ जितनी इनकी बात मानी जाती थी उतनी साधु मुनिराजोंकी भी नहीं मानी जाती थी । आचार्य महाराजको, ये ही कई मुखियोंके साथ, मॉडलसे विनती करके ले गये थे । इसलिए सारे राधनपुरमें अपूर्व उत्साह फैला हुआ था । इन्होंने खीमचंदभाईको समझाया, उत्साहित किया और कहा : 66 ५१ यह तो छगनकी बातोंसे निश्चित हो गया है कि, वह अब घर लौटकर न जायगा, चाहे तुम कुछ भी कर लो । तब व्यर्थ ही अन्तराय कर्म क्यों बाँधते हो ? अपने हाथहीसे यह शुभ कार्य करके कस्तूरीकी दलाली क्यों नहीं लेते ? " 44 खीमचंदभाईने जवाब दियाः – “ गोड़ीदासभाई ! मैं इन बातोंको समझता हूँ । आचार्य महाराज बड़ोदे पधारे तबसे मेरी परिणति भी बदल गई है। मैं धर्मको कुछ भी नहीं समझता था, मगर आचार्य महाराजकी कृपासे और छगनकी प्रवृत्तिसे मेरे हृदयमें भी धर्मभावनाएँ बढ़ती जा रही हैं; मगर वे इतनी नहीं बढ़ीं कि मैं अपनी दाहिनी भुजाको -अपने प्यारे भाईको साधु हो जाने दूँ । ” गोडी ० –“ तुम्हारा कहना सच है । दुनियामें मोह बड़ा ही जबर्दस्त है । सारा संसार ही मोहके आधीन है । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ 4 आदर्शजीवन । पीत्वा मोहमयी प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् । , मगर मोहममत्वमें - माना हुआ संसारी सुख भी उस समय होता है जब दोनों तरफसे एकसा प्रेम हो 'महोब्बतका मजा तब है, दोनों हों बेकरार, बराबर लगी हुई । दोनों तरफसे हो आग " मगर यहाँ तो उल्टा ही हिसाब है। तुम मेरा छगन मेरा छगन करते फिरते हो और लगन तुम्हारा भाव भी नहीं पूछता । तुम्हें छगनकी रट हैं और छगनको अपने स्वार्थकी अपनी मुक्तिकी । ऐसी दशामें तुम मोह रखकर क्या करोगे ? सिवा कर्मबंधन के तुम्हारे हाथ क्या आयगा ? " खीमचंदभाईके मनमें बड़ा द्वंद्व मचा हुआ था । उनकी तो ऐसी हालत हो रही थी, L ठहरे बन आती है न भागे; तेरी जबर्दस्ती के आगे ! ' न छगन घर जानेको तैयार था न उनका मन छगनको दीक्षाकी आज्ञा देना चाहता था । जबर्दस्ती भी कहाँ तक की जाय ? आखिर खीमचंदभाईके मोहका पर्दा हट गया । उनको संसार विस्तीर्ण दिखाई दिया । उन्हें साफ मालूम हुआ कि, छगन मेरे कुटुंब के घेरे में रहनेके लिए नहीं जन्मा है । इसका दायरा बड़ा है । यह जनसमाजके लिए जन्मा है । इसका कुटुंब प्राणिमात्र है १ मोहरूपी मदिरा पीकर सारा संसार उन्मत - पागल हो रहा है। I Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । 6 मरना भला है उसका जो अपने लिए जिए । जीता है वह जो मरचुका ससारके लिये ॥ ' मैं क्यों इसे अपने बंधनमें बाँधकर रखनेका यत्न करूँ ? इससे हमारा कुटुंब उज्ज्वल होगा । गोड़ीदासभाईकी बातोंने खीमचंदभाईकी भावनाओंको दृढ बना दिया । वे कर्मबंधनकी दलालीके बदले धर्मके - मुक्तिके दलाल हो गये । वे बोले:“मैं आपका उपकार मानता हूँ कि, आपने मुझे यथार्थ बातें कहीं और मेरे मनको दृढ बनाया। इसी समय आचार्य महाराजके पास चलिए और मेरी ओरसे निवेदन कीजिए कि, छगनको दीक्षा दे दीजिए। मैं राजी हूँ । यदि कोई मुहूर्त पासहमें आता हो तो मैं इसको दीक्षा दिलाकर ही जाऊँगा । मैं महाराज साहबसे ये बातें न कह सकूँगा । मेरा हृदय भर आयगा । " गोड़ीदासभाई बोले:- “अब तो रात बहुत चली गई है । ग्यारह बजे होंगे । महाराज साहब आराम करते होंगे । इस समय उनके आराममें खलल डालना अच्छा नहीं हैं । सवेरे चलेंगे । " ५३ खीमचंदभाईनें कहा :- " महाराज साहबने अबतक आराम न फर्माया होगा । और यदि फर्माया ही होगा तो भी वे दयालु हैं, हमारे जानेका खयाल न करेंगे । मगर मैं इस खुशीकी खबरको महाराज साहबके कानोंतक पहुँचाये बगैर चैनसे न सो सकूँगा । इसलिए जल्दी से महाराज साहबके Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पास चलिए और बधाई दीजिए। फिर आप अपने घर चले जाइए, मैं यहाँ लौट आऊँगा । " ५४ मोहन पारख पासमें बैठे ऊँघ रहे थे । वे खीमचंदभाईकी न्यायसंगत बातें सुनकर प्रसन्न हुए और बोले :- " गोड़ीदास - भाई ! खीमचंदभाई ठीक कह रहे हैं। तुम इनके साथ जाओ । मैं जेसंगको साथ भेजता हूँ । तुम फिर घर चले जाना और वह इन्हें यहाँ ले आयगा । " मोहन पारखका लड़का जेसंग लालटेन उठाकर आगे चला, और दोनों उसके पीछे । तीनों रत्नत्रयकी - ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी - दलाली करने उपाश्रयमें पहुँचे । आचार्य महाराज अभी ही लेटे थे। उनके कानोंमें त्रिकाल वंदनाकी आवाज पहुँची । आचार्य महाराजने धीरेसे पूछा:“ श्रावकजी इस वक्त ? " गोड़ीदास बोले: - “ कृपानाथ ! तकलीफ दी, माफ कीजिए । खीमचंदभाई कुछ जरूरी अर्ज करना चाहते हैं । इसलिए अभी हाजिर हुए हैं । " आचार्य महाराज उठ बैठे। तीनों सामने बैठ गये । संकेतानुसार गोड़ीदासभाईने सारी बातें कह सुनाई । सुनकर आचार्य महाराजने खीमचंदभाईको शाबाशी दी और कहा :- " अच्छी बात है। तुम चाहते हो ऐसा ही होगा। अभी रात ज्यादा चली गई है । जाकर शान्तिसे आराम करो। सवेरे ज्योतिषीको बुलाकर तुम्हारे सामने ही मुहूर्त नक्की कर लिया जायगा । " Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। __ सब वंदना कर अपने अपने घर गये। आचार्य महाराजने भी आराम किया। सवेरे ही आप प्रतिक्रमण कर आचार्य महाराजको वंदना करने गये। उनके चहरे पर प्रसन्नता थी । वे आपकी पीठपर हाथ फेरते हुए बोले:-“ले बच्चा ! तेरी मनोकामना पूरी होगई। रातको खीमचंदभाई आकर इजाजत दे गये हैं।" यह सुनकर आपको जो आनंद हुआ उसका वर्णन करनेकी शक्ति इस लोहेकी कलममें कहाँ ? __मुनि महाराज श्रीहर्षविजयजीको, आचार्य महाराजने फर्मायाः-" भाई ! तेरे चेलेकी दीक्षाका मुहूर्त दिखलाना है । किसी श्रावकको कहकर जो ज्योतिषी श्रीसंघका काम करता हो उसे बुला लेना।" व्याख्यान हुआ। फिर भोजनके बाद शुभ चौघड़ियेमें एक श्रावक ज्योतिषीको ले आया। और श्रावक भी एकत्रित हो गये । श्रीसंघके नेताओंने खीमचंदभाईको अगुआ बनाकर शिष्टाचारपूर्वक ज्योतिषीसे मुहूर्त पूछा । ज्योतिषीने बहुत देर तक देखभाल करनेके बाद वैशाख सुदी त्रयोदशीका दिन दीक्षाके लिए शुभ बताया। लग्नकुण्डली भी उसने उसी समय बना डाली। वह बोला:-" यद्यपि खीमचंदभाई दीक्षाका मुहूर्त जल्दी चाहते हैं, मगर इससे जल्दी अच्छा मुहूर्त एक भी नहीं है । इस मुहूर्तमें जो व्यक्ति दीक्षित होगा उसे संसारमें Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | यश मिलेगा, लाखों लोग उसे पूजेंगे और वह किसी उच्च पदको प्राप्त करेगा । " ५६ आचार्यश्रीने भी कुंडली देखी और कहा :- " ज्योतिषीजीका कहना वास्तवमें सत्य है । क्यों खीमचंदभाई तुम क्या कहते हो ? " खीमचंदभाई बोले :- " आपकी समझमें जो बात ठीक जचे वही कीजिए । चार दिन बादका मुहूर्त्त हो तो कोई हर्ज नहीं मगर होना चाहिए वह बहुत बढ़िया । जब आप, ज्योतिषीजी और अमीचंदजी इसीको ठीक समझते हैं तो यही रहने दीजिए। मगर खेद है कि मैं इससे लाभ न उठा सकूँगा । करीब एक महीनेका अन्तर है और मेरे पास सरकारी ठेका है, इसलिए इतने समयतक मैं यहाँ नहीं रह सकता । समय आनेपर आप खुशीसे दीक्षा दीजिए। यदि मौका मिलेगा और सरकारसे छुट्टी पासकूँगा तो उस समय जरूर आऊँगा । मैंने कुछ अनुचित व्यवहार किया हो; मन, वचन या कायसे मैंने किसी तरहकी आपको तकलीफ दी हो; आपका मन दुखाया हो तो उसके लिए आप मुझे क्षमा करें। मैं अज्ञानी हूँ। मेरी बातोंका खयाल न करें । " I खीमचंदभाईका हृदय भर आया । उन्होंने महाराज साहबके चरण पकड़ लिए । आचार्यश्रीने उन्हें उठाया और मधुर शब्दों में कहा :- “ खीमचंदभाई ! तुमने बहुत बहादुरीका काम किया है । तुम निकट भव्य जीव हो । मैंने कइयोंको दीक्षा दी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । है, मगर यह पहला ही अवसर है कि दीक्षा लेनेवालेको इस तरह आनंद और उत्साहसे आज्ञा मिली हो । तुमने शास्त्रोंके वचनोंको सत्य कर दिखाया है । तुम्हारा भाई होनहार है । उससे जैनधर्मकी प्रभावना होगी । " खीमचंदभाईने नम्रता से कहा : - " गुरुदेव ! मैं यही चाहता हूँ कि, आपकी वाणी सफल हो । मैं अपना प्यारा भाई, अपनी दाहिनी भुजा आपकी रक्षामें छोड़ता हूँ । उसे आप सदा अपने चरणोंमें रक्खें; कभी उसको अलग न करें। वह बालक है । उसका कोई गुनाह हो जाय तो आप दयालु क्षमा कर दें । " बोलते बोलते खीमचंदभाईकी आँखोंसे जल बह चला । आह ! आज भाईको छोड़ते कितना दुःख खीमचंदभाईको हुआ होगा ? भगवान महावीरके समान अवतारी, पुरुषोंके ज्येष्ठ बंधु नंदीवर्द्धनके समान ज्ञानियोंका हृदय भी जब दृढ न रह सका तो खीमचंदभाईका हृदय उमड़ आया, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? फिर खीमचंदभाईने आपको छातीसे लगाया, आपके मस्तकको अभ्रुजलसे अभिषिक्त किया ओर करुण कंठसे कहा:" छगन ! भाई !" खीमचंदभाईका गला रुंध गया । हमारे चरित्रनायक भी आँसू न रोक सके । आह ! कैसा करूण दृश्य था ? जितने साधु और श्रावक वहाँ मौजूद थे सबकी आँखोंमें पानी था | आज भाई भाईसे जुदा होता है । सबके हृदयमें प्रश्न उठता है - " आज यदि हमारा भाई भी हमसे जुदा होता तो हमारी क्या हालत होती ? " ५७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आदर्श जीवन । ~~~~ ~~~~~ unuw anranimua n and आँसू हृदयको हल्का करने की एक अमोघ ओषधि है। जब खीमचंदभाई बहुत आँसू बहा चुके तब उनका मन स्थिर हुआ और वे बोले:-" प्यारे भाई ! देखना जिस उत्साहसे आज दीक्षा लेनेको तैयार हुआ है वह उत्साह कभी ठंडा न पड़े। सदा शुद्ध चरित्र रखना । संयम पालनेमें शिथिलता न करना । कोई ऐसा काम न करना जिससे गुरुके या पिताके नामपर कलंक लगे । सदा गुरु महाराजकी आज्ञामें रहना और धर्मसेवा कर शासनको देदीप्यमान करना ।" ___ आपने अपने भाईकी पदरज सिरपर लगाई और कहा:" दादा ! आपके आशीर्वादसे मेरा उत्साह कभी शिथिल न होगा । मैंने आपको कष्ट पहुँचाया है इसके लिए मुझे क्षमा करें।" __ खीमचंदभाईने एक बार और छगनको छातीसे लगाया । और हमेशाके लिए छगनको-छगन नामको विदा कर दिया। फिर वे साधुमंडलीको वंदना कर वहाँसे रवाना हुए । चलते समय खीमचंदभाईने कुछ रकम पारख मोहन टोकरसीको दी और कहा:-" सेठ ! यदि संभव होगा तो मैं दीक्षाके मौकेपर आजाऊँगा अन्यथा मेरी यह थोड़ीसी भेट दीक्षा महोत्सवमें शामिल करलेना।" खीमचंदभाई बडोदे चले गये और दीक्षा महोत्सवपर न आसके। बड़ी धूमसे दीक्षाकी तैयारी हुई। एक महीने तक लगातार Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | शादी में निकलते हैं वैसे जुलूस निकलते रहे । अन्तमें आपको वह धन मिला जिसको पाकर किसी वैभवकी जरूरत नहीं रहती; वह चाबी मिली जिससे अनन्त सुखभंडारके ऊपर लगा हुआ कर्म- ताला खुल जाता है; वह साधन मिला जिससे जीवन के अनन्त अशान्त वातावरण शान्त हो जाते हैं; वह तरणी - नौका मिली जिससे कर्णधार - मल्लाहके बिना ही जीव भवसागर से पार हो जाता हैं, अर्थात आपको सं० १९४४ के वैशाख सुदी १३ के दिन शुभ मुहूर्तमें सूरिजी महाराजने दीक्षा दे दी । आपका नाम वल्लभविजयी ' रक्खा गया । आप स्वर्गीय हर्षविजयजी महाराजके शिष्य हुए । जिस दिन आपने संयम लिया उस दिन आपको ऐसी प्रसन्नता हुई मानों दरिद्रको चिन्तामणि रत्न मिल गया; मानों बरसोंसे तपस्या करते हुए तपस्वीको आत्म साक्षात्कार हो गया । " दीक्षा लेनेके बाद आपका ( सं० १९४४ का ) पहला चातुर्मास राधनपुरहीमें सूरिजी महाराजके साथ हुआ । यहाँ आप चंद्रिका पूर्वार्द्ध तक ही पढ़ सके । कारण--कुछ अरसे तक तो आपको अपने समयका बहुत बड़ा भाग, साधुधर्मसे सम्बंध रखने वाली, ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा रूप क्रियाएँ, सीखनेमें देना पड़ता था; फिर पं. अमीचंद्रजी अपने किसी खास कामके सबब अपने घर पंजाब में चले गये थे । चातुर्मास समाप्त हुआ । आपने वहाँसे आचार्यमहाराज और अपने गुरु महाराजके साथ विहार किया । श्रीसंखेश्वरा ५९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पार्श्वनाथकी यात्रा कर आपने अपने हृदयको पवित्र किया । वहाँसे अहमदाबादके लिए रवाना हुए। मार्गमें जब मांडल पहुँचे तब खीमचंदभाई सपरिवार वहाँ आपके दर्शनार्थ आपहुँचे । जीवनका कैसा विचित्र परिवर्तन हो जाता है ? पूज्य पूजक, सेव्य सेवक भावनामें कैसे फरक आ जाता है ? दोनों सांसारिक भाइयोंकी भेट इसका बहुत ही बढ़िया उदाहरण है । कुछ ही महीनों पहले जिनकी पदरज आप मस्तक पर चढ़ाते थे वे ही आज आपकी पदधृलि लेकर अपनेको धन्य मानने लगे। कुछ महीनों पहले जो आपको उपदेश देते थे उन्हींको आज आप उपदेश देते थे। __ आपके सांसारिक कुटुंबने सबसे पहले यहीं अपने कुलरत्नके दर्शन किये । समस्त कुटुंब वंदना कर सामने बैठ गया और बाल साधुके दर्शन करने लगा। आपकी बहिन, भोजाई और आपके भाई आदिकी आँखोंमें प्रेमाश्रु थे। जिस सिरको वे बालोंसे सुशोभित बढ़िया टोपीसे ढका देखते थे, वही सिर आज केश--रिक्त घोट मोट है । जिस शरीरको वे सुंदर वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित कर प्रसन्न होते थे वही शरीर आज एक कपड़ेसे ढका हुआ शीतल वायुका क्रीडाक्षेत्र हो रहा है । जो पैर जुराबों और बूटोंसे सदा सुरक्षित रहते थे वे ही आज सर्दी के मारे फट गये हैं । आह ! ऐसा दुःख मय जीवन यह सुकुमार कैसे बितायगा ? मगर इस बातका उन्हें संतोष भी था कि, उनके कुलमें एक ऐसा सुपूत भी | Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। Ans जन्मा है जिसने 'वसुधैव कुटुंबकम् ' कहावतको चरितार्थ किया है। __ मॉडलसे विहार करके आप श्रीसूरिजी महाराजके साथ अहमदाबाद पधारे । श्री सूरिजी महाराजकी आँखोंमें मोतिया हो गया था। उसे निकलवानेके लिए कुछ अधिक समयतक यहाँ रहना पड़ा। + + + + ... (सं० १९४५ से सं० १९५० तक) श्रीसूरिजी महाराज अहमदाबादसे विहार करके महेसाना पधारे और सं० १९४५ का चौमासा वहीं किया । सूरिजी महाराजके साथ ही हमारे चरित्रनायकका भी दूसरा चौमासा वहीं हुआ। उस चौमासे में डॉ. ए. एफ. रुडॉल्फ हानलके साथ, अहमदाबाद निवासी सेठ मगनलाल दलपत भाईकी मारफत, पत्रव्यवहार शुरू हुआ। ये डॉक्टर रॉयल एशिया टिक सोसायटीके एक चुनंदा कार्यकर्ता थे । पाठकोंको यह मालूम है कि, श्रीसूरिजी महाराजके पत्रव्यवहारका काम प्राइवेट सेक्रेटरीकी तरह, दीक्षा होनेके पहलेहीसे, आपको पालीतानेमें मिल गया था। वह काम उस समय भी आपही करते थे । डॉक्टर महाशयके जो प्रश्न आते थे उनके उत्तर पेन्सिलसे लिख कर श्रीसूरिजी महाराज आपको दे देते थे । आप उसकी स्याहीसे सुंदर अक्षरोंमें नकल कर देते थे। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। जहाँ जहाँ सत्रोंके पाठ आते थे वहाँ वहाँ श्री सरिजी महाराज सूत्रोंके अध्याय और श्लोकों की संख्या लिख दिया करते थे। आप सूत्रोंमेंसे उनकी नकल कर लिया करते थे। इस काममें आपका बहुतसा समय चला जाता था, इसलिए आप वहाँपर व्याकरण विशेष रूपसे अध्ययन न कर सके; परन्तु गीतार्थ गुरु श्रीमूरिजी महाराजके चरणों में रहनेसे और उनकी आज्ञानुसार कार्य करनेसे सैधांतिक बहुतसा अपूर्व ज्ञान आपको प्राप्त हुआ। गुरुचरणोंमें रहनेका यही तो शुभ फल है । श्रीहरिभद्रमूरि महाराज पंचाशकजीमें फर्माते हैं नौणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते अ। धन्ना आव कहा जे गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥ आपने इस उपदेशके अनुसार हमेशा आचरण किया। अर्थात् जबसे दीक्षित हुए तभीसे आप अपने गुरुमहाराज श्री १०८ श्री हर्षविजयजी महाराज और आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरिजी महाराजकी छत्रछायामें रहे और उनकी सेवा भक्तिपूर्वक करते रहे । इतना ही क्यों दीक्षा लेनेके पहलेहीसे आप गुरुभक्ति करते रहे । इसका फल यह हुआ कि, गुरुमहाराजने आपको ऊँचा उठाकर अपने बराबर बिठा लिया । अर्थात् आपको गुरुकृपासे और गुरु आज्ञासे सं० १९८१ में लाहोरमें आचार्य पदवी प्राप्त १ जो यावज्जीवन गुरुकुलवास नहीं छोड़ता है, वह ज्ञानका भागी होता है और उसके दर्शन तथा चारित्र स्थिरतर होते हैं । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ६३ हो गई | सच है भक्ति कभी निष्फल नहीं होती । इसी लिये तो श्री १००८ श्रीमानतुंगाचार्य महाराज, भगवान श्री आदिनाथकी स्तुति करते हुए भक्तामरके दसवें काव्यमें लिखते हैं ? - नात्यद्भुतं भुवनभूषणभूत नाथ, भूतैर्गुणैर्भुवि भवंतमभिष्टुवंतः तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किंवा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ इस चौमासेही में आपको, यद्यपि व्यवहारसे नहीं तथापि निश्चय से, आचार्यश्रीने पढ़ानेका काम करनेकी आज्ञा देकर, उपाध्याय पदवी प्रदान कर दी । इसलिए आपको अध्ययन करते हुए भी उपाध्यायका यानी अध्यापनका काम करना पड़ता था । झवाड़ानिवासी दीपचंद भाई; दशाड़ानिवासी वर्द्धमानभाई, पाटननिवासी वाडीलालभाई और अहमदाबाद निवासी मगनलालभाई ये चारों सज्जन दीक्षालेनेकी अभिलाषासे श्रीसूरिजी महाराजके चरणोंमें उपस्थित हुए थे । इन्हें आप जीवविचार, नववाद प्रकरण और व्याकरण पढ़ाते थे । स्वयं इस प्रकार काममें लगे रहने पर भी आपने वृद्ध मुनिराज श्री १०८ श्री १ - - हे नाथ ! हे जगत्के भूषण ! आपकी स्तुति करनेवाले - आपके भक्त-यदि आपके ही सत्य गुणों से आपके समान हो जाते हैं तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है । वह स्वामी किस कामका है जो अपनी संपत्ति से निजाश्रितों को अपने • समान नहीं बना लेता है ? Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। wwwwwwwwwwwwwww प्रमोदविजयजी महाराज और मुनि महाराज श्री १०८ श्री अमरविजयजी महाराजके पाससे चंद्रिकाके उत्तरार्धका दसगणों पर्यंत अध्ययन कर लिया। महेसानासे विहार करके श्रीसूरिजी महाराज वडनगर, विसनगर होते हुए श्रीतारंगाजी तीर्थकी यात्रा करनेके लिए खेरालु पहुँचे । यहाँ गोधानिवासी श्रीयुत मगनलाल भाई, दीक्षालेनेके इरादेसे आये । आचार्यश्रीने अगले चार विद्यार्थियोंके साथ इन्हें भी पढ़ानेके लिए आपको सौंप दिया। आप पाँचों विद्यार्थियोंको सस्नेह विद्या पढ़ाते रहे । आचार्यश्री तारंगाजीकी यात्रा करके विचरण करते और भक्तजनोंको उपदेशामृतका पान कराते हुए पालनपुर पहुंचे। दीक्षालेनेके इच्छुक भव्य जीवोंको साथ देखकर पालनपुरके श्रीसंघने आचार्यश्रीसे प्रार्थना की कि, इन भाग्यशालियोंको आप यहीं पर दीक्षा दें। हम लोग दीक्षामहोत्सव कर आनंद मनायँगे और अपने आपको धन्य मानेंगे । आचार्यश्रीने संघकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। दीक्षामहोत्सव हो रहा था। उसी समय दो सज्जन दीक्षा लेनेकी अभिलाषासे और आगये। एक थे लीमडीनिवासी श्रीयुत जयचंद भाई और दूसरे थे श्रीयुत अनंतराम । दूसरे स्थानकवासी साधुपनेका त्याग करके आये थे। यहाँ आचार्यश्रीने सात सज्जनोंको सात भयोंकी मिटानेवाली दीक्षा दी। उनके नाम-(१)दीपचंदजीका श्रीचंद्रविजयजी (२) बर्द्धमानजीका श्रीशुभविजयजी (३) मगनलालजीका श्रीमो | Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। VARANA.ORNVAYAMVA--- - तीविजयजी (४) वाड़ीलालजीका श्रीलब्धिविजयजी (५) मगनलालजकिा श्रीमानविजयजी (६) जयचंदजीका श्रीजसविजयजी (७) अनंतरामजीका श्रीरामविजयजी । प्रारंभके तीन १०८ श्रीहर्षविजयजी महाराजके, चौथे १०८ श्रीही रविजयजी महाराजके पाँचवें १०८ श्रीप्रेमविजयजी महाराजके, छठे, उस समय मुनि और इस समय आचार्य श्री १०८ श्रीविजयकमलसूरिजी महाराजके और सातवें १०८ श्रीसुमति विजयजी उर्फ स्वामीजी महाराजके शिष्य हुए। .. पालनपुरसे विहार करके आचार्य महाराज पाली (मारवाड़) पंधारे। आप भी आचार्यश्रीके साथ ही आबूजी पंचतीर्थी आदि तीर्थोकी यात्रा करते हुए पाली पहुँचे । पंच तीर्थीकी यात्रा करने जाते हुए मार्गमें बाली आता है। वहाँ रातको आपने जुबानी ही उपदेश दिया और दूसरे दिन नाडलाईमें व्याख्यान बाँचा । श्रावकोंने आपके व्याख्यानोंको बहुत पसंद किया। ये ही दोनों स्थान हमारे चरित्रनायकके प्रथमउपदेश स्थान हैं। पालीमें आचार्यश्री ने आपको एवं ज्ञानविजयजी, लब्धिविजयजी, मानविजयजी, शुभविजयजी, मोतीविजयजी और जशविजयजी ऐसे सात साधुओंको छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया अर्थात् बड़ी दीक्षा दी। यह दीक्षा सं० १९४६ के वैशाख सुदी १० या ११ को श्रीनवलखा पार्श्वनाथजीके मंदिरमें हुई थी। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। arwww.rrme.... योगोद्वहनकी क्रिया समाप्त होनेपर आचार्यश्री जोधपुर पधारे और आप अपने गुरुमहाराजके साथ पाली ही रहे । श्रीसूरिजी महाराजका चौमासा जोधपुरमें हुआ और आपका हुआ पालीमें । १०८ श्री हर्षविजयजी महाराजकी तबीअत उस समय खराव थी । इस लिए उनकी सेवा करनेके लिए किसी सेवापरायण साधुकी आवश्यकता थी। मूरिजी महाराज हमारे चरित्रनायकको इसके लिए सबसे ज्यादा योग्य समझकर अन्यान्य साधुओंके वहाँ होते हुए भी पाली ही छोड़ गये । इसलिए आपका सं० १९४६ का तीसरा चौमासा पालीमें हुआ। इस चौमासेमें कभी कभी आपको व्याख्यान भी वाँचना पड़ता था । पर्युषणमें तो आपहीको कल्पसूत्र बाँचना पड़ा था । यहीं आपने अपने गुरुमहाराजसे आत्मप्रबोध और कल्पसूत्रकी सुबोधिका टीकाका अध्ययन किया था । १०८ श्रीहर्षविजयजी महाराज बड़े ही शान्त और अध्ययन करानेमें अथक परिश्रम करने करानेवाले सच्चे उपाध्याय थे । आचार्यश्री ( आत्मारामजी महाराज ) के 'एक भी साधु ऐसे न होंगे जिन्हें इन्होंने सूत्राध्ययन न कराया हो । ये उपाध्याय पदके न होते हुए भी वास्तविक उपा'ध्यायका काम करते थे। आप पालीमें थे इसलिए आचार्यश्रीको पत्रव्यवहार और अन्य लेखन के काममें बहुतसी असुविधा हुई । जो जरूरी पत्र होते थे उनका जवाब आचार्यश्री ही लिख देते थे. बाकी Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। मसौदे बनाकर पाली हमारे चरित्र नायकके पास भेज दिया करते थे। उनकी आप नकल कर आचार्यश्रीके पास लौटा देते थे । इसी वर्ष आचार्यश्रीको, डॉक्टर ए. एफ. रुडाल्फ हॉर्नलके कहनेसे, गवर्नमेंटकी तरफसे ऋग्वेद भेटमें मिला था। __ इस चौमासेमें आपने चंद्रिका समाप्त कर ली। थोड़ा अमरकोश भी कंठ कर लिया । पालीके उपाश्रयमें एक ज्योतिर्विद रहते थे। उनका नाम था अमरदत्त । जातिके पुष्करणा ब्राह्मण थे । हमारे चरित्रनायकने उनसे थोड़ा ज्योतिषका अभ्यास भी किया था । चौमासा बीतनेपर आप अपने गुरुमहाराजके साथ पालीसे विहार करके ब्यावर होते हुए अजमेर पहुचे । आचार्यश्री भी जोधपुरसे विहारकर कापरड़ा तीर्थकी यात्रा करते हुए अजमेर पधारे । कापरड़ा तीर्थकी उस समयकी हालतमें और इस समयकी दशामें जमीन आसमानका अंतर है । उस समय इस तीर्थ स्थानकी दशा खराब हो रही थी, मगर आज वह वर्तमान आचार्य श्री १००८ विजयनेमि मूरिजी महाराजकी कृपासे चमन हो रहा है। अजमेरमें उस समय आचार्यश्रीके साथ (१) मुनिमहाराज श्रीकुमुदविजयजी उर्फ छोटेमहाराज (२) मुनि महाराज श्रीकुशलविजयजी उर्फ बाबाजी महाराज (३) मुनि महाराज श्रीहर्षविजयी प्रसिद्ध नाम भाईजी महाराज (४) मुनि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । hAAAAAS. - महाराज श्रीहीरविजयजी (५) मुनि महाराज श्रीकमल विजयजी (६) मुनि महाराज श्रीसुमतिविजयजी प्रसिद्ध नाम स्वामीजी महाराज (७) मुनि महाराज श्रीअमरविजयजी, (८) मुनि महाराज श्रीप्रेमविजयजी (९) मुनि महाराज श्रीमाणिकविजयजी (१०) हमारे चरित्रनायक मुनि महा राज श्रीवल्लभविजयजी (११) मुनि महाराज श्रीज्ञानविजयजी (१२) मुनि महाराज श्रीलब्धिविजयजी (१३) मुनि महाराज श्रीमानविजयजी (१४) मुनि महाराज श्रीजशविजयजी (१५ ) मुनिमहाराज श्रीशुभविजयजी तपस्वी, और (१६) मुनि महाराज श्रीमोतीविजयजी । इस तरह कुलं सोलह साधु थे । अजमेर श्रीसंघमें बड़ा उत्साह था । श्रीसंघने समवसरणकी रचना कराई और अठाई महोत्सवकर अपने आपको कृतकृत्य किया। आचार्यश्रीके साथं उपर्युक्त सभी साधुओंका एक ग्रूप लिया गया था। वह यहाँ दिया जाता है । इसमें आचार्य महाराजंके पीछे जो साधु खड़े हैं उनमें तीनकी संख्यावाला फोटो हमारे चरित्र नायक का है । यही आपका साधु पर्यायका प्रथम दर्शन है । ग्रूपसे जुदा भी हमने यह फोटो दे दिया है । ... अजमेरसे विहार करके आचार्यश्री सपरिवार जयपुर पधारे । वहाँ बड़ी धूमसे स्वागत हुआ । अठाई महोत्सक्के कारण कुछ समयतक यहाँ आचार्यश्रीको ज्यादा ठहरना पड़ा। यहाँ श्रीहर्ष विजयजी महाराजकी तबीअत फिर खराब Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । होगई । इस लिए हमारे चरित्रनायक और अन्य कुछ साधुओंको उनकी सेवाके लिए आचार्यश्रीने वहीं छोड़ा और आपने जयपुरसे विहार किया । श्रीहर्षविजयजी महाराजकी तबीअत सुधर जानेपर उन्होंने दिल्लीकी तरफ विहार किया । उस समय उनके साथ हमारे चरित्रनायक, श्रीशुभविजयजी और श्रीमोतीविजयजी थे। तीनों सेवा भक्ति करते हुए उन्हें आराम से दिल्ली ले गये । दिल्ली में सभी आचार्य महाराजके साथ हो गये । मगर आचार्यश्रीको पंजाब में जाना था और भाईजी महाराजकी तबीअत अभीतक अच्छी नहीं हुई थी । दिल्लीमें हकीमोंका इन्तजाम भी अच्छा था इसलिए उन्हें इलाज करानेके लिए वहीं छोड़ कुछ साधुओं को उनकी सेवा शुश्रूषाके लिए रख आचार्यश्रीने वहाँसे विहार किया । रवाना होते समय श्रीसूरिजी महाराजने हमारे चरित्रनायकको - जो कि आयुमें उस समय सबसे छोटे थे और जिनपर उनकी खास कृपा भी थी - फर्माया :- “ दिल्लीमें अच्छे अच्छे हकीम हैं । यहीं तुम लोग भाईजीका इलाज कराना। इनकी सेवामें कमी न करना । ये आराम हो जायँ तब तुम हमसे आ मिलना । अपना चौमासा साथ ही होगा । यदि इनकी शारीरिक दुर्बलताके कारण यहीं चौमासा करना पड़ेगा तो भी कुछ हानि नहीं है । क्योंकि यहाँका श्रीसंघ तुम्हारी सेवा, भक्तिमें कुछ कमी नहीं करेगा। मैं जानता हूँ तुम तीनों ही ( श्रीशुभविजयजी, • ६९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। Apar श्रीमोतीविजयजी और हमारे चरित्रनायक ) इस देशसे अजान हो और बच्चे हो; मगर मुनि श्रीकमलविजयजी यहीं चौमासा करनेका इरादा रखते हैं। ये बड़े हैं और इस देशसे. परिचित भी हैं इसलिए ये तुम्हारा खयाल रक्खेगें।" __ आचार्यश्रीके विहारके बाद श्रीहर्षविजयजी महाराजकी व्याधि बढ़ गई। श्रावकोंने हकीम महमूदखाँ का:-जो दिल्लीहीमें नहीं बल्के सारे हिन्दुस्थानमें प्रख्यात थे-इलाज कराना प्रारंभ किया। हकीमजीने बड़े परिश्रमके साथ इलाज और मुनिराजोंने तनदेहीसे सेवा, शुश्रूषा की; मगर आईका उपाय क्या ? जीवनके टूटे हुए धागेको कौन जोड़ सकता है ? हकीम, डॉक्टर, वैद्य, यंत्र, मंत्र, तंत्रादि कोई कुछ काम नहीं आता । भाईजी महाराजकी तबीअत बिगड़ती ही गई। पालीमें श्रीहर्षविजयजी महाराजकी तबीअत एक. यतिजीके इलाजसे सुधर गई थी इसलिए श्रीसंघ दिल्लीने उन्हें बुलाया । यतिजीने उन्हें भली प्रकार देख भाल कर कहा:-" दवा और वैद्य साध्य रोगीके लिए उपयोगी होते हैं असाध्यके लिए नहीं । असाध्य वह होता है जिसकी जीवनडोरी सर्वथा जर जर हो जाती है। जिसका टिक रहना असंभव हो जाता है । मैं अपनी साठ बरसकी उम्रके अनुभवसे कह सकता हूँ कि, अब इनका इलाज करना मानों राखमें घी उँडेलना है।" Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । जंडियाला गुरु ( पंजाब ) के वैद्य सुखदयालजी भी आचार्यश्रीके आदेशसे वहाँ आये थे । उनकी आयु करीब सत्तर वर्षके होगी । उन्होंने भी यही सलाह दी बल्के यहाँ तक कहा कि, " मुझे गुरु महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरि महाराजकी यह आज्ञा है कि:-यदि तुम्हारे ध्यानमें यह बात बैठ जाय कि साधु अब बचेंगे नहीं तो तुम तत्काल ही पासके साधुओंको सूचित कर दो, ताके वे लोग अपनी धार्मिक क्रियाओंका प्रबंध कर लें । " फिर उन्होंने हमारे चरित्रनायककी तरफ मुखातिब होकर कहा :- " मैं जानता हूँ, ये आपके गुरु हैं । आपको जरूर रंज होगा; मगर मैं भी इनका सेवक हूँ मुझे भी रंज होता है तो भी आपका तथा मेरा यह कर्तव्य है कि, हम इनका अन्त समय सुधरे वह काम करें । मेरी बातका विश्वास कीजिए कि ये आजकी रात न निकालेंगे । यदि रात निकल गई तो कोई खतरा नहीं है । ” भाईजी महाराज इनकी बातें सुन रहे थे । वे बोले :- " वल्लभ ! सुखदयालजी और यतिजी ठीक कहते हैं । अब आखिरी समय आ पहुँचा है । मैंने मनमें संथारा ( अभिग्रह ) ले लिया है । तुम किसी तरहकी चिन्ता न करो। " फिर उन्होंने विधिपूर्वक, आलोचना, निंदा, देववंदन, गुरुवंदन आदि किया; तब - ' जइ मे हुज्ज पमाओ इमस्स देहस्स' इत्यादि और -' चचारि मंगलं' आदि पाठोच्चार द्वारा ७१ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आदर्श जीवन। चारों शरण धारण किये । 'खामेमि सव्वजीवे ' गाथा पढ़कर सबसे क्षमा प्रार्थना की और तब 'अरिहंतो मह देवो' आदि गाथाको पढ़ते हुए पंचपरमेष्ठि नमस्कार मंत्रके ध्यानमें लीन हो गये । ऐसे लीन हुए कि, फिर वह ध्यान न टूटा । उनका जीवनहंस इस भौतिक-औदारिक शरीरका त्यागकर हमेशाके लिए चला गया । अर्थात् सं० १९४७ के चैत्र सुदी १० ता० २१-३-१८९० सोमवारके दिन १०८ श्रीहर्षविजयजी महाराजका स्वर्गवास हो गया। दिल्लीके श्रीसंघने दूसरे दिन यानी चैत्र शुक्ल ११ के दिन बड़ी धूम धामके साथ उनके शरीरका अग्निसंस्कार किया। दिल्लीमें लाल किलेके पास बाजा बजानेकी किसीको इजाजत नहीं है मगर उस दिन इजाजत मिल गई। जिस समय उनका स्वगवास हुआ उस समय उनके पास मुनि महाराज श्रीहीरविजयजी, मुनिमहाराज श्रीशान्तिविजयजी, मुनिमहाराज श्रीअमरविजयजी, मुनि महाराज श्री माणिकविजयजी, हमारे चरित्रनायक, मुनि श्रीशुभविजयजी तपस्वी, मुनि श्रीमोतीविजयजी, मुनि श्रीलब्धिविजयजी और मुनि श्रीजशविजयजी मौजूद थे। गुरुवियोगका आपको कितना दुःख हुआ होगा उसे यह लोहेकी लेखनी कैसे बता सकती है ? यह अनुभव करनेकी बात है। हम केवल इतनाही लिख सकते हैं कि, असह्य दुःख हुआ हागो। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - अब दिल्लीमें रहना आपके लिए कठिन हो गया। आपने वहाँसे विहार करनेकी ठान ली। दिल्लीके श्रीसंघने चौमासा वहीं करनेकी विनती की। मुनि महाराज १०८ श्रीकमलविजयजी आदिने कहा:--" तुम किसी तरहकी चिन्ता न करो। हम तुम्हारे पढ़ने लिखनेका सब इन्तजाम कर देंगे। तुम्हें किसी तरहकी तकलीफ न होने देंगे ।" मुनि महाराज १०८ श्री शान्ति विजयजीने कहा:-" मैं खुद तुम्हें जितनी देर चाहोगे उतनी देर पढ़ाऊँगा। तुम यहीं रहो।" ___ आपने कहा:-" आपकी मुझपर असीम कृपा है कि, आप मुझे अपने पास रखना चाहते हैं । मुझे इस बातका फ़न है और मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ। मगर मेरा अन्तरात्मा कहता है कि, मुझे गुरुचरणों या आचार्यश्रीके चरणोंके सिवा अन्यत्र कहीं शान्ति नहीं मिलेगी। गुरुचरण तो अब असंभव होगये हैं अतः श्रीआचार्य महाराजके चरणोंमें जाकर ही रहूँगा।" __ आपने अपने दोनों सतीर्थी-गुरु भाई श्रीशुभविजयजी और श्री मोती विजयजीको साथ लेकर दिल्लीसे पंजाबकी तरफ विहार किया। तीनों इस देशसे अपरिचित थे। इस लिए बड़ी सड़क " पर चल पड़े और क्रमशः अंबाले शहरमें जा पहुँचे । जब आपने सुना कि, आचार्यश्री छावनीमें पधार गये हैं तब आप सामने गये और भेट होने पर आचार्यश्रीके चरणों में Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आदर्श जीवन । गिरकर रोने लगे । आचार्यश्रीने आपको हाथ पकड़कर उठाया और धीरज बँधाया-"क्यों इतना दुखी होता है? जो भावी ज्ञानी महाराजने ज्ञानमें देखा था वह हो गया।" ___ आप बोले- अब आप मुझे कभी अपने चरणोंसे दूर न करें।" ___आचार्यश्रीने प्यारसे पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा: " चिन्ता न कर जैसा तू चाहेगा वैसा ही होगा।" ___ आचार्यश्री छावणीसे विहार कर अंबाला शहरमें पधारे ।। कई वर्षोंके बाद पुनरागमन होनेसे, पंजाबके सभी शहरोंके लोग आचार्यश्रीके दर्शनार्थ आने लगे। श्रीसूरिजी महाराजके साथ उस समय पन्द्रह साधु थे । ( १ ) श्रीकुमुदविजयजी महाराज (२) श्रीचारित्रविजयजी महाराज (३) श्रीकुशलविजयजी महाराज (४) श्रीहीरविजयजी महाराज (५) श्रीउद्योतविजयजी महाराज ( ६ ) श्रीसुमतिविजयजी महाराज (७)श्रीसुंदरविजयजी महाराज (८) श्रीअमरविजयीमहाराज (९) श्रीमाणिक विजयजी महाराज (१०) हमारे चरित्रनायक (११) श्रीलब्धिविजयजी महाराज (१२) श्रीशुभविजयजी महाराज (१३) श्रीमोतीविजयजी महाराज (१४) श्रीभक्तिविजयजी महाराज और (१५) श्रीरामविजयजी महाराज। - बाहरसे आनेवाले श्रावकोंकी दृष्टि हमारे चरित्रनायकी तरफ अवश्य आकर्षित होती थी। इसका कारण यह था. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ७५ - कि, एक तो आपकी आयु सबसे छोटी थी। अभी मुँहपर मूंछकी रेखाएँ भी नहीं उठी थीं; दूसरे जब वे देखते तभी आप उन्हें, आचार्य महाराजके पास बैठे कुछ पढ़ते, लिखते तत्वान्वेषण करते या आचार्यश्रीको गुजरातीका अखबार सुनाते नजर आते थे। एक दिन श्रावकोंने आचार्यश्रीसे पूछा:-" ये छोटे महाराज क्या पढ़ते हैं ?" आचार्यश्रीने मुस्कराकर फर्माया,-" पंजाबकी रक्षा" सुनकर श्रावक एक दूसरेका मुँह देखने लगे । तब आचार्यश्रीने कहा:--" मैं इसको पंजाबके लिए तैयार करता हूँ। मुझे विश्वास है कि, यह यथाशक्ति जरूर पंजाबकी रक्षा करेगा।" पंजाबका श्रीसंघ उसी दिनसे आपके प्रति विशेषरूपसे भक्तिभाव रखने लगा। वह उत्तरोत्तर बढ़ता गया और बढ़ता ही जा रहा है। उस समय पंजाबमें स्थानकवासी साध्वी श्रीपार्वतीजीकी अच्छी प्रसिद्धि हो रही थी। उन्होंने ज्ञान दीपिका नामकी एक पुस्तक लिखी। उसमें कई बेसिरपैरकी बातें लिख डाली थीं। हमारे चरित्रनायकने उसके उत्तर स्वरूप गप्पदीपिका समीर नामकी पुस्तक तैयार की। यह आपकी प्रथम बाल-रचना और गुरुकृपाका फल थी। ____ अंबालेके श्रीसंघने आचार्यश्रीसे वहीं चौमासा करनेकी प्रार्थना की, मगर मूरिजी महाराजने मालेरकोटलामें चौमासा करनेकी इच्छा प्रकट की। इस पर अन्य साधुओंके लिए Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ . आदर्श जीवन । आचार्यश्रीसे प्रार्थना की गई। आचार्यश्रीने श्रीचारित्रविजयजी महाराज आदि कुछ साधुओंको वहीं चौमासा करनेकी आज्ञाकर लुधियानाकी तरफ विहार किया। बड़े समारोहके साथ लुधियानाके श्रीसंघने आचार्यश्रीका नगर प्रवेश कराया। आचार्यश्रीने लुधियानाके श्रीसंघको उपदेशामृत पान कराकर निहाल किया । वहाँके श्रीसंघकी प्रार्थनाको स्वीकार कर आचार्यश्रीने मुनि श्रीउद्योतविजयजी महराज, मुनि श्रीसुंदरविजयजी महाराज आदि साधुओंको वहीं चौमासा करनेकी आज्ञा दी । . आपके बड़े गुरुभाई मुनि श्रीप्रेमविजयजी महाराज, किसी कारण वश, भाईजी महाराजके स्वर्गारोहणके पहिले ही, दिल्लीसे विहार कर पंजाबमें चले आये थे । यहाँ उनके साथ हमारे चरित्रनायककी भेट हुई। आपने अपने तीनों गुरु भाइयोंसे सलाह करके आचार्यश्रीसे अर्ज की कि, हम स्वर्गीय गुरुमहाराजके नामका एक ज्ञानभंडार यहाँ स्थापित कराना चाहते हैं । आचार्यश्रीने प्रसन्नतापूर्वक इजाजत दे दी । लुधियानेमें, 'श्रीहर्षविजयजी-ज्ञानभडारं । नामसे एक पुस्तकालय स्थापित हुआ जो पीछेसे आचार्यश्रीकी इच्छानुसार जंडियालागुरुमें पहुँचा दिया गया। __ आचार्यश्री लुधियानासे विहारकर मालेरकोटला पधारे । सं० १९४७ का चातुर्मास वहीं किया । हमारे चरित्रनायक का यह चौथा चौमासा था । यहाँ आपने कुछ न्यायका भी अभ्यास किया। अमरकोष समाप्त किया और अभिधान Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ७७ चिन्तामणि नाममालाका भी बहुतसा भाग कर लिया । आचार्यश्रीके पास दशवकालिककी, श्रीहरिभद्रमुरिमहाराज विरचित बृहट्टीकाका और आचारप्रदीप शास्त्रका अभ्यास किया । उपाध्यायजी महाराज श्रीसमय सुंदरजी रचित दशवकालिककी लघु टीकाका अभ्यास आप पहले ही पालीसे दिल्ली जाते हुए मार्गमें भाईजी महाराजके पाससे कर चुके थे । चौमासेके व्याख्यानमें आचार्य महाराज विशेष आवश्यकमेंसे गणधरवाद और श्रीवासुपूज्यचरित्रका उपदेश फर्माते थे। उसको भी आप धारण करते जाते थे। आपमें गुरुगमता और प्रभावोत्पादक व्याख्यान देने का जो ढंग है वह आचार्यश्रीके निरंतर व्याख्यान-श्रवणका ही प्रभाव है। जबतक आचार्यश्री जीवित रहे और जब तक वे व्याख्यान देते रहे तबतक हमारे चरित्रनायकने कभी आचार्यश्रीके व्याख्यानोंका सुनना न छोड़ा । केवल दो चौमासोंमें आप आचार्यश्रीके व्याख्यान न सुन सके । एक बार आपका चौमासा पालीमें हुआ था तब, और दूसरी बार आपका चौमासा अंबालेमें हुआ था तब । ___ आजकल मुनिराज दीक्षा लेनेके पहले तक तो बड़े ध्यानसे व्याख्यान सुनते हैं। परन्तु दीक्षित हो जानेके बाद वे गुरु जनोंके व्याख्यान सुनना छोड़ देते हैं। वे सोचते हैं अब तो हम खुद ही उपदेशदाता हो गये हैं। अब हमें गुरुजनोंके व्याख्यान सुनने की क्या आवश्यकता है ? मगर वे यह नहीं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । सोचते कि, व्याख्यानमें कभी कभी अपूर्व बातें आ जाया करती हैं, जिनका स्पष्टीकरण गुरुजन व्याख्याके समय ही किया करते हैं । अस्तु । मालेरकोटलासे विहार कर आचार्यश्री रायकोट जगराँवा आदि स्थानोंमें होते हुए जीरा पधारे । एक मासकल्प वहीं विताया । वहाँसे विहारकर हरिकापत्तन-जहाँ विपासा ( व्यास ) और शतद्रु. ( सतलज ) का संगम होता हैनौका द्वारा पारकर पट्टी पधारे । श्रीसंघने बड़े उत्साहके साथ आचार्यश्रीका स्वागत किया । आचार्यश्री उन्हें उपदेशामृत पिला निहाल करने लगे। पट्टीके श्रीसंघने आचार्यश्रीसे सं० १९४८ का चौमासा वहीं करनेकी प्रार्थना की । आचार्यश्रीने श्रावकोंका उत्साह देख, क्षेत्रको उत्तम समझ, व्यवहारतया यह कहकर उनकी विनती स्वीकार ली कि, यदि ज्ञानीने क्षेत्रस्पर्शना देखी होगी तो समय पर विचार कर लिया जायगा। पट्टीमें उत्तमचंद्रजी नामके एक वृद्ध विद्वान पंडित रहते थे । आचार्यश्रीकी आज्ञा पाकर आपने उनके पास पढ़ना प्रारंभ किया। पहले आपने चंद्रिकाके कठिन कठिन स्थलोंका स्पष्टीकरण कराया । उनकी विवेचन शैलीने आपको इतना आकर्षित किया कि आपने चंद्रिकाकी पुनरावृत्ति करनी शुरू कर दी। पंडितजी चंद्रिका पढ़ानेमें एक अद्वितीय विद्वान थे। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । एक मासकल्प समाप्त होने पर आचार्यश्रीने कसूरकी तरफ विहार किया और हमारे चरित्रनायकको वहीं मुनि श्रीचरित्रविजयजी महाराजके साथ अध्ययन के लिए ठहरनेकी आज्ञा दी । कसूर में मासकल्प करके आचार्यश्री अमृतसर पधारे । हमारे चरित्रनायक भी श्रीचारित्रविजयजी महाराजके साथ विहारकर जंडियाला गुरुमें पधारे । यहाँ आपने एक नैयायिक पंडितसे न्यायबोधिनी और चंद्रोदय इन दो न्याय शास्त्र के ग्रंथोंका आध्ययन किया । कुछ दिनोंके बाद आचार्यश्री भी अमृतसर से विहार कर वहीं पवार गये । वहाँ आपने और १०८ श्रीकमलविजयजी महाराजने सहाध्यायी होकर आचार्यश्री के पास सम्यक्त्व सप्ततिका पढ़ना शुरू किया । कुछ समय बाद आचार्यश्री अरनाथ स्वामीके मंदिरकी प्रतिष्ठा करनेके लिए अमृतसर में पधारे । सं० १९४८ के वैशाख सुदी ६ के दिन बड़े समारोहके साथ प्रतिष्ठा हुई । हमारे । हमारे चरित्रनायक भी आचार्यश्री के साथ प्रतिष्ठा संबंधी कामोंमे लगे रहनेसे कुछ अध्ययन न कर सके । प्रतिष्ठा के बाद जंडियाला होकर प्रथम स्थिर किये हुए विचार अनुसार आचार्यश्री पट्टीमें पधारे । सं० १९४८ का चौमासा वहीं किया । हमारे चरित्रनायकका पाँचवाँ चौमासा पट्टीहीमें हुआ । इस चौमासेमें आचार्यश्रीके -साथ नौ साधु थे । (१) श्री कुमुदविजयजी महाराज ( २ ) ७९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आदर्श जीवन । श्रीकुशलविजयजी महाराज (३) श्रीहीरविजयजी महाराज ( ४ ) श्रीकमलविजयजी महाराज (५) श्रीसुमतिविजयजी महाराज (६) हमारे चरित्रनायक (७) श्रीलब्धिविजयजी महाराज (८) श्रीशुभविजयजी तपस्वी और (९) श्रीमोती विजयजी महाराज इस चौमासेमें हमारे चरित्रनायकने ' चंद्रप्रभा' व्याकरण पंडित उत्तमचंद्रजीके पाससे पढ़ना शुरु किया । साथ ही उनसे कुछ ज्योतिष भी पढ़ते रहे । सहाध्यायी मुनि श्रीकमलविजयजी महाराजके अनुग्रहसे श्रीआवश्यक मूत्रका अध्ययन भी आचार्य श्रीकेचरणोंमें होता रहा। वलाद जिला अहमदाबादके रईस श्रीयुत डायाभाई जो करीब नौ महीनेसे दीक्षा ग्रहण करने की इच्छासे आये हुए थे उन्हें सं० १९४८ के मार्गशीर्ष वदी ५ को आचार्यश्रीने दीक्षा दी। विवेकविजयजी नाम रक्खा । हमारे चरित्रनायकके यही पहले शिष्य हुए। फिर पट्टीसे विहारकर आचार्यश्री सपरिवार जीरा पधारे। वहाँ सं० १९४८ के मार्गशीर्ष शुक्ला ११ के दिन श्रीचिन्तामाण पार्श्वनाथजीकी प्रतिष्ठा तथा भरूचनिवासी परम श्रद्धालु, परम भक्त धर्मात्मा सेठ अनूपचंद मलूकचंद कई स्फटिकके जिनबिंब लाये थे उनकी अंजनशलाका कराई। आचार्य महाराज पहलसे ही यह सोच चुके थे कि, वल्लभ विजयजी ही पंजाबकी सारसम्भाल लेंगे इसलिए इसको हरेक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । कार्यसे जानकार बना देना चाहिए। तदनुसार प्रतिष्ठाकी और अंजनशलाकाकी सारी विधियाँ आचार्यश्रीने अपने सामने हमारे चरित्रनायकसे कराई। _प्रतिष्ठाके बाद आचार्यश्रीने होशियारपुरकी तरफ़ विहार किया; क्योंकि वहाँपर सं० १९४८ के माघ सुदी ५ के दिन लाला गुज्जरमलजीके बनाय हुए मंदिरमें श्रीवासुपूज्य स्वामीकी प्रतिमा प्रतिष्ठित करानी थी। आचार्यश्रीने हमारे चरित्रनायकको कुछ साधुओंके साथ पट्टी यह कहकर भेज दिया कि, तुम जाकर वहाँ अध्ययन करो। हम धीरे धीरे होशियारपुर पहुँचेंगे, तब तुम भी समयपर वहाँ आ पहुँचना । तदनुसार हमारे चरित्रनायक पट्टी चले गये। प्रतिष्ठाके समय आप होशियारपुर गये। वहाँ भी आचार्यश्रीकी अतुल कृपाके कारण आप प्रतिष्ठाके हरेक कार्यमें भाग लेते रहे। __ होशियारपुरकी प्रतिष्ठाके समय आचार्यश्रीकी सेवामें अठाईस साधु मौजूद थे । (१) मुनि श्रीचंदनविजयजी महाराज (२) मुनि श्रीकुमुदविजयजी महाराज ( छोटे महाराज) (३) मुनि श्रीचारित्रविजयजी महाराज (४) मुनि श्रीकुशलविजयजी ( बाबाजी महाराज) (५) मुनि श्रीहीरविजयजी महाराज (६) मुनि श्रीकमलविजयजी महाराज (७) मुनि श्रीउद्योतविजयजी महाराज (८) मुनि श्रीसुमतिविजयजी महाराज ( स्वामीजी महाराज) (९) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। मुनि श्रीवीरविजयजी महाराज (१०) मुनि श्रीकान्तिविजयजी महाराज (११) मुनि श्रीहंसविजयजी महाराज (१२) मुनि श्रीसुंदरविजयजी महाराज (१३) मुनि श्रीजयविजयजी महाराज (१४) मुनि श्रीअमरविजयजी महाराज (१५) मुनि श्रीप्रेमविजयजी महाराज (१६) मुनि श्रीराजविजयजी महाराज (१७) मुनि श्रीसंपत्विजयजी महाराज (१८) मुनि श्रीमाणिकविजयजी महाराज (१९) हमारे चरित्रनायक (२०) श्रीलब्धिविजयजी महाराज (२१) श्रीमानविजयजीमहाराज (२२) श्रीजशविजयजी महाराज (१३) श्रीशुभविजयजी महाराज (२४) श्रीमोतीविजयजी महाराज ( २५) श्रीदानविजयजी महाराज (२६) श्रीचतुरविजयजी महाराज ( २७ ) श्रीभक्तिविजयजी महाराज और (२८) श्रीगौतमविजयजी महाराज । संवत १९४९ का चौमासा आचार्यश्री होशियारपुरहीमें करनेका इरादा रखते थे; क्योंकि होशियारपुरहीके नहीं बल्के सारे पंजाबश्रीसंघके मुखिया लाला गुज्जरमलजी और लाला नत्थूमलजीकी साग्रह विनती थी। इसीलिए आचार्यश्रीने हमारे चरित्रनायकको मुनिश्रीवीरविजयजी महाराजके सिपुर्द करके उन्हें फर्माया-" तुम चौमासा पट्टीमें करनेका इरादा रखना । कारण-वल्लभविजयका चंद्रप्रभा व्याकरणका अवशेष भाग समाप्त हो जायगा। तुम्हारे शिष्य दानविजय आदि भी वहाँ अच्छी तरह अध्ययन कर सकेंगे; क्योंकि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पंडित उत्तमचंद्रजी वहाँ एक बहुत अच्छे पंडित हैं ।" श्रीवीरविजयजी महाराजने सहर्ष इस बातको स्वीकार कर लिया । श्रीवीरविजयजी महाराज हमारे चरित्रनायक आदिको साथ लेकर पट्टी गये । मगर वहाँ मालूम हुआ कि, पंडित उत्तमचंदजी किसी कार्य के लिए बाहर गये हुए हैं और उनके शीघ्र ही लौट आनेकी कोई आशा भी नहीं है । अतः पट्टीमें विशेष न ठहरकर आप श्रीवीरविजयजी महाराजके साथ अमृतसर पधारे । यहाँ पंडित कर्मचंदजीके पास आपने अवशिष्ट चंद्रप्रभाका पाठ शुरू किया श्रीदानविजयजी महाराजने भी चंद्रिकाका उत्तरार्ध अध्ययन करना प्रारंभ किया। पं० कर्मचंद्रजी अच्छे व्युत्पन्न और बुद्धिवान् थे और पदार्थको अच्छी तरह समझाते थे । वे स्वयं भी विशेष अध्ययन करनेके तीव्र अभिलाषी थे इसलिए थोड़े ही दिनों बाद वे बनारस चले गये । अमृतसरके श्रावकोंने तलाश करके पंडित विहारीलालजीका योग मिला दिया । उनके पास आपने न्यायमुक्तावलीका अध्ययन प्रारंभ किया। थोड़े दिनों बाद वे किसी आवश्यक कार्यसे अपने घर चले गये । ८३ उन्हीं दिनोंमें श्रीवीरविजयजी महाराजके पास भावनगरनिवासी सेठ कुँवरजी आनंदजीका एक पत्र आया । उसमें लिखा था कि, " मकसूदाबाद निवासी बाबू बुधसिंहजी दुधेरियाने पालीताने में एक संस्कृतपाठशाला खोली है । जो मुनिराज अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिए यह पाठशाला बहुत Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - ही उत्तम है। पढ़ने योग्य मुनियोंको आप इस पाठशालासे लाभ उठानेकी प्रेरणा करें।" । _ श्रीवीरविजयजी महाराजने यह पत्र हमारे चरित्र नायकको बताया और कहा:-" तुम्हारी अध्ययन करनेकी उत्कट अभिलाषा है । उसको पूरा करनेके लिए यह बहुत ही अच्छा अवसर है। जगह जगह भटकने और जुदा जुदा पंडितोंसे थोड़ा थोड़ा पढ्नेकी अपेक्षा, एक ही स्थानमें, एक ही पंडितसे क्रमशः ग्रंथोंका अध्ययन करना विशेष उत्तम है। इससे विशेष ज्ञानकी प्राप्ति होगी। जिस भाग्यवानने मुनिराजोंके लिए यह प्रयत्न किया है, उसका प्रयत्न भी सफल होगा।" ___ आपके मनमें पढ़नेकी उत्कट अभिलाषा थी; मगर इस समय पढ़नेका कोई साधन नहीं था इसलिए आपके हृदय पर इस प्रेरणाने असर किया । आप हाथ जोड़कर बोले:"आपका फर्माना ठीक है, परन्तु मैं अकेला कैसे वहाँ तक जा सकता हूँ। फिर महाराज साहबका हुक्म भी चाहिए । उनकी आज्ञाके बिना तो मैं एक कदम भी नहीं उठा सकता हूँ।" श्रीवीरविजयजी महाराजने फर्मायाः-" आचार्यश्रीकी आज्ञाके लिए तुम कुछ चिन्ता न करो । यदि तुम्हारी जानकी इच्छा होगी तो आज्ञा मैं मँगवा दूंगा । आचार्यश्रीकी तुम पर पूर्ण कृपा है। वे चाहते हैं कि, तुम पढ़कर तैयार हो जाओ ताके उनके बाद पंजाबकी रक्षा कर सको। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। साथीके लिए अपने साथ जो साधु हैं उनसे पूछ लिया जाय । यदि कोई तैयार हो जायँ तो ठीक है, अन्यथा तुम दोनों गुरुचेले तो हो ही । वहाँ पहुँचने पर अनेक साथी मिल जायँगे । तुम अपने विचार दृढ कर लो, मैं आचार्यश्रीको पत्र लिख देता हूँ।" ___ आपने कहा:-" आप आचार्यश्रीकी आज्ञा मँगवा लें । मैं जानेको तैयार हूँ। यदि और कोई साथी न मिलेगा तो हम दोनों गुरु चेले ही जायँगे । " - श्रीवीरविजयजी महाराजने आचार्यश्रीके पास आज्ञा लेनेक लिए पत्र भेजा । उस पर आपके हस्ताक्षर भी करा लिये । साथके साधुओंसे जब पूछा गया तो उनमेंसे मुान श्रीराज विजयजी महाराज और मुनि श्रीमोतीविजयजी महाराज आपके साथ जानेको तैयार हो गये। आचार्यश्रीकी भी आज्ञा आई कि,-" यदि जानेकी इच्छा हो तो खुशीके साथ जाओ मगर पाँच सालसे ज्यादा उधर न रहना । पाँच सालके अंदर जब इच्छा हो तभी यहाँ लौट आना । इस बातका खयाल रखना कि, कहीं दोनों तरफसे न जाओ।" न खुदा ही मिला न विसाले सनम । .. न इधरके रहे न उधरके रहे। आपने जानेकी तैयारी कर ली । अमृतसरके श्रीसंघने आपको ठहरनेकी विनती की और कहा:-" हम श्रीसंघके दो Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। . आदमी जाकर आचार्यश्रीके पास सब बातें स्थिर कर आते हैं। आप ठहर जाइए।" मगर आपको ज्ञान प्राप्त करनेकी लगन लग रही थी। आप कब सुननेवाले थे । बोले:-" महाराज साहबने आज्ञा कर दी है। अब कोई बात स्थिर करनेके लिए न रही।" श्रीसंघने नम्रता पूर्वक कहा:-" हम आपसे विवाद करना नहीं चाहते मगर हम इतना कहे विना नहीं रह सकते कि आपने आचार्यश्रीके अभिप्रायको नहीं समझा । आचार्यश्रीने स्पष्ट लिखा है कि,-" यदि जानेकी इच्छा होतो जाओ।" इसका साफ् मतलब यह होता है कि, आश्चर्यश्री अपनी इच्छासे आपको नहीं भेजते । यदि वे भेजना चाहते तो आपकी इच्छाकी बात अंदर नलिख कर स्पष्ट लिखते कि,-"तुम अमुक अमुक साधुको साथ लेकर पालीताने चले जाओ।" फिर पत्रमें लिखा है,-" पाँच बरसमें जब चाहो तभी आजाना।" इसका अभिप्राय यह है कि, तुम्हारी इच्छामें हम वाधा डालना नहीं चाहते; परन्तु यथा साध्य जितना शीघ्र हो सके तुम हमारे पास आजाना । पाँच सालसे ज्यादा तो किसी तरहसे भी दूर न रहना । " कहीं दोनों तरफसे न जाओ" यह वाक्य स्पष्ट बताता है कि, आचार्यश्रीकी इच्छा आपको उधर भेजनेकी बिलकुल नहीं है । इतना ही क्यों ? श्रीजी इस वाक्यको लिखकर स्पष्टतया अपना हृद्त बता रहे हैं कि, तुम न जाओ । यदि जाओगे तो दोनों तरफ़से रहोगे । न Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । यहीं कुछ सीख सकोगे और न वहाँसे ही कुछ मिलेगा । अतः आपके लिए महाराज साहबके चरणोंमें रहना ही उत्तम है । ऐसा न हो कि ' आधी छोड़ आखीको जाय, _ आधी रहे न आखी पाय ॥' वाला हिसाब हो जाय और पंजाबके श्रीसंघको इसका फल भोगना पड़े क्योंकि आचार्यश्रीने आपको खास पंजाबश्रीसंघके ही नाम कर दिया है । आपकी और खासकर हमारी इसीमें भलाई है कि आप महाराज साहबके साथ ही रहें।" लाला पन्नालालजी जौहरी, लाला महाराजमलजी सराफ आदिका इस तरहका आग्रह देखकर एवं युक्ति संगत कथन सुनकर आपने फर्मायाः-" आप चिन्ता न करें । मैं पहले यहाँसे महाराज साहबके चरणोंमें जाकर हाजिर होऊँगा । फिर जैसी वे आज्ञा देगें वैसा ही करूँगा।" पंजाबके श्रीसंघने आपकी यह बात मान ली । आप अमृतसरसे विहारकर जंडियाला महेता, श्रीगोविंदपुर आदि स्थानोंमें होते हुए मियानी जिला होशियारपुरमें आचार्यश्रीके चरणों में जा उपस्थित हुए। आपने आचार्यश्रीसे प्रार्थना की कि-"मेरे पढ़ने जानेके विषयमें आपकी क्या आज्ञा है।" आचार्यश्रीने यह सोचकर कि, इनका उत्साह भंग न हो जाय, फर्माया:-" तुम खुशीसे जाओ । मैं नाराज नहीं है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। मगर उधर अधिक समय न लगाना । यथा साध्य शीघ्र ही हमसे आ मिलना।" आप आचार्यश्रीकी आज्ञा लेकर मियानीसे रवाना हुए और जलंधर, लुधियानादि शहरोंमें होते हुए अंबाले पधारे। जबसे आपने अमृतसरसे विहार किया तभीसे सारे पंजाबमें यह खबर फैल गई थी कि, वल्लभविजयजी महाराज गुजरात जाने वाले हैं । इसलिए अमृतसर, होशियारपुर, गुजराँवालादि स्थानोंके श्रीसंघोंके पत्र अंबालेमें श्रीसंघपर और खास खास श्रावकोंके पास भी आये । उनका आशय यह था, कि जैसे हो सके वैसे मुनि श्रीवल्लभविजयजीको अंबालेसे आगे मत जाने देना । कमसे कम इस चौमासेतक उन्हें वहीं रोक लेना। इतनेमें आचार्यश्रीसे अर्ज करके उनके गुजरातमें जानेकी मनाई करवा देंगे। तदनुसार अंबालेके श्रीसंघने आपसे थोड़े दिन वहाँ ठहरनेकी प्रार्थना की। दैवयोग ! स्पर्शना प्रबल ! ज्ञानीका देखा कभी अन्यथा नहीं होता । आपके साथमें आपके बड़े गुरुभाई श्रीराजविजयजी महाराज थे। उन्हें बुखार आने लग गया। करीब एक महीनेसे भी अधिक समयतक बुखारने पीछा नहीं छोड़ा । चौमासा पासमें आ रहा था, तोभी आपने स्थिर कर रक्खा था कि, यदि आषाढ़ सुदी १ तक भी ये चलने लायक हो जायँगे तो आठ दिनमें हम दिल्ली जा पहुँचेंगे। अंबालाके श्रीसंघने आचार्यश्रीके चरणोंमें एक प्रार्थनापत्र Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन - - भेजा उसमें लिखा था कि, “१०८ श्रीराजविजयजी महाराजका शरीर अशक्त है। ऐसी हालतमें अगर हठ करके यहाँसे मुनिमहाराज विहार कर जायँगे तो मार्गमें विशेष तकलीफ हो जानेकी संभावना है। इस लिए आप उन्हें यहीं चौमासा करनेकी आज्ञा करें । हम उन्हें यहाँसे विहार तो हरगिज न करने देगें; क्योंकि ऐसी हालतमें उनके यहाँसे विहार कर जानेसे हमारे शहरकी बदनामी होगी । आप अवसरके जानकार हैं इसलिए आपका आज्ञापत्र आजानेसे हमें बहुत सहारा मिल जायगा।" ___ आचार्यश्रीने अंबालेके श्रीसंघकी इच्छानुसार आज्ञापत्र भेज दिया कि,-" तुम अंबालेके श्रीसंघकी विनतीकी अवहेलना मत करना । अभी राजविजयजीका शरीर विहार करने लायक भी नहीं है। इसलिए अंबालेहीमें चौमासा करलेना । तुम जवान हो । चतुर्मास करलेनेके बाद भी तुम लोग विहार करके पालीताने पहुँच सकोगे।" । - आचार्य महाराजकी आज्ञा मिल गई, फिर क्या था ? आप चुप हो रहे। वहीं चौमासा स्थिर हो गया। उस समय आपको अमृतसरके वृद्ध श्रावक लाला बागामलजी लोढ़ाकी बात याद आई । उन्होंने अमृतसरसे चलते समय कहा था कि,-" महाराज ! आप मुझ बूढेकी बात न सुनकर यहाँसे जा रहे हैं। मगर याद रखिए कि आप अंबालेसे Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आगे इस चौमासेके पहले तो न जा सकेंगे। यदि मेरी बात झूठ निकले तो कहना बूढ़ा बड़ा लबाड़ था ।" __ अब आपके विचारोंमें एक परिवर्तन उपस्थित हुआ। आप सोचने लगे, महाराज साहबकी आज्ञा पाँच बरसमें लौट आने की है। मगर यदि बीमार हो जाऊँगा तो क्या होगा ? विद्या विना तो रहूँगा ही ऊपरसे आचार्यश्रीकी छत्रछाया और कृपासे भी वंचित रहूँगा । गुरुआज्ञाभंग करनेका दोष भी सिरपर आयगा । इस औदारिक शरीरका भरोसा ही क्या है ? यह कौन जानता था कि, राजविजयजी महाराजकी तबीअत बिगड़ जायगी आर हम एक महीना अंबालेहीमें रहना पड़ेगा। ___ इधर आपके मनमें दुविधा उत्पन्न हुई उधर गुजरातके भिन्न भिन्न स्थानोंसे आपके पालीतानेजानेके समाचार सुनकर पत्र आने लगे। उन सबका आशय यही था कि, " आपके गुजरातकी तरफ़ आनेके समाचार सुनकर हमें आनंद हुआ; क्यों कि कई बरसोंके बाद आपके गुजरातको दर्शन होंगे। मगर आनंदसे ज्याद दुःख हमें यह समझकर हुआ कि साक्षात् कल्पवृक्षके समान, मन-वांछित फल देनेवाले, ज्ञानसागर, गुणके आगार, परमगीतार्थ, युगप्रधानके तुल्य १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरिजी महाराजके चरणोंमें गुरुकुलवासमें अध्ययन करना छोड़कर आप इधर आनेको तैयार हुए हैं। देखना भूल कर भी किसीकी उल्टी सलाह न मान Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । लेना । हम आपके दर्शनलाभसे वंचित रहकर भी आपका आचार्यश्रीकी चरणसेवामें रहना ज्यादा पसंद करते हैं । इसीमें आपका और साथ ही समाजका भी कल्याण है।" ___इन पत्रप्रेषकोंमेंसे बड़ौदाके धर्मात्मा सेठ गोकलभाई दुर्लभदास, खीमचंद भाई, आपको पहले दिनसे ही धर्मकाममें सहायता देनेवाले जौहरी हीराचंद ईश्वरदास | भरूचके सेठ अनोपचंद मलूकचंद, खंभातके सेठ पोपटभाई अमरचंद, धूलिया (खानदेश ) के सेठ सखाराम दुल्लभदास आदि सज्जन मुख्य थे। ___ आपके दिलमें पहले ही अनेक तर्क वितर्क उठ खड़े हुए थे और फिर ऊपरसे पंजाबके समस्त श्रीसंघका और गुजरातके अनेक धर्मात्मा श्रावकोंका आग्रह । आपका दिल फिर गया। आपने निश्चय कर लिया कि आचार्यश्रीकी चरणसेवा छोड़कर मैं कहीं न जाऊँगा । विद्या जो कुछ प्राप्त होनी होगी मुझे आचार्यश्रीके चरणोंमें बैठ कर ही होगी। श्रीराजविजयजी महाराज, श्रीमोतीविजयजी महाराज और श्रीविवेकविजयजी महाराज सहित बड़े आनंदसे आपने अंबालेमें चौमासा बिताया। वहाँ किसी निकम्मीसी बातके पीछे श्रावकोंके आपसमें मनमुटाव हो रहा था वह भी मिट गया और मंदिर बनानेका कार्य जोरोंसे चलने लगा। इस तरह अंबालेमें आपका सं० १९४९ का छठा चौमासा हुआ। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । अंबालासे विहारकर आप लुधियाना होते हुए जलंधर शहरमें पधारे । आचार्यश्री होशियारपुरसे विहार कर वहीं विराजे हुए थे। आपने जाकर आचार्यश्रीके चरणोंमें सिर रक्खा । आचार्यश्रीने मुस्कुराकर पूछा:-" पंडित हो आया ?" आपने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक अर्ज की,-" भूल सुधार आया, कल्पवृक्ष छोड़कर भ्रमसे अन्यत्र मनोवांछित फल पानेकी इच्छा करता था उस भ्रमको मिटा आया ।" __ आचार्यश्री जलंधरसे विहारकर वेरोवाल, जंडियालागुरु होते हुए अमृतसर पधारे । वेरोवालमें बंबईके श्रीसंघकी मार्फत चिकागोकी पार्लियामेंटका आमंत्रणपत्र । सार्वधर्म परिषद' में शामिल होनके लिए मिला । साधुधर्मके कारण आचार्यश्री तो वहाँ जा नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने बंबईसे वीरचंद राघवजी गाँधीको बुलाया और उन्हें एक निबंध उस परिषदमें पढ़नेके लिए लिख दिया। वह निबंध 'चिकागो प्रश्नोत्तर' के नामसे प्रकाशित हो चुका है । आचार्यश्रीने पेन्सिलसे रफ़ लिख दिया था। उसकी साफ नकल हमारे चरित्रनायकने की थी। ___ आचार्यश्री अमृतसरसे विहारकर जंडियालागुरु पधारे । सं १९५० का चौमासा यहीं किया । आयार्यश्रीने व्याख्यानमें श्रीसूत्रकृतांगका व्याख्यान इसलिए रक्खा था कि हमारे चरित्रनायकको भी उसकी वाचना मिलती रहे । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आपने आचार्यश्रीकी इच्छानुसार यहाँ जैनमतक्ष तैयार किया । कई साधुओंको भी आप यहाँ पढ़ाते रहे। इस तरह सं० १९५० का सातवाँ चौमासा आपका जंडियाला गुरुमें हुआ। + + + जंडियालागुरुसे आचायश्री, घुटनोंमें दर्द हो जानेसे, चौमासा समाप्त होजानेपर भी विहार न कर सके। कुछ समयतक वहीं विराजे । जिन जिन मुनिराजोंका उस समय पंजाबके अन्यान्य शहरोंमें चौमासा था वे चौमासा समाप्त कर आचार्यश्रीके चरणोंमें आ उपस्थित हुए। मुनिराजोंमेंसे मुख्य ये थे,-१०८ श्रीकमलविजयजी महाराज, १०८ श्रीउद्योतविजयजी महाराज, १०८ श्री वीरविजयजी महाराज, १०८ श्रीकान्तिविजयजी महाराज आदि। ___ मुनिराजोंने आचार्यश्रीसे नवीन साधुओंकी योगोद्वहन क्रिया करानेके लिए प्रार्थना की । आचार्यश्रीने अनुकूल क्षेत्र और समय देख इस प्रार्थनाको स्वीकार किया और १०८ श्रीउद्योतविजयजी महाराजके शिष्य श्रीकपूरविजय, १०८ श्रीवीरविजयजी महाराजके शिष्य श्रीदानविजयजी, १०८ श्रीकांतिविजयजी महाराजके शिष्य श्रीचतुरविजयजी तथा श्रीलाभविजयजी, १०८ श्रीहंसविजयजी महाराजके शिष्य श्रीतीर्थविजयजी, और हमारे चरित्रनायकके शिष्य श्रीविवेक १ श्रीतीर्थविजयजी महाराजका, योगोद्वहनकी क्रिया समाप्त होनेके पहले ही, स्वर्गवास हो गया था। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । विजयजी, इन छः साधुओंको छेदोपस्थापनीय योगोहन करानेकी क्रिया शुरू की । ९४ आचार्यश्री प्रायः सब क्रियाएँ हमारे चरित्रनायकके हाथसे कराते थे सायंकालकी क्रिया तो समाप्तितक सदा हमारे चरित्रनायकने ही कराई थी । 1 इसके कुछ दिन बाद आचार्यश्री जंडियालासे विहार कर पट्टी पधारे । यहाँ श्रीदानविजयजी आदि योगोद्वाही पाँचों मुनियोंको बड़ी दीक्षा दी गई । इसकी सारी क्रिया आचार्यश्रीने हमारे चरित्रनायकके हाथोंहीसे कराई थी । पट्टीसे विहार करके श्रीआचार्य महाराज जीरा पधारे । शहरमें बड़ा उत्साह फैला । बड़े समारोह के साथ आचार्यश्रीका नगर प्रवेश हुआ । श्रावकोंकी प्रार्थना और वहाँके लोगोंकी धर्मजिज्ञासाको देखकर आचार्यश्रीने सं० १९५१ का चौमासा वहीं किया । हकीम हरदयालजी, खलीफा - मास्टर माघी रामजी, शिब्बूमलजी आदि कई भव्यजीव धर्मकी बारीक बातों और तार्किक दलीलोंको अच्छी तरह समझ सकते थे इसलिए उनके आग्रहसे आचार्यश्रीने व्याख्यानमें गणधर बाद वाँचना प्रारंभ किया । हमारे चरित्र नायकको भी दूसरी बार इसको सुननेका लाभ मिला । इस चौमासेमें आचार्यश्रीने आपको ' यतिजीत कल्प ' आदि कुछ छेद ग्रंथोंका अध्ययन भी कराया । इस तरह हमारे चरित्र Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - नायकका सं० १९५१ का आठवाँ चौमासा जीरा जिला फिरोजपुरमें हुआ। चौमासा समाप्त होते ही आचार्य श्री जीरासे विहार करना चाहते थे क्योंकि पट्टीमें पट्टीके मंदिरकी प्रतिष्ठा करवानी थी, परन्तु श्रीवीरविजयजी महाराज और श्रीकांतिविजयजी महाराजका-जिन्होंने पट्टीमें चौमासा किया. था-पत्र आया कि आप अभी जीरासे विहार न करें तो उत्तम हो; क्योंकि हम आपकी पदधृलि मस्तक पर चढ़ाकर बीकानेरकी तरफ जानेका इरादा रखते हैं। ___ आचार्यश्री जीराहीमें विराजमान रहे । कुछ दिनोंके बाद श्रीवीरविजयजी महाराज और श्रीकांतिविजयजी महाराजने अपने शिष्यों सहित आकर आचार्यश्रीके दर्शन कर अपनेको कृतार्थ किया। इस बार आचार्यश्रीकी हमारे चरित्रनायक पर अधिक कृपा देखकर दोनों मुनिराजोंके नेत्रों में हर्षाश्रु आगये । उन्हें इस बातकी प्रसन्नता ही नहीं बल्के उचित अभिमान भी था कि, उनका एक गुजराती भाई पंजाबका प्यारा बन रहा है । श्रीकांतिविजयजी महाराजको और भी अधिक प्रसन्नता इस लिए थी कि, जो मुनि पंजाबके और खासकर आचार्य श्रीके प्रियपात्र हो रहे हैं वे उनके स्वप्रान्तके ही नहीं बल्के स्वनगरके भी हैं। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । एक दिनकी बात है। श्रीकांतिविजयजी महाराज और हमारे चरित्रनायक एक तरफ बैठे कुछ शास्त्रीय चर्चा कर रहे थे । इतनेहीमें आचाय महाराज पधार गये। दोनों उठे और हाथ जोड़ सिर झुका सामने खड़े हो रहे । ___ आचार्यश्रीने मुस्कुराकर परिहासके तौरपर श्रीकांतिविजयजी महाराजसे कहा:--" देखना मेरे तैयार किये हुए साधुको कहीं गुजरातमें न उड़ाले जाना मुझे पंजाबके लिए इससे बहुत बड़ी आशा है।" श्रीकांतिविजयजी महाराजने भक्ति पूर्वक आचार्यश्रीके पदपोंमें नमस्कार कर कहा:-" कृपानाथ ! ऐसा कभी न होगा। यह आपका कृपापात्र बनगया है। इसके मनपर आपकी कृपादृष्टिका ऐसा जादू हो गया है कि, वह किसीके उतारे उतरने वाला नहीं है।" सच है-~ तुझे देखकर औरोंको किन आँखोंसे हम देखें ? वे आँखें फूट जायँ औरोंको जिन आँखोंसे हम देखें । " मैंने तो जब कभी इस विषयकी बात चली है इसको यही सलाह दी है कि, तू कभी गुरुचरणोंसे जुदा न होना। तेरा अहो भाग्य है जो तू आचार्य भगवानका विश्वासपात्र वनगया है । देखना कभी कोई ऐसी बात न करना जिससे तुझ पर आचार्यश्रीको शंका करनेका मौका मिले । कृपासागर ! इसके इस दर्जेपर पहुँचनेकी मुझे जितनी | Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ~ ~ ~ ~ प्रसन्नता है इतनी अन्य किसीको होगी या नहीं ज्ञानी महाराज जानें।" इससे पाठकोंको विदित होगा कि, १०८ श्रीकांतिविजयजी महाराज आपपर कितनी श्रद्धा और कितना प्रेम रखते थे और अब भी रखते हैं। इसकी साक्षी आपको वह पत्र देगा जो उन्होंने, अभी गत वर्ष हमारे चरित्रनायकको श्रीसंघने लाहोरमें जब आचार्यपद पर स्थापित किया था, उस समय हमारे चरित्रनायकके पास भेजा था। वह पत्र हम पदवीप्रदानके समयकी अन्यान्य घटनाओंके साथ देंगे । वह पत्र हरेक आचार्य महाराजके एवं हरेक मुनिराजके पढ़ने और मनन करने योग्य है। कुछ समय बाद आचार्यश्री जीरासे विहारकर पट्टी पधारे। श्रीकांतिविजयजी महाराजने अपने शिष्यों सहित बीकानेरकी तरफ विहार किया और श्रीवीरविजयजी महाराज अपने शिष्य सहित वहीं रहे। __ श्रीआचार्य महाराजके पधारने पर पट्टीके श्रीसंघमें बड़ा उत्साह फैला । आचार्यश्रीकी इच्छानुसार प्रतिष्ठाका प्रबंध होने लगा। आमंत्रण पत्रिकाएँ भेजी गई। अनेक लोग आये । बड़ी धूमधामसे सं० १९५१ के माघ सुदी १३ के दिन आचार्यश्रीने श्रीपार्श्वनाथ स्वामीको गद्दीपर विराजमान किया अर्थात् वासक्षेप किया । इसी मुहूर्तमें पचास नवीन प्रतिमाओंकी नवीन प्रतिष्ठा-अंजनशलाका भी आचार्यश्रीने की थी । इसमें यथाशक्ति हमारे चरित्रनायकने आचार्यश्रीका हाथ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । बटाया था। जीराके चौमासेमें आचार्यश्रीने ' तत्वनिर्णयप्रासाद' नामका ग्रंथ लिखना प्रारंभ किया था, यहीं आपने उसकी प्रेसकॉपी करनी शुरू की थी। पट्टीसे विहार करके आप अंबाला पधारे और सं० १९५२ का नवाँ चौमासा आपने आचार्यश्रीके साथ यहीं किया। यही आचार्यश्रीकी दूसरी आँखका मोतिया निकलवाया गया था इसलिए आप नवीन ग्रंथका अध्ययन न कर सके। हाँ तत्वनिर्णयप्रासाद ग्रंथका उल्लेखन होता रहा । सं० १९५२ के मार्गशीर्ष सुदी १५ के दिन अंबाले शहरमें श्रीसुपार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिष्ठा हुई। अंबालेसे विहार करके लुधियानाआदि स्थानों में होते हुए आप आचार्य महाराजके साथ सनखतरा पधारे । सनखतरेका मंदिर बड़ा ही सुंदर बना हुआ है । जब आचार्यश्रीके साथ आप दर्शनार्थ मंदिरके जीनपर चढ़ रहे थे तब आचार्यश्रीने आपको फर्मायाः-" अरे वल्लभ ! क्या हम शत्रुजयपर चढ़ आपने निवेदन किया:-" हाँ साहब ! यह शत्रुजय तीर्थपर विराजमान मूलनायक श्रीऋषभदेवजीकी, ट्रॅककासा बना हुआ साक्षात् शत्रुजय ही मालूम देता है । " ___यहाँपर दो सौ पचहत्तर जिनबिंबोंकी अंजनशलाका हुई थी इसमें आप स्वर्गीय आचार्य महाराजकी दाहिनी भुजाके समान थे। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । जेठ वदी ६ सं० १९५३ को सनखतरासे विहार करके पसरूर, छछरों वाली, सतराह, सेराँवाली बड़ाला होते हुए आचार्य महाराजके साथ आप गुजराँवाला पधारे । बड़ाला गाँवसे ही आचार्यश्रीको श्वासका रोग बढ़ गया था, मगर आचार्यश्री ने कभी उसकी परवाह न की । आपने अन्यान्य साधु महात्माओं सहित आचार्य महाराज से औषधोपचार करानेकी प्रार्थना की मगर आचार्य महाराज यह कह कर बात टाल देते थे कि ऐसे छोटे छोटे रोगोंका क्या इलाज कराना । यद्यपि होनी कभी टलनेवाली न थी; मगर हमारे चरित्रनायकको आजतक इस बातका अफ्सोस है कि, आपने आचार्यश्रीका, साग्रह निवेदन करके, इलाज क्यों न कराया । सं० १९५३ जेठ सुदी सप्तमी मंगलवारकी रात थी । आचार्यश्री और सभी साधु प्रतिक्रमण, संथारा, पौरसी आदि नित्य क्रियाएँ करके आराम करने लगे थे | घड़ीने बारह बजाये उस समय आचार्यश्रीको दस्तकी हाजत हुई । वे उठ बैठे और दिशा गये आप आचार्यश्री के निकट ही सो 'रहे थे । आपकी नींद खुल गई; उठ बैठे । आचार्यश्री हाजतरफा करके आसन पर बैठें 'अर्हन' 'अर्हन्' बोलरहे थे, इतने हीमें दम उलट गया | सभी साधुओंकी नींद टूट गई । आप उठकर आचार्यश्री के चरणोंमे बैठे । आचर्यश्री उस समय बड़ी कठिनता से बोल सकते थे । उनके मुखसे केवल 'अर्हन्' शब्द Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । निकलता था। जब आप उनके चरणोंके पास जा बैठे तो. उन्होंने सस्नेह आपके सिरपर हाथ रक्खा और आन्तरिक आशीर्वादकी दृष्टि की । आचार्यश्री प्रयत्न करके बोले :- " लो भाई, अब हम चलते हैं और सबको खमाते हैं ।" इस बातको सुनकर सभी साधु रोने लगे । आचार्यश्रीने और दो चार बार 'अर्हन' शब्दका उच्चारण किया और उनका जीवनहंस सदाके लिए जड़ देहपिंजरका त्याग करके उड गया । उस समय जो दुःख साधु और श्रावक - मंडलमें फैल गया उसका वर्णन करना हमारी तुच्छ लेखनीकी शक्ति के बाहर है । हमारे चरित्र नायकको जो दुःख हुआ उसका अंदाजा वे सभी मनुष्य लगा सकते हैं जिन्होंने अपने पिताकी, महरबान पिताकी हृदयके टुकड़े कर देनेवाली मौत देखी है । १०० दुःखकी परमौषध रुदनका पूर्ण रूपसे पान करने पर जब हृदय कुछ हल्का हुआ तब शोकावेगमें जो दो भजन आपने लिखे थे हम उन्हें यहाँ उद्धृत कर देते हैं । ( १ ) हेजी तुम सुनियो जी आतमराम, सेवक सार लीजो जी ॥ अंचली ॥ आतमराम आनंदके दाता, तुम बिन कौन भवोदधि त्राता ? हुं अनाथ शरणि तुम आयो, अब मोहे हाथ दजो जी ॥ हे० ॥ १ ॥ तुम बिन साधु-सभा नहिं सोहे, रयणी कर बिन रयणी खोहे । जैसे तरणि बिना दिन दीपे, निश्चय धार लीजो जी ॥ हे० ॥२॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । दिन दिन कहते ज्ञान पढ़ाऊँ, चुप रह तुझको लड्ड खिलाऊँ । जैसे मात बालक पतयावे, तिम तुमे काहे कीजो जी ॥ हे०॥२॥ दीन अनाथ हुं चेरो तेरो, ध्यान धरूँ मैं निशदिन तेरो । अब तो काज करो गुरु मेरो, मोहे दीदार दीजो जी ॥ हे ०॥३॥ करो सहाय भवोदधि तारो, सेवक जनको पार उतारो । बार बार विनती यह मोरी, 'वल्लभ' तार लीजो जी ॥ हे०॥४॥ गजल-( चाल रास धारियोंकी ) बिना गुरुराजके देखे, मेरे दिल बेकरारी है ॥ अंचलि ॥ आनंद करते जगतजनको, वयण सत सत सुना करके ॥ बि० ॥ तनु तस शांत होया है, पाया जिनें दर्श आकरके ॥ बि० ॥ मानो सुर सूरि आये थे, भुवि नरदेह धर करके ॥ बि० ॥ राजा अरु रंक सम गिनते, निजातम रूप सम करके ॥ बि०॥ महा उपकार जग करते, तनु फनाह समझ करके ॥ बि० ॥ जीया — वल्लभ' चाहता है, नमन कर पाँव पड़ करके॥ बि० ॥ उस वर्ष यानी सं० १९५३ का दसवाँ चौमासा आपने गुजराँवालाहीमें किया। यहाँ आपने एक ऐसी योजना तैयार की कि जिसको आचरणमें लानेसे स्वर्गीय आचार्यश्रीकी स्मृति सदा कायम रहे । फिर इस योजनाको व्यवहारमें लानेका आपने पंजाबके श्रीसंघको उपदेश दिया। पंजाबका संघ उसे व्यवहारमें लाया । वह योजना यह थी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आदर्श जीवन। (१) आत्म संवत् प्रारंभ करना । यह संवत् बराबर चल (२) आचार्यश्रीका समाधि मंदिर बनवाना । मंदिरकी नींव सं.१९५३ आत्मसंवत १ में पड़ी। मंदिर तैयार हो जाने पर सं. १९६५ आत्म संवत १२ वैशाख सुदी ६ को चरणस्थापना-समाधिमंदिरकी प्रतिष्ठा हुई। इस मंदिरका दूसरा नाम आत्मानंद जैनभवन है। इसी भवनमें अभी सं.१९८१ आत्म सं. २९ माघसुदी ६ शुक्रवारके दिन हमारे चरित्रनायकके हाथसे 'श्रीआत्मानंदजैनगुरुकुल पंजाब ' की स्थापना हुई। (३)'श्री आत्मानंदजैनसभा' स्थापन करना। इस नामकी सभाएँ पंजाबके प्रायः सभी शहरों और कस्बोंमें स्थापित हैं। गुजरातमें भी हैं। सारी सभा ओंके कार्यको केन्द्रीभूत करनेके लिए-' श्रीआत्मानंद जैनमहासभा पंजाब की भी स्थापना हो चुकी है। (४) पाठशालाएँ स्थापित करना । अनेक स्थानोंमें आत्मानंद जैन पाठशालाएँ चल रही हैं। श्रीआत्मानंद जैनमहाविद्यालय (जैन कॉलेज) स्थापित करानेका विचार भी किया गया था । उसके लिए 'पाइ फंड ' नामका एक फंड जारी किया गया। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । मगर पीछेसे वह बंद होगया । उस फंडकी जितनी रकम जमा हुई थी वह दो छात्रोंको पढ़ानेमें खर्च की गई । वे दोनों विद्वान होकर आज जैन समाजकी-जैनधर्मकी सेवा कर रहे हैं । वे विद्वान हैं वेदान्ताचार्य पं.ब्रजलालजी और व्याकरण, न्याया चार्य पं. सुखलालजी। यदि 'पाई फंड' चलता रहता तो उसके द्वारा कितना काम हो सकता था इसका अनुमान सहजहीमें किया जा सकता है। मगर ज्ञानी महाराजने ज्ञानमें देखा था वैसा हुआ । आज कॉलेज नहीं तो भी उसके स्थानमें एक गुरुकुल तो स्थापित हो ही गया है। (५) श्री आत्मानंद जैनपत्रिकाका प्रकाशन करना । यह मासिक पत्रिका कई बरसोंतक बाबू जसवंत रायजी जैनीके संपादकत्वमें चलती रही थी। आचार्यश्रीके स्वर्गारोहणके बाद व्याख्यान वाँचना अन्य साधुओंको पढ़ाना, पंजाबके क्षेत्रोंकी सार सम्भाल लेना आदि सारा ही भार चारों तरफसे आप ही पर आ पड़ा। आपको गुरुवियोगका दुःख था, उस पर भी आपकी उमर छोटी थी। ऐसी दशामें गुरुवियोगसे विव्हल बने हुए श्रीसंघके चित्तको स्थिर करना और आचार्यश्रीके अभावमें प्रति पक्षियोंके किये हुए आक्रमणोंका उत्तर देना आपके लिए अत्यंत कष्टसाध्य काम था; मगर आपने जिस सावधानीसे कष्ट सहनकर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आदर्श जीवन । AAJanwar उस कामको किया और गुरु महाराजके नामके फर्राते हुए झंडेको वैसा ही कायम रक्खा उसको सारा जैन समाज जानता है। पंजाब संघका रोम रोम उसके लिए हमारे चरित्रनायकका कृतज्ञ है। उस चौमासेमें आपके साथ वृद्ध साधु १०८ श्रीकुशलविजयजी महाराज,१०८श्रीचंदनविजयजी महाराज,१०८श्रीहीरविजयजी महाराज, १०८ श्रीसुमतिविजयजी महाराज, १०८ श्रीशुभविजयजी तपस्वी, १०८ श्रीलब्धिविजयजी महाराज, और १०८ श्रीरामविजयजी महाराज । ऐसे सात मुनिराज थे। __ व्याख्यान सभामै व्याख्यान बाँचनेका आपका यह पहला ही अवसर था । व्याख्यानमें आप श्रोताओंकी रुचि और मुनिराजोंकी इच्छानुसार श्रीस्थानांगसूत्र और सम्यक्त्व सप्ततिका वाँचते थे। श्रीआचार्य महाराज विरचित तत्वनिर्णय प्रासादका प्रस्तावनादि अवशेष कार्य भी आपने यहीं पर समाप्त किया था। गुजराँवालेका चौमासा समाप्त होनेपर आपने वहाँसे, श्रीस्तम्भन पार्श्वनाथ और श्रीचिन्तामाण पार्श्वनाथकी यात्राके लिए रामनगरकी ओर विहार किया। आप पपनाखा पधारे । वहाँ लाला गणेशदास और लाला जवंदामलने बहुत धर्मलाभ उठाया । वहाँ एक स्कूलमास्टर था वह जितने साधु या पंडित आते उन सबके पास अपनी शंकाओंका समाधान कराने जाता; मगर अब Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन १०५ तक कोई उसकी शंकाएँ न मिटा सका था। आपके पास भी वह आया। एक घंटे तक आपके साथ बात चीत करके वह संतुष्ट हुआ। उसने हाथ जोड़ भाक्ति गद्गद कण्ठसे कहा:--" कृपानाथ ! आज मैं शंकाओंके भूतसे रिहा हो गया; मुझे बड़ी शान्ति मिली" पपनाखासे आप विहार करते हुए किला दीदारसिंह पहुंचे। यहाँ लाला मइयादासजीका अच्छा प्रभाव था आपके लिहाजसे कई लोग व्याख्यान सुनने आते। जो एक बार भी आपकी मधुर वाणीका स्वाद चखता वह दूसरी दफा चखनेके लिए सौ काम छोड़कर दौड़ा आता। एक (सौवर्णिक) सर्दार-जो कई गाँवोंके मालिक और महाराजा रणजीतसिंहजीके प्रपौत्र सरदार इच्छरासिंहजी गुजराँवालोंके मित्र थे आपकी भक्ति में ऐसे लीन हुए कि जबतक रोजमर्रा वे आपके दर्शन न कर लेते और आपके मुखारविंदसे धर्मोपदेश न सुन लेते तबतक उनको चैन न पड़ता। फिर आप अकालगढ़ होते हुए रामनगर पहुँचे। वहाँ जिवने श्रावक थे सभी स्वर्गीय बूटेरायजी महाराजके बनाये हुए थे। उन्होंने आपकी बड़ी सेवा की। वे सभी पुरानी बातोंका और स्मरणोंका वर्णन करते। उन्हें सुन सुनकर आप प्रसन्न होते। - वहाँ श्रावकोंकी अपेक्षा सर्वसाधारण लोग प्रायः विशेष संख्यामें आया करते थे। लाला रामेशाह वहाँके बड़े रईसोमसे Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आदर्श जीवन । ArnwwwANAM एक थे । जातिके क्षत्रिय थे पक्के सनातन धर्मी थे। लोग उन्हें सनातन धर्मका स्तंभ कहते थे । उनपर आपका ऐसा प्रभाव पड़ा कि, वे नियमित रूपसे अपने मित्रों सहित व्याख्या-' नमें आते और सार्वभौम धर्मका उपदेश सुन आनंदित होते। ___ एक सिक्ख सरदार कर्तारसिंहजी वहाँ पोस्ट और तार मास्टर थे। उन्होंने भी आपकी तारीफ सुनी। वे एक दिन व्याख्यान सुनने चले गये । व्याख्यान सुनकर वे इतने प्रसन्न हुए कि दूसरे दिनसे व्याख्यानके समय सकुटुंब आने लगे और बड़ी ही श्रद्धा और भक्तिसे धर्मोपदेश सुनने लगे। पन्द्रह बीस दिन रहनेके बाद आप रावलपिंडीकी तरफ जानेको तैयार हुए। शहर भरमें इस बातके फैलते ही उदासी छा गई। जब आखिरी दिनका व्याख्यान समाप्त हुआतब सर्दार कर्तारसिंहजी आदि श्रद्धालु जनोंने प्रार्थना की कि, आप एक महीना यहीं समाप्त करें। __ हमारे चरित्रनायकमें एक बहुत बड़ा गुण है कि आप अपनेसे वृद्ध साधुओंका बड़ा मान रखते हैं। यह गुण प्रसिद्धि पाये हुए लोगोंमें बहुत ही कम होता है । आप विहार करना न करना आदि बातें अपनेसे वृद्ध साधुओंकी इच्छानुसार ही किया करते हैं, उन्हें सदा पूज्य समझते हैं और वे नाराज न हों इस बातका खयाल रखते हैं। अतः आपने फर्माया:-"यहाँ रहना न रहनाश्रीबाबाजी महाराज श्री कुशलविजयजीके हाथकी बात है। मैं तो उनका आज्ञापालक हूँ।" Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १०७ - सरदारजी बाबाजीकी सेवामें उपस्थित हुए। बाबाजीने फर्माया कि, “ आपका धर्मराग प्रशसनीय है मगर आगेके गाँवोंके लोगोंको भी तो लाभ पहुँचाना चाहिए "। सर्दारजी वगैराने इस बातपर ध्यान नहीं दिया । बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी बैठे रहे । बाबाजीने कहा:--" सरदारजी छोटे छोटे बच्चे सवेरेसे भूखे हैं। पोस्टकी थैली बंद पड़ी है। लोग अपने पत्र पानेके लिए व्याकुल हो रहे हैं।" सरदारजीने पोस्ट ऑफिसकी तालियाँ बाबाजी महाराजके सामने डाल दी और कहा:-"यदि आपकी इच्छा हो तो बच्चोंको खिलाइए और लोगोंकी व्याकुलता मिटाइए, वरना हम तो यहीं बैठे हैं।" __ आखिरकार बाबाजीने आपसे पूछा:-" बल्लभविजयजी ! क्या कहते हो ?" आपने उत्तर दिया:-" आप मालिक हैं।" अगत्या बाबाजीने महीना वहीं पूरा करनेकी अनुमति दे दी। लोग प्रसन्नताके साथ जयजयकार मनाते चले गये । एक महीना समाप्त होनेपर आप वहाँसे गुरुवियोग-दुःखसे उदास बने हुए लोगोंको धीरज बँधाते हुए रवाना हुए। रामनगरसे विहार कर आप पुनः अकालगढ़ पहुँचे । आपने पन्द्रह दिन तक वहाँके लोगोंको धर्मामृत पान कराया। यहाँपर बड़ोदानिवासी आपकी मासीके पुत्र भाई, जौहरी नगीन भाई और अहमदाबादनिवासी जौहरी हरिभाई छोटालाल आपके दर्शनार्थ आये थे । इन लोगोंकोयह देख Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws कर आश्चर्य हुआ कि, किसी श्रावकके न होते हुए भी आप इतने दिनसे वहाँ हैं और जैनेतर लोग आपकी इतनी सेवाभक्ति करते हैं। ___ आपकी प्रेरणासे दोनों सज्जन रामनगर यात्रा करनेके लिए गये थे । वहाँ पन्नेकी श्रीस्तंभन पार्श्वनाथकी मूर्तिके दर्शन करके वे मुग्ध होगये । सचमुच ही वह मूर्ति ही ऐसी है । उन्होंने, आपको पूछने पर, कहा था, कि हमने अपनी आयुमें इतना बड़ा बेदाग पन्ना कहीं भी नहीं देखा। उस समय नगीनभाईने एक ऐसी बात कही थी जिसे हरेक नवयुवकको, चाहे वह गृहस्थी हो या साधु, हर वक्त अपने सामने रखनी चाहिए। उन्होंने कहा था,---" आप वृद्ध महात्माओंके साथमें रहते हैं यह बात बहुत ही श्रेष्ठ है । वृद्ध साधुओंके सहवाससे युवक साधु अनेक तरहकी बुराइयोंसे बच जाते हैं।" उस समय श्रीकुशलविजयजी (बाबाजी) महाराज, श्रीहीरविजयजी महाराज और श्रीसुमतिविजयजी महाराज ये तीनोंवृद्ध मुनिराज थे। __ अकालगढ़से विहार कर आप गुजराँवाला पधारे । एक महीनेतक वहाँ निवास किया और श्रद्धालु भक्तोंको जिनवचनसुधा पिलाई। गुजराँवालासे विहार करके आप जम्मू पधारे। कई बरसोंसे वहाँ मुनिराजका पधारना नहीं हुआ था । लोग बड़ी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । उत्कण्ठासे आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे ।आपके वहाँ पहुँचने पर बड़ी धूमके साथ आपका स्वागत किया गया । व्याख्यानमें श्रावकोके सिवा कई सनातन धर्म और सिक्ख भी आया करते थे। दुपहरके समय भी कई ब्राह्मण आपके पास आते थे और धर्मचर्चा कर प्रसन्न होते थे। एक महीने तक आप वहाँ बिराजे । जम्मूसे आपने सनखतरेकी तरफ विहार किया। रास्तेमें विशनाह नामक गाँवमें रात रहे । आप जिस धर्मशालामें ठहरे थे उसमें एक कथाभटजी कथा वाँचा करते थे । शामको कथा बाँच कर उठे । उन्हें मालूम हुआ कि, धर्मशालामें कोई ठहरा है । उन्होंने नौकरको पुकारा और पूछा:-"धर्मशालामें कौन ठहरा है ? " नौकर ने उत्तर दिया कि साधु ठहरे हैं" साधुका नाम सुनते ही भटजी गर्ज कर बोले:--"तूने साधुको किसके हुक्मसे ठहराया है। " फिर उन्होंने आकर असभ्यताके साथ पूछा:--" तुम कौनसे साधु हो ?" - आपने शांत भावसे मधुर शब्दोंमें कहा:-" पंडितजी बैठिए ! आप जानते हैं कि अगले जमानेमें वनोंमें जाकर गृहस्थ साधुओंकी सेवा किया करते थे । आज नगरमें आये हुए साधुओंको सेवा करना तो दूर रहा, उन्हें रात बितानेके लिए ढाई हाथ जमीन भी गृहस्थ न देंगे ? अपने घरकी जमीन दूर रही मुसाफिरोंके लिए ही जो स्थान है उस स्थानमें भी,एक मुसाफ़िर समझकर भी, क्या ढाई हाथ जमीन साधुको देना गृहस्थके लिए दुखदायी है ? आप तो पंडित हैं। धर्मशास्त्रोंके ज्ञाता Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। हैं। अन्यान्य हिन्दु शास्त्रोंकी तरह आपने वसिष्ठ स्मृति भी जरूर देखी होगी । उसमें लिखा है कि, ब्रह्मचारी-स्नातक राजाकी अपेक्षा भी पूज्य और बड़े होते हैं । एक ओरसे राजा आता हो और दूसरी ओरसे ब्रह्मचारी आता हो तो राजाको चाहिए कि, वह ब्रह्मचारीको प्रणाम कर एक ओर हट जाय और उसे निकल जाने दे । गोस्वामी तुलसीदासजीने भी कहा है कि" एक घड़ी आधी घड़ी आधीमें भी आध । तुलसी संगत साधकी, कटे कोटि अपराध ॥" भटजी आपकी मधुर और ऋषियोंके वाक्योंसे मिश्रित वाणी सुनकर ठंडे पड़ गये, मगर फिर भी बोले:-" महाराज ! आज साधुओंके वेषमें अनेक लुच्चे लफंगे फिरते हैं; इसीलिए हम किसी साधुवेषधारीको यहाँ ठहरने नहीं देते।" __ आप बोले:-" पंडितजी तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि धर्मपरायणा भारत वसुंधरासे अब धर्म उठ ही गया है। लाखों बरसोंसे जिस हिन्दुस्थानमें हजारों त्यागी मुनि होते आये हैं उसी भारतमें क्या आज उनका अभाव ही हो गया है ? सुनिए,-मैं भी जैन मजहबका एक साधु हूँ। हमारे साधुओंमें द्रव्यके नाम एक फूटी बदाम भी नहीं रक्खी जाती फिर कामिनीकी तो बात ही क्या है ? और तो और जिस मकानमें स्त्री रहती है उस मकानमें साधु ठहरते भी नहीं हैं । गरमीका कितना ही जोर हो, दिनभर अन्नजल Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । wwwwww न मिले हों तो भी साधु कभी रातको अन्नजल नहीं लेते। अपने घरकी धन दौलत छोड़ मधुकरी माँगकर खाते हैं। करोडपति या गरीब सभी जैन साधुओंकी निगाहमें एकसे हैं। अपने पेट भरनेलायक आहार वे एक ही घरसे कभी नहीं लेते । विद्याप्राप्त करते हैं। कहीं एक महीनेसे अधिक चौमासेके सिवा नहीं रहते कभी किसी सवारी पर नहीं चढ़ते । पैदल सर्वत्र भ्रमण करते हैं, तीर्थ यात्रा करते हैं और लोगोंको आत्मकल्याणका रस्ता दिखाते हैं । हमारे साधुओंके जीवन और भाव तो श्रीभर्तृहरि के शब्दोंमें इस तरह के होते हैं, अहौ वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा । मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयने वा दृशदि वा ॥ तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसाः क्वचित्पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ॥ भावार्थ-हे प्रभो ! मैं किसी ऐसे पवित्र वनमें बसना चाहता हूँ कि जिसमें रहकर सर्पको और हारको, बलवान शत्रुको और मित्रको, मणिको और पत्थरको, फूलोंकी सेजको और शिलाको, तणको और स्त्रियोंके समूहको-सभीको समान रूपसे देख सकूँ और ' शिव ' ' शिव ' रटते हुए अपना समय बिता सकूँ । इस साधुजीवनकी रूपरेखा; इस धाराप्रवाही विवेचनशैली तथा इस प्रभावोत्पादक और मधुरवाणीको सुनकर भटजी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आदर्श जीवन । andhram.nnNAMAAAAnna अवाक रह गये । उन्होंने भक्तिभरे शब्दोंमें कहा:" महाराज भूल हुई । क्षमा करें। ढौंगी साधुओंसे इतना मन खराब होगया था कि, मैं अच्छे साधुओंकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। हुक्म दीजिए कि मैं आपके लिए भोजनका प्रबंध करूँ । मैं आपको जिमाकर धन्य होऊँगा।" नौकरको पुकार कर कहा:-" यहाँ एक बत्ती ले आ।" ___ आप मुस्कुराये और बोले:-" पंडितजी ! मैं पहले ही कह चुका हूँ कि, हम एक घरका आहार नहीं लेते, रातमें तो हम स्पर्श भी नहीं करते, रातमें चिराग भी नहीं जलवा सकते " इसके बाद पंडितजी जिस कथाको सुनाते थे उसके उस दिनके व्याख्यानकी आपने चर्चा इस ढंगसे की कि पंडितजीको उस दिनकी कथामें की हुई भूलें भी मालूम हो गई। उन्होंने अपनी भूलें स्वीकार करते हुए कहा:--" महाराज ! हम तो पेट भरनेके लिए यह कथा करते हैं । हमसे भूल हो ही जाती है " फिर भटजी भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अपने घर चले गये । वहाँसे आप डफरवाल आदि गाँवोंको पावन करते हुए, सनखतरा पधारे । एक महीना वहीं रहे। सनखतरेसे विहार करके आप नारोवाल पधारे । वहाँ धर्मकी बड़ी प्रभावना हुई। वहाँ एक भव्य जीवको आपने Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ११३ सं० १९२४ के वैशाख सुदी ८ के दिन धूमधामसे दीक्षा दी । नाम 'ललितविजयजी' रक्खा। __ रामनगरके अंदर जिन सर्दार कर्तारसिंहजीका वर्णन आया है, वे भी सनखतरा, सियालकोट आदि होते हुए और अनेक कष्ट झेलते हुए आपके दर्शन करने यहाँ आपहुँचे। ___ आपने सं० १९५४ का ग्यारहवाँ चौमासा नारोवालमें ही किया था। इस चौमासेमें आपने प्रातःस्मरणीय, न्यायांभोनिधि १००८श्रीमद्विजयानंदमूरिजी महाराजका जीवनचरित्र लिखकर तैयार किया था। यहाँ व्याख्यानमें आप श्रीउत्तराध्ययन सूत्र और पद्मचरित्र ( जैनरामायण ) बाँचते थे। _इस चौमासेमें आपके साथ श्रीकुशलविजयजी-बाबाजी महाराज, श्रीसुमतिविजयजी महाराज, श्रीविवेकविजयजी महाराज और श्रीललितविजयजी महाराज थे।। __ श्रीहीरविजयजी महाराज, श्रीलब्धिविजयजी महाराज और श्रीशुभविजयजी तपस्वीजी इन तीन मुनिराजोंका चौमासा सनखतरेमें हुआ था । नारोवाल और सनखतरेके बीचमें छःसात कोसका अन्तर है। चौमासा समाप्त होने पर श्रीहीरविजयजी महाराज आदि नारोवाल आ मिले। नारोवालसे सभीने एक साथ विहार किया। आप अमृतसर पधारे । यहाँ अंबालानिवासी लाला गंगारामजी, होशियारपुरनिवासी लाला गुज्जरमलजी तथा लालानत्थूमलजी, अमृतसरनिवासी लाला पन्नालालजी जौहरी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आदर्श जीवन । और लाला फग्गूमलजी महाराजमलजी सराफ़के साथ सलाह कर हमारे चरित्रनायकको स्वर्गीय आचार्यश्रीकी गद्दीपर बिठानेका यानी आपको आचार्य पद प्रदान करनेका प्रयत्न करने लगे। लाला गंगारामजीने यह स्वीकार किया कि, वे जाकर सब साधुओंसे आपको आचार्यपद देनेकी स्वीकारता ले आयँगे । जब हमारे चरित्रनायकको इस बातकी खबर लगी तब आपने स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया कि,-"आप वृथा ही इस बातका प्रयत्न करते हैं। मैं इस बातको कदापि स्वीकार न करूँगा।" लाला गंगारामजी आदि बोले:-" आप इस बातको भले स्वीकार न करें; मगर हम तो यह देख लेंगे कि स्वर्गीय गुरु महाराजकी आज्ञाको सभी मानते हैं या नहीं।" फिर वे अपने स्थानपर चले गये। आप अमृतसरसे श्रीबाबाजी महाराज आदिके साथ विहार करके जांडियालागुरुको पधारे । यहाँ लुधियानानिवासी लालाहरदयाल आदि जोधावालोंकी भोजाई और अंबालानिवासी लाला नानकचंद भाबूकी पुत्रीकी दीक्षा बड़ी धूमधाम से हुई। नाम देवश्रीजी रक्खा गया । __वहाँसे. विहार करते हुए कई दिनोंके बाद आप पट्टी पधारे । वहाँके श्रावकोंके अत्यंत आग्रहसे आपने पट्टीहीमें चौमासा करना स्थिर किया । चौमासेमें कई महीने बाकी थे इसलिए आप श्रीबाबाजी महाराज, श्रीशुभविजयजी तपस्वी, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । श्रीलब्धिविजयजी और श्रीविवेकविजयजी महाराजको वहीं छोड़ श्रीहीरविजयजी महाराज, श्रीस्वामी सुमतिविजयजी महाराज और श्रीललितविजयजी महाराजको अपने साथ ले लाहौरकी तरफ़ रवाना हुए । रास्तेके छोटे बड़े गाँवोंमें होते हुए जब आप बर्कियाँ नामक गाँव में पहुँचे तब दुपहर हो गई थी । आपका मन उस गाँवमें प्रवेश करते ही उदास हो आया । कारण कुछ ज्ञात न हुआ । मगर थोड़ी दूर जानेपर आपने देखा कि एक मकान में एक काटा हुआ बकरा लटक रहा है और बुरी तरहसे लोग उसके टुकड़े कर रहे हैं । आपका दयापूर्ण हृदय भर आया, मुखसे एक निःश्वास निकला और अपने साथके साधुओंसे बोले:- “ यह गाँव साधु ओंके ठहरने लायक नहीं है । " मगर धूप तेज थी, साथके साधु थक गये थे इसलिए विवश धर्मशालाकी एक कोट - ड्रीमें जा ठहरे । आप इस बातको सोच रहे थे कि इस क्रूरताको करनेवालेजीवोंका कैसे कल्याण होगा। इतनेहीमें मदिरामें मत्त हाथोंमें भाले लिए हुए कई पुरुष उधरसे निकले । उनके वार्तालापसे मालूम हुआ कि वे शिकार करने जा रहे हैं । थोड़ी ही देर में वहाँ एक स्त्री आई और प्रणाम करके बोली:- " सन्तो! तुम यहाँसे चले जाओ । यह गाँव चोरोंका है । मेरा स्वामी दिनमें मुसाफ़िरों को आराम पहुँचाता है मगर ११५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । रातमें गाँव के दूसरे लोगोंके साथ मिलकर मुसाफिरोंका सर्वस्व छीन लेता है । अगर प्राण लेने पड़ते हैं तो इसमें भी वह आगा पीछा नहीं करता । यद्यपि अपने पतिकी बुराई करना स्त्रीके लिए पाप है तथापि मैंने आपके सामने की है । इसके दो कारण हैं, एक तो यह कि, मेरे पति साधुको दुख देने से जो पाप लगेगा, उससे बचेंगे और दूसरा साधुकी रक्षा होगी।" ११६ आपके साथ तीन साधु थे और ७, ८ श्रावक । आपने उनसे मशवरा किया । इतनेहीमें वहाँ एक वृद्ध सिक्ख आ गया । उसने कहा : – “ महाराज ! मैं आपको यही सम्मति दूँगा कि आप यहाँ से चले जाइए । " 66 श्रावक बोले :- " महाराज ! यदि आप चल सकते हों तो हमारी कोई हानि नहीं है; भले चले चलिए, अन्यथा यहीं रहिए । चोर भी तो इन्सान हैं । हम देख लेंगे । " आप बोले :- " लाला तुम्हारा कहना ठीक है । मगर मैं विना प्रयोजन किसीके प्राण खतरे में डालना नहीं चाहता। अगर हम सब साधु ही होते तो हमें कोई चिन्ता न थी । हमारे पास चोर आकर क्या ले जाते ? मगर आप लोग हैं इसलिए मैं यह जोखम उठाना ठीक नहीं समझता । " आखिरकार खरे तड़के में आप वहाँसे रवाना हो गये और आठ कोसकी कठिन मुसाफिरी पैदल, नंगे पैर, तै करके संध्याको मियाँमीरकी छावनीमें पहुँचे । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। लाहोर छावनी और शहरमें पाँच मीलका अन्तर है । लाहोर छावनीका दूसरा नाम ही मियाँमीरकी छावनी है । अगले दिन आप शहरमें पधारे । श्रीजिनमंदिरके पास ही वहाँ एक पंचायती मकान ( उपाश्रय ) है । उसीमें आप ठहरे । एक महीना यहीं बिताया । आजतक लाहोरमें एक भी मुनिराज इतने समयतक नहीं ठहरे थे । कारण वहाँ पुजेरे श्रावकोंके केवल एक दो ही मकान उस वक्त थे । यह समा चार मिलने पर कि, वल्लभविजयजी आदि लाहोरमें ठहरे हुए हैं १०८ श्रीचरित्रविजयजी महाराज, और १०८ श्रीउद्योत विजयजी महाराज आदि वृद्ध साधुओंके पत्र इस आशयके आने लगे कि, लाहोरमें पुजेरे (मंदिर आम्नायवाले) हीरालाल मुन्हानी वगैरहके एक दो ही घर हैं, फिर तुम इतने दिन तक वहाँ क्यों ठहरे हो ? साथके साधु तो सभी सुखसातामें हैं न? उत्तरमें आपने लिखा,-"सभी मुनि यहाँ सुखसातामें हैं। यहाँ रहनेमें कुछ लाभ दिखाई देता है इसी लिए हम लोग यहाँ ठहरे हुए हैं । हमेशा व्याख्यान होता है । व्याख्यान सुननेके लिए जौहरियोंके परिवारमेंसे बाबू नत्थूमल, बाबू मोतीलाल, लाला बुलाकीमल आदि कई भाई और बहनें आते हैं । संभव है इस समयका बोया हुआ बीन भविष्यमें फलदायी हो । दिल्लीवाले लाला महताबरायजीके परिवारमेंसे कई यहाँ सरकारी नौकर हैं। वे और उनके घरकी सन्नारि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आदर्श जीवन। याँ भी व्याख्यानमें आया करते हैं । यद्यपि ये सभी अग्रवाल दिगंबर जैन हैं तथापि स्वर्गवासी गुरुमहाराजको जैनधर्मके प्रभावक पुरुष समझते हैं। इसलिए इनका हार्दिक प्रेम है । आहार पानीकी खास कोई तकलीफ नहीं है। वैसे यह तो आप जानते ही हैं कि, विना कष्ट सहे कभी नवीन क्षेत्र तैयार नहीं हो सकता है ?" समयकी बलिहारी है ! आपका बोयाहुआ बीज फल लाया। लाहोरमें आज अनेक घर हैं । इतना ही क्यों लाहोरवालोंने अपने यहाँ गत वर्षकी प्रतिष्ठा कराने और हमारे चरित्रनायकको आचार्य पद प्रदान करनेका सौभाग्य भी प्राप्त किया है । सविस्तर वर्णन आगे होगा। ___ लाहोरसे विहार कर कसूर पधारे । वहाँ एक मास तक रहे । फिर कसूरसे आस पासके लोगोंको धर्मामृत पिलाते हुए आपने पट्टीकी तरफ़ विहार किया। ___ कसूरसे पट्टी जाते रास्तेमें 'चठयाँ वाला' गाँव आता है । वहाँ हीरासिंह नामक सिक्ख सर्दार रहता है। वह बड़ा ही बली है। २७ मन की मुद्रें फेरा करता है। आपने यह बात सुनी थी। आप एक दिन सायंकाल ही अपने शिष्य ललितांवजयजीके साथ जंगलसे उसी तरफसे लौटे जिसतरफ़ वह सर्दार रहता है। एक मकानके बाहरकी तरफ लोहेकी दो मुद्रें पड़ी थीं । उसके पास एक हृष्ट पुष्ट जवान बैठा था । आपने अनुमान Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आदर्श जीवन । www.rane कर प्रश्न किया:--" क्या सर्दार हीरासिंह आपहीका नाम है ?" __सिक्ख लोग साधुओंका बहुत सम्मान करते हैं। सर्दार उसी अपने जातीय नम्र भावसे हाथ जोड़कर बोला:-"हाँ महात्मा ! इस दासहीको हीरासिंह कहते हैं।" आपने कहा:--" सर्दारजी ! हमने आपके बलकी बहुत तारीफ सुनी है।" हीरासिंहने नम्रताके साथ कहा:" यह संत पुरुषोंकी महरबानीका फल है। " आप वहाँसे विहार करते हुए पट्टी पहुँचे औरसं० १९५५ का बारहवाँ चौमासा आपका पट्टीमें हुआ। चौमासा बड़े आनंदसे समाप्त हुआ। इस चौमासेमें आपके साथ बाबाजी महाराज श्रीकुशलविजयजी, श्रीहीरविजयजी महाराज, श्रीसुमतिविजयजी महाराज, श्रीशुभविजयजी तपस्वी, श्रीलब्धिविजयजी महाराज, श्रीविवेकविजयजी महाराज और श्रीललितविजयजी महाराज ऐसे सात साधु थे। पं० उत्तमचंदजी तथा पं० अमीचंदजीका सुयोग मिलनेस तत्वच का बड़ा आनंद रहा। (सं० १९५६ से सं० १९६० तक) चौमासा समाप्त होने पर आप पट्टीसे विहार कर जीरे पधारे Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आदर्श जीवन । wwwwwwwwwwwwwwran................wwwwwwwwwwwwwwwwww यहाँसे श्रीशुभविजयश्री तपस्वी और श्रीविवेकविजयजी महाराजने आपकी आज्ञासे मारवाड़ गुजरातकी तरफ़ विहार किया। आप जीरासे विहार कर जगराँवाँ, लुधियाना आदि १-इनका गृहस्थ नाम डाह्या भाई था। ये मु० वलाद जिला अहमदाबादके रहनेवाले थे। इनकी माताका नाम श्रीमती अंबा बाई और पिताका नाम सेठ डूंगर भाई था । इनका जन्म फाल्गुन वदी २ सं० १९२४ के दिन हुआ था। शाहपुरमें इनके पिताकी दुकान थी। वहीं ये रहते थे । वहाँ खीमचंद पीतांबर नामका एक धर्मात्मा श्रावक था। उसीके सहवाससे इन्हें वैराग्य हुआ । इनके लग्न हो गये थे। ये दीक्षा लेने एक बार पूना चले गये थे; मगर इनके पिताने खबर पाकर वापिस बुला लिया। एक बार ये अहमदाबादमें धर्मात्मा सेठ सवचंदभाई लालचंदभाईके पास गये और अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होंने इन्हें आत्मारामजी महाराजसे दीक्षा लेनेकी सम्मति दी और आत्मारामजी महाराजके शिष्य कान्तिविजयजी महाराज आदिके पास जानेके लिए कहा । तदनुसार मौका देखकर ये कान्तिविजयजी महाराजके पास आबू पहुँचे । कान्तिविजयजी महाराजने इन्हें पंजाबमें भेज दिया। ये पंजाबमें हमारे चरित्रनायकके पास जंडियाला पहुंचे। अपनी इच्छा प्रकट की। आपने इनके घरवालोंको एक रजिस्टर्ड पत्रद्वारा सूचना दी कि डाह्याभाई हमारे पास दीक्षा लेने आया है। इनके सुसरे छगनलाल, इनके बड़े भाई मूलचंद और एक तीसरा आदमी तीनों जंडियाला पहुंचे। इन्हें घर चलनेको बहुत समझाया । मगर ये एकके दो न हुए, तब उन लोगोंने कोर्ट में नालिश की। हाकिमने इन्हें बुलाया और तेहकीकात करनेके बाद अपनी इच्छानुसार वर्ताव करनेकी इजाजत दे दी । इनके ससुर आदि तीनों अपने घर लौट गये। फिर सं० १९४८ की मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमीको सूरिजी महाराजने इन्हें पट्टीमें दीक्षा दी । नाम विवेकविजयजी रक्खा; हमारे चरित्रनायकके यही प्रथम शिष्य हुए। ये बड़े ही गुरुभक्त और धर्मपरायण हैं । अभी गुजरातमें विचरते हैं। पंन्यासजी श्रीललितविजयजी महाराजने एक बार हमसे कहा था कि“ ये बड़े ही शान्त प्रकृति और निर्लेप हैं । आत्मसाधनाके सिवा इन्हें किसी भी बातसे सरोकार नहीं है।" Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि महाराज श्रीविवेकानजयजी ( तपस्वी) १००८ आचार्य महाराज धामाद नय बटमम जीके मुख्य शिष्य Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १२१ स्थानोंमें लोगोंको विशेष रूपसे धर्ममें लगाते हुए मालेर कोटला पधारे। __ सं० १९५६ का तेरहवाँ चौमासा आपका मालेरकोटलामें हुआ। व्याख्यानमें आप सम्यक्त्व सप्ततिका और सूत्रकृतांग वाँचते रहे । यहाँ मुन्शी अब्दुल्लतीफ़ नामके एक मुसलमान सज्जन आपके गाढे भक्त बन गये। धर्मचर्चामें उन्हें बड़ा आनंद आता था; इस लिए वे हमेशा आते और दुपहरका प्रायः समय आप उनके साथ धर्मचचोंमें ही बिताते । उन्होंने एक दिन हाथ जोड़कर प्रार्थना की,-" महाराज आप जैसे भावड़ोंके गुरु हैं वैसे ही मेरे भी गुरु हैं। फिर आपभेदभाव क्यों रखते हैं ? मैं आपसे मेरे घरका आहार लेनेके लिए नहीं कहता। मेरी तो सिर्फ इतनी ही अर्ज है कि आप मेरी गायोंका एक दिन दुग्ध ग्रहण करें। आप पधारेंगे तब मैं हिन्दुसे गौ दुहा दूंगा।" ___ आपने हँसकर कहा:-" मुन्शीजी ! आप जानते हैं कि हमारे लिए जो पदार्थ प्रस्तुत किया जाता है वह हम नहीं लेते । मुझे तो आपकी भक्ति दूध क्या अमृतसे भी ज्यादा प्यारी है।" चौमासा समाप्त होने पर आप मालेरकोटलासे नाभा पधारे। यद्यपि यहाँ श्रावकोंके घर थोड़े थे तथापि आपकी वाणीमें वह जादू है कि जो आपका एक बार उपदेश सुन लेता है वह हमेशाके लिए आपका भक्त बन जाता है। नाभानरेशके Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आदर्श जीवन। बालमित्र और पूर्ण विश्वासपात्र लाला जीवारामजी मालेरी आपके ऐसे भक्त बने कि, सिरपर राजकीय कामोंका अत्यंत बोझा रहने पर भी जबतक वे घंटा आध घंटा आपके पास न आते थे तबतक उन्हें चैन नहीं पड़ता था। वहाँके प्रसिद्ध व्यापारी लाला फतेचंदजी धुरांटोंवाले भी आपके ऐसे ही भक्त बन गये । इनके अलावा और भी अनेक लोग हमेशा आपके. वचनामृतका पान करने आते थे। नाभासे विहार कर आप सामाना, पटियाला, अंबाला होते. हुए रोपड और रोपड़से होशियारपुर पधारे। यहाँके श्रीसंघने स्वर्गीय आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरिजी ( आत्मारामजी) महाराजकी एक प्रतिमा बनवाई थी। उसकी प्रतिष्ठा करानेहीके लिए, श्रीसंघके अत्यंत आग्रहसे, आप यहाँ पधारे थे। सं० १९५७ के वैशाख सुदी ६ के दिन बड़े समारोह एवं शान्तिके साथ प्रतिष्ठाका कार्य समाप्त हुआ। सं० १९५७ का चौदहवाँ चौमासा आपका होशियार पुरमें हुआ। पंजाबके श्रीसंघने आपको इस साल आचार्य पदवी देना निश्चित कर आपसे निवेदन किया । आपने झटपट इन्कार कर दिया। श्रीसंघने कहा:-" हम तो स्वर्गीय गुरु महाराजकी आज्ञाका पालन करना चाहते हैं । हमने जब पूछा कि, गुरुवर्य आपः हमें किसके भरोसे छोड़ कर जाते हैं, तब गुरुदेवने फर्माया - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । awrwwwwwnarrowmom था,-" तुम चिन्ता क्यों करते हो ? मैं तुम्हें वल्लभके भरोसे छोड़ जाता हूँ। वह मेरी कमी पूरी करेगा।" आपने भक्तिभावसे स्वर्गीय गुरुचरणोंमें प्रणाम कर कहा:" वे बड़े थे । उनकी आज्ञाका पालन करनेमें मैं कभी आगा पीछा नहीं करता । मैं तो क्या मेरे जैसे हजार वल्लभविजय भी उनकी कमीको पूरा न कर सकेंगे । कहाँ वे शासन-सूर्य और कहाँ मैं टिम टिमाता हुआ दीपक ? सूर्यके अभावमें चिराग भी कुछ उपयोगी हो ही जाता है, उसी प्रकार मैं भी आपको धर्मकार्यमें लगाये रखनेके काममें उपयोगी हो सकता हूँ। मगर इतनेहीसे मैं अपने आपको गुरू-गद्दीपर बैठनेके योग्य नहीं समझता । गुरु महाराजके और भी शिष्य हैं। कई मुझसे दीक्षा पर्यायमें बड़े हैं। उनमेंसे आप इस पदके लिए किन्हींको चुन लीजिए । इस तरह मेरा विरोध होने पर भी यदि आप लोगोंका आग्रह ही है तो समस्त मुनिराजोंसे सम्मति ले लीजिए। यदि सबकी राय होगी तो मैं विचार करूँगा । उस वक्त लाला गंगारामजीने कहा;-“मैं मारवाड़ गुजरात आदिमें जाकर प्रायः सब साधुओंसे सम्मति ले आया हूँ। सबने प्रसनताके साथ कहा है कि, आप ही इस पदको सुशोभित करनेके योग्य है। ___ "हाँ एक कान्तिविजयजी महाराजने दूसरी ही सम्मति दी है । उन्होंने कहा है कि, वल्लभविजयजी इस पदके सर्वथा योग्य हैं । इसका मैं विरोध नहीं करता । जैसे वे अद्वितीयः Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आदर्श जीवन। m mmmchhaavn गुरु भक्त हैं वैसे ही वे विद्वान और वक्ता भी हैं। तो भी मैं उन्हें आचार्य पद देने में सम्मत नहीं हूँ। कारण,-वे दीक्षा पर्यायमें कई मुनियोंसे छोटे हैं। मान लो कि हमने उन्हें आचार्य पदवी दी और एक दो साधुओंने इन्कार कर दिया तो इसका फल क्या होगा? आपसी विरोधसे दो दल हो जायँगे । मुझे गुरु महाराजके संघाड़ेमें दो दल हों यह बात बिलकुल मंजूर नहीं है । मुझे विश्वास है कि, वल्लभविजयजी भी यही चाहते होंगे क्योंकि मैं उनकी महत्ता और शासनभक्ति जानता हूँ। इस लिए मेरी सम्मति है कि, यह पद मुनि श्रीकमलविजयजीको दिया जाय; क्योंकि वे दीक्षापर्यायमें बड़े हैं। ज्ञाता भी अच्छे हैं और वयोवृद्ध भी हैं ।" __ आप तो पहले ही कह चुके थे कि मैं यह पद स्वीकार न करूँगा । संसारके कार्य बहु सम्मतिसे हुआ करते हैं। इसीके अनुसार अनेक प्रावकों और मुनियोंने आग्रह किया कि, आप इस पदको स्वीकार कर लें; मगर आप सम्मत न हुए, यही कहते रहे कि, गुरु-" महाराजके समुदायको एकताके मूत्रमें बाँधकर रखना मेरे लिए और मेरे साथ ही आप सभीके लिए महान कार्य है । इस लिए आप सभी इस कार्यको कीजिए । मैं आचार्य न बननेसे आपको धर्मकार्यमें मदद न दूँगा, इस तरहकी शंका यदि किसीके दिलमें हो तो उसे निकाल दीजिए।" Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. RELA गुजरावाला उ. सोहनविजयजी मनोरंजन प्रेस बम्बई. चरित्रनायक वृद्ध म. सुमतिविजयजी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । वृद्ध मुनिराज बाबाजी महाराज महाराज श्रीकुशलविजयजी, मुनि श्री चारित्रविजयजी, मुनि श्री प्रमोदविजयजी, मुनि श्रीहीरविजयजी और मुनि श्रीउद्योतविजयजी, स्वामीजी श्रीसुमतिविजयजी आदि मुनिगणका आग्रह था कि, हम वल्लभविजयजीहीको आचार्य बनायेंगे और मानेंगे । उन्हें बड़ी कठिनता से आपने समझाया और फिर एक सम्मति - पत्र लिख उस पर आपने सबसे पहले सही की, सब साधुओंकी सही करवाई और वह कान्तिविजयजी महाराजके पास पाटन भेज दिया । वाह ! क्या त्याग है ? संसारमें धन-दौलत पुत्र कलत्र और गृहस्थाश्रम छोड़ देना सरल है मगर मान - बड़ाईका त्याग करना, बड़ा ही कठिन काम है। उसमें भी आचार्यके समान दुष्प्राप्य पदवीको - जो विरलोंहीको मिला करती है - छोड़ देना वह भी ऐसी दशामें जब कि अपने पक्षमें बहु सम्मति हो छोड़ देना, एक दुःसाध्य साधना है । मगर हमारे चरित्रनायकने उसको साधा; एकताके सूत्रमें सबको बाँधे रखनेके लिए आपने यह महान त्याग किया । इस सम्मतिपत्रके पहुँचनेपर सं. १९५७ की माघ सुदी १५ के दिन पाटन (गुजरात) में १०८ श्री कमलविजयजी महाराजको सूरि पद प्रदान कियागया । १२५ पाटन पदवीप्रदान महोत्सव के समय पंजाब श्रीसंघ से कोई भी श्रावक सम्मिलित न हो सका था । केवल गुजराँवा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । लाके एक सज्जन शामिल हुए थे। कारण पंजाबका श्रीसंघ उस समय जंडियालेमें प्रतिष्ठा उत्सव पर गया हुआ था । १०८ श्रीकमलविजयजी महाराजकी इच्छा थी कि उपाध्याय पद हमारे चरित्रनायकको दिया जाय; मगर हमारे चरित्रनायकने उसे लेना नामंजूर किया । १२६ इस साल स्थानकवासियोंके पूज्य श्रीसोहनलालजी भी होशियारपुरहीमें थे । उनके साथ शास्त्रार्थकी बात छिड़ी थी; मगर अन्तमें वह ढीली पड़ गई । वे शास्त्रार्थ करनेको तैयार न हुए । X X X चौमासा समाप्त होने पर आप होशियारपुर से विहारकर, गढ़दिवाला, उरमड, अइयापुर, टाँडा, मियानी आदि स्थानों में होते हुए जंडियाले पधारे । आपके पधारनेका हेतु था यहाँ होनेवाली मंदिरजीकी प्रतिष्ठा । माघ सुदी १३ सं० १९५७ को प्रतिष्ठा हुई । प्रतिष्ठाका सारा काम आप हीकी देखरेख में हुआ था । इस अवसर पर आपने पचास जिन बिंबोंकी अंजनशलाका भी की थी । स्वर्गवासी आचाश्रीने अपनी देखरेखमें आपको जो कार्य सिखाया था वह आज सफल हो गया । x यहाँ प्रतिष्ठा महोत्सव पर समस्त पंजाबका श्रीसंघ आया था । उससे आपने पाइफंडको समृद्ध बनानेके लिए एक फंड जारी कराया । संघने अपनी शक्तिके अनुसार उसमें Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. वाशिष्य। ॥श्री मद्विजयक पन्यास ललित व ललित विजयजी महारा महाराज॥ पृ.१२७० मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । रुपया देना स्वीकार किया । कइयोंने उसी समय नकद रुपये भी दे दिये । यहाँकी प्रतिष्ठा समाप्त होने पर मुनि श्रीलब्धिविजयजी और मुनि श्रीललितविजयेजीने आपकी आज्ञानुसार मारवाड़ गुजरातकी तरफ़ विहार किया । १२७ १ - इनका जन्म गुजरांवाला जिलेके रहनेवाले श्रीयुत दौलतरामजीके घर हुआ था । सं. १९३७ में इनका जन्म हुआ था । इनका नाम लक्ष्मणदास था 1 इनके पुरुषा महाराजा रणजीतसिंहजीके जमाने तक बहुत बड़े जमींदार रहे थे । इनके पिता अपने इन इकलौते पुत्रको छोड़ कर परलोकवासी हो गये थे । गाँवमें लाला बूडामल भगत रहते थे । वे जातिके ओसवाल और पक्के बालब्रह्मचारी एवं जैनधर्मधारी थे । उनका और दौलतरामजीका गाढा स्नेह था । इसलिए दौलतरामजीके मरने पर उन्होंने इन्हें अपने पास रखकर जैनधर्मके रंगमें रंगना प्रारंभ किया । थोड़े ही दिनोंमें पक्के शैवका लड़का दृढ जैनधर्मधारी बन गया । इनका मन जब वैराग्यमें सन गया तब भगतजीने इन्हें गुजरांवाला में आकर हमारे चरित्र - नायकके भेट कर दिया । हमारे चरित्रनायकने ग्यारह महीने अपने पास रख, भव्य जीव समझ सं.१९५४ के वैशाख सुदी ८ के दिन नारोवालमें इन्हें दीक्षा दी । ललितविजयजी ' रक्खा । ये हमारे चरित्रनायकके द्वितीय, आपके ( हमारे चरित्रनायक के ) शब्दों में, अद्वितीय गुरुभक्त हैं । आप जैसे विद्वान हैं वैसे ही अच्छे गायक भी हैं । जिस समय आप भक्तिपूर्ण हृदयसे मंदिरजीमें पूजा पढ़ाते हैं उस समय श्रोता लोग मंत्रमुग्ध सर्पकी भाँति तल्लीन हो जाते हैं । इनके व्याख्यान भी बड़े ही प्रभावोत्पादक होते हैं । गुरुदेवकी आज्ञा, अनेक कष्ट उठाकर भी पालन करने को ये हर समय तैयार रहते हैं । ये कहा करते हैं, " गुरुमहाराजके मुझपर इतने उपकार हैं कि उनके हुक्मको पालते हुए यदि मेरा देहपात हो जाय तो भी म उनसे उऋण न होऊँ । ” सं० १९७६ में वाली ( मारवाड़ ) में गुरु महाराजके समक्ष ही इन्हें पंन्यास सोहनविजयजी महाराज ने पंन्यास पदसे विभूषित किया । इनके साथ ही मुनि श्रीउमंगविजयजी महाराज और मुनि श्रीविद्याविजयजी महाराज भी पंन्यास पदसे विभूषित किये गये थे । 6 नाम Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आदर्श जीवन। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . - N A A __ आप जंडियालासे विहार कर अन्यान्य गाँवोंके जीवोंको धर्मामृत पिलाते हुए अमृतसर पधारे । वहाँ पर ' आत्मानंद जैन पाठशाला पंजाब' की योजना करनेके लिए सं. १९५८ के वैशाख सुदी ११ ता० २९ अप्रेल सन् १९०१ ईस्वीको बाबाजी महाराज श्रीकुशलविजयजीके सभापतित्वमें एक सभा हुई । उसमें आपने श्रावकोंको उत्साहित करनेवाला एक छोटासा व्याख्यान दिया था । उसका श्रावकों पर बड़ा प्रभाव हुआ और उस समय जो पाँच प्रस्ताव आपकी सम्मतिसे पास किये गये उनको उपयोगी समझकर हम यहाँ उद्धृत कर देते हैं (१) शहर जंडियालेमें प्रतिष्ठामहोत्सवके समय 'श्रीआत्मानंद जैन पाठशाला पंजाब' के लिए जो फंड श्रीसंघ पंजाबने स्थापित किया है उसमें जिन जिन शहरोंने अपने नाम चंदेमें नहीं लिखाये हैं उन शहरोंको चंदा देना चाहिए। (२) पहली मई सन् १९०१ से प्रत्येक नगरके श्रद्धालु सेवकोंको चाहिए कि वे अपनी शक्तिके अनुसार प्रति दिन कमसे कम एक पाई इस फंडमें जरूर दें। ज्यादा इच्छानुसार दे सकते हैं। यह नियम अभी दस बरस तक के लिए किया जाता है। (३) 'श्रीआत्मानंद जैनपाठशाला पंजाब' के लिए पुत्रके विवाह पर पाँच रुपये और पुत्रीके विवाह पर दो रुपये निकाले जाया करें। आधिक निकालनेका हरेकको अखतियार है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। १२९ (४) विवाहके समय जैसे श्रीजिनमांदरजीमें रुपये चढ़ाया करते हैं वैसे ही 'श्रीआत्मानंद जैनपाठशाला पंजाब' के नाम भी चढ़ाया करें। क्योंकि प्रायः पंजाब देशमें सब स्थानों पर श्रीजिनमंदिर बन गये हैं, बन रहे हैं और सब तरहके खर्चका काम चल जाता है, इसलिए ज्ञानके उद्धारका ध्यान करना भी श्रीसंघका उचित आचरण है। (५) पर्युषणोंके दिनोंमें कल्पसूत्रकी बोलियाँ और ज्ञान पंचमी वगैरहका जो कुछ ज्ञानसंबंधी चढ़ावा होता है, वह 'श्रीआत्मानंद जैनपाठशाला पंजाब' के फंडमें शामिल होना चाहिए। (६) चातुर्मास आदिमें साधु मुनिराजोंके दर्शनार्थ जो श्रावक आते हैं वे जैसे श्रीजिनमंदिरमें चढ़ाते हैं वैसे ही उस समय 'श्रीआत्मानंद जैनपाठशाला पंजाब' के नाम भी,न्यूनाधिक जैसा बन सके, कुछ चढ़ावा चढ़ाया करें ।। उस साल यानी सं० १९५८ का पन्द्रहवाँ चौमासा आपने अमृतसरहीमें किया था। यहींसे आपने 'आत्मानंद जैनपत्रिकामें श्रीगौतमकुलकका हिन्दी रूपान्तर निकलवाना प्रारंभ किया। इसी चौमासेमें कार्तिक सुदी १४ के दिन वृद्ध महात्मा मुनि श्री १०८ कुशलविजयजी (बाबाजी) महाराजका देवलोक हो गया । इनमें वैयावृत्त्यका जो गुण था वह श्रीआत्मारामजी महाराजके संघाड़ेके साधुओंमें तो क्या अन्य भी किसी संघाड़ेके साधुओंमें नहीं है। - - Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आदर्श जीवन। ___ अमृतसरका चौमासा समाप्तकर आप २१ दिसंबर सन् १९०१ ईस्वीको लाहोर पधारे आपके साथ मुनि श्रीहीरविजयजी महाराज और मुनि श्रीसुमतिविजयजी महाराज थे। लाहोरमें आपने मूयगडांग सूत्रका व्याख्यान प्रारंभ किया था । आप सं० १९५५ में जिस उपाश्रयमें ठहरे थे, इस बार भी उसी पंचायती उपाश्रयमें ठहरे थे। यहाँ ' आत्मानंद जैन सभा पंजाब' का दूसरा वार्षिकोत्सव आपकी उपस्थितिमें हुआ। आपने उपदेश देकर यहाँ उन सभी प्रस्तावोंको पुनः पास करवाया जो अमृतसरमें हो चुके थे। तीसरे प्रस्तावमें पाँच और दो रुपयेकी जगह एकसे लेकर पाँच रुपये तक इच्छानुसार निकालना लिखा है । चौथे प्रस्तावमें विशेष फर्क है इसलिए उसकी पूरी नकल यहाँ दी जाती है। (४)-" विवाहके समय श्रीजिनमंदिरजीमें जो रकम बराती चढ़ावें सो ' श्रीजिनमंदिरजी ' तथा ' श्रीआत्मानंद जैन पाठशाला पंजाब, के नामसे (चढ़ावें और ) जमा करें। खास गुजराँवालाके वास्ते श्रीसंघ पंजाबकी यह सम्मति है कि, जो रकम बराती चढ़ावें उसको (१) श्रीजिनमंदिरजी (२) श्रीआत्मानंद जैन पाठशाला पंजाब और (३) श्री १००८ श्रीगुरुदेवजी महाराजकी समाधिके नामसे चढ़ावें और शहर गुजराँवालाका श्रीसंघ उसको बराबर तीन हिस्सोंमें 'तीनोंहीके नामसे जमा करे ।" Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पाँचवें प्रस्ताव में पर्युषणोंका ज्ञानसंबंधी चढ़ावा ' श्रीआत्मानंद जैन पाठशाला पंजाब' हीमें देनेकी बात थी वह बदल दी गई और उसकी जगह यह स्थिर हुआ कि चढ़ावेका आधा हिस्सा 'पाठशाला पंजाब' में और आधा अपने शहरके " ज्ञानखाते में दिया जाय । " एक महीने तक लाहोर निवासियोंका उपकार कर ता. १९ जनवरी सन् १९०२ को आपने वहाँसे विहार किया । मुनि महाराज श्रीहीरविजयजी और मुनि महाराज श्रीसुमतिविजयजी सहित आप ग्रामानुग्राम विचरते हुए बुधियाना पधारे । यहाँके श्रावक आपके आगमन से बड़े हर्षित हुए । आपके वचनामृत पानकरनेके लिए सारे ही गाँवके नरनारी सवेरे व्याख्यानमें आया करते थे । १३१ garaमें एक मास तक अमृत वर्षाकी और वहाँसे विहार करके आप फाल्गुन वदी १३ सं० १९५८ को कसूर पधारे और वहाँके लोगोंको धर्म- पीयूष पिलाने लगे । आपके उपदेशसे वहाँ फाल्गुन सुदी १० को शांतिस्नात्र पूजा पढाई गई और लाला जीवनलालने 'सधर्मी वात्सल्य' किया । यह बात कसूरके लिए सबसे पहली ही थी । कसूरसे आप विहार कर अमृतसर और अमृतसर से जंडियाले पधारे । वहाँ सं. १९५८ के आषाढ़ वदी ५ गुरुवार ता. २६ जून सन् १९०२ ईस्वीको बड़ी धूम धामसे दो व्यक्तियोंकी दीक्षा हुई। उनका नाम विनोदविजयजी और विमलविजयजी रक्खा गया । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । www.aaivar जंडियालेसे आप चौमासा करनेके लिए पट्टी पधारे । संवत १९५९ का सोलहवाँ चौमासा आपने पट्टीहीमें किया । पट्टीमें आपके उपदेशसे स्वर्गीय आचार्य महाराजकी स्वर्गवास तिथिके दिन और संवत्सरीके दिन दुकानें बंद रखने और आरंभसे बचनेका सारे संघने नियम किया। पट्टीसे विहार करके आप जीरा पधारे । जीरामें, आपने श्रीजैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित 'साधुप्रतिक्रमण' नामका ग्रंथ देखा । उसमें सालमें दो बार यानी हर छठे महीने, साधुओंके लिए कायोत्सर्ग करनेका विधान कियागया था। आपने इस लेखमें एक भूल देखी और 'आत्मानंद जैन पत्रिकामें जो उस समय लाहोरसे प्रकाशित होती थी,-एक सूचना प्रकट कराई और उसके द्वारा यह सिद्ध किया कि वर्ष में एक ही बार और वह भी चैत्रके महीनेहीमें कायोत्सर्ग करनेकी शास्त्र-आज्ञाहै।अपने कथनकी पुष्टिमें आपने सामाचारी शतक और 'आवश्यक प्रतिक्रमण अध्ययन के पाठ भी दिये । इस सूचनामें आपने जामनगर निवासी पंडित हीरालाल हंसराज द्वारा लिखित 'जैनधर्मनो प्राचीन इतिहास ' नामक पुस्तकके विषयमें भी लिखा है कि, उसमें कई बातें अनुचित और गलत हैं । आपने संघसे अपील की थी कि, एक ऐसी कमेटी बनाई जावे कि, जो जैनधर्मसे संबंध रखने वाले ग्रंथोंको आद्योपान्त देख ले और जबतक वह देख कर पास न कर दे तबतक कोई ग्रंथ-एक छोटासा पेम्प्लेट भी-जैनधर्मके विषममें प्रमाणित न माना जावे । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । जीरासे विहार करके आप मालेरकोटला पधारे । वहाँ कई दिनों तक आप भक्तोंको जिनवचनामृतका पान कराते रहे । वहाँ से विहार करके ग्रामानुग्राम विचरते, जैन धर्मकी प्रभावना करते और उपदेशामृतकी वर्षा करते हुए आप अंबाला पधारे और सं १९६० का सत्रहवाँ चातुर्मास आपने अंबालेहीमें किया । यहाँ आठ और नौ अगस्त सन् १९०३ को आत्मानंद जैन सभा पंजाबका जलसा हुआ था । सभापतिका स्थान आपने सुशोभित किया था । होशियारपुर के सरकारी गेजेटियर में किसी लेखकने -जिसको जैन धर्म और उसके पालनेवालोंका कुछ परिचय नहीं था - भावड़ोकी यानी ओसवालोंकी शूद्रोंमें गिनती कर डाली थी । इस भूलको सुधरवाने के लिए आपने उपदेश देकर एक कमेटी बनवाई । इस कमेटी में बाबू लेखराम आदि कई सज्जन थे । कमेटीने प्रयत्न करके सफलता प्राप्त कर ली । उसी वर्ष बंबई में श्वेताम्बर जैन कॉन्फरन्स होनेवाली थी । आपने कॉन्फरन्समें भाग लेनेका उपदेश दिया। इस पर पंजाबके प्रत्येक शहरमेंसे प्रतिनिधि भेजना स्थिर हुआ । तबसे प्रत्येक कॉन्फरन्समें पंजाब के प्रतिनिधि जाते रहे हैं । १३३ इस चौमासेमें अंबालाशहरमें एक पाठशाला खोली गई । उसका नाम ' श्री आत्मानंद जैन पाठशाला' रक्खा गया । वह धीरे धीरे उन्नत होकर अब हाई स्कूल बन गई है । आपके उपदेश से यहाँ और भी अनेक कार्य हुए थे । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आदर्श जीवन । अंबालेसे विहार करके आप सामाना (पटियाला स्टेट ) में पधारे। वहाँ उस समय मूर्तिपूजक श्रावकोंके केवल पाँच ही घर थे। बाकी सभी स्थानकवासी थे। फिर भी बड़ी धूमधामके साथ आपका नगर प्रवेश हुआ । अन्य धर्मावलंबियोंकी काफी तादाद आपके स्वागतार्थ जुलूसमें शामिल हुई। कई कुतूहलवश आये थे, कई भक्तिवश आये थे, कई प्रख्यात साधुवरके दर्शनकरनेकी इच्छासे आये थे कई आपके वचनामृतका पान करने आये थे और कई श्रावकोंके मुलाहजेसे जुलूसमें शामिल हो गये थे। __ उपाश्रयमें पहुँचकर आपने धर्मोपदेश दिया। उसे सुनकर लोग मुग्ध हो गये। फिर तो सभी हमेशा आपका उपदेशामृत पान करने आने लगे। कई स्थानकवासी भाई भी अपनी भूलको सुधारकर पुनः वीतरागके शुद्ध धर्ममें सम्मिलित हो गये। . __ वहाँ सुरजनमल नामके एक स्थानकवासी श्रावक थे। वे एक दिन महाराज साहबके पास आये और चर्चा करने लगे। मगर दो चार प्रश्नोत्तरहीमें उनका सारा ज्ञान समाप्त हो गया। तब उन्होंने आपसे कहा:-" यदि आप हमारे पूज्य श्रीसोहनलालजीसे शास्त्रार्थ करनेको तैयार हों तो मैं उन्हें बुलाऊँ । यदि वे हार जायँगे तो मैं भी श्वेतांबर बन जाऊँगा और यदि आप हार जायँ तो आप स्थानकवासी हो जाइएगा।" आप मुस्कुराये और बोले-" अच्छा !" लाला सुरजनमल कैंथल-जहाँ पूज सोहनलालजी थे-दो Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । चार दूसरे स्थानकवासियोंके साथ गये । उन्हें सारी बातें सुनाई अपनी प्रतिज्ञाका हाल भी कहा । इच्छा न होते हुए भी पूज सोहनलालजी १४ साधुओं सहित सामाने आये । सारे शहरमें पवनवेग से यह बात फैल गई कि स्थानकवासियोंका और श्वेतांबरोंका शास्त्रार्थ होनेवाला है । लाला सुरजनमलने पूज सोहनलालजी से कहा :- “ महाराज ! अब शास्त्राथ की तैयारी होनी चाहिए। " १३५ पूज सोहनलालजीने जवाब दिया- “ श्रावकजी ! शास्त्रार्थ किससे करनेको कहते हो इसके गुरु आत्मारामजी भी जब हमारे प्रश्नोंका जवाब न दे सके तब यह तो देही कैसे सकता है ? " सुरज ० - यह तो और भी अच्छी बात होगी । अगर वे हार जायँगे तो तत्काल ही स्थानकवासी हो जायँगे । बात बड़ी मीठी, मनमें गुदगुदी पैदा करनेवाली थी; मगर थी असाध्य । पूजजी अपनी स्थिति समझते थे । यदि उन्हें रुपये में से एक आना भी विश्वास होता कि, हम वल्लभविजयजीसे शास्त्रार्थमें जीत जायँगे तो वे इस स्वर्ण अवसरको कभी न छोड़ते । मगर उन्हें तो रत्तीभर भी विश्वास नहीं था । इस सौदे में उन्हें तो हानि ही हानि दिखती थी । इसलिए बोले:" एक प्रश्न जाकर वल्लभविजयजीसे पूछो । वे इसका उत्तर बिलकुल न दे सकेंगे । प्रश्न यह है, 'आत्मारामजीने जैनतत्वादर्शके बारहवें परिच्छेदमें, महानिशीथ सूत्रके तीसरे अध्ययनका पूजाके विषयका जो पाठ दिया है वह सूत्रमें कहाँ लिखा है ? Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। बताइए। वे पाठ न बता सकेंगे; क्योंकि सूत्र में वह पाठ नहीं है । बस लोगोंसे कह देना कि, इनकी सारी बातें इसी तरह मनगढंत हैं। सच्चा वीतरागका धर्म तो स्थानकवासी ही पालते हैं। लोग तत्काल ही स्थानकवासी धर्मके हिमायती हो जायँगे।" सुर्जनमल उछल पड़ा । मानों उसे चिन्तामणि रत्न मिल गया है ; उसका मन आकाशमें महल बनाने लगा। उसने अपने कल्पना चक्षुसे देखा कि, जो वल्लभविजयजी श्वेतांबर सम्प्रदायके स्तंभ थे वे ही अब स्थानकवासी संप्रदायके स्तंभ हो गये हैं। जिनके कारण श्वेतांबरोंका समस्त भारतमें जयजय कार हो रहा था उन्हींके कारण अब स्थानकवासियोंकी जय पताका उड़ रही है । भोले श्रावकको क्या खबर थी कि थोड़ी ही देरमें यह महल-यह सुखस्वम नष्ट भ्रष्ट हो जायगा । __ हमारे चरित्रनायक व्याख्यान दे रहे थे। मुसलमान, ब्राह्मण, क्षत्री आदि सभी तरहके लोग उपदेश सुन रहे थे और अपनी शंकाएँ मिटा रहे थे । उसी समय लाला सुर्जनमल कई स्थानकवासियोंके साथ वहाँ पहुँचे उस समय वे इतना हर्षबावले हो रहे थे कि उन्हें सभ्यताका भी खयाल न रहा । बात कैसे शुरू करनी चाहिए इसका ज्ञान तो हो ही कैसे सकता था ? उन्होंने झटसे मुखधनुषकी टंकार कर पूज सोहनलालजीका दिया हुआ ब्रह्मास्त्र छोड़ा। __ श्रोता चौंके । उन्होंने सुर्जनमलकी तरफ देखा । व्याख्यानके रसपानमें विघ्न डालनेवालेपर उन्हें तरस आया । हमारे Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन १३७ चरित्रनायककी स्थिति निराली थी । वे सुर्जनमलकी तरफ देखकर मुस्कुराये और बोले:-" भावी श्रावक ! एक बड़ी सभा करो। सभी धर्मके बड़े बड़े विद्वानोंको बुलाओ ! उसीमें हम वह पाठ दिखायँगे । यहाँ दिखानेसे कोई लाभ नहीं है। " ___ सभी श्रोताओंने कहाः-" ऐसा ही होना चाहिए । जनतापब्लिक-को भी मालूम हो जायगा कि, कौनसा फिरका वीतरागका सच्चा उपासक है।" सुर्जनमल ऐसी आशा करके नहीं आया था। उसका हवाई किला ध्वंस हो गया। उसे दुःख हुआ । “ऐसा ही सही" कह कर वह चला गया। __ शास्त्रार्थका दिन निश्चित हुआ। सारे शहरमें धूम मच गई। आसपासके अनेक लोग शास्त्रार्थ सुनने जमा होने लगे। शास्त्रार्थके एक दिन पहले शहरके मुखिया लाला पंजाबराय, लाला सीताराम, आदि कई पांडतों और यति बख्शीऋषिजीके सहित पूज सोहनलालजीके पास गये । अनेक बातें होती रहीं । शास्त्रार्थकी बात छिड़ी। बख्शीऋषिजी बोले:-"महाराज आप शास्त्रार्थमें तो कल जावेंहीगे ?" ___ सोहनलालजीने वही बात दुहराई जो सुर्जनमलसे कही थी। बख्शी०-" मगर वल्लभविजयजी तो पाठ दिखानेके लिये तैयार हैं।" सोह०-" नहीं जी ! यह पाठ मूत्रमें है ही कहाँ ?" Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आदर्श जीवन । बख्शी०-“ यदि नहीं है तब तो आपकी जीत निश्चित ही है। आपको यह अवसर हाथसे न खोना चाहिए।" सोह.---" हम अपना स्थान छोड़ कर कहीं नहीं जाते।" बख्शी०--"धर्मकार्यमें जाना बुरा नहीं है और वह तो ऐसी जगह है जहाँ किसी तरहकी रोक नहीं हो सकती । पंडितोंके सामने सत्यासत्यका निर्णय हो जायगा।" । सोह०-" पंडित क्या समझते हैं वे तो टुकड़ गदाई हैं।" साथमें गये हुए पंडितोंके अंदरसे एक क्रुद्ध होकर बोला:“ यदि पंडित नहीं समझते हैं तो क्या गधे चरानेवाले कुम्हार समझते हैं ? कहाँ मुनि वल्लभाविजयजी विद्या और विद्वानोंका सम्मान करनेवाले और कहाँ तुम !" सभी उठ कर चले गये। कटरेमें सभा होना निश्चित हुआ था । सभास्थान जनतासे खचा खच भर गया । दिनके ठीक चार बजे हमारे चरित्रनायक सभामें, अपने कई साधुओं सहित पहुँचे । आपने जैन धर्मका महत्त्व समझाकर श्वेताम्बरों और स्थानकवासियोंमें क्या फर्क है सो समझाया । स्थानकवासियोंके दिल दहले । उन्हें अपने पंथकी नौका डगमगाती हुई दिखाई दी। उनमेंसे कई पूज सोहनलालजीके पास पहुंचे और दुःखी स्वरमें बोले:" महाराज अगर आज आप शास्त्रार्थमें न चलेंगे तो हम कहीं मुँह दिखाने लायक भी न रहेंगे।" यद्यपि पूज सोहनलालजी पहले कह चुके थे कि हम Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। १३९. ANANAMA किसी दूसरी जगह नहीं जाते तथापि उन्होंने अपने श्रावकोंको प्रसन्न रखनेके लिए करमचंदजी नामके साधुको भेजा। उन्हें महानिशीथ सूत्र भी दे दिया। करमचंदजी एक दूसरे साधु सहित सभास्थानमें पहुँचे और सभामें व्याख्यान और शास्त्रार्थके लिए बनाई हुई जगह पर न जाकर एक तरफ़ खड़े हो गये और कुछ कहने लगे। लोगोंने कहा:-" महाराज आप व्यास पीठ पर आइए।" उन्होंने उत्तर दियाः-" हम वहाँ नहीं आ सकते।" लोगोंको व्याख्यानमें आनंद आ रहा था मगर उन्होंने व्याख्यान बंद कर कर्मचंदजीसे वार्तालाप करनेकी हमारे चरित्रनायकसे प्रार्थना की । आप अपना व्याख्यान बंद कर करमचंदजी जहाँ खड़े थे वहाँ गये और सादर पूछा:-" क्या आप शास्त्रार्थ करेंगे?" करमचंदजीने उत्तर दिया:-" हम यहाँ शास्त्रार्थ करने नहीं आये हैं।" __ लोग हँस पड़े। कुछ उद्धत युवक करमचंदजीको अपमान जनक शब्द कह बैठे । हमारे चरित्रनायकने उनको धमकाया और कहा:-" खबरदार ! त्यागीका अपमान न करना।" __ लोग चरित्रनायककी इस महानताको देखकर मुग्ध हो गये। करमचंदजीके दिल पर भी इस महानताका प्रभाव पड़ा। वे बोले:-" हम तो यतिजीको पाठ दिखाने आये हैं।" यति बरशीऋषिजीने जैनतत्त्वादर्शके साथ पाठ मिलानेके Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | कहा । करमचंदजीने अंगूठे नीचे उस पंक्तिको छुपा दिया जिसमें पूजा करनेकी बात लिखी थी । यतिजीने अंगूठा हटवाकर वह पंक्ति स्पष्ट अक्षरोंमे पढ़कर सुनाई । स्थानकवासी साधु और श्रावकोंको बड़ा बुरा लगा । लोगोंने भगवान महावीरकी जय ! आत्मारामजी महाराजकी जय ! वल्लभविजयजी महाराजकी जय ! ध्वनि से सभामंडपको गुँजा दिया । स्थानकवासी साधु तथा श्रावक चुपचाप अपने पूजजीके पास चले गये । पब्लिकने जुलूसके साथ हमारे चरित्रनायकको उपाश्रयमें पहुँचायां । दूसरे दिन सूर्यग्रहण था । ग्रहणमें अन्नोदक ग्रहण करना प्रायः हिन्दु तथा जैन सभी बुरा समझते हैं; कोई करता भी नहीं है । मगर पूज सोहनलालजीने उस दिन आहारपानी मँगवाया, किया और पटियाले चले गये इसलिए वे लोगोंकी दृष्टि में और भी ज्यादा गिर गये । १४० हमारे चरित्रनायकने दो चार दिन और वहीं ठहर रियास्त नाभाकी तरफ विहार किया; नाभे पहुँचे । पूज सोहनलालजी भी पटियाले विहार कर वहीं पहुँच गये थे । एक दिन हमारे चरित्रनायक जब व्याख्यान समाप्त कर साधारणतया वार्तालाप कर रहे थे तब एक व्यक्तिने निवेदन किया: - " कृपानिधान ! पूज सोहनलालजी और उनके शिष्य जगह जगह कहते फिरते हैं कि, श्वेतांवरोंमें कोई ऐसा नहीं है जो हमारे साथ शास्त्रार्थ करे ।" १ विशेष वृत्तान्त और वहाँ की उपस्थित जनता - जिसमें अनेक विद्वान भी थेका फैसला उत्तरार्द्ध में देखिए । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १४१ .. नाभाके महाराज श्रीहीरासिंहजी बड़े ही धर्मप्रेमी और न्यायी थे । साधु संतों पर उनकी बड़ी भक्ति थी। जब उन्होंने हमारे चरित्रनायकके आगमनकी खबर सुनी तो आपको बुलाया । आप राजसभामें पधारे । नरेशने आपको बड़े आदरके साथ ऊँचे स्थान पर बिठाया । आपसे वार्तालाप कर नरेश बहुत प्रसन्न हुए। उनके अन्तःकरणमें बड़ी ही शान्ति हुई । सच है-- ___चंदनं शीतलं लोके, चंदनादपि चंद्रमाः । चंदनचंद्रयोमध्ये, शीतलः साधुसंगमः ॥ ( भावार्थ संसारमें चंदन शीतल है, चंदनसे चंद्रमा शीतल है, मगर चंदन और चंद्रमाकी अपेक्षा भी साधुओंकी संगति विशेष शीतल है,-आत्माको विशेष रूपसे शान्ति देनेवाली है।) ___ अनेक मतमतान्तरोंकी चर्चा होती रही । नाभानरेश और उनके दर्बारी आपकी विविध धर्मोकी जानकारी, तथा भिन्न भिन्न धर्मोंके तत्वोंको, अहिंसाधर्मके प्रतिनिधिके रूपमें होनेकी, प्रतिपादनकरनेकी सुंदर रीतिको देखकर बड़े खुश हुए । सबने धन्य धन्य कहा । करीब एक घंटे तक वार्तालाप करके आप अपने उपाश्रय लौट गये । लाला जीवाराम नाभामें एक बहुत प्रतिष्ठित सज्जन थे । जातिके अग्रवाल और नाभानरेशके बालमित्र थे। राज्यमें वे चाहते थे सो करसकते थे । यद्यपि वे वैष्णवधर्म पालते थे, तथापि हमारे चरित्रनायक पर उनकी अचल भक्ति थी। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आदर्श जीवन। सं० १९५६ में जब आप नाभा पधारे थे तभीसे, लालाजीके हृदयमें आपके लिए भक्ति उत्पन्न हो गई थी। . वे रोज व्याख्यानमें आते थे और धर्मवचनामृत पान कर कृतकृत्य होते थे। जिस रोज चर्चाकी बात छिड़ीथी उस दिन भी वे बैठे हुए थे। आपने उनकी तरफ देखा और कहाः--" लालाजी! सुना आपने ? नाभाका राज्य बड़ा ही न्यायी समझा जाता है। महाराज हीरासिंहजी सत्य निष्ठ और न्याय करनेमें साक्षात् धर्मराज हैं। आप इस न्यायासनके स्तंभ हैं; मगर आपके राज्यमें भी ऐसी बातें होती हैं। यह आश्चर्य है। एक बार राज्यसभामें शास्त्रार्थ कराकर सदाके लिए क्या इसका फैसला नहीं हो सकता ?" लालाजी कुछ देर सोच कर बोले:-" आप शास्त्रार्थ के लिए तैयार हैं ?" आपने उत्तर दिया:-" मैं हर समय तैयार हूँ। आप मेरे इन छ: प्रश्नोंका उत्तर मँगवा दें।" आपने छः प्रश्न लिखे हुए दिये। __ लालाजीने जाकर महाराज हीरासिंहजीसे अर्ज की। प्रश्नपत्र भी दिया । उन्होंने फर्मायाः-"कोई हर्ज नहीं है । तुम स्थानकवासियोंको पूछकर इसका प्रबंध कर दो।" लाला जीवारामजीने पूज सोहनलालजीके पास आदमी भेजकर उनसे पूछा कि आप शास्त्रार्थके लिए तैयार हैं या नहीं ? श्वेतांबरी शास्त्रार्थके लिए तैयार हैं।" Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १४३ पूज सोहनलालजी बड़े चक्करमें पड़े । हाँ कह कर हमारे चरित्रनायकके साथ शास्त्रार्थमें ठहरना दुःसाध्य था। ना कहनेसे लोगोंकी और खासकरके वहाँके अपने बड़े बड़े श्रावकोंकी निगाहसे गिर जानेका भय था। बहुत सोचविचारके बाद उन्होंने शास्त्रार्थ करनेकी सम्मति दी। मगर खुद शास्त्राथेमें शामिल न हुए। उन्होंने अपने पोते शिष्य श्रीयुत उदयचंद्रजीको इस शास्त्रार्थका मुखिया नियत किया और लिख दिया कि इनकी हारसे हमारी हार समझी जायगी और इनकी जीतसे हमारी जीत । - कई दिन तक यह शास्त्रार्थ हुआ। महाराजा हीरासिंहजी स्वयं शास्त्रार्थके समय उपस्थित रहते थे । प्रसंगोपात्त अनेक मनोरंजक बातें भी हुआ करती थी। उनमेंसे हम एकका यहाँ उल्लेख करते हैं। __ " एक दिन श्रीयुत उदयचंद्र ने कहा कि, " श्वेतांबर लोग मुँहपत्ति नहीं रखते हैं। शास्त्रोंमें मुँहपत्ति रखनेकी आज्ञा है । अतः ये लोग शास्त्राज्ञाके विगधक हैं।" - आप बोले;" धर्मावतार ! आप देखते हैं कि मेरे हाथमें एक छोटासा सोलह अंगुल लंबा और सोलह अंगुल चौड़ा कपड़ा है । इस कपड़ेको मुँहके आगे रक्खे विना कभी मैं एक शब्द भी नहीं बोलता । (सभामें बैठे हुए सभी लोगोंको संबोधन करके) क्या आपमेंसे कोई कह सकता है कि, मैं एक शब्द भी बगैर इस कपड़ेके बोला हूँ। सब बोल उठे, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आदर्श जीवन। m " बिलकुल नहीं।" आपने फर्माया:--" इस कपड़ेहीका नाम मुँहपत्ति है । मैं हर समय इसका उपयोग करता हूँ। अब स्वयं आप विचार सकते हैं कि, श्रीयुत उदयचंद्रजीका आक्षेप कितना निरर्थक है।" __महाराजा हीरासिंहजी मुस्कुराये और बोले:-" उदयचंदजी तुम्हारी यह कपड़ा मुँह पर बाँध रखनेकी कला बिलकुल अच्छी नहीं लगती । जीव मरनेकी बात कहते हो सो हवा तो नाकमेंसे भी निकलती है और कानसे भी जाती आती ही है । अगर तुम जीवोंकी रक्षा ही करना चाहते हो तो इसतरहका टोपा बनाकर पहना करो।" सी तरहकी अनेक बातें हुई थीं। नाभेके शास्त्रार्थका फैसला और प्रश्नपत्र उत्तरार्द्धमें 'नाभेका शास्त्रार्थ के नामसे छपे हैं। ___ नाभेके शास्त्रार्थ के बाद आपने ' मालेरकोटला' की तरफ विहार किया। एक महीने तक वहीं रहे और भव्य जनोंको और जिज्ञासुओंको धर्मामृत पिलाकर कृतकृत्य करते रहे । सामानेके श्रीसंघने आपसे सामानामें चौमासा करनेकी विनती .. १ कहा जाता है कि, नाभानरेशने एक टोपा बनवाया । वह इस तरहका थ कि, जिससे आँखोंके सिवा नाक, कान और मुँह सभी ढक जायें । फिर एक बालकको सभामें बुलवाकर उसे वह टोपा पहनाया और कहा कि, तुम इस तरह पहना करो। इसीसे तुम्हारी धारणाके अनुसार तुम पूर्णरूपसे जीवोंकी रक्षा कर सकोगे। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १४५ की आप उस विनतीको मान कर कोटलेसे सामाने पधारे और सं० १९६० का सत्रहवाँ चौमासा वहीं किया । वहाँ एक जिनमंदिर बनवाना भी स्थिर हुआ। पंजाबमें प्राय:सभी स्थानोंपर पर्युषणोंमें रथ निकलते हैं। भगवानकी प्रतिमाएँ सारे शहरमें जुलूसके साथ फिराई जाती हैं। सामानमें भी बड़ी धूमसे जुलूस निकलनेकी तैयारियाँ हो । रही थी। शान्तमूर्ति मुनि श्रीहंसविजयजी महाराजने पालीतानेसे दो छोटी मूर्तियोंके साथ एक श्रीशान्तिनाथ भगवानकी दिव्य प्रतिमा भेजी थी। उसका नगरप्रवेश बड़ी धूमधामसे कराया । गया उस दिन भी स्थानकवासियोंने गड़बड़ी मचाई थी; मगर हमारे चरित्रनायकके दिव्य उपदेशके कारण सनातनी भी आप पर भक्ति रखते थे और हैं इस लिए उन्होंने भी इस कामको आपहीका काम समझकर रथ निकालनेमें पूरी सहायता की । स्थानकवासी देखते ही रह गये। __ लाला सीताराम और लाला पंजाबराय सामाना शहरमें अच्छे प्रतिष्ठित और वसीलेवाले आदमी हैं । जातिके अग्रवाल हैं और सनातन धर्म पालते हैं। वे हमारे चरित्रनायक पर इतनी भक्ति रखते हैं कि संभवतः श्रावक भी उनकी बराबरी शायद ही कर सकें। दोनों सज्जन नियमित रूपसे आपके व्याख्यान सुनने आते थे। उन्होंने प्रथमसे ही आपसे निवेदन किया था . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । कि आप किसी तरहकी चिंता न करें। हम सब प्रबंध ठीक कर देंगे । प्रभुकी सवारी जरूर निकाली जावे । आपने लाला पन्नालालजी अमृतसर वालोंको, लाला गंगारामजी अंबालावालोंको और लाला गूजरमलजी होशियारपुरवालोंके पोते लाला दौलतरामजीको बुलाया और रथयात्राकी इच्छा जाहिर की । १४६ और विकी बात कही । वे तत्काल ही पटियाला पहुँचे । वहाँ मालूम हुआ कि बारबटन साहब - जो आजकाल राज्यका इंतजाम कर रहे हैं-शिमला हैं । वे तत्काल ही शिमलाके लिए रवाना हो गये और आपको पता दे गये कि, आप चिन्ता न करें । हम शिमला जा रहे हैं शासनदेव हमारी सहायता करेंगे । इस धर्मकार्यको कोई रोक न सकेगा । जहाँ आप हैं वहाँ विन कितनी देर ठहर सकता है ? इन सज्जनोंका पंजाबमें अच्छा मान है । लाला पन्नालालीको प्रायः कई राजा महाराजा और हाकिम लोग पह चानते हैं । जब ये शिमला पहुँचे और बारबटन साहब से - मिले तब साहबने आश्चर्यके साथ पूछा: – “ आप किधरसे आ गये ? " " " लालाजी बोलेः–“ आपसे हमारा धर्मकाम कराना है इस लिए यहाँ आये हैं । साहबने पूछा: – “आपका कौनसा धर्म - कार्य है ? " लालाजीने सामानेकी बात सुनाई और कहाः – “ सामा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १४७ नेमें हमारे गुरुओंका चौमासा है। वहाँ हम जुलूस निकालना चाहते हैं। मगर वहाँके स्थानकवासी भाई हमारे धर्मकाममें विघ्न डालनेके लिए हर तरहकी कोशिश करते नजर आते हैं, सो इसके लिए उनको हिदायत होनी चाहिए। हमको वे लोग फिसाद करेंगे ऐसा डर है; इस लिये आप वहाँ खास पुलिसका, इन्तजाम करनेके लिए, भेज दीजिए, ताके वे हमारे काममें किसी तरहका खलल न डाल सकें।" बहुत कुछ सोच विचारके बाद साहबने जुलूस निकालनेका .. इनामत और पटियाले अपने सुप्रिण्टेण्डेण्टके पास हुक्म भेज दिया कि, वे सशस्त्र पुलिसकी चार गार्द सामाने भेज दें और जहाँ कोई थोड़ीसी भी गड़बड़ करे फौरन उसको कैद कर लें। इस कारणसे भी जुलूस आनंदपूर्वक निकाला गया। विक्रम संवत् १९६१ भादवा वदी १४ को महेन्द्रध्वज निकला, रथयात्रा हुई और कल्पमूत्रकी सवारी निकली। साथमें, कोटला, पट्टी, होशियारपुर, सामाना, गुजराँवाला और :अंबालाकी जैनभजन मंडलियाँ थीं। इतना ही क्यों सामानेके सनातनी भाई भी अपनी भजनमंडली और पूरे ठाठ सहित जुलूसके साथमें थे। - सामानेके श्रीआत्मानंद जैनसभाके सभासदोंकी विनतीसे हमारे चरित्रनायकने लच्छीकी चालमें उस समय एक भजन बनाया था, वह यहाँ दिया जाता है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आदर्श जीवन। - आहोजी शांति प्रभु सुखकारी । सुखकारी सुखकारी भवसागर पार उतारी । शांति० (अंचली) आहोजी शहर समानामें, समानामें समानामें जिनमंदिर बनाया भारो ॥ शां० ॥ १ ॥ आहोजी सिद्धगिरि तीरथसे । तीरथसे तीरथसे प्रभु मूरति मोहनगारी ॥ शां० ॥ २ ॥ आहोजी भेजी भावोंसे । भावोंसे भावोंसे हंसविजय मुनि उपकारी ॥ शां० ॥ ३ ॥ आहोजी परव पजोसनमें । पजोसनमें पजोसनमें होया महोच्छव शोभाकारी ॥ शां० ॥ ४॥ आहोजी उन्नीसौ इकसठमें ।। इकसठमें इकसठमें वदि भादों चौदस गुरुवारी ॥ शां० ॥ ५ ॥ आहोजी मूरति सुखदाई । सुखदाई सुखदाई फिरी इंदर धजा इकसारी॥ शां० ॥ ६ ॥ आहोजी मुद्रा मनहारी । मनहारी मनहारी नित्य सेवा करें नरनारी ॥ शां० ॥ ७ ॥ आहोजी प्रभु जयकारी। जयकारी जयकारी जाऊँ बार बार बलिहारी ॥ शां० ॥ ८ ॥ ___ आहोजी पूजा गुणकारी । गुणकारी गुणकारी दुख दोहग दूर निवारी ॥ शां० ॥९॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - - आहोजी संपदा सुख पावे । सुख पावे सुख पावे जो गावे प्रभुगुण बारी ॥ शां० ॥ १० ॥ आहोजी वल्लभ गुण गावे । गुणगावे गुणगावे चित आतम-आनंद धारी ॥ शां० ॥ ११ ॥ सं० १९६१ का अठारहवाँ चौमासा सामानेमें समाप्त कर आप नाभा, मालेरकोटला होते हुए रायकोट पधारे । रायकोटमें एक भी श्वेताम्बर श्रावक नहीं था। सभी स्थानकवासी थे। इस लिए आहार पानीके लिए आपको बड़ी तकलीफ होती थी। तो भी आप एक मास तक इस हेतुसे रहे कि यहाँ किसी न किसी तरह धर्म का बीज बोया जाय और कुछ श्रावक हो जायँ । आपके कष्ट सहन और धर्मोपदेशका शुभ फल भी मिला । वहाँसे विहार कर लुधियाने होते हुए और लोगोंको धर्मामृत पिलाते हुए आप सं० १९६२ का उन्नीसवाँ चौमासा करनेके लिए जीरे पधारे। वहाँ पंन्यास सुंदरविजयजी, पं० ललितविजयजी और पं० सोहनविजयजी गुजरातसे विहार करते हुए आपके पास १--ये ओसवाल थे। इनका नाम वसंतराय था। जम्मू घर था। इन्होंने गेंडेरायजी स्थानकवासी साधुके पाससे स. १९६० में सामानामें दीक्षा ली । मगर पीछेसे इनकी स्थानकवासियोंके धर्मसे श्रद्धा उठ गई और हमारे चरित्रनायकके पास दीक्षा लेनेके लिए अम्बाले गये। आपने फाया:-"अभी ठहरो ।" कुछ दिनके बाद अज्ञातकारणसे वे वापिस पूज सोहनलालजीके पास दिल्ली में चले गये । सामानेके शास्त्रार्थके समय ये पूजजीके साथ थे। उस समय फिरसे इनकी इच्छा संवेगी Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आदर्श जीवन। आये थे । वहीं ईडर ( महीकाँठा) के एक गृहस्थ कोदर कालीदास आपके पास दीक्षा लेनेकी अभिलाषासे आये थे। जीराके नायब तहसीलदार सरदार शेरसिंहजी अक्सर आपके पास तत्वचर्चा और धर्मश्रवण करनेके लिए आया करते थे। इस चौमासेमें आपने पंजाबके श्रावकोंकी विज्ञप्तिको ध्यानमें लेकर निनानवे प्रकारी पूजा बनाई। .. वहाँ पर स्कूलमें एक फारसीके अध्यापक थे। वे बड़े ही विद्वान, सज्जन और गुणग्राही थे । लोग उन्हें खलीफाजी कहा करते थे । नाम उनका माघीरामजी था । उन्होंने हमारे चरित्रनायककी प्रशंसामें एक गज़ल लिखी थी। वह यहाँ दी जाती है। बननेकी हुई । मगर वहाँ अपनी इच्छाको पूरी करनेका मौका न देख चुप रहे । वहाँसे सोहनलालजीके साथ पटियाला गये । अवसर देख वहाँसे ये हमारे चरित्रनायकके पास पहुंचे और चरण पकड़ कर बोले कि, मेरा निस्तार कीजिए । आपने कहा,-"तुम थोड़े दिन गुजरातमें तीर्थयात्रा कर आओ । ये तीर्थयात्रार्थ गुजरातमें आये । पाटणमें १०८ प्रवर्तकजी श्रीकान्तिविजयजी महाराजके दर्शन कर भोयणीमें पं० श्रीललितविजयजी महाराजके पास आये । वहाँसे मुनि श्रहिंसविजयजी महाराजके साथ सिद्धाचलजीकी यात्रा की ! मांडलतक उनके साथहीमें रहे । फिर तपस्वीजी श्रीशुभ विजयजीसे सं० १९६३ में दसाडा (गुजरात) गाँवमें संवेग दीक्षा ली । नाम सोहनविजयजी रक्खा । हमारे चरित्रनायकके शिष्य कहलाए । अब आप उपाध्यायजी हो गये हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | गज़ल | वो बदल गुरु हैं हमारे जहानमें; औसोफ जिनके आ नहीं सकते बयानमें ॥ १ ॥ लाए जो मुश्किलात कोई अपनी उनके पास ; पर्दा भरमका दूर करें एक आनमें ॥ २ ॥ लाता है खामा उज्र बुरीदा - ज़बानीका; जब वफ आ न सकते हैं वहमो गुमानमें ॥ ३ ॥ बनते हैं काम बिगड़े खलायकके रात दिन ; फैज आपका है जारी ज़मीनों जमानमें ॥ ४ ॥ हींदी ओ रहनमा ओ गुरु मेरे आप हैं; काफी है फर मुझको यही खादमानमें ॥ ५ ॥ बूटा जो विजयानंद सूरीजी लगा गये; सरर्स आपसे रहा वो गुलिस्तानमें ॥ ६ ॥ झड़ते हैं फूल मुँहसे जो करते बखान हैं; .१४ हैं मखजनें” – उलूम अमीं रस ज़बानमें ॥ ७ ॥ या रब ! है माघीरामकी हरदम यही दुआ; वल्लभविजय गुरुजी रहें खुश जहानमें ॥ ८ ॥ १ अद्वितीय २ - गुण ३- कठिनाइयाँ ४ - कलम ५- नोक टूटनेका ६ - गुण. ( तीसरे पदका भाव यह है--' जब आपके गुण कल्पनामें भी नहीं आ सकते हैं जब कलम कहती है मेरी नोक टूट गई है । इसके द्वारा कविने यह बताया है कि आपके गुण इतने हैं कि वे लिखे नहीं जा सकते । ) ७ - दुनियाके लोग ८ - बख्शिश; कृपा ९ - हर समय तमाम पृथ्वी पर १०- - उपदेशक ११ - मार्ग बतानेवाले १२ - हरा भरा १३ - बाग १४ - विद्याके भंडार. १५१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । चौमासा समाप्त होने पर जीरासे विहार कर मुनि महाराज श्रीहीरविजयजी आदि मुनिमंडल सहित आप पुनः रायकोट पधारे। बड़ी धूम धाम से आपका स्वागत हुआ । जैनोंके साथ ही अनेक सनातनी और मुसलमान भी शामिल हुए थे | पंन्यास श्रीसुंदरविजयजी और सोहनविजयजी जीरासे सीधे पट्टी गये । वहीं कोदर कालीदासको उन्होंने सं० १९६२ के मार्गशीर्ष वदी ५ के दिन आपके नाम की दीक्षा दी । नाम उमेद विजयजी रक्खा | हमारे चरित्रनायकने एक मास तक रायकोटहीमें निवास किया । ' लोगस्स ' सूत्रपाठके ऊपर ही आप महीनेभर तक विवेचन करते रहे । श्रीयुत दसौंदीरामजीने उस समय एक भजन लिखा था उसे हम यहाँ आत्मानंद जैन पत्रिकासे उद्धृत करते हैं । १५२ भजन । चाल - क्यों डूबे मँजधार क्षमा है तेरे तरनको । ॥ धन भाग तेरे अय रायकोट ! मुनि वल्लभविजय आये || अंचली || सुन करके सतगुरुका आना, हर्ष सभीने मनमें माना । मैनी तक बहु पुरुष गुरुके लेनेको धाए ॥ १ ॥ धन भाग० ॥ 'हीरविजय' गुरु 'वल्लभ' आये, संग 'कपूरविजय' को लाये । देवीचंदने खोल चौबारा आसन लगवाए || २ || धन० ॥ धन चंबामल भाग तुम्हारा, नित होते सतगुरु दीदारा । खुले मकाँके भाग चरण जो गुरुओंने लाये ॥ ३ ॥ धन० ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । फूली नहीं समाती नगरी, दर्शनको मिल आई सगरी । मनमोहन छबि देख सभोंके मन आनंद छाये ॥ ४ ॥ धन० ॥ सब भाइयोंने अरज गुजारी, सफल करो गुरु आश हमारी । दो व्याख्यान सुनाय सभी जन सुननेको आये ॥ ५ ॥ धन० ॥ सतगुरुने व्याख्यान सुनाया, अर्थ सहित सबको समझाया । ज्ञान झड़ी दई लाय भाग धन उनके जो न्हाये ॥ ६ ॥ धन० ॥ रौनक दिन दिन होती भारी, सुनने आती नगरी सारी । ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य श्रावक सबने चित लाये ॥ ७ ॥ धन० ॥ लाला गूजरमल नित आवे, सच्चे दिलसे प्रेम लगावे । पंडित धरनीधरका कोई दिन खाली नहीं जाये ॥ ८ ॥ धन० ॥ माधोरामको प्रेम है भारी, शादीराम गुरु आज्ञाकारी । घु मल चौधरी सुन सुन बलिहारी जाये ॥ ९ ॥ धन० ॥ गंगाराम गुरु मनमें भाये, बारुमल्ल गुरु देख सुहाए । आशानंद नंदलाल पंडित जीवामल हर्षाये ॥ १० ॥ धन० ॥ अर्जुनदास आनंद हो सुनके, ऋषिराम प्यासे दर्शनके । मनीराम मुकुंदीलाल नित सत गुरु गुण गाये ॥ ११ ॥ धन० ॥ मल्लूमल्ल गुरुनाम सिमरते, सादिराम चरणों सिर धरते । डालीराम और रंगीराम गुरु चरणन चितलाए ॥ १२ ॥ धन० ॥ गुद्दामल गुरुका मतवाला, जगतामलको प्रेम है आला । हो आनंद कपूरचंद जब गुरुदर्शन पाये ॥ १३ ॥ धन० ॥ प्रेममें नगरी हुई मतवारी, सतगुरुपे जाती बलिहारी । किस किसका करूँ बयान सभी नर मनमें हर्षाये ॥ १३ ॥ धन० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । सिफत गुरुकी कथाकी जितनी, बयान करूँ बुद्धि कहाँ इतनी । मैं मूरख नादान कहाँ मुझसे वरणी जाये ॥ १४ ॥ धन० ॥ धन सतगुरु धन तेरी माया, भूलोंको रस्ता बतलाया । दास ' दसौंदी ' तरेंगे वे नर, सतगुरु जिनध्याये ॥ १५ ॥ धन० ॥ रायकोटसे आप सुनामके लिए रवाना हुए थे; मगर मार्ग में मुनि श्री सोहनविजयजीके बीमार हो जानेसे, कोटले चले गये और फिर वहाँसे लुधियाने पधारे । वहाँ जानेपर समाचार मिले कि, रामनगरमें श्री - चारित्रविजयजी महाराज बीमार हैं। आपने तत्काल ही उनकी सेवाके लिए सोहनविजयजी और कस्तूरविजयजीको भेज दिया | श्रीचारित्रविजयजीके आरोग्य होजानेपर ये दोनों फिर वापिस लुधिआनामें आ मिले । सं. १९६३ का बीसवाँ चौमासा आपने लुधियानेहीमें किया था । यहाँ आपके साथ ( १ ) मुनि महाराज श्रीहीरविजयजी, (२) मुनि श्री उद्योतविजयजी महाराज ( ३ ) श्रीस्वामी सुमतिविजयजी महाराज ( ४ ) श्रीसोहन विजयजी महाराज ( ५ ) श्रीकपूरविजयी महाराज ( ६ ) श्रीकस्तूरविजयजी महाराज और (७) श्रीउमेदविजयजी महाराज थे । १५४ आप अन्यत्र चौमासा करनेके लिए, सं. १९६३ चैत्र सुदी ११ बृहस्पतिवारको, लुधियानेसे विहार करनेवाले थे; मगर क्षेत्रस्पर्शना चौमासेमें लुधियानेकी थी; वहाँके प्रेमी श्रोताओंके पुण्यका जोर था इसलिए आप वहाँसे विहार न कर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। सके और चौमासा वहीं करना पड़ा । कारण यह हुआ कि चैत्र सुदी १० बुधवारके दिन करीब साढ़े पाँच बजे शामको रतनचंदजी और चुन्नीलालजी नामके दो ढूंढिये साधु, जहाँ हमारे चरित्रनायक ठहरे हुए थे वहाँ गये और सड़क पर खड़े हो गये । वहींसे उन्होंने हमारे चरित्रनायकको पुकारा । जब आपने झरोखेमें आकर नीचेकी तरफ देखा तो वे बोले:" हम शास्त्रार्थ करनेके लिए आये हैं । तुम यहाँसे बिहार मत करना । अगर करोगे तो हारे हुए समझे जाओगे।" आप-शास्त्रार्थ तुम करोगे या कोई और ? । वे- स्वामीजी महाराज श्रीउदयचंद्रजी करेंगे। आप-उनके साथ तो पहले शास्त्रार्थ हो गया है। उसका फैसला भी प्रकाशित हो चुका है। अब बार बार पीसेको क्या पीसना है ? हारे हुओंके साथ शास्त्रार्थ करना ठीक नहीं है; तो भी यदि उदयचंदजीकी तीव्र उत्कंठा है तो जाकर अपने श्रावकोंसे शास्त्रार्थका बंदोबस्त करा लो हम तैयार हैं। वे-हम क्या श्रावकोंके बँधे हुए हैं ? आप-यदि आप श्रावकोंके बंधे हुए नहीं हैं तो ऊपर आ जाइए और चर्चा कर लीजिए। वे-हम चोर नहीं हैं, हम तो खुले मैदानमें चर्चा करेंगे । आप-बड़ी अच्छी बात है । आप पंडितोंको मध्यस्थ नियत कर सभा कीजिए । हमको सूचना मिलते ही हम आ जायँगे। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । दोनों चले गये। श्रावकोंको यह बात मालूम हुई । उन्होंने आपको, साग्रह विनती करके, लुधियानेहीमें ठहरा लिया और स्थानकवासी श्रावकोंको सूचना दी कि तुम सभा बुलाओ और शास्त्रार्थकी तैयारी करो। हमने तुम्हारे गुरुओंके कहनेसे अपने गुरुओंको यहीं ठहरा लिया है । मगर फिर स्थानकवासियोंने इस विषयकी कोई चर्चा न की । यह एक चालाकी थी । यदि हमारे चरित्रनायक लुधियानेसे विहार कर जाते तो उन्हें यह कहनेका अवसर मिलता कि, हम शास्त्रार्थ करनेको तैयार थे मगर वल्लभविजयजी चले गये । अस्तु । होशियारपुरके रईस लाला दौलतरामजी होशियारपुरसे आपके दर्शनार्थ, संघ निकालकर, आये थे । प्रायः पंजाबके लोग इस संघमें शरीक हुए थे । यहाँ आपने व्याख्यानमें विशेषावश्यक सूत्रमेंसे गणधरवाद वाँचा था । सैकड़ों अन्य धर्मावलम्बी भी व्याख्यानमें आते थे और आपकी मधुर एवं पाण्डित्यपूर्ण वाणी सुनकर प्रसन्न होते थे। ___अभी चौमासा समाप्त नहीं हुआ था कि, आपको ज्वर हो आया; इस हालतमें भी आपने कभी व्याख्यान बंद नहीं किया । आपकी सहनशीलता विलक्षण है। चौमासा समाप्त होते ही आपने, रुग्ण होते हुए भी, विहार किया, नकोदर पधारे। मुनि श्रीललितविजयजी गुरु महाराजकी बीमारीके समाचार सुनकर व्याकुल हो उठे थे । चौमासा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। १५७ . . . . . . . ... . . .. . . . . . .. समाप्त होते ही दो साधुओंके साथ वे बीकानेरसे लंबी लंबी सफरें तै करके गुरु महाराजके चरणों में आ हाजिर हुए। धन्य गुरुभक्ति! ___ जीरेमें हरदयाल नामक एक व्यक्ति थे । वे प्रसिद्ध हकीम थे । कहा जाता है कि उनके पास आये हुए मरीजोमेंसे नव्वे फी सदी आराम होकर ही जाते थे । खुद हकीमजी और अनेक जीरेके श्रावक आपकी खिदमतमें नकोदर पहुँचे । दो चार रोज हकीमजीने वहीं इलाज किया और आपकी तबीअत कुछ सुधरने लगी तब आपसे जीरा पधारनेका आग्रह किया गया । द्रव्य क्षेत्र, काल, भावका विचार कर आप कुछ साधुओं सहित जीरे पधारे। __जीरेमें हकीमजी आपके शरीरके रोगका इलाज करने लगे और आप अनादि कालसे लगे हुए कर्मरोगका इलाज करनेमें तल्लीन हुए। श्रीचिन्तामाण पार्श्वनाथकी छत्रछायामें रहकर सं० १९६३ के माघ महीने में आपने श्रीपार्श्वनाथ प्रभुकी हिन्दी भाषामें पंच कल्याणककी पूजा बनाई। .. जब आपमें चल फिर सकनेकी अच्छी शक्ति आ गई तब आप पट्टी, झंडियाला, अमृतसर आदि होते हुए गुजरांवाला पधारे । वहाँ पर स्वर्गीय आचाय महाराज न्यायांभोनिधि श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरिजी (आत्मारामजी) महाराजकी समाधि बनवाई गई थी और उसमें आचार्य महाराजके चरण कमलकी प्रतिष्ठा कराना था । मगर भावी बड़ा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आदर्श जीवन। उन्होंने आज्ञा हुआ; मगर होते हुए प्रबल है। उस समय समाधिमें प्रतिष्ठा होनेका योग न था, इसी लिए वहाँ प्लेगका प्रचंड रूपसे दौरा शुरू हो गया । शहरमें भगदड़ मच गई । श्रावकोंने बड़े उत्साहसे प्रतिष्ठाकी तैयारी शुरू की थी, उनका उत्साह टूटने लगा। आपने अवसर देखकर श्रावकोंको अभी प्रतिष्ठा न करने के लिए समझाया । श्रावकोंको बडा दुःख हुआ; मगर कोई उपाय नहीं था । लाचार उन्होंने आज्ञा मानी । आप भी वहाँसे पपनाखा होते हुए रामनगर पधारे । वहाँ आपने श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथकी यात्रा की । वहाँ लाला जगन्नाथ भोलेशाह नाम के एक भक्त श्रावक हैं । उनके पास एक सब्ज पन्नाकी श्रीस्तंभन पार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमा है । वह बड़ी ही भव्य और वर्तमानकालके लिए तो सवथा अलभ्य है । उसकी वंदना कर आपने अपना कल्याण किया । रामनगरसे विहार हुआ। रस्तमेंसे मुनि श्रीचारित्रविजयजी, मुनिश्रीरविविजयजी और मुनि श्रीललितविजयजी तो गुजरांवाले गये और आप किलेदीदारसिंह पधारे। वहाँसे श्रीसंघ खानगाह डोंगराकी विनती होनेसे खानगाह पधारे। कुछ दिन वहाँ ठहरकर लाहोर पधारे । लाहोर आने पर समाचार मिले कि गुजराँवालामें अब भी प्लेग है। इधर चौमासा भी पास आ गया था इस लिए आप अमृतसरके लिए रवाना हुए । क्योंकि श्रीसंघ अमृतसरकी चौमासेके लिए पहले ही विनती हो चुकी थी। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। १५९ - - ___ लाहोरसे आप अमृतसर पधारे । शहरमें बड़ी धूमके साथ आपका जुलूस निकला । सं० १९६४ का इक्कीसवाँ चौमासा आपने अमृतसरमें किया। आनंदके साथ धर्मध्यानमें समय बीतने लगा । छठ, अट्ठम, बेले, तेले, एकासन, आंबिल आदिक बहुतसी तपस्याएँ हुई। श्रावकोंके हृदय धर्मभावनाओंके आनन्दमें निमग्न हो रहे थे । साधुओंके हृदयोंमें भी श्रावकोंका आनंदोल्लास देख कर प्रसन्नता थी। ___ इसी चौमासेमें आपके गृहस्थावस्थाके बड़े भ्राता खीमचंद भाई बड़ौदेके श्रीसंघका विनतीपत्र और आचार्य १००८ श्रीविजयकमलमूरिजी महाराजका एवं उपाध्याय श्रीवीरविजयजी महाराजका गुजरातकी तरफ विहार करनेका आदेश पत्र लेकर आये । खीमचंदभाईके पहुँचनेसे साधुमंडलमें प्रसन्नता छा गई । आपके हृदयमें भी आनंदकी लहरी उठे बिना न रही । मगर श्रावक मंडलमें उदासी छा गई । उसने विनती की " महाराज ! आप हमें यहाँ किसके आधार छोड़कर पधारते हैं ? हमें तो गुरु महाराज आपहीके भरोसे छोड़कर गये हैं । हम आपको कहीं न जाने देंगे।" ____ आपने फर्माया--" आप लोग जानते हैं कि मैं उन्नीस बरससे पंजाबमें हूँ । दीक्षा ले कर मैं गुरु महाराजकी चरणसेवामें रहा और उनका देहान्त होने पर भी मैं यहीं विचरण कर रहा हूँ । कई दिनोंसे मैं एक बार सिद्धाचलजी जाकर Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आदर्श जीवन। दादाकी यात्रा कर आना चाहता था; मगर आप लोंगोके आग्रहहीसे इधर ठहरा हुआहूँ। साधुमंडली यात्रा रनेके लिए उत्सुक है। मुझे उनका भी खयाल करना चाहिए। और अब तो इधर आचार्य महाराज और उपाध्यायजी महाराजका विहार होने वाला है, इसलिए अब आप लोगोंको मैं उनके आश्रयमें छोड़ कर जाता हूँ। तो भी मैं यह वचन देता हूँ कि, एक बार फिर पंजाब लौटकर आये बिना न रहूँगा । गुरु महाराजके लगाये हुए इस बगीचेको एक बार फिरसे आकर देगा।" चौमासा समाप्त होने पर आप गुजरातमें जानेके लिए संवत् १९६४ के मगसर वदी १ बुधवारको अमृतसरसे विहारकर आप तरनतारन पधारे । संध्याके समय जब आप देवसी प्रतिक्रमण समाप्त करके बैठे ही थे कि घासीरामजी और जुगलकिशोरजी नामके स्थानकवासी साधु आपके चरणोंमें आ गिरे और हाथ जोड़कर विनती करने लगे कि,"गुरु देव ! हमारा उद्धार कीजिए । हमारा जन्म निरर्थक जा रहा है । हमने आत्मकल्याणके लिए घर बार छोड़े हैं; मगर जिस स्थितिमें हम हैं उसमें रह कर, हमारा कल्याण नहीं होगा । हमने मूत्र सिद्धान्तोंका जितना ज्ञान प्राप्त किया है उतनेसे हमें यह विश्वास हो गया है कि, स्थानकवासियोंकी क्रिया शास्त्रानुकूल नहीं है; जैनशास्त्रोंके प्रतिकूल है। इसलिए आप अपने चरणोंमें स्थान देकर हमें सन्मार्ग पर चलाइए।" आपने फ़ोयाः-" यह सत्य है कि, मनुष्य जन्म बार Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। १६१ ARANA बार नहीं मिलता; इस लिए इसके हरेक क्षणका सदुपयोग करना चाहिए। किसी भी धर्ममें दीक्षित होनेके पहले मनुष्यको चाहिए कि, वह उसकी भली प्रकारसे परीक्षा कर ले । तुम अभी हमारे साथ रहो, जैनशास्त्रोंका अनुशीलन करो और क्रियानुष्ठान सीखो । जब तुम्हें पूरा विश्वास हो जाय,-जब तुम्हारा मन सच्चे धर्म पर हिमालयकी तरह अटल हो जाय और जब हम तुम्हें दीक्षा देनेके पात्र समझेंगे तभी दीक्षा दे देंगे। उन दोनान कहा----" कृपानाथ ! हमारा मन हिमालयके समान स्थिर हो गया इसी लिए तो नाभासे दौड़े हुए आपके चरणोंमें आये हैं । अगर ऐसा न होता यदि स्थानकवासी साधु रह कर ही हम सत्य धर्मकी क्रिया कर सकते तो एक दीक्षाको छोड़कर दूसरीको ग्रहण करने न आते । महाराज! कृपा कीजिए और हमें इस बंधनसे मुक्त कीजिए।" लाला पन्नालालजी जौहरी, लाला महाराजमल, लाला नाथूमल आदि श्रावक आपके दर्शन करने तरनतारन आये हुए थे । वे भी उस समय मौजूद थे। उन्होंने विनती की," गुरुदयाल ! प्यासेको पानी पिलाना, भूखेको अन्न देना, दुखीका दुःख मिटाना तो धर्म है ही मगर आत्माको मुक्तिके मार्गमें लगाना सबसे बड़ा धर्म है। यह बात आपसे निवेदन करना छोटे मुँह बड़ी बात करना है। मगर इन साधुओंकी व्याकुलता देखहमसे चुप न रहा गया इसी लिए अर्ज कर दी है। हमें क्षमा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आदर्श जीवन । करें और इनको अमृतसरहीमें दीक्षा दें । अमृतसरको भी गुजरात जानेके पहले, इतना विशेष लाभ देते जायँ ।" . आप मुस्कुराये और बोले:-" अच्छा लालाजी ! तुम्हारी ही मनोकामना पूरी हो।" . यह वाक्य मानों गंभीर घनगर्जन था। इससे दोनों साधुओं और तीनों श्रावकोंके मन-मयूर आनंदसे नाच उठे । आप फिरसे अमृतसर पधारे । जब आप अपने साधुओं, श्रावकों और दोनों स्थानकवासी साधुओंके सहित दर्वाजेके पास पहुँचे तब पाँच सात स्थानकवासी श्रावक आकर दोनों साधुओंसे झगड़ा करने लगे । लाला पन्नालालजीको ये समा चार मिले। वे तत्काल ही पुलिस लेकर पहुँचे । पुलिसको आई देख स्थानकवासी श्रावक झगड़ा छोड़ चुपचाप चले गये। आप निर्विघ्नतया मंदिरजीके दर्शन कर लाला महाराजमलजीके मकानमें जा बिराजे । स्थानकवासियोंने हो हल्ला मचाया और नालिश की किघासीराम नाबालिग जुगलकिशोरको बहका कर ले आया है और यहाँ उसे संवेगी साधु अपना चेला बनाना चाहते हैं। उन्हें इन्होंने लाला महाराजमलके मकानमें बंद कर रक्खा है, बाहर नहीं निकलने देते । यह मकान कटरारामगढियोंमें है । जुगलकिशोरकी माता जैन साध्वी (स्थानकवासी) है और अपने लड़केके वियोगमें व्याकुल हो रही है । अतः लड़का वापिस दिलाया जावे । लड़केको कहीं और जगह न भगा ले जायँ इस लिए उनके लिए वारंट निकाला जाय । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । मजिस्ट्रेटने जुगलकिशोर के नामका वारंट दे दिया । कुछ स्थानकवासी साधु पुलिसको साथ ले आप ठहरे हुए थे वहाँ आये । उस समय वहाँ कोई श्रावक नहीं था । केवल श्रीयुत हीरालाल शर्मा वहाँ थे । उन्होंने मकानका दर्वाजा बंद करलिया | पुलिसने दर्वाजा खोलने के लिए कहा । शर्माजीने कहा: - " लाला पन्नालालजीको और लाला महाराजमलजीको आप बुलावें | वे आयँगे तभी मैं दर्वाजा खोलूँगा । " पुलिसने उन्हें बुलाया और अपने आनेका सबब बता जुगल किशोरको अपने सिपुर्द कर देनेके लिए कहा । उन्होंने दर्वाजा खुलवाकर जुगलकिशोरको उनके सिपुर्द कर दिया । स्थानकवासी भाई जब जुगलकिशोरको गाड़ीमें बिठाकर ले जाना चाहते थे तब लाला पन्नालालजीने कहा :- “ ऐसा करना उचित नहीं है । उन्हें पैदल ही लेकर जाओ । इसमें जैन नामकी बदनामी है और खास तरहसे स्थानकवासियोंकी बदनामी है । " १६३ उन्होंने उत्तर दिया:- “ हम इसे स्थानकवासी साधु नहीं समझते; यह तो तुम्हारा साधु है । हमारी कोई बदनामी इसमें नहीं है । " ला० पन्ना० - " भावोंसे ये हमारे साधु होते हुए भी बाना अबतक स्थानकवासियोंहीका पहन रहे हैं । इस लिए लोग आपहीको बुरा बतायँगे । " Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आदर्श जीवन। aanoon AAMANANAMANANAR/No.11%AnnaAARRA.. उन्होंने उत्तर दिया:-" नहीं जी हम कोई उपदेश नहीं सुनना चाहते।" _लालाजी-" जैसी तुम्हारी इच्छा " कहकर आपके पास चले गये । स्थानकवासी जुगलकिशोरको पुलिसकी गाड़ीमें बिठाकर कोर्टमें ले गये। ___ कोर्टने तहकीकातके बाद इस सबूत पर दावा खारिज करदिया कि, जुगलकिशोर नाबालिग नहीं है । इस लिए अपनी मर्जीके माफिक काम करनेका उसे हक है । बादमें बड़ी धूमधामके साथ उन्हें सं. १९६४ मगसिर सुदी ११ रविवार, ता. १९-१-१९०८ ईस्वीके दिन दीक्षा दी गई घासीरामजीका नाम विज्ञानविजयजी रक्खा गया और आपके वे शिष्य हुए । जुगलरामका नाम विबुधविजयजी कायम हुआ और विमलविजयजीके वे शिष्य हुए। दीक्षामहोत्सवके समय ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, आदि सभी मौजूद थे। दीक्षाके आनंदोत्सवमें पं. हीरालालजी शर्माकी सेवाओंसे प्रसन्न होकर उन्हें एक सोनेके कड़ोंकी जोड़ी इनाममें दी गई थी। इस विषयका सविस्तर वृत्तान्त उत्तरार्द्ध में घासीराम जुगलराम प्रकरण' के हैडिंगसे दिया है। उसी दिन आपने ' दीक्षा और शिक्षा' इस विषय पर एक बड़ा ही प्रभावशाली व्याख्यान दिया था। अमृतसरसे विहार करके आप जंडियाला, जालंधर, लुधियाना Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । होते हुए अंबाले पहुँचे । आप जिस दिन अंबाले पहुँचे थे उसी दिन दिल्लीकी ओरसे विहार करके आचार्य महाराज १००८ श्रीविजयकमलमूरिजी और उपाध्यायजी महाराज श्री १०८ श्रीवीरविजयजी भी अपने साधुमंडल सहित अंबाले आये थे । दोनोंकी शहरके बाहर भेट हो गई। बड़े जुलुसके साथ दोनोंका नगरप्रवेश कराया गया । आप चार पाँच रोज वहाँ रहकर वहाँसे दिल्लीकी ओर विहार कर गये। खीमचंदभाईने अब पीछा छोड़ा ___ आप अंबालेसे विहार करके दिल्ली पधारे। उस समय आपके साथ श्रीविमलविजयजी,श्रीकस्तूरविजयजी,श्रीसोहन विजयजी, श्रीविज्ञानविजयजी और श्रीविबुधविजयजी थे । आपने चाहा था कि, इस साल गुजरातहीमें चौमासा करेंगे और हो सका तो इसी साल नहीं तो अगले साल दादाकी यात्रा जरूर करेंगे। दिल्लीके संघने निश्चय किया कि, चाहे कुछ भी हो जाय हम आपको इस साल दिल्लीमें ही रक्खेंगे । चिन्तामणि रत्नको पाकर कौन छोड़ना चाहता है ? दोनों ओर संघर्ष था । एक ओर गुरुभक्ति थी, दूसरी तरफ गुजरातके श्रावकोंकी-जिसमें भी खास करके खीमचंदभाई और बड़ोदाके श्रीसंघकी-विनती, साधुओंका शीघ्र ही गुजरातमें जाकर तीर्थयात्रा करनेका आग्रह और आपकाखुदका-जितनी हो सके उतनी जल्दी करके दादाकी यात्रा करनेका विचार। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। भक्तोंके आग्रहसे आपका विचार ढीला पढ़ने लगा था; साधुओंके दिलोंमें भी श्रावकोंकी भक्तिगद्दकंठसे की गई प्रार्थनाने घर किया था; उनके आग्रह शिथिल होने लग रहे थे। भक्त दो कठिनाइयोंको लग भग पार कर चुके थे । अब केवल तीसरी कठिनाई ही रह गई थी। वह थी गुजरातकी विनती। विनती ही क्यों गुजरातके आपको लेनेके लिए आये हुए प्रतिनिधि और आपके सगे बंधु, मिचंद भाई । क्योंक दिल्लीसे विहारमें देरी हुई थी और खीमचंद भाईको दिल्लीके श्रीसंघने लिख दिया था कि महाराज साहिबका चौमासा दील्लीहीमें होगा इस लिए वे घर जाकर फिर दील्ली आ गये थे। श्रावकोंने खीमचंद भाईसे कहा । खीमचंद भाईने पहले तो हाँ, ना की; मगर अन्तमें उनका दिल भी पसीज गया। उन्होंने श्रीसंघके साथ आकर अर्ज की,-" मैं अपना आग्रह छोड़ता हूँ। बड़ौदेके श्रीसंघको इस वर्ष और शान्ति रखनेके लिए कहूँगा । आप संघको नाराज न करें; विनती स्वीकार कर लें।" आपने विनती स्वीकारी । जयनादसे उपाश्रय गूंज उठा। जब आपका चौमासा दिल्लीहीमें होना स्थिर हो गया तब एक दिन दिल्लीके श्रावकोंने प्रार्थना की,-" गुरुदयाल ! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हस्तिनापुरजी तीर्थ स्थान है । उसमें, आप जानते ही हैं कि, श्रीशान्तिनाथ स्वामी,श्रीकुंथुनाथ स्वामी. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आदर्श जीवन । १६७ mmmmmmmmmmmmm. और श्रीअरनाथ स्वामीका-तनि तीर्थकरोंके-च्यवन, गर्भ, दीक्षा और केवल ऐसे-चार कल्याणक, प्रत्येकके, कुल मिलाकर बारह कल्याणक हुए हैं। प्रथम तर्थिकर श्रीआदीश्वर भगवानको भी, वर्षांतपका पारणा, श्रेयांसकुमारने वहीं करवायाः था। उस दिन वैशाख सुदी ३ का दिन था; उस दिनके दानसे श्रेयांस कुमारको अक्षय फलकी प्राप्ति हुई थी । इसी लिए उस तिथिका नाम अक्षय तृतीया या आखा तीज हो गया। अतः यदि आपकी आज्ञा और इच्छा हो तो आप यात्राके लिए पधारें, संघकी भी आपके साथ यात्रा हो जायगी।" ___ आपने फर्माया:-" इसके सिवा दूसरी कौनसी बात प्रसन्नताकी होगी ? फाल्गुन चौमासा निकट है वह वहीं किया जायगा।" श्रावक बोले:-" हम भी अनेक पापके कामोंसे बच जायँगे । क्योंकि होलियोंके दिन तीर्थ स्थानपर बीतेंगे।" . __ तैयारी हो गई। हमारे चरित्रनायकने अपनी साधुमंडली. सहित एक दिन पहले ही विहार किया। दूसरे दिन संघ भी रवाना हुआ और दिल्लीसे ग्यारह माइल पर गाजियाबादमें. आपसे जा मिला । दूसरा पड़ाव चौदह माइल पर बेगमा. बादमें, और तीसरा पड़ाव तेरह माइल पर मेरठमें हुआ । संघ जिस धर्म शालामें ठहरा वह धर्मशाला पं० गंगारामजी रईस मेरठकी धर्मपत्नी बीबी ( श्रीमती ) सुंदरकौरने सं० १९६२ में बनवाई है। वहाँ यात्रियोंके लिए सब तरहका Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आदर्श जीवन | आराम हैं । वहाँसे रवाना होकर संघ सहित आप मुहाना पहुँचे । यह मेरठ से सत्रह माइल है । अगले दिन संघ हस्तिनापुर पहुँचा और (सं० १९६४ फाल्गुन सुदी १३ सोमवारके दिन ) यात्रा कर अपनेको कृतकृत्य मानने लगा । आपके यात्रार्थ जाने के समाचार सुन बिनोली, खिंवाई, तीतरवाड़ा, लुधियाना, अंबाला और बंबई आदि स्थानोंके भी करीब सौ सवा सौ श्रावक श्राविकाएँ यात्रार्थ आ गये थे । स्वर्गीय आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरिजी महाराजकी बनाई हुई सत्रह भेदी पूजा पढ़ाई गई । दूसरे दिन दिल्लीकी श्राविकाओंने साधर्मीवत्सल किया । वहाँ पर हमारे चरित्रनायकने पाँच स्तवन बनाये थे उनमेंसे एक यहाँ उद्धृत किया जाता है । स्तवन जय बोलो जय बोलो मेरे प्यारे तीरथकी जय बोलो || अंचल || हस्तिनापुर तीरथ सारा, कल्याणक हुए जहाँ बारा । तीर्थंकर तिग मनमें धारा, धाराजी धारा सुखकर्तारा ॥ ती० ॥ १ ॥ शांतिनाथ प्रभु शांतिकारी, कुंथुनाथ जिनवर बलिहारी । श्रीअरनाथके जाऊँ वारी, वारी जी वारी वार हजारी ॥ ती० ॥ २ ॥ प्रथम जिनेसर पारणो कीनो, इक्षुरस श्रेयांसे दीनो । मुक्तिरस बदले में लीनो, लीनो जी लीना निज गुणचीनो ॥ ती० ॥३॥ उन्नीसौ चौसठ के बरसे, दिल्लीको संघ आयो हरसे । धन आतम जे तीरथ फरसे, फरसे जी फरसे वल्लभ तरसे ॥ ती० ॥४॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन चैत्र बुदी १ सं. १९६५ को हस्तिनापुरसे आप रवाना हुए । संघ भी भगवानकी और गुरु महाराजकी जय बुलाता हुआ वहाँसे रवाना हुआ। ___ आप वापिस मेरठ पहुँचे । बिनौली, खिवाई आदिके श्रावकोंकी प्रार्थनासे आपने यमुनापारके ग्रामोंमें विचरण करने और वहाँके निवासियोंको ज्ञानामृत पान करानेका निश्चय किया। अभी चौमासेमें बहुत दिन बाकी थे इसलिए दिल्लीके श्रावकोंने आपसे वापिस दिल्ली चलनेका बहुत अनुरोध न किया। चौमासा बैठनेके कुछ दिन पहले ही दिल्ली पधारनेकी प्राथना कर संघ दिल्ली चला गया। मेरठमें कुल तीन ही घर श्वेतांबर श्रावकोंके हैं, बाकी सभी दिगंबर हैं। इस लिए आप वहाँ विशेष ठहरना नहीं चाहते थे, मगर दिगंबर भाइयोंके आग्रहसे आपको वहाँ ठहरना पड़ा। दिगंबर भाइयोंने आपके दो सार्वजनिक व्याख्यान बी बी सुंदरकौरकी धर्मशालामें करवाये और एक अपनी जैन धर्मशालामें भी करवाया। उस समय दिगवरोका रथोत्सव था इसलिए व्याख्यानोंमें और भी विशेष रौनक होती थी। आप मेरठसे बिनौली पधारे। मेरठ इलाकमें प्रायः सभी श्रावक दिगंबर हैं । केवल खिवाई और बिनौली में कुछ श्वेताबर श्रावकोंके घर हैं और वे स्वर्गीय आत्मारामजी महाराजके प्रतिबोधित हैं। वहाँ आप रोज व्याख्यान बाँचते थे । इसमें प्रायः दिगंबर श्रावक श्राविकाएँ धर्मोपदेश श्रवण कर लाभ उठाते थे। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आदर्श जीवन । यहाँके रईस लाला मुसद्दीलालजीने अपनी दुकानें मंदिर जीके लिए दीं और उन्हींमें मंदिर बनवानेका विचार किया। शुभ मुहूर्तमें श्रीजिनमंदिर बनवाना प्रारंभ ो गया था, वह मंदिर बनकर तैयार हो चुका है । प्रतिष्ठा करानेकी एक बार तैयारी की गई थी, मगर किसी कारणवश उस समय न हो सकी। लाला श्रीचंद्रजी और बाबू कीर्तिप्रसादजी बी. ए. एल एल.बी. आदि लाला मुसद्दीलालजीके सुपुत्रोंकी यही उत्कट अभिलाषा है कि, मंदिरजीका काय जैसे हमारे चरित्रनायककी उपस्थितिमें हुआ है वैसे ही प्रतिष्ठा भी आपहीकी उपस्थितिमें हो । उनका खयाल है कि पहले हमारा काय इसी लिए रुक गया था कि, उस समय आप उपस्थित न थे, न हो सकते थे; क्योंकि उस समय आप गुजरातमें विचरते थे। उनकी इस भावनाको पूर्ण करनेहीके लिए आपने, अभी लाहोरसे विहार करते समय सोचा था कि गुजराँवालामें गुरु महाराज श्रीआत्मारामजी महाराजके समाधिमंदिरकी यात्रा कर पाँच सात दिन गुजराँवालामें ठहर, सीधे मेरठकी तरफ विहार कर देना और यह चौमासा दिल्लीमें या आसपासके किसी क्षेत्रमें बिता चामासे बाद मंदिरकी प्रतिष्ठाका प्रबंध कर देना । मगर क्षेत्रस्पर्शना बलवती है ! श्रीगुरु महाराजकी कृपासे गुजराँवालामें 'श्रीआत्मानंद जैन गुरुकुलपंजाब' की स्थापना करनेका प्रबंध हो गया, इस लिए आपको वहीं ठहर जाना पड़ा । गुजराँवाला और विनौलीका अन्तर लगभग ४०० माइलका है । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | संवत् १९६५ के वैशाख सुदी ६ को बिनौलीमें, अंबाला शहर से लाला गंगारामजी श्रीशान्तिनाथ स्वामीकी प्रतिमा ले आये थे | बड़े उत्सव के साथ प्रतिमाजका नगर प्रवेश कराया गया था । इस उत्सव में बिनौलीके और आसपास के गाँवोंके दिगंबर जैनोंने भी बड़े उत्साहसे भाग लिया था । उसी दिन गुजरांवाला में आचार्य महाराज श्रीविजय कमल सूरिजी और उपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयजी आदि मुनिराजोंकी उपस्थितिमें स्वर्गीय आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वरजी ( आत्मारामजी) के समाधि मंदि - रमें चरणपादुका स्थापित करनेका उत्सव हुआ था । आपने बिनौली के आनंदको ही गुजरांवालाका आनंद मान लिया था। गुरुभक्तिके उपलक्षमें आपने उस समय जो स्तवन बनाकर भेजे थे उनमें से एक हम यहाँ देते हैं १७१ ( देशी - वारनाकी ) वारी जाऊँरे सद्गुरुजी तुम पर वारना जी ॥ अंचली || आतमरामजी नाम धराया, आतमको आराम बताया । आतमराम समा सुखदाया, अन्तर घटमें धारना जी ॥ वा० ॥ १ ॥ मिथ्यामततम दिनकर जाना, कामज्वर धन्वंतरी माना । सत् चित् आनंद पदका पाना, सागर लोभ निवारना जी || वा ० ॥२॥ बाह्य निमित्त गुरु उपकारी, कारण मुख्य निजातमधारी । आतम ही आतमपदकारी, सीधा अर्थ विचारना जी ॥ वा ० ॥ ३ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आदर्श जीवन। घड़ि घड़ि पल पल गुरुजी ध्याऊँ, मनमें वाणीसे गुण गाऊँ । कायासे निज शीस नमाऊँ, रूप पराया छारना जी ॥ वा० ॥४॥ पूर्ण कृपा श्रीगुरु हो जावे, आतम परमातम पद पावे । विजयानंद वधाई गावे, आतम वल्लभ तारना जी || वा० ॥ ५॥ आपने विनौलीसे खिवाईकी तरफ विहार किया । अपने साथ मुनि श्रीसोहनविजयजीको रक्खा और दूसरे मुनियोंको दिल्लीकी तरफ रवाना कर दिया । वहाँ गुजराँवालासे लाला जगन्नाथजी आपके नामके दो पत्र लेकर आये । उनमेंसे एक १०८ श्रीआचार्य महाराज श्रीविजयकमल मूरिजी तथा उपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयजीकी तरफ़का था और दूसरा था श्रीसंघ गुजराँवालाकी तरफ़का । उनमेंसे श्रीसंघ गुजराँवालाकी नकल-जो हमें प्राप्त हो सकीयहाँ दी जाती है । यह पत्र उर्दूमें लिखा हुआ था। ता० ३०-५-१९०८ श्री आत्मानंद जैनश्वेतांबर कमिटी, गुजराँवाला (पंजाब) " श्री श्री श्री मुनि महाराज वल्लभविजयजी आदि मुनि महाराज, अजतरफ श्रीसंघ गुजराँवालाकी १०८ दफा बन्दना चरनोंमें कबूल हो । अर्ज यह है कि, इस वक्त ढूंढियोंने दूसरी कौमोंयानी खतरी, बिराहमन, आर्यासमाज वगैराको बहोत भड़काया है । जिसके जवाबमें मवरखा २९ मई को बवक्त Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १७३ ७ बजे शामके एक लेक्चर बजरिये मास्टर आत्माराम साकिन अमृतसरके दिलवाया है । जिससे हमारे संघकी यानी जैनधर्मकी बहुत निंदा यहाँ हुई है। इसलिए ये अमर संघ गुजराँवालाको बहुत नागवार गुजरा है । अब संघकी जनाबके चरनोंमें प्रार्थना ये है के जिस वक्त यह अरीजा खिदमत आलियामें पहोंचे उसी वक्त गुजराँवालाको बिहार फर्मावें, क्यों के जिसमें शासनकी बेइज्जती न हो। इस वक्त फौरन् और कामोंको छोड़कर शासनकी उन्नतिकी तरफ खयाल होना चाहिए । इस लिए मुनासिब जानकर आपको तकलीफ दी है। बाकीका हाल बजबानी जगन्नाथके मालूम हो जावेगा । फकत । मुकर्रर ये है के जिस वक्त ये अरीजा पहोंचे उसी वक्त रवाना हो जावें । इस हमारी थोड़ी तेहरीरको हजार दफा खयाल फरमा कर और कबूल करके बिहार करें । फकत । बिहार गुजराँवालाकी तरफ करके बजरिए तार इत्तला देवें । ताके संघको खुश्नूदीका बाइस हो । फकत ।" (नीचे चार मुखियों के हस्ताक्षर हैं।) तत्काल ही रवाना होनेके लिए दो तार मिले । उनकी नकलें यहाँ दी जाती हैं। Gujranwala 30th 8-35 ( A. m. ) Musaddilal Piarelal Jaini village Banoli Baraut. Send muni balabbijeji, with your men to Gujranwala immidiately. Jagannath coming. Jain community. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आदर्श जीवन। (गुजराँवाला ३० वीं, ८-३५ ( प्रातःकाल) मुसद्दीलाल प्यारे लाल जैनी, मु० बनोली, बड़ौत. अपने आदमियोंके साथ मुनि वल्लभविजयजीको तत्काल ही गुजराँवाला रवाना करो । जगन्नाथ आ रहा है । जैन संघ.) Gujranwala 30th, 16-15 ( P. M.) ShriMuui Ballabbejeji Clo Musaddilal Piarelal "Village, Banoli, Baraut. Start at once Gujranwala great sensation. Shri Kamalbejeji. ( गुंजराँवाला, ३० वी १६-१५ ( सायंकाल ) श्रीमुनि वल्लभविजयजी Co मुसद्दीलाल प्यारेलाल मु० बनोली, बडोत. तत्काल ही रवाना होइए । गुजराँवालामें बड़ी उत्तेजना फैल रही है । श्री कमल विजयजी।) आपको आचार्य महाराज व उपाध्यायजी महाराजका फिरसे पत्र मिला। उसकी नकल यहाँ दी जाति है। __अत्र श्री गुजराँवाला थी ( से ) श्रीआचार्य महाराज 'श्रीविजयकमल मूरिजी तथा वीरविजय आदि साधुना ( की) तरफ़थी ( से ) तत्र श्री विनौली मध्ये मुनि श्रीवल्ल Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १७५ भविजयजी आदि जोग, सुखसाता अनुवंदना वंदना बाँचनाजी लखवानुं के ( लिखनेका कारण यह है कि ) जगन्नाथ मारफत पत्र दिया था । उत्तर आया नहीं. खैर. विशेष लखवानुंके आ पत्र वांचते सार ( यह पत्र पढ़ते ही) विहार अत्र गुजराँवाला तरफ़ कर देनाजी। कारण सब जगन्नाथसे विदित हो गया होगा, तो बी इसारा मात्र जणाया जाता है कि आ वखत अत्रेना ढूंढियाओने तमाम सारा शहेरने ( को ) अपने पक्षमा ( में ) कर लिया है और जैनतत्वादश तथा अज्ञानतिमिरभास्कर इन दोनों ग्रंथको रद करनेकी बड़ी कोशिश हो रही है । यद्यपि बड़े महाराजने जो जो लिखा है सो सत्य है तथा प्रमाण सहित है और पुस्तकों भी मौजूद है तथापि इनोंका पक्ष जादा है । सही सही सिद्ध करना ब्राह्मण लोकोरोला पाके ( शोर मचाके ) करवा देवे तेम जणातुं नथी ( ऐसा मालूम नहीं होता ) माटे (इसलिए ) आ वखत तमारु ( तुम्हारा ) जरूर काम छे. ( है ) तुम्हारी फुरती बहोत है । यकीन है तुम्हारा आनेपर अच्छा फतेह होगा । ओ ( और ) विचार लांबो छोड़ी ( लंबा विचार छोड़ कर ) अत्रेथी आवेला श्रावको साथ जरूर विहार करना जी । यद्यपि गरमी है, दूरका मामला है। परन्तु आ वखत एवोज छे (ऐसा ही है) जो कि प्राणतो अर्पण थई जाय ( हो जायँ) परन्तु गुरुका वाक्योंने धक्को न लागे, इस लिए जारमारके दबके लिखा जाता है। बस इतना मात्रसे समझ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - लेना जी । तुमो ( तुम ) गुणवानको ज्यादा क्या लिखनाजी चार साधु जो के दिल्ली हैं उनको दिल्लीकी इजाजत दे देनाजी। तेमज तुमो सोहनविजयजीको साथ लेकर फौरन आवो. एज । जेठ वदी १४ पंजाबीः वीर विजय आज आ वखते एटले ( यानी) दिनके छः बजे पर अमृत सरसे बोलाया पंडित आपणा ( अपने ) ग्रंथोंने ( को) रद करवानु ( का) भाषण दे रहा है । नतीजा क्या आवेगा ते ( उसकी) खबर नथी ( नहीं) औ सा (?) ढूँढकाओनो पक्षकरी तमाम शहेर उकेराई गयुं छे (उत्तेजित हो गया है) लखवा समर्थ नथी (लिखनेका सामर्थ्य नहीं है ) ताजा कलम-आ पत्र वाँची तुरत विहार करो अत्रेना माणसो रोकायला छे. ( यहाँके आदमी रुके हुए हैं ) माटे हाल विनौलीसे चार आदमी साथ लेकर आओ। मुसद्दीलालको कहना अत्रे थी मुसद्दीलालको तार दिया जायगा तथा अंबाले पत्र लिख दिया है । वांके चार आदमी आजायगा। बीजावृत्तांत जगन्नाथके मुखसे सुण लेना जी।" __हमारे चरित्र नायकको आचार्यश्रीने और संघने पुनः गुजराँवाला क्यों आग्रह पूर्वक बुलाया इसके कारणका आभास तो पाठकोंको पत्रोंसे हो ही गया होगा; मगर पूरा समझमें नहीं आया होगा, इस लिए उसे संक्षेपमें यहाँ बतला देते हैं। __ पाठक यह जानते हैं कि हमारे चरित्रनायकके साथ शास्त्रार्थ करके स्थानकवासी सामानमें और नाभेमें बुरी तरह. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १७७ .......rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrammar हारे थे । लुधियाने में उन्हें नीचा देखना पड़ा था और अमृतसरमें तो बड़े ही फजीहत हुए थे। इस लिए वे मन ही मन श्वेताम्बरोंसे नाराज थे और बदला लेनेका मौका देख रहे थे; मगर हमारे चरित्रनायककी उपस्थितिमें उन्हें अवसर नहीं मिलता था। इधर स्थानकवासियोंके मनकी यह हालत थी उधर श्वेतांबर अपने गुरुकी विजयसे प्रसन्न थे। जहाँ तहाँ उत्सव होते थे और आनंदकी बधाइयाँ बजती थीं। इस तरहकी दशामें सं० १९६५ की वैशाख शुक्ला १० ता.७ मई सन् १९०८ ईस्वीको गुजराँवालामें बड़ी धूमधामके साथ स्वर्गीय आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीविजयानंद मूरिजीकी वेदी प्रतिष्ठा १०८ श्रीआचार्य महाराज श्रीविजयकमल मूरिजीके हाथसे हुई । उसमें सार्वजनिक-पब्लिक व्याख्यान हुए। व्याख्यानोंमें यह बात आये बिना कैसे रह सकती थी कि आचार्यश्री पहले स्थानकवासी थे? सारे शहरमें श्वेतांबरोंकी प्रशंसाका नया दौर प्रारंभ हुआ। स्थानकवासी इस समय निर्भय हो गये थे । जिन महात्माके आगे उनको जबान खोलनेका हौसला नहीं पड़ता था वे पंजाबसे रवाना हो चुके थे। उन्होंने बदला लेना स्थिर किया; स्थिर करके भी वे स्वयं मैदानमें आनेकी हिम्मत न कर सके। उन्होंने स्वर्गीय आत्मारामजी महाराजके बनाये हुए अज्ञानतिमिरभास्करके उस हिस्सेका उर्दूमें अनुवाद करके छपवाया, जिसमें हिन्दुग्रं १२ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । थोंमें हिंसा आदिकी बातोंका होना सिद्ध किया गया है। साथ ही गुजरांवालाके हिन्दु वैसे भी उत्तेजित किये गये । इतना ही नहीं, सुना जाता है कि श्वेतांबरोंके साथ शास्त्रार्थ करनेमें, श्वेतांबरोंको नीचा दिखानेका प्रयत्न करनेमें, जो कुछ खर्चा हो वह भी देनेका अभिवचन देकर उन्हें उत्तेजित किया; खर्चा देते भी रहे। गुजराँवालामें शास्त्रार्थकी और नोटिसबाजीकी धूम मच गई। १७८ उस समय हिन्दुओं की तरफसे पं. भीमसेनजी शर्मा, विद्यावारिधि पं. ज्वालाप्रसादजी मिश्र और पं. गोकुलचंदजी आदि थे । श्वेतांबरोंकी तरफसे, पं. श्रीललितविजयजी गणि, जलंधरनिवासी यति ( पूज) जी श्रीकेशरऋषिजी, और पं. ब्रजलालजी शर्मा आदि थे । श्वेतांबरोंकी तरफसे उपर्युक्त विद्वानोंके और श्रीआचार्य महाराजजी आदि १३ साधुओं के होते हुए भी क्या साधु और क्या श्रावक सबके दिलोंमें यह समाया हुआ था कि, हमारी जीत वल्लभविजयजीके आये बिना न होगी । सबको बड़ी व्याकुलता हो रही थी । उसीका यह परिणाम था कि, श्री आचार्य महाराजको और श्रीउपाध्यायजी महाराजको आपके पास पत्र भेज कर गुजराँवाला आनेके लिये आज्ञा देनी पड़ी ! आचार्य महाराज, उपाध्यायजी महाराज तथा श्रीसंघके पत्रोंसे पाठक भली प्रकार समझ सकते हैं कि, सबकी दृष्टि Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। १७९ हमारे चरित्रनायक पर थी। आप तत्काल ही अर्थात् जेठसुदि पंचमीको वहाँसे रवाना हो गये । __ जेठका महीना, कड़ाकेकी धूप मानों आकाशसे सूरज आग बरसा रहा है । पशु पक्षी भी व्याकुल होकर सायाका आश्रय ले रहे हैं । लोगोंके लिए घरसे दस बजेके बाद बाहर निकलना जान पर आता है। अमीर खसकी टट्टियाँ लगाये हवादार घरोंमें बैठे भी गरमीसे व्याकुल हो उफ़ ! उफ ! कर बार बार नौकरको जल्दी जल्दीसे पंखा खींचनेका तकाजा कर रहे हैं। घरके बाहिर जमीन आगसी तप रही है। नंगे पैर जमीन पर पैर रखना मानों भूभल पर पैर रखना है । ऐसे समयमें हमारे चरित्रनायक गुरुवचनको सत्य प्रमाणित करने, धर्मकी प्रभावना करने, श्रीआचार्य महाराजजी तथा श्रीउपाध्यायजी महाराजकी आज्ञाको पालन करनेके और चतुर्विध संघका मान रखनेके लिए बिनौलीके पास खिंवाई गामसे रवाना हो गये । साथमें आपके सुयोग्य शिष्य सोहनविजयजी थे। नंगे पैर दोनों गुरु शिष्य उस भूभलसी भूमि पर चले जा रहे हैं । सूर्य अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर जमीनको जला रहा है, आप धर्मकी खातिर पैदल चले जा रहे हैं। पहले दिन आपने बीस माइलका सफ़र किया। ___ गाँव में पहुँचे । लोगोंने देखा कि, आपके पैरोंमें छाले पड़ गये हैं । थक कर शरीर चूर चूर हो गया है । मगर आपको इसका कुछ खयाल नहीं था । आपको सिर्फ एक ही बातका खयाल था कि, मैं किस तरह गुजराँवाला पहुँचूँ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आदर्श जीवन । दूसरे दिन फिर रवाना हुए । गरमी उसी तरह पड़ रही थी। आह ! यही तो आपकी साधु चोकी परीक्षा थी। परिसह कैसे शान्तिके साथ सहे जाते हैं इसीका तो यह अमली सबक़ था ! कवि भूधरदासजीने साधुवंदना करते कैसा सुंदर लिखा है " सूखे सरोवर जलभरे, सखें तरंगिणीतोय । बाटें बटोही ना चलें, जब घाम गरमी होय ॥ तिस काल मुनिवर तप तपें, गिरिशिखर ठाड़े धीर । वे साधु मेरे उर बसो, मेरी हरो पातक पीर ।। शीतऋतु जोरे अंग सब ही सकोरे तहाँ, ____ अंगको न मोरे नदी धोरे धीर जे खरे । जठकी झकोरे जहाँ अंडा चील छोरे पश, पंछी छाँह लोरे गिरि कोरे तप जे धरे । घोर घन घोर घटा चहुँ और डोरे, ___ ज्यू ज्यू चलत हिलोरे त्यू त्यूँ फोरे बल वे अरे । देहनेह तोरें परमारथ मैं प्रीति जोरें, ऐसे गुरुओंरे हम हाथ अंजुली करें ॥ २ ॥ आप सवारीमें चढ़ नहीं सकते थे । पैरोंकी रक्षाके लिए जोड़े-कपड़ेके जोड़ेतक-पहन नहीं सकते थे; शरीरको धूपसे बचानेके लिए छत्री नहीं लगा सकते थे; गरमीकी शिद्दतसे सूखते हुए गलेको, किसी कूए, बावड़ी या राहगीरोंके लिए लगी हुई प्याऊसे, पानी पीकर, तर नहीं कर सकते थे । झरने Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १८१ के ठंडे पानीसे हलकको गीला नहीं कर सकते थे। नंगे पैर पैदल चलना, धूपमें जलते हुए आगे बढ़ना और प्यास लगने पर किसी वृक्षकी सायामें थोड़ी देर बैठकर गरम पानीसे-जो आप गाँवमेंसे भरकर चले थे-अपना हलक गीला कर लेना इसके सिवा कोई उपाय नहीं था। साधुचर्याके कठोर बंधनमें बँधे हुए-साधुओंके आचारको पूर्ण रूपसे पालते हुए ऐसी गरमीमें,-जेठकी कड़ी धूपमें-यात्रा करना कितना कठिन काम था उसका वर्णन करनेकी हमारी क्षुद्र लेखनीमें शक्ति नहीं है। इसी तरह कष्ट सहते और पन्द्रह, बीस कभी इससे भी अधिक माइलका सफर करते आप गुजराँवालाकी तरफ़ चले जा रहे थे । रस्तेमें लोग आपको कहते," गुरुदेव ! आपके पैर छिल गये हैं। लोहू टपकने लग गया है । आप कुछ समयके लिए आराम कीजिए।" तो आप उत्तर देते,-"श्रावकजी! यह तो पौद्गलिक शरीरका धर्म है । वह अपना धर्म पालता है। पाले । मुझे भी अपना धर्म पालना है । जैन धर्मकी लोग अवहेलना कर रहे हैं । मैं कैसे आराम ले सकता हूँ? मुझे उसी दिन आराम मिलेगा जिस दिन मैं गुजराँवाला पहुँचूँगा और स्वर्गीय गुरु महाराजके वचन सिद्ध कर धर्मकी ध्वजापताका फहराती देगा।" लोग भक्तिभावसे आपके चरण स्पर्श कर साश्रु नयन आपकी ओर देखते हुए मौन हो जाते। इस स्थितिको देखकर तुलसीदासजीने रामायणमें हनुमा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । नजीके लंका जानेका जो वर्णन किया है वह आँखोंके सामने आ खड़ा होता है । वे लिखते हैंचौपाई-जिमि अमोघ रघुपतिके बाना, ताही भाँति चला हनुमाना । जलनिधि रघुपति दूत विचारी, कह मैनाक होउ श्रमहारी ।। सोरठा-सिंधुवचन सुनि कान, तुरत उठेउ मैनाक तब । कपि कह कीन्ह प्रणाम, बार बार कर जोरिके ॥ दोहा—हनुमान तेहि परसि करि, पुनि तेहिं कीन्ह प्रणाम । रामकाज कीने बिना, मोहि कहाँ विश्राम ॥ अमृतसर निवासी लाला हरिचंदजी दुग्गड अभी ता०२२३-२५ को हमें बंबईमें मिले थे। वे कहते थे कि, "जब महाराज साहब अमृतसरमें पहुंचे तब उनके पैर सूज रहे थे। उनके पैरों पर हाथ लगानेसे उन्हें कष्ट होता था। हम लोगोंने अर्ज की-"कृपालो! आपके और सोहनविजयजी महाराजके भी पैर मूज रहे हैं। ऐसी दशामें आप आगे बढ़ेंगे तो ज्यादा तकलीफ होगी । आप पाँच सात दिन यहाँ आराम कीजिए। फिर आगे पधारिए । गुजराँवालेमें भी पंच मुकरेंर करके मामला निपटानेकी बात चल रही है।" __ आपने फर्माया:-"श्रावकजी ! पहले धर्म है, शरीर नहीं । धर्मकी अवहेलनाके सामने शारीरिक कष्ट तुच्छ हैं। मैं गुजराँवाला पहुँचकर ही दम लूँगा । बीचहीमें फैसला हो गया तो बहुत अच्छी बात है।" की बात शायरी कष्ट तुच्छ हैं। गया तो पहुचकर ही दम लगा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । दैवयोगसे श्रीसोहनविजयजी महाराजकी आँखों में दर्द हो गया । विवश आपको आठ दिन वहीं ठहरना पड़ा । आँखोंका रोग ऐसा नहीं था कि उसकी अवहेलना की जाती । बगैर आँखोंके मार्ग कैसे देखा जा सकता था ? खिवाईसे रवाना होनेके बाद आपने अमृतसरके सिवा दूसरी जगह कहीं भी एक रातसे ज्यादा विश्राम नहीं लिया था ।। अमृतसरसे विहार कर आप लाहोरमें पहुँचे और उसी दिन शामको वहाँसे रवाना होकर रावीके किनारेपर सिक्खोंकी धर्मशालामें पहुँचे । उस जगह मालूम हुआ कि, मध्यस्थ लोगोंने फैसला दे दिया है और उन्होंने आत्मारामजी महाराजके बनाये हुए ग्रंथको सत्य बताया है । गुजराँवालाकी पूरी कार्रवाई उत्तरार्द्धमें 'गुजराँवालाका शास्त्रार्थ' हेडिंगवाले निबंधमें दी गई है। आप आषाढ़ सुदी ११ सं. १९६५ के दिन गुजराँवालामें पहुँचे । श्रावकोंने बड़े उत्साहके साथ स्वागत किया और जुलूसके साथ आपको शहरमें ले जाना चाहा । आपने कहा:-"श्रीआचार्य महाराज, श्रीउपाध्यायजी महाराज और श्रीचारित्रविजयजी महाराजसे वृद्ध, बड़े और रत्नाधिक पूज्य यहाँ विराजमान हैं, इस लिए मैं बड़ोंके सामने, जुलूससे जाकर, उपस्थित होना अनुचित समझता हूँ।" श्रीसंघने आचार्यश्री आदिसे प्रार्थना की । उन्होंने समयानुकूल योग्य उदारता दिखाई और आपको यह कहलाया Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANPARASARAir १८४ आदर्श जीवन। me कि,-" तुम विनयवान हो, तुम्हारा यही धर्म है, मगर यह मौका ऐसा ही है । तुमने गुरु महाराजके नाम पर प्राणतक न्योछावर किये हैं, लोगोंमें उत्साह बढ़ रहा है, अतः धर्मकी प्रभावनाके लिए और गुरु महाराजकी यशोदुंदुभि चहुँ ओर बज उठे इस लिए, हम तुम्हें आज्ञा देते हैं कि तुम श्रीसंघकी आज्ञाको स्वीकार कर लेना।" ___ आपने बड़ोंकी आज्ञाको शिरोधार्य कर विवश जूलूससे जाना स्वीकार कर लिया। बड़ी धूमधामके साथ जुलूस निकला। उपर्युक्त तीन महात्माओंके सिवा सभी साधु आपके स्वागतार्थ सामने आये थे इस लिए नगरप्रवेशके समय आपके साथ साधुओंकी एक अच्छी संख्या हो गई थी। __ श्रीमंदिरजीमें दर्शन, चैत्यवंदन कर आप उपाश्रयमें पधारे। उस समय श्रीआचार्य महाराज आदि वृद्ध, महात्माओंने भी आपका शास्त्रानुसार उचित स्वागत किया। आपने भी श्रीआचार्य महाराजजी आदिके चरणोंमें विधि पूर्वक वंदना की। दूरसे आये हुए साधु अपने बड़ोंके चरणोंमें किस तरह वंदना किया करते हैं सो देखनेका अवसर श्रीसंघ गुजराँवालाके लिए और बाहरसे आए हुए अन्यान्य भाइयोंके लिए यह पहला ही था । श्रीजिनेश्वरके विनयमार्गको देखकर अनेक भव्योंकी आँखोंसे हर्षाश्रु बह चले । सभीके मुखसे वाह ! वाह ! ! और धन्य ! धन्य !! की ध्वनि निकल पड़ी। श्रीआचार्य महाराज आदिने आपकी पीठपर हर्ष पूर्वक Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। हाथ फिराया और कहा,-"यदि सच्चे गुरुभक्त हों तो तुम्हारे ही समान हों । तुमने स्वर्गवासी गुरुदेवके इस कथनको,-कि पंजाबकी सम्भाल वल्लभ लेगा, सत्य कर दिखाया है। जाओ ! व्याख्यानके पाट पर बैठ कर श्रीसंघको थोड़ासा व्याख्यान सुनाओ! कई दिनोंसे श्रावकोंको तुम्हारी जबानसे जिनवचनामृत पानकरनेका अवसर नहीं मिला है, आज पिलाकर उन्हें धन्य बनाओ।" ___ आपने बद्धाञ्जलि होकर 'तहत्ति' कहा और व्याख्यान मंडपमें जाकर श्रोताओंको उपदेशामृत पिलाया । जब श्रावकोंको यह मालूम हुआ कि आजसे नित्य प्रति उन्हें व्याख्यान सुननेका सौभाग्म प्राप्त होगा तब उन्होंने, चौवीस महाराजकी जय, श्रीआत्मारामजी महाराजकी जय, श्रीमद्विजयकमलमूरि महाराजकी जय ! श्रीउपाध्यायजी महाराजकी जय ! श्रीचरित्रविजयजी महाराकी जय! श्रीवल्लभविजयजी महाराजकी जय ! इस तरह जय ध्वनिके साथ अपनी प्रसन्नता प्रकट की। __ आप कई दिनों तक निरंतर व्याख्यान देते रहे। एक दिन आपने आचार्यश्रीसे निवेदन किया कि, गुजराँवालाके शास्त्रार्थकी कार्रवाईका संग्रह होना आवश्यक है । इस लिए यदि आप व्याख्यानके लिए किन्हीं दूसरे मुनि महाराजको आज्ञा फर्मावें और मुझे इस कार्यको करनेकी आज्ञा फर्मावें तो उत्तम हो।" __ आचार्यश्रीने आपकी योग्य प्रार्थनाको स्वीकार किया और व्याख्यानके लिए श्रीललितविजयजीको हुक्म दे दिया। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आदर्श जीवन mhroom बीच बीचमें कभी कभी श्रीउपाध्यायजी महाराज और अन्यान्य साधु महाराज भी व्याख्यानकी कृपा करते रहे थे; ज्यादातर व्याख्यानका भार आपके शिष्य रत्न श्रीललितविजयजी पर ही रहा था । मुख्य कारण इसका यह था कि आचार्य महाराज और उपाध्यायजी महाराजकी तबीअत गरमीके सबबसे जैसी चाहिए वैसी अच्छी नहीं रहती थी. श्रीचारित्रविजयजी महाराज वृद्धावस्थाके कारण असमर्थ थे और अन्य जो साधु थे वे गुजराती होनेके कारण पंजाबमें व्याख्यान नहीं बाँच सकते थे। श्रीसंघके आग्रहके कारण आचार्यश्रीने पर्युषण पर्वमें कल्पमूत्रके प्रथम व्याख्यानकी और संवत्सरीके व्याख्यानकी अर्थात् बारसां-कल्पसूत्र मूलमात्रके व्याख्यानकी कृपा की थी; शेष कल्पसूत्रके व्याख्यान दोनों गुरु शिष्योंने यानी आपने और श्रीललितविजयजीने ही समाप्त किये थे। ' ___ आपकी कल्पसूत्र बाँचनेकी छटा अजब है । यह स्वर्गीय गुरुदेवकी छटाका अनुकरण है। इसे देखकर मुनि श्रीलब्धिविजयजी ( वर्तमानमें श्रीविजयलब्धिमूरिजी ) चकित हो गये थे। उन्होंने कहा:-" आपका कल्पसूत्र सुनानेका ढंग बहुत ही बढ़िया है । मैं भी आगेसे इसी ढबसे बाँचा करूँगा। मेरा उद्देश्य आपके व्याख्यान सुननेमें, आपकी व्याख्यानशली, सीखना था सो वह उद्देश्य पूर्ण होगया।" व्याख्यानसे फुर्सत पाकर आपने गुजराँवालामें दो पुस्तकें तैयार की। उनमेंसे एकका नाम है-'विशेषनिर्णय' और Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन दूसरीका नाम है ' भीमज्ञानत्रिंशिका' पहलीमें संक्षेपसे और दूसरीमें विस्तारके साथ यह सिद्ध किया गया है कि, वेदादि शास्त्रोंमे गोमेध, नरमेध और अश्वमेधका विधान है और गौ, मनुष्य और घोड़ेका हवन करना चाहिए। इतना ही क्यों वेदादि शास्त्रोंमें मांसभक्षणका भी स्पष्ट विधान है। इन बातोंको सिद्ध करनेके लिए आपने अपनी तरफसे कुछ न लिख कर प्राचीन शास्त्रोंके-वेदों, भाष्यों, मूत्रों, स्मृतियों और उन पर की गई टीकाओंके वाक्य उद्धृत किये हैं। साथ ही हिन्दुओंके प्रसिद्ध विद्वान पंडित भीमसेनजी, पं० ज्वालाप्रसादजी, लोकमान्य तिलक आदिकी सम्मतियाँ भी-जो शास्त्रोंके आधारपर दी गइ हैं-उद्धृत की गई हैं। ये प्रमाण १८५ ग्रंथों और पत्रोंसे संग्रह किये गये हैं। सं० १९६५का बाईसवाँ चौमासा आपने गुजराँवालाहीमें आचार्य श्रीविजयकमलमूरिजीके तथा श्रीउपाध्यायजी महाराजके चरणोंमें किया था। उस समय वहाँ कुल चौदह साधु थे । उनके नाम ये हैं, (१) आचार्य महाराज श्री १०८ श्रीमद्विजय कमल मूरिजी (२) १०८ श्रीउपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयजी (३)१०८ श्रीवृद्ध मुनि महाराज श्रीचारित्रविजयजी (४) हमारे चरित्रनायक १०८ मुनि श्रीवल्लभविजयजी महाराज (५) मुनि श्रीअमीविजयजी महाराज (६) मुनि श्रीरविविजयजी महाराज (७) मुनि श्रीहिम्मतविजयजी. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। re महाराज (८) मुनि श्रीविनयविजयजी महाराज (९) मुनि श्रीललितविजयजी महाराज (वर्तमानमें पंन्यास तथा गणि) (१०) मुनि श्रीनयविजयजी महाराज (११) मुनि श्री केसरविजयजी महाराज (१२) मुनि श्रीउत्तमविजयजी महाराज (१३) मुनि श्रीसोहनविजयजी महाराज ( वर्तमानमें पंन्यास, गाणि, तथा उपाध्याय) (१४) मुनि श्रीलब्धिविजयजी महाराज ( वर्तमानमें आचार्य श्रीविजयलब्धि मूरिजी) (सं० १९६६ से सं० १९७०) चातुर्मास समाप्त होनेपर श्रीआचार्य महाराज और श्री उपाध्यायजी महाराजकी आज्ञा पाकर आपने गुजराँवालासे विहार किया। अमृतसर, जंडियाला आदि स्थानोंमें होते हुए आप जालंधर पधारे । वहाँ आपने श्रीहीरविजयजी महाराज, श्रीउद्योतविजयजी महाराज और स्वामी श्रीसुमतिविजयजी महाराजके दर्शन किये । वहाँसे रवाना होकर होशियारपुर फगवाड़ा, लुधियाना, अंबाला और दिल्ली आदिके लोगोंको उपदेशामृत पिलाते हुए आप जयपुर पहुँचे । जयपुरमें बड़े उत्साह और ठाठबाटके साथ आपका स्वागत हुआ । पंजाबसे विहार करते हुए पं. श्रीललितविजयजी भी जयपुर आ मिले । इनके साथ खिंवाइके एक ब्राह्मण भी थे । नाम था कृष्णचंद । वे दीक्षा लेनेके लिए आये थे। होशियारपुरनिवासी अच्छर और मच्छर दोनों सगे भाइ ओसवाल नाहर गोत्रीय संयम ग्रहण करनेके इरादेसे कितने ही महीनोंसे आपके पास अभ्यास करते थे। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। wond Newwvvv जयपुरमें खरतरगच्छवालोंका बड़ा जोर था । तपगच्छके साधुओंका टिकाव वहाँ कठिनतासे हो सकता था। मगर जब आप वहाँ पहुँचे हैं तब सभी गच्छवालोंने आपका बड़ा सत्कार किया । आपके पुण्योदयने और आपके एकता वर्द्धक, जैनधर्मके शुद्ध उपदेशने सभीको आपका भक्त बना दिया। जो एक बार आपकी वाणी सुन लेता वह फिर उसे सुननेके लिए व्याकुल रहता । हरेक कहता,- अपने जीवनमें पहली ही बार मैंने ऐसे मधुर भाषी और सभी गच्छवालोंको अपने अपने गच्छानुसार धर्मक्रिया करते हुए संपसे रहनेका उपदेश देने वाले साधु देखे हैं। आप ढाई महीने तक जयपुरमें रहे । जब कभी आप विहार करनेको उद्यत होते लोग कहते अभी और थोड़े दिन विराजिए। कौन अमृत पिलानेवालेको जाने देना चाहता है ? प्रति दिन मंदिरोंमें पूजा प्रभावना होती थी। आज इस मंदिरमें है तो कल उस मंदिरमें । पूजाके वक्त एक समा बंध जाता था । जिस समय साधुमंडली अपने सुरीले कंठोंसे पूजा गाती सभी आनंदमें झूमने लग जाते । पं० श्रीललितविजयजीका गला तो मोहन मंत्र था। इतना मधुर और इतना लोचदार ! श्रोता मंत्रमुग्ध सर्पकी भाँति झूमते रहते । तीन चार घंटे इस तरह निकल जाते जैसे दिनभर परिश्रम करनेवाले मनुष्यकी रात एक ही झपकीमें निकल जाती है ! पूजाके समय श्वेतांबर श्रावकोंके सिवा दूसरे भी अनेक स्त्रीपुरुष मंदिरमें जमा हो जाते थे। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० आदर्श जीवन। AAAAAAA जब आप विहार करनेका दृढ इरादा कर चुके तब जयपुरके संघने विनती की कि, आपके साथ जो दीक्षा लेनेवाले भाग्यशाली हैं उन्हें यहीं दीक्षा देकर हमें अनुग्रहीत कीजिए । आपने श्रावकोंकी इस विनतीको स्वीकार कर लिया। __ संयमलेनेवालोंके वारिसोंको सूचना दी गई। वे आये मगर दीक्षाके उत्सुकोंको वैराग्यमें दृढ देखकर, आज्ञा दे चले गये । पन्द्रह दिनतक बड़ी धूमधामसे उत्सव हुआ । पंजाब, मारवाड़, मेवाड़, मालवा और गुजरात आदि सभी स्थानोंके श्रावक वहाँ जमा हुए थे । बाहरसे आये हुए लोगोंमें पंजाबियोंकी संख्या अधिक थी। जयपुरके संघने सभी अतिथियोंका अच्छा आदरसत्कार किया था । दीक्षा मोहनवाड़ीमेंजो गलता दर्वाजेके बाहिर है-हुई थी। हजारों नरनारी मोहनवाडीमें सवेरेहीसे जाकर जमा हो गये थे। पंजाबी श्रावक दीक्षा लेनेवालोंकी पालकियाँ उठाकर गये थे। दीक्षाके दिन नारियलकी प्रभावना हुई थी। कुल नव हजार नारियल खर्च हुए थे । दीक्षामहोत्सवका सारा खर्चा जयपुरनिवासी सेठ फूलचंदजी कोठारीकी माता इन्द्रबाईने किया था । दीक्षा सं. १९६५ के चैत्र वदि ५ के दिन हुई थी। अच्छर और मच्छरका नाम क्रमशः विद्याविजयजी और विचारविजयजी रक्खा गया । दोनों हमारे चरित्रनायकके शिष्य हुए । कृष्णचंद्रका नाम तिलकविजयजी रक्खा गया। वे पं० श्रीललितविजयजी महाराजके शिष्य हुए। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । जयपुर में दीनदयालजी तिवारी एक बहुत ही सज्जन पुरुष थे । उन्हें धार्मिक बातोंसे विशेष स्नेह था । वे हरेक मजहबकी बात को समझते और धर्मगुरुओंसे मिलते थे । वे उस समय मुन्सिफ थे । उन्हें ऐसा शौक लगा कि वे हमेशा आपका व्याख्यान सुने बिना नहीं रहते । यदि कभी किसी खास कार्यके कारण व्याख्यानके समय नहीं आ सकते थे तो दुपहरको अथवा शामके वक्त आकर उस दिन के व्याख्यानकी बातें संक्षेप में आपसे पूछ कर पहलेका अनुसंधान कर लेते थे । सं० १९६५ में लार्ड कर्जनने बंगालको दो भागों में विभक्त कर दिया था । इससे बंगालमें बड़ी हल चल मची हुई थी । क्रान्तिकारी बंगाली लोग खीजकर षडयंत्रकारी बन गये और सरकारी अफ्सरोंकी हत्याएँ करने लग गये थे । वे रहा -करते थे प्रायः सन्यासियों और साधुओंके वेशमें । इस लिए उनपर सरकारी अफ्सरोंकी कड़ी निगाह रहती थी । I एक दिनकी बात है । हमारे चरित्रनायक अपने दो तीन शिष्यों सहित जयपुर स्टेशनके पासवाले मंदिरजके दर्शन करके वापिस आरहे थे । साथमें जयपुरवाले गुलाबचंद्रजी ढड्डा एम. ए. के बड़े भाई लक्ष्मीचंद्रजी भी थे । उसी समय किसी गोरे अफ्सरकी बग्घी वहाँसे निकली । उसने साधुओंको देखा । एक तो बंगाली लोग वैसे नंगे सिर ही रहा करते हैं, दूसरे उस समय क्रान्तिकारी बंगाली प्रायः साधुओंके वेशमें रहते थे; गोरा यह जानता नहीं था कि बंगालियोंके १९१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । १९२ .......momorrowroorama MR.RJhar...rr.MRANNYM सिवा और भी कई नंगे सिर रहा करते हैं। जैन साधुओंके संबंधमें तो उसे जरासी भी जानकारी न थी । अतः उसने समझ लिया कि ये बंगाली ही हैं । बंगले पर पहुँचकर उसने मूचना दी कि, लक्ष्मीचंद्रजीके यहाँ कुछ बंगाली हैं । वे कौन हैं और क्यों आये हैं ? इसकी जाँच करो। पुलिसने लक्ष्मीचंद्रजीको बुलाया और पूछा:-" तुम्हारे घरपर बंगाली महमान कौन हैं ?" लक्ष्मीचंद्रजीने कहा:-" मेरे घर पर तो कोई बंगाली महमान नहीं है।" पुलिस अफ्सर बोला:-" हैं क्यों नहीं ? आप उनके साथ स्टेशनसे आ रहे थे तब साहबने आपके साथ उन्हें,, देखा था, इतना ही नहीं आपने, साहबसे सलाम भी की थी।" लक्ष्मीचंद्रजी मुस्कुराये और बोले:-" ओह ! साहबको बड़ा भ्रम हुआ है। जिनके साथ आते हुए साहबने मुझे देखा था वे तो हमारे गुरु महाराज थे । स्टेशनके पास पुगलियोंकी ( पुगलिया ओसवालोंका एक गोत्र है) निशियाँ है। उसमें जिन मंदिरके दर्शन कराने के लिए मैं गुरु महाराजके साथ गया था और उन्हींके साथ वापिस आ रहा था । आप जानते हैं कि, जैनसाधु नंगे सिर ही रहते हैं और उन्हें नंगे सिर देख कर साहबने बंगाली समझ लिया है " ___ असली बातको समझ कर पुलिस अफ्सर खिल खिला कर हँस पड़ा और लक्ष्मीचंद्रजीसे बोला:-" आप जाइए मैंने मतलब समझ लिया है।" Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । .. पुलिसने साहबको सारी बातें समझा दी, तो भी उसके दिलसे खटका न निकला । उसने कहा:-" मुमकिन है यही बात सच हो, तो भी सावधान रहना अच्छा है । तुम इस बातका खयाल रखना कि, वे यहाँ क्यों आये हैं ? क्या करते हैं ? लोगोंको क्या उपदेश देते हैं ? कहाँ ठहरे हैं आदि ।" मुन्सिफ महाशय और पुलिस अफ्सरका आपसमें अच्छा स्नेह था । उसने सारी बातें मुन्सिफ साहबसे कहीं । मुन्सिफ साहब हँसे और बोले:-" अच्छी बात है । मैं खुद इसकी जाँच करूँगा। तुम जानते हो कि, मुझे धर्मसे ज्यादा प्रेम है। धर्मकी बातें सुनना मैं बहुत ज्यादा पसंद करता हूँ। वैसे भी कोई बात होगी तो मुझे जाँच तो करनी ही पड़ेगी, इस लिए मैं स्वयं उनके व्याख्यानमें जाऊँगा। यदि वे वास्तविक साधु होंगे तो मुझे धर्मकी प्राप्ति होगी और यदि वे ढौंगी होंगे तो भविष्यमें मुकदमेके समय मुझे कम कठिनता होगी।" - दूसरे दिन सवेरे ही मुन्सिफ साहब व्याख्यानमें चले गये। एक बार लोगोंके दिलमें भय पैदा हुआ । भय इस लिए हुआ कि, उन्होंने लक्ष्मीचंद्रजीके द्वारा सारी बातें सुनी थीं; मगर थोड़ी देरके बाद उनका भय जाता रहा । उन्हें मुन्सिफ साहबके बोल चालसे मालूम हुआ कि, वे किसी बुरे इरादेसे यहाँ नहीं आये हैं। जबतक व्याख्यान होता रहा वे ध्यानपूर्वक सुनते रहे । अनेक लोग उनकी तरफ़ एक टक देख Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । रहे थे । उनके चहरेसे मालूम हुआ कि, उन्हें व्याख्यानमें बड़ा आनंद आ रहा है और वे तल्लीन होकर उसे सुन रहे हैं । १९४ जब व्याख्यान समाप्त हो चुका तब मुन्सिफ साहब बोले:" मेरी आयु पचास बरससे कुछ ज्यादा ही होगी । बचपनहीसे मुझे धर्मकी बातें सुननेका शौक है । किसी मजहबका व्याख्यान हो, - धर्मकथा हो मैं यथासाध्य सुननेके लिए जरूर जाता हूँ । ये लोग मुझे अच्छी तरह जानते हैं । मैं गुणग्राही हूँ । जहाँसे गुण मिलता है मैं वहींसे गुणग्रहण करता हूँ । किसीकी प्रशंसा उसके सामने ही करना अनुचित है, तो भी मुझसे यह कहे विना नहीं रहा जाता कि, मुझे आजके व्याख्यानमें जैसा आनंद मिला है वैसा आनंद उम्र में कभी नहीं मिला ; आनंदकी अनुभूति शब्दोंके द्वारा प्रकट नहीं की जा सकती । व्याख्यान क्या कल भी होगा ? " हमारे चरित्रनायकने फर्मायाः – “ साधुओंका और काम ही क्या है ? गृहस्थोंके अन्नजलसे साधुओंका निर्वाह होता है इस लिए साधुओंका कर्त्तव्य है कि, वे बदलेमें गृहस्थोंको उपदेश दें, उन्हें धर्मकार्यमें लगे रहनेकी प्रेरणा करें और उन्हें उनके उद्धारका मार्ग बतावें, उस मार्ग पर चलनेमें उन्हें सहायता दें | इस लिए जब तक हम यहाँ रहेंगे तब तक अपना कर्तव्य करते ही रहेंगे । " मुन्सिफ साहबने पूछा:- “ आप कब तक यहाँ विराजेंगे ? आपने उत्तर दिया:-" जब तक यहाँके अन्नजल हैं। " Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । मुन्सिफ साहब नमस्कार करके चले गये । तबसे वे रोज व्याख्यानमें आते थे । एक दिन वे देरसे आये । देखते क्या हैं कि दो पुलिकसे मनुष्य श्रोताओंके पीछेकी तरफ बैठे हुए हैं। उन्हें बुलाया और पूछा:- “ पूछा:- “ तुम यहाँ क्यों आये हो ? " उन्होंने उत्तर दिया:-“ हाकिमके हुक्मसे । ” मुन्सिफ साहब ने कहा :- " तुम आराम से बैठो । यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी । मैं यहाँ रोज व्याख्यानमें आता । हमेशा कुछ न कुछ नयापन व्याख्यानमें रहता है । इनका व्याख्यान श्रोताओंकी भलाई के लिए होता है। उनके मनमें किसी किसमका लालच नहीं है । लालच हो ही क्यों ? जिन्होंने दुनियाको फानी - नाशमान समझकर इससे किनारा कर लिया है, जो पैसे टकेको कभी स्पर्श नहीं करते । जो अनेक घरोंमेंसे थोड़ी थोड़ी भिक्षा लेकर पेट भरते हैं, जो नंगे पेर फिरते हैं, जो कभी किसी सवारीपर नहीं चढ़ते, जो एक ठिकाने नहीं रहते, जिनके रहनेका कोई नियत स्थान नहीं, जो रमते राम हैं, जो कोई किसी गाँव में या शहरमें ठहरनेको जगह दे देता है तो वहाँ ठहर जाते हैं, अन्यथा वृक्षके नीचे ही रात गुजार लेते हैं, जो भोजनकी तरह ही वस्त्र भी माँगकर ले आते हैं अर्थात् गृहस्थ अपने लिए कपड़ा लाता है उसमेंसे कुछ बच रहता है तो ले लेते हैं, उनके लिए लाया हुआ कपड़ा कभी नहीं लेते, जो कीमती या भड़कीला कपड़ा नहीं लेते, जो १९५ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । अपने पास सिर्फ इतनासासामान रखते हैं जितनेको वे उठाकर ले जा सकते हैं और जो कभी किसी गृहस्थसे अपनी चीजें नहीं उठवाते । इनका धर्म है, किसी जीवको किसी भी दशामें कष्ट न पहुँचाना । हर समय उनकी भावना रहती है'शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवंतु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥' इस भावनाको भानेवाला, इस मंत्रकी साधना करनेवाला क्या कभी किसीका विरोधी हो सकता है ? यद्यपि इसकी साधना कठिन है तथापि इन महात्माओंने इसको साधा है।" पुलिसवाले बोले:-" आप बजा फर्माते हैं। तीन राजसे हम बराबर यहाँ आरहे हैं । हमने इन साधुओंको आपके फर्मानेके अनुसार बिलकुल ही बेलाग और दूसरोंके हितका उपदेश देनेवाले ही देखा है। हमने पहले दिन जब आपको यहाँ बैठे देखा तभी समझ लिया था कि, यहाँ ऐसा वैसा उपदेश कभी न होता होगा । यदि होता तो आप यहाँ हरगिज न आते । इन महात्माओंके शब्दोंमें जादू है। हम इनके उपदेशपर मुग्ध हैं । हमें जाँचके बहाने ही इन महात्माओंका उपदेश सुननेको मिल जाता है।" ___ मुन्सिफ साहबने कहा:-" बहुत अच्छा करते हो । उपदेशके माफिक कुछ अमल भी किया करो । अमलके बिना सुना न सुना एकसा है।" .. जिस समय अच्छर मच्छरादिका दीक्षा महोत्सव हो रहा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। १९७ था उस समय किसी इर्षालुने सर्कारमें अर्जी दी कि, जिन लड़कोंको दीक्षा दी जानेवाली है उनके माता पिताको इसकी बिल्कुल खबर नहीं है । यह काम चुपके ही चुपके हो रहा है। इस लिए सरकार इसकी जाँच करे । दैवयोगसे वह दख्वास्त मुन्सिफ साहबके पास ही जाँचके लिए पहुँची । उन्होंने उस दख्खास्तको ईर्ष्याका परिणाम समझकर दफ्तर दाखिल करा दिया। उन्हें मालूम था कि, दीक्षामहोत्सव बड़ी धूमधामसे हो रहा है, रोज जुलूस निकलते हैं। सारा शहर इससे वाकिफ है। इतना ही क्यों अच्छर मच्छरके ताऊजी (पिताके बड़े भाई) जयपुरमें आये थे । वे अच्छर मच्छरकी जायदादका प्रबंध स्वयं करके उन्हें दीक्षा लेनेकी आज्ञा दे गये थे। मुन्सिफ साहब भी उस समय मौजूद थे; क्यों कि यह बात व्याख्यानके समय ही हुई थी । मुन्सिफ साहबने पासमें बैठकर दीक्षाकी सारी क्रियाएँ देखी थीं। हमारे चरित्रनायकने जयपुरसे विहार किया तब वे दो तीन माइल तक साथमें गये थे । और भी सैकड़ों मनुष्य आपको पहुँचाने गये थे। . जिस समय जयपुरमें तीन भाइयोंकी दीक्षाकी तैयारियाँ हो रही थीं उस वक्त अजमेरनिवासी सेठ हीराचंदजी सचेती कुछ अन्य सधर्मी भाइयोंको साथ लेकर हमारे चरित्रनायकके चरणोंमें उपस्थित हुए और अर्ज करने लगे कि-" कृपानिधान हम आपकी खिदमतमें इस लिए हाजिर हुए हैं कि कृपाकर आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ आदर्श जीवन । "हम सब सेवक यह प्रार्थना करनेको आये हैं कि आप इन तीनों वैरागियोंको अजमेरमें दीक्षा दें। खास फायदा वहाँ यह होगा कि अजमेरमें स्थानकवासी भाइयोंने कॉन्फरन्सका जल्सा कायम किया है । तारीख वही है जो दीक्षाकी है। कॉन्फरन्सके मौके पर हजारों स्त्री पुरुष वहाँ मौजूद होंगे इससे सैंकड़ों गामोंमें घूमकर जो उपकार आप श्रीजी वर्षोंमें कर सकेंगे वह तीन दिनोंमें हो सकेगा।" सचेतीजीने यह भी अर्जकी कि उस मौकेपर हम मूर्तिपूजक संप्रदायकी कॉन्फरन्सका अधिवेशन कायम करनेकी योजना भी करना चाहते हैं, इस कार्यमें हमारे सर्व भाई मददगार हैं और अगर गुरु महाराज अजमेर पधारें तो ४०००० रु० तकका खर्च मैं अकेला करनेको तैयार हूँ। - हमारे चरित्रनायक इसकार्यमें बड़ा लाभ समझते थे मगर जयपुरके श्रीसंघको वचन दे चुके थे । जब जयपुरके ..श्रीसंघको पूछा तो उसने कहा:-"अपने हाथमें आया हीरा कौन दूसरेको दे देता है।" अजमेरके श्रीसंघकी आशा अपूर्ण रह गई । दीक्षा जयपुरमें ही हुई। ... ___ जयपुरसे विहार कर आप अजमेर पधारे । बड़े उत्साह और आडंबरके साथ श्रावकोंने आपका नगरप्रवेश कराया। करीब दस रोजतक आप वहाँ विराजे और लोगोंको उपदेशामृतका पान कराते रहे। अजमेरसे विहार करके आप नयेशहर (ब्यावर) पधारे Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन यहाँके लोगोंने अति उत्साहके साथ आपका स्वागत किया । बड़े भारी जूलूसके साथ लोग आपको उपाश्रयमें ले गये । आपके पधारने की खुशीमें लोगोंने वहाँ अठाई महोत्सव शुरू किया । सवेरे लोग व्याख्यान सुनते थे और दुपहरको पूजाका आनंद उठाते थे । ब्यावरसे आप पिपलीगाँव में पधारे । वहाँ स्थानकवासियों और मंदिर मार्गियोंके आपसमें फूट थी । आपके उपदेशसे वह मिट गई और दोनों मिलकर रहने लगे । १९९ पिपलीगाँवसे आप मुँडावा होते हुए चंडावल पधारे । वहाँ दो दिनतक लोगों को उपदेशामृत पिलाकर निहाल किया । चंडावलसे आप सोजत पधारे । वहाँ पालीके धर्मात्मा से तेजमलजी चाँदमलजी आदि भी आये थे । लोगोंने बड़े उत्साहसे आपका स्वागत किया और आपका उपदेशामृत पी अपनेको कृतकृत्य बनाया । सोजतसे आप जाडण होते हुए पाली पधारे । वहाँसे गोलवाड़में पंचतीर्थीकी यात्राके लिए पधारे। वरकाणाजी, नाडलाई, नाडोल, घाणेराव, सादड़ीकी यात्रा कर, मुँडारा, बाली, शिवगंज, और सीरोही होते हुए और इन गाँवोंके लोगोंको धर्मामृत पिलाते हुए आप आबूजी पधारे । वरकाणाजीसे आचार्य श्रीविजयकमल सूरिजी के शिष्य श्रीलावण्यविजयजी भी आपके साथ हो गये थे । वे चार सालतक आपके साथ रहकर आपकी सेवा भक्ति करते रहे । आपने भी उन्हें विद्यादान देकर, विद्वानोंकी पंक्तिमें बिठा दिया । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। । आबूसे विहार करके आप मढार पधारे । आपके लघु गुरु भ्राता मुनि मोतीविजयजी भी गुजरातकी तरफसे विहार करके यहीं आपकी सेवामें हाजिर हो गये। मढारसे विहार करके सं० १९६६ की ज्येष्ठ शुक्ला २ के दिन आप पालनपुर पहुँचे । उमंगोंसे भरे श्रावकोंने आपका कल्पनातीत स्वागत किया । पालनपुरमें साधुओंका सामैया ( जुलूस) यही सबसे पहला था, इस कारणसे भी लोगोंमें उत्साह अत्यधिक था। नगरप्रवेश बड़ी धूमधामसे कराया। जुलूसमें हजारों नर नारी आये थे। करीब आधे माइलमें जुलूस था। स्त्रियाँ वधाईके गीत गाती थीं और पुरुष जैनधर्मकी जय, आत्मारामजी महाराजकी जय और मुनि वल्लभविजयजी महाराजकी जयके घोषसे आकाश मंडलको गुंजाते थे । __ बड़ोदेके कोठारी जमनादास, खीमचंद भाई आदि लगभग पचास श्रावक आपको बड़ोदेमें चौमासा करनेकी विनती करनेके लिए आबूजी पहुँचे थे; मगर वे आबूजी पहुँचे उसके पहले ही आप दूसरे ( अनादराके) रस्ते होकर नीचे उतर गये थे, इसलिए वे सभी आबूजीकी यात्रा करके प्रवेशमहोत्सवके समय पालनपुर आ पहुँचे थे। " होनी, भवितव्यता, पहलेह से कुछ न कुछ चिन्ह प्रकट कर देती है। पालनपुरके संघका ऐसा अपूर्व उत्साह और सामैया देखकर उनको संदेह हुआ कि संभवतः पालनपुरवाले महाराजका विहार कभी न होने देंगे। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २०१ . शामको पालनपुरके कई श्रावक बड़ोदावालोंके डेरेपर पहुँचे और हाथ जोड़ कर कहने लगे,-" भाई साहब आप हमारी मदद कीजिए, जिससे हम महाराज साहबसे यहीं चौमासा करनेकी विनतीको स्वीकार करा सकें। महाराज साहबका यहाँ चौमासा होना बहुत जरूरी है। यहाँके संघका बड़ा उपकार होगा। आदि।" .. बड़ोदावालोंका संदेह विश्वासमें बदल गया। उन्होंने सलाह की कि खीमचंदभाई आदि पाँच सात आदमी यहाँ रह जायँ, जो महाराज साहबको यहाँसे विहार कराके ही निकलें। दूसरे अभीसे चले जायें। . दो दिनके बाद आपने मोतीविजयजी महाराजको वहाँसे विहार करवा दिया। कारण आपने मुनिमंडलके साथ यह स्थिर कर लिया था कि, सबका चौमासा एक ही साथ दादाके चरणों में सिद्धाचलजीमें-हो । धीरे धीरे सभी वहाँ पहुँच जायँगे; मगर ज्ञानी महाराजने तो कुछ और ही देखा था। चौथके दिन व्याख्यानमें, आपने पंचमीके दिन विहार करनेकी इच्छा प्रकट की और कहा कि, हम भोयणीमें गुरुदेवकी जयन्ती मनाना चाहते हैं । श्रावकोंने साग्रह वहीं की जयन्ती करनेकी विनती की। आपको वह स्वीकारनी पड़ी। श्रावकोंने कहा था आपके विराजनेसे अनेक उपकार होंगे। सो हुए। करीब बीस बरससे पालनपुरके संघमें दो धड़े हो रहे Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आदर्श जीवन । wwwmumwwwww vvvwho--- - थे। पैंतीस घर एक तरफ थे और शेष दूसरी तरफ । झगडेको मिटानेके लिए अनेक मुनिराजोंने परिश्रम किया परन्तु कोई फल नहीं हुआ। होता तो तब जब झगड़ेकी काललब्धि समाप्त हो गई होती! अब वह समाप्त हो चुकी थी और उसका यश आपहीको बदा था । ___ आपने लोगोंको आपसी कलह मेटनेका उपदेश दिया। उपदेशको सुन उनके मन पसीजे । उन्होंने आपको ही न्यायाधीश नियत कर जो प्रतिज्ञापत्र लिख दिया, उसकी नकल यहाँ दी जाती है। "परम पूज्य १०८श्रीमहामुनिराज श्रीवल्लभविजयजी महाराज साहब । जोग लि. पालनपुर० तपगच्छके ओसवाल श्रीमाली महाजन समस्त । यहाँ हमारे आपसमें तकरार है । वह बाबत, निकाल करनेके लिए, हमने आप साहबको सौंपी है। इसलिए आप साहब, सबकी हकीकत सुनकर जो फैसला कर देंगे, वह हमको कबूल मंजूर है और उसके मुजिब हम वर्ताव करेंगे। उसमें कसर नहीं करेंगे । मिति (गुजराती) सं १९६५ का ज्येष्ठ सुदी ४" यह मूल गुजरातीका अनुवाद है । इसके नीचे करीब नव्वे पुरुषोंके हस्ताक्षर हैं। आपने जो फैसला दिया उसकी नकल नीचे दी जाती है “ नमोहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । www मैं स्वयं यह बताते अत्यंत प्रसन्न हूँ कि पालनपुरमें श्रीजिनेश्वर देवके मनोहर चैत्यमें प्राचीन श्रीजिन प्रतिमाओंका दर्शन भव्य जीवोंको बहुत आनंद देता है। ऐसी ऐसी अद्भुत प्राचीन प्रतिमाएँ यहाँ देखी हैं जैसी अन्य स्थानोंपर कठिनतासे मिल सकती हैं। श्रावक समुदाय भी धर्मका पूर्ण रागी और प्रतापी है। इतना होने पर भी ऐसा मालूम हुआ कि यहाँके मंदिरों में जितनी चाहिए उतनी देखरेख नहीं होती, इसलिए प्रसंगवश व्याख्यानमें इसके लिए कुछ कहा गया। जिससे श्रावकोंके हृदय भर आये । मगर उत्तर मिला कि, साहब इसमें कोई खास कारण है। पूछने पर विदित हुआ कि किसी साधारणसी बातपर आपसमें झगड़ा हो गया है । इसका अंत करनेके लिए सूचना दी गई। इससे सर्वानुमतसे यह बात प्रकट की गई की आप सारी बातोंसे वाकिफ होकर जैसी आज्ञा देंगे वैसा ही हम सब करनेके लिए तैयार हैं । इस विषयका पत्र लिख उस पर सबने हस्ताक्षर कर दिये । दोनों पक्षोंके आदमियोंसे जुदा जुदा सारी बातें जान ली । इसके बाद जो कुछ मैंने उचित समझा वह बताता हूँ। (१) यद्यपि कुछ बातोंमें कुछ व्यक्तियाँ अपराधी साबित होती हैं परन्तु समयके फेरसे विरुद्ध धर्मवालोंको हँसी या आलोचनाका मौका न मिले इसी हेतुसे मैं उन्हें अपराधी बताना नहीं चाहता; तथापि पैंतीस घरवालोंने या दूसरे किसीने एकड़ामें (ऐक्यमें) भाग नहीं लिया वे एकड़ामें भाग लेने यानी एकड़ा भरनेके लिए बाध्य हैं। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आदर्श जीवन। .. (२) सभी एकड़ावाले तथा एकड़ासे विपरीत वर्ताववाले तथा पत्रिीसी आदि सभी एकतासे, संपसे बिगड़ता हुआ धार्मिक काम सुधारनेके लिए बाध्य हैं; और आजके बाद जो कोई एकड़ासे विरुद्ध आचरण करेगा उसको जाति इकट्ठी हो जो मुनासिब ठहराव करेगी उसके अनुसार वर्तना पड़ेगा। अर्थात् इस विषयमें जातिको अख्तियार दिया जाता है कि जाति चाहे तो उसे जातिसे अलग कर दे और चाहे तो उससे उसकी योग्यताके अनुसार चाहे जिस खातेके लिए दंड ले, अथवा उसे माफ कर दे। (३) एकड़ावालोंने, एकड़ासे विपरीत चलनेवालोंने अथवा पात्रीसीने, किसीने भी मुझसे, अपनी किसी तरहके दुःखकी बात नहीं कही थी; मगर मैंने धर्मकी वृद्धिके बदले हानि होते देख उनसे कहा और मेरे कहनेसे सभीने सच्चे अन्तःकरणसे उद्योगकर मेरे कहनेके माफिक वर्ताव करनेकी मंजूरी दे मुझे ऐसे शुभ काममें भाग लेनेका सम्मान दिया है । मैं आशा करता हूँ कि तुम सभी पालनपुरके निवासी, मंदिर-आम्नायके सुश्रावक अपने वचनको पालनेके लिए और धर्मकी खातिर इस किये हुए ठहरावको सच्चे अंतःकरणसे मान दोगे और अबसे फिर उपयुक्त विषयमें कभी भी द्वेष नहीं करनेके संबंधमें अपने मनमें प्रतिज्ञा धारण करोगे। (४) आज स्वर्गवासी गुरु महाराज तपगच्छाचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरि (आत्मारामजी ) महाराज साहबके Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २०५ स्वर्गवासका दिन होनेसे आप श्रीसंघने महोत्सव प्रारंभ किया है । इसीके दर्मियानमें यह शुभ कार्य हुआ है, इसलिए तुम्हें अपार आनंद होगा और आजका दिन तुम्हारे लिए सुनहरी अक्षरों में लिखने योग्य साबित होगा । अस्तु, श्रीवीर संवत् २४३५ श्रीआत्म संवत १४ विक्रम संवत (गुजराती) १९६५ जेठ सुदी ८ गुरुवार ।" यह फैसला गुजराती भाषामें लिखा गया है और इसके अंतमें हमारे चरित्र नायककी सही है । ___ यह फैसला ऐसा हुआ कि इससे किसीको किसी तरहकी शिकायत न रही । बड़े आनंदके साथ इसका स्वागत किया गया और सभी पक्षवालोंने परस्परमें गले मिलकर इसको आचरणीय स्वरूप दे दिया। स्वर्गीय आत्मारामजी महाराजकी वह अवसान तिथि थी इस लिए उत्सव हो रहा था। इस फैसलेसे उत्सवमें दुगनी शोभा बढ़ गई। उस दिन जब आप शामको प्रतिक्रमण कर चुके तब श्रीसंघने वहीं चौमासा करनेकी अर्ज की। आपने पालीतानेमें चौमासा करनेका इरादा बताया । श्रीसंघ वहीं डटकरके बैठ गया कि जब तक आप चौमासा यहीं करनेकी स्वीकारता न देंगे हम यहाँ से न उठेंगे... आये हैं तेरे दरपे तो कुछ करके हटेंगे । या वस्लही हो जायगी या मरके हटेंगे । आप इन्कार करते थे । श्रावक हाँ कहलानेके लिए डटे हुए थे। इसी 'हाँ' 'ना' में रात आधीसे भी ज्यादा बीत गई । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आदर्श जीवन । उस समय गोदडशाह नामक एक भाग्यवान श्रावकने, आग्रह और भक्ति विकपित कंठसे कहा: " महाराज साहब ! आप कृपा किजिए और श्रीसंघकी विनती स्वीकार कर लीजिए । मेरा अन्तरात्मा कहता है कि, आपके यहाँ विराजनेसे अनेक उपकार होंगे। यदि आप चौमासा करना इसी वक्त स्वीकार कर लें तो मैं अपना मकानजो इसी धर्मशालाके मैदानमें सामने दिखाई दे रहा है-देनेको तैयार हूँ।" वहाँ बैठे हुए सभी श्रावकोंके शरीरमें मानों बिजली दौड़ गई । उन्होंने उच्चस्वरसे कहा:-" गुरु महाराज ! आप इस प्रतिज्ञाको साधारण न समझिए । इस प्रतिज्ञाकी पूर्तिसे संघकी इज्जत बढ़ेगी और धर्मशाला वास्तविक धर्मशाला बन जायगी। इस मकानके बिना यह धर्मशाला एक कौड़ीके कामकी भी नहीं है । इस मकान के लिए मुकदमें हुए, संघ दस हजार देनेको तैयार हुआ और अन्तमें संघ बाहर कर देनेकी धमकी भी गोदड़शाहको दी गई। मगर इन्होंने एक भी बात न मानी । आज ये भाई गुरु महाराजके और आपके पुण्य प्रतापसे, विना ही किसीकी प्रेरणाके उसी मकानको देनेके लिए तैयार हैं। आप ज्ञानी हैं लाभालाभको विचार लें। इस मकानका धर्मशालाके लिए मिलना मानों एक बहुत बड़े कामका सिद्ध होना है।" गोदड़शाहकी उदारता और श्रावकोंका आग्रह देख, साथके Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २०७ साधुओंकी सम्मति ले आपने पालनपुरहीमें चौमासा करनेकी सम्मति दे दी। ... वह कौनसा उकंदा है जो वो हो नहीं सकता ? हिम्मत करे इन्सान तो क्या हो नहीं सकता ? श्रावकोंकी इच्छा पूर्ण हुई। वे जयजयकार करते हुए अपने अपने घर जाकर मीठी नांदमें सोये । आपने भी आराम किया। - सवेरे ही आपने मुनि श्रीमोतीविजयजीको एक पत्र दिया। उसमें पालनपुरका हाल दरज कर उन्हें वापिस आनेके लिए लिखा था। वे उस समय ऊँझामें थे। ऊँझाके श्रीसंघको ये समाचार मिले । उसने उनसे ऊँझामें ही चौमासा करनेकी विनती की। उन्होंने आपकी आज्ञा लानेके लिए कहा। इस पर वहाँके कुछ मुखिया पालनपुरमें आपके पास गये । यद्यपि आप चाहते थे कि, सभीका चौमासा साथ ही हो, मगर श्रीसंघका आग्रह देखकर आपको इजाजत देनी पड़ी। खीमचंदभाई आदि बड़ोदेके जो सज्जन हमारे चरित्रनायकको विहार करानेके लिए ठहरे हुए थे, पालनपुरमें यह उत्साह और यह लाभ देख, वंदना कर चले गये। __ चौमासा जब पालनपुरहीमें स्थिर हो गया तब आपने मुनि श्रीललितविजयजी महाराजको, विज्ञानविजयजी, विबुधविजयजी, तिलकविजयजी, विद्याविजयजी और विचारविज १ कठिन प्रश्न, गाँठ; 2-हल होना, खुलना; Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | यजीका माँडलिया योगोद्वहन करानेके लिए, पाँचोंके साथ महेसाने पंन्यासजी श्रीसिद्धिविजयजी महाराजके पास भेजा। पाँचों मुनिराजोंकी बड़ी दीक्षा कराकर मुनि श्रीललितविजयजी वापिस आपकी सेवामें आ गये । आपके बड़े शिष्य मुनि श्रीविवेकविजयजी महाराज भी अपने शिष्य उमंगविजयजी सहित आपकी सेवामें पालनपुर आ गये । सारे शहरमें आनंद ही आनंद छा रहा था । इस आनंदमें अभिवृद्धि करनेवाली एक बात और हुई । कलकत्तेसे बाबू भँवरसिंहजी, दिल्लीनिवासी लाला दलेलसिंहजीके साथ दीक्षा लेनेकी गरजसे आपके पास आये | आपने उसी समय उनकी माताके पास मुर्शिदाबाद तार दिया कि, भँवरसिंह यहाँ दीक्षा लेनेके लिए आया हुआ है । आपकाआपका ही नही स्वर्गीय महाराज श्री आत्मारामजी महाराजके संघाड़ेके प्रायः सभी साधुओंका - यह दस्तूर है कि, जब कोई सज्जन आपके पास दीक्षा लेने आते हैं आप तत्काल ही उनके वारिसों को सूचना दे देते हैं । जब उनके वारिस आते हैं तब दीक्षा लेनेके अभिलाषीको उनके सिपुर्द कर देते हैं और उनसे कह देते हैं कि, इनको समझाओ और पूछताछ कर लो। हम तुम्हारी आज्ञा के विना दीक्षा नहीं देंगे । जब उनके कुटुंबसे दीक्षा देनेकी इजाजत मिलती है तभी आप दीक्षा देते हैं । इससे दो लाभ होते हैं । एक तो दीक्षा लेनेवालेकी जाँच हो जाती है कि, वास्तवमें यह वैरागी २०८ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २०९ nnnnnnRNA है या नहीं दूसरे किसीको यह कहनेका मौका नहीं मिलता कि, महाराज झटसे हरेकको मूंड डालते हैं । अस्तु । ___ भँवरसिंहजीके भाई और उनकी माता पालनपुर आये। उन्होंने भँवरसिंहनीको बहुत समझाया मगर उनका मन तो दृढ था। वे एकके दो न हुए । आखिर हार कर उनके बड़े भाई तो चले गये । उनकी माताने हर्षविषादपूर्ण हृदयके साथ उन्हें आज्ञा दी । हर्ष इसलिए था कि, आज उनका लाल संसारका त्याग कर स्वपर कल्याणमें लीन होता है । विषाद इसलिए था कि आज उनका लाल उन्हें छोड़ रहा है । भँवरलालजीकी माता और उनके दो छोटे भाई दीक्षा होने तक पालनपुरहीमें रहे । दीक्षा-महोत्सव बड़े ठाटसे हुआ। सं० १९६६ के आषाढ़ सुदिमें दीक्षा हुई। नाम विचक्षणविजयजी रक्खा गया । हमारे चरित्रनायकके शिष्य हुए। दीक्षाके समय पालनपुरके नवाब साहब भी आये थे। उन्होंने भँवरलालजीकी मातासे कहा:--" तुम्हारा लड़का फकीर होता है। तुम्हें इसका कुछ दुःख नहीं है।" उनकी माताने जवाब दिया:-" इसमें दुःख काहेका है ? मुझे इस बातकी खुशी है कि मेरा बेटा आज प्रभुके चरणों में लीन हुआ है और उसने इस असार संसारको छोड़ दिया है।" . नवाब साहबको खुशी हुई । उन्होंने भी उल्लासके साथ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आदर्श जीवन । mmmmmmmmmmmmmmmmmwww श्रावकोंके साथ, नव दीक्षित पर वासक्षेप मिश्रित चावल डाले। आप नित्य व्याख्यान वाँचते थे और उसमें हमेशा इस बात पर जोर दिया करते थे कि___ 'पहले ज्ञान और पीछे किरिया, नहिं कोई ज्ञानसमान रे।' समाजमें ज्ञानका कितना अभाव हो रहा है ? ज्ञानके विना आज प्राचीन जैनधर्मकी कैसी हालत हो रही है ? करोड़ों मनुष्य जिस धमके अनुयायी थे उसी धर्मके आज सिर्फ लाखों अनुयायी ही रह गये हैं। इसका मुख्य कारण है ज्ञानका अभाव । ज्ञानके विना ही धर्मकी बाढ रुक गई है; उदार जैनधर्मके अनुयायी आज संकीर्ण हृदयवाले हो गये हैं। उनकी दूसरोंको अपने धर्ममें मिलानेकी शक्ति नष्ट हो गई है। आदि । संघ पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा और एक दिन उसने 'आत्मवल्लभ केलवणी फंड ' स्थापित किया । पचीस हजार रुपये उसी दिन वहाँ जमा हो गये । आज वह फंड धीरे धीरे बढ़ कर करीब नव्वे हजार का हो गया है। अनेक विद्यार्थी आज इससे लाभ उठा रहे हैं। पालनपुरमें कई रिवाज भी सुधरे । वहाँ जब कोई अठाई ( आठ दिनके व्रत ) करता था तब उसको बिरादरीका एक भारी टेक्स भरना पड़ता था; अर्थात् उसे जाति भोज देना पड़ता था। जातिभोजके खर्चेके डरसे अनेक साधारण स्थितिवाले अठाई जैसे महान तपके करनेसे वंचित रहते थे। आपने उपदेश देकर यह जातिभो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । जका टेक्स बंद करवाया । धनवान लोगों के लिए यह नियम हो गया कि, वे चाहें तो सधर्मीवात्सल्य करें। इस टेक्सके हट जाने पर उस चौमासेमें पालनपुरमें अनेक अठाइयाँ हुई । चौमासा समाप्त होनेमें कुछ ही दिन बाकी थे तब दानवीर, ब्रह्मचर्यव्रत धारी सेठ मोतीलाल मूलजी आपके दर्शन करने के लिए, राधनरपुसे आये । उनका विचार श्रीसिद्धाचलजीका संघ निकालनेका था । उसमें शामिल होनेके लिए उन्होंने आपसे प्रार्थना की । आपके साथ सेठ मोतीलालजीका भाईकासा संबंध था । राधनपुरमें जब आप दीक्षा लेनेसे पहले और पीछेसे भी गुरु महाराज श्रीहर्षविजयजीके पास अध्ययन करते थे तब सेठ मोतीलालजी भी उन्हीं सद्गुरुके चरणकमलमें बैठकर आपके साथ ही अध्ययन करते थे। दोनोंका, एक गुरुके शिष्य होनेसे, इतना अधिक स्नेह था कि, यथासाध्य दोनों साथ ही रहते और अध्ययनके समय एक यदि गुरु महाराजके दाहिनी तरफ बैठते थे तो दूसरे बाईं तरफ़ । इस लिए यदि आपकी इच्छा न होती तो भी संघमें जाना स्वीकारना पड़ता; परन्तु यहाँ तो साथ साधुओंकी इच्छानुसार आप पहलेहीसे दादाकी यात्रा करनेके लिए इच्छुक थे, इस लिए संघके साथ चलनेकी सेठ मोतीलालजीकी विनतीको तत्काल ही स्वीकार कर लिया । सेठ प्रसन्न होते हुए चले गये । इस चौमासेमें आपके साथ ( १ ) तपस्वीजी महाराज २११ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । श्रीविवेकविजयजी ( २ ) मुनि श्रीललितविजयजी ( ३ ) मुनि श्री लावण्यविजयजी ( ४ ) मुनि श्री सोहनविजयजी ( ५ ) मुनि श्रीविमलविजयजी ( ६ ) मुनि श्रीउमंगविजयजी ( ७ ) मुनि श्रीविज्ञानविजयजी ( ८ ) मुनि श्रीविबुधविजयजी ( ९ ) मुनि श्रीतिलकविजयजी (१०) मुनि श्रीविद्याविजयजी ( ११ ) मुनि श्रीविचारविजयजी और (१२) मुनि श्रीविचक्षण विजयजी ऐसे बारह साधु थे । २१२ चौमासा समाप्त होने पर बड़ोदानिवासी श्रावक नाथालालपटेलको दीक्षा दी गई । यह शाह खीमचंद दीपचंद के साथ आया था । सं० १९६६ के मगसर ( गुजराती कार्त्तिक ) वदि दूजके दिन दीक्षा हुई । नाम मित्रविजयजी और महाराज श्री सोहनविजयजीके शिष्य हुए। आपने १३ साधुओंके साथ पालनपुरसे विहार किया । ग्रामानुग्राम लोगोंको उपदेशामृत पान कराते हुए आप मेत्राणा श्री ऋषभदेवजी तीर्थ पधारे । वहाँ तीर्थवंदना की । ऊँझासे विहार करके मुनि श्रीमतीविजयजी महाराज भी संघ सहित वहाँ पधार गये । ऊँझाका संघ आपके दर्शन और तीर्थयात्रा कर पुनः ऊँझा चला गया | आप विहार करके पंद्रह साधुओं सहित पाटन पहुँचे । बड़ी धूमसे आपका स्वागत हुआ । सारे शहरमें जुलूस घूमा | आप थोड़े दिन तक वहाँ रहे और धर्मोपदेशरूपी अमृत पिलाकर वहाँकी जनताको कृत कृत्य किया । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २१३ वहाँके लोगोंका बहुत आग्रह होने पर भी आप विशेष समयतक वहाँ न रह सके । क्योंकि आपने सेठ मोतीलाल मूलजीको उनके संघमें शामिल होनेका वचन दे दिया था। और संघके रवाना होनेका मुहूर्त निकट था । पाटनसे विहार करके आप राधनपुर पहुँचे । राधनपुरमें उस समय जो उत्साह और आनंद था वह वर्णनातीत है । राधनपुरको इस बातका अभिमान था कि, जिस महान आत्माको उसने हजारों खर्च करके दीक्षित कराया था वह आज जैनसंघके आकाशमें सूर्यकी तरह प्रकाशित हो रहा है। जिस महान आत्मासे उसने आशा की थी कि, वह जैन धर्मकी जयपताका फर्रायगा, उस आत्माने उसकी वह अभिलाषा पूरी की है । जिस महान आत्माको उसने यौवनके उषः कालमें; वासनाओंसे परिपूर्ण प्रभातमें, संयमके समान अमूल्य रत्न देकर उसकी रक्षा करनेके लिए, सहस्रावधि प्रलोभन रूपी लुटेरोंके बीचमें छोड़ दिया था, वही महान् आत्मा विजयी वीरकी भाँति बाईस बरसके बाद संयमरत्नको सुरक्षित लेकर वापिस आया। ऐसे मौके पर राधनपुरवालोंका उत्साहित एवं आनंदित होना स्वाभाविक था । घर घर बाँदनवार बँधे। सारे संघमें आनंद ही आनंद छा रहा। सं० १९६६ के मिगसर सुदी द्वितीयाके दिन संघ जुलूसके साथ रवाना हुआ। और श्रीसंखेश्वर पार्श्वनाथ पहुँचा । तीन दिन तक वहीं रहा । पूजा प्रभावनाएँ हुई । यहाँ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । स्वर्गवासी शांतमूर्त्ति तपस्वीजी महाराज श्री १०८ श्रीथोभणविजयजी महाराजके शिष्य श्री १०८ श्रीगुणविजयजी आ मिले । संखेश्वर पार्श्वनाथ से रवाना होकर संघ दसाडा होता हुआ माँडल पहुँचा | मॉडलमें संघके आने से और उसमें आपके समान उपदेशामृतकी वर्षा करनेवाले महात्मा के विराजनेसे संघका हृदय उल्लास समुद्रमें झकोरे खाने लगा । उसने यथोचित संघका आदर-आतिथ्य किया और संघपति सेठ मोतीलाल मूलजीको एक मानपत्र दिया । जबतक संघ रहा आप वहाँ हमेशा व्याख्यान देते रहे और व्याख्यानमें हजारों जैन अजैन आते रहे । यहाँ आपके साथमें पंन्यासजी महाराज श्रीसुंदरविजयजी के शिष्य श्रीजिन विजयजी आ मिले । इस तरह आपके साथ सहत्र भेदी संयमके समान १७ संयमी - साधुसंमिलित हुए। संघ मॉडलसे रवाना होकर ऊपरियाला तीर्थ, पाटडी, लखतर, वढवाण और लीमड़ी होता हुआ चूडाराणपुर पहुँचा । वहाँ पंजाबका संघ भी पहुँच गया । पंजाबका संघ श्री आबू, भोयणी आदि तीर्थोंकी यात्रा करता हुआ खास कर हमारे चरित्रनायकके दर्शनार्थ चूडाराणपुरमें पहुँचा था और सिद्धाचलजी तक राधनपुरके संघके साथ ही रहा । बड़ी दर्बारको जब संघके आनेके समाचार मिले तब उन्होंने कहला भेजा कि मुझे दर्शन दिये विना संघ रवाना न हो । मैं सवेरे ही संघका और संघके साथ आये हुए मुनि २१४ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । __२१५ nARAN AARAARAMARAVAARAAAAAAAAAAAmar महाराजोंके दर्शनका लाभ उठाऊँगा । यदि संघमें पधारे हुए पंजाबके मुनि महाराजका-जिन्हें खास आमंत्रण देकर संघपति लाये हैं-व्याख्यान होगा तो मैं उसका लाभ भी लेना चाहता हूँ । इस लिए सूचना दीजिए कि, व्याख्यान सवेरे कितने बजे होगा और कहाँ होगा ? __ यद्यपि संघ वहाँ एक ही दिन ठहरना चाहता था तथापि दर्बारके आग्रहसे उसे एक दिन अधिक ठहरना पड़ा । दोरको सादर संघपतिने कहलाया कि, आपकी इच्छाको मान देकर संघने कल और ठहरनेका निश्चय किया है । संघ और मुनि महाराज पूरबाईकी धर्मशालामें ठहरे हुए हैं और वहीं गुरु दयाल सवेरे आठ बजे व्याख्यान भी करेंगे। ठीक व्याख्यान प्रारंभ होनेके समय ही दर्बार सपरिवार आ गये थे । डेढ़ घंटे तक हमारे चरित्रनायकने देवादि तत्त्वके स्वरूपका निष्पक्ष वर्णन किया। उसे सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए और उत्साह पूर्वक हाथ जोड़कर बोले:--" आपका व्याख्यान सुनकर मुझे बड़ा ही आनंद हुआ । मैंने सुना था कि आप स्वर्गवासी आत्मारामजी महाराजके सहवासमें रहकर उत्तीर्ण हुए हैं। आज मैंने जैसा आपको सुना था वैसा ही बल्के उससे भी बढ़कर आपको देखा । आपके वचनामृतका पान करनेकी मेरी अधिक इच्छा थी; परन्तु आप इस समय संघके साथमें हैं इस लिए कुछ विशेष अज नहीं कर सकता; मगर जब आप वापिस पधारें तब आठ दस दिनतक यहाँ विराजकर अवश्यमेव हमें लाभ पहुँचावें ।" Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आपने फ़र्मायाः - " अगर इधरसे आना हुआ तो अवश्यमेव आपकी इच्छा पूरी की जायगी । " दर्बार फिर वंदना कर रवाना हुए । संघपति सेठ मोतीलालजीने दर्बारकी खातिरके लिए दूसरी जगह प्रबंध किया था । वहाँ उनका योग्य सत्कार किया गया । २१६ वहाँसे रवाना होकर संघ बोटाद पहुँचा । जिस दिन आपने बोटाद में प्रवेश किया वह दिन बोटाद के लिए चिरस्मरणीय रहेगा । कारण, बोटाद के श्रीसंघको कहींसे एक प्राचीन जिनबिंब प्राप्त हुआ था। श्रीसंघ धूमधामके साथ जिनबिंबको शहरमें लाकर गद्दीपर बिठाना चाहता था परन्तु स्थानकवासियों के साथ अमुक प्रकारके प्रतिबंध होनेसे उनके मनमें आशंका थी । श्रसिंघ मुखियोंने आपसे आकर प्रार्थना की । आपने उनको हिम्मत बँधाई और कहा, " तुम कुछ चिन्ता न करो । शासनदेव अपनी सहायता करेंगे । संघके सामैयेके साथ ही अपनी मर्यादानुसार कार्य करो। " बोटाद श्रीसंघका हौंसला बढ़ गया । उसने समारोहके साथ प्रभुका, पालखीमें बिराजमानकर, प्रवेश कराया और फिर मंदिरजीमें प्रभुको विराजमान कर दिया । वहाँके लोग कहते हैं कि, जिस समय हम प्रभुके दर्शनार्थ जाते हैं उसी समय हमें महाराज साहब वल्लभविजयजी याद आ जाते हैं । बोटाद से रवाना होकर संघ लाठीधर पहुँचा । वहाँ पंजाबके संघने राधनपुरके संघको प्रीति भोजन दिया । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । लाठीधरसे रवाना होकर पछेगाम, वला आदि गाँवोंमे होता हुआ संघ सं० १९६६ के पोससुदी १० के दिन पालीताने पहुँचा । पालीतानेके श्रीसंघने बड़े समारोहके साथ संघका स्वागत किया । दूसरे दिन शुक्रवार एकादशीके सिद्धियोगमें संघने आनंदपूर्वक दादाकी यात्रा की । उस समय आपने भक्तिभरे हृदयके साथ दादा के गुणगान किये थे । वह स्तुति यहाँ दी जाती है । ( चाल - वारी जाऊँरे साँवरिया । ) दादा आदीश्वर प्रभुजी, मोहे तारनारे, पार उतारनारे || शत्रुंजय मंडन जगस्वामी, अघखंडन पद आतमरामी । अर्ज करी माँगूँ शिवगामी, आवागमन निवारनारे ॥ दा० ॥ १ ॥ जगतारक अहारक नामी, टारक मदनके अन्तर्यामी । पूर्णानंद सुधाके धामी, तारक विरुद्ध सँभारनारे ॥ दा० ॥ २ ॥ अपने जन सब तुमने तारे, सेवक तुमरा अर्जगुजारे । तारक सेवक विरुद पुकारे, गुण अवगुण न विचारनारे || दा० ॥ ३ ॥ श्रीसिद्धाचल सिद्ध अनंता, कर्म खपा सब हुए भगवंता । जयजय ऐसे संतमहंता, बलिहारी जाऊँ वारनारे ॥ दा० ॥ ४ ॥ सेवक करुणा कीजे दाता, दीजे प्रभुजी शिवसुख साता । तुम बिन और कोई नहीं त्राता, तारो करो मुझ सारनारे ॥ दा० ॥ ५ ॥ सूरि जिनवर वीरके ( २४३६ ) साले, ओगणी छासठ विक्रम काले । आतम पूर्व पोष उजियाले, रुद्रं तिथि कवि वारनारे ॥ दा० ॥ ६ ॥ पुण्य उदय प्रभु दर्शन पायो, वल्लभ आतम अति हर्षायो । राधनपुरसे संघ में आयो, सेठजी मोतीलालनारे ॥ दा० ॥ ७ ॥ २१७ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | संघमें सब मिलाकर सोलह सौ मनुष्य थे । राधनपुरसे पालीताने पहुँचने में संघको एक महीना और कुछ दिन लगे थे । संघपति दानवीर मोतीलाल मूलजीने उस मौके पर आपके समक्ष तीर्थमाला स्वीकार की थी । पालीतानेसे संघ लौट गया और आप एक महीनेतक वहीं रहे । ऊँझासे मुनि श्रीमतीविजयजी महाराजके साथ एक सज्जन दीक्षालेनेके लिए आये थे, उन्हें उनके पिताजीके समक्ष श्रीसिद्धाचलजीकी तलहटीमें आपने सं० १९६६ के माघ सुदी ५ के दिन दीक्षा दी । २१८ मासकल्प समाप्त होने पर आप विहार करके भावनगर पधारे । वहाँ मुनि श्रीमित्रविजयजी और मुनि श्रीउदयविजयजीकी, बड़ी दीक्षा श्रीबालब्रह्मचारी पंन्यासजी श्रीकमलविजयजी महाराजके हाथसे हुई । एक महीने तक आपने वहाँके लोगोंको सुधापान कराया । अठाई महोत्सव आदि अनेक धार्मिक कार्य हुए । भावनगर से आप घोघा बंदर पधारे । वहाँ श्रीनवखंडा पार्श्वनाथकी यात्रा की । वहाँ से विहार करके वरतेज होते हुए आप सिहोर पधारे । समारोह के साथ आपका नगरप्रवेश हुआ । वहाँके लोगोंने उपदेशामृतका पान कर तृप्ति लाभ की । मुनि श्री मूलचंदजी महाराजके बड़े शिष्य १०८ श्रीगुलावविजयजी उस समय वहीं विराजमान थे। उनके दर्शन कर आप बहुत प्रसन्न हुए । तीन दिन तक आपने वहाँ निवास किया । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। सीहोरसे विहार करके आप वले पधारे । वहाँ तप गच्छ और लौंका गच्छवालोंमें कुछ तनाजा था । उसको मिटानेके लिए आप थोड़े दिनतक वहीं ठहर गये । धोलेराके श्रावकोंने आकर धोलेराको पवित्र करनेके लिए आपसे बड़े आग्रहके साथ विनती की। वलाका झगड़ा मिटाना भी जरूरी था । इस लिए आप दो तीन साधुओंके साथ वहीं रहे और अन्य साधुओंको धोलेराकी तरफ विहार करा दिया । बड़े परिश्रमके बाद आप वलाका तनाजा मिटा सके। - वलासे विहार करके आप धोलेरा पहुँचे । धोलेराके संघमें एक अपूर्व उत्साह था। न केवल श्रावक ही बल्के अन्यान्य धर्मावलंबी भी आपके वचनामृतका पान करनेके लिए बड़े व्याकुल हो रहे थे । आपके स्वागतके उपलक्षमें सारा शहर सजाया गया था । करीब ग्यारह दर्वाजे तैयार किये गये । मुसलमान और हिन्दु भाइयोंने भी इसमें सहायता दी थी। बाजारका श्रृंगार अपनी शोभा निराली ही रखता था । शहरके बाहरसे ही जूलूस शुरू हुआ था । बेंड बाजोंकी मधुर झन्कार और भजन मंडलियोंकी सुरीली तानोंसे सारा शहर मुखरित हो रहा था । बीचबीचमें ' आत्मारामजी महाराजकी जय' 'वल्लभविजयजी महाराजकी जयके नादसे सारा शहर गूंज उठता था। श्राविकाओंकी भक्तिरस परिपूर्ण गहुलियाँ अपनी जुदा ही फबन रखती थीं। जब जुलूस उपाश्रयमें पहुँचा और आपने पाट पर विराजकर उपदेश Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आदर्श जीवन। दिया तब सब वाह वाह करने लगे । सार्वभौम जनधर्मका उपदेश सुनकर सभी कहने लगे, हमने अपनी उम्रमें ऐसा उपदेश आज पहले ही सुना है और इस शहरने सबसे 'पहले आपहीका ऐसा स्वागत किया है । अठाई महोत्सव पूजा प्रभावनादि अनेक धर्मकाये हुए । जब तक आप वहाँ रहे हमेशा उपदेशामृतकी वर्षा करते रहे । अनेक अजैन और जैन उस अमृतको पीकर तृप्त होते रहे। धोलेरासे विहार करके आप खंभात पहुँचे । सेठ पोपट भाई अमरचंद आदि खंभातके श्रीसंघने आपका आशातीत स्वागत किया । आपने भी आठ दिन वहाँ रह, उनके आत्माको उपदेशामृत पिलाकर तृप्त किया । पोपटभाईने पाली तानेमें आपको टोपी पहने स्वर्गीय आचार्य महाराजके साथ सं० १९४३ में जब उनका चौमासा पालीतानेमें था, देखा था । तेईस बरसमें परिवर्तित अपूर्व रूप देखकर पोपटभाईकी आँखोंसे हर्षाश्रु बहने लगे । इक्कीस बरस पहले जो एक साधारण भाविक आत्मा था वही आज एक महापुरुष है, यह देख कर उन्हें आल्हाद हुआ । इस विचारने उन्हें परम संतुष्ट किया कि आत्माओंको ऐसे महान जैन धर्म ही बना सकता है । उन्होंने संघको इकट्ठाकर आपसे वहीं चौमासा करनेकी विनती की; परन्तु क्षेत्रस्पर्शना वहाँ की न थी, इस लिए आप वहाँ चौमासा न कर सके । कारण, खीमचंद भाई और बड़ोदेके दूसरे श्रावक आपसे बड़ोदेमें चौमासा करनेकी Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | विनती करने आये थे; अमृतसरसे ही बड़ोदेका संघ आपसे विनती कर रहा था इस लिए आपने उनकी विनतीको: स्वीकार कर लिया । खंभातसे विहार करके आप नार, पेटलाद, बोरसद, छानी, होते हुए और लोगोंको उपदेशामृत पिलाते हुए सं. १९६७ का चौबीसवाँ चौमासा करनेके लिए बड़ोदे पधारे । बड़ोदावालों के दिलोंमें बड़ा उत्साह था, बड़ा अभिमान था कि आज उन्हींके शहरका एक बच्चा, वह बच्चा जिसने बड़ोदेके अंदर सूर्यके प्रथम दर्शन किये थे, जिसका शरीर बड़ोदेके अन्नजलसे परिपुष्ट हुआ था और जिसको बड़ोदेने पाल पोसकर बड़ा किया था, वही बड़ोदेका बच्चा आज महात्मा होकर, समस्त पंजाब, राजपूताना तथा काठियावाड़ में अपने नामका डंका बजाता, अपने गुरुकी जयध्वनिसे आकाशमंडलको गुँजवाता, जैनधर्मकी ध्वजापताका फर्राता और अपने मातापिताको धन्य धन्य कहलाता हुआ, वापिस बड़ोदे में आया है । खीमचंद भाईके आनंदकी तो सीमा ही नहीं थी । सं० १९६७ के वैशाख सुदी १०. गुरुवार के दिन बड़े समारोहके साथ आपका प्रवेश महोत्सव हुआ । कालंकी बलिहारी है । एक दिन वह था कि, आप इसी बड़ोदसे छिपकर भागते थे, एक दिन ऐसा आया - कि, बड़े उत्साहके साथ बड़ोदेने आपको सिर आँखोंपर उठा लिया । इसको देवगुरुकी कृपा कहिए, भाग्योदय कहिए या २२१ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। और किसी नामसे पुकारिए । भक्त प्रवर तुलसीदासजीने ठीक ही कहा है___ मूकं करोति वाचालं, पॉलङ्घयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वंदे, परमानंदमाधवम् ॥ उस साल आपके साथ निम्न लिखित उन्नीस साधु थे १ मुनि श्रीमोतीविजयजी, २ मुनि श्रीगुणविजयजी, ३ मुनि श्री विवेकविजयजी, ४ मुनि श्रीरूपविजयजी, ५ मुनि श्रीउत्तमविजयजी, ६ मुनि श्रीललितविजयजी, ७ मुनि श्रीलावण्यविजयजी, ८ मुनि श्रीसोहनविजयजी, ९ मुनि श्रीविमलविजयजी, १० मुनि श्रीउमंगविजयजी, ११ मुनि श्रीजिनविजयजी, १२ मुनि श्रीविज्ञानविजयजी, १३ मुनि श्रीविबुधविजयजी, १४ मुनि श्रीतिलकविजयजी, १५ मुनि श्रीविद्याविजयजी, १६ मुनि श्रीविचारविजयजी १७ मुनि श्रीविचक्षणविजयजी, १८ मुनि श्रीमित्रविजयजी, १९ मुनि श्रीउदयविजयजी। __ इनमेंसे मुनि श्रीमोतीविजयजी आपके गुरुभ्राता थे, मुनि श्रीउत्तमविजयजी मुनि श्रीमोतीविजयजीके शिष्य; श्री उदयविजयजी श्रीउत्तमविजयजीके शिष्य, श्रीगुणविजयजी स्वर्गीय श्रीथोभणविजयजी महाराजके शिष्य; मुनि श्रीरूपविजयजी उपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयजीके शिष्य; मुनि १-जिसकी कृपासे गूंगा वाचाल हो जाता है और पागला गिरिको-पवर्तको लाँघ जाता है मैं उस परमानंद स्वरूप परमात्माको नमस्कार करता हूँ। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २२३ ५.JNANAIN M a.. .U NN... श्रीलावण्यविजयजी आचार्य महाराज १०८ श्रीविजयकमलसूरि जीके शिष्य और मुनि श्रीजिनीवजयजी पंन्यासजी महाराज श्रीसुंदरविजयजीके शिष्य थे; बाकी आपहीका, शिष्य प्रशिष्यादि, परिवार था । बड़े योगमें प्रवेश कराया । पालनपुरकी तरह बड़ोदेमें भी अठाई करनेवाले पर जातिभोजका टेक्स था । वह आपके उपदेशसे बंद हो गया। पर्युषणपर्वमें श्रीमहा वीर स्वामीके जन्म-महिमावाले दिन, कोठीपोलकी रहनेवाली श्रीमती प्रधानबाईकी तरफसे हर साल नोकारसी होती थी। उसमें संबजी काममें लाई जाती थी। आपके उपदेशसे उसका इस्तेमाल-उपयोग बंद हुआ। आपके व्याख्यानोंकी तो बड़ी धूम थी। जिन्होंने आपकी बचपनमें कर्णमधुर तोतली बोली सुनकर जितनी प्रसन्नता लाभ की थी, वे ही अब आपकी कर्णमधुर, हृदयमें धर्मज्योति जगानेवाली, ज्ञानगंभीर वाणी सुनकर दंग रह जाते थे और उससे सौगुनी प्रसन्नता एवं तृप्ति लाभ करते थे । चौमासा बड़े आनंदसे समाप्त हुआ। - इस चौमासेमें खीमचंद भाईने सोचा,-यदि छगन दीक्षित न हुआ होता और विवाह-शादीका प्रसंग आता तो मुझे उस समय उचित खर्च करना ही पड़ता, तब इस समय भी मैं, छगनके, नहीं मेरे कुलदीपकके, वल्लभविजयजी महाराजके यहाँ विराजते हुए, इनके दर्शनार्थ जो भाई बहिन आवें उनकी यथाशक्ति सेवाभक्ति करके सधर्मीवात्सल्यका लाभ क्यों न उठाऊँ ? संघके सामने उन्होंने अपनी इच्छा Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आदर्श जीवन । प्रकट की । संघने एकहीके सिरपर बोझा डालना अनुचित समझा; क्योंकि ऐसा करनेसे प्रचलित मर्यादामें वाधा पड़ती थी और यह बाधा भविष्यमें कठिनता उपस्थित कर सकती थी । संघने उनकी विनती अस्वीकार की । इससे उनको दुःख हुआ। उन्होंने कुछ देरके बाद श्रीसंघसे विनती की," यदि संघ इस प्रार्थनाको स्वीकार नहीं कर सकता है तो इतनी कृपा तो अवश्य करे कि, पंजाबसे जो भाई बहिन दर्शनार्थ आवें उनकी सेवाभक्तिका कार्य तो मुझे सौंप दे।" __श्रीसंघने यह बात सानंद स्वीकार कर ली। खीमचंद भाईने बड़े उत्साह और आनंदके साथ, पंजाबी भाई बहिनों की, तन, मन और धनसे सेवा की। आप पंजाबके प्यारे हैं, पंजाबसे आये आपको दो बरस बीत चुके थे, तीर्थयात्राका भी कार्य गुरुदर्शनके साथ ही हो सकता था और गुरुका गृहस्थ घर देखनेकी इच्छासे भी इस साल पंजाबी अधिक संख्यामें आये थे । उनके लिए बड़ोदा और आपका ( खीमचंद भाईका ) घर तीर्थरूप हो गया था। खीमचंद भाईने ऐसी भक्ति की कि पंजाब आज भी उसे स्मरण करता है और अनुकरणीय समझता है । - चौमासा समाप्त होने पर शाह खीमचंद दीपचंद और शाह चुन्नीलाल त्रिभुवनदास-मामा भानेज दोनोंने मिलकर कावी व गंधारका संघ निकाला। पादरा,मासर होता हुआ संघ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २२५ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr कावी तीर्थ पर पहुँचा। यात्रा कर आपने संघके साथ परमानंद प्राप्त किया । यहाँ पर आपने इक्कीस प्रकारकी पूजा रची । यहाँ सास बहूके दो मंदिर हैं। वे बड़े ही सुंदर और आकर्षक हैं। तीन दिन वहाँ ठहरकर संघ रवाना हुआ और गंधार पहुचा। 'दिननके फेरतें सुमेरु होत माटीको' कविका यह कथन अक्षरशः गंधारके लिए चरितार्थ होता है। तीन सौ बरस पहले जिस गंधारमें लाखोंकी बस्ती थी उसीमें आज पचीस पचासकी बस्ती है । जिसमें हजारों मनोहर महल अटारियाँ थे उसीमें अब २०,२५ झोंपड़े रह गये हैं । जोस्थान सायंसंध्या मंदिरोंके घंट-नादसे मुखरित हो उठता था वहीं आज एक मंदिरका घंटा भी कठिनतासे बजता है । जिस गंधारको श्रहिरिविजय मूरिके समान प्रभावक पुरुषोंने कभी पावन किया था और उसमें दिव्य उपदेश दिया था एवं जिस उपदेशकी प्रतिध्वनि अकबरके समान महान सम्राट्के कानोंतक पहुँची थी वहीं आज मुनिराजोंके ठहरनेतकका ठोर ठिकाना नहीं है । आज गंधारका ध्वंसावशेषमात्र रह गया है; एक जिनालयमात्र वहाँ सिर ऊँचा किए गंधारकी प्राचीन स्मृतिको लेकर खड़ा है। ___ गंधारकी यात्रा करके संघ भरूच पहुँचा । भरूचवालोंने आपका बड़ा स्वागत किया । संघ यहाँसे बड़ोदे चला गया । आपने यहाँ पंन्यासजी श्रीसिद्धिविजयजी महाराजके दर्शनकर तृप्ति लाभ की। तीन रोजतक आप उन्हींकी सेवामें रहे। १५ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। भरूचसे विहार करके आप झगड़िया तीर्थपर पधारे। आपके साथ पंन्यासजी श्रीसिद्धिविजयजीके शिष्य मुनि श्रीमेघविजयजी भी झगड़ियाजी तक आये थे । यात्रा करके आपने सूरतकी तरफ़ विहार किया और वे वापिस भरुच चले गये। __ बड़े समारोहके साथ आपका सूरतमें नगर प्रवेश हुआ। करीब दो घंटे आप छापरियासेरीमें बिराजे । उसी समय प्रवतेकजी १०८श्रीकान्तिविजयजी महाराज और मुनि श्री १०८ श्री हंसविजयजी महाराज एवं पंन्यासजी श्री १०८ श्रीसंपत्तिविजयजी महाराज सपरिवार वहाँ पधारे । आपने तीनों महात्माओंके चरणकमलमें सादर वंदना करके अपने आपको धन्य माना। हमारे चरित्रनायक, कान्तिविजयजी महाराज और हंसविजयजी महाराज तीनों ही प्रभावक पुरुष हैं और तीनोंको ही अपनी गोदमें खिलानेका मान बड़ोदेको है । तीनों एक साथमें जब जुलूसके साथ रवाना हुए हैं उस समयका आनंद अद्वितीय था। लोगोंमें भी अभूतपूर्व उत्साह था। जुलूस जब गोपीपुरेमें पहुँचा तब उस समयमें पंन्यास और वर्तमानमें आचार्य श्री १०८ श्रीआनंदसागरजी महाराज एवं अन्यान्य साधु महात्मा भी-जो उस समय उस उपाश्रयमें विराजमान थे-शामिल हो गये। उस जुलूसमें करीब ४० साधु महाराज और करीब इतनी ही साध्वियाँजी महाराज थीं। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. आचार्य श्रीमद्विजयवल्लभ सृरिजी महाराज. मुनि श्री लावण्यविजय जी आदि साधुमंडलसहित ( मियागामयें ) पृ. २२७. मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवर्श जीवन। २२७ जिस जुलूसमें करीब अस्सी साधु साध्वियाँ हों उसमें श्रावक श्राविकाएँ कितने होंगे इसका अनुमान सहजहीमें किया जा सकता है। आप बड़े चोटेके उपाश्रयमें ठहरे । धर्मोपदेश दिया । यहाँ कुछ दिन रहनके बाद गोपीपुराके श्रावकोंकी विनतीसे आप मोहनलालजी महाराजके नामसे मशहूर गोपीपुराके उपाश्रयमें जाकर ठहरे । वहीं आपने पालीनिवासी-जो थोड़े बरसोंसे बड़ोदेहीमें आ रहे थे-सुखराजजीको सं० १९६७ के फागन वदि छठके दिन दीक्षा दी । नाम समुद्रविजयजी रक्खा । श्रीसोहनविजयजीके शिष्य हुए। सूरतसे, पालीताने चौमासा करनेके इरादेसे, आपने विहार किया। भावी प्रबल! आपको बीचहीमें रुकना पड़ा। मियागाँवमें आपका सं० १९६८ का पचीसवाँ चौमासा हुआ। मियागाँववालोंके और कठोरवालोंके आपसमें कुछ तनाजा था । उसको मिटानेके लिए आपने उपदेश दिया । मियागामवालोंने आपको न्यायाधीश नियतकर आपके फैसलेको स्वीकार करनेका सं० १९६८ के कार्तिक शुक्ला १३ के दिन एक प्रतिज्ञापत्र लिख दिया । तदनुसार आपने जो फैसला दिया वह यहाँ दिया जाता है वंदे वीरम्। (१) श्रीमह्मवीर स्वामी तथा श्रीगुरु महाराज श्रीमद्विजयानंदमूरि आत्मारामजी महाराजको नमस्कार करके प्रकट करता हूँ कि, आज चौमासी चौदस है । इस लिए किसी भी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आदर्श जीवन। तरहका वैर-विरोध यदि शान्त हो जाय तो चौमासी प्रतिक्रमण सफल हुआ माना जाय । (२) प्रति वर्ष पर्युषणके दिनोंमें वाँचा जाता है कि, उदायन राजाने, अपने अपराधीको राज्य देकरके भी जब चंडप्रद्योतने क्षमापना स्वीकार करी तभी उन्होंने अपना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण सफल माना। (३) इस झगड़ेमें तो ऐसी कोई बात नहीं है कि जिससे किसीको कुछ देना पड़े। केवल मानरूपी तलवारको म्यानमें रखनेहीका काम है । और वह दोनों पक्षोंके योग्य है । कारण यह झगड़ा दोनों तरफकी खींचतानके कारण ही जातिमें एक गड़बड़ी रूप हो गया है । आशा है कि उदायनराजाका दृष्टान्त ध्यानमें रख, दोनों पक्ष अपने मनको शान्त कर श्रीजिनेश्वर देवकी आज्ञाके आराधक बनेंगे। (४) मैं साधु कहलाता हूँ। जातिके झगड़ेमें हाथ डालना या उसमें किसी तरहका दखल देना साधुताको शोभा नहीं देता। मगर दीर्घ दृष्टिसे विचार करने पर अन्तमें, धर्मसंबंधी कार्यों में वाधा पड़नेकी संभावना देख, पारस्परिक वैर-विरोध कम हो इस हेतुसे और पंचोंकी तरफ़के नेता दस आदमियोंकीजिनका हस्ताक्षर युक्त इकरारनामा मेरे पास है-प्रबल इच्छा और प्रेरणासे, इस विषयको मुझे अपने हाथमें लेना पड़ा है। (५) यह बात निःसंदेह है कि जहाँ दो पक्ष होते हैं वहाँ फैसला देनेवालेका फैसला, दोनों पक्षोंकी धारणाके अनुसार Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । होना असंभव है । तो भी दोनों पक्ष उसको माननेकी प्रतिज्ञा कर लेते हैं इस लिए वह फैसला किसी दूसरे रूपमें उतर कम ज्यादा प्रमाणमें दोनों पक्षोंको संतोष देनेवाला होता है । इस विषयमें भी जहाँतक हो सका इसी तरह किया गया है । इस लिए आशा है कि दोनों पक्ष संतोष धारण कर क्षुद्र बातोंको अपने दिलों से निकाल देंगे। ___ (६) इसमें कोई शक नहीं है कि, वह आदमी जिसके लिए यह बखेड़ा खड़ा हुआ है वास्तवमें अपराधी है और सजाके लायक है । कारण दोनों पक्षोंकी तरफसे और चुने हुए आदमियोंकी बातोंसे-फिर वे चाहे कोई अपेक्षा ग्रहण करें-करनेवाले आदमीका कार्य अनुचित तो समझा जाता ही है। और जब अनुचित कार्य हो गया तब उसका करनेवाला अपराधी हो ही चुका । अपराधीको यथोचित दंड मिले यह एक प्रकारकी नीति ही है । मगर अपराधीके पुण्यबलसे आज पर्वका दिन आ गया है। (७) पर्वके दिन सजा पाये हुए अपराधियोंको मुक्त कर देना, ऐसा एक शास्त्रका नियम है। और उसके अनुसार श्रीहेमचंद्रसूरि महाराजके उपदेशसे महाराजा कुमारपालने और श्रीहीरविजयसूरि महाराजके उपदेशसे बादशाह अकबरने, जो कुछ किया, उसको सभी जैन जानते हैं । इस लिए आज पर्वके दिन अपराधीको किसी भी तरहकी सजा देना मैं उचित नहीं समझता, बल्के अपराधीको सजासे मुक्त करना उचित Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। समझता हूँ । और इसी लिए मैं अपराधीको मुक्त हुआ प्रकट करता हूँ। (८) अदालतको भी ऐसी सत्ता होती है कि अपराध साबित हो जाने पर भी यदि अदालतकी दयादृष्टि हो जाय तो वह अपराधीको अपराधकी क्षमा दे सकती है । (९) ऐसा होने पर भी अपराधी अपनी खुशीसे जाति भोज देनेको तैयार है । यह बात चुने हुए दस आदमियोंके कहनेसे मालूम होती है। इस लिए मैं इतना परिवर्तन करना उचित समझता हूँ कि दो की जगह एक ही जातिभोजसे सभी भाई सन्तुष्ट हों और दूसरे जातिभोजमें जितनी रकम खर्च होनेवाली हो उतनी रकम यदि श्रीसंभवनाथजीके मंदिरके जीर्णोद्धारमें दी जाय तो इह लोक और पर लोक दोनों साधे समझे जायँ । मगर इस कामको राजी खुशीका समझना चाहिए, किसी तरहकी सजा या दंडके रूपमें नहीं। (१०) बाइके भरणपोषणके लिए यदि वह अपनी भलाई समझ अपने पतिके और पंचायतके अनुसार वर्ताव करे तो उसका बंदोबस्त पंचायतको योग्य रीतिसे करना कराना चाहिए । इस कामको दोशी बृजलाल सेठ, कस्तूरचंद सेठ और जिणोरवाले बृजलाल दीपचंदको, अभी सौंपना योग्य मालूम होता है। क्योंकि तीनों व्यक्तियाँ वृद्ध हैं और जातिके रीतिरिवाजोंसे भली प्रकार परिचित हैं इस लिए कोई अनुचित कार्य नहीं करेंगे। मगर बाई यदि ऐसा न करे और Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन rapannamruinnarramanarmnannaamannaaa.... कोर्ट आदिकी शरण ले तो, फिर पंचायतको उसमें दखल देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। कोर्टकी इच्छा हो वैसा हुक्म करे। (११) छोकरा छोटा है इस लिए उसकी तरफ स्वभावतः सबका ध्यान जाता है। समय अपना काम किये जाता है। क्या होगा इस बातकी किसीको भी खबर नहीं है, तो भी पानीके पहले पाल बाँधना उचित ही मालूम होता है। यदि छोकरा अपने बापके पास रहे तो सौतेली माँ उसके साथ कैसा वर्ताव करेगी यह बात संदेहास्पद है। माँके पास रहनेपर, योग्य उम्रका होनेपर, किस रंगमें उतर जायगा सो कुछ कहा नहीं जा सकता। इस लिए छोकरा योग्य उम्रका हो तब उसे सुशिक्षा मिले और उसका जीवन न बिगडे इसलिए उसके दादाको-जिसके नामसे यह झगड़ा खड़ा हुआ कहलाता है-चाहिए कि वह कमसे कम एक हजार रुपये, किसी बैंकमें सेठ नेमचंद पीतांबर, मगनलाल पीतांबर और झणोरवाले खूबचंद पानाचंद इन तीनोंके साथ मिल, अपने नाम सहित जमा करादे कि, जिससे उनके व्याजसे छोकरेको शिक्षा मिलती रहे । यदि व्याजसे काम न चले तो भले मूलमेंसे भी खर्चा किया जाय । अभिप्राय यह कि लड़केको सुशिक्षा देनेके लिए चारों आदमी पूरा ध्यान दें। देवयोगसे लड़का यदि शिक्षा प्राप्त करने योग्य न बने तो उपर्युक्त रकम, सारी जातिमेंसे यानी सारे संभा (?) समुदायमेंसे Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आदर्श जीवन। जो लड़का मेट्रिकमें पहले नंबर पास हो उसे आगेका अभ्यास करनेके लिए मदद की तरह दी जाय । मगर उस लड़केको धर्मका साधारण ज्ञान अवश्य होना चाहिए । इसी तरह उसे धर्मपर श्रद्धा भी होनी चाहिए । इति। ताजा कलम-मैं पहले कह चुका हूँ कि यह फैसला कानूनकी तरह नहीं माना जाय, इस बातकी मैं यहाँ फिरसे याद दिलाता हूँ। श्रीवीर संवत् २४३८ श्रीआत्मसंवत् १६ विक्रम संवत् १९६८ कार्तिक सुदी १४ रविवार ता. ५ नवंबर सन् १९११. दस्तखत-श्रीजैनसंघका दास मुनि वल्लभविजय ।" मियागाँवके जागीरदार प्रायः आपके दशनार्थ आया करते और धर्म चर्चा करके आनंद लाभ करते थे । मियागाँवमें पहले एक जैनपाठशाला चलती थी । वह आपसी कलहके कारण बंद हो गई थी। उसे भी आपने फिर शुरू करवाई। पाठशालाका खर्चा हमेशा चलता रहे इसके लिए वहाँके कपासके व्यापारियोंपर कुछ लागा लगा दिया । उपाध्यायजी श्रीवीरविजयजी महाराजकी प्रेरणासे आपने रतलाम शहरके श्रीसंघकी इच्छानुसार ऋषिमंडलकी और नंदीश्वर द्वीपकी पूजा रची । इस प्रकार धार्मिक कार्य संपादन करते और लोगोंको धर्मामृत पिलाते आपका वह चौमासा आनंद पूर्वक समाप्त हुआ। मियागामसे विहार करके आप सुरवाड़े पधारे । आपके Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २३३ उपदेशामृतका पान करनेके लिए यहाँ अनेक अन्य धर्मावलंबी मांसमदिराका उपभोग करनेवाले भी आया करते थे। उनके हृदयोंपर आपके उपदेशने पूरा असर किया और अनेकोंने मांस मदिराकी, आपके सामने ही, प्रतिज्ञा लेली। सुरवाड़ेसे विहार करके आप वणछरा पधारे । वहाँ उस इलाकेके ७० ग्रामोंके दशा श्रीमालियोंमें जो फूट थी वह आपके उपदेशसे दूर हुई और उन लोगोंने आपके उपदेशसे कई सामाजिक कुरितियोंको भी दूर कर दिया। ___ कन्याविक्रयकी भयंकर और घातक चाल जैन समाजमें प्रायः देखी जाती है। इसके भयंकर परिणाम भी प्रायः हुए हैं और होते हैं मगर बहुत कम धर्मोपदेशक और अन्यान्य मुनिराज इस ओर लक्ष देते हैं। आपने इसपर खास लक्ष्य दिया था और देते हैं। आपके उपदेशसे यह घातक प्रथा कई स्थानोंसे उठ गई है। वणछरामें भी इस प्रथाका और इसके साथ ही, जिन अनेक बुरे रिवाजोंकों जोर था वे सभी, बंद हो गये या उनमें परिवर्तन हो गया। आपके उपदेशसे वणछरामें मिले हुए दशा श्रीमालियोंके पंचोंने जो सुधार किये उनकी नकल यहाँ दी जाती है। " संवत् १९६८ का कार्तिक बुदी ४ शुक्रवार श्रीदशा ओसवालके पंच समस्त नीचे हस्ताक्षर करनेवाले मौजे वणछरा मुकामपर ठहराव करते हैं । वे नीचे प्रमाणे । (१) हमारी जातिमें कन्याविक्रयका रिवाज पहलेसे है वह आजतक कायम रहा । उसके लिए श्रीमुनि महाराज श्री श्री Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । श्रीवल्लभविजयजीके उपदेशसे हमारे परिणामोंमें परिवर्तन हुआ । इस लिए उस रिवाजको बंद करनेके लिए हम आतुर होकर महाराज साहबके रूबरू बाधा ( प्रतिज्ञा ) लेनेको तैयार हुए हैं । २३४ (२) विशेष हम पाटन अहमदाबाद आदि परदेशों में कन्याएँ देते थे । वे भी - अभीसे कन्याओंको बाहर देना बंद करते हैं । * इतना होकर भी यदि कोई जातिकी इच्छाके विरुद्ध होकर अपराध करेगा तो वह आदमी जातिबाहर समझा जायगा । उसके साथ कोई किसी भी तरह का व्यवहार न करे । ( ३ ) ब्याहके समय तीन दिनतक ' गौरव ' जिमाने का और चौथे दिन ' वैरोठी ' जिमानेका ठहराव था, उसके स्थानमें यह ठहराव किया जाता है कि, एक दिन ' गौरव करना और एक दिन ' वरोठी' करना । बरोठी कन्याके बापके घर ही हो और उसके लिए वरवाले १०१) रु. कन्याके बापको दे दें । " + यहाँ श्रीधरणेंन्द्रपार्श्वनाथजीकी अलौकिक मूर्तिके दर्शन * इसका मतलब यह है कि बाहर गामवाले रुपयोंका लालच देकर कन्याएँ ले जाते थे जिसके कारण कन्याविक्रयका अधिक जोर हो गया था । दूसरा शहरों वाले कन्या ले तो जाते हैं परंतु देते नहीं हैं जिससे अपने समुदायकी कन्या वहाँ चली जाती है और अपने लड़के कुँवारे रह जाते हैं । यह भी एक कारण था । १ 1- बरात जिमाना; २-वरकी तरफ़से बेटीवालोंको जिमाना; दो और भी ठहराव हैं, मगर वे अनुपयोगी समझ कर छोड़ दिये गये हैं । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - Punar - कर आपको आनंद हुआ। तीन दिन पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादिका ठाठ होता रहा । वणछरेसे विहार करके आप पाछियापुर पधारे । वहाँके श्रीसंघने आपके उपदेशसे एक अठाई महोत्सव किया। पाछियापुरसे विहारकर अन्यान्य ग्रामोंमें विचरण करते,. अज्ञानांधकारमें डूबे हुए श्रावकोंको निकालकर धर्म ज्ञानके प्रकाशमें रखते, और आहारपानी आदिके अनेक तरहके परिसह सहते हुए आप सीनोर पधारे। बीचमें अनेक गाँव ऐसे आये जिनमें श्रावक बसते थे मगर वे नहीं जानते थे कि, वे श्रावक क्यों कहलाते हैं ? उनका धर्म क्या है ? उनके देव कौन हैं ? उनके गुरु कौन हैं और वे कैसे होते हैं ? जब वे अपनेको तथा अपने गुरुको ही नहीं पहचानते थे तब वे यह तो जान ही कैसे सकते थे कि उन्हें आहारपानी कैसे दिया जाता है ? इस लिए आपको एक दो बार आहारपानी बिना भी रहना पड़ा। यह जानकर पाठकोंको दुःख हुए बिना न रहेगा कि, गुजरात जैसे प्रदेशमें-जहाँ सैकड़ों साधु मुनिराज विहार करते हैं-ऐसे गाँव भी हैं जिनके अंदर हमारे मुनि महाराज कभी नहीं जाते। इसका मुख्य कारण यह बताया जाता है कि उन गाँवोंमें साधुओंके लिए योग्य व्यवस्था गहीं हैं। अथात् वे पक्की सड़कोंसे दूर हैं; आहारपानीके लिए साधु मुनिराजोंको तकलीफ होती है। राजपूताना, पंजाब, दाक्षिण,, मध्यप्रान्त, बंगाल और संयुक्त प्रान्त आदिके कस्बों और Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३६ आदर्श जीवन । गाँवोंके श्रावकोंको यह जानकर संतोष हुए बिना न रहेगा कि, वे ही ऐसे नहीं हैं जिन्हें साधु मुनिराजोंके दर्शन दुर्लभ हैं, बल्के गुजरातमें भी - जिसके श्रावकोंको वे लोग भाग्यमान बताते हैं - ऐसे श्रावक हैं जिन्हें उन्हींकी तरह साधु मुनिराजोंके दर्शन नहीं मिलते । साधु महाराजोंके ऐसे स्थानोंमें विहार नहीं करनेसे जैन समाजकी एक बहुत बड़ी हानि हो रही है । वह हानि है उसके संख्याबलकी । वे लोग मर्दुमशुमारीमें अपने आपको जैन न बताकर हिन्दु बताते हैं और उनके हिन्दु बतानेसे जैनोंकी इतनी संख्या कम हो जाती है । अस्तु । सीनोरमें आपका व्याख्यान सुननेके लिए अजैन भी आते थे । वहाँ एक मुसलमान के हृदय पर आपके उपदेशने ऐसा प्रभाव डाला कि, उसने आपके पास मांस त्यागक प्रतिज्ञा लेली । वह एक परम श्रद्धावान श्रावककी तरह रोज आपके व्याख्यानमें आता था । इतना ही नहीं वह कई गाँवों - तक आपके साथ भी गया था । सीनोरसे विहार करके आप कोरल पधारे । कोरलके श्रीसंघ अन्तराय कर्मका पर्दा उस दिन अनेक बरसोंके बाद आपके पधारनेसे फटा ! वहाँके लोगोंका कथन था कि, अठारह बरसके बाद आपहीने अपने चरणकमलसे कोरलको पवित्र किया है । अठारह बरस पहले वहाँ प्रतिष्ठा हुई थी तब एक मुनि महाराज पधारे थे । श्रीसंघने बड़े उत्साह के साथ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । अठाई महोत्सव किया । मंडपमें आप उपदेशामृत बरसाते थे और उसको पान करनेके लिए झुंडके झुंड जैन और अजैन नरनारी आते थे। आस पास के गाँवोके भी अनेक लोग उस अमृतको पीने वहाँ आते थे । कोरलसे विहार करके लीलापुर, मेथी आदि कई जुदे जुदे गावोंमें विचरते हुए आप डभोई पधारे, क्योंकि डभोईके श्रीसंका बड़ा आग्रह था | एक मासतक आप डभोईमें वचनामृत बरसा बड़ोदेके लिए रवाना हुए और डभोईके संघ सहित बड़ोदे पहुँचे । बड़ोदे जानेका हेतु एक मुनिसम्मलेन स्थापित करने की इच्छा थी । साधु ' ' मुनि ' ' संयति ' ' यति ' " संवेगी ' इन नामोंमें और इनकी मुद्रामें असाधारण शक्ति है । इनके आगे राजा महाराजा नतमस्तक होते हैं; अमीर उम्रा सिर झुकाते हैं; सेठ साहूकार, धनी गरीब भक्ति भावसे चरणरज मस्तक पर चढ़ाते हैं और बड़े बड़े जालिम भी सम्मान से आँखें नीची कर लेते हैं । २३७ इस अनेक गुणान्वित अकेले साधु शब्दमें और उसकी मुद्रामें जब इतनी महिमा है; इतनी शक्ति है तब इनके धारक, - साधु नाम और वेषको अपने गुणोंसे अलंकृत करनेवाले जीव मेंमनुष्य में कितनी शक्ति होगी इसका अंदाजा पाठक सहजही में लगा सकते हैं । मगर अब यह बात इस पंचम कालमें - इस कलिकालमें Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आदर्श जीवन। RAMANANA awaranaamaanine केवल एक मधुर स्वमसी रह गई है । आज इनकी शक्ति छिन्न भिन्न प्रायः हो गई है; आज इनमें वह शक्ति नहीं रही है कि सिंहासनसे राजा उतर पड़ें, सेठ साहूकार भक्तिभावसे चरणोंमें गिर पड़ें। पंचमकाल का प्रभाव-ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, अहंमन्यता, ज्ञान न होते हुए भी महाज्ञानी होनेका आडंबर, दूसरोंकी उन्नतिसे जलन आदि-साधुओं पर भी पड़े बिना न रहे; जैनसाधुओंमें भी इसने धीरे धीरे पैर फैलाना शुरू किया । इस बातको हमारे चरित्रनायकने देखा । आपने सोचा, अब साधुओंमें, प्रत्येक साधुमें, प्राचीनकालके तेज, त्याग और तपस्याकी कमी हो गई है । इस कमीकी यदि पूर्ति न की जायगी तो साधुताका निर्वाह असाध्य साधना हो जायगी। अनेक दिनतक आप इस विषयका विचार करते रहे । अन्तमें आप इस निर्णय पर आये कि, साधुओंके संगठनसे यह शाक्त अक्षुण्ण रक्खी जा सकती है । तदनुसार आपने अपने माननीय वृद्ध पुरुष आचार्य श्रीविजयकमलमूरिजी महाराज, उपाध्यायजी श्रीवीरविजयजीमहाराज प्रवर्तकजी श्रीकान्तिविजयजी महाराज तथा मुनि श्रीहंसविजयजी महाराज, आदिकी सम्मतिसे ' मुनिसम्मेलन' स्थापित करनेकी योजना की। आपने सोचा इस समय स्वर्गीय गुरु महाराज श्रीआत्मारामजी महाराजके संघाड़ेका ही सम्मेलन और संगठन करना आवश्यक है यदि हम सफलता पूर्वक दो तीन बरस यह कार्य कर सकेंगे तो दूसरे संघाड़ेवाले Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । munnammar- ~ स्वयमेव अपना संगठन कर लेंगे या अवसर देखकर अपना दायरा बड़ा कर दिया जायगा । इस विचारको परिणत करनेके लिए आपने जो पत्र साधुओंके पास भेजा, उसकी पूरी नकल यहाँ दी जाती है। ॐ अर्ह ! श्री १००८श्री मद्विजयानंद सूरिभ्यो नमो नमः । चरणकरणधारिमुनिभ्यो नमो नमः । श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरि सद्गुरुके सन्तानीय सर्व मुनिमंडलके पाद-पद्मोंमें मुनिचरणोंके दास वल्लभविजयकी सविनय प्रार्थना है कि,-शास्त्रकारोंने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुसार उत्सर्गापवाद, विधिप्रतिषेधादि प्रतिपादन किया है सो आप महात्माओंको सुविदित ही है। आजकल समय कैसा है और समयानुसार अपना कर्तव्य क्या है सो भी आप महात्माओंसे छिपाहुआ नहीं है। सोते हुओंको जगाना उचित कहा जाता है मगर जागतोंको जगानेका प्रयास करना मूर्खताके सिवा अन्य कुछ नहीं कहा जाता है। तो भी जो कुछ मेरे मनमें आया है आप महात्माओंके चरणोंमें जाहिर कर देता हूँ और आशा करता हूँ कि, आप महात्मा मेरी मूर्खताका खयाल न कर तत्त्व दृष्टिकी ओर खयाल करेंगे। __ श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरि सद्गुरु-जो अपने परमोप्रकारी हो चुके हैं और जिनके उपकाराका बदला जन्म जन्ममें Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आदर्श जीवन । नहीं दिया जासकता है-श्रीमन्महावीर स्वामी शासन नायककी स्तवना करते हुए फर्माते हैं । " कोटि वदन कोटि जीभसुरे, कोटि सागर पर्यंत । गुण गाउँ तोरे भक्तिसुरे तो तुम ऋणका न अन्त । " इसी प्रकार इन सद्गुरुके ऋणका भी अन्त नहीं हो सकता है। इन परमोपकारी महात्माके स्वर्गारोहणके अनन्तर आज पर्यंत कोई ऐसा समय प्राप्त नहीं हुआ है जैसा कि उनकी हयातीमें कभी कभी कहीं कहीं सम्मेलनका हो सकता था । अब शासन देवता और गुरु महाराजकी कृपासे वह समय निकट आया नजर आता है, इस लिए दिल चाहता है कि, श्रीगुरुमहाराजजीके यावत् साधु हैं, सबका कहीं न कहीं एकत्र होना होवे तो अपूर्व लाभ प्राप्त होवे । जिन महात्माओंके सुदर्शनका लाभ इस मुनिचरणोंके दासको नहीं हुआ है सो होवे और परस्पर आनंद प्राप्त होवे । इसमें शक नहीं। हम तुम आनंदगुरुके सन्तानीय हैं । वहाँ निरानंदको अवकाश ही नहीं है; तथापि आजकलके समयानुसार एकत्र सम्मेलनसे अत्यानंद की प्राप्तिका संभव है। शासन देवताकी कृपासे और श्रीसद्गुरुमहाराजकी कृपासे आजकलके समयानुसार जितना समुदाय और संप तथा ज्ञान क्रियादि गुण श्रीगुरुमहाराजजीके परिवारका लोगोंके मुखसे सुना जाता है उतना अन्य किसीका भी नहीं सुनाजाता है तो एकत्र सम्मेलनेसे श्रीगुरुमहाराजजीकी अवर्णनीय | Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २४१ महिमाकी वृद्धि और लोगोंके भावोंकी वृद्धिका भी लाभ होवेगा। आपके एकत्र होनेसे अन्य भी आपका अनुकरण करेंगे तो भी एक गुरु महाराजजीके नामका जयकार होनेका संभव है । इत्यादि अनेक लाभोंको विचार कर यह प्रार्थनापत्र आपकी सेवामें भेजा गया है । आशा की जाती है कि इसको आप योग्य मान देवेंगे । इति । श्रीवीर संवत् २४३८ श्रीआत्मसंवत् १६ फाल्गुन वदी १२ बुधवार । हस्ताक्षर-सर्व मुनियोंके चरणोंका दास, वल्लभविजय । . दासकी राय । मेरी समझ मूजिब यह कार्य बहुत ही शीघ्र होना चाहिए। क्योंकि इस समय प्रायः बहुतसे महात्मा आसपासमें निकट प्रायः विचर रहे हैं । इस लिए यदि आप सब महात्माओंको अनुकूल हो तो ज्येष्ठ सुदी ५-६-७ के तीन दिन सम्मेलन और अष्टमीको सर्व मिल श्रीगुरुजी महाराजजीकी तिथिका आराधन कर आनंदकी लहरें लूटें। _इस कामके लिए इस समय वीरक्षेत्र ( बड़ोदा) मेरी समझमें क्षेत्र ठीक मालूम देता है । आगे आप सर्व महात्माओंको जो समय और क्षेत्र अधिक अनुकूल मालूम देवे और जहाँ सर्व महात्माओंका दिल खुश हो वही क्षेत्र और समय नियत किया जावे । यह दास हर तरहसे तैयार है। परन्तु यह कार्य होना तो जरूर ही चाहिए । यही दासकी अन्तिम प्रार्थना है।" Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । दः मुनिचरणोंकादास-वल्लभविजय । है. इसमें जिन महात्माओंने सम्मति दी उनके नाम और सम्मतियाँ भी यहाँ उद्धृत कर दिये जाते हैं। (१) ऊपरका लिखा अति-उत्तम है । इस लिए सर्व मुनियोंको एकत्र होना मुनासिब है । हम आवेगें वास्ते तुम भी जरूर आवो। कमलविजय द० खुद । (२) सर्व स्वसमुदायके मुनियोंका एक जगह मिलना अच्छा है । फायदा दिखलाता है । हम भी हाजिर होवेगें। दः वीरविजय । (३) मुनि सम्मेलनकी खास आवश्यकता है। उसमें अनेक लाभ गर्भित हैं। इस लिए उस प्रसंगपर हाजिर होनेको हम भी खुशी हैं। लि० हंसविजय ।। (४) मुनि संपतविजय, ऊपर लिखे अनुसार ठीक है । .. (५) मुनि श्रीवल्लभविजयजी महाराजके लिखे माफिक मुनिमंडलका सम्मेलन होनेमें अनेक लाभ गर्भित हैं। इस लिए सम्मेलन होनेकी खास जरूरत है । ऐसा हम अन्तःकरण पूर्वक चाहते हैं और उस अवसर पर हम आनेमें खुश हैं। मुनिमंडलके सम्मेलनके लिए डभोई विशेष अनुकूल होगी, ऐसा हमें मालूम होता है। यदि बड़ोदेमें होगा तो भी हमें कोई बाधा नहीं है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। mahrukur- n-r- snakAva-V मु० कांति विजय द० पोते ल० अमृत विजय द० पोते सम्मेलनका उत्सव प्रारंभ होनेमें अभी देरी थी। अतः जिन मुनिराजोंने सम्मेलनमें, दूर होनेके कारण, शरीक होनेमें असमर्थता प्रकट की थी उनके नामसे जो पत्र प्रेषित किया गया उसकी अक्षरशः नकल नीचे दी जाती है, "बड़ोदा, श्री १०८ श्री आचार्य महाराजजी श्री १०८ श्रीविजय कमल मूरि, श्री १०८ श्रीप्रवर्तकजी महाराज श्रीकांतिविजयजी श्री १०८ श्री मुनि महाराज श्रीहंसविजयजी आदि ३७ की तरफ़से तत्र योग्य अनुवंदना वंदनाके साथ मालूम होवे यहाँ सुख साता है आपकी सुखसाताके समाचार देना । विशेष स्वर्गवासी गुरु महाराजजी श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदमुरि ( आत्मारामजी) महाराजजीके प्रतापसे साधुओंका एकत्र मिलना हुआ है । दूरका फासला और गरमीकी मोसम होनेसे आपका पधारना नहीं बन सका सो अमर लाचारी है । तथापि आपके ध्यानमें जो जो बातें साधु समुदायको उपकारी मालूम होवें जिससे कि श्रीगुरुमहाराजजीके समुदायमें एकता और तरक्की होवे वे ताकीदसे लिख भेजें ताके श्री १०८ श्रीउपाध्यायजी महाराजजी श्रीवीर विजयजीके पधारने पर उन सब बातोंपर विचार कर कोई बंधारण किया जावे । जिससे कि, साधुओंको अपने कर्तव्यमें प्रायः सुगमता होवे । इति Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAwwwwwwwwwwwwwAAVA. AAAAAAA दामुनिचरणोंका दास वल्लभविजयकी त्रिकाल वंदना स्वीकारनीजी, कृपादृष्टि विशेष रखनी जी।" इस पत्रकी नकलें मुनि महाराज श्री जयविजयजी, अमरविजयजी, मोहनविजयजी, हीरविजयजी, सुमतिविजयजी, मोतीविजयजी,माणकविजयजी और अमीविजजीके पास भेजी गई थीं। विज्ञप्तिके अनुसार करीब पचास साधु बडोदेमें एकत्रित हुए और सम्मेलनमें जो कार्रवाई हुई उसका पूरा वर्णन इस ग्रंथके उत्तरार्द्धमें दे दिया गया है । पाठक उत्तरार्द्धके ५२ वें पृष्ठमें इसे पढ़ लेवें । __ इस सम्मेलनकी बातको सुनकर अनेकोंके दिलोंमें जलन पैदा हुई; खास तरहसे हमारे चरित्र नायककी प्रशंसासे कई लोगोंके दिल ईर्ष्यासे परिपूर्ण हो गये। उस समय शिवजी और लालनको लेकर समाजमें बड़ी हलचल मची हुई थी । कई इनके पक्षमें और कई विपक्षमें । शिवजी और लालनपर यह दोष लगाया गया था कि, इन लोगोंने सिद्धाचलजी पर अपने भक्तोंसे अपनी पूजा कराई थी। सिद्धाचलके समान पुण्यतीर्थ पर इन लोगोंने यदि अपनी पूजा कराई हो तो इनके बरावर दोषपात्र दूसरा नहीं है। इस बातको दोनों दल मानते थे। मगर मतभेद होनेका कारण यह था कि, एक दल कहता था इन्होंने अपनी पूजा कराई है। दूसरा कहता था इस बातका प्रमाण चाहिए । आचार्य श्रीविजयकमल मुरिजी प्रथमपक्षमें थे । लोगोंने इससे फायदा उठाकर सम्मेलन भंग करनेका Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदशजावन Sain Education International www.jainelibrary.orld १००८ आचार्यमहाराज श्रीमद्विजयवल्लभ सूरिजी महाराज ( डभोई में ) पृ. २४५. मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २४५ प्रयत्न किया; उन्होंने आचार्यश्रीको समझाया कि, मुनि वल्लभविजयजी और प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी उनलोगोंके ( शिवजीलालनके ) पक्षमें हैं। ___ आचार्यश्रीने हमारे चरित्रनायकसे और प्रवर्तकजी महाराजसे पूछा तब उन दोनों महात्माओंने कहा, यह बात बिल्कुल झूठ है । जहाँ आप हैं वहीं हम भी हैं। ___ यह मामला यहीं पर समाप्त हो गया । सभापतिकी हैसियतसे दिये हुए व्याख्यानमें आचार्यश्रीने आपकी बड़ी प्रशंसा की । द्वेषी लोगोंके हृदयोंमें ईष्याग्नि द्विगुण वेगसे प्रज्वलित हो उठी। वे तो वल्लभविजयजीको आचार्यश्रीकी निगाहसे गिराना चाहते थे, मगर बात उल्टी हो गई। आचार्यश्रीकी निगाहमें आपकी इज्जत, कमसे कम उस समय, दुगनी हो गई। उन लोगोंने सम्मेलनको विध्वंस और आपको नीचा दिखानेका दृढ निश्चय कर लिया। सच है औरनको उत्कर्ष जग; देखि सकत नहीं नीच । । । आप बड़ोदेसे विहार करके डभोई पधारे और आचार्य महाराज श्री १०८ श्रीविजयकमलमूरिजीकी आज्ञानुसार सं० १९६९ छब्बीसवाँ चौमासा आपने डभोईमें किया। इस चौमासेमें आपके साथ सोलह साधु थे । आपके उपदेशसे वहाँ कई शुभ काम हुए। दो तीन अठाई महोत्सव भी हुए । कई साधुओंने बृहद् योगोद्वहन भी किया। चौमासा समाप्त होने Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आदर्श जीवन । AnanAN/ annarani पर आप डभोईसे विहार करके डभोईके आस पासके गामोंमें विचरते हुए मियागाम पधारे। १०८ श्रीहंसविजयजी महाराजके पास, नांदोदके एक सज्जन-जो 'बक्षी वकील के नामसे प्रख्यात हैं,-नांदोद चलनेकी, नांदोद महाराजकी तरफसे, विनती करने के लिए आये। उन सज्जनका राज्यमें बड़ा मान था और वेमुनि महाराज श्रीहंसविजयजी पर बड़ी श्रद्धा रखते थे। दर्शन और प्रार्थना कर उनके चले जानेपर पानेथासे श्रीहंसविजयजी महाराजने आपको लिखा--" + + + अब नांदोद जानेका समय है। यदि आप पधारेंगे तो बहुत अच्छा होगा । यदि मुझे साथ रखनेकी इच्छा होगी तो मैं भी चलूँगा । कारण वहाँ बहुतसे लाभ होनेकी संभावना है। वहाँसे बक्षी वकीलजिनकी राज्यमें पूर्ण सत्तासी है--विनती करनेके लिए प्रताप नगरमें और वाघोरियामें आये थे । वहाँ श्रावकोंका एक भी घर नहीं है । वे कहते थे कि, वहाँ हमारी जातिके बनियोंके बहुतसे घर हैं। और मुझे श्रावकके समान ही समझिए । इसतरह बहुत आग्रह कर गये हैं। यदि आपका नक्की हो तो वहाँसे निमंत्रणपत्रिका आनेकी भी संभावना है । उसमें आप वहाँके अनेक नेताओंके हस्ताक्षर देख सकेंगे + + + + .. एक दूसरे पत्रमें आप और लिखते हैं,--" + + + आपके लिखनेसे, हम, उमरवामें पटेलको दूसरी पूजा पढ़ाना था तो भी, तीन पूजाएँ ही पढ़ाकर, आपके साथ प्रतिक्रमण Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २४७ 10.-..-Roma n AmAhampannada करनेके लिए, यहाँ पर पहुँच गये हैं। आप कहीं न रुककर आज ही यहाँ आजायँ तो अच्छा है। कारण नांदोदसे बक्षीके भाई आये थे । वे आपके लिए दो दिन ठहर कर कल गये हैं । आज डेप्युटेशनके तौर पर बहुतसे लोग आनेवाले हैं इस लिए कहीं ठहरना नहीं । " श्रीहंसविजयजी महाराजकी सूचनानुसार आप मियागामसे रवाना हुए और प्रतापनगरमें आपके साथ उनकी भेट हुई। नांदोदके राजाका दीवान वहीं आपके स्वागतार्थ आया था। वहाँसे मुनि महाराज श्री १०८ श्रीहंसविजयजी पंन्यासजी महाराज श्रीसंपतविजयजी और आप नांदोदके लिए रवाना हुए । आपके साथ पाँच सात साधु दूसरे भी थे। नांदोदसे करीब आध माइल जब आप रहें होगे तब नांदोद महाराजका सारा राजसी लवाजमा १०८ श्रीहंसविजयजी महाराज तथा आपके स्वागतार्थ आया। छोटेसे कस्बेमें जितनी अच्छी तरहसे स्वागत हो सकता था उतनी ही अच्छी तरहसे स्वागत हुआ । स्वागतके जुलूसमें डभोईका संघ भी अपनी भजनमंडली सहित शामिल हो गया था। इससे जुलूसकी शोभा और भी ज्यादा बढ़ गई थी। नांदोदके राजाने व्याख्यानके लिए एक खास मंडप बन वाया था। सारे नांदोदमें फिरकर जुलूस वहाँ समाप्त हो गया। नांदोदके राजाने तीनों महात्माओंको और अन्यान्य मुनिराजोंको सादर अभिवंदन किया। मुनिराजोंको ऊँचे आसनपर Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आदर्श जीवन। main/VvM www on बिठाया और राजा अन्यान्य श्रोताओंके साथ दरीपर ही बैठ गये । उनके सेवकोंने उनके लिए गद्दी बिछाई थी उसको उन्होंने हटवा दी और कहा:-"सन्तोंके दर्वारमें सभी समान हैं। यहाँ ऊँच नचिका भेद नहीं है ।" धन्य हैं ऐसे विचारशील और नम्र राजा। पाट पर बिराजने पर श्रीहंसविजयजी महाराजने सुललित भाषामें मंगलाचरण कर गुरूका स्वरूप समझाया । उसके बाद उन्होंने हमारे चरित्रनायकसे व्याख्यान देनेके लिए कहा। आपने उत्तराध्ययनके तीसरे अध्ययनकी इस पहली गाथाका उच्चारण कर व्याख्यान प्रारंभ किया: चत्तारी परमंगाणी, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणु सत्तं सुई सद्धा, संजमम्मीय वीरियं ॥ * मनुष्यता क्या है ? वह कैसे प्राप्त हो सकती है ? ज्ञान क्या है ? उसका उपयोग क्या है ? श्रद्धा क्या है ? उसके होनेसे क्या नफा है ? संयम क्या है और उसमें किस प्रकार आत्मशक्तिका विकास होता है ?, किया जाता है ? लगातार आठ दिनतक आप इसी श्लोकपर व्याख्यान देते रहे । तीन घंटेतक रोज व्याख्यान होता था। मगर लोग इतने तल्लीन होते थे कि, तीन घंटे तीन मिनिटके समान निकल जाते थे। * संसारमें जन्तुओंके लिए-जीवोंके लिए-चार परम अंग-साधन दुर्लभ हैं । वे चार परम साधन ये हैं-मनुष्यत्त्व, श्रुति-ज्ञान, श्रवण-श्रद्धा और संयममें वीर्यको प्रस्फुटित करना। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २४९ राजा व्याख्यानोंको सुनकर बहुत खुश हुए । एक दिन उन्होंने हाथ जोड़कर भक्तिपूर्ण स्वरमें कहाः-"गुरु दयाल ! मेरी उम्रमें यह पहला ही अवसर है कि, मैंने इतनी देरतक बैठकर व्याख्यान सुना है । मैंने अनेक व्याख्यान सुने हैं मगर आजतक इतने मधुर इतने गंभीर, इतने हृदयग्राही और साथ ही इतने मनको लगाये रखनेवाले व्याख्यान नहीं सुने थे। आज मैं कृतकृत्य हो गया।" डभोईका संघ अपने साथ एक प्रतिमाजी लाया था। अतः आठ दिनतक दुपहरको हमेशा वहाँ पूजा पढ़ाई जाती थी। आठ दिनतक रहकर वहाँसे आपने विहार किया। गुजराती समाचार पत्रोंमें आपके व्याख्यानोंकी धूम मच गई। बड़ोदा नरेशके कानोंतक ये समाचार पहुंचे। उन्होंने डॉक्टर बालाभाई मगनलालकी मारफत मुनि श्रीहंसविजयजी महाराजको तथा आपको आमंत्रण दिया। दोनों प्रसन्नतापूर्वक बड़ोदा नरेशका आमंत्रण स्वीकार कर बड़ोदे पधारे। बड़े समारोहके साथ दोनों महात्माओंका बड़ोदेमें स्वागत हुआ। आत्मानंद प्रकाशने लिखा है,-" इस समय श्रीमान् महाराज हंसविजयजी साहबका तथा विद्वान् मुनिराज श्रीवल्लभविजयजीका आगमन खास गायकवाड सरकारके निमंत्रणसे हुआ था, इस लिए, श्रीमान् महाराजाकी तबीअत बराबर न थी तो भी श्रीमंत सरकार राजमहलमें इन मुनिराजोंसे मिले थे। उस समय मुनि महाराज श्रीहंसविजयजी साहबने प्रसंगानुसार बोध Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आदर्श जीवन। दिया था। उसे सुनकर महाराजा साहब बहुत प्रसन्न हुए थे और उन्होंने सार्वजनिक व्याख्यान देनेके लिए आग्रह किया था। तदनुसार हमारे चरित्रनायकके दो व्याख्यान हुए थे। एकका विषय था 'धर्मतत्त्व' और दूसरेका था ' सार्वजनिक धर्म' ये व्याख्यान ता० ९ और १६ मार्च सन् १९१३ ईस्वी रविवारको शामके समय न्यायमंदिरमें हुए थे । इस न्यायमंदिरमें सार्वजनिक व्याख्यान देनेका सौभाग्य उन्हींको प्राप्त होता है जो बहुत बड़े वक्ता समझे जाते हैं। व्याख्यान इस ग्रंथके उत्तरार्द्धमें प्रकाशित हो चुके हैं । सभापतिके पद पर शान्तमूर्ति मुनि श्रीहंसविजयजी महाराज बिराजे थे। इन व्याख्यानोंमें दोनों महात्माओंके साथके साधुओंके अलावा । पंन्यासजी श्रीसिद्धविजयजी महाराजके तथा पं० श्रीआनंदसागरजी महाराजके साधु भी थे। साधुओंकी संख्या सब मिलाकर ३५ थी। बड़ोदेके जो बड़े बड़े आदमी शामिल हुए थे उनमेंसे कुछ मुख्य मुख्यके नाम यहाँ दिये जाते हैं। श्री हिं० बा. आनंदराव गायकवाड, दी० ब० समर्थ साहब, श्री रा. रा. सम्पतराव गायकवाड, श्री अवचितराव गायकवाड, राय बहादुर हरगोविन्ददास द्वारकादास काँटावाला, श्री रा. रा. नृसिंहराव घोरपडे, श्री वाघोजीराव राजशिर्के, रा. रा. चिमनलाल सामलदास, राय बहादुर लक्ष्मीलाल दौलतराम, रा. रा. रामचंद्र दिनकर फडके, केप्टन बल्देवप्रसाद, मे० नबाब नसरुद्दीन साहब, मि० सारंगपाणि जज, मि० अब्बास Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २५१ तैयबजी जज, तर्क वाचस्पति पंडित बद्रीनाथ शास्त्री, मि०आंबेगाँवकर, और मि० लाल भाई जौहरी, पाटनके सुप्रसिद्ध वकील लेहरु भाई आदि। व्याख्यान प्रारंभ होनेके पहले श्रीयुत लालभाई जौहरीने आपका संक्षेपमें परिचय देते हुए कहा था कि-" आपकी विद्वत्ता और साधुताके संबंधमें विशेष कहना सोनेपर मुलम्मा चढ़ाना है । जिस प्रकार अपने महाराजा साहबकी न्याय शासन और प्रजाप्रियता आदि श्रेष्ठगुणों द्वारा संसार भरमें फैलनेवाली निर्मल कीर्तिका हमें आभिमान है इसी तरह मुनि श्रीवल्लभविजयजी महाराजकी जन्मभूमि बड़ोदा होनेसे आपके निर्मल चरित्र और परोपकारीजीवन पर भी हमें अभिमान है।" दूसरे व्याख्यानके समय एक बात बडी मजेदार हुई। व्याख्यानमें लोगोंको आनंद आरहा था । सूर्यास्त होनेमें सिर्फ एक घंटा रह गया था । आप बोले:-" आप जानते हैं कि जैन साधु रातमें अन्नोदक नहीं लेते; न वे किसीके घर जाकर खाते हैं और न किसी गृहस्थका लाकर दिया हुआ ही खाते हैं। इस लिए मैं अपना व्याख्यान शीघ्र ही समाप्त कर दूंगा। अन्यथा देर होनेसे साधुओंको. भूखा रहना पड़ेगा । मैंने तो आज एकासन किया है, मगर दूसरोंको तो भोजन करना है।" श्रीमान संपतराव गायकवाड़ बोले:--" महाराज हम Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आदर्श जीवन । प्यासे हैं, अभी तृप्ति नहीं हुई। आप हमें उपदेशामृत पिलाइए। हम साधुओंके जानेको रस्ता कर देते हैं।" ___ रस्ता कर दिया गया। कुछ साधु चले गये और कुछ वहीं रह गये। + + + + दो तीन सालसे बंबईका संघ आपसे बंबईमें चौमासा करनेकी विनती कर रहा था । इस साल संघने विशेष आग्रहके साथ विनती की। आपने उसको स्वीकार कर लिया। सूरत आदि स्थानोंमें होते हुए और लोगोंको उपदेशामृत पिलाते हुए आप दादर पधारे । वहाँ हेमचंद अमरचंदके बँगलेमें ठहरे । बंबईके लोग जबसे आप विरार पधारे तभीसे आपके दर्शनार्थ आने लग गये थे। दादरसे तो बहुत ही ज्यादा आने लगे । तीन रात दादर ठहरकर आप भायखाला पधारे । एक रात वहाँ रहकर बड़े भारी जुलूसके साथ जेठ सुदी ३ स० १९७० के दिन बंबईमें, बड़े समारोहके साथ, प्रवेश किया । सामैयेमें करीब दसके, जुदा जुदा मंडलोंकी तरफसे, बेंड बाजे आये थे । हजारों नर नारी आपके साथमें थे। उस चौमासेमें आपके साथ १६ मुनिराज थे। उनके नाम ये हैं (१) तपस्वीजी महाराज श्रीविवेकविजयजी (२) श्रीसोहनवि० (३) श्रीविमलवि० (४) श्रीकस्तूरवि० सद्गत १०८ श्रीउद्योत विजयजी महाराजके शिष्य । (५) श्रीउमंगवि० (६) श्रीविज्ञानवि० (७) श्रीविबुधवि० (८) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २५३ श्रीविद्यावि० (९) श्रीविचारवि० (१०) श्रीविचक्षणवि० (११) श्रीमित्रवि० (१२) श्रीसमुद्रवि० (१३ ) श्रीसागरवि० ये सब आपके ही परिवारके थे। इनके उपरांत शांतमूति १०८ श्रीहंसविजयजी महाराजके शिष्य दौलत विजयजी अपने शिष्य श्रीधर्म वि० और प्रशिष्य श्रीकपूरवि० सहित आपके साथहीमें थे । इस तरह कुल १६ साधु थे। ___ लालबागके उपाश्रयमें पहुँचकर आपने जो उपदेश दिया था उसे सुनकर सभी एक स्वरसे बोल उठे कि, जैसी प्रशंसा सुनते थे उससे भी बढ़कर प्रशंसा करने योग्य आपकी व्याख्यानशली है। ज्येष्ठसुदी ८ के दिन स्वर्गीय गुरुदेव श्रीआत्मारामजी महाराजकी जयन्तीपर आपने जो व्याख्यान दिया था उसमें गुरुदेवका चरित्र वर्णन करनेके पहले कहा था-"व्याख्यानका या महात्माओंके चरित्र सुनानेका मूल्य तभी होता है जब महात्माओंके पचिन्हों पर चलनेका प्रयत्न किया जाता है । एक कानसे सुनना और दूसरे कानसे निकाल देना इससे कोई व्यावहारिक लाभ नहीं । महात्माओंके चरित्र हमें अपने साध्यको सिद्ध करनेमें बहुत बड़ी सहायता देते हैं । जंगलमें रस्ता भूले हुए आदमीको जैसे आदमीके पचिन्ह सरल मार्ग पर पहुँचा देते हैं, वैसे ही संसार रूपी जंगलमें भटकते हुए लोगोंको, महात्माओंके चरित्रोंसे सत्य और सरल मार्ग मिल जाता है और वे सीधा मोक्षका रस्ता पकड़ लेते हैं। मैं Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ . आदर्श जीवन। " आशा करता हूँ कि, गुरुदेवका चरित्रश्रवण तुम्हें भवबंधनसे मुक्त होनेमें मददगार होगा।" ___ इसके बाद आपने गुरुदेवका जीवन संक्षेपमें सुनाकर उपसंहार करते हुए कहा था:-"महाराजके चरित्रसे साधु और श्रावक बहुत कुछ सीख सकते हैं । महाराजश्रीके विहारका प्रमाण, उनकी उपदेश करनेकी रीति, स्वतंत्र और सत्य भापण, जगतके मान और कीर्तिकी आश्चर्यकारक उपेक्षा, अन्य धर्मावलंबियोंको, लड़ाई झगड़ा किये बगैर अपनी बात समझानेकी और उनके हृदयोंपर प्रभाव डालनेकी रीति, और जैन कौममें शान्ति रखनेकी अपूर्व शक्ति आदि गुण साधुओंके लिए अनुकरणीय हैं। यदि साधु अभी समझानेकी जो रीति है उससे भी उत्तम रीतिके साथ दूसरे धर्मवालोंको समझा। और अपने धर्ममें शामिल करें तो जैनियोंकी संख्यामें ज्यादती हो सकती है । श्रावकोंको भी ध्यानमें रखना चाहिए कि गुरुदेवने बचपनहीमें, जब दुनियाको, नापायदारअसार समझा तब तत्काल ही छोड़ दिया। इस लिए श्रावकोंको भी यह नियम कर लेना चाहिए कि वे सत्यको ही श्रेष्ठ और अपना समझें, अपनेको ही सत्य और श्रेष्ठ न मान बैठें । सभी हमेशा धर्ममें प्रवृत्ति रक्खें । धनवान सदा गरीबोंके दुःख दूर करनेका खयाल रक्खें । प्रत्येकका कर्तव्य है कि, वह धर्मकाममें आगे आवे और यथासाध्य कलहसे दूर रहे।" Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। mini //// /// / /HIND INAINANIN/HIN/IN/M/NIRAL1/1/3/ / mmmmmmmmmmm.in. सं० १९७० के आषाढ़ महीनेमें मांगरोल जैन सभा की तरफसे एक सार्वजनिक सभा लालबागमें बुलाई गई थी। उसका विषय था-'सात क्षेत्रोंमें पोषक क्षेत्र कौनसा है ?" इसमें आपने यह सिद्ध किया है कि, श्रावक क्षेत्र ही सबका पोषक है इस लिए पहले इसको परिपुष्ट करना आवश्यक है । यदि यह परिपुष्ट होगा तो अन्य छहों क्षेत्रोंका इसके द्वारा पोषण हो सकेगा । पूरा व्याख्यान उत्तरार्द्धमें दिया गया है। इस चौमासेमें अठाई महोत्सव, शान्ति स्नात्र, पूजा प्रभावना आदि धर्म कार्य अच्छे हुए । उपधान भी हुए । उपधानमें यह विशेषता थी कि, किसीके सिर किसी तरहका कर नहीं था। गरीब अमीर सब एक दृष्टिसे देखे जाते थे। क्रिया करानेवाले साधुओंको क्रियाएँ करा देनेके सिवा और किसी बातसे मतलब नहीं था। जमाना है नाम मेरा तो, सबको दिखा दूंगा। जो तालीमसे भागेंगे, नाम उनका मिटा दूंगा ॥ संसारमें शिक्षाके बिना किसीका काम नहीं चल सकता; न धर्म सध सकता है और न व्यवहार ही । वर्तमानमें तो इसकी आवश्यकता अत्यधिक बढ़ गई है। चारों तरफ शिक्षाकी पुकार है । जमाना विकासकी तरफ आगे बढ़ता जा रहा है। धर्म और वर्तमान सभ्यतामें बड़ा भारी संघर्ष हो रहा है। आधुनिक सभ्यताका जोर इतना अधिक हो गया है कि, धर्म Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । त्राहि त्राहि पुकार उठा है । ऐसी दशामें धर्मकी रक्षाके लिए इस बातकी हद से ज्यादा जरूरत है कि आधुनिक सभ्यताका पाठ पढ़नेवालोंको साथ ही धार्मिक पाठ भी पढ़ाये जायँ; धर्मका वास्तविक स्वरूप आधुनिक सभ्यताकी आँखोंसे दिखाया जाय जिससे लोग इस बातको भली भाँति समझ जायँ कि, धर्म और आधुनिक सभ्यतामें कितना अन्तर है ? वे समझ जायँ कि जितना अन्तर सूर्य और जुगनूमें है; जितना अन्तर प्रकाश और अंधकारमें है; जितना अंतर सोने और पीतल में है; जितना अन्तर गुलाब और गूलरके फूलोंमें है उतना ही अन्तर धर्ममें, जैनधर्ममें, मनुष्य धर्ममें और स्वार्थपर वर्तमान सभ्यतामें है । यह बात हमारे चरित्रनायकने भली भाँति से बंबईके श्रावकोंके हृदयमें बिठा दी । श्रावकोंने भी इस बातको कार्यरूपमें परिणत करनेका प्रयत्न प्रारंभ किया । समाचार पत्रोंमें इस बातके प्रकाशित होनेपर अनेक मुनिमहाराजाओंने भी आपके पास प्रशंसाके पत्र भेजे थे । उनमेंसे एक यहाँ उद्धृत किया जाता है । ता. ३०-७-१३ २५६ २४३९ आ० १८ २४३९ १८ वंदे वीरम् मु० अंबाला सिटी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशजावन पृ. २५५० तपर्गेच्छाचार्य श्रीमद्विजयवल्लभ सूरिजी महाराज मुनिमंडलसहित बम्बई में। मनोरंजन प्रेस, बम्बई ज, ४, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २५७ अनेक मुनिगण विभूषित, मुनिगणसेवित चरणका मल श्रीमान् श्रीमुनि वल्लभविजयजी महाराज योग्य सेवक लब्धिकी वंदना मंजूर हो । बाद प्रयोजन पत्र लिखनेका आपकी सुखसाताके समाचार विदित होवें यही है; क्योंकि विना इस पत्र लिखनके आपका समाचार दुर्लभ समझा गया सो यकीन है पूरण होगा। सुखसाताके समाचारातिरिक्त धर्मोन्नति किस प्रकार हो रही है यह भी शिष्यद्वारा लिखानेकी कृपा करनी। जैनमें वल्लभविजयजी महाराज और जैन प्रगति शीर्षक लेखके पढ़नेसे मालूम हुआ कि, गुरु महाराजकी यादगारामें बंबईमें भी कोई निशानी जरूर होगी; क्यों न हो आप जैसे सत् गुरु चरण सर्वस्व जावें और उन परमोपकारीका नाम कयामत तक न भुलाने लायक सहस्र नवीनोंको फलदायक न हो तो फिर किसके जानेसे होगा ? यदि हमारे संप्रदायिक इस संप्रदायके नेतामें किस्की परम भक्ति है ऐसा खयाल करें तो आप पर प्राण न्योछावरकरके कार्यको भी अकिंचित्कर समझने लगें यह मेरा पूर्ण विश्वास है। समाचार देते रहना विहारके सबबसे नाहीं मैं कोई पत्र लिख सका और नाहीं आपका चलो इतना काल सुषुप्तिमें ही समझ लूँगा अब जागृतिका समय है। द० ल० वि०" इस तरह सं० १९७० का आपका सत्ताईसवाँ चौमासा बंबईमें हुआ। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ आदर्श जीवन । AAAAAAAAAVANAAAAAAAA/ (सं. १९७१ से ७५ तक.) चौमासा समाप्त होनेपर आपने विहारकी तैयारी की। समाजमें खलबली मच गई। धनी गरीब सभी तरहके श्रावक आकर आपसे दूसरा चौमासा भी बंबईहीमें करनेकी विनती करने लगे, और कहने लगे कि,-" आपने जिस नवीन भावनाका अर्थात् कॉलेजोंमें पढ़नेवाले विद्यार्थियोंके लिए, वर्तमानशिक्षाके साथ ही धर्मकी शिक्षा भी दी जा सके ऐसा प्रबंध करनेका जो उपदेश दिया है उसको कार्यरूपमें परिणत करानेके लिए आपका यहाँ होना आवश्यक है।" यह जिकर व्याख्यानके समयका है। बंबईके श्रीसंघकी प्रेरणासे आपने श्रीपंचपरमेष्ठीकी पूजा तैयार की थी। उसी रोज लालबागमें बड़ी धूमधामके साथ पूजा पढ़ाई जानेवाली थी। इस लिए दुपहरके वक्त पूजामें आनेके लिए सभी भाई बहनोंसे कहा गया सेठ हेमचंद भाईने पूजाका सारा खर्च दिया था । पंचपरमेष्ठीके १०८ गुणके अनुसार सामग्रीकी १०८ थालियाँ तैयार की गई थीं। छत्तीस स्नात्री बने थे जो थाली लिए साक्षात् इन्द्रके समान सुशोभित होते थे । स्नात्रियों में सेठ हेमचंद भाई, सेठ देवकरण मूलजी, सेठ मोतीलाल मूलजी, सेठ नगीनभाई मंछूभाई, सेठ लल्लूभाई गुलाबचंद, सेठ गोविंदजी खुशाल, जौहरी मणिलाल सूरजमल, मोतीचंदजी कापडिया सॉलिसिटर आदि बंबईके प्रतिष्ठित धर्मात्मा गृहस्थ थे । इससे भी पूजाका आनंद अत्यधिक बढ़ गया था। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। 'पढ़ानेवाले थे मास्टर प्राणसुखलाल गवैया और सूरतवाले विजयचंद भाई आदि । सुरीले कंठोंने सभीके ऊपर जादूसा कर रक्खा था। भाईचंद भाई पहलवान और मंगू भाई दोनों श्रावक नृत्यकर अपनी प्रभुभक्ति प्रदर्शित कर रहे थे । उस वक्त ऐसा समा बँधा हुआ था, ऐसी तल्लीनता थी, जैसी रावणकी अष्टापद गिरि पर थी। इस आनंदको बंबईनिवासी आजतक स्मरण करते हैं। ___ अवसरके जानकार सद्गत सेठ नगीनभाई मंछूभाई बोले:"कृपानाथ ! इस प्रकारकी पूजा, इस प्रकारके-सेठ देवकरण भाई जैसे--इतने स्नात्री और इस प्रकारका आनंद मेरे जीवनमें मैंन पहली ही बार देखा है। इस आनंदके कर्ता और ऐसे सौभाग्यका दिन दिखानेवाले आप ही हैं। ऐसा आनंददान कर आप विहार करनेकी बात करते हैं, इससे हमारे हृदयमें चोट पहुँचती है । आप अभी, कमसे कम अगले चौमासे तक यहाँसे विहार करनेका नाम न लें। इतनी हमारी प्रार्थना स्वीकार करें। आपके विराजनेसे श्रीसंघका उत्साह, और भी बढ़ेगा और आपके उपदेशसे उसने जो महान कार्य करना स्थिर किया है उसको भी पूरा कर सकेगा।" बोलते बोलते नगीन भाईका दिल भर आया । जीवदयाप्रचारक सभाके मंत्री सेठ लल्लूभाईने थोड़े परन्तु ऐसे मार्मिक शब्दोंमें आपसे चौमासा वहीं करनेकी प्रार्थना Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आदर्श जीवन । की कि उनके साथ ही प्रायः सभी भाई बहिन,-जो उस समय वहाँ उपस्थित थे और जिनकी संख्या लगभग तीन हजार थी,-गद्गद स्वरमें बोल उठे,-" महाराज ! आप दयालु हैं। हम पर दया करें और एक चौमासेकी भिक्षा तो अवश्यमेव देवें । आपके रहनेसे हमे अपूर्व लाभ होगा।" - आपने भी विचार कर देखा तो विदित हुआ कि, इस समय श्रावक उत्साहमें हैं, इस लिए वे अवश्यमेव कोई न कोई संस्था धार्मिक संस्था कायम कर सकेंगे। इस लिए अच्छा जैसी श्रीसंघकी इच्छा कह कर वहीं चौमासा करनेकी सम्मति दे दी। । कुछ दिनके बाद एक संस्था स्थापित करना निश्चित हुआ । इस बातका विचार होने लगा कि, संस्थाका नाम क्या रक्खा जाय ? किसीने आपका नाम, किसीने स्वर्गीय आचार्य महाराजका नाम और किसीने संयुक्त नाम संस्थाके नामके साथ साथ रखनेकी सूचना दी। . हमारे चरित्रनायकने स्पष्ट शब्दोंमें कहाः-“मैं संस्थाके साथ अपना नाम जोड़नेकी अनुमति तो किसी भी दशामें नहीं दे सकता । रही गुरु देवका नाम जोड़नेकी बात, सो इसके लिए यद्यपि मुझे किसी तरहका विरोध नहीं है। गुरुदेवके नामसे कोई भी संस्था कायम हो इसके लिए मुझे अत्यंत खुशी है; तथापि मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि संस्थाके नामके साथ अमुक व्यक्ति विशेषका नाम जुड़ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन ! २६१ जानेसे उस संस्थाकी सार्वदेशिकता नष्ट हो जाती है; वह एक पक्षकी रह जाती है और उसका परिणाम यह होता है कि, वह थोड़े ही दिनोंमें बंद हो जाती है । अतः ऐसा नाम रक्खा जाय, जिसको सभी मानें और जिससे संस्थाकी सार्वदैशिकता नष्ट न हो । " इस बातको सबने माना और संस्थाका नाम ' श्रीमहावीर जैन विद्यालय ' रक्खा गया । विद्यालयके लिए ५०१३० ) रु० का चंदा भी हो गया । सें० १९७१ के ज्येष्ठ सुदी ८ के दिन आपके सभापति त्वमें स्वर्गीय आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरिजी की जयंती मनाई गई थी । इस जयंतीमें आपने जो व्याख्यान दिया था वह अपूर्व है । उसे पढ़नेवालेके हृदय में स्वर्गीय गुरु महाराज के प्रति श्रद्धा हुए बिना नहीं रहती । वह व्याख्यान उत्तरार्द्धमें दिया गया है । चौमासेमें अनेक तपस्याएँ हुई । आनंद पूर्वक सं० १९७१ का अठाइसवाँ चौमासा बंबई में समाप्त कर आपने सूरतकी तरफ विहार किया । मार्गमें जीवोंको जिन धर्मामृत पिलाते हुए आप बगवाड़ा पधारे | इस इलाके के कई गाँवोंमें मारवाड़ी और गुजराती श्रावकों की जुदा जुदा बस्ती है । जब कोई जातीय कार्य होता है तब सभी बगवाड़ेहीमें जमा होते हैं । इस इलाके के श्रावकोंने यहीं एक भव्य जिनालय बनवा रक्खा है । मूल Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvmummy नायक अजितनाथ प्रभु विराजमान हैं । यात्रा-दर्शन करने योग्य है । यह स्टेशन उदवाड़ेसे ३-४ माइल और वापीसे ५-६ माइल है । आप पन्द्रह दिन तक वहाँ विराजे और लोगोंको शिक्षाप्रचारका उपदेश दिया। लोगोंने आपसे प्रार्थना की,-" आप यहीं चौमासा करनेकी कृपा करें । हम यहाँ एक विद्यालय और छात्रालय बनवायँगे।" आपने वहीं चौमासा करनेका विचार किया। मगर मूरतसे सेठ नगीन कपूरचंद जौहरीकी धर्म पत्नी अपने पुत्र और मुनीमको साथमें लेकर मूरत पधारनेकी विनती करने आई हुई थीं; क्योंकि माघ महीनेमें उद्यापन कर ना चाहती थीं। इस लिए उन्होंने अधिक आग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि, आप उद्यापन होते ही वापिस यहाँ पधार जायँ और यहाँके लोगोकी मनोकामना पूरी करें । हो सका तो हम लोग चौमासेमें अन्यथा पर्युषणोंमें तो अवश्यमेव यहीं आयगे । संभव है और भी भाई बहिन आवें। __बगवाड़ेके लोगोंने सोचा कि, ऐसे ऐसे सेठ अगर यहाँ आकर रहेंगे या दर्शनार्थ आयेंगे तो हमें भी कुछ लाभ हुए बिना न रहेगा। इस लिए उन्होंने भी विनती की,-"आप आनंदसे मुरत पधारें। हम भी अपने इलाकेके सभी मुखिया भाइयोंको जमा कर सलाह कर लेते हैं । फिर आपके पास Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २६३ विनती करनेके लिए सुरत आवेंगे । आप कृपा करके सूरतसे आगे न पधारें। __ आपने फर्माया:-" अच्छी बात है । फाल्गुन तक मैं तुम्हारी राह देखुंगा, फिर मेरी इच्छा ।" ___ आप बगवाड़ेसे विहार कर वलसाड, पारडी, बिलीमोरा नवसारी आदि छोटे बड़े गाँवों में होते उपदेशामृत बरसाते और धर्मका जयजयकार कराते हुए सूरत पधारे । सूरत में बड़े समारोहके साथ आपका नगरप्रवेश हुआ। महा वदी ५ सं १९७१ के दिन सूरतकी गोपीपुरावाली श्रावककी नई धर्मशालामें जौहरी नगीनचंद कपूर चंदकी तरफसे उद्यापन निमित्त शांतिस्नात्र पूजा थी। साधु साध्वी और श्रावक श्राविकाओंसे उपाश्रय भरा हुआ था। वयो वृद्ध पंन्यासजी महाराज ( सांप्रत आचार्य महाराज १०८ श्रीसिद्धिविजयजी भी विराजमान थे । उस समय हमारे चरित्रनायकने स्त्रीशिक्षाके संबंधमें एक प्रभावोत्पादक व्याख्या न दिया था और असहाय श्राविकाओंके लिए एक श्राविका श्रम खोलनेकी आवश्यकता बताई थी । इस व्याख्यानका यह प्रभाव हुआ कि, वहीं आश्रम स्थापित करना निश्चित हो गया और उसके लिए साढ़े चार हजार रुपये उसी समय जमा हो गये । उस व्याख्यानका कुछ उपयोगी अंश हम आत्मानंदप्रकाशसे उद्धृत करते हैं: Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आदर्श जीवन। ___ "सात क्षेत्रोमें चार क्षेत्र (साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ) साधक हैं और तीन क्षेत्र (जिन प्रतिमा, जिनमंदिर और ज्ञान ) साध्य हैं। जैन समाजमें साध्य क्षेत्रोंकी प्रभावना उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। परन्तु साधक क्षेत्र प्रति दिन क्षीण होते जा रहे हैं। उनमें भी श्रावक और श्राविका दो क्षेत्र जो दूसरे पाँच क्षेत्रोंके पोषक हैं उनकी क्षीणता अत्यधिक हो रही है । सभी मानते हैं और यह सच भी है कि, जैन बहुत ज्यादा धन खर्चते हैं। परन्तु हम दुखी होती हुई अनाथ स्त्रियोंका विचार करेंगे तो मालूम होगा कि वे बहुत ज्यादा दुखी हैं। उनके दुःख मिटानेके लिए जैनोंने कभी विचार नहीं किया। आजकल हरेक जातिने आश्रम खोले हैं और उनमें सैकड़ों अनाथ स्त्रियाँ-जो निकम्मी दुःखमें अपना जीवन बिताती थीं-अपना कर्तव्य पालनेके लिए तैयार हो रही हैं। मगर जैन समाजमें जो अनाथ अबलाएँ हैं उनके दिन किसी साधनके न होनेसे दुःखमें बीत रहे हैं । खेदकी बात है कि संघने अबतक इस तरफ ध्यान नहीं दिया । उजमणे, स्नात्र महोत्सव आदि ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी प्राप्तिके साधन हैं। इनसे जसे अपना साध्य सिद्ध हो सकता है वैसे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी आराधनके लिए अनाथ अबलाओंके साधनके लिए भी कुछ प्रबंध होना आवश्यक है।" बंबईके श्रावकोंकी विनतीसे पं० जी महाराज श्रीललित | Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । विजयजीको महावीर जैनविद्यालयकी स्थापना करानेके लिए आपने सूरत से बंबई भेजा और आप बगवाड़ेके दिये वचनको याद कर सूरतमें विराजे । परन्तु वहाँ कुछ होता नजर: न आने से आपने जब सूरतसे विहार करनेकी इच्छा की तब सुरतके श्रावकोंने बड़े ही आग्रहके साथ चौमासा वहीं अर्थात् सूरतहीमें करनेकी विनती की। आपने देश कालका विचार कर चौमासा वहीं करना स्वीकार कर लिया । जब वहीं चौमासा करना स्थिर हो गया तब आपने सूरतके आस पासके गाँवोंके लोगोंको धर्मामृत पिलाना स्थिर कर सूरतसे विहार किया । २६५ आप विहार कर अनेक भव्य जीवों पर उपकार करते हुए सूरतके आस पास गाँवोंमें- जहाँ अनेक वर्षोंसे मुनिराजोंके दर्शन या विहार नहीं होते हैं- विचरण करते और अज्ञ जीवोंको प्रतिबोध करते हुए नवसारी और नवसारीसे कालियावाड़ होकर सीसोदरे पधारे । सीसोदरेमें - पालीताने की दुर्घटनाके कारण दुखियों को मदद देनेके लिए उस समय कुछ चंदा हुआ था । वह अहमदाबाद भेज दिया गया था । उसको लेकर वहाँके लोगोंमें कुछ तनाजा हो रहा था । आपने उसे उपदेश देकर मिटाया । सीसोदरा गाम में आपके पास पंजाबमें पधारनेका विनपत्र आया और अंबालानिवासी लाला गंगारामजी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट आदि पंजाब के श्रावक भी आये । लालाजी Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आदर्श जीवन । वगैरा पंजाबी भाइयोंको आपने उचित उपदेश और आश्वासन देकर विदा किया और एक विज्ञप्ति पंजाब श्रीसंघ के नाम प्रकाशित कराई | वह यहाँ दी जाती है:सकल श्रीसंघ पंजाबको जवाब | श्री वीतरागाय नमः । 44 सकल श्रीसंघ पंजाब योग्य धर्म लाभके साथ विदित हो कि, यहाँ सुख साता है धर्म ध्यानमें उद्यम रखना । आपकी तरफ से प्रार्थना पत्र तथा लाला गंगारामजी आदि श्रावक समुदाय मिले 1 समाचार ज्ञात हुए। आप फिक्र न करें । स्वर्गवासी, प्रातःस्मरणीय गुरु महाराज श्री १००८ | श्रीमद्विजयानंद सूरि ( आत्मारामजी ) महाराजकी आज्ञाका बराबर पालन किया जायगा । चाहे आप विज्ञप्ति करें चाहे न करें । हमारा उस तरफ आनेका परिपूर्ण भाव है। देरी केवल इसी बात की समझें कि श्रीगिरनारजीकी यात्रा अभी तक हुई नहीं है । श्रीनेमिनाथ स्वामीकी यात्रा होते ही उसी तरफ विहार समझ लीजिए । " सीसोदरेमें व्याख्यानानन्तर विनती करते हुए पंजाबी भाइयोंमेंसे लाहोरनिवासी लाला मानकचंदने एक भजन- जो खास विनती के लिये ही बनाकर लाये थे - इस तरह रोते हुए इसके भर भर कर सुनाया कि जितने बाई भाई उस वक्त मौजूद थे सबकी आँखोंमें पानी भर आया । करुणाई चेता हमारे चरित्रनायककी आँखें भी करुणारस से भीग गई। सी Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन २६७ सोदरावाले इस दृश्यको अबतक याद कर रहे हैं। हम चाहते थे कि उस भजनका आनंद हमारे वाचकदको मिलजावे इस हेतु और खास करके सीसोदरा निवासियोंको याद दिलानेकी खातिर हम उसे यहाँ उद्धृत कर देते मगर खेद है. कि, वह हमें प्राप्त न हो सका। ___ सीसोदरेसे विहार कर आप अष्टगाँव नामक गाममें. पधारे । वहाँ भी सीसोदरेके कारण फूट हो रही थी । आपने उसे मिटाई ओर वहाँका संघ, जो फूटके कारण, एकत्र 'सधर्मी वात्सल्य' जीमता न था सो जीमने लगा। वहाँ कोई जिनालय नहीं था, इस लिए आपके उपदेशसे वहाँके लोगोंने एक जिनालय बनाना स्थिर कर चंदा जमा करना शुरू किया । अष्टगाँवसे विहार कर सातम नामा गाममें कुछ रोज ठहर कर आप टाँकल गाममें पधारे । टाँकल गाममें भी कोई जिनालय नहीं था । आपने उपदेश देकर मंदिरके लिए चंदा करवाया । ___टाँकलसे नोगामा होकर करचलिया पधारे । वहाँ श्रावकोंके करीब पैंतीस घर हैं । तो भी किसी कारण वश कोई जिनमंदिर नहीं बन सका था । आपने उन्हें समझा बुझाकर मंदिरा बनवानेके लिए तैयार किया। मंदिर नहीं बनानेका जो खास कारण गुजरातीके आत्मानंद प्रकाशमें प्रकाशित हुआ उसका अक्षरशः अनुवाद हम यहाँ देते हैं,__ "करचलियाके पास करीब एक कोसके फासले पर वाणियावाड़ नामका एक छोटासा गाँव है । बनियेका एक Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । भी घर नहीं है; किन्तु वहाँ जिनालय है इससे और उसके वाणियावाड नाम से साबित होता है कि, वहाँ पहले बनियों की बहुत ज्यादा बस्ती होगी। मंदिर में मूलनायक श्रीसंभवनाथ स्वामीकी प्रतिमा है । उनकी पलांठी ( पाटली ) पर इस अभिप्रायका एक लेख है कि, यह प्रतिमा नगधराके श्रीसंघ ने ब्यारामें भराई थी । इससे भी साबित होता है कि नगधरा ( ? ) श्रावक थे वे वहाँ रहते थे और इसी लिए उस मुहल्लेका नाम वाणियावाड़ हुआ था । कालांतर से वहाँ धीरे धीर बस्ती कम होने लगी । वह यहाँ तक कम हुई कि पर बनियेका तो क्या किसी दूसरे उच्च वर्णवालेका घर भी नहीं रहा । थोड़े से घर वहाँ हलकी जातियोंके हैं । वे नहींके समान ही हैं । २६८ पास ही होनेसे कर चलियाका श्रीसंघ उपर्युक्त मंदिरकी सम्भाल रखता था । करचलियाके श्रीसंघको आसपासके श्राव कोंने कई बार कहा कि तुम प्रतिमाजीको अपने गाँवमें ले आओ; मगर कुछ प्रचलित दंतकथाओंके कारण उनकी हिम्मत चलती न थी । कहा जाता है कि, सं० १९२५ में एक श्री पूज्यजी आये थे उन्होंने करचलियाके एक मुखिया श्राव कको कहा कि, प्रतिमाजाको करचलियेमें ले चलो । वह राजी हो गया । इस लिए श्री पूज्यजीने प्रतिमाजीको गादीसे उठा कर म्यानेमें पधराया और म्याना करचलियाकी तरफ रवाना हुआ । वाणियावाड़से करचलिया आते मार्ग में एक छोटीसी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २६९ नदी है । उसमें हमेशा पानी रहता है । म्यानेवाले जब नदीके बीचमें पहुंचे तब उनके पेटमें ऐसा जोरका दर्द हुआ कि, उनके लिए खड़ा रहना कठिन हो गया । उनकी आँखोंके आगे अंधेरा छागया। इससे वे एक कदम भी आगे न बढ़ सके । श्रीपूज्यजीको जब यह बात कही गई तब उन्होंने कहा,-"पछि लौट जाओ।"पीछे फिरनेको उद्यत होते ही उनका दर्द जाता रहा और उन्हें आँखोंसे भी दिखाई देने लगा । तब श्रीपूज्यजीने कहा:--" अधिष्ठाताकी मरजी करचलिया जानेकी नहीं है।" सं०१९२६ में पुनः प्रभुको गद्दी पर स्थापित किया। बीचमें फिर सलाह हुई कि, प्रभुको करचलियेमें ले आवें । संघने वाणियावाड़में जाकर चिहियाँ डाल कर एक कुमारी कन्यासे निकलवाई मगर संतोषजनक उत्तर न मिला । इत्यादि बातोंके कारण लोगोंके मनमें संदेह रहता था । + x x x उनके पुण्योदयसे मुनि श्री १०५ वल्लभविजयजी महाराजका उस तरफ पधारना हुआ। साठ साठ बरसकी आयुवाले कहते हैं कि, आजतक इधर किन्हीं मुनि महाराजका विहार नहीं हुआ था। पहली ही बार इधर पधारनेकी इन महाराजने दया की है। सत्य है यदि इधर मुनि महाराजोंका विहार होता तो यहाँके लोग लहसन, प्याज वगैरा अभक्ष खाने लग गये हैं सो न खाते । महाराजने उन्हें समझा कर उनसे अभक्ष्यका त्याग करवाया है । अस्सी फी सदीने अभक्ष्यका Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૦ आदर्श जीवन । त्याग कर दिया है । जो रहे हैं वे भी संभवतः शीघ्र ही कर देंगे। x x x x आपके उपदेशसे करचलियेके लोगोंने फिरसे निश्चित कर लिया कि वाणियावाड़से प्रभुको यहाँ लाकर पधराना और जो आशातना होती है उसे बंद करना । आपने फर्माया कि, हम विधिसहित प्रार्थना करेंगे, यदि करचलियमें पधारनेकी अधिष्ठाताकी मरजी न होगी तो प्रतिमाजी स्थानसे उठेंगे ही नहीं। __ सं. १९७२ के वैशाख सुदी ६ का मुहूर्त स्थिर हुआ। xxxxx विधि सहित, धूमधामके साध प्रभुको रथमें विराजमान कर करचलियेमें ले आये । उस समय लोगोंमें अपूर्व उत्साह था । महाराजके प्रतापसे. श्रावक श्राविकाओंको पूजा, दर्शन, भक्ति आदिका लाभ मिलने लगा। इससे वहाँके श्रावक आपका अत्यंत उपकार मानने लगे। x x x x x x x x " करचलियेसे विहार कर आप बुहारी आदि स्थानोंके लोगोंको धर्मामृत पिलाते हुए सं. १९७२ का उन्तीसवाँ चौमासा करनेके लिए मूरत पधारे और गोपीपुरके उपाश्रयमें विराजे । उस समय आपके साथ (१) मुनि श्रीविमलविजयजी (२) मुनि श्रीविबुधविजयजी (३) मुनि श्रीतिलकविजयजी (४) मुनि श्रीविचक्षणविजयजी (५) मुनि श्रीमित्रविजयजी ऐसे पाँच साधु थे। चौमासा बड़े आनंदसे धर्मध्यानमें समाप्त हुआ। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदशजावन. : / १००८ आचार्य श्रीमद्विजयवल्लभ सूरिजी महाराज सूरतमें मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४. पृ. २७१. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २७१ शान्त मूर्ति मुनि महाराज श्रीहंसाविजयजीका आपके पास एक पत्र अया था उसके उत्तरमें आपने जो पत्र लिखा था, उसमेंका सर्वोपयोगी भाग यहाँ उद्धृत किया जाता है:-- ____ + + + अपने लोग गफलतमें रह जाते हैं । यह सारा ही प्रताप अशिक्षाका है। यह आप जानते ही हैं। यदि एक भी अच्छा सुशिक्षित ऊँचे दर्जेका श्रावक हो तो सभी काम अच्छी तरह हो सकते हैं। मगर अफसोस इस बात का है कि. लाखों श्रावकोमें एक भी ऐसा नहीं है जिसका प्रभाव चाहिए वैसा, प्रत्येक स्थानके श्रावकों पर पड़ सके । ऐसा होनेपर भी लोगोंकी नींद नहीं टूटती । यह दशा शोचनीय है । हजारों लाखों रुपयोंकी आहुति प्रति वर्ष बाजे गाजे राग रंग और मेवामिष्टान्न उड़ानेमें होती हैं । मगर शिक्षाके नाम तो बस भगवानकानाम ही है । अब तो आप जैसे प्रतापी पुरुषोंका इस तरफ ध्यान जाय और निरंतर चारों तरफसे यह उपदेश होने लगे कि, अमुक कार्य तुम्हें करना ही पड़ेगा, तो संभव है हमारे लिए कभी सिर उठाकर देखनेका समय आ जाय अन्य था, अभी तो मुंहपर तमाचा मारकर लाल मुँह रखने जैसी बात हो रही है। इस बातको आप मुझसे अधिक जानते हैं । आपको विशेष लिखना मानों सरस्वतीको पढ़ाने बैठना है।" - महेसानेके श्रावकोंने एक शिक्षाकी योजना तैयार करके आपके पास भेजी थी। उसके उत्तरमें आपने जो सम्मति दी थी, वह यहाँ उद्धृत की जाती है: Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ आदर्श जीवन । " तुम्हारी योजना देखी । इसमें कोई संदेह नहीं कि, वह बहुत ही अच्छी और लाभदायक है । मगर पहले ऐसे शिक्षक उत्पन्न करनेकी आवश्यकता है कि, जो छोटी उम्रके विद्यार्थियोंके हृदय तुम्हारी योजनाके अनुसार बना सकें। शिक्षक सदाचारी और धर्मप्रेमी होंगे तो वे विद्यार्थियोंको भली प्रकार तैयार कर सकेंगे। मगर जहाँ शिक्षक लोभी हों, एक जगह बीस मिलते हों और दूसरी जगह पचीस मिल सकते हों तो पहली जगहको तत्काल ही छोड़ कर चले जाने वाले हों; स्वच्छंदता पूर्वक व्यवहार करनेवाले हों, जहाँ शिक्षक होकर आये हों वहाँ समुदायमें मेलकी जगह विरोध कराते हों; ऐसे शिक्षकोंका विद्यार्थियों और उनके मातापिताके दिलों पर कैसा प्रभाव पड़ता है सो बात विचारणीय है । इस लिए यदि तुम वास्तविक सुधार चाहते हो तो पहले सच्चे शिक्षक तैयार करो x x x + + + शिक्षकोंके बिना तुम चाहे कैसे ही नियम तैयार करो वे सर्वथा निरुपयोगी हैं। क्योंकि विद्यार्थियोंको किस मार्ग पर चलाना यह बात सदा शिक्षकोंहीके हाथमें रहती है। x x + x + तुम्हारा आशय और प्रयास बहुत ही अच्छा और अनुमोदन करने लायक है।" उपर्युक्त विचारोंसे पाठकोंको पता चलेगा कि, शिक्षाके विषयमें आपके विचार कैसे हैं ? जैन समाजको शिक्षित बना नेकी आपके हृदयमें कितनी लगन है । मूरतसे विहार कर विचरते हुए आप पोससुदी १२ के Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २७३ - 'दिन खंभात पधारे । समारोहके साथ आपका स्वागत हुआ। वहाँ आप नई धर्मशाला (उपाश्रय ) में ठहरे । वहाँ आपकी गृहस्थावस्थाकी भानजी श्रीमती चंचलबहिनको माघ वदि ६ सं० १९७२ के दिन बड़े समारोहके साथ दीक्षा दी। नाम चंद्रश्रीजी रक्खा । साध्वी देवश्रीजीकी शिष्या हुई। खंभातसे विहार कर आप धोलेरा पधारे । वहाँसे मुनि श्रीविलासविजयजी और साध्वीजी श्रीचंद्रश्रीजीको पं० महाराज श्रीसोहनविजयजीने बड़ी दीक्षा दी। धोलेरासे विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते और लोगोंको धर्मामृत पिलाते हुए आप दादाकी चरण वंदना करने पालीताने पधारे। पालीतानसे विहार कर आप विचरते हुए जूनागढ़ पधारे वहाँ बड़े समारोहके साथ आपका सामैया हुआ । उस समय आपके साथ पन्द्रह साधु थे । उनके नाम ये हैं (१) पं० श्रीसोहनवि० (२) श्रीललितवि० (३) श्रीविमलवि० (४) श्रीविबुधवि० (५) श्रीतिलकावि० (६) श्रीविद्यावि० (७) श्रीविचारवि० (८) श्रीविचक्षणवि० (९) श्रीमित्रवि० (१०) श्रीसमुद्रवि० (११) श्रीविलासवि० और (१२) श्रीप्रभावि० ये सब आपहीके परिवारके हैं। इनके उपरांत (१३) श्रीविनयवि० (१४) श्रीकेसरवि० ये दोनों १०८ श्रीउपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयजीके शिष्य और (१५) १०८ श्रीउद्योतविजयजी महाराजके शिष्य श्री कस्तुर विजयजी थे। १८ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭8 आदर्श जीवन। आनंद पूर्वक बाल ब्रह्मचारी श्रीनेमिनाथ भगवान की यात्रा की । बारह दिन तक आप वहाँ विराजे । तीन सार्वजनिक व्याख्यान भी हुए। एक महावीरजयंती पर, दूसरा सरकारी हाइ स्कूलमें और तीसरा बीसा श्रीमाली जैन बोर्डिंगके पारितोषिक-वितरणकी सभामें । बंबईके जैन मूर्तिपूजक समाजमें सेठ देवकरण मूलजी विशेष प्रसिद्ध हैं। हमारे चरित्रनायकके वे अनन्य भक्त हैं। उनको हमारे चरित्रनायकने ता. ३-५-१६ के दिन एक पत्र लिखा था और उसमें आपने शिक्षाप्रचारमें खास तरहसे धन खर्चनेका उपदेश दिया था। उसके उत्तरमें ता. ५-५-१६ को उन्होंने लिखा था:-"+++ + मुझे आपने शिक्षाप्रचारके लिए जो कुछ लिखा है वह सर्वथा योग्य है । वर्तमान समय अनेक दलीलें देकर शिक्षाकी आवश्यकताको प्रमाणित कर रहा है । मैं अब जो कुछ शिक्षाप्रचारका कार्य करना चाहता हूँ, वह आपकी सलाहसे ही करूँगा । मेरी गरीब जन्मभूमि सौराष्ट्रके जैनियोंके साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है; क्योंकि शिक्षाके अभावसे उनकी स्थिति बहुत ही दयाजनक है। आपकी आज्ञाके अनुसार जुदा जुदा स्थानोंमें थोड़ी थोड़ी रकम न खर्च, जहाँ शिक्षाका सर्वथा अभाव है वहीं इकट्ठी खचूंगा। आपके पास आकर आपकी सलाहके अनुसार यथायोग्य करनेकी इच्छा है। " + + + + वनथलीमें शीतलनाथ प्रभुके पाट महोत्स Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २७५ वका सुनहरी दिन जेठ सुदी ६ का है । उस समय वनथलीमें जयंती करनेकी इच्छा है । उस समय आप समग्र पूज्य मुनिवरोंकी उपस्थिति होगी तो मैं और वनथलीका संघ विशेष रूपसे धर्मकी उन्नति कर सकेंगे । + x + + +" __ आपका विश्वास है कि, जैन धर्मकी उन्नति तबतक न होगी जबतक सारे जैनियोंका कोई अच्छा संगठन न होगा। इस विचारके अनुसार ही आपन श्री जैनश्वेतांबर कॉन्फरंसमें पंजाबके श्रीसंघको शामिल होनेका उपदेश दिया और उसके अनुसार ही पीछेसे भी आप जहाँ तहाँ इस कॉन्फरंसको दृढ बनानका उपदेश देते रहे हैं। __सं० १९७२ चैत्र वदी ४, ५, ६ के दिन बंबईमें उपयुक्त कॉन्फारसका अधिवेशन हुआ था। उस समय आपने स्वागत समिति ( Reception committee) के मंत्रीके पास सहानुभूति प्रदर्शक एक पत्र भेजा था और उसमें दो बातों पर कॉन्फरेंसको खास ध्यान देनेके लिए लिखा था। पहली बात यह थी कि,-कॉन्फरेंसको जितना हो सके उतना, अपनी सारी शक्ति लगा कर, शिक्षाप्रचारका कार्य करना चाहिए । दूसरी बात यह थी कि,-कॉन्फरंसको झगड़ेकी बातोंसे सदा दूर रहना चाहिए। कॉन्फरेंस समाप्त होनेके बाद श्रीयुत मोतीचंद गिरधर लाल कापडिया सोलिसिटरने भावनगरसे हमारे चरित्रनाय Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आदर्श जीवन। कके पास जो पत्र भेजा था उसका कुछ अंश हम यहाँ उद्धत करते हैं, " आपका पत्र कॉन्फरंसमें ढड्राजीने सारा पढ़ा था । उसे सुनकर सबको प्रसन्नता हुई थी। + + + + + ___ " + + + + आपकी कृपासे कॉन्फरंसका कार्य पूर्ण हुआ । नींव मजबूत बनी । आगे पालनपुर जानेकी इच्छा है । पालनपुर आपका क्षेत्र है। आप पर वहाँके लोगोंकी बड़ी भक्ति है। हम सभी चाहते हैं कि पालनपुरमें, कॉन्फरंसके समय, आप उपस्थित होंगे। + + + ___" + + + + आपने विद्यालयके कार्यसे हमें एक सबक सिखलाया है कि, दृढ मनसे काम किया जाय तो सब कुछ मिल जाता है । कॉन्फरंसके समयमें दूसरी बार उसका अनुभव हुआ है । यदि आपके समान सर्वत्र विशाल विचार हों तो उदय शीघ्र ही दिखाई दे । अनेक कठिनाइयोंके बीचमें कार्य करना है । काम धीरे धीरे आगे बढ़ेगा। + + + + " __आपने जब जूनागढ़से विहार किया तब वहाँका जैनसंघ ही नहीं अन्यान्य धर्मावलंबी भी उदास थे । सब चाहते थे कि आप वहीं चौमासा करें; किन्तु आप जामनगरकी तरफ जानेका इरादा रखते थे, इस लिए आपने पंन्यासजी महाराज श्रीललितविजयजीको तो पहले ही रवाना कर दिया था फिर आपने भी विहार किया । और वनथली पहुंचे। 'जेठसुदी ६ सं० १९७३ के दिन वनथलीमें शीतलनाथ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २७७ प्रभुकी प्रतिष्ठा महोत्सवकी सालगिरह थी। हमारे चरित्रनायकके सभापतित्त्वमें उत्सव हुआ। शिक्षाके विषयमें आपका उपदेश हुआ। उसमें सेठ देवकरण मूलजीने पचास हजार रुपये जूनागढ़के 'श्रीवीशा श्रीमाली जैनबोर्डिंगहाउस' को दिये। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि, यदि सौराष्ट्रके जैन इंस बोर्डिंगके लिए पचीस हजार रुपये जमा करेंगे तो वे पचास हजार रुपये और भी देंगे। वनथलीसे जामनगर जानेके लिये विहार करके आप छत्रासा गाममें पधारे । वहाँ आपके साथके एक मुनि महाराजकी तबीअत खराब हो गई। इसलिए उनका इलाज कराने फिरसे जूनागढ़ जानापड़ा। चौमासेके दिन निकट आ गये थे, इस लिए आपने जामनगर जानेका विचार छोड़ दिया और वैरावलके श्रीसंघकी विनती स्वीकार कर ली। कुछ साधुओंका, आपने, वैरावलकी तरफ़, विहार भी करवा दिया। क्षेत्रस्पर्शना प्रबल होती है । जहाँकी होती है वहीं मनुष्यको -चाहे वह महान हो या साधारण-जाना और रहना पड़ता है । स्पर्शना जूनागढ़की थी, फिर आप वहाँसे अन्यत्र जा कैसे सकते थे ? रुग्ण मुनिजीकी तबीअत और भी ज्यादा खराब हो गई। जूनागढ़का संघ तो पहलेहीसे यह चाहता था कि, आपका चौमासा वहीं हो, अब तो विशेष आग्रहके साथ उसने विनती की कि, आप यहीं चौमासा करना स्वीकार करें। मुनि महाराज जबतक नीरोग न होंगे तबतक हम आपको यहाँसे विहार न Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आदर्श जीवन । करने देंगे । परिस्थिति देखकर आपने वहीं चौमासा करना स्थिर कर लिया। ___ जब वैरावलवालोंको यह बात मालूम हुई, वे बड़े उदास हुए । वहाँके कुछ श्रावकोंने आकर वैरावलमें किन्हीं महात्माको चौमासेके लिए भेजनेकी विनती की । आपने उनकी विनतीको स्वीकार कर पं० सोहनविजयजी महाराजको वहाँ चौमासा करनेके लिए भेज दिया । उनके साथ मुनि श्रीविद्याविजयजी महाराज, मुनि श्रीविचारविजयजी महाराज, और मुनि श्रीसमुद्रविजयजी महाराजको भेज दिया। आपने सं०१९७३ का तीसवाँ चौमासा जूनागढ़में किया। आपके साथ (१) मुनि श्रीविमलविजयजी महाराज (२) मुनि श्रीकस्तूरविजयजी महाराज (३) मुनि श्रीविबुधविजयजी महाराज ( ४ ) मुनि श्रीविचक्षणविजयजी महाराज ऐसे चार साधु थे। इस चौमासेमें धार्मिक क्रियाएँ पूजा प्रभावनाएँ, अठाई, एकासन, व्रत, छठ, अट्ठम आदि अच्छे हुए थे। ___ बंबईके श्रीजीवदया ज्ञानप्रसारक फंडकी तरफसे वहाँ ता. २-६-१६ को एक सार्वजीनक सभा हुई थी। उस सभाके सभापतिका स्थान आपने सुशोभित किया था। __ता० १६-६-१६ का लिखा हुआ जैनशासनके संपादकका आपके पास एक पत्र आया था । उसमें लिखा था कि,-" आप बालकोंको सुशिक्षित बनानके लिए इतना परि Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2017 १००८ आचार्य महाराज श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी पंजाब काठियावाडके श्री संघ तथा विनयविजयजी म० आदि मुनिमंडलसहित ( गिरनार तीर्थंपर ) पृ. २७८, Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २७९ श्रम करते हैं इसके लिए बालक आपके अनन्य ऋणि हैं और उसमें मेरा भी हिस्सा है।" __ सेठ देवकरण मूलजीको उनकी उदारताके उपलक्षमें बंबईमें एक मानपत्र दिया गया था। उसके बाद ता०२-८-१६ को उन्होंने हमारे चरित्रनायकके पास एक पत्र भेजा था । उसको हम यहाँ देते हैं, "xxxxx बंबईमें मेरे प्रेमी ज्ञातिबंधुओंने मुझे मानपत्र दिया था। उसके संबंधमें आपका एक उपदेशप्रद और स्तुतिपात्र तार हमारी ज्ञातिके प्रमुख पाटलिया पानाचंद झीणाभाईके पास आया था। वह सभामें पढ़कर सुनाया गया था । उसके लिए, मैं आपका अन्तःकरणपूर्वक, जो कभी भूला न जाय ऐसा, उपकार मानता हूँ और आप पवित्र गुरु महाराजको अभिवंदन करता हूँ। विशेष यह है कि, मैंने अपने गरीब जातिभाइयोंके हितके लिए जो कुछ थोड़ीसी सखावत की है, वह आपके पवित्र उपदेशके कारण ही की है । इस लिए वास्तविक मानके योग्य तो आप हैं, मैं नहीं। ___ जूनागढ़ बोर्डिंगके लिए श्रीमहावीर जैनविद्यालयकी तरह, देशकी स्थितिको देखकर आप उत्तम कार्यक्रमकी योजना कर देंगे ऐसी आशा है।" पाठक जानते ही हैं कि, हमारे चरित्रनायकके जीवनका Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आदर्श जीवन। जावन। मुख्य ध्येय, मुक्तिसाधनसे दूसरे नंबरका यदि कोई है तो वह शिक्षाप्रचार ही है । जहाँ कहीं जाते हैं और जहाँ कहीं आप चौमासा करते हैं वहीं पाठशाला पुस्तकालय आदि ज्ञानके साधन लोगोंके लिए उपस्थित किये विना नहीं रहते। ___ जूनागढ़में भी आपके उपदेशसे दो संस्थाएँ कायम हुई। एकका नाम है ' श्रीआत्मानंद जैनलायब्रेरी' और दूसरीका नाम है 'जैनस्त्रीशिक्षण शाला' इन संस्थाओंकी उद्घाटन क्रिया ता. २५-९-१६ के दिन आपहीके हाथसे हुई थी। लायब्रेरीके लिए संघने चंदा एकत्रित किया था और शाला डॉक्टर त्रिभुनवदास मोतीचंदके पुत्र सेठ प्रभुदास तथा छोटालालने, अपने स्वर्गीय बंधु जगजीवनदासके स्मरणार्थ, १००००) दस हजार रुपये देकर स्थापित करवाई थी। शालाका खर्चा इन्हीं दस हजारके ब्याजसे चलता है । __चौमासा समाप्त होने आया तब जामनगर श्रीसंघने विनती की कि-चौमासेमें हमारे अन्तरायके उदयसे आप न पधार सके; मगर अब जरूर पधारनेकी कृपा करें। ___ हमारे चरित्रनायक जबसे पंजाबको छोड़ आये तबसे पंजाबका श्रीसंघ बहुत व्याकुल था । पंजाबमें मुनियोंके अभाव श्रावक लोग पूर्णरूपसे धर्माराधन नहीं कर सकते थे । इस लिए हमारे चरित्रनायकके पास पंजाबमें पधारनेकी विनती करने जानेके लिए श्रीआत्मानंद जैनसभा अंबालाके सभापतिकी तरफसे पंजाबके प्रत्येक शहरके संघके पास जो Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। २८१ 'पत्र भेजा गया था, उसका उपयोगी अंश हम यहाँ उद्धृत करते हैं, भारत वर्षके बीचमें, वल्लभ दीनदयाल । जिस नगरीमें जा रहें, करते उसे निहाल ॥ " + + + + + करीब नौ साल हुए हैं, जबसे श्री श्री मुनि महाराज श्रीवल्लभाविजयजी महाराज पंजाबसे गुजरातकी ओर पधारे तबसे उनके पश्चात् ही लगभग दूसरे सब मुनिराज भी पंजाबसे गुजरातकी ओर पधार गये हैं। इस नौ सालके अवसरमें साधु मुनिराजोंके पंजाबमें न होनेसे धर्मोन्नतिमें जो कुछ बाधा पड़ी है वह सब आप महानुभावोंपर विदित ही है । कई बार पंजाबकी तरफसे अलग अलग मुनिराजोंकी सेवामें पंजाब पधारनेकी विनती की गई मुनिराज श्रीवल्लभविजयजी और उनके शिष्योंके सिवाय अन्य सभी मुनिराजोंका यही संकल्प मालूम हुआ कि, वे पंजाबमें नहीं पधारेंगे । मुनिराज श्रीवल्लभविजयजीकी सेवामें भी उस तरफ़के लोगोंकी विनती प्रायः अधिक हुआ करती है और उनका प्रभाव पड़ता रहता है । इस लिए उनको पंजाब 'पधारने देर और बाधा हो जाती है। + + + पंजाबकी दशाका ध्यान करके, बिना मुनिराजोंके, कैसी हानि हो रही है यह सोचके, अंबालेके श्रीसंघने यह सलाह की है किपंजाबके हरेक शहरके कुछ मुखिया भाई इकट्ठे होकर जूनागढ़ जायँगे और पंजाबमें पधारनेकी विनती करेंगे ते Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आशा है कि महाराजजी अपने शिष्यों सहित पंजाबको शीघ्र ही पवित्र करेंगे + + + + + + " २८२ तदनुसार पंजाब संघके करीब एक सौ मुखिया आपके पास विनती करनेके लिए जूनागढ़ आये । आप कार्तिक सुदी १५ से ही गिरनार पर विराजमान थे । संघ मार्गशीर्ष वदी प्रथम ४ को आपके चरणोंमें उपस्थित हुआ। उस दिन पूजा, यात्रा, प्रभावनादि कर, दूसरे दिन संघने व्याख्यानके बाद जिस आधीनता, नम्रता और भक्तिपूर्ण हृदयके साथ पंजाबमें पधारनेकी आपसे प्रार्थना की, उसको देख सुनकर समस्त उपस्थित सज्जन आनंदाश्रुसे अपने नेत्रोंको तर किये विना न रह सके अनेकोंके तो उन अश्रुओंने कपोलोंको भी प्लावित कर दिया । बंबई श्रीसंघकी भी कई दिनोंसे साग्रह विनती थी । इस लिए आपने फर्मायाः - " यदि बंबई में कोई धर्म और संघकी उन्नतिका कार्य मेरे जानेसे होनेकी संभावना होगी तो मैं पहले बंबई जाऊँगा और वहाँसे सीधा फिर पंजाबकी तरफ विहार करूँगा । अब मुझे पंजाबमें आया ही समझो । " मार्गशीर्ष वदि ५ को आप जूनागढ़में पधारे और ६ को वहाँसे वैरावलकी तरफ विहार किया । लोग आपको मार्ग में अनेक स्थानोंपर ठहरने के लिए आग्रह करते थे; परन्तु वैरावलमें उपधानकी क्रिया हो रही थी, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। मालाका मुहूर्त नजदीक था, इस लिए आप कहीं न ठहरकर सीधे वैरावल पधारे। वैरावलमें बड़े समारोहके साथ आपका सामैया हुआ । कहा जाता है कि, वैरावलमें ऐसी धूम और ऐसे उत्साहके साथ इसके पहले किन्हींका सामैया नहीं हुआ था। बाजारकी सारी दुकानें सजाई गई थीं और शहर भरमें ध्वजा पता काएँ लगवाई गई थीं । थोड़ी थोड़ी दूर पर गुहलियाँ (स्वागतगीत) गाई गई थीं । आपको कई लोगोंने सच्चे मोतियोंसे बधाया था। __ आपके वैरावलमें पहुँचते ही मालाका महोत्सव प्रारंभ हो गया था। समवसरणकी और नंदीश्वरद्वीपकी रचना हुई थी। रथयात्रा भी बड़े ठाठसे हुई । उपधानकी माला पहननेके समय सच्चे मोतियोंसे साथिया पूरा गया और मोहरोंसे ज्ञानपूजा हुई। आपके उपदेशसे वैरावलमें दो संस्थाएँ स्थापित हुई। एकका नाम है 'श्रीआत्मानंदजैनस्त्रीशिक्षणशाला' और दूसरीका नाम है 'श्रीआत्मानंदजैनऔषधालय' ये संस्थाएँ महा सुदी १० सं० १९७३ के दिन स्थापित हुई थीं । उस समय शालाके लिए स्वर्गीय सेठ कालिदास अमरसीकी विधवाने दस हजार रुपये और वैरावलकी श्राविकाओंने चार हजार रुपये दिये थे। औषधालयके लिए आपहीकी खास प्रेरणासे तीस हजार Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૩ आदर्श जीवन। रुपये सेठ कल्याणजी खुशालने, अपने स्वर्गवासी पुत्र गुलाबचंदके स्मार्थ, दिये थे । उस औषधालयसे केवल जैन ही नहीं बल्के जैनेतर भी लाभ उठा सकते हैं। आपने बंबईमें स्थापित महावीर जैन विद्यालयके लिए भी उपदेश देकर सहायता भिजवाई थी। वैरावलसे विहारकर आप माँगरोल पधारे । माँगरोलमें अठाई महोत्सवादि हुए । माँगरोलमें अहमदाबादके श्रीयुत मोहनलाल मगनलाल जौहरीका एक पत्र आया था । उसमें लिखा था:-" किसी जिनालयमें, मूलनायकजीके सिवाय, सौ डेढ़ सौ बरस पहलेसे कोई प्रतिमाजी विराजमान हों उनको (प्रतिमाजीको) किसी ऐसे दूसरे मंदिरमें या किसी दूसरे तीर्थमें स्थापित करने दे सकते हैं या नहीं जिसमें लोग विशेषरूपसे दर्शनका लाभ उठा सकें । इस विषयमें आपका जो अभिप्राय हो लिख भेजनेकी कृपा करें।" ___ इसके उत्तरमें आपने भावनगरसे लिखा था:-" + + + हमारी सम्मतिमें यह कार्य बहुत ही उत्तम है। खुशीसे दे सकते हैं । जब जरूरतके माफिक मूलनायक भी-जिनके नामहीसे मंदिरादि सभी कार्य हुए होते हैं-एक जगहसे उठाकर दूसरी जगह, जहाँ विशेष उत्तम और अधिक भक्ति द्वारा अधिक लोगोंको लाभ हो,-दिये गये हैं, तब मूलनायकके सिवायकी तो बात ही क्या है ? तुमको याद होगा कि उनासे, कावीसे, खंभातसे ऐसे अनेक स्थलोंसे दूसरी जगह, तुम लिखते Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। हो उसी तरह, प्रतिमाजी दिये गये हैं। वर्तमानमें, हमारी समझमें तो, नवीन प्रतिमाएँ बनवानेकी अपेक्षा प्राचीन प्रतिमा ओंको पूजाके स्थानमें रखवाना और आशातना बंद करना विशेष उत्तम है । फिर जैसी जिसकी इच्छा ।" वैरावलके औषधालयके लिए आपने धोराजीके एक जैन डॉक्टर श्रीयुत शेषकरणजीको नियुक्त करनेकी बात कही और उन्हें वैरावल जानेके लिए लिखा। उसके उत्तरमें उन्होंने वहाँ जानेमें अपनेको असमर्थ बता लिखा है:-" जैन जातिके लिए जैसा आपका प्रयत्न है, वैसा ही उच्च प्रयास यदि दूसरे साधु करें तो हम लोग बहुत अच्छी स्थितिमें पहुँच जायँ । इस लिए सभी साधुओंके अन्तःकरणमें आपही कीसी इच्छा प्रकट हो, यह मेरी आन्तरिक अभिलाषा है।" माँगरोलसे आप वापिस वैरावल पधारे। वैरावलसे सिद्धाचलजीकी यात्राके लिए संघ निकला । आप संघके साथ उना, द्वीपबंदर, महुआ, दाठा, तालध्वजगिरि आदिकी यात्रा करते हुए पालीताने पधारे और दादाकी यात्रा की। __ वहाँपर आपके पास बंबईके गौड़ीजीके उपाश्रयके संघका चौमासेके लिए जो विनतीपत्र आया था, उसकी नकल यहाँ दी जाती है । उसको पढ़नेसे पाठकोंको यह भी विदित होगा कि साधुओंको श्रावक पत्र किस तरह लिखा करते हैं ? उन्हें उपमाएँ किस प्रकारकी दी जाती हैं ? इनमें कुछ विशेषण ऐसे भी हैं जिनका, भाषाकी दृष्टिसे, कुछ अर्थ नहीं होता तो भी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आदर्श जीवन। AAAN श्रावकोंके भक्तिपूर्ण हृदयोंसे वे निकले हैं इस लिए वे ज्योंके त्यों रक्खे गये हैं। स्वस्ति श्रीपार्श्वजिनं प्रणम्य श्रीपालीताणा नगरे सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र पवित्रगात्रान् , अनेक शास्त्रोपदेशाभ्याससद्विद्या समुत्कृष्टपात्रान् , विनयविवेकचातुरीचमत्कृतान्, चतुरनरनिकरान्, सद्धर्मध्यान भावनादवरक प्रवेक निष्पंदित निजशुद्धमनोविकारान्, अनेकतर्कव्याकरणछंदोलंकारादुर्वापविदखंडितपरमसमयपंडिताखवगर्वपर्वतशिखरान् निजप्रतापैश्वर्याद्वीर्यगांभीर्यवीर्याश्रयीनखंडलान्, स्वनिर्मलयशःकर्पूरधवलितपरिमथितपरिमथितभुवनभागान्, कूर्पकंदर्पसर्पदर्पप्रमथनप्रदर्शितरतिभोगनिंवियोगान् , श्रीजिनशासनप्रभावकान् , नैकाभिनववज्रकुमारावतारान् , समुद्धतसद्धर्मभारान् , चतुर्विंशतितीर्थकरपरमदेवपादारविंदमकरंदान्, सावधानमतोमधुपान्, रंजितानेकसानुपान् , एवमादिगुणगणगरिष्ठान्, सर्वत्रसदालब्धप्रतिष्ठापरमपूज्यार्चनीयान् , चारित्रपात्रचूडामणीन् , कुमत्यंधकारनभोमणीन् , सरस्वतीकण्ठाभरणान् , अनेकगुणशोभितसाधुमंडलीसुशोभितान्, रागद्वेषनिवारकान्, शत्रुमित्रसमधारकान् , परोपकारिशिरोमणीन्, परमपूज्यपरमगुरून् , सभामामनीभालस्थलतिलकायमान्, सर्वगुणालंकृत मुनि महाराज श्री श्री १०८ श्री मुनिराज महाराज वल्लभविजयजी महाराज आदि ठाणा विगेरे, बंबई बंदरसे लिखी सकल संघकी १००८ बार वंदना दिन प्रति हमेशा सेवामें अवधा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ૨૮૭ - रिएगा । विशेष सविनय निवेदन है कि हमारा, समस्त संघका ऐसा अभिप्राय है कि, आप चातुर्मास करनेके लिए यहाँ श्रीगौडीजी महाराजके उपाश्रयमें पधारें। [इस पत्रके नीचे बंबईके करीब दो सौ मुखियाओंके हस्ताक्षर हैं। पालीतानेसे वैरावलका संघ वापिस गया और आप भावनगरके श्रीसंघकी विनतीको स्वीकारकर महा सुदी १५ संवत् १९७३ के दिन भावनगर पधारे । संघने गुरुभक्ति दिखानेके लिए बड़े ठाठसे सामैया किया। आप 'मारवाड़ीकावंडा' के नामसे प्रसिद्ध उपश्रयमें ठहरे । वहाँ आपका एक सार्वजनिक व्याख्यान हुआ था। उसका विषय था 'वर्तमानमें हमें किसकी आवश्यकता है ?' आपके इस व्याख्यानसे जैनेतर लोग भी बहुत प्रसन्न हुए थे और वे प्रायः जबतक आप वहाँ रहे तबतक सदा व्याख्यानमें आया करते थे । दूसरा भाषण आपने जैन बोर्डिंग हाउसके विद्यार्थियोंके सामने दिया था। ___ यहाँ एक महत्त्वकी बात हुई थी । जीरेके लालाशंकरलालजी जैनी नवलखा ओसवाल और उनकी धमपत्नी सौभाग्यवती बहिन भागवंती, दोनोंको ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किये तीन बरस हो चुके थे । बहिन भागवंतीको दीक्षा ग्रहण करनेकी इच्छा हुई। उनके पति लाला शंकरलालजीने हमारे चरित्रनायकसे अपनी पत्नीको दीक्षा देनेकी प्रार्थना की। संघने दीक्षाकी तैयारियाँ की। बड़ी धूम धामसे फाल्गुन Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૯ आदर्श जीवन। wrinaamaramanawarwwwmraana wwwwwwwr वदी ११ सं० १९७३ के दिन श्रीदादासाहबकी वाडीके मंदिरके चौकमें श्रीचतुर्विध संघके सामने हमारे चरित्रनायकने बहिन भाग्यवंतीको विधिविधान सहित दीक्षा दी । नाम चंपकश्रीजी रक्खा । देवश्रीजी महाराजकी शिष्याश्रीहेमश्रीजीकी वे शिष्या हुई। __ लाला शंकरलालजीकी दीक्षा ग्रहण करनेकी इच्छा थी परन्तु पैरमें कष्ट होनेके कारण विहार करनेमें असमर्थ होनेसे उन्होंने घरमें ही यथाशक्ति धर्माराधन करते हुए रहना स्थिर किया। आजतक वे अपनी वृत्तिमें दृढ हैं और पंजाबके जैन समुदायमें ब्रह्मचारीजीके उपनामसे सुप्रसिद्ध हैं। __ दीक्षालेनेवाली बहिनके पास उस समय जो जेवर था उसे बिकवाकर उसके पाँच सौ रुपये भिन्न भिन्न संस्थाओंको दानमें दे दिये गये । दीक्षामहोत्सवमें जो खर्च हुआ था, वह सभी लाला शंकरलालने किया था । वे घरके सुखी और परिवारवाले हैं। मातृभक्तिके कारण आप घरमें कुछ समय व्यतीत करते हैं शेष समय तीर्थयात्रा और साधुदर्शनमें बिताते हैं। धन्य है ऐसे दीक्षा दिलानेवालोंको ! ऐसी दीक्षाएँ और ऐसे महोत्सव अत्यधिक प्रशंसनीय हैं। दीक्षा देनेके बाद हमारे चरित्रनायकने एक घंटेतक व्याख्यान दिया और उसमें समझाया कि, चारित्र क्या है ? चारित्रसे क्या लाभ हैं ? उससे आत्मोन्नति कैसे होती है ? समाजका उद्धार कैसे होता है ? चारित्रलेनेवालेका क्या कर्तव्य Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। शानि . है ? चारित्रका पालन कैसे करना चाहिए ? नव दीक्षितको अपनेसे दीक्षापर्यायमें बड़े साधुओंके साथ और बड़ोंको नव दीक्षितके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ? आदि । आपको चौमासा करने बंबई जाना। था बंबईका संघ आपको बंबई शीघ्र पधारनेकी, आग्रहपूर्वक, विनती कर रहा था, इस लिए आपने फाल्गुन वदी १३ के दिन भावनगरसे विहार किया। आप अन्य अपनेसे दीक्षापर्यायमें बड़े मुनि महाराजोंके साथ मिलकर बड़ी प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। अन्य मुनि महाराज भी आपसे उसी तरहका स्नेह रखते हैं। जब आप पालीताने पधारे थे तब वहाँ मुनि श्रीकेवलविजयजी महाराजसे मिलने गये थे। मगर उस समय वे पडिलेहण कर रहे थे इस लिए आपसे बात न कर सके। आप वापिस लौट गये । यह बात पालीतानेसे विहार करते समयकी है । जब आप भावनगर पहुँचे तब उपर्युक्त मुनि महाराजका जो पत्र आया उसको हम यहाँ देते हैं,___ "++ + + आप हमारे पास आये मगर हम आपसे बात न कर सके कारण हम उस समय पडिलेहणमें थे। पडिलेहणमें कीसीसे नहीं बोलना ऐसा हमारा नियम है । इस लिए हम आपको खमाते हैं । बोले होते तो अगले रोज घीका खाना बंध हो जाता तो क्या था ? मगर हमारी भूल हुई है । गुनाह माफ करना। और अब तो आप पंजाबकी तरफ जानेवाले हैं, Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | इस लिए कब मिलना होगा ? आप विहारमें जतनपूर्वक रहना । आपने गिरनार में चौमासा किया यह बहुत ही उत्तम काम किया; क्योंकि उस क्षेत्रमें रहना बहुत ही कठिन काम है । आप ऐसे विहार करते हैं इसके लिए आपको धन्यवाद है । " भावनगर से विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए और अमृत वर्षा करते हुए आप खंभात पधारे । एक साधुकी कुछ तबीअत नरम हो जानेके कारण कुछ दिन यहाँ आपको ठहरना पड़ा । २९० पाटनके पास चारूप नामका एक गाँव है । उसमें एक शामलाजी पार्श्वनाथका मंदिर और उसके साथमें धर्मशाला है । उनके लिए पाटन के श्रीसंघके और चारूप गाँव के लोगों मे कुछ झगड़ा पड़ गया था । उस झगड़ेको आपस में मिटानेके लिए पंच मुकर्रर हुए। मगर पंचने श्रीसंघकी धारणा से विरूद्ध फैसला दिया । उसके विरुद्ध पाटनके बंबई में रहनेवाले श्रीसंघने आन्दोलन प्रारंभ किया । हमारे चरित्रनायकके पास भी उसने पंचका फैसला भेजा और सम्मति चाही । आपने तटस्थ वृत्तिसे जो उत्तम सम्मति दी, वह अमूल्य है । इससे पाठकोंको यह भी विदित होगा कि, आप एकताके कैसे हिमायती हैं ? कैसे चारों तरफका विचार कर अपनी सम्मति देते हैं ? खंभातसे आपने जिस पत्रद्वारा अपनी सम्मति प्रकट की थी वह पत्र यहाँ दिया जाता है । 44 + + + पंचका फैसला आदि पढ़कर हर्ष और शोक Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । २९९ m दोनों हुए। हर्ष इस लिए कि आपसमें विरोध बढ़ना और फिजूल खर्चका होना रुक गया है और जैनों तथा जैनेतरोंमें संभव है कि, अमुक हदतक आपसमें भ्रातृभाव कायम हो जायगा । शोक इस लिए हुआ कि, जैनोंके लिए ऐसा कार्य करनेका प्रसंग आया जो उन्हें नहीं शोभता । अस्तु । समयकी बलिहारी है। यह बात भी इतिहास प्रसिद्ध पाटणके लिए ज्ञानियोंने देख रक्खी थी। - तुम पंचके फैसलेके विषयमें मेरी सलाह माँगते हो, इस विषयमें मेरी तो यही सलाह है कि, अब तुम जो कुछ काम करना चाहते हो वह मोतीचंद कापडिया सॉलिसिटर आदि जैनधर्मके पक्के हिमायती और कानूनके जाननेवालोंकी सलाह लेकर करना । आशा है तुम्हें जरूर सफलता होगी। मगर, यदि तुम सिर्फ कानूनके जाननेवालोंहीकी सलाह लोगे तो वे तुम्हें अपनी जेबें भरनेका ही रस्ता बतायँगे । मेरी ऐसी मान्यता है । तुम्हारे भेजे हुए पंचनामेको पढ़ते ही मालूम हो जाता है कि, उसको लिखते समय जैनधर्मके जाननेवाले किसी कानूनदाकी सलाह नहीं ली गई थी। यदि ली जाती तो यह लाइन उसमें और लिखी जाती कि, धर्ममें वाधा न पड़े इस प्रकारके फैसलेके लिए हम बँधते हैं। __ जब अपने यानी जैनसंघके नेताओंने लिख दिया और फैसला करनेका अधिकार भी जैनसंघके एक प्रसिद्ध पुरुषको दिया तब हमें अब ऐसा ही मार्ग लेना चाहिए जिससे उनके Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । सम्मानकी रक्षा हो । अपने यानी पाटनके एक नेताके अपमानमें अपना ही अपमान समझना चाहिए । इस लिए फैसलेके संबंध में विशेष कुछ न करके फकत उससे भविष्य में जिस हानिकी संभावना है उसको रोकनेका प्रयत्न करना चाहिए । इसके लिए मोतीचंद भाई जैसे किसी कानून के जानकार से सलाह लेकर फैसला देनेवाले सेठसे पूछा जाय कि आपने जो फैसला दिया है वह दोनों पक्षोंका विरोध रोकने के लिए अपनी इच्छानुसार दिया है या जैनधर्म शास्त्रानुसार दिया है ? इसी तरह यह फैसला वर्तमानके लिए ही दिया है या भविष्य के लिए भी इसका उपयोग हो सकता है ? इन दोनों बातोंका स्पष्टीकरण आपके फैसले में नहीं है इसी लिए आपसे पूछा गया है । आशा है तत्काल ही उत्तर देकर आप जैन संघको संतुष्ट करेंगे । २९२ मेरी समझमें पाटनका श्रीसंघ इतना करे, संघ हीं नहीं श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंस और जैन एसोसिएशन ऑफ इण्डियाकी तरफसे भी यह कार्य हो तो फैसलेकी रजिस्ट्री होनेसे जो भय है वह मिट जाय । अच्छी तरह विचार करके कार्य करना । बहुत जल्दी न करना | जल्दबाजी से पाटणके श्रीसंघमें दोदल हो जानेकी संभावना है । इस लिए इस बातका खास ध्यान रखना कि जैन संघ में आपसहीमें फूट न पड़ जाय । फूट होते देर न न लगेगी मगर एक होते बरसों बीत जायँगे । अतः इस Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। बातको लक्षमें रखना कि, कहीं बकरी निकालते ऊँट न घुस जाय।" खंभातसे विहार कर आप बड़ोदे पधारे। प्रवर्तकजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी भी वहीं विराजते थे । वहाँ महावीर जयन्तीपर आपने बहुत ही बढ़िया भाषण दिया था। उसमें आपने बताया था कि, जयन्ती हमारे यहाँ प्राचीन कालसे मनाई जाती है। पंच कल्याणकका यह रूपान्तर है । यात्रा पंचाशकमें पूज्यपाद हरिभद्रमूरि महाराजने 'जय कल्याणक' उत्सव मनाना बताया है। यह 'जय कल्याणक' ही जयन्तीके नामसे प्रसिद्ध हुआ है । फिर आपने भगवानके चरित्रसे हम क्या सीख सकते हैं सो बताया । वीर शब्दका बहुत ही सुंदर विवेचन किया । अन्तमें आपने कहा ,-" वीरताके कार्य कर हमें वीरपुत्र नाम सार्थक करना चाहिए । यदि हम वीरताके कार्य न करें तो उनके चरित्रसे हमें कोई लाभ नहीं है । यदि हम वीरताका गुण प्रकट करेंगे, वीरताका गुण प्रकट करनेके लिए वीरकी उपासना करेंगे, तो सेव्य सेवक भाव मिटकर हम अवश्यमेव वीरके समान कर्मोंको नाश करनेके लिए वीर हो सकेंगे।" - उसी समय आपने ' भगवान महावीरकी आज्ञाएँ । इस शीर्षकके नीचे कुछ उपदेश प्रकाशित करवाये थे। वे जीवनको उत्कृष्ट बनानेके लिए परमौषध हैं । हरेकको चाहिए कि, वह आइनेमें मढ़ाकर इन उपदेशोंको रक्खे और अपने जीवनको उत्तम बनावे । हम उन्हें यहाँ उद्धृत करते हैं,-. .. | Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । “१ - तत्वज्ञानका अभ्यास करो और विचारोंको निर्मल बनानेका प्रयत्न करो । २९४ २ - इस बातका निर्णय करो कि जीवनमें छोड़ने योग्य क्या है ? स्वीकार करने योग्य क्या है और जानने योग्य क्या है ? ३. - अपनी शक्तिका विचार करो और शक्तिके अनुसार उन्नतिक्रममें आगे बढ़ो | ४ - आत्मविश्वास रक्खो | किसीके सहारे न रहो । तुम्हारा उद्धार केवल तुम्हारे ही विचार, पुरुषार्थ और उद्योके आधीन है । ५ – मान अथवा इस लोक या परलोककी आशा रक्खे विना जितना श्रेष्ठ काम कर सकते हो करो | हम क्या कर सकते हैं ? ऐसे निकम्मे विचार न करो । प्रमादमें जीवन न बिताओ ! ६ - यदि गृहस्थ धर्म अथवा साधु धर्मके मार्ग में द्रव्य और भावसे शक्तिके अनुसार प्रयाण करोगे तो मुक्तिपुरीमें पहुँचे विना न रहोगे " । प्रवर्तकजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी और हमारे चरिनायक दोनोंसे एक ही साथ बंबई में चौमासा करनेकी विनती करनेके लिए सेठ देवकरुण मूलजी, सेठ मोतीलाल मूलजी आदि कई मुखिया श्रावक बड़ोदे आये । प्रवर्तकजी महाराजसे आपने भी साग्रह विनती की कि, " आप बंबईकी Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। विनतीको अवश्यमेव स्वीकार कर लें । आपकी छत्रछायामें अनेक कार्य होंगे । बड़े कार्यमें आप जैसे बड़ोंकी खास आवश्यकता है।" प्रवर्तकजी महाराजने बंबईकी विनतीको स्वीकार कर लिया। दोनों महात्मा बड़ोदेसे विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए क्रमशः झघडियाजी तीर्थकी यात्रा कर मूरत पधारे । सूरतके सामयेके आडंबरका तो कहना ही क्या? ___ कुछ रोज मूरत ठहरे बाद विहार करके नवसारी, बिलामोरा, पारडी, वलसाड आदि नगरोंमें व्याख्यानोंका लाभ देते हुए जेठ वदि ११ सं० १९७४ के दिन मलाड पधारे। वहाँ दो दिन तक स्वामीवात्सल्य और पूजाएँ हुए । उनमें करीब पन्द्रह सौ श्रावक श्राविकाएँ सम्मिलित हुए थे। वहाँसे ज्येष्ठ सुदी २ के दिन सान्ताक्रूज पधारे । वहाँ भी दो साधर्मी वात्सल्य और दो पूजाएँ हुए थे। महात्माओंके पधारनेकी खुशीमें महावीर जैनविद्यालयको भी एक हजारकी भेट मिली थी। वहाँसे विहार कर जेठसुदी ४ के दिन सवेरे ही दादर पधारे । वहाँ भी उस दिन पूजा और साधर्मीवात्सल्य हुए । संध्याको विहार कर भायखाला पधारे । रातभर वहीं रहे । दूसरे दिन सवेरे ही जुलूसके साथ सपरिवार दोनों महात्माओंका नगरप्रवेश हुआ। हजारों लोग जुलूसमें थे। जुलूसमें करीब ३५ तो बेंड बाजे थे। जिस समय जुलूस Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। गोडीजीके मंदिरमें पहुँचा उस समय पाँच हजार श्रावक श्राविकाएँ थे। एक मारवाड़ी श्रावकने नारियलोंकी प्रभावना की थी। उसमें पाँच हजार नारियल खर्च हुए थे। कइयोंने दोनों महात्माओंको सच्चे मोतियोंसे बधाया था। इस चौमासेमें प्रवर्तकजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी महाराज, हमारे चरित्रनायक, मुनि श्रीचतुरविजयजी महाराज, मुनि श्रीलाभावजयजी महाराज, पं० श्रीसोहनविजयजी महाराज, मुनि श्रीविमलविजयजी महाराज, मुनि श्रीकस्तूरविजयजी महाराज, मुनि श्रीउमंगविजयजी महाराज, मुनि श्रीमेघविजयजी महाराज, मुनि श्रीजिनविजयजी महाराज, मुनि श्रीविज्ञानविजयजी महाराज, मुनि श्रीविद्याविजयजी महाराज, मुनि श्रीविचारविजयजी महाराज, मुनि श्रीपुण्यविजयजी महाराज, मुनि श्रीसमुद्रविजयजी महाराज और मुनि श्रीसागर विजयजी महाराज थे । चौमासा श्रीगोडीजी महाराजके उपाश्रयमें हुआ था। व्याख्यान हमारे चरित्रनायक ही अक्सर वाँचते थे। आप प्रवर्तकजी महाराजसे प्रायः कहा करते थे,-" कृपानाथ। आप भी व्याख्यानकी कृपा किया कीजिए।" प्रवर्तकजी महाराज मुस्कुराकर फर्माते:-"भाई गुरु महाराजका खजाना तो तुम्हारे ही पास है। उसमेंसे लोगोंको खुले हाथों क्यों नहीं बाँटते रहते । हमें तो बहुत ही थोड़ी पूँजी मिली थी, उसे हमारे पास संग्रहीत रहने दो।" Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आप भी मुस्कुराकर विनम्र शब्दोंमें कहते.---"गुरु महाराजकी थोड़ी सम्पत्ति मिलि इससे क्या हो गया ? आपकी भी तो सम्पत्ति अखूट है । उसमेंसे ही कुछ उदारता कर दिया कीजिए । लोगोंमें बँटेगी उसमेंसे थोड़ा हिस्सा मुझे भी मिल जायगा।" - प्रवर्तकजी महाराज फर्माते:--" तुमसे बातोंमें कौन जीत सकता है ? " आप कहतेः-"आप जैसे गुरु जन ही तो, मुझ जैसे, अपने छोटोंका, जीतनेका लोभ दिखा कर, हौसला बढ़ाते हैं और उन्हें आगे लाते हैं। एक दिन हमारे चरित्रनायकके साथ अनेक श्रावक भी मिल गये । सबने मिलकर प्रवर्तकजी महाराजसे आग्रह पूर्वक विनती की कि, आप अवश्यमेव उपदेशामृत पिलाकर हमें कृतार्थ करें । प्रवर्तकजी महाराजने बहुत 'नहीं' 'नहीं' किया; मगर हमारे चरित्रनायक भी आग्रह करके बैठ गये कि, मैं आज बिलकुल व्याख्यान नहीं बाँचूँगा । आपहीको कृपा करनी होगी।" - आखिर प्रवर्तकजी महाराज उपदेश देनेके लिए गद्दी पर आकर विराजे । हमारे चरित्रनायक भी, दाहिनी तरफ नीचे की तरफ पाटपर इसी तरह विनम्र भावसे बैठ गये जैसे आप स्वर्गीय आचार्य महाराजके पास व्याख्यानके समय बैठा करते थे; या यह कहिए कि, शिष्य जैसे गुरुके साथ व्याख्यानके समय बैठता है । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ आदर्श जीवन । प्रवर्तकजी महाराजने मंगलाचरण करके फर्मायाः" गुरुमहाराजका खजाना तो ( आपको बताकर ) इनके पास है । ( हँसकर ) इन्होंने मेरी कीमत करनेके लिए मुझे यहाँ ला बिठाया है।" सभी हँसने लगे। फिर प्रवर्तकजी महाराजने व्याख्यान फर्माया। चौमासे भरमें करीब महीने सवा महीनेतक प्रवर्तकजी महाराजने व्याख्यान वाँचा था । प्रवर्तकजी महाराजकी स्मरण शक्ति बड़ी प्रबल है। सांसारिक अनुभव और ऐतिहासिक घटनाओंका खजाना जैसा इन महात्माके पास है वैसा किसीके पास नहीं है। हमारे चरित्रनायकपर तो इनका इतना प्रेम है जितना पिताका अपने एक गुणसंपन्न पुत्रपर होता है । यदि कोई आपपर किसी तरहका आक्षेप करता है तो इनके अन्तःकरणमें ऐसा ही आघात लगता है जैसा अपने प्रिय पुत्रपर करनेसे होता है। ____ यहाँ हम एक दो उदाहरण देंगे। एक बार छाणीमें अमुकने प्रवर्तकजी महाराजसे कहा:-" आपको वल्लभाविजयजीने भ्रमा रक्खा है । वास्तवमें अमुक बात ऐसी है। आदि ।" प्रवर्तकजी महाराजने फर्माया:-" मैं वल्लभविजयजीको तुमसे ज्यादा जानता हूँ। उन्हें बचपनहीसे मैं पहचानता हूँ। उनके गुण अवगुणसे, तुम्हारी अपेक्षा अधिक, मैं परिचित हूँ।" वे बोले:-" आपका तो उनपर मोह है।" Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन २९९ प्रवर्तकजी महाराजने फर्माया:-" मोहसे भी अधिक है। उनकी और मेरी आत्माओंका ऐसा ही संबंध है जैसा नाखून और उँगलीका है । " एक बार किसी विरोधीने 'पंजाब महासभाके ' विषयको लेकर हमारे चरित्रनायकपर आक्षेप किया । उस समय प्रवतकजी महाराजने पंन्यासजी श्रीललितविजयजीको एक पत्र लिखा था। उसमेंका कुछ अंश हम यहाँ उद्भत करते हैं:__ " x x x इन उडती हुई गप्पोंके आधार किसी बातका आन्दोलन करनेसे क्या धर्मात्माओंको धर्मवृद्धिका लाभ होगा? xxxx और अब मुनि वल्लभविजयजी महाराज गुजरात देशके सुखदाई विहारको छोड़, कष्टदायक क्षेत्रों में फिर धर्मो-- पदेश देते हैं। क्या इसमें इनका कोई स्वार्थ है ? x x x x विना कारण कई उनसे जुदाई रखनेवाले अनुचित हमले करते हैं। उन्हें अपने कर्मबंधनका विचार करना चाहिए। साधु तो समाधि रसमें मग्न हो यही उनके लिए हितकारी है। ___ मैं पंजाबमें था तब श्रीगुरु महाराज स्वर्गवासी नहीं हुए थे। वे निज श्रीमुखसे फर्माते थे,-" मेरे बाद गुजराती साधु, मेरे बोये हुए धर्मबागकी रक्षा करनेवाले, गुजरातमें जा वापिस कष्टकारी क्षेत्रमें आयँगे यह विश्वास मुझे नहीं है । मगर वल्लभ तू छोटी उम्रका है । तुझपर मुझे विश्वास है । तू पंजाबके धर्मक्षेत्रको पुष्ट करना । तू आयगा तो तेरा शिष्य परिवार भी आयगा । पहले श्री १००८ श्री बूटेरायजी Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । महाराजने धर्मका बगीचा बोया उसकी हमने सपरिवार रक्षा की । अब हमारे पीछे तुझपर आशा है । गुजरातमें जा, दाल चावल ओसामणमें न पड़, जरा कष्ट उठा कर इस देशमें सपरिवार आओगे और निराधार क्षेत्रमें अमृतदृष्टि करोगे तो महालाभ होगा । गुजरातमें मुनि महाराजोंकी कमी नहीं है । जहाँ कमी है उस क्षेत्रमें दृष्टि करनेसे महालाभ होगा । " वे श्री १००८ गुरुवचनको शिरोधार्य कर, विकट भूमिमें कष्ट उठाकर फिरते हैं । हमारे जैसे तो एक भी, गुरु महाराजके बगीचेमें जलवृष्टिके लिए नहीं जाते हैं । केवल वल्लभविजयजी ही, 'सुखिया ' बिहार छोड़, विकट स्थानों में विचरण करते हैं | उनपर लोग क्यों आक्रमण करते हैं ? इसको मैं नहीं समझ सकता। जिनको अमुक अच्छा नहीं लगता हो उन्हें अनेक उपाय करके भी अमुकपर स्नेह उत्पन्न कराने का प्रयत्न सर्वथा निष्फल है । + + + + ” ३०० पाठक उपर्युक्त उदाहरणोंसे भली भाँति समझ सकते हैं कि, हमारे चरित्रनायकपर प्रवर्त्तकजी महाराजका कितना स्नेह है । पाठक जानते हैं कि लड़का चाहे कितनाही संसारमें पूज्य हो जावे तो भी पिताके हृदयमें तो वह हमेशा उनका प्रिय पुत्र ही रहता है । और जब कभी पुत्र किसी उत्तरदायित्वका I भार लेता है तब पिता पुत्रको उपदेशके वचन कहे विना नहीं रहते और पुत्र उन्हें सिर आँखोंपर चढ़ाता है । ठीक यही Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ आदर्श जीवन। wwwwww बात प्रवर्तकजी महाराज और हमारे चरित्रनायकके संबंध है। इसके लिए हम पाठकोंको प्रवर्तकजी महाराजका वह पत्र पढ़नेका अनुरोध करते हैं जो हमारे चरिनायकके पास सं० १९८१ में आचार्य पद प्रदानके समय, आया था । पत्र पदवी प्रदानके विवरणमें दिया जायगा । __हमारे चरिनायक भी प्रवर्तकजी महाराजके प्रति ऐसे ही भाक रखते हैं जैसे एक आज्ञापालक पुत्र अपने पिताके प्रति रखता है और उनकी हरेक आज्ञाको मानता है । इसके हम, दो उदाहरण देंगे। पाठक जानते हैं कि, सं० १९५७ में हमारे चरित्रनायकको पदवी प्रदान करनेके लिए पंजाबका सारा संघ और प्रायः सभी साधु तैयार थे; मगर प्रवर्तकजी महाराजकी यह इच्छा न थी। हमारे चरित्रनायकने आपकी इच्छा-परोक्ष आज्ञाको सिर आँखोंपर चढ़ाया और पदवी न ली। - इसी बंबईके चौमासेमें आप खरतर गच्छवालोंके साथ शास्त्रार्थमें न उतरे । इसका कारण, जहाँतक हमें पता चला है, आपकी इच्छासे बढ़कर प्रवर्तकजी महाराजकी आज्ञा थी। . + + + + + इस चौमासेमें दो भाद्रपद थे खरतर गच्छके मुनि श्रीमणिसागरजी महाराजने उस समय इस बातकी चर्चा प्रारंभ की कि, चौमासा पहले भाद्रपदमें होना चाहिए । खरतर गच्छ और अंचलगच्छवालोंकी तरफ़से हेंडबिल निकलने प्रारंभ हुए। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आदर्श जीवन। जिन महात्माने पंजाबमें स्थानकवासियोंसे शास्त्रार्थ करके विजयका डंका बजाया था उनसे सभी इस बातकी आशा रखते थे कि, वे इन हेंडबिलोंका जवाब देते; मगर हमारे चरित्रनायकने कभी कलम न उठाई । आप जानते थे कि इस कागजी घोड़ोंकी दौड़का परिणाम सिवा शक्तिका अपव्ययके दूसरा कुछ होनेवाला नहीं है । एक दिन कई श्रावकोंने आपसे आग्रह पूर्वक इस बातको अपने हाथमें लेनेकी विनती की। उनको आपने जो उत्तर दिया था, उसे हम उपयोगी समझ कर यहाँ दे देते हैं:___“तुम सभी जानते हो कि, आजकल जमाना जुदा प्रकारका है। लोग एकता चाहते हैं। अपने हकोंके लिए प्रयत्न करते हैं; हिन्दु मुसलमान एक मत हो रहे हैं; अंग्रेज, पारसी, मुसलमान और हिन्दु शामिल होते हैं । इस तरह दुनिया आगे बढ़ती जा रही है। ऐसे समयमें भी, खेदके साथ कहना पड़ता है कि, कुछ विचित्र स्वभावके मनुष्य, उनमें भी खास कर जैन, दस कदम पीछे हटनेका प्रयत्न कर रहे हैं। __ सैकड़ों वर्षोंसे जो रीति चली आरही है और जिसके लिए एक पक्ष हो गया है उसके लिए मैं नहीं चाहता कि, आपसमें, विवाद कर प्रेमका-चाहे वह बाहरी ही क्यों न हो-नाश किया जाय । अपनी प्रचलित पद्धतिके अनुसार व्यवहार करके भी यदि सभी प्रेमके साथ रहेंगे तो कोई न कोई सार्वजनिक काम कर सकेंगे। इस हेतुहीसे वर्तमानमें मैं यथासाध्य ऐसा ही मार्ग Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. BAHESHAN BEST EKACSIRS ALBERTSC मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४. Education International D महावीर जैन विद्यालयभवन ( सड़क की तरफका दृश्य ). . Redhea पृ. ३०२. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ग्रहण करना विशेष पसंद करता हूँ। इतना ही नहीं इस एकताके मार्ग पर चलनेवाले मनुष्यको-चाहे वह गृहस्थ हो या साधु-मैं आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ; उसका आदर करनेके लिए अपने आपको प्रेरित करता रहता हूँ। इसी लिए अभी लालबागमेंसे और बंदर परसे, खरतर गच्छके और अंचलगच्छके अमुक व्यक्तियोंके नामसे जो आन्दोलन हो रहा है उसको मैं उपेक्षाकी दृष्टिसे देखता हूँ। मैं ऐसे क्लेशके काममें अपनेको लगाना नहीं चाहता। मंगर कुछ जल्दबाज परिणामका विचार किये विना उछलकूद कर रहे हैं और कह रहे हैं कि, ऐसा होना चाहिए और वैसा होना चाहिए। इस लिए मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि, ऐसे किसी भी काममें मैं सहमत नहीं हूँ। जो कोई जो कुछ भी करना चाहता है वह अपनी योग्यता देखकर करे उसके अखतियारकी बात है। उस कामके उत्तरदायित्वका भार भी उसीके सिर रहेगा। ___ हाँ, एक बातमें मैं तुम्हारा साथ दूंगा। यदि तुम सब निर्णय ही करना चाहते हो यद्यपि यह बात असाध्यसी जान पड़ती है-तो तुम्हारे यानी तपगच्छके कुछ मुखिया जौहरी कल्याणचंद सोभागचंद, जौहरी नगीन भाई मंछूभाई, सेठ देवकरण मूलजी, सेठ मोतीलाल मूलजी, और लक्ष्मीचंदजी घीया आदि, इसी तरह खरतरगच्छके व अंचल गच्छके कुछ मुखिया मिलकर विचार करें, शान्तिके साथ निर्णय करनेका निश्चय करें और फिर मुझे सूचना दें। मैं यथासाध्य उसमें भाग लूंगा; पूण शक्तिके साथ प्रयत्न करूँगा।" Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । मगर शास्त्रार्थकी कोई बात स्थिर न हुई और सभीने अपनी अपनी समाचारीके अनुसार पर्युषण किये । ३०४ इस चौमासेमें तीन कार्य खास उल्लेखनीय हुए थे ( १ ) महावीर जैन विद्यालय के मकानके लिए करीब एक लाख रुपयेका चंदा हुआ था । ( २ ) बाहर के छोटे छोटे गाँवोंमें जो मंदिर हैं औ पुराने हो गये हैं उनके जीर्णोद्धारके लिए भी अच्छी रकम जमा हुई थी । ( ३ ) पाटनके जैनसंघने पाटनके बोर्डिंग हाउसके लिए करीब एक लाख रुपये जमा किये थे । महात्माओं के प्रभाव से पूजा प्रभावना, अठाई महोत्सव, इत्यादि धार्मिक कार्य भी बहुतसे हुए थे। बंबई के लोग कहते हैं कि, इन दोनों महात्माओंके विराजने से बंबई में जितनी धर्मकी प्रभावना हुई थी उतनी उसके पहले कभी भी नहीं हुई थी । १०८ श्री प्र. जीम पर आपके पूज्य भावको और उनके आपके प्रति प्रेमभावको देख लोग किया करते थे । शतमुखसे प्रशंसा 請 कोटवाले श्रावककी विनतीसे आपने पं० श्री सोहनविजयजी, मुनि श्री सागरविजयजी और मुनि श्रीसमुद्रविजयजीको कोटमें चौमासा करनेके लिए भेज दिया । हमारे चरित्रनायक खास करके महावीर जैनविद्यालयकी नवको मजबूत बनाने के लिए पधारे थे; मगर पर्युषण तक कुछ भी कार्य न हो सका था । आखिर में कोटमें पं० जी महाराज Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. विद्याभुवन ( साइड व्ह्यू ). पृ. ३०४. , Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । श्रीसोहनविजयजीके प्रयत्नसे २५००० का चंदा हुआ । गोड़ीजीमें ये समाचार पहुँचे । वहाँ भी रकमें भरी जाने लगीं और इस तरह महावीर जैन विद्यालयके लिए एक लाखका चंदा हो गया । इस तरह सं० १९७४ का इकतीसवाँ चौमासा बंबई में समाप्त कर आपने प्रवर्तकजी महाराजके साथ ही सं० १९७४ के माघ सुदी १३ शनिवार के दिन गोड़ीजीके उपाश्रयसे विहार कियो । भायखाला पधारे। आपने बंबईके चौमासेमें पंचतीर्थी पूजा बनाई थी। वह पूजा यहाँ पढ़ाई गई । करीब दो हजार स्त्री पुरुषोंने लाभ उठाया । हमारे चरित्रनायकने अब सीधे पंजाबकी तरफ विहार करना स्थिर कर लिया था इस लिए, भायखलामें, प्रवर्तकजी महाराजसे विदा ग्रहण कर अपने परिवार सहित आपने वहाँसे विहार किया और ग्रामानुग्राम उपदेशामृत की वर्षा करते हुए कहीं भी अधिक स्थिरता न कर पंजाब पहुँचनेकी धुनमें आगे ही बढ़ते चले । परन्तु स्पर्शना बलवती होती है। आपको विचार आया कि मार्गमें ही १०८ श्री मुनि महाराज शांतमूर्ति श्रीहंसविजयजी महाराजजीके दर्शन कर लेवें और उनसे मिलकर जावें तो ठीक होगा । दूर चले जानेके बाद इन वृद्ध महात्माके दर्शन दुर्लभ हो जायँगे । मनका साक्षी मन होता है ! इवर आपके मनमें यह विचार आया उधर उन महात्माका, शान्तमूर्ति मुनि श्री १०८ श्रीहंसविजयजी महाराजका, - पत्र २० ३०५ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आदर्श जीवन । आया कि, आपको पंजाब जाना है इस लिए आप शीघ्रत: साथ आगे बढ़े जारहे हैं, मगर हमसे मिले बिना आगे जावें । जिन्दगीका भरोसा नहीं है । आज है कल नहीं । मिलना हो न हो, इस लिए अवश्यमेव मिल कर जान विचार रक्खें | आप तो पहले ही विचार कर रहे थे, अब महात्माका आदेश मिल गया, आप सच्चे देव श्रीसुमतिनाथ स्वामी तीर्थपरमातर गाँव में महात्माके चरणोंमें जा हाजिर हुए। एक साथ और गुरु दोनोंके दर्शनोंका लाभ मिला । आप चाहते थे कि, वहींसे आगे विहार कर जायें: हंसविजयजी महाराजने फर्माया कि, मुझे अहमदाबाद हैं । वहाँकी विनती है, इस लिए अहमदाबाद तक आप साथ ही चलें । आप अबतक अहमदाबाद गये भी नहीं हैं। बीचमें अहमदाबादकी यात्राको छोड़कर जाना अच्छा नई है । हमारे चरित्रनायक, महात्माकी आज्ञाको आनंद पूर्वक मान कर, उनके साथ ही अहमदाबाद पधारे । अहमदाबादके लूणसावाड़ेके श्रावकोंने बड़ी धूमधामसें दोन महात्माओं का स्वागत किया। जुलूस जब जवेरीबाड़े में पहुँचा त अहमदाबाद के प्रसिद्ध सेठ लालभाई तथा मणिभाईकी मा गंगा बहिनने श्रीहंस विजयजी महाराजसे प्रार्थना की कि.. " आप शहरको छोड़कर एकान्तमें कहाँ जाते हैं? यहीं ठहरिए श्रीहंसविजयजी महाराजने फर्माया :- " वहाँके श्रावक पहलेहीसे विनती है । इस लिए हम वहीं जायँगे । " Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | गंगामाता बोली:- " अच्छी बात है । आप कुछ दिनोंके मस्त लूणसावाड़े में पधारिए और वल्लभविजयजी महाराजको ठहरनेकी आज्ञा दे दीजिए। " श्रीहंसविजयजी महाराजकी आज्ञासे हमारे चरित्रनायक उजमबाईकी धर्मशाला में ठहर गये । कुछ दिनोंके बाद अपने से विहार करनेकी तैयारी की ; मगर विहार न कर कि । अमदाबादके श्रावकोंकी, आग्रह और भक्तिभावपूर्ण देयके साथ की गई विनती से और खास कर श्रीहंसविजजी महाराजकी इच्छा तथा आज्ञाके कारण आपको चौमासा टीका स्वीकार करना पड़ा । उदयपुर (मेवाड ) के लाग भी आपसे चौमासेकी विनती करने आये थे; परन्तु आप जा नहीं सकते थे इस लिए आपने पंन्यासजी श्री सोहनविजयजी, मुनि श्रीउमंगविजयजी, मुनि श्री मित्रविजयजी, मुनि श्रीसमुद्रविजयजी मुनि श्रीसागरविजयजी और मुनि श्री रविविजयजी ऐसे छः साधुओंको चौमासा करने के लिए उदयपुर भेज दिया और आप वहीं अहमदाबादहीमें उजमवाईकी धर्मशाला में चातुर्मासार्थ ठहर गये । ३०७ उस समय यद्यपि व्यापार अच्छा चमक रहा था, व्यापारी लोगोंके पास पैसा भी अच्छा था तथापि अन्यान्य लोग विशेष दरिद्री होते जा रहे थे । कारण बाजारमें चीजोंकी कीमत बढ़ती थी उसका असर साधारण हालतवाले और गरीबोंपर होता था । क्योंकि चीजोंकी बढ़ी हुई कीमत उन्हें ही देनी Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आदर्श जीवन । पड़ती थीं । इस लिए जहाँ एक तरफ बहुतसे धनी बनते जा रहे थे वहीं दूसरी तरफ बहुतसे गरीब बनते जा रहे थे। अहमदाबादके समान व्यापार प्रधान शहरमें भी ऐसे आदमियोंकी कमी नहीं थी।कई हमारे चरित्रनायकके पास आते थे और अपनी दुःख कथा सुनाते थे । मगर अच्छे खानदानके होनेसे वे किसीके सामने हाथ पसारते शर्माते थे । उन लोगोंको रोजगारकी आवश्यकता थी। वे किसीसे भीख लेना नहीं चाहते थे कई तो ऐसे आते थे जो नौकरी करनेमें भी अपना अपमान समझते थे। इस कठिनाईको दूर करने और कुलीन कुटुंबके लोगोंका दुःख मिटानेके लिए आपने एक उद्योगशाला स्थापित करनेका उपदेश दिया। लोगोंका ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ। कई इस काममें यथासाध्य मदद देनेको भी तैयार हो गये। संसारमें धनिक लोगोंका प्रभाव बहुत होता है। साधारण लोग हरेक काम करनेके पहले धनिकोंका मुख देखते हैं और ये उसमें कुछ रकम देते हैं तभी वे लोग भी उस तरफ हाथ बढ़ाते हैं । वे हमेशा अपनेको निःसत्व समझते हैं और उनका विश्वास होता है कि धनिक लोगोंकी सहायताके बिना उनका काम जरासा भी न होगा। इसी भावनाने भारतका नाश किया है। पर्युषणोंके दिनोंमें, जब प्रायः सभी धनिक और साधारण स्थितिके लोग मौजूद थे, आपने फोया,-" भव्य श्रावको ! Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ३०९ इस समय धनकी गंगा बह रही है । समयके परिवर्तनने तुम्हारे हाथों में बहुतसी दौलत दी है । इसका सदुपयोग कर लो। धनका सदुपयोग ही, यानी गरिबोंकी भलाईके लिए खर्चा हुआ धन ही,-परलोकमें साथ जाता है। दूसरा नहीं। मैं असमर्थ सधर्मी. भाइयोंको सहायता देना ही सच्चा साधर्मीवात्सल्य समझता हूँ। अतः पर्युषणोंके अन्तिम दिन तक जो कुछ करना है कर लो । अन्यथा पछताओगे और कहोगे हमने धनका सदुपयोग नहीं किया।" श्रावकोंने कहा:-" महाराज साहिब ! आपका फर्माना योग्य है; मगर इस वक्त नगरसेठ यहाँ हाजिर नहीं हैं, वरना इसी वक्त कार्य प्रारंभ हो जाता ।" ___आपने कहा:-" तुम शूरू कर दो सेठजीके आने पर उनको मुचना कर देना ।" जवाब मिला:-" आपका कहना दुरुस्त है, मगर हमारे इस शहरका यह रिवाज है कि नगरसेठके विना, कोई भी ऐसे बड़े किसी भी धर्मकार्यको शुरू नहीं कर सकता है । " आपने कहाः-" बहुत अच्छा ।" दुपहरके व्याख्यानमें सेठजी आये । उन्हें सारी बात समझाई गई । सेठजीने जवाब दियाः-"महाराज ! यहाँ तो कोई गरीब नहीं है । सभीके पास अच्छा पैसा है। यदि आपके पास कभी कोई गरीब आवे तो मेरे पास भेज देना । एक हजार आदमियोंको तो मैं धंदेमें लगा दूँगा। विशेष आयँगे तो देख लिया जायगा। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। mmmmmmmmmmma यद्यपि आप जानते थे कि आत्माभिमानी उच्च कुलीन गरीब इनकी मिलमें जाकर मजूरी करना हरगिज पसंद न करेंगे; मगर विशेष लाभ न देख आप चुप रहे । यह काम योंहीं रह गया । महात्माकी वाणी पर किसीने ध्यान नहीं दिया । समय आया । संवत्सरीके पारणेवाले दिन महात्माकी वाणी सच्ची हुई। बाजार बदल गया और अनेक लखपतियोंकी गाड़ियाँ तेजीके साथ दरिद्रताके गड्डेमें गिरती हुई दिखाई दीं। वे पछताये मगर तब क्या हो सकता था ? ___गया वक्त फिर हाथ आता नहीं।" तपस्वी गुण विजयजी महाराजने पर्युषण पर्वमें १५ उपवासकी तपस्या की थी। लोगोंके हृदय भक्ति भावसे १-तपस्वी गुणविजयजी सद्गत श्रीजयविजयजी महाराज-जो स्वर्गीय १००८ श्री विजयानंद सूरि ( आत्मारामजी ) महाराजके शिष्य थे-के शिष्य हैं । आपमें तपस्याका गुण अलौकिक है। बड़ी बड़ी तपस्याओंमें भी ये साधुकी सारी क्रियाओंमें सावधान रहते हैं । दिनभर जाप करते रहते हैं और रातमें भी प्रायः दो दो बजे उठकर जाप करने लगते हैं और सवरे तक जाप करते ही रहते हैं । उपवासका पारणा करनेके लिए अभिग्रह पूर्वक आहार पानी भी अपने आपही ले आते हैं । अहमदाबादके चौमासेहीसे ये हमारे चरित्रनायकके साथ ही रहते हैं । बाली, खुडाला, बीकानेर और अंबाला शहर इतने चौमासोंमें इन्होंने नवकारकी तपस्या की है । नवकारकी तपस्यामें जिस पदके जितने अक्षर होते हैं उस पदके उतने ही उपवास किये जाते हैं। बालीमें अन्तिम दो पदोंके सत्रह उपवास और दो स्थानोंमें अन्तिम तीन पदोंके २५ उपवास एक साथ ही करते रहे थे। अर्थात् पहले पदके सात उपवास करके एक दिन पारणा-भोजन-किया। फिर दूसरे पदके Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. श्रीगुरमविजयजी तयाचा पृ.३११ अद्वितीय तपस्वी. मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। - - -, AAAAAAAA AAAAA. उमड़ रहे थे; उस समय एक दिन व्याख्यानमें टीप-चंदालिखी जाने लगी। आपने पूछा:-" यह चंदा किस लिए किया जाता है ?" श्रावकोंने उत्तर दियाः-" साहिब ! तपस्वीजी महाराजकी तपस्याकी निर्विघ्न समाप्तिके उपलक्षमें अठाई महोत्सव किया जायगा।" पाँच उपवास करके पारणा, फिर तीसरे पदके सात उपवास करके पारणा, चौथे पदके सात उपवासका पारणा, पाँचवें पदके नौ उपवासका पारणा और छठे पदके आठ उपवासका पारणा करके ७, ८ और ९ वें पदके ८+८+९ कुल पचीस एक साथ ही करते रहे। इस तरह कुल ६८ उपवास किये, उनमें पारणा केवल छः ही बार किया। सिद्धि तपके ४५ उपवास होते हैं । वे इस तरह किये जाते हैं, एक उपवासका पारणा करके फिर दो उपवास करना, दोका पारणा करके तीन करना, इस तरह नौ उपवास तक क्रमशः बढ़ना । सादड़ी और शहर लाहोरमें इन्होंने यह सिद्धि तप किया। सादड़ीमें इस तपको पूर्ण करनेके बाद एक साथ इक्कांस उपवास किये थे और लाहोरमें सिद्धि तपके अन्तिम आठ और नौ उपवास मिलाकर सत्रह उपवास एक. साथ किये थे। अंबालेके चौमासे बाद हमारे चरित्रनायक जब सामानेकी प्रतिष्ठा कराके मालेरकोटला पधारे थ तब वहाँ इन्होंने चैत्र कृष्णा ८ से तले तेलेके पारनेस बरसी तप प्रारंभ किया । विहारमें भी यह तप जारी ही रहा । अर्थात् तेले तेले ही पारणा करते रहे । इस बरसी तपके चालू रहने पर भी होशियारपुरके पर्युषणोंमें इन्होंने सोलह उपवास एक साथ कर डाले । __पर्युषणके बाद हमारे चरित्रनायक जब काँगड़ाकी यात्रा करने पधारे तब ये भी साथ थे । इस पहाड़ियोंके विकट विहारमें भी ये तेले तेले ही पारणा करते थे। दस दस और पन्द्रह पन्द्रह माइलका विहार होता था ऐसी दशामें भी ये अपनी उपधि-कपड़े, पुस्तक, पात्रे आदि सब चीजें-अपने आप ही उठाते रहे, कभी Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। आप-" क्या इसकी खास जरूरत है ?" श्रावक ---" हमारे शहरमें रिवाज है कि, जिस उपाश्रयमें अधिक तपस्या हो उस उपाश्रयमें आनेजानेवालोंका फर्ज है कि, वे चंदा करके पासके जिन मंदिरमें अठाई महोत्सव करें।" ___ आप-" यह तो बड़ी ही अच्छी बात है । प्रभु भाक्तिके बराबर और श्रेष्ठ बात क्या होगी ? भक्ति करना आपका कर्तव्य है। मगर जो मार्ग आपने ग्रहण किया है वह मुझे बिलकुल पसंद नहीं है । मैं नहीं चाहता कि, मेरे साथके साधुओंकी तपस्याके लिए इस तरहसे अठाई महोत्सव होवे ।" श्रावकोंने जरा घबराहटके साथ पूछा:-" साहिब ! आपका आशय हम नहीं समझे । " अपनी उपधि किसी दूसरेको न दी । इतनी तपस्याएँ और ऐसा विहार करके भी कभी किसीसे वैयावच्च नहीं कराई । बलिहारी है इस तपस्याकी ! ___ वैशाख सुदी ३ (अक्षय तृतीया) के दिन अठाईके साथ, इस बरसी तपका 'जंडियालागुरु' नामक गाँवमें, श्रीऋषभदेव स्वामीकी छत्रछायामें इन्होंने आनंद पूर्वक पारणा किया । बीचमें फाल्गुन चौमासेकी अठाई की थी और चैत्रकी ओलीमें नौ उपवास किये थे। ___ इस साल, यानी सं. १९८२ का, इनका चौमासा हमारे चरित्रनायकके साथ ही गुजराँवालेमें है । यहाँ नौ नौ उपवास पूर्वक एक एक पदकी आराधना इस प्रकार नव पदजीकी ८१ उपवाससे आराधना करनी शुरू की है । बीचबीचमें और आसोज सुदी पूर्णिमाके बाद जो छूटी छूटी तपस्या होगी वह जुदा । ज्येष्ठ सुदी ५ से तपस्या शुरू की है और कार्तिकी पूर्णिमातक तपस्या चलती रहेगी । यह तपस्वीजीवन धन्य है ! Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आप " भाग्यशालीयो ! शक्तिके होते हुए भी रुपया रुपया आठ आठ आने माँग कर अठाई महोत्सव कराना क्या शोभा देता है ? ऐसे महोत्सवसे न करना ही अच्छा है । जो लोग भक्तिवश अपने घरबार छोड़कर यहाँ आते हैं उन्हें रोकनेका यह रस्ता है । यहाँ जितने मौजूद हैं उनमें से एक भी तुम्हें धनिक दिखाई देता है ? बड़ी बड़ी मिलोंवाले और पेढ़योंवाले तो भूले चूके ही व्याख्यानमें आते हैं और वे भी पर्युषणों । हमेशा आनेवाले तो साधारण स्थितिके ही श्रावक हैं। इस तरह बार बार चंदा होनेसे कई तो व्याख्यानमें आते ही डरते हैं । वे सोचते हैं व्याख्यानमें जायँगे और कहीं कोई चंदेकी फर्द आ जायगी तो शर्म के मारे उसमें कुछ न कुछ लिखना ही पड़ेगा | इससे तो न जाना ही अच्छा हैं । " 1 श्रावक - “ साहिब ! आपका फर्माना बिलकुल ठीक है; परन्तु किया क्या जाय ? काम तो करना ही पड़ता है और सेठिये आते नहीं; इस लिए चंदेके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है । " 1 आप " इसी लिए तो मैं ऐसे कार्यको आवश्यक नहीं समझता और न ऐसे आठ आठ आनेके चंदेको ही पसंद करता हूँ । हाँ यदि आपको यह काम करना ही हो तो उपाश्रयके बड़े बड़े सेठोंके यहाँ जाकर अच्छी रकमें ले आओ और अठाई महोत्सव कर अपना मनोरथ पूर्ण करो । " एक - " महाराज ! सेठ तो वे ही हैं जिनमें से एकने ३१३ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ आदश जीवन। उस दिन सधर्मी भाइयोंके उद्धारके विषयमें उत्तर दिया था। वे अपनी खुशीसे चाहे हजारों खर्च देंगे मगर हमारे जैसोंके माँगने पर तो वे एक रुपया देनेमें भी सौ नुक्स निकालेंगे। आप-" तो फिर संतोष कर लो, या आपने उपाश्रयका ममत्व छोड़कर जो श्रावक यहाँ व्याख्यान सुनने आते हैं उनसे सलाह करके काम करो। मैं कह देता हूँ कि, चंदा बिलकुल न करना । यदि तुम्हारी सम्मति हो और जौहरी भोगीलाल ( मंगलभाई ) कीकाभट्टकी पोलवाले पूँजाभाई आदि भाग्यवान बैठे हैं, इनकी इच्छा हो तो, ये एक एक दिनकी पूजा आदिका खर्चा स्वीकार कर लें। आठ भाग्यवानोंके मिलजानेसे अठाई महोत्सव आनंदसे हो सकता है। अपनी अपनी पूजाकी सामग्री अपने आप इच्छानुसार उत्साह पूर्वक मँगवा लेंगे। स्नात्री आदि भी हरेककी पूजामें उनके घरके आ जायँगे । मैं समझता हूँ इस तरह हरेक को अधिक श्रानंद प्राप्त होगा। इस बातको सुनकर मंगलभाई, पूँजाभाई आदि भाग्यवानोंने बड़े आनंदके साथ एक एक दिन स्वीकार कर लिया। श्रीमहावीरस्वामीके मंदिरमें अठाई महोत्सव धारणासे भी अधिक उत्साह और आनंदके साथ हुआ। उपर्युक्त घटनासे पाठक समझ सकते हैं कि, आपके हृदयमें सामान्य स्थितिवालोंके लिए कितना खयाल है। आप Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ३१५ इस बातकी कितनी सावधानी रखते हैं कि, कोई ऐसी बात न बने जिससे सामान्य स्थितिके लोगोंके दिलोंमें उपाश्रयमें आते झिझकन पैदा हो और वे धर्मध्यानसे वंचित रहें। __ अहमदाबादका चौमासा सदा स्मरण रहे इस हेतुसे आपने शान्त मूर्ति १०८ श्री हंसविजयजी महाराजके परम भक्त सुशिष्य, पंन्यासजी महाराज श्री संपत्तिविजयजीकी प्रेरणासे अन्तिम तीर्थकर भगवान श्रीमहावीर स्वामीकी पंचकल्याणक पूजा बनाई थी। उस चौमासेमें आपके साथ तेरह साधु थे उन के नाम ये हैं (१) मुनि श्रीमोतीविजयजी (२) मुनि श्रीविवेकविजयजी (३) मुनि श्रीकीर्तिविजयजी पंडित (४) मुनि श्रीउत्तमविजयजी ( ५ ) मुनि श्रीललितविजयजी (६) मुनि श्रीनायकविजयजी (७) मुनि श्रीकस्तूर विजयजी (८) मुनि श्रीकीर्तिविजयजी (९)मुनि श्रीविज्ञानविजयजी (१०) मुनि श्रीतिलकविजयजी (११) मुनिश्रीविद्याविजयजी (१२) मुनि श्रीविचारविजयजी (१३) मुनि श्रीउदयविजयजी। ___ अहमदाबादमें आपके पास बीकानेरके श्रीसंघका बड़ा ही भक्तिपूर्ण एक विनतीपत्र आयाथा उसे हम यहां उद्धृत करते हैं, " + + + आपके दर्शनोंकी अभिलाषा बहुत बरसोंसे लग रही है। मगर हमलोगोंके अभाग्य और अन्तराय कर्मके कारण आपका आना इधर कभी नहीं हुआ। पंजाब और गुजरातके अहो भाग्य हैं जो आप सत्पुरुषोंका हर वक्त | Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। विचरना रहता है । आप जैसे सत्गुरुओंके दर्शन हम कर्मचारी लोगोंके लिए अति दुर्लभ हैं। मगर अब आशा है कि, आप नजदीक विराजमान हैं और पंजाबकी तरफ पधारनकी सुनी है इस लिए विनयपूर्वक प्रार्थना है कि, अबका चौमासा बीकानेरमें कृपा करके अवश्यमेव कीजिएगा, ताके हम लोगोंका भी जन्म सफल हो। आप सद्गुरुओंका भी फर्ज है कि इस मरुधर देशमें कठिन परिश्रम उठाके पधारें और अज्ञान जीवोंका उद्धार कर जैन शासनकी उन्नति करें । और महाराज श्री श्री श्री देवश्रीजी आदि ठाणा आठसे यहाँ विराजमान हैं । धर्मका उद्धार अच्छा हो रहा है। इनको भी यहाँ रहनेकी इजाजत फर्मावें । यहाँ इनके विराजनेसे बहुत उपकार होगा। आपके पधारनेकी सूचना जल्दी फ़ौवें ताके हमारा मन प्रफुल्लित हो।" यहीं सं० १९७५ के कार्तिक सुदी ९ का लिखा हुआ राजपूताना जैन श्वेतांबर प्रान्तिक कॉन्फरेंसके मंत्रिका, एक छपा हुआ पत्र आपके पास आया था। उसको हम यहाँ देते हैं । इस तरहके पत्र, उक्त सभाके फलौधीके एक प्रस्तावके आधारपर, समस्त मुनिराजोंके पास भेजे गये थे। अन्यान्य मुनिराजोंने राजपूतानाके जैनोंकी पुकार सुनकर कुछ किया या नहीं सो हम कुछ नहीं जानते मगर हमारे चरित्रनायकने जो कुछ किया है उसे हम आगे देंगे । पत्रमें यह लिखा था: Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३१७ " पूज्य वर्य, श्री रा० जै० श्वे० प्रा० कान्फरेन्सका प्रथम अधिवेशन मिती आसोज बुदि ९-१० सम्वत १९७५ को श्रीपार्श्वनाथ स्वामीके तीर्थ पर अर्थात् फलोधी (मारवाड़) में, स्वर्गीय राय बाबू बद्रीदासजी बहादुर मुकीम कलकत्ता निवासीके सुपुत्र बाबू राजकुमारसिंहजीकी अध्यक्षतामें हुवा, जिसमें अन्यान्य प्रस्तावोंके साथ ही साथ निम्नोक्त प्रस्ताव भी सर्व सम्मेत्यानुसार पास हुआ । __" यह कान्फरेन्स धर्म प्रचार तथा नैतिक सुधारके लिये मुनि महाराजाओंका इस राजपूताना प्रान्तमें विचरना अति आवश्यक समझती है । मुनि महाराजाओंका तथा साध्वियोंका इस प्रान्तकी ओर कम ध्यान देखकर खेद प्रकट करती हुई उनसे सविनय प्रार्थना करती है कि शासनोनतिके लिये मुनि गण इस प्रान्तमें कठिन परिसह होते हुवे भी विचरें।" पूज्यवर्य ! यह पत्र राजपूतानेके संघकी ओरसे आपकी सेवामें भेजा जाता है और राजपूतानानिवासी सर्व संघके विचार तथा इच्छा प्रकट करता है। पूज्यवर्यसे यह बात छिपी नहीं होगी कि समस्त भारतकी जैन जातिका लगभग एक तिहाई भाग इसी प्रान्तमें रहता है और मुख्य करके श्वेताम्बर जैनियोंका तो यह प्रान्त घर ही है । जैनियोंमें सबसे बड़ी ओसवाल जातिका जो Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ आदर्श जीवन। आज प्रायः सर्व ही प्रान्तोंमें पाई जाती है-यह जन्म स्थान ही है। किसी कालमें तो इस प्रान्तके ग्राम २ में मुनिराजों तथा साध्वियोंका चातुर्मास तथा विहार हुवा करता था, पर खेदके साथ लिखना पड़ता है कि अर्वाचीन कालमें जैन जातिके इस बड़े भागकी ओरसे हमारे परम पूज्य, धर्मनेता मुनिगण उदासीन ही हो बैठे हैं । जहाँ गुजरात प्रान्तके एक एक नगरमें बीस २ मुनिगण चातुर्मास करते हैं, जहाँके छोटे २ ग्राम निवासी भी मुनिगणोंके सदुपदेशसे भरे हुवे अमृत बचनोंका सदैव पान करते हैं, वहाँ यह जैन श्वेताम्बर जातिका घर न जाने किस हीन कर्मोदयसे मुनिगणों द्वारा केवली भगवानके तारनेवाले वचनोंसे निरा वंचित ही रहता है । ग्रामोंका तो कहना ही क्या बड़े २ नगर भी मुनिगणोंके चातुर्माससे बरसों खाली रह जाते हैं । पूज्यवर्य जिनशासनके लिये इसका नतीजा अति अहितकर हुआ है । संघमेंसे भक्ति, श्रद्धा, तथा धार्मिक ज्ञान दिन प्रति दिन कम होता जाता है । जैनधर्मके तत्वोंसे तो लोग अनभिज्ञ ही हो गये हैं। कई जिन मंदिर अपूज, बेसम्भाल पड़े हैं। धर्मसे प्रेम तथा धर्मश्रद्धा कम होते जाते हैं । स्वधर्मी वात्सल्य, लोकसेवा, धर्मप्रचार, परोपकार इत्यादि सम्यक्त्वके गुणोंका दिन २ हास हो रहा है । धर्म कार्यों में पैसा खच नहीं होता वरन् उसके विपरीत पाप कार्योंमें पैसा दिल खोल खर्च किया जाता है। धर्मानुसार Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । wwwwwwww आचरण नहीं रहा । कहाँ तक लिखा जावे सब कुछ दिन प्रति दिन भ्रष्ट होता जाता है । आहिंसा व्रत (दया) को तो इस प्रान्तके लोग यहाँ तक भूल गये हैं कि, अपनी छोटी २ कन्याओंको ब्याह कर उन पर अथवा उनके बालक पति पर अल्पायुहीमें इस कराल कालका आक्रमण कराते हैं। या बूढ़ोंके साथ छोटी २ कन्याओंको बाँधकर उन बे समझ कन्याओंके लिये वैधव्यको आमंत्रण देते हैं। दयालु मुनिगण ! यदि आप एक दफा मर्दुमशुमारीकी रिपोर्टको देखें तो आपको ज्ञात होगा कि इस प्रान्तमें इस दयाधर्मी ओसवाल जातिका क्या हाल हो रहा है ? प्रति एक सौ सोहागिन स्त्रीयोंके साथ पाँच सौ विधवा स्त्रियोंकी औसत आती है । जिनमेंसे कईकी तो उदरपूर्ति तथा लगभग सबहीकी धार्मिक शिक्षाका कोई उचित प्रबन्ध नहीं है। पूज्य वर्य ! यह ऐसी बात नहीं है कि जिस तरफ करुणा सागर मुनिगणोंका ध्यान न आकर्षित हो । विधवाओंकी अधिक संख्या होनेसे केवल जैनियोंकी संख्या ही कम नहीं होती पर आजकलका समय देखते हुवे जातिके चारित्र पतनका भी भय होता है। जहाँ चारों ओर विलास प्रियता, ऐशआराम इत्यादि पश्चिमी सभ्यताका दौर दौरा है, जहाँ जातिमें प्रत्येक हर्षके अवसर पर पतित चारित्र वेश्याका मान है, जहाँ धनके मदमें, शिक्षाके अभाव में, तथा पंचायतियोंकी अशक्तिके कारण कुचरित्र मनुष्योंकी संख्या Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । बढ़ती है, धार्मिक ज्ञान तथा धर्मके तत्वों पर जहाँ जागृत श्रद्धा है ही नहीं, जहाँ पुरुष अपनी आखिरी मंजिल में अर्थात् वृद्धावस्थामें भी एक कम उम्रकी भोली कन्याके साथ शादी करने से बाज़ नहीं रहते हैं । तथा एकके बाद एक इस तरहंसे तीन चार विवाह करते हैं, ऐसी दशामें इन बाल विधवाओंकी बड़ी संख्याके लिये अपने सतीत्व धमका पालन करना दिन प्रति दिन कठिन होता जाता है। पूज्य वर्य !. कमसे कम इस जड़वादके प्रतिरोधके लिये, कुचारित्र पुरुषोंकी संख्या घटानेके लिये, अल्पायुमें युवकों की प्राण रक्षाके लिये प्रसूतिके समय अल्पायु होनेके कारण माताओंके मरनेको अथवा जन्म रोगिणी होकर सर्वदा के लिये दुःखों के पात्र होने से रोकने के लिये आप अहिंसा धर्म का प्रचार कर सकते हैं। यदि पशु पक्षी तक जैन दयाके तथा मुनिगणोंकी हिमायत के पात्र हों तो क्या अभागे मनुष्य और विशेष कर परमात्मा वीरहीके उपासक इस दया या हिमायतके पात्र नहीं । कमसे कम शासनको जीवित रखनेके हेतु मुनिगणको इस ओर ध्यान देना चाहिये । पूज्य वर्य, सन् १९०१ से १९९१ तक अर्थात् केवल १० वर्षकी अवधि में इस प्रान्तमें २ प्रतिशत जैनी कम हो गये हैं और कई रियासतोंमें तो १५ से २० प्रतिशत जैनियोंकी संख्या घट गई है। जहाँ प्रत्येक जैनीको धार्मिक ज्ञान अथवा सांसारिक ज्ञानके लिये शिक्षित होना चाहिये उसके विपरीत ३२० Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । लगभग आधे पुरुष और ९८ प्रति शतक स्त्रीयाँ तो केवल निरक्षर ही हैं । जहाँ संयमी जीवन व्यतीत करते हुए जैनियोंको दीर्घायु होना चाहिये वहाँ असंयमी जीवनके कारण हमारी औसत आयु केवल २५ वर्षकी ही रह गई है । जहाँ पूर्व कालमें हमारे धनी अपनी लक्ष्मी खर्च I करके आबूके दिलवाड़ेके जैसे मंदिर बनवाते थे वहाँ आज हमारे निकोंका द्रव्य विलास मियतामें खर्च होजाने के कारण अपनी जातिके बालकोंकी शिक्षाके लिये भी नहीं मिलता । कहाँ तक कहा जावे । हमारा नैतिक जीवन दिन दिन बिगड़ता जा रहा है । पूज्य वर्य ! इन उपरोक्त त्रुटियोंको दूर करनेके लिये मुनिगणके उपदेश तथा प्रयासकी बहुत आवश्यकता है । मुनिगण अपने चारित्र बलसे शिक्षा प्रचारके लिये, जिससे अन्य सब रोग दूर हो जाते हैं, बहुत कुछ कर सकते हैं । राजपूतानेके घर घरमें शिक्षाका प्रचार करा देना मुनिगणके लिये दुर्लभ नहीं है । जब हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि धार्मिक महोत्सवोंके लिये मुनिगणके उपदेशसे हजारों रुपये व्यय हो जाते हैं तो हम ये कल्पना नहीं कर सकते कि शिक्षाप्रचारके लिये जिस पर हमारा धर्म, कर्म और सारा जीवन ही निर्भर है उनके प्रयास निष्फल हों । सत्य तो यह है कि त्यागियोंके उपदेशका प्रभाव अतुलनीय होता है । पूज्य वर्य, यदि मुनिगण इस प्रान्तको आजकलकी २१ ३२१ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ आदर्श जीवन । भाँति छोड ही देंगें तो शासनको बड़ा नुकसान पहुँचेगा। इस जैन धमकी हानि और जातिके हासका उत्तर दायित्व आप पूज्योंके सिर ही रहेगा। कारण आप धर्मनेता हैं, धर्मरक्षक हैं, धर्मगुरु है, संघके लिये गोपाल हैं । और ऐसी दशा में उत्तर दायित्व सिवाय मुनिगणके किस पर हो सकता है ? पूज्य वर्य, यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि इस क्षेत्रमें परिसह बहुत हैं । इस क्षेत्रमें गर्मी बहुत पड़ती है। बालू रेतमें पैर जलते हैं कई गाँवोंमें समय पर आहार तो दूर रहा पानी तक की जोगवाई नहीं मिलती। श्रावकोंमें आदर भक्ति नहीं इत्यादि अनेक बातें इस प्रांतके विषयमें कही जा सकती हैं। पर पूज्यवर्य क्या यह परिसह कानोंमें कीलियाँ ठोके जानेसे, अथवा बियाबान जंगलमें, शीत उष्णमें ध्यानावस्थामें खड़े रहनेसे अथवा सपसे डसे जाने अथवा कपाल पर अग्नि जलाई जानेसे भी आधिक कठिन है। परमात्मा महावीर आदर्श हैं, मोक्ष उद्देश है, सांसारिक दुख सामने हैं तोक्या उन मुनिवरोंको कि जिन्होंने कश्चन, कामिनी तथा अन्य संसारी सुखोंका त्याग करके चारित्र अंगीकार किया है उन्हें स्वयं मोक्ष जानेसे तथा श्रीसंघके कल्याणके लिये प्रयास करनेसे कोई परिसह रोक सकता है ? कदापि नहीं । पूज्य वर्य यदि मुनिथोड़ीसी देरके लिये अपने उद्देश तथा प्रभुके वचनों और संघके कल्याणकी ओर ध्यान दें तो हमें विश्वास है कि वे इस प्रान्तसे ऐसे उदासीन रह ही नहीं सकते जैसे वे इस समय हैं। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३२३ पूज्यवर्य केवल संतानके संसारी सुखके लिये युद्धमें लाखों पुरुष अपने प्राण त्याग रह हैं तो क्या सारी जाति को मोक्षमार्ग पर लेजानेको हमारे त्यागी मुनिवर सामान्य 'परिसहोंसे भय भीत होकर इस प्रान्तमें आने तथा विचरनेसे हिच किचावेंगे ऐसी हमें कदापि आशा नहीं है । पूर्वकालमें इस प्रान्तमें मुनिगण विचरते थे और अब भी स्थानकवासी साधु विचरते हैं । तो क्या आप लोगोंके लिये विचरना इस प्रान्तमें अधिक दुष्कर है ? पूज्यवर्य शासनोन्नतिके लिये, धर्मकी रक्षाके लिये, जैन जातिको वास्तविक जैन जाति फिरसे बनानेके लिये सुनिवरोंके कठिन परिश्रमकी आवश्यक्ता है । इस लिये राजपूतानेके श्रीसंघकी इस कॉन्फरेन्सके द्वारा आपसे सविनय प्रार्थना है कि इस चातुर्मासके समाप्त होने पर इस तरफ पधारनेकी कृपा करें और इस प्रान्तके ग्राम २ व नगर २ को सवज्ञके वचनोंसे गुंजावें और लोगों में धर्मके प्रति जागृत श्रद्धा उत्पन्न करके कि जो उन्हें सत्य मार्ग पर चलनेको मजबूर करे, श्रीसंघका तथा संसारका कल्याण करें। यह भी सविनय प्रार्थना है कि इस कल्याणकारी कार्यके लिये किसी ग्रामसे निमंत्रण आनेकी बाट न देखें। पूज्यवर्य, अग्निमें सोनेकी, संकटमें वीरधीरकी और परिसहमें धर्म दृढताकी परीक्षा होती है । इत्यलम् ।। १०८ शान्तमूर्ति श्रीहंसविजयजी महाराज साहिबने पंन्या Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आदर्श जीवन । munaruwarranuarraiwww.nindmmm... सजी महाराज श्रीसंपत्तिविजयजी और अपने शिष्य प्रशिष्यादि परिवार सहित कुछ समय तक लूणसावाड़ेके श्रावकों को उपदेशामृत पिलाकर शहरमें ही पांजरापोलके उपाश्रयमें पधारनेकी कृपा की थी, जिससे परस्पर, एक दूसरे उपाश्रयमें, आनाजाना मिलना सुगमतासे हो सकता था। व्याख्यानादि कार्यके सबब हमेशा तो नहीं; किन्तु प्रायः तिथियोंके दिन हमारे चरित्र नायक सपरिवार इन महात्माकी सेवामें हाजिर हो जाते थे। कभी कभी हंसविजयजी महाराज साहिब भी धर्मशालामें पधारकर अपने बाल बच्चोंकी खबर लेलिया करते थे। दोनों महात्माओंके, अर्थात् श्रीहंसयिजयजी महाराजके और हमारे चरित्रनायकके, हृदयोंमें यह आनंद था कि एक ही. शहरमें जन्मे हुए हम दोनों मुनियोंका, एक, ही शहरमें यह पहला और शायद अन्तिम भी चौमासा है । यह चौमासा धन्य है ! प्रवर्तकजी महाराज श्री १०८ श्री कान्तिविजयजी और शान्त मूर्ति मुनिराज १०८ श्रीहंसविजयजी महाराज इन दोनोंका जन्म स्थान भी बड़ोदा है । और ये दोनों महात्मा भी प्रभाविक पुरुष हैं। हमारे चरित्रनायकके हृदयमें इन महात्माआके लिए अत्यंत पूज्य भाव है और इन महात्माओंके हृदयोंमें भी आपके लिए अति स्नेह और आदरके भाव हैं । - प्रवर्तकजी महाराजके साथ आपने सं० १९७४ का चौमासा बंबईमें किया था और हंसविजयजी महाराजके Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। साथ सं० १९७५ का चौमासा अहमदाबादमें किया और आनंदकी अभिवृद्धि की । बड़ोदेको इस बातका गर्व है कि उसने मुनि श्रीहंसविजयजी महाराज, प्रवर्तकजी श्रीकान्तिविजयजी महाराज और आप जसे, महान और प्रभाविक तीन आत्माओंको जैन समाजकी सेवाके लिए भेट किया है। पन्यासजी महाराज श्रीसंपत्तिविजयजीकी अति कृपाका यह फल हुआ कि, उन्होंने अहमदाबादके चौमासेमें हमारे चरित्रनायकके सुशिष्य मुनि श्रीललितविजयजी तथा विद्याविजयजीको महानिशीथका और अन्यान्य शिष्योंको अन्यान्य योगोद्वहन कगये थे। इस प्रकार सं० १९७५ का बत्तीसवाँ चौमासा आपने अहमदाबादमें समाप्त किया। अहमदाबादसे मार्गशीर्ष वदी३ के दिन आपने विहार किया। शान्त मूर्ति मुनिमहाराज श्रीहंसविजयजी और पंन्यासजी महाराज श्रीसंपतविजयजी भी, आपकी अपने प्रति अकृत्रिम श्रद्धा देखकर, नरोडा गाँवतक आपके साथ ही पधारे थे। अनेक श्रावक श्राविकाएँ भी साथमें गये थे। नरोड़ामें अहमदाबाइके आये हुए श्रीसंघने आपकी बनाई पंचतीर्थी पूजा पढ़ाकर साधर्मी वात्सल्य किया था। नरोडाले श्रीहंसविजयजी महाराज और पंन्यासजी श्री संपतविजयजी महाराज वापिस अहमदाबाद पंधार गये ये Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आदर्श जीवन । और आप बलाद कोबा आदि स्थानोंमें होते हुए मार्गशीर्ष १० के दिन पानसरमें पधारे थे। वहाँ भी अहमदाबादके श्रावकोंने आकर दो दिनतक पूजा प्रभावनाएँ की थीं और आपके प्रति अपनी अप्रतिम भक्ति बताई थी। पानसरसे विहार कर मार्गशीर्ष वदी १३ के दिन आप भोयणी पधारे । वहाँ भी अनेक स्थानोंके श्रावक आपके दर्शनार्थ आये थे। भोयणीसे पंन्यासजी महाराज श्रीसिद्धिविजयजीके दर्शनार्थ आप महेसाणे पधारे । आपने पंन्यासजी महाराजके दर्शन कर और पंन्यासजी महाराजने आपको स्नेह पूर्ण हृदयसे योग्य सत्कार देकर प्रसन्नता प्रकट की । आपका विचार विसनगर, वडनगर होकर तारंगाजी जानेका था; परन्तु पालनपुरके आये हुए श्रावकोंके अत्यंत आग्रहसे आपने पालनपुर होकर तारंगाजी पधारना स्थिर किया। . महेसानेसे आपने विसनगरकी तरफ़ विहार किया। महेसानेसे तीन कोसके फासले पर एक गाँव है वहाँ रातको आप आराम कर रहे थे । पाटन श्रीसंघके अनेक मुखिया रातको ग्यारह बजे वहाँ आये और उन्होंने आग्रह किया. कि आप जबतक पाटन पधारनेकी स्वीकारता न देंगे तबतक हम यहाँसे नहीं उठेंगे । अन्तमें रातको बारह बजे आपको पाटनजानेकी स्वीकारता देनी पड़ी। पालनपुर जाना. उस समय बंद रहा। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ३२७ वहाँसे विहारकर दो दिन विसनगरमें विराजे । विसनगरके श्रीसंघकी भक्ति और उत्साह देखकर आपने फर्माया था कि,-" याद पंजाब न जाना होता और गुजरातहीमें रहना होता तो यहीं चौमासा करता।" विसनगरसे विहार कर आप पाटन पधारे। बड़े समारोहके साथ आपका स्वागत हुआ । पाँच दिन तक पूजा प्रभावनादि करके,संघने अपनी भक्ति प्रदर्शित की । श्रीसंघने आपसे वहीं चौमासा करनेकी विनती की; परन्तु आपको पंजाबमें जानेकी शीघ्रता थी इस लिए ५ दिनतक वहाँ निवासकर आपने विहार करने की तैयारी की । तब पाटनके आधिकारियों और नगरवासियोंकी तरफसे आपको सार्वजनिक व्याख्यान देने की विनती की गई । इस लिए आपको दो दिन तक और रहना पड़ा। आपने 'दानधर्म' इस विषय पर ऐसा प्रभावशाली व्याख्यान दिया कि अधिकारियों और प्रजाके दिल पसीज उठे । उन्होंने उसी समय दुष्काल पीडितोंके लिए सात हजार रुपयोंका चंदा कर लिया। मूबा साहबने वहीं कहा था कि,-करीब एक लाख रुपये तक दुष्काल पीडितोंके लिए जमाकर पाटन निवासियोंको अपनी महाराजके प्रति जो भक्ति है उसे प्रदर्शित करना चाहिए । और उनके पवित्र उपदेशको आचारणमें लाकर अपना जन्म सफल करना चाहिए। पंन्यासजी महाराज श्रीअजितसागरजी महाराजने सभामें Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ आदर्श जीवन । कहा था कि,-"मुनि श्रीवल्लभविजयजीके पाटनमें आनेसे मुझे अत्यंत संतोष और आनंद हुआ है।" मुनि महाराज श्रीललितविजयजीने उपदेश दिया था कि, चारूपके कारण पाटणनिवासियोंमें जो अव्यवस्था हो गई है उसे मिटा देना चाहिए। सभाके समाप्त होनेपर पाटनके सूबा साहबने और अन्यान्य अधिकारी वर्गने आपके पधारनेसे पाटन निवासियों पर जो उपकार हुआ है उसके लिए आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी। पाटनसे विहार कर आप चारूप पधारे । करीब ३००४०० जैन जैनेतर सज्जन आपके साथ गये थे। वहाँ पंचकल्याणककी पूजा पढ़ाई गई थी । प्रतिमाजीके विराजनेके लिए कोइ उत्तम सिंहासन नहीं था आपके उपदेशसे करीब चार सौ रुपये वहीं जमा हो गये थे। __ चारूपसे विहार कर आप मेत्राणे पधारे । वहाँ पालनपुरका संघ आपके सामने आया।। मेवाणेसे विहारकर आप जगाणे पधारे । वहाँ उपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयजीके कालधर्म प्राप्त होनेके समाचार मिले । शोक सभा की गई और पालनपुरके संघने पंचकल्याणककी पूजा पढ़ाई। जगाणेसे विहार कर पोस वदी १० के दिन आप पालनपुर पधारे । पालनपुरके श्रीसंघने बड़े उत्साहके साथ आपका स्वागत किया। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३२९ वहाँ आपने तीन प्रसिद्ध आचार्योंकी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करवाई। ये मूर्तियाँ आचार्य श्रीसोमसुंदर सूरिजी, जगद्गुरु, श्रीहीरविजय मूरिजी और आचार्य श्रीमद्विजयानंद मूरिजीकी थीं। मूर्तियाँ मुनि श्रीहंसविजयजी महाराजके उपदेशसे तैयार हुई थीं । और श्रीपल्लविया पार्श्वनाथजीके मंदिरमें स्थापित की गई थीं। अट्ठाईस दिन तक महोत्सव होता रहा । ___ व्यावहारिक विद्याके साथ ही धार्मिक विद्या भी विद्यार्थियोंको मिले इस हेतुसे आपने वहाँ एक बोर्डिंग खालनेका श्रावकोंको उपदेश दिया। चंदा शुरू हुआ । हजारों रु. जमा हुए । बोर्डिंग खुला । उसका नाम पालनपुर जैनविद्यालय रक्खा गया । इस समय पन्द्रह बीस विद्यार्थी उससे लाभ उठा रहे हैं। करीब सत्तर हजारका उसका फंड है। पालनपुरसे आपने तारंगाजी तीर्थकी यात्राके लिए विहार किया। तारंगाजीकी यात्रा कर कुंभारियाजीको पधारे और वहाँकी यात्रा कर सीधे आबूजी पधारे । आबू और अचलगढ़की यात्राकर, वहाँके संसार प्रसिद्ध मंदिरोंके दर्शन कर रोहिडेके रस्ते लोटाणा, नाँदिया वगैरहकी यात्रा करते हुए बामणवाड पधारे । वहाँ प्रभु महावीरकी यात्रा की और वहाँके चंडकोसिया, कानोंसे कीलियोंका निकालना, पहाड़का फटना, आदिकी पहिचानके लिए स्थापित दृश्योंको देखते हुए और वीर परमात्माके अलौकिक गुणोंका स्मरण करते हुए। आप पिंडवाडे पधारे। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पिंडवाडे में कई बरसोंसे श्रावकोंके आपस में झगड़ा चल रहा था, मंदिरका प्रबंध भी यथोचित नहीं था;मंदिरका धन कई दबाये बैठे थे । आपने सबको समझा कर झगड़ा मिटाया । बरसोंका मनोमालिन्य आपके उपदेशरूपी जलके प्रवाहसे धुल गया । जिन लोगोंने धन दबाया था उन लोगोंने भी अपने भविष्यका विचार कर धन वापिस मंदिरमें दे दिया । वहाँसे चलकर आपने कई अन्यान्य तीर्थोंकी यात्रा करते हुए नाणा बेड़ाके रास्ते हो कर बीजापुर के पास राता महावीरकी अपूर्व यात्रा करनेका निश्चय कर लिया । ३३० 1 जिस दिन आप बेड़ासे रखना हुए उसी दिन बेड़ा गाँवकी एक बरात बीजापुरसे बेड़ा आनेवाली थी । उस तरफ लुटेरे, भील, मीणे आदि बहुत हैं । वे गाँवसे आने जानेवालों की खबर रक्खा करते हैं । बरातके रवाना होनेके समाचार भी उन्हें मिले । वे तैयार हो कर उस जगह पहुँचे जहाँ उन्हें लूटनेका मौका मिलता है । बेड़ा और बीजापुर के बीचमें करीब दो मील पर एक नाला है । उसीमें ये लोग यात्रियोंको लूटा करते हैं । लुटेरे पहुँचे । बरात अभी तक वहाँ पहुँची न थी । उन लोगोंको बड़ी खीझ चढ़ रही थी । वे इधर उधर ताकने लग रहे थे | इतनेही में हमारे चरित्रनायक, श्रीउमंगविजयजी, तपस्वी श्रीगुणविजयजी, श्रीविद्याविजयजी, और श्रीविचारविजयजी ऐसे चार साधु, पाड़ी (सीरोही) के लक्ष्मीचंद हंसाजी श्रावक Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन और एक सिपाही तथा वोलावी. सहित वहाँ जा पहुँचे । लुटेरोंने आकर सबको घेर लिया। आपने उनसे कहा:-"हम साधु हैं। हमारे पास कुछ नहीं है । '' आदि । मगर उन्हें तो उस समय क्रोध आ रहा था आप पर परिसह होनेका भविष्य था इस लिए उन्होंने कुछ नहीं सुना। वे बोले:-" शीघ्र ही जो कुछ है वह रख दो, वरना मार पीठकर हम ले जायँगे।" रोहीडेके श्रीसंघका भेजा हुआ आबूजीसे एक गजपूत सिपाही आपके साथ आया था । लुटेरोंकी बात सुन कर उसे गुस्सा आया । वह तलवार निकालने को तैयार हुआ। एक लुटेरेने उसे देखा । उसने उसके सिरमें छुरीका आघात किया। वह बेबस होकर जमीनपर आरहा । लुटेरोंने उसकी तलवार और उसके कपड़े छीन लिये ।। ___ हमारे चरित्र नायकने एक एक करके अपनी सभी चीजें दे दी। दूसरे साधुओंने भी अपने स्थापनाचार्य, पुस्तकें, पात्रे, वस्त्रादि रख दिये और कपड़े भी उतार दिये । लुटेरोंने पुस्तकें और पात्रोंके सिवा सब कुछ ले लिया। उमंगविजयजीके और तपस्वीजीके तो स्थापनाचार्य भी ले गये । जब वे जाने लगे तब तपस्वीजीने उनसे पुस्तकें व पात्रे बाँधनेके लिए कुछ कपड़ा माँगा । लुटेरोंने दो फटेसे टुकड़े दे दिये । साधुओंने उसीमें पुस्तकें व पात्रे बाँध लिए। जाते समय लक्ष्मीचंद हंसाजीके पाससे भी जो कुछ था ले. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । गये । जाते हुए मुनि श्रीविद्याविजयजी, मुनि श्री विचारविजयजी, और लक्ष्मीचंदपर चोट भी करते गये । जब वे चले गये तब हमारे चरित्रनायकने सिपाहीकी तरफ ध्यान दिया । देखा, उसके सिर से खून निकल रहा है और वह बेहोश पड़ा है । समयको विचार हमारे चरित्रनायकने तर्पणीमें पानी था, वह सिपाहीके सिरपर डाला | उसने आँखें खोलीं और कहा :- " महाराज ! आपने मुझे बचा लिया । वरना यहाँ मेरा कौन था ! " ३३२ आप बोले: - " तुम किसी तरहकी चिन्ता न करो । हम "सब तुम्हारे ही हैं । " सिपाहीको बड़ा आश्वासन मिला । वह बोला :- " क्यों न हो ? आप जीवदया प्रतिपालक कहलाते हैं; आपने यह प्रत्यक्ष बता दिया कि आप साक्षात् दयाकी मूर्ति हैं ! " आपने कहा:- “ मनुष्य दयालु तो हमेशा ही कहलाते हैं; परन्तु वास्तविक दया तो वही है जो समय पड़े काम आती है । " पाठक स्वतः कष्टमें पड़े हुए भी दुःखमें पड़े हुएको सहायता देना कितने मनुष्य करते हैं ? सर्दी की मौसिम थी । ठंडी हवा चल रही थी । तीरकी तरह वह शरीर में घुस जाती थी । आपके और दूसरे साधुओंके पहनने के लिए केवल एक चोलपट्टा था । लुटेरोंने नंगापन ढका रहे इस हेतुसे उसे लिया न था । ऐसी दशामें आप Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - बीजापुर पहुँचे । सिपाही भी धीरे धीरे आपके साथ ही चला गया । क्षत्रिय बच्चा था इसी लिए सिरमें छुरीका जख्म लगने और रक्त बहने पर भी, वहाँतक चलनेकी हिम्मत कर सका। अगर कोई दूसरा होता तो जगहसे हिलता तक नहीं। जिस समय आप बीजापुर पहुँचे घड़ी में करीब बारह बज चुके थे । इस प्रकारके वस्त्रहीन, मात्र चोलपट्टा धारियोंको गाँवमें आते देख लोगोंको आश्चर्य हुआ। जब आप गाँवके निकट रस्ते पर चल रहे थे, तब बंबईकी सेठ चंदाजी खुशालचंदकी पेढीवाले सेठ जवेरचंदजीने दूरसे आपको देखा और पहिचान लिया । आपका बंबईमें चौमासा हुआ तभीसे सेठ आपको पहिचानते थे और आपकी चरणसेवा करनेमें अपना अहो भाग्य समझते थे । आपको ऐसी हालतमें देखकर पहले तो वे दिग्मूढसे हो रहे । उन्हें क्षण भरके लिए संदेह हुआ कि ये हमारे गुरुमहाराज ही हैं या कोई और । मगर दूसरे ही क्षण वे आपके चरणोंमें गिरे और भक्ति गद्गद कण्ठसे बोले:-"गुरु देव ! आपकी यह दशा ?" __आप मुस्कुराये और बोले:-" कर्म सब कुछ कर सकता है। उपाश्रय बताओ । वहीं सब हाल सुनायँगे। सेठने आपको उपाश्रयमें लेजाकर उतारा । घरोंमेंसे उसी वक्त जाकर वे कपड़ा ले आये । आवश्यकतानुसार आपने और साधुओंने कपड़ा लिया। बादमें साधु आहार पानी ले आये । आहारपानीके बाद श्रावकोंने हाल पूछा। आपने संक्षेपमें सारी घटना सुना दी । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ आदर्श जीवन। वहाँके लोग आपके उपदेशोंसे धर्म भावमें और परोपकारक कार्यमें लीन हुए। अज्ञानकी विशेषताके कारण यहाँ आठ बरसोंसे दो धड़े चले आ रहे थे। आपने दोनों धड़ोंको समझाकर एक किया । ये धड़े फिर न हों और ज्ञानका प्रचार हो इस हेतुसे आपने वहाँ एक पाठशाला स्थापित करवाई। वह अबतक अच्छी दशामें चल रही है। बीजापुरमें आप पन्द्रह दिनतक रहे । इतने अर्सेमें मुनि श्रीविद्याविजयजी और मुनि श्रीविचारविजयजी भी राजी हो गये। इस दुखद घटनाको सुनकर मुनि श्रीललितविजयजी महाराज अपने शिष्य मुनि श्रीप्रभाविजयजीको साथमें लिए, डबल विहार कर, आपकी सेवामें, बीजापुरहीमें आ उपस्थित हुए। ये बीजापुरसे होशियारपुरके चौमासे तक आपकी सेवामें ही रहे । बंबई श्रीसंघके अति आग्रहसे, आपने इन्हें यह सोचकर बंबई चौमासा करनेके लिए भेजा कि, इनके जानेसे संघको तो प्रसन्नता होगी ही साथ ही बंबईके महावीर जैनविद्यालय' को भी मदद मिलेगी। गुरुदेवकी आज्ञा शिरोधार्य कर लंबी लंबी सफरें करते इन्होंने सं० १९८१ का चौमासा बंबईमें किया । स्पर्शना बलवती होती है। ये चौमासा समाप्त होने पर विहार करके वलसाडतक पहुँचे थे; परन्तु बंबई श्रीसंघके आग्रहसे और गुरुदेवकी आज्ञासे ये वापिस बंबई आये और सं० १९८२ का चौमासा भी बंबईमें ही किया। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - आपके साथमें जो सिपाही था उसकी बीजापुरके श्रीसंघने अच्छी तरहसे चिकित्सा करवाई थी । पन्द्रह दिनके बाद वह भी राजी हो कर बीजापुरके संघका उपकार मानता हुआ अपने घर चला गया । बीजापुरसे विहार कर आप सेवाड़ी पधारे । वहाँ पाँच दिनतक ठहरे। लोगोंको धर्मामृत पिला कृतकृत्य किया। करीबश्सोलह बरसोंसे वहाँ धड़े बंदी हो रही थी। आपने लोगोंकों समझा कर उस धड़े बदाका तोड़ा। ' सेवाड़ी और लुणावेके बीच में एक रमगर नामका गाँव है। उसके जागीरदारने आपकी प्रशंसा सुनी थी। उनके दिलमें भी आपके वचनामृतपानकी इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने सवाड़ीआकर आग्रह पूर्वक अपने गाँवमें आनेकी आपसे विनती की। आप वहाँ पधारे । सेवाड़ीसे बहुतसे आदमी आपके साथ गये थे और लुणावेसे बहुतसे आदमी आपके सामने आये थे। 'जागीरदारके यहाँ इतनी जगह न थी कि वे उन सबको बिठा सकते इस लिए उन्होंने नदीके किनारे वट वृक्षके नीचे एक पाट बिछवा दिया । हमारे चरित्रनायक उस पर बिराजे और जागीरदार एवं सभी श्रावक नदीकी रेतीमें बैठ गये। उस समय ऐसा मालूम होता था मानों जंगलमें समव सरणकी रचना हुई है । जंगल में मंगल पुण्यवानोंके पदार्पणसे ही होता है। आपके श्रीमुखसे व्याख्यान सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए । दयाधर्मका उनपर अच्छा प्रभाव पड़ा। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । वहाँसे आप लुणावा पधारे। आपने वहाँके लोगोंको दयाधर्मका उपदेश दे निहाल किया । वहाँ किसी कारण वश छः बरसोंसे दो धड़े हो रहे थे । वहाँकी धड़े बंदी तोड़ी और एकताका अमृत पिला कर सभीको सनाथ किया । वहाँ पाठशाला स्थापित करनेके लिए एक फंड भी हुआ। आपके लुट जानेकी बात समस्त भारतमें पवनकी तरह फैल गई थी। श्रावक व्याकुल हो उठे । गोडवाड़के हजारों लोग आपकी सुखसाता पूछने आये । हजारों ही श्रावकोंके तार और पत्र खेद प्रकाशित करनेवाले आये । जो लोग आपकी सुख साता पूछनेके लिए आये थे उनमेंसे कुछ मुख्य मुख्यके नाम यहाँ दिये जाते हैं। __ कलकत्तेसे सेठ सुमेरमलजी सुराणा आदि बीकानेरसे लखमीचंद्रजी कोचर नेमिचंदजी कोचर आदि । पालीसे चाँदमलजी छाजेड़ आदि। बडौदा, पालनपुर, अजमेर, सोजत, ब्यावर आदि स्थानोंसे भी अनेक सज्जन आये थे उनके मुखियोंके नाम प्राप्त न हो सके। पंजाबमें लुधियानेसे लाला हुक्मीचंदजी, बाबू हुक्मीचंदजी आदि अंबालेसे लाला गंगारामजी आदि । जामनगरसे सेठ मोतीचंद हेमराज आदि। गुजराँवाला, होशियारपुर, कसूर लाहोर आदि, पंजाबके अन्यान्य शहरोंके श्रावक भी कोई किसी गाँवमें और कोई किसी गाँवमें दर्शन करनेको और साता पूछनेको आते रहे । इस वक्तका दृश्य देखकर Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३३७ लोगोंको प्रभु महावीर स्वामीके उपसर्गकी समाप्तिमें इंद्र, राजा, महाराजादि सुखसाता पूछने आये थे,-पर्युषणोंमें हर बरस यह बात सुनते हैं, वही बात याद आगई थी। समस्त गोडवाड़के ५२ गाँवोंके भी प्रायः श्रावक आपके पास बीजापुर, सेवाड़ी और लुणावेमें आये थे। जोधपुर महाराजा साहबके पास भी कई तार इस मजमूनके गये कि, हमारे परम पूज्य गुरु आपके राज्यमें लुट गये हैं। इस लिए हम लोगोंके जी बड़े दुखी हुए हैं। आशा है आपके राज्यमें पवित्र महात्माओंको कष्ट पहुँचानेवालोंका आप उचित प्रबंध करेंगे। उस समय जोधपुरका प्रबंध सर प्रतापसिंहजीके हाथमें था। इन तारोंसे उनको बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने विश्वासु आदमियोंसे पूछा:-" ये ऐसे कान हैं जिनके लुट जानेसे सारे हिन्दुस्थानमें तहलका मच गया है ?" . उन्होंने हाथ जोड़ कर अर्ज की:-“ गरीब परवर ! जैनियोंके लिए तो वे एक अद्वितीय महापुरुष हैं । उनके लुट जानेसे लोगोंके दिलोंमें जो चोट पहुँची है उसका दर्द बतानेकी हममें शक्ति नहीं है।" ___ सर प्रतापसिंहजीने उसी समय पुलिसको हुक्म दिया कि, वह लुटेरोंको तत्काल ही गिरफ्तार करे । बड़ी कोशिशके बाद पुलिस एक आदमीको गिरफ्तार कर सकी । वह सरकारी Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ आदर्श जीवन। गवाह और भेदिया बन गया। उसने सभीको पकड़ा दिया लुटेरोंको पूरी पूरी तहकीकात करके उचित सजा दी गई। आप चौमासा सादड़ीहीमें करें, इस बातकी विनती करनेके लिए सादड़ीके श्रावक आये थे । बीजापुरसे वे आपके साथ ही साथ आरहे थे । लुणावेमें उनका बहुत आग्रह देखकर आपके शिष्य मुनि श्रीललितविजयजीने प्रार्थना की कि, जब इन लोगोंका इतना आग्रह है तब इनकी विनती पर भी विचार करना चाहिए । उस समय आप मौन रहे मगर बालीसे आपने यह सोचकर ललितविजयजी आदि ५ साधुओंको पालीके लिए रवाना कर दिया कि, यदि ये साथमें रहेंगे तो, श्रावकोंका आग्रह देखकर ये भी आग्रह करने लग जायँगे। श्रावकोंका अत्यंत आग्रह देखकर आप एक दिनके लिए बालीसे सादड़ी पधारे । दूसरे दिन श्रावक जमा होकर आपके पास आये और आग्रह पूर्वक विनती करने लगे कि चौमासा यहाँ कीजिए। ___ आपने फर्मायाः-" बीकानेर चौमासा करनेके लिए सेठ सुमेरमलजी आदि बहुत बरसोंसे आग्रह कर रहे हैं । वहाँ कुछ विशेष काम होनेकी भी आशा की जाती है। फिर पंजाबमें जाना है । पंजाबका श्रीसंघ बराबर पाँच बरससे विनती कर रहा है । हर चौमासेमें, पंजाबके दसबीस मुख्य | Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ३३९ मुख्य श्रावक आते हैं और पंजाब में विहार करनेका आग्रह करते हैं । " श्रावक बोले: “ पंजाब और बीकानरके श्रावक ही क्या आपको विशेष प्रिय हैं ? हमारी तो आप ऐसी उपेक्षा करते हैं मानों हम श्रावक ही नहीं हैं, हमें अपने धर्मका और अपने गुरुओंका राग ही नहीं हैं । " आप बोलेः " आप लोगोंका यह आग्रह ही बताता है कि, आप देवगुरुके अत्यंत भक्त हैं; इतना होनेपर भी मुझसे यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि आप अविद्याके पोषक हैं । आप ज्ञानमचारका उद्योग नहीं करते । ज्ञानप्रचारके बिना इस भक्तिका विशेष उपयोग नहीं होता । पंजाब के श्रावक ज्ञानप्रचारका उद्योग करते हैं; बीकानेर में उद्योग जारी है । इसी लिए वहाँ जानेकी इच्छा होती है । मुझे अपनी भक्ति करानेसे विद्या प्रचार कराना, सभीको धर्मज्ञान कराना ज्यादा अच्छा लगता है । अगर तुम भी विद्या प्रचारका उद्योग करो तो मैं यहीं चौमासा करनेके लिए तैयार हूँ । मेरे लिए तो सभी स्थान और सभी श्रावक एकसे हैं; होना चाहिए धर्मज्ञानका उद्योत । ” श्रावकोंने प्रसन्नता से उत्तर दिया:- “ हम आपकी आज्ञा पालने को तैयार हैं । बतलाइए हम क्या करें ? " आपने फार्माया:- " गोडवाडमें एक महा विद्यालय स्थापित करो । गोडवाडके सभी गाँवोंमें उसकी शाखाकी तरह एक Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आदर्श जीवन । -~~~~~~~~~~~~~ एक पाठशाला खोलो और उनमें अपने बच्चोंको पढ़ाना शुरू करो।" सभी श्रावक उठ कर नीचे आये; क्योंकि हमारे चरित्रनायक पहली मंजिलमें ठहरे हुए थे, उन्होंने बहुत देरतक सलाह मसलहत की, एक चिट्ठा बनाया । उसमें रकमें भरी गई। करीब साठ हजार लिखे गये । फिर वे ऊपर आये और आपके सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गये । एकने आपको चिट्ठा बताया और कहाः-" गुरुमहाराज ! अभी इतनीसी रकम हुई है। एक लाख तक सादडीका चंदा हो जायगा। दूसरे गाँवोसे भी इतना ही हो जायगा । आशा है आप. अब यहीं चौमासा करनेकी कृपा करेंगे।" आप श्रावकोंका इतना उत्साह देखकर प्रसन्न हुए और बोले 'तथास्तु । श्रावक लोग खुशीसे उछल पड़े और केशरियानाथकी जय' 'जैनधर्मकी जय ' 'गुरु महाराजकी जय' 'वल्लभविजयजी महाराजकी जय' बुलाते हुए अपने अपने घर चले गये। . __आपने पं० श्रीसोहनविजयजी एवं मुनिश्री ललितविजयजीको पाली पत्र लिखा कि-" सादड़ीके श्रीसंघने मारवाड़का अज्ञानांधकार दूर करनेका बीड़ा उठाया है । एक लाखकी रकम सादड़ीसे हम पूरी कर देंगे ऐसी बोली श्रीसंघने की है । साठ हजार तो लिखे जा चुके हैं। इस उत्साहके Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३४१ मुजिब एक लाख यहाँ होनेकी संभावना है । अधिक हो जावे तो भी आश्चर्य नहीं । साथमें यहाँके मुखिया पंचोंने यह भी स्वीकार कर लिया है कि, गोडवाडके प्रति ग्राममें हम आपके साथ चलेंगे और उनको समझावेंगे। आपकी कृपासे आपकी इच्छानुसार विद्योन्नतिके लिए दश लाखकी रकम गोडवाडमेंसे इकट्ठी हो जानेकी हम उम्मीद करते हैं । इस प्रकारका उत्साह यहाँके श्रीसंघका देखकर मेरा विचार यहीं चौमा. साका कस्नेका हो गया है । इस लिए तुम आगे नहीं बढ़ना । कुछ दिन वहाँके श्रीसंघको उपदेश सुनाकर बादमें विहार करके, यहाँ वापिस आ जाना" बीकानेरवालोंको पूर्ण आशा थी कि, इस बार आपका चौमासा बीकानेरहीमें होगा; मगर जब उन्होंने सादड़ीमें चौमासा होनेकी बात सुनी तब उन्हें जरा दुःख हुआ। यह स्वाभाविक है कि, मनुष्यकी जब आशा भंग होती है तब उसे दुःख हुए बिना नहीं रहता । वह आशा भले बहुत बड़ी हो या बहुत छोटी । सेठ सुमेरमलजी अपने वृद्ध पिता और अन्यान्य दस बारह श्रावकों सहित बीकानेरहीमें चौमासा करने और अभीसे बीकानेरकी तरफ़ विहार करनेकी साग्रह विनती करनेके लिए आये मगर सादड़ीमें जब उन्होंने श्रावकोंका आग्रह, उत्साह और विद्याप्रचारके लिए इतना प्रयत्न देखा तो वे चुप हो रहे और आपसे हाथ जोड़कर बोले:-" गुरुदेव आपके यहीं चौमासा करनेसे मेरा अनेक Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ आदर्श जीवन। शुभ आकांक्षाओंका किला विध्वंस हो रहा है तो भी मुझसे यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि आपके यहाँ चौमासा करनेसे जितना धर्मज्ञानका प्रचार और धर्मका उद्योत होगा उतना वहाँ करनेसे नहीं।" - आपने फर्माया:-" आप समझदार हैं। जहाँ धर्मका विशेष उद्योत हो वहीं पर रहना मेरा कर्तव्य है; मेरे जीवनसे धर्मकी जितनी सेवा हो उतना ही जीवन मैं अपना सफल समझता हूँ। क्षेत्र स्पर्शना हुई तो अगले बरस मैं चौमासा बीकानेरहीमें करूँगा।" ___ सादड़ीसे दो साधुओं और कुछ श्रावकोंको साथमें लेकर आपने वैशाख सुदी २ सं०१९७६ के दिन विहार किया । तेज धूप मारवाड़ की तपी हुई धरती ऐसेमें आप गोडवाडका उद्धार करनेके लिए घाणेराव, आदि गाँवोंमें विहार करते और लोगोंको धर्मामृत पिलाकर गोडवाड महाविद्यालयके लिए फंड जमा करनेका उपदेश देते हुए खिवाणदी जेठ सुदी १ के दिन पधारे । वहाँ केवल दो व्यक्तियोंने रकम भरी, फिर चंदा होना रुक गया। कारण यह था कि वहाँ आपसमें कुछ टंटा था । और उस टंटके कारण धीरे धीरे वहाँ पाँच धडे हो गये थे। - हमारे चरित्रनायकने उन्हें टंटा मिटानेका उपदेश देना प्रारंभ किया। सबके मन धीरे धीरे अपनी भूलको समझकर पसीजने लगे। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। comnoned - स्वर्गीय गुरु महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरिजीकी जयन्तीका दिन आया। आपने उस दिन इस तरहसे उपदेश दिया; इस तरहसे सबको उनकी भूलें बताई कि, उसी समय वे सभी गले मिल गये और इस मजमूनका प्रतिज्ञापत्र हमारे चरित्रनायकको लिख दिया कि, आप हमें जो फैसला देंगे उसे हम सभी स्वीकार करेंगे। __ अपने दो दिनतक खाने पीनेकी परवाह किये बिना सबकी अच्छी तरहसे जाँच करके जो फैसला दिया था उसकी नकल यहाँ दी जाती है। ... फैसला। श्रीवीर परमात्मने नमः। . सकल श्रीसंघ-महाजन-खीवाणदी निवासी योग्य, वल्लभविजयकी तरफसे धर्मलाभके साथ सूचना दी जाती है कि, क्षेत्र फरसना वश विचरते हुए जेठ सुदी १ शुक्रवारको आपके शहरमें मेरा आना हुआ । परिचयसे मालूम हुआ कि आपके शहरमें बहुत अरसेसे कुसंप चलता है जिसकी वजहसे आपके यहाँ छोटे मोटे कई धड़े पड़ गये हैं। उपदेश द्वारा आपको कुसंप हटाना सूचित किया गया। आपके हृदयोंमें संप कर लेना उचितसा मालूम हो गया। आप लोगोंने एक प्रार्थना पत्र लिखकर सबके हस्ताक्षर करा, मुझे सपुर्द कर दिया कि आप जो आज्ञा फरमावें हम सब मंजूर करेंगे । जिसपर बड़ी तडके-सा अनोपचंदजी गुलाबजी, Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आदर्श जीवन। Navyu-~ सा गुलाबचंद मोतीजी, सा मना गोवाजी, सा अनोपचंद पुनमचंदजी, और छोटी चार तडोंके सा खमाजी भाणाजी, सा फोजाजी उमाजी, सा भूताजी तलोकजी और सा इंदुजी गुलाबजी। कुल आठ आदमी मुकरर किये गये। इनको जुदा जुदा बुलाकर जो जो दरियाफ्त करना मुनासिब समझा गया किया गया । कहीं किसी बातके लिए और किसी आदमीकी जरूरत पड़ी तो ऊपर लिखे मुसम्मातके बताये आदमीको भी साथमें शामिल किया गया मगर कार्रवाई सब मुकर्रर किये आदमियोंके नामसे ही की गई । सबके इजहार लिखतबंद करके उसपर उनके दस्तखत कराये गये। अब इन सब इजहारोंसे और बातचीतसे जो कुछ मेरी समझमें आया, उस मुजिब मैं आप लोगोंको सूचना करता हूँ। आप यदि अपनी की हुई लिखित प्रतिज्ञापर बराबर कायम रहकर इसका पालन करेंगे तो आप सुखी होंगे आपके बालबच्चे सुखी होंगे और धर्मकी वृद्धि होगी। - इस पुराने करीब तीस वर्षके कुसंपका मूलकारण भादरवा सुदी पंचमीको प्रति वर्ष श्रीमंदिरजी पर धजा चढ़ाई जाती है। उसपर साथिया निकालनेका है चौवटिये कहते हैं कदीमी हमारा साथिया प्रथम निकलता आया है । हम ही निकालेंगे। शहर दारोंका कहना है जो घी आदिकी बोलीसे धजा चढ़ावे उसका साथिया पहला होना चाहिये बादमें चौवटिया खुशीसे करे । हमारा कोई उजर नहीं है। मगर इनका साथिया पहला होनेसे समझमें आया, की हुई लिाखामखी होंगे अ | Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । कोई बोली नहीं देता । इस हालतमें मंदिरजीकी आमदनी में हानि होती है । दरअसल बात विचारी जावे तो कुछ भी सार नहीं पाया जाता है। पहला किया तो क्या, पीछे किया तो क्या और अगर ना भी किया तो क्या ? मगर परस्पर बात ममत्व पर चढ़ गई। यहाँ तक कि अदालती मामला हो गया। पहला फैसला गामवालोंके हकमें हो गया । उसपर चौवटियेने अगली अदा लतका शरण लिया, जिसमें चौवटियेका हक कायम किया गया । उसपर गामवालोंने अपील की; मगर वो खारिज हो गई । जिससे चौवटियेका जोर बढ़ गया । गामवाले लाचार चुप चाप बैठ गये। मगर अंदरला द्वेष न गया, जिससे दिन प्रति दिन विरोध बढ़ता ही गया और उसीकी शाखा प्रतिशाखा रूप एककी दो और दोकी चार यूँ कई तड़ें पड़ गई हालांकि और और तड़ें पड़नेमें और ही और कारण हुए हैं । ३४५ परंतु पोलमें पोल वाला हिसाब प्रथम तड़ पड़नेसे कोई किसीको न तो कह सकता था और न कोई किसीका मानता था, तब फिर तड़मेंसे तड़ निकले तो कोई आश्चर्य नहीं । अदालतकी तर्फसे जो कुछ आखिरी फैसला हुआ है, धर्मशास्त्र और जैनधर्मके रीति रिवाज से बिलकुल गलत है । अदालतने इस बातकी तहकीकात करनेकी कोशिश करनेकी महेरबानी नहीं की अगर की जाती तो उम्मीद है, जो फैसला दिया गया है, कभी भी न दिया जाता । · Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । अस्तु मजबूर कोर्टकी आज्ञाको मान देना ही पड़ा, ताहम भी झघड़ा — कुसंप— कायमका कायम ही रहा इस लिए मद्देनजर कुसंपको काटनेके लिए यही रास्ता दुरुस्त है कि ( १ ) मंदिरजीकी आमदनीकी खातर मंदिरजीको मान देकर चौवटियेका साथिया बोलीवालेके साथियके बाद कायम किया जाता है; बशरते कि पाँच रुपैयेसे कमकी बोली न होनी चाहिये । अगर पाँचसे कमकी बोली होगी या किसीकी बोली न होगी तो उस वक्त चौवटिया ही पहला साथिया करेगा। इस हालतमें मंदिरजीकी आमदनीकी हानिकी शिकायत भी न रहेगी और कोटकी आज्ञाका अपमान भी न होगा और श्रीसंघमें हमेशहके लिए शांति बनी रहेगी । ३४६ ( २ ) जब कभी गामसाई काम होवे तब चौवटियेका ही सांबेला होवे, परंतु जब कभी एक कोई आदमी अपने घरका उत्सवादि करे, ऐसे मौकेपर घरधनीका ही सांबेला होना मुनासिब है । हाँ अगर अपनी खुशीसे चौबटिया साथमें दूसरा सांबेला करना चाहे तो कोई हरजकी बात नहीं, मगर मुख्यता घरधनी के सांबेलेकी ही होगी। T (३) कुडालका लड्डु - लाण आदिकी कार्रवाई किसीके स्थानपर करनेके बदले आयंदाको धर्मशाला आदि पंचायती मकान में बदस्तूर की जावे । ( ४ ) भाँगकी रसम धर्मसे और इन्सानियतसे खिलाफ होनेसे बिलकुल उड़ा दी जाती है। बुरी रसमकी जड़को काट देना ही मुनासिब है । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । (५) मंदिरजीका स्टेट - पोता (भंडार) एकट्ठाही रहे जुदा जुदा कोई अपने पास रखने न पावे । उसके इंतजाम के लिए चार आदमियोंके पास चार कुंजियाँ रहनी चाहिये। जिनके नाम सा १ केसरीमल नेमाजी २ सा अनोपचंद गुलाबजी ३ सा गुलाबचंद मोतीजी ४ और सा चमनाजी प्रतापजी । - हमेशहके श्रीमंदिरजीके कामके लिए बारह मेम्बर कायम किये जाते हैं, जिनके नाम १ सा भूताजी तिलोक जी २ सा केसरी मल नेमाजी ३ सा अनोपचंद गुलाबजी ४ सा गुलाब - चंद मोतीजी ५ सा रकबाजी वरधाजी ६ सा हंसाजी फताजी ७ सा खुमा जी भाणाजी ८ सा अनोपंचद पुनमचंदजी ९ सा चमनाजी प्रतापजी १० सा कस्तूरचंद सवाजी ११ सा कपूरचंद जेठाजी १२ सा सेनाजी सवाजी इन बारहोंमेंसे एक एक जना एक एक महीना देख रेख रखे इस तरह बारह जने एक वर्ष पूरा करें, वर्ष पूरा होनेपर Trinी मेंबर एकठे होकर वर्षभरका हिसाब कर बाकी निकाल देवें और बारां ही जने उसपर अपने दस्तखत करें। रोजका खर्च हिसाब वगैरह लिखनेका काम अगर मेंबर खुद कर सके तो जरूरत नहीं वरना एक विश्वासु आदमी नौकर रखकर उससे काम करावे और रोजका रोज जिस मेंबरकी बारी हो नामा देखकर अपने दस्तखत कर देवे । महीना पूरा होनेपर जिस मेंबर को काम सौपा जावे । उसका नाम लिखकर अपने दस्तखत कर देवे । इसी तरह ३४७ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ आदर्श जीवन। काम लेनेवाला मेंबर भी जिस मेंबरसे चार्ज लेवे उसका नाम लिखकर अपने दस्तखत कर देवे । खर्चके लिए एक सौ रुपैयेतक बाहर कोथलीमें जमा रहे और जिस मेंबरकी वारी हो जरूरतके वक्त पचास रुपये तकका खचें बिना किसीको पूछे वो कर सकेगा। ... अगर इससे अधिक खर्चका काम आ पड़े तो बारां मेंबरोंमेंसे जितने मेंबर उस वक्त शहरमें हाजर हों उनसे सलाह कर कर सकेगा, परंतु जितने मेंबर हाजर हों और जिनकी सलाहसे काम किया जावे उनके दस्तखत सहित कुल कार्रवाई क्या क्या काम और कितने कितने खर्चकी मंजूरी दी गई सब लिख लेना चाहिये। जिस मेंबरकी वारीमें जो कोई काम अधूरा रहे वो काम अगले अगले मेंबरको करना होगा। जरूरत जितनी माजी मेंबरकी या और किसी मेंबरकी या मेंबर सिवायके किसी अन्य योग्य पुरुषकी सलाह ले सकेगा। __ उनसे किसी अमरकी मदद भी ले सकेगा, मगर जोखमदारी वारीवाले मेंबरकी होगी । दस्तखत वगैरह उसीके मंजूर किये जायेंगे । (५) भूताजी तिलोकजीके यहाँ रखी हुई रकमकी तपास करनेसे मालूम होता है कि उन्होंने मय व्याजके चूकती रकम श्रीऋषभदेवजी, कंठी बनवाकर, चढ़ा दी है, थोड़ी रकम वधी थी सो भंडारमें देदी है । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३४९. mirmirmireo........... comwww.xxxxx ... किसके नामसे वहाँ जमा हुई है, उसकी तसल्लीके लिए रसीद वो मंगवा देवे । अगर रसीदमें इनका अकेलेका नाम होवे तो वो चीज उनकी समझी जावे और सौंपी हुई रकम पूरी कर देवे । तहकीकात करनेसे कुछ ऐसाभी मालम देता है कि कंठीका नाम लिया जाता है मगर बात कुछ और होनी चाहिये। __ रकम सौंपी गई उस वक्त सब एकठे थे पीछेसे जुदा पड़नेकी वजहसे यह बात आगे लाई जाती है, सो मैं इस बातको मान नहीं सकता तो भी औरोंको पूछनेकी जरूरत न समझकर भूताजीने यह काम किया। इसकी बाबत सबके मानकी खातर मैं सूचना देता हूँ कि, भूताजी श्रीमंदिरजीमें एक पूजा पढ़ा देवे। __ व्याजकी बाबत सुना जाता है तुम्हारे गाम खीवाणदीमें छ आनेका रिवाज है, अगर यह रिवाज ठीक सत्य होवे तो भूताजी बाकी व्याजकी रकम दे देवें । क्योंकि इन्होंने पाँच आनेके व्याजसे रकम पूरी की है। ... (७) किरणीया चामरकी बाबत मूल गुन्हेगारके मौजूद न होनेसे उसके वारिसको और खासकरके उसकी ओर तको चाहिये कि वो पाँच रुपये नकद देदेवे और एक पूजा पढ़ा देवे। (८) सुश्रावको रामचंद्रजीक मैं अपनी तरफसे सफाई और शांतिके निमित्त एक पूजा पढ़ानेकी सूचना करता हूँ। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । क्योंकि तहकीकात से मालूम होता है कि, आगे कई वक्त मुखी तरी के आप काम करते रहे तो संभव है किसी वक्त किसीका दिल दुखाया हो तो अपनी और उनकी सबकी सफाई के निमित्त इस उत्तम कामका आपको अवश्य सादर स्वीकार करना होगा मिति जेठ सुदी ९ शनिवार १९७५* ३५० हस्ताक्षर मुनि वल्लभविजय । सर्व मंगल मांगल्यं सर्व कल्याण कारणं प्रधानं सर्व धर्माणां जैनं जयति शासनं ॥ १ ॥ ता. क. - श्री मंदिरजीके जो मेंबर बारां कायम किये गए हैं फिलहाल तीन सालके लिए समझने बादमें अगर गामको बदलने की जरूरत पड़े गामकी रायसे बदल सकते हैं । इंदु गुलाबजी वाला तडकी खरेलकी जो रकम बाईसकी निकलती है बदस्तूर भर देवे और रसीद ले लेवे । ܐ इत्यलम् । खिवाणदी पहुँचनेसे पहले आप विहार करते हुए जब नडलाई पधारे थे तब वहाँ जोधपुर के एक अधिकारी बाबू मोतीलालजी साहिब - जो जिलेमें दौरा करने निकले थे- आपकी प्रशंसा सुनकर आपके दर्शनार्थ आये । आपके उच्च " जबसे विचार सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा:आपने जोधपुर स्टेटमें पदार्पण किया है तभीसे इस स्टेटमें * यह संवत् गुजराती समझना जो दीवालीके अगले रोज कार्तिक सुदि १ से शुरू होता है । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००८ अ.चाय महाराज श्रीमद्विजयवल्लभ सूरिजी (वाल, में) मनोरंजन प्रेस, बेम्बई नं. ४, Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३५१ विद्याप्रचारकी चर्चा विशेष बढ़ गई है। आप मारवाड़में विद्यादेवीकी पधरामनी करनेके लिए इतना परिश्रम कर रहे हैं इसके लिए हम आपको धन्यवाद देते हैं।" जब आप वापिस सादड़ी चौमासके लिये पधारे तब उपयुक्त अधिकारी महाशय वहाँ भी आये उन्होंने आपको कहा:-" आप प्रयत्न करके जितनी रकम विद्याप्रचारके लिए गोडवाडमें जमा करेंगे उतनी रकम आपको जोधपुर राज्यसे मिले इस बातकी कोशिशकर आपका काम दृढ बनाया जायगा। उन्होंने आपसे अपने अनुभवकी बात कही थी और बताया था कि, यह काम कैसे अच्छी तरह चल सकेगा ? और कौन कौनसे साधन कहाँ कहाँसे मिल सकेंगे ?" - खिवाणदिसे विहार कर पोमावा, शिवगंज आदि गाम और शहरोंमें उपदेश देते हुए चौमासा निकट आनेसे आप सादड़ी आते हुए बाली गाममें पधारे । जब आप बालीमें थे तब बालीके श्रीसंघने आपसे विनती की कि, यदि आप यहीं चौमासा करें तो हम गोडवाड़ विद्यालयके लिए एक लाख रुपये यहाँ जमा कर सकते हैं, * मगर आप सादड़ीमें चौमासा * गोडवाड (जोधपुर राज्य ) और सरोिही राज्यके गामोंमें ओसवाल और पोरवाड महाजन इतने मालदार हैं कि यदि वे चाहे और उदारता करें तो एक एक गामवाले एक एक विद्यालय खड़ा कर सकें; परंतु एक तो इनको ऐसा विद्याका प्रेम नहीं है जैसा कि पैसेका प्रेम है ! दूसरा योग्य साधुओंका उपदेश नहीं । बस नाककी खातिर विवाह शादियोंमें और जीमणवारोंमें प्रति वर्ष प्रति ग्राममें हजारों ही वहीं बलकि लाखोंका पानी कर देते हैं ! शासन देवता इनको सद्बुद्धि देवे! : Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ आदर्श जीवन। करना स्थिर कर चुके थे इस लिए वहाँ चौमासा करने स्वीकारता न दे सके । तब श्रीसंघ बालीने. अन्य मुनि मा राजोंको, चौमासा बालीमें करनेका, आदेश देनेकी विनतीक आपने अपने शिष्य पंन्यासजी महाराज श्रीसोहनविजयजी मु श्रीललितविजयजी, मुनि श्रीउमंगविजयजी, मुनि श्रीविद्या जयजी और मुनि श्रीसागरविजयजीको बालीमें चौमासा : नेकी आज्ञा दी । पाँचों मुनिराजोंने आपकी आज्ञानुर. बालीमें चौमासा किया था। आप बालीसे सादड़ी पधारे । साद. डीके चौमासेमें आपकी सेवामें तपस्वीजी गुणविजयजी, विचार विजयजी, समुद्रविजयजी और प्रभाविजयजी चार साधु थे। ___ सादड़ीमें बड़े आनंदसे चौमासा बीतने लगा। सादड़ी घाणेराव, बाली, लाठारा, पोमावा आदि गामोंका करीब ढा लाख रुपयेसे ज्यादा सारा चंदा लिखा गया था । जिसमें बालीका भी उस समयतक साठ हजारका चंदा लिखा ज चुका था और सादड़ीका तो लाखसे भी ऊपर हो गया था। .. आपका चौमासा सादडीहीमें होनेसे आपने वहाँवे श्राक्कोंको · श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंस' का जल्सा कराने उपदेश दिया। तदनुसार कॉन्फरेंसको आमंत्रण दिया गया ! बड़े उत्साहके साथ चौमासा समाप्त होनेपर पोस सुद, २,३,४ को सादड़ीमें कॉन्फरेंसका जल्सा हुआ। उसके सभापति होशियारपुरनिवासी लाला गुज्जरमल्लजी नाहर गोत्रीय ओस वालके प्रपुत्र लाला दौलतरामजी हुए थे। उस कॉन्फरेंसमें Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस र्य क. लि पृ. ३५४. आचार्य श्रीमद्विजयवल्लभ सूरिजी महाराज ( वाली मारवाड में ) मनोरंजन प्रेस, बम्बई. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आपने जो व्याख्यान दिया था वह बड़े ही महत्त्वका था । उसमें आपने निम्न लिखित विषयोंपर प्रकाश डाला था - (१) मेरा विचार और अधिकार (२) कॉन्फरेंसकी आवश्यकता ( ३ ) शान्तिकी योजना ( ४ ) विद्याकी खामी दूर करो ( ५ ) कॉलेजकी आशा ( ६ ) गुजराती भाइयोंकी आशा छोड़ दो ( ७ ) महाजन डाकू मत बनो ( ८ ) वीतरागकी दुकानके सच्चे मुनीम ( ९ ) कर्त्तव्यपरायण होना चाहिए (१०) आत्मा ही परमात्मा है ( ११ ) एकता और उदारताकी आवश्यकता ( १२ ) पाठशाला - विद्यालयस्कूल-कॉलेजसे फायदा | यह पूरा व्याख्यान उत्तरार्द्धमें दिया गया है। कॉन्फरेंसने आपको धन्यवाद देनेका जो प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास किया था उसकी नकल यहाँ दी जाती है ३५३ " परम पूज्य मुनि राज श्रीवल्लभविजयजी महाराज मारवाड़ - गोडवाड प्रांतका उद्धार करनेके लिए उसमें शिक्षाका प्रचार करनेका अत्यंत कठिन परिश्रम कर रहे हैं। यह कार्य कॉन्फरेंसके मुख्य उद्देश्यको अमलमें लानेवाला है, इस लिए उसके साथ कॉन्फरेंस पूर्ण सहानुभूति बताती है और महाराजश्रीका अन्तःकरण पूर्वक उपकार मानती है । तथा मुनि महाराजोंसे विनती करती है कि, वे भी इसी तरह शिक्षाके प्रश्नको अपने हाथमें लें । " यहाँ आपसे आचार्य पद स्वीकारनेके लिये आग्रह किया २३ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ आदर्श जीवन। गया था; मगर आपने इन्कार कर दिया । बालीमें पं० जी श्रीसोहनविजयजी महाराजके पास मुनि श्रीललितविजयजी, मुनि श्रीउमंगविजयजी और मुनि श्रीविद्याविजयजीने भगवती मूत्रका योगोद्वहन किया था। उन्हें पंन्यास पदवी देना था इस लिए सं० १९७६ का तेतीसवाँ चौमासा सादड़ीमें समाप्त कर आप वाली पधारे । बालीमें बड़े समारोहके साथ आपका नगर प्रवेश हुआ । वहाँ मार्गशीर्ष वदि २ के दिन श्रीयुत कपूरचंदजी और गुलाबचंदजी बालीनिवासी ओसवालको हमारे चरित्रनायकने दीक्षा दी। दोनोंके नाम क्रमशः देवेन्द्रविजयजी और उपेन्द्रविजयजी रक्खा गया। पहले उमंगविजयजी महाराजके और दूसरे विद्याविजयजी महाराजके शिष्य हुए। मार्गशीर्ष वदि ५ के दिन मुनि श्रीललितविजयजी महाराज, मुनि श्रीउमंगविजयजी महाराज और मुनि श्रीविद्याविजयजी महाराज तीनोंको गणि और पंन्यास पद, पंन्यासजी श्रीसोहनविजयजी गणिने प्रदान किये । उसी दिनसे तीनों महात्मा पंन्यास कहलाने लगे। इस तरह आपके परिवारमें चारों पंजाबी पंन्यास बने । बालीके ओसवालों और पोरवाडोंमें तीन तड़ें थीं। वे कभी परस्पर साधर्मी वात्सल्यमें भी शामिल नहीं होते थे । इस अवसर पर हमारे चरित्रनायकके उपदेशसे तीनों साधर्मीवात्सल्यमें एकत्र हुए। यहाँसे आप वापिस सादड़ी पधार गये; क्योंकि सादड़ीमें | Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीबत भारतय चावल भबिजयश्रीवलमालासमायोजए -पन्यासमध्य-जयसबी- माह मान | विद्याविजयानविनयमसनप्रशिर मावतभाव लाल विजयी बाली में पंन्यास पद्वी। पृ. ३५४. मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४, Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । vvvinnivanamannaahaan कॉन्फरेंसका जल्सा होनेवाला था । वह हुआ उसका वर्णन ऊपर दिया जाचुका है। ___ सादड़ीके चौमासेमें पर्युषण समाप्त होने पर झगड़ियेसे मुनि श्रीज्ञानसुंदरजी महाराजका एक पत्र सादड़ीके श्रावकोंके नाम आया था। उसकी नकल उपयोगी समझ यहाँ दी जाती है। " + + + + + अधिक हर्ष इस बातका है कि, आपके वहाँ पूज्यपाद, व्याख्यानशिरोमणि, पंडितमुकुटमणि, शासनदीपक, ज्ञानप्रचारक, नीतिवर्द्धक, वादिमानमर्दक शान्त्यादि अनेक शुभ गुणगणालडून्त श्री श्री १००८ श्री श्रीजगदल्लभविजयजी महाराज सपरिवार विराजमान हैं सो आपके पूर्व प्रबल पुण्योदयसे मानों मरु देशमें कल्पवृक्षका ही आगमन हुआ है। जिसके फलका आप लोगोंने अच्छे उत्साहके साथ आस्वादन किया है। उन महात्माकी जयध्वनि आज भारत भूमिमें गूंज रही है, उस ध्वनिका नाद भव्यात्मा श्रवण करते हैं और उनका हृदयकमल विकसित हो जाता है। __ " स्वल्प समयके पहले जगत्प्रसिद्ध, जगतोपकारी श्रीमद्विजयानंद मुरीश्वरजी महाराज मरुस्थलादि अनेक देशोंमें अज्ञानतिमिरका नाशकर ज्ञानका बीज बो गये थे । उन्हीं आचार्यके. चरण कमल निवासी महात्मा, उसी ज्ञान वृक्षको पल्लवित करनेके लिए आपके यहाँ पधारे हैं। उन्होंने आपके यहाँ ही नहीं बल्के अन्य भी बहुतसे स्थानोंमें, सूर्यकी माफिक Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। -AAAAANANAANAAAAAA ज्ञानका प्रकाश किया है, उससे सुविद्याके कमल लिखते हैं और भव्य भ्रमर उनकी सुगंधका आस्वादन करते हैं। " आज जैन समाजमें हजारों, लाखों ही नहीं बल्के करोड़ों रुपये धर्मके नामसे खर्च होते हैं। परन्तु समयानुसार शासनको लाभ पहुँचानेके कार्यमें बहुत ही कम रुपया खर्चा जाता है । मगर वल्लभविजयजी महाराजका प्रयत्न उच्च कोटिका है । आपकी विशालदृष्टिका विचार जैन कौमको बड़ा भारी फायदा पहुंचानेवाला है । उसके महत्वका वर्णन करना हमारी लेखिनीके बाहर है। - “आप लोगोंको भी धन्यवाद है कि आप लोग ऐसे महात्माओंके अमृत समान उपदेशसे अपनी चंचल लक्ष्मीका उपयोग शासन सेवामें करते हैं । आशा है आप इसी तरह अपना उत्साह बढ़ाते रहेंगे । शास्त्रकारोंने सभी दानोंमें ज्ञानदान. श्रेष्ठ बतलाया है। ___“ मरुस्थलादि कुछ देशोंमें आधुनिक अल्पज्ञ लोगोंकी वृत्ति प्रायः ऐसी भी दिखाई देती है कि, कार्यके आरंभमें तो उनके दिलोंमें बड़ा भारी उत्साह होता है, उसी उत्साहमें यदि कार्य प्रारंभ हो जाता है तो वह पूरा हो जाता है; परन्तु कार्यमें विलंब होता है तो कई महाशय अनेक प्रकारके विकल्प तथा जातिभेदके मतभेद लाकर डाल देते हैं और कार्यमें. विघ्न कर देते हैं। 1. " आप लोग तो महात्मा पुरुषोंके पदपजमें निवास Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३५७ करनेवाले हैं, इस लिए विश्वास है कि कार्य निर्विघ्नतया पूरा होगा । शासनदेव सहायता देंगे। "मैं एक पामर प्राणी, अल्पज्ञ, पृथ्वीको भारभूत गृहस्थोंके मुफ्तमें टुकड़े खानेवाला हूँ। महा मुनिराजश्रीके इस कार्यका बार बार अनुमोदन करता हूँ। और आपसे भी निवेदन करता हूँ कि इस कामको आप महाराजश्रीके चातुर्मास हैं वहीं तक प्रारंभ करा दें और मनुष्य भवको सफल करें। श्रीमहाराज साहबको हमारी सविनय वंदना अर्ज करें।" ___ इसी तरह पंजाबके श्रीसंघका एक पत्र आया था। इसमें आपसे पंजाबमें पधारनेकी विनती दुखे हुए सच्चे दिलसे की गई है। उस प्रेम-पंजाबियोंके परमप्रेम-का दिग्दर्शन करा नेके लिये उसको भी यहाँ उद्धृत करना उचित समझा गया है। ___ "मेरे परम प्यारे श्रीगुरु महाराजजी, सेवकोंकी वंदना १००८ वार मंजूर हो । साहबजी क्या वह दिन भूल गये जो गुरु महाराजका वचन था। गुरु महाराजका अगर वचन ज्यादा है तो एकदम पंजाबकी तरफ विहार करो अगर आरामसे संयमकी पालना करना है तो गुजरातमें आनंद लो। याद रक्खो जबतक पंजाबमें न आओगे तबतक महाराजके सच्चे सेवक न होओगे । इधर कुगुरुका जोर हो रहा है। जगह जगह लेकचर दे रहे हैं। क्या मूरजका यह काम है कि एक जगह ठहरे और बाकी जगह पर अंधेरारक्खे । वहाँ उल्लुओं Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। को मौज करने दे । सेवकोंका कोई वचन खराब हो तो माफी माँगते हैं। दुश्मनोंके जगह जगह साधु संत हैं । यहाँ हम देख देख कर तरस रहे हैं। बहतर तो यह है कि रोटी गुजरातमें खाई हो तो पानी पंजाबमें आकर पीओ। हम अनाथोंको शरण दो।" इसी चौमासेमें आसपुर (मेवाड:) के श्रावक श्रीयुत चंपालाल निहालचंद तारावतने आपसे सात प्रश्न पूछे थे। आपने उनके जो उत्तर दिये थे वे और प्रश्न उपयोगी समझ कर यहाँ दिये जाते हैं। प्रश्न । १-स्नान किये बिना श्रावक प्रतिष्ठित प्रतिमाकी वासक्षेपसे पूजा कर सकता है या नहीं ? और ऋषिमंडल स्तोत्र एवं जाप शुद्ध वस्त्र पहनकर कर सकता है या नहीं? २-आानक्षत्र बैठने पर आमका त्याग किया जाता है। यह गुजरातकी अपेक्षासे त्याग है कि पंजाबमें भी आद्राके बाद आगका त्याग कर देना पड़ता है ? आदीके बाद कलमी ( हापूस, पायरी, लंगड़ा, मालदा आदि जो तराशकर खाये जाते हैं ऐसे ) आम खाये जा सकते हैं या नहीं । आद्रोके पहले भी जिस श्रावकको सचित्का त्याग हो अथवा एकासना हो वह आमका रस खा सकता है या नहीं ? ३-यदि कोई पूर्णतया बारह व्रत न पाल सकता हो तो Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३५९ वो यथाशक्ति पालनेके लिए बारह व्रत धारण कर सकता है या नहीं? ४-मंदिरके उपयोगके लिए केशर, चंदन, सोना चाँदीके वरक, इतर, धूप आदि पदार्थ बेचने हों तो वे पदार्थ दूसरोंकी अपेक्षा कम नफा लेकर बेचना चाहिए या मुद्दल दाम लेकर बेचना चाहिए ? ५-श्रावक साध्वीजी महाराजको वंदना किस तरह करे ? ६-पर्युषणोंमें साध्वीजी महाराज कल्पमूत्र बाँच सकती हैं या नहीं ? श्रावक साध्वीजीके पास उपाश्रयमें सुननेके लिए जा सकता है या नहीं ? ७-प्रसूतिका ( सुवावड़ी) का घर जुदा हो; प्रसूति कर्म करानेवाली भी दूसरी हो; ऐसी दशामें जो स्त्री जुदा मकानमें भोजन बनाकर प्रसूतिकाको ऊँचेसे भोजन दे, उससे स्पर्श न करे तो उसको कितना सूतक लगता है ? और जो एक दफा प्रमूतिकाको स्पर्श कर ले उसको कितने दिनका मूतक लगे ? उत्तर । (१) वासक्षेपसे अधर ऊँचे हाथसे पूजन करनेमें और स्तोत्रादिके जाप करनेमें स्नानकी जरूरत नहीं समझी जाती है। (२) जिस देशमें आर्द्रा पहले केरी ( आम ) का प्रचार होता है उसी देशके लिए आर्द्रा समझना चाहिए। जिस देशमें Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० आदर्श जीवन। वस्तु होती ही पीछे है वहाँके लिए यह प्रतिबंध नहीं माना जाता है । मूल मुद्दा आर्द्रा होनेपर वर्षा आदिके कारण पाकी केरीमें-पकेहुए आममें जीव पड़ जाते हैं, रस चलित हो जाता है, जिससे अभक्ष्य समझकर पूर्व पुरुषोंने उस देशके लिए यह मर्यादा बाँधी है। इसी तरह और देशोंमें भी उस २ देशकी स्थिति हवापानी-वगैरहका विचारकर अकसर जिस समयमें बिगड़ जाती हो उस समयसे बिलकुल त्याग कर देना योग्य है। यदि कोई संतोष करके उससे पहले ही त्याग कर लेवे तो अच्छी बात है; परंतु यह गुजरातका कायदा सर्व देशपर लागू करना न्याय नहीं कहा जाता और न लोक मंजूर ही करते हैं। पंजाबका तो हमें अनुभव है, वहाँ तो आ के बादमें भी कितने अरसे बाद ही केरी पकती है। गुजरात देशका अनुभव तो प्रथमसे ही था । मारवाड़ देशका अनुभव इस वर्षमें प्रायः पूर्ण रूपसे हुआ है । आःतक तो कहीं केरी पकी हुई नजर भी नहीं आती थी। आर्द्राके बाद गाड़ेके गाड़े ही आते दिखलाई देते थे । कितनेक लोग आापर नियमके लिए कहने लगे तो कितनेक भाइयोंने जवाब दिया कि, अभी केरी आई तो है ही नहीं, खाई नहीं, मुखको लगाई नहीं और बिगड़ कहाँसे गई ? हमसे तो ऐसा नियम नहीं हो सकता । हाँ जो लोग गुजरातसे केरी मँगाते हैं उनको आर्द्रा होनेपर गुजरातकी केरीका तो अवश्य ही त्याग कर देना योग्य है । और बाकीके Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ३६१ wwwwwww लिए द्रव्य क्षेत्र काल भाव देखकर जिससे रस चलित का दोष न लगे वैसे उपयोग रखना चाहिये। कलमी और कच्चीके लिए भी प्रवृत्ति दोष न हो जावे इस लिये विवेक रखना ही योग्य है । तात्पर्य इस त्यागमें केरीसे मतलब नहीं है, किन्तु रसचलित हो जानेसे-बिगड़ जानेसे जीवोत्पत्ति हो जानेसे अभक्ष्यसे मतलब है । गुजरात देशमें भी आःतक खानेका जो प्रचार है सो बहुत करके आर्द्रा बाद केरीमें बिगाड़ होता है इस लिए परंतु किसी समय हवा पानीके कारण आर्द्रा पहले भी बिगाड़ हो जाता है, तब विवेकी लोग आद्रासे पहले ही त्याग कर लेते हैं । सचित्तका त्यागी मिश्र दोष न लगे इस कारण रस निकाले बाद दोघड़ी होनेसे वापर सकता है। दो घड़ीसे पहले नहीं । जैसे साधु साध्वी दो घड़ी होनेके बाद गोचरीमें लेते हैं। इसी तरह एकासणेमें भी समझ लेना । हाँ जिसने लीलौतरी ( सबजी ) का त्यागकिया हो उसको रस भी वापरना योग्य नहीं है । इसी तरह पके हुए केलेके लिए भी समझ लेना कि, जिसको तिथिके रोज सबजीका त्याग हो वो केला भी नहीं खा सकता है । जिसने नियम करते हुए खुला रखा हो उसका अखतियार है । गुजरातमें इसी वास्ते कितनेक लीलोतरीका नियम करते हुए पाकी केरी पाके केले की छूट रखते हैं । साधु साध्वियोंके योगोदहनके दिनोंमें और श्रावक श्राविकाओंके उपधानके दिनोंमें अचित्त होने Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पर भी लीला शाक मनाई होने से केरीका रस और पाका केला नहीं लिया जाता है । ३६२ ( ३ ) श्रावक यथा शक्ति बारां व्रत ले सकता है । इसका खुलासा प्रातः स्मरणीय स्वर्गवासी गुरु महाराज जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरि ( आत्मारामजी ) महाराजने श्रीतत्व - निर्णयप्रासाद नामा पुस्तकमें ( स्तंभ २८ पृष्ठ ४४६ ) किया है देख लेना । I ( ४ ) बने वहाँतक मुद्दल भावसे देना उचित है । यदि न बन सके तो थोडा नफा लेकर देनेमें हरकत नहीं समझी जाती है। क्योंकि उसने देवद्रव्यका फायदा ही किया है नुकसान नहीं । जो चीज बजारमें एक रुपैये में मिलती थी उसके बदले में चौदह आने में दी, प्रत्यक्ष उसने दो आनेका बचाव किया, उसको बुरा किया कौन कह सकता है ? खास करके झवेरी लोगोंको यह काम बहुत दफा पड़ता है । श्रीमंदिरजीमें भगवान के मुकुट-कुंडलहार - जडाऊ आंगी वगैरह में हीरा - पन्ना - माणक - मोति आदि झवेरातकी चीजें मुद्दल भावसे- या अमुक थोड़ासा नफा लेकर और आखिर में चोक्खी - उत्तम चीज बाजारके भावसे झवेरी लोग देते हैं और खरीदते भी हैं । और झवेरी लोग प्रायः श्रावक होते हैं, यह बात तो निर्विवाद है । मतलब उसकी भावना मंदिरजीकी चीजके बिगाड़नेकी या नुकसान करनेकी नहीं है । इस लिए हरकत नहीं है; परंतु जो उसके मनमें खोट होगी तो उसने मंदिरको समझा ही नहीं है; उसको तो दोष ही दोष है । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन (५) अभुठिओ खामकर वंदना करनेका रिवाज मालूम नहीं देता है परंतु खड़े खड़े हाथ जोड़कर थोभवंदना करनेका और सुख साता पूछनेका प्रचार तो गुजरात आदि देशोंमें नजर आता है। (६) छेद सूत्रांतर्गत होनेसे कल्पसूत्र वाँचना साध्वी को योग्य नहीं है । मुख्यतया तो साध्वीको व्याख्यान वाँचनेका ही अधिकार नहीं है । यदि किसी कारणवश वाँचना हो तो पुरुषकी पर्षदा किनारेपर एक तरफ बैठे और बाइयाँ साध्वी के सामने बैठे। और साध्वी नीचे अपने आसन पर ही बैठकर सुनावे तो सुना सकती है। ऐसा स्वर्गवासी गुरु महाराजसे सुना याद है और तपागच्छकी साध्वियोंमें कहीं कहीं ऐसा रिवाज सुनाई और दिखाई भी देता है । भाषाका कल्पसूत्र यदि साध्वीजी बाइयोंको सुनावे और दूसरा कोई योग न होनेसे पूर्वोक्त रीतिसे श्रावक भी सुनना चाहें तो सुन सकते हैं। (७) खाना पकानेवालीको सतक नहीं लगता बशरते तुम्हारे लिखे मुजिब प्रमुताके साथ लगा होवे तो स्नानादिसे शुद्ध होनेसे दोष हट जाता है। सादड़ीमें श्वेतांबर कॉन्फरेंसका जल्सा जब समाप्त हो चुका तब शिवगंजके सेठ गोमराज फतेहचंद आये । ये गोडवाड़के एक प्रसिद्ध व्यापारी हैं । बंबई और रंगूनमें इनकी पेढ़ियाँ हैं। मुख्यतया इनका कपूरका रोजगार है । ये वंदनाकर आपके Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । सामने बैठ गये और हाथ जोड़कर बोलेः " महाराज साहब मैं केसरियाजीका संघ निकालना चाहता हूँ; आप दयाकर सपरिवार संघ में पधारनेकी कृपा करें । " ३६४ आपने फ़र्मायाः – “ तीर्थ यात्रा करना बहुत ही अच्छा काम है; इससे मन ज्यादा पवित्र होता है; अशुभ आस्रव रुकते हैं; निर्जरा भी होती है जिससे मोक्षका मार्ग बहुत सरल हो जाता है; तो भी मैं इस समय गोडवाड़ से बाहिर नहीं जा सकता । गोडवाड़ में विद्याप्रचार करनेका कार्य मेरे हाथमें है, गोडवाड़ में व्यवस्थित रूपसे जबतक विद्या प्रचारका कार्य प्रारंभ न हो जाय तबतक इस प्रान्तको छोड़नेकी मेरी इच्छा नहीं है । भविष्य में तो ज्ञानी महाराजने जो देखा होगा वहीं होगा । " सेठने अत्यंत आग्रहके साथ प्रार्थना की और कहाः " आप कृपा कर अवश्य पधारें । मैं इस काममें यथासाध्य मदद करूँगा । १०००० दस हजार रुपये इसके फंडमें दूँगा और दूसरोंसे भी अच्छी मदद कराऊँगा । " आप बोले:-- “ इसका अर्थ क्या यह नहीं होता कि, तुम दस हजार रुपये इस फंडमें मुझे लेजानेकी फीस देना चाहते हो । ऐसी फीस लेकर मैं कहीं नहीं जाऊँगा । " सेठ बड़े चक्कर में पड़े । उनका चहरा उदास हो गया । वे करुण कण्ठमें बोले:-- “ गुरुदेव । हम लोग ऐसे अर्थ निकालना कुछ नहीं जानते; अगर भूल हुई हो तो क्षमा करें। " Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३६५ मगर मैं आपसे यह स्पष्ट निवेदन कर देता हूँ कि, यदि आप नहीं पधारेंगे तो संघ भी नहीं निकालूंगा।" सेठके बोलनेकी भावभंगी और उनकी आकृतिका परिवतेन यह बताते थे कि, वे दुखी हैं और महाराज साहवसे, बच्चेकी तरह रूठने लग रहे हैं । कहावत प्रसिद्ध है: भक्ताधीन भगवान । आपने गोमराजजीकी बात मान ली। वे प्रसन्न होकर शिव गंज चले गये। कहावत प्रसिद्ध है ' श्रेयांसि बहु विघ्नानि । श्रेष्ठ कार्योंमें अनेक विघ्न आते हैं । संसारमें उच्च कार्य करनेवालोंके मार्गमें अधिक वाधाएँ आती हैं । इसका कारण यह है कि, तेजोद्वेषी लोग कुचक्र रचा करते हैं। स्वयं उच्च काम नहीं कर सकते हैं, मगर दूसरेको करते देख कर भी उनके हृदयमें आग लग जाती है । वे सोचते हैं लोग इसकी पूजा करेंगे इसके यशोगान गायँगे और हमारी तरफ उँगली उठायँगे । इस लिए उत्तम यही है कि, इनका कार्य किसी तरहस बिगड़ जाय । इसी तत्वने यहाँ भी कार्य किया । किसने किया और क्यों किया ? इस बातका उहापोह करना हम यहाँ अस्थानीय समझते हैं। यदि अस्थानीय न हो तो भी गईको स्मरण करना अनुचित समझ हम उसे छोड़ना ही मुनासिब समझते हैं। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। .. तेजो द्वेषी लोगोंने जब सादड़ीके श्रावकोंको भड़का दिया तब उनके उत्साह ढीले पड़ गये । वे कार्यमें टालमटोल करने लगे। आपने सोचा इस समाजका भविष्य अभी अन्धकार पूर्ण है, अभी इस समाजके भाग्यमें उन्नत,-ज्ञान और धर्ममें उन्नत,-होना नहीं बदा है, इसी लिए इसने इतना प्रयत्न करके काम छोड़ दिया है । इनकी तो ऐसी हालत हो गई है तकदीर पर उस मुसाफिर बेकसके रोइए; जो थक कर बैठा है मंजिले मकसूदके सामने । आप सादड़ीसे विहार कर शिवगंज पधारे । मुहूर्त आ जाने और समस्त जानेवालोंकी तैयारी पूरी न होनसे, मुहूर्त पर संघका प्रस्थान कर चार दिनतक संघवी सहित आप शिवगंजके बाहर विराजे । जिस दिन संघवी बाहर जाकर ठहरे उसी दिन अर्थात् फाल्गुन सुदि ३ को उनको रंगूनसे तार मिला कि, उन्हें व्यापारमें बहुत अच्छा नफा हुआ है। उन्होंने आपसे अर्ज की-- 'गुरुदयाल ! यह आपही की कृपाका फल है । मैं इन सभी रुपयोंको धर्मकार्यहीमें खर्च देना चाहता हूँ।" _ आपने फर्मायाः-" सुश्रावक धर्मकी जड़ सदा हरी है। इस क्षेत्रमें जो जितना बोयगा उससे चौगुना उसे मिलेगा।" फाल्गुन सुदी छठके रोज शेठ गोमराजजीको शिवगंजमें Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । चलती जैन पाठशालाकी तरफसे सन्मानपत्र दिया गया । इस प्रसंगपर नगरके रईस लोगोंके अलावा बीकानेरवाले सेठ श्रीचंद्रजी सुराणा और उनके सुपुत्ररत्न सेठ सुमेरमलजी सुराणा भी सपरिवार मौजूद थे । इस सुप्रसंगपर आपका प्रभावशाली व्याख्यान हुआ था । आपकी आज्ञा होनेसे पं० श्रीललितविजयजी महाराजने भी संघवीका कर्त्तव्य इस विषयपर मनोहर व्याख्यान दिया था । फल यह हुआ कि सहकुटुंब संघवीजीने ' श्रीआत्मानन्द जैन विद्यालय गोडवाड' को दश हजारकी रकम देनेका वचन दिया । तथा संघपति गोमराजजीने यावज्जीवन चौथे व्रत ब्रह्मचर्य के पालने की प्रतिज्ञा की । ३६७ फागन सुदि सप्तमीको शुभ शकुनमें खूब बाजोंकी ध्वनिके साथ जय जय नाद करता हुआ संघ चल पड़ा | संघ पेरवा पहुँचा । वहाँ एक मंदिर और ४० श्रावकोंके घर हैं । पैरवासे सादड़ी गया । सादड़ीमें तीन मंदिर और ६०० श्रावकोंके घर है । सादड़ीसे बाली पहुँचा । वहाँ दो मंदिर और ५०० श्रावकोंके घर हैं । बालीसे लुणावे पहुँचा । वहाँ दो मंदिर और दो सौ घर हैं । लुणावेसे लाठारे पहुँचा। वहाँ एक मंदिर और ३० घर हैं। लाठारेसे राणकपुरजी पहुँचा । यहाँका मंदिर बहुत ही भव्य है । इसमें चौदह सौ चवालीस स्तंभ हैं । कहा जाता है कि सभी स्तंभ एक श्रावकने बनवाये थे, एक स्तंभ राजाने बनवानेकी इच्छा प्रकट की मगर वह न Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। बनवा सका । किंवदन्ती है कि, जब मंदिरकी नींव डाली जानेवाली थी तब घीका दीपक जलानेके लिए एक कटोरीमें थोड़ासा घी आया था। उसमें एक मक्खी गिर गई। मंदिर बनवानेवाले सेठने उस मक्खीको निकाल कर, घी फालतू न चला जाय इस हेतुसे और मक्खीके भी प्राण बच जायँगे इस खयालसे, अपने जूते पर रख लिया। यह देखकर राजोंको ( कारीगरोंको) खयाल हुआ कि, ऐसा मक्खीचूस आदमी क्या मंदिर बनवायगा ? उनमेंसे एक बोला:" सेठजी! नींवमें डालनेके लिए पचास पीपे घीकी जरूरत है । सेठने तत्काल ही घीके पचास पीपे मँगवा दिये । राजोंने वह घी नीवमें डाल दिया। राणकपुरका दूसरा नाम त्रैलोक्य दीपक भी है । वहाँकी शाला बेमरम्मत पड़ी हुई थी। आपके उपदेशसे संघवी आदि श्रावकोंने उसकी मरम्मत करा दी। राणकपुरसे संघ देमूरी पहुँचा। देसूरीमें श्रावकोंके आपसमें झगड़ा था। कोर्टमें मुकदमा चलताथा आपने आपसमें फैसला करनेके लिए बहुत समझाया; मगर वे न माने । तब दूसरे दिन आपने साधुओंको कह दिया कि, कोई इस गाँवमें आहार पानी लेने न जाय । संघमे २७ साधु और ६६ साध्वियाँ थीं। इस समाचारसे सारे देसूरीमें हलचल मच गई। लोग मुकदमेबाजोंको घृणाकी दृष्टिसे देखने लगे उन्हें फिटकारने लगे । अनेक श्रावकोंने भी उस दिन अन्नजल नहीं Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , al Education International १००८ श्री आवार्य महाराज राणकपुर तीर्थपर ( पंजाब श्रीसंघसहित) मनोरंजन म बई पृ. ३६८. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००८ आचार्य महाराज श्रीमद्विजयवल्लभ सूरिजी। खुडाला (मारवाड) मनोरंजन प्रेस, बम्बई. पृ. ३७१. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । लिया । भला अपने गाँवमें अपनी जानमें, अपने गुरुओंकोपंचमहाव्रतधारी साधुओंको - अनाहार देखकर कोई अन्नग्रहण करेगा ? अन्तमें दुपहरके बाद आपस में समझौता हुआ और दोनों तरफ के लोगोंने आपसे क्षमा माँगी और आपका उपकार भी माना । जब समझौता हो चुका तब शामको सभी साधु साध्वियोंने और संघने आहारपानी लिया । देसूरी से संघ फाल्गुन वदि १ के दिन जीलवाड़े पहुँचा । वहाँ एक जिनालय और ५० श्रावकोंके घर हैं । ३६९ जीलवाड़े से गढ़वोर पराली, केलवाड़े होता हुआ संघ राजनगर पहुँचा | राजनगर में राणा राजसिंहजीका बनवाया हुआ एक बहुत बड़ा तालाब है । उसकी परिधि करीब बारह कोसकी बताई जाती है । उसको बनवाने में एक करोड रुपये खर्च हुए थे । राजनगरहीमें पहाड़ी पर एक जिनालय है । उसमें चौमुखे महाराज विराजमान हैं । उस मंदिरको राणा रायसिंहजीके मंत्री दयालशाहने बनवाया था । उसको बनवानेमें एक पैसा कम एक करोड़ रुपये उसने खर्च किये थे। पूरे करोड़ करनेमें राणा साहबकी नाराजगीका खयाल था । इसी लिए उसने एक पैसा कम खर्च किया था । राजनगर से संघ नाथद्वारे पहुँचा । यहाँ एक जिनमंदिर है । नाथद्वारसे देलवाड़े पहुँचा । उसमें तीन जिन मंदिर : हैं । देलवाड़ेसे एकलिंगजी पहुँचा । वहाँ शान्तिनाथ २४ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० आदर्श जीवन। ranAmwww भगवानकी एक बहुत बड़ी प्रतिमा है । वह अदबदबाबाके ( अद्भुतबाबाके ) नामसे प्रसिद्ध है। - एकलिंगजीसे विहारकर आप संघके साथ उदयपुर पहुँचे । वहाँ तीन दिन निवास किया और शहरके सारे निकट और दूरके जिनालयोंकी यात्रा की। शहर यात्रा करते हुए श्रीसंघके साथ आप मालदासकी सेरीमें चाहबाईके उपाश्रयान्तर्गत श्रीजिनमंदिरके दर्शनार्थ पधारे । उस समय उस उपाश्रयमें बालब्रह्मचारी १००८ श्रीविजयनेमिसूरी महाराज ठहरे हुए थे । आप संघ सहित सहर्ष उस स्थानपर पधारे । श्रीविजयनेमिमूरिजीने भी हर्ष प्रदर्शित किया । परस्परका योग्य शिष्टाचार देखकर श्रीकेसरियाजीके संघने, जो आपके साथ आया हुआ था और उदयपुरके श्रीसंघने दिलमें अपूर्व आनंद प्राप्त किया। इस दृश्यसे श्रावक समुदायपर जो कुछ प्रभाव पड़ा उसे वही जानता है। अन्यान्य मन्दिरोंमें देवदर्शन करने थे इसलिए अधिक समय आप वहाँ बैठ न सके तो भी करीब आध घंटेके आप वहाँ बैठे और परस्पर वार्तालाप कर आनंद उठाया । अगले रोज अर्थात् दूसरे दिन वे दादावाड़ीमें-जो चौगानके पास, हाथी पोलके बाहर है-दर्शन करने जा रहे थे। हाथी पोलके बाहर धर्मशालामें हमारे चरित्रनायक ठहरे हुए थे। वहाँ उस समय पंन्यासजी श्रीललितविजयजी महाराज खड़े हुए थे । उन्होंने नम्रता पूर्वक श्रीविजय नेमिसरिजी महाराजसे अंदर Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पधारने को कहा। उन्होंने दर्शन करके लौटते समय आनेकी बात कही । लौटते समय वे आये । हमारे चरित्रनायकके शिष्योंने सामने जाकर उनका स्वागत किया । आपने भी खड़े होकर उनका सत्कार किया खूब आनंदसे कोई दो घंटेतक बातचीत होती रही । जाते हुए वे दुपहरको शहरमें आनेका हमारे चरित्र नायकको आमंत्रण दे गये । आप दुपहरको पधारे। उन्होंने भी आपका योग्य स्वागत किया। दोनों महात्मा बहुत देर तक वार्तालाप करते रहे । उदयपुरसे संघ रवाना हुआ । कायाकी चौकी से बोलावोंके अलावा एक थानेदार भी संघकी रक्षा के लिए केसरियाजी तक साथ गया था । वह हमारे चरित्रनायकका अच्छा भक्त हो गया था। संघ केसरियाजी पहुँचा । संवत १९७७ चैत्र सुदी दशमी सोमवारको संघ सहित श्रीकेसरिया बाबाकी यात्राकर आपने आनंद माना । इस संघ २७ साधु और ६९ साध्वियाँ तथा डेढ हजारके करीब श्रावक श्राविकाओंका समुदाय था । वहाँ साधुओंके और संघपतिके आग्रहसे आपने आदीश्वरजीकी पूजा बनाई थी । वह वहीं अहमदाबादनिवासी जौहरी भोगीलाल ताराचंदके आग्रहसे और उन्हींके खर्च से पढ़ाई गई । उसको पहली बार संघवीने छपाकर प्रकाशित किया था । वहाँ एक साधर्मीवात्सल्य भी हुआ था । प्रतापगढ़निवासी सेठ लक्ष्मीचंदजी घीया आदि कुछ श्रावक श्रीकेसरीयानाथकी ३७१ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ आदर्श जीवन । यात्राके साथ आपके दर्शन और आपको प्रतापगढ पधारनेकी विनती करने आये थे । आसपुरके श्रावक भी इस समय तीर्थयात्राके उपरांत आपके दर्शनका लाभ लेने वहाँ आ पहुंचे थे वे भी अपने यहाँ पधारनेकी विनती करते रहे। कई रोज संघ श्रीकेसरियानाथजी ठहरा । खूब आनंदसे यात्रा पूजा प्रभावना साधर्मिवात्सल्यादि धर्मकार्य होते रहे । आखरी दिन चलते हुए दादा केसरियानाथजीकी यात्रा कर संघ सहित आप वहाँसे विदा हुए और उसी क्रमसे उदयपुर पधारे। ... .. ___ इस वक्त आप श्रीसंघ उदयपुरके आग्रहसे शहरके उसी चाहबाईके उपाश्रयमें-जहाँ श्रीविजयनेमिसरिजी पहले ठहरे हुए थे-आ ठहरे । क्योंकि श्रीविजयनेमि मूरिजी कुछ शरीर नरम हो जानेसे बाहर धर्मशालामें सपरिवार जा ठहरे थे इस लिये उपाश्रय खाली था। चार दिन आप वहाँ ठहरे । संघके आग्रहसे दो रोज आपने और एक रोज आपके सुशिष्य पं० ललितविजयजीने श्रीसंघ उदयपुरको उपदेशामृत पिलाया। दो साधर्मिवात्सल्य-एक संघपतिकी तरफसे और एक श्रीसंघ उदयपुरकी तरफसे-हुए थे। .. आजकल कहा जाता है कि यतियोंका बहुत पतन हो गया है। श्रावक प्रायः यतियोंको अपने घरोंमें गोचरी लेने नहीं आने देते। और तो और अपने खास शहरमें भी यतियोंकी मान मर्यादा बहुत कम हो गई है । आजकल यतियोंका नि Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३७३ - - वाह उनके पूर्वजोंके संचित धनपर, जमीं जायदाद पर और वैद्यक, ज्योतिष एवं यंत्र मंत्र पर होता है । श्रावकोंके भक्तिभाव पर नहीं । श्रावकोंके नहीं माननेका मुख्य कारण यह है कि उन्हें यतियोंके विषयमें यह शिकायत है कि यति संयम बराबर नहीं पालते हैं। ऐसी दशामें भी कुछ यति ऐसे हैं जो सब तरहके सुख साधनोंके होते हुए भी प्रायः संयमी हैं और जिनपर उनके श्रावकोंकी पूर्ण श्रद्धा है। उदयपुरनिवासी यतिजी श्रीगुलाबचंद्रजी और उनके शिष्य यतिजी श्रीअनूपचंद्रजी भी ऐसे ही हैं। गुरु शिष्योंका शहरमें बड़ा मान है। कोठारी बलवंतसिंहजी आदिकी बड़ी बड़ी हवेलियोंमें, जनानेमें, किसी यतिको जाने नहीं देते; मगर इन गुरु शिष्योंके लिए कहीं मनाई नहीं है। इनका उपाश्रय कसेरोंकी ओल ( गली ) में है । इस ग्रंथके लेखकका घर उनके उपाश्रयसे सटा हुआ था । और बचपनमें इस, लेखकने उन्हींके यहाँ शिक्षा प्राप्त की । कुटुंब परिवारके लोग वैष्णव धर्मके धारक हैं, परन्तु इन पंक्तियोंका लेखक आज जैनधर्मको पालता है इसका कारण ये ही दोनों गुरु शिष्य हैं। ___ यतिजी अनूपचंद्रजी प्रायः साधु मुनिराजोंके पास जाया करते हैं और उनकी सेवा भक्ति भी किया करते हैं । उनकी और सिरसानिवासी यति श्रीप्रतापचंद्रजीके शिष्य यति श्री मनसाचंद्रजीकी उदयपुरमें एक पुस्तकालय खोलनेकी इच्छा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ आदर्श जीवन। थी । यति प्रतापचंद्रजी आचार्य महाराज श्रीविजयकमल मुरिजीकें यतिपनेके-गुरुभाई थे। __ यति अनूपचंद्रजी और मनसाचंद्रजी हमारे चरित्रनायकके पास गये और उन्होंने विनती की कि, हम अपने पुस्तकालयकी उद्घाटन क्रिया आपके शुभ हाथोंसे कराना चाहते हैं। आपने इस बातको स्वीकार किया । सं० १९७७ के वैशाख बिद ३ के दिन इस पुस्तकालयकी आपके हाथोंसे उद्घाटन क्रिया हुई । नाम 'श्रीवर्द्धमानज्ञानमंदिर ' रक्खा गया । इसमें इस समय करीब ढाई हजार पुस्तकें हैं । - जिस वक्त संघ उदयपुरसे रवाना हुआ उस वक्त विहारके लिए तैयारी की हुइ, कमराँ बाँधे हुए हमारे चरित्रनायक आचार्यश्री विजयनेमिमूरिजीकी तबीयतका हाल पूछनेको और उनसे मिलनेको उस धर्म शालामें पहुँचे जहाँ वे ठहरे हुए थे । जाकर सुखसाता पूछी, आचार्यश्री बड़े खुश हुए। चलनेकी जल्दी थी तोभी उनके आग्रहसे करीब डेढ़ घंटे बैठना पड़ा । इस आखरी मुलाकातमें आचार्यश्रीने अपना सच्चा अन्तःकरणका उद्गार निकाला । उन्होंने कहा "वल्लभ विजयजी! मैं नहीं समझता था कि तुम इस प्रकारकी सज्जनता दिखलाओगे और शिष्टाचार करोगे । मेरे मनमें तुम्हारे लिए बहुत कुछ भरा हुआ था; परंतु तुम्हारे इस आनंद जनक समागमसे वह सब निकल गया।" , आपने कहा:-"बड़ी खुशीकी बात है । आप जानते ही Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३७५ rrrrहैं सुननेमें और देखनेमें बड़ा अंतर होता है । सुननेमें परके विश्वासपर आधार होता है और देखने में प्रत्यक्षमें अपने आपका विश्वास होता है । जिस तरह आपकी गलत फेहमी दूर हो गई इसी तरह आपकी निस्बत मेरी गलत फेहमी भी निकल गई। इसी लिए तो मैं चाहता हूँ और आपसे भी सिफारिश करता हूँ कि जिस तरह भी हो सके एक दफा सर्व साधुओंका सम्मेलन होवे । आमने सामने मिलनेसे आँखोंमें कुछ शरम आ जाती है; अमी टपकने लग जाता है और हृदयकी जहरकी लहर शांत हो जाती है । आप करनेको समर्थ हैं। यदि आप जैसे समर्थ प्रतिष्ठित महात्मा मिलकर शासन सुधार करना चाहें तो कोई बड़ी बात नहीं है ।" उन्होंने जवाब दिया, वल्लभ विजयजी! तुम्हारा कहना सत्य है । परस्पर मिलनेसे बहुत ही फायदा होता है, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हम तुम दोनोंको हो चुका है और मैं भी यह चाहता हूँ कि साधुसम्मेलन अवश्य ही होना चाहिए। परन्तु इसम छोटे बड़ेकी और वन्दनाकी पंचायत आखड़ी होती है । वहाँ सबकी अकल मारी जाती है।" ___ हमारे चरित्रनायकने कहा:-" महाराज ! क्या इतनी भी उदारता त्यागी साधु महात्माओंसे नहीं हो सकती है ? अरे ! कुल दुनियाकी ऋद्धिको लात मारनेवाले, अपने आपको निर्ग्रन्थ-महामुनि-क्षमाश्रमण-यति-साधु-महाराज कहलानेवाले इतनी भी उदारता नहीं कर सकते हैं ? आप मुझे आज्ञा करें यदि वंदना करनेसे ही सम्मेलन होता हो Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ आदर्श जीवन । nwwvvvvwww. तो बड़े तो क्या हरएक मुझसे छोटे साधुको भी मैं वंदना करनेके लिए तैयार हूँ। :: अफ्सोस ! गृहस्थी भी आपसमें जब मिलते हैं तब योग्य शिष्टाचार करते हैं क्या साधुओंमें इतना भी न होनाचाहिए ? एकने उधरको मुख कर लिया दूसरेने उधरको ! मानों दोनोंने एक दूसरेको 'अदिकल्लाणी' मान लिया। आपका और मेरा योग्य शिष्टाचार हुआ इसमें आपका या मेरा क्या बिगाड़ हो गया ? उलटा गृहस्थोपर अच्छा प्रभाव पड़ा । इस लिए मैं आपसे अनुरोध करता हूँकि, आप अवश्य सम्मेलनके लिये प्रयत्न करें। मेरा आत्मा मुझे साक्षी देता है कि, आप सफलता प्राप्त करेंगे! क्योंकि आपका प्रभाव बहुत अच्छा है। स्वर्गवासी. १००८ श्रीमद्विजयानन्द मूरि ( आत्मारामजी) महाराजजीके समुदायकी तरफसे तो आप निश्चिंत रहें । केवल १००८ श्रीआचार्य महाराज श्रीविजयकमल मूरिजी, १०८ प्रवत्तेकजी महाराज श्रीकान्तिविजयजी और १०८ श्रीहंसविजयजी महाराज । इन तनिोंकी सलाहकी जरूरत है । इनके कहनेसे बाहिर प्रायः कोई नहीं होगा। अच्छा अब मैं आज्ञा चाहता हूँ, जानेमें देरी होती है। सुखसाता में रहना धर्मस्नेह रखना।" . उदय पुरसे संघ रवाना होकर वापिस उसी मार्गसे देसूरी आया जिस मार्गसे वह गया था । देसूरसेि नाडुलाई, नाडोल, वरकाणाजीकी यात्रा करता हुआ संघ शिवगंजमें Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ३७७ पहुंचा । आप वहाँसे रवाना हुए । वरकाणाजीसे पं० सोहनविजयजीका आपने बीकानेरकी तरफ विहार करवा दिया । आप भी बीकानेरकी तरफ पधारना चाहते थे; मगर संघके आग्रहसे शिवगंज पधारे। वहाँ कुछ दिन ठहरकर बीकानेर जानेका इरादा कर आपने शिवगंजसे विहार किया। पोमावा, वांकली होते हुए आप जब तखतगढ़ पहुँचे तब आपको किसीने पहचाना नहीं; आपके पधारनेके वहाँ पहले समाचार भी नहीं पहुँचे थे; मगर जब आप मंदिरमें दर्शन कर रहे थे तब दर्शन करके रवाना होते हुए एक श्रावकने धीरेसे पूछा ये कौन महाराज पधारे हैं ? साथके साधुओमेंसे. एक साधुने कहा कि, श्रीवल्लभविजयजी महाराज साहब पधारे हैं। इतना सुनते ही श्रावक दौड़ा हुआ गया। सारे बाजारमें और गाँवमें पवनवेगसे समाचार फैल गये । चारा तरफ़ दौड़ धाम मच गई । श्रावकोंने आकर वंदना की। सभी मिलकर आपको उपाश्रयमें ले गये । आपने मंगलीक सुनाई । दो दिन श्रावकोंको व्याख्यानामृत पिलाकर तीसरे दिन तखतगढ़से विहार कर क्रमशः आप पाली पधारे और पं० ललितविजयजी खुडाले गये। बीकानेरसे धर्मात्मा सेठ सुमेरमलजी सुराणा आपके दर्शनार्थ और आपसे बीकानेरमें चौमासा करनेकी विनती करनेके लिए आये । आपने उस विनतीको स्वीकार कर लिया । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पालीसे विहार कर आप जाडन पधारे । जाडनमें मंदिरजीकी बहुत आशातना होती थी। स्थानकवासी साधु मंदिरमें उतरते थे । मंदिरमें पूजा प्रक्षालन भी बंद हो रहा था। परंतु समयके अभावसे इस बातको न छेड़ते हुए आपने लक्ष्यमें ले लिया । रातको जाडनमें बहुत वर्षा हुई । इतना पानी बरसा कि जाडनसे आगे सोजतकी तरफ जानेका रस्ता बंदसा हो गया। रात्रिकी वर्षा पालीमें उससे भी अधिक हुई थी, इस कारण पालीके श्रीसंघको बड़ी चिन्ता हो गई। कहीं सुबह महाराज विहार न कर जावें और आगेको दुःख न पायें इस इरादेसे रातोरात उन्होंने खेपिया भेजा और महाराजजी साहबके साथमें गये हुए अपने भाइयोंको लिख दिया कि, जिस तरह हो सके विनती करके महाराजजी साहिबको पाली वापिस ले आना। आगेको बिलकुल न जाने देना मार्गमें बड़े दुःखी होंगे। यदि आपकी जानेकी ही इच्छा होगी तो दश दिन बादमें भी जा सकेंगे। प्रातःकाल श्रावकोंने अजे गुजारी | आपने भी अवसर विचार लिया। आप जाडनसे बापिस पालीमें पधारे । जाडन गाम पालीसे करीब ११ माइलके है । __ अब पालीके श्रीसंघको उत्साह हो गया कि, चौमासा यहीं होगा। प्रथम भी चौमासके लिए बहुत जोर दे रहे थे अब तो मौका हाथ आ गया। बीकानेर पहुँचनेका समय तो Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन अब रहा ही नहीं । लगे चौमासेके लिए जोरसे विनती करने । कुछ महाराजजीकी सलाह होने लगी थी, अभी विनती स्वीकारी न थी, इतनेमें खुडाले ( स्टेशन फालना) के श्रीसंघके मुखिया बालीके कई श्रावकोंके साथ विनतीके लिए आ पहुँचे । खुडालेके श्रीसंघकी पहलेसे ही चौमासेके लिए विनती थी; परंतु जिस लाभके लिए गोडवाड़में रहना था वह होता नजर न आनेसे ही आप गोडवाड़को छोड़ बीकानेरकी तरफ जाना चाहते थे। क्योंकि बीकानेरके श्रावक सेठ सुमेरमलजी सुराणा और सेठ लक्ष्मीचंदजी कोचरने बीकानेरमें चलती पाठशालाको स्थायीरूपमें बना देनेकी पूरी पूरी आशा दी थी। वाचकवृन्द ! आप देखते ही आये हैं कि हमारे चरित्रनायकको जैनसमाजमें तालीमके प्रचारकी धुन लगी हुई है, जो कि अबतक उसी तरह चली जा रही है। खुडाला और बालीके श्रावकोंने कहा आप पधारिए हम आपकी इच्छानुसार कार्य करनेको तैयार हैं। यदि सादड़ीका श्रीसंघ मान लेवेगा तो सारे गोडवाडका जैनविद्यालय बना दिया जायगा; अन्यथा हम दोनों मिलकर यथाशक्ति उद्यम करेंगे। फिर धीरे धीरे आगेको काम बढ़ता जायगा; परंतु आपके पधारे विना कुछ भी बननेवाला नहीं है।" आपको खयाल था कि, बालीकी रकम पंन्यासजी श्रीसोहनविजयजी और ललित विजयजीके चौमासेमें और कुछ चौमासेके बादमें मिलाकर ७०-८० हजारके लगभग लिखी गई Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० आदर्श जीवन। थी यदि बालीवाले और थोड़ीसी हिम्मत करें तो एक लाखकी रकम वालीकी बड़ी खुशीसे हो सकती है। खडालेकी रकम भी ४०-५० हजार की हो सकती है। दोनोंकी मिलाकर डेढ लाखकी रकम हो जायगी। यदि सादड़ीवाले मान लेवेंगे तो लाख सवा लाखकी रकम मिल जानेसे ढाई तीन लाखकी रकम हो जायगी । विद्यालयका काम चल पड़ेगा। यदि थोड़े समयके लिए सादड़ीका श्रीसंघ शामिल न हुआ तो भी बाली और खुडालेके श्रीसंघकी एक सलाह होनेसे सवत् १९७६ माघ सुदिमें खुडालेकी धर्मशालामें जो विद्यालयकी स्थापना की है वह ठीक रूपमें चल पड़ेगा । इस आशयसे आपके मनन'पालीके हिसाबसे खुडालाको अधिक पसंद किया । आपने पालीके श्रीसंघको समझाया कि आप खुद ही लाभालाभ विचार लेवें । पालीके श्रीसंघने भी स्वीकार कर लिया कि, यदि इस प्रकारके लाभकी संभावना है तो हमें कोई आग्रह नहीं है। आप खुशीसे पधार जावें । गोड़वाड़में विद्याका प्रचार होगा तो उसका लाभ हमें भी मिलेगा। अब आपने पालीसे विहार किया और क्रमशः आप खुडाले पधारे। । __ जुदा जुदा स्थानोंसे चौमासेकी विनती होनेसे आपने निम्न प्रकारसे अपने शिष्य प्रशिष्यादिकोंके चौमासोंका निर्णय कर दिया। बीकानेर-पं० श्रीसोहनविजयजी गणी, मुनि श्रीसमुद्र विजयजी और मुनि श्रीसागरविजयजी। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ३८१ - सादड़ी-पं० श्रीललितविजयजी गणी और उनके शिष्य मुनि श्रीप्रभाविजयजी। तखतगढ़-पं. श्रीउमंगविजयजी गणी और उनके शिष्य मुनि श्रीदेवेन्द्रविजयजी। - खुडालेमें आपके साथ उस चौमासेमें पं० श्रीविद्याविजयजी गणी, मुनि श्रीविचारविजयजी और मुनि श्रीउपेन्द्रविजयजीथे। आप जिस संकल्पसे खुडाले पधारे थे वह तो पूरा नहीं हुआ; क्योंकि सादडीवाले मिले नहीं और बालीवाले जो पालीमें गये थे उन्होनें फिर कभी मुख दिखाया ही नहीं। आखिरकार खुडालेकी धर्मशालामें स्थापन किये हुए गोडवाड जैन विद्यालयको 'श्री आत्मानन्द जैन पाठशाला-खुडाला' के रूपमें परिवर्तन करना पड़ा । वह पाठशाला खुडाला गाममें अच्छी तरह चल रही है । लोगोंकी इच्छा है कि, एक दफा फिर महाराजजी साहिबका यहाँ पधारना होवे तो इस पाठशालाकी और भी तरक्की हो जावे। ... . . पर्युषण समाप्त होनेके कुछ दिन बाद गोडवाड़के कई गाँवोंमें प्लेग फैल गया। खुडाला और सादड़ीमें भी प्लेग शुरू हो गया था। मुँडारेमें प्लेग नहीं था इस लिए पंन्यासजी श्रीललितविजयजी महाराज लोगोंके आग्रहसे मुँडारेमें आ गये। उन्होंने और श्रावकोंने हमारे चरित्रनायकसे भी मुंडारे पधारनेकी विनती की, मगर आप न पधारे। .. ... बाली, खुडालेसे तीन माइल है । वहाँ एक ओसवाल उस Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ आदर्श जीवन। समय हाकिम थे । यद्यपि वे तेरहपंथी थे तथापि आप पर बड़ी भक्ति रखते थे । बालीमें एक मुसलमान डॉक्टर भी थे। उनका वहीं नहीं आसपासके लोगोंमें भी बड़ा मान था। वे भी हमारे चरित्रनायक पर बहुत भक्ति रखते थे। उन दोनोंने एवं इन्स्पेक्टर गजराजजी मुहताने तथा सूरजमलजी दारोगा आदि प्रतिष्ठित श्रावकोंने आपसे बड़ा आग्रह किया कि, आप बाली पधारें, किन्तु आपने बाली जानेसे इन्कार कर दिया । आप वहींसे थोड़ी दूर फालनेका स्टेशन है । वहाँ खुडालेके श्रीसंघकी धर्मशालामें पधार गये । वहाँ एक श्रीजिनमंदिर भी है । खुडालेका श्रीसंघ भी आपके निकट ही तंबू , झोंपडियाँ लगाके आ रहा था । यहाँ आपने चौदहराजलोकपूजाकी रचना की थी। प्लेगके शान्त होजानेपर आप श्रीसंघ सहित पुनः खुडाला गांवमें पधार गये और चतुर्मासकी समाप्ति गांवमें ही की। उसी चौमासेमें आपके शिष्यरत्न पं. श्रीललित विजयजी महाराजके हाथसे सादड़ी में भी 'श्रीआत्मानंद जैन पाठशाला सादड़ी' की स्थापना हुई । अब उसके लिए मकान भी तैयार हो गया है । इस मकानमें सेठ मूलचंदजी सादडी निवासीने दस हजार रुपये दिये हैं। बाकी खर्चाश्रीसंघ सादडीने दिया है। उस पाठशालाकी उद्घाटनक्रिया आपके लिखनेसे श्रीयुत गुलाबचंद्रजी ढड्डा एम. ए.ने सं० १९८२ के ज्येष्ठ सुदी १२ के दिन की थी। मकानपर निम्न प्रकारका बोर्ड लगाया गया है Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । 'श्री आत्मानंद मंदिरमार्गी जैन विद्यालय सादड़ी' 'सेठ मूलचंद छजमलकी दस हजार एक रु. की सहाय तासे स्थापित ।' इस पाठशालाके लिए सादड़ीमें एक लाख दस हजारकी टीप हुई है। यह आपका चौमासा सादड़ीमें था तभी हो गई थी। श्रीयुत गुलाबचंदजीका जो पत्र आपके नाम आया वह यहाँ दिया जाता है। फालना स्टेशन ता. ५ __ स्वस्ति श्री गुजरानवाला शुभ स्थाने अनेक गुणगणालंकृत पंच महाव्रत धारी पूज्यपाद गुरुवर्य श्री १००८ श्री आचार्य महाराज श्रीवल्लभविजयजीके चरणकमलोंमें गुलाबचंद ढड्डाकी सविनय वन्दना मालुम हो, आपकी आज्ञाके मुताबिक ता. ३ को रवाना होकर ४ को सादडी पहुँचकर दोपहरको करीब १००० आदमियोंके समक्ष बहुत आनन्दपूर्वक श्रीआत्मानंद जैन विद्यालय सादड़ीकी उद्घाटन क्रिया आपकी आज्ञाके मुवाफिक निर्विघ्न समाप्त की । सेठ मूलचंदजीने नारियलकी प्रभावना की। - श्रीगुरुवर्यके पवित्र चरणकमलोंमें सिधराज ढड्डाकी सविनय विनीत वन्दना मालूम हो मैं भी पू० काका साहबके साथ सादडी आयाहूँ । सर्व मुनिसमुदायको सविनय वन्दना । सुखसाताका पत्र दिरावें । - शुभ मिति जेठसुदी १५. स. १८८२ सिधराज ढड्डा Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ आदर्श जीवन। morrorani __जो गुण या जो पद आपको प्राप्त नहीं है वह गुण या वह पद यदि कोई आपके नामके पहले लगाता है तो आप उसे बिलकुल नापसंद करते हैं । भक्तोंके लिए आप सभी कुछ हैं; भक्त आपको सभी गुणसंपन्न और सभी पदोंसे विभूषित ही मानते हैं और लिखते हैं परन्तु आपने कई बार उपदेशमें इसका प्रतिकार किया और एक विज्ञप्ति भी इसी चौमासेमें आपने प्रकाशित कराई उसका हम यहाँ आत्मानंदप्रकाशसे उद्धृत करते हैं। सूचना । ___“ सर्व सज्जनोंसे विज्ञप्ति है । मुझे कोई आचार्य, कोई जैनाचार्य, कोई धर्माचार्य, कोई उपाध्याय, कोई पंन्यास, कोई शास्त्रविशारद, कोई विद्याविशारद, कोई विद्यावारिधि, कोई मुनिरत्न, कोई प्रसिद्धवक्ता, कोई प्रखरविद्वान, कोई भू भास्कर, इत्यादि मनःकल्पित अपनी अपनी इच्छानुसार उपाधि-टाइटल-पदवीयाँ लिखकर भारी बनाते हैं । यह बिलकुल अन्याय होता है। क्योंकि न मुझ किसीने कोई उपाधि दी है, न मैंने ली है और न मैं किसी उपाधिके लायक ही हूँ। अतः स्वर्गवासी जैनाचार्यश्रीमद्विजयानंद सूरि महाराजकी बखशी हुई 'मुनि' उपाधिके सिवा अन्य कोई उपाधि मेरे नामके साथ कोई भी महाशय न लिखा करें। : ___ हस्ताक्षर मुनि वल्लभविजय । " खुडालेमें, आपका वहाँसे विहार हो जानेके बाद, आपके Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पोते शिष्य पंन्यासजी श्रीउमंगविजयजी महाराज गये थे । उनके उपदेश और उन्हींके हाथोंसे वहाँ एक लाइब्रेरीकी स्थापना हुई थी । उसका नाम रक्खा गया था - ' श्रीआत्मवल्लभ जैनलाइब्रेरी, खुडाला । ' खुडालेसे विहार कर आप वरकाणा पधारे | पंन्यासजी श्रीललितविजयजी महाराज भी मुंडारेसे संघ लेकर वरकाणाजीमें आपसे आ मिले थे । पंन्यासजी महाराजने मुंडारेमें दो संस्थाएँ स्थापित कराइ थीं । एकका नाम है, - ' श्रीआत्मानंद जैन पाठशाला मुंडारा ' और दूसरीका नाम है, - ' श्री शान्ति आत्मवल्लभ जैन लाइब्रेरी मुंडारा ।' पहली संस्थाका चंदा हमारे चरित्रनायकके उपदेशसे ही हुआ था और दूसरीका चंदा पंन्यासजी महाराजके उपदेशसे हुआ था । वरकासे रानी, चाँचोरी, एन्द्राका गुड़ा होकर खाँड पहुँचे । खाँडमें आपके उपदेशसे पाठशाला खुली । वहाँ पूजा पढ़ाई गई और दो साधर्मीवत्सल हुए । खांडसे गुंदोज पधारे । गुंदोज में जब आप सवेरे आहार पानीकरके ओटले (थडे ) पर टहल रहे थे उस समय उस गाँवके जागीरदार कहीं जा रहे थे । आपको देखकर वे घोड़ेसे उतर गये और आपके पास आकर करीब आध घंटे तक ठहरे । वहाँ आपके उपदेशसे एक पाठशाला भी स्थापित हुई । गुंदोजसे आप कुल्ला पधारे । कुल्लेके कई श्रावक आपको २५ ३८५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ आदर्श जीवन । .... ..विनती करनेके लिए एन्द्राका गुड़ा आये थे । उनमेंसे एक श्रावकने आपके पास आकर उपवास पचख लिया और फिर कहा:--" आप जबतक हमारे गाँवमें पधारनेकी विनतीको स्वीकार न करेंगे तबतक पारणा नहीं करूँगा।" इस लिए आपको गाँव रस्तेमें न होने पर भी कुल्ला पधारनेकी स्वीकारता देनी पड़ी । वहाँ एक साधर्मीवत्सल भी हुआ था। __कुल्लासे डेंडो पधारे। वहाँ पालीके लोग विनती करने आये। बाजारमें आपका व्याख्यान हुआ था । वहाँ मंदिरजीमें पूजा नहीं की जाती थी। कई श्रावकोंको पूजाका नियम लिवाया। डेंडोसे आगे तीन कोस पर एक गाँव है। वहाँ आपके पधारने पर पूजा पढाई गई और साधर्मीवत्सल हुआ। - वहाँसे सं १९७७ के मिगसर सुदी १० को आप पाली पधारे । समारोहके साथ नगर प्रवेश हुआ। कई दिनतक पूजा प्रभावना और नोकारसी होती रही। वहाँ सोजत, नयाशहर (व्यावर) के लोग आपके पास अपने अपने गाँवोंमें पधारनेकी विनती करने आये थे । पालीमें एक पाठशाला भी स्थापित हुई थी। पालीमें पचीस दिन रहकर आपने पोस सुदी ५ को वहाँसे विहार किया और जाडण पधारे। मंदिरजीमें आशातना होती है यह बात चतुमासे पहले आप जाडण पधारे थे उस वक्तकी आपके ध्यानमें थी इस लिए पालीसे विहार करते हुए आपने पालीके श्रीसंघसे कुछ सूचना की। ५०-६० आदमी पालीसे आपके Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन ३८७ wwws साथ जाडण इस इरादेसे गये थे कि आपको दो दिन वहाँ ठहरा कर कुछ उपदेश जाडणके भाइयोंको दिलाया जावे । आपने वहाँ उपदेश देकर प्रथम तो जाडणके भाइयोंमें जो कुसंपथा उसे दूर किया। बादमें श्रीजिनमंदिरका जीर्णोद्धार और पूजाका उपदेश दिया । आपके उपदेशसे मंदिर और धर्मशालाके जीर्णोद्धारके लिए चंदा हुआ, जिसमें पालीके श्रावकोंने भी कुछ मदद दी, बाकी जाडणवालोंने यथाशक्ति उत्साह दिखाया और हँढिये साधुओंका मंदिरमें ठहरना बंद कराया । वहाँ कई स्थानकवासियोंने आपके पास पूजा पाठका नियम लिया और आपका वासक्षेप भी ले लिया । अब वहाँका मंदिर बड़ी अच्छी स्थितिमें है। उस वक्त पालीके भाइयोंने वहाँ पूजा पढ़ाई थी और साधर्मिवात्सल्य भी किया था जिसमें जाडणके बाई भाई भी शामिल थे। वहाँसे विहार कर एक गाँव में पधारे जो तीन कोस था। उसमें सारे श्रावक तेरह पंथी थे । इस लिए आहार-पानीकी वहाँ कुछ कठिनता पड़ी। वहाँ आप के दो व्याख्यान हुए। एक श्रावकने पूछा:-" "स्थलिभद्रजी कोशा वेश्याके घरमें चौमासा रह कर ब्रह्मचारी रहे थे यह बात कैसे संभव हो सकती है।" आपने उत्तर दिया:.." मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" उन्होंने अपने मनको साध लिया था अत एव ऐसे योगी Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ आदर्श जीवन । मैं तुमको श्वरोंके लिए नव वाडोंकी भी पाबंदी नहीं है। पूछता हूँ, तुमने कभी उपवास किया है ? श्रावक-हाँ कई बार। आप-तो क्या तुम उपवासवाले दिन घर-गाँव-परिवार -खाने पीनेकी सब चीजोंको छोड़कर कहीं उजाड़में चले जाते हो या किसी पहाड़की गुफामें घुस जाते हो ? __ श्रावक-क्यों ? वे चर्जि मेरा क्या कर सकती हैं ? मेरा मन काबूमें है, मैंने इनको त्याग दिया है, मुझे परभवका डर है, मैं अपना उपवास बराबर घरमें रह कर पाल सकता हूँ। __ आप-भले भाई तो क्या भगवान् स्थूलिभद्र स्वामी अपनी प्रतिज्ञाका पालन करनेमें समर्थ नहीं थे ? अवश्य थे । इतना सुनकर वह शांत हो गया । वहाँ दो तीन श्रावकोंने पूजा पाठ करनेका नियम भी किया था। वहाँसे आप सोजत पधारे । बड़े समारोहके साथ नगरप्रवेश हुआ । शहरमें दस मंदिर हैं। उनका प्रबंध ठीक नहीं होता था । इस लिए आपने उपदेशद्वारा वहाँ एक पेदी स्थापित कराई थी। उसका नाम 'शान्तिवद्धमान पेढी' रक्खा गया। उसके द्वारा अनेक मंदिरोंके जीर्णोद्धार हुए हैं। आपके पधारने पर अनेक श्रावक जो किसी कारणवश कुछ कुछ ढूंढियोंकी तरफ झुकते जा रहे थे वे वापिस अपने ठिकाने आ गये यानी. पक्के प्रभुपूजक बन गये। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । सोजतसे विहारकर आप बिलावस पधारे । वहाँ मंदिर मार्गी एक ही श्रावक पक्का था। आपने वहाँ चार दिन रहकर उपदेश दिया । वहाँ साठ श्रावक जो कच्चे पक्के ढूँढिये थे, वे सभी मूर्तिपूजक हो गये । स्थानकवासियोंके परिचय और उपदेशसे स्त्रियोंने मासिकधर्म पालना छोड़ दिया था, सो आपके उपदेशसे वापिस पालने लगीं। वहाँ पंचोंने ठहराव करके यह बात भी लिख ली कि आजसे जिनके घरकी स्त्रियाँ मासिक धर्म नहीं पालेंगी उन पर पाँच रुपये जुर्माना होगा । वहाँ सब लोगोंके लिए पूजाका आवश्यक सामान भी आपके उपदेशसे एक श्रावकने मँगवा लिया । कई पूजाप्रभावनाएँ भी हुई। वहाँसे आपने कापडीजीकी तरफ विहार किया । विलावसके नगरसेठ गुलाबचंद्रजी आदि पन्द्रह आदमी भी आपके साथ गये । तीन दिनमें आप कापर्डाजी पहुँचे । कापर्डाजी से आप भावी पधारे। वहाँ सौ घर हैं मगर सभी स्थानकवासी हैं । उनमेंसे एक श्रावकने पूजा करनेका नियम लिया | पधारे । वहाँ दो नोकारसियाँ और वहाँसे पाँच कोस पर एक गाँव है । उसमें वैष्णवी एक जाति है । वह खेती करती है । वह खेतोंमें कई बार आग लगा दिया करती है सो नहीं, लगानेका उसने आपके उपदेशसे नियम ले लिया । वहाँ तीन दिन तक आपके और पंन्यासजी महाराज ललितविजयजीके व्याख्यान होते रहे । भावी से बिलाड़ा प्रभावनाएँ हुई । ३८९. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - वहाँसे फिर आप काप जी पधारे । वहाँ मेले पर पाँच हजार आदमी आये थे । उसमें एक सधर्मीवात्सल्य हुआथा । लोंगोंको ठहरनेकी तकलीफ होती थी इस लिए आपने उपदेश देकर वहाँ धर्मशाला वनवानेकी नींव डलवाई। वहाँसे आपने ब्यावरकी तरफ विहार किया और जेतारण पहुँचे । जेतारणसे दो कोस पर एक गाँव है । उसमें सभी श्रावक ढूंढिये हैं। उस गाँवमें आपने एक सार्वजनिक व्याख्यान दिया था। उसमें छःसात आदमियोंने दर्शन करनेका नियम किया। एक आदमीने पूजाका भी नियम किया । वहाँके जागीरदारके अन्तःपुरके पास जिनालय था; मगर कोई श्रावक वहाँ नहीं जाता था । इस लिए वह मंदिर जागीरदारने अपने अन्तः पुरमें मिला लिया और मूर्ति एक महात्माके यहाँ उपाश्रयमें रख दी थी । खुशीकी बात है कि श्रावकोंने नया मन्दिर बनवानेकी योजना करली है।। __ वहाँसे आप वरकेघाट पधारे । गाँवमें सभी ढूँढिये हैं, परन्तु आपका व्याख्यान सुनने सभी आते थे। वहाँसे आप अमरपुरा स्टेशनकी धर्मशालामें जाकर ठहरे । नये शहरके लोग वहाँ वंदना करने आये थे। एक नौकारसी भी वहाँ हुई थी। वहाँसे दूसरे दिन सं० १९७७ के फागण वदि १ के दिन आप ब्यावर पधारे । बड़े समारोहके साथ आपका नगरप्रवेश हुआ । अठाई महोत्सव वहाँ शुरू था। आपके पधा Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - रनेके बाद वदी ४ को भगवानकी सवारी निकली और पंचमीको शान्ति स्नात्र हुआ। धूलचंदजी कांकरिया और शाहजी उदयमलजीके आपसमें कई दिनोंसे वैमनस्य था। दो भाई तीस बरससे आपसमें नहीं बोलते थे । वे ढूंढिये थे । इन महाशयोंने आपके उपदेशसे अपना वैमनस्य दूर कर दिया। दो वैष्णवोंने भी आपके उपदेशसे आपसी विरोध छोड़ दिया। __व्यावरमें पंन्यासजी श्रीहर्षमुनिजीके उपदेशसे पाठशालाके लिए सोलह हजार रुपयेका चंदा हुआ था । मगर वह वसूल नहीं हुआ था । आपके उपदेशसे वह वसूल हो गया। इतना ही नहीं वहाँ सात हजारका चंदा और भी हो गया। धूलचंदजी काँकरियाने अपनी पचीस हजार कीमतकी एक हवेली पाठशालाके लिए दे दी। उन्होंने अपने वी. मा.का कागज जो पाँज हजार का था-भी पाठ शालाके लिए दे दिया । पाठशाला स्थापित हुई। वह अब अच्छी तरहसे चल रही है। ब्यावरसे आपने फागण वदी ९ को विहार किया। खरवा पहुँचे । खरवाके ठाकुरने आपके दर्शनका लाभ उठाया। खरवाके ठाकुर साहिबको राजपूतोंकी वंशावलीके कारण जैन साहित्यके देखनेका बड़ा शौक है । वहाँ पूजा और सधर्मीवात्सल्य भी हुआ। वहाँसे विहार करते हुए आप अजमेर पधारे । समारोहके साथ नगरप्रवेश हुआ। ढडोंकी हवेलीमें आपके दो व्याख्यान Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । AAAAAAAAAwww हुए । वहाँ एक प्राइमरी स्कूल चलता था। उसको आपने उपदेश देकर अठारह हजार रु० की मदद दिलाई । वह स्कूल मदद मिलनेसे मिडल स्कूल बना दिया गया । ___ अजमेरसे विहारकर आप पुष्करजी, भगवान पुरा होते हुए पिसांगण पधारे । वहाँ सभी ढूंढिये श्रावक हैं। उनमेंसे एक श्रावक स्वर्गीय आत्मारामजी महाराजके ग्रंथ जैनतत्त्वादर्शसे प्रबोधित हुआ था । वही विनती करके आपको पिसांगणमें ले गया था। वहाँ आपके उपदेशसे तीन चार श्रावकोंने दर्शन पूजनकी प्रतिज्ञा ली थी। मंदिर वहाँ प्राचीन है । पिसांगणसे आप केकिन पधारे उसमें जिन मंदिर विशाल और प्राचीन है । वहाँ सौ श्रावकोंके घर हैं और भव्य मंदिर भी है । मगर श्रावक सभी ढूंढिये हैं। साधुओंका विहार होता रहे तो संभव है लोगोंके भाव बदल जायँ । __वहाँसे आप मेडता पधारे। वहाँ करीब पन्द्रह जिन मंदिर हैं। वहाँकी यात्रा करके फलौधी पार्श्वनाथ पधारे। शेठ हीराचंदजी सचेती आदि कुछ अजमरके श्रावक यहाँतक पैदल ही आपके साथ आये थे । वहाँसे वे अजमेर चले गये। ___ फलौधीसे आप खजवाणा, मुंडवा होकर नागौर पधारे । नागौर में धूमधामके साथ आपका स्वागत हुआ। सिद्धिविजयजी महाराजके शिष्य अशोकविजयजी और रमणिकविजयजी आपको लेनेके लिए सामने आये । वहाँ आपके दो पब्लिक व्याख्यान हुए। वहाँ श्रावकोंके साढे तीन सौ घर हैं, उनमेंसे डेढ सौ ढूंढिये हैं । वहाँ पूजा प्रभावनादि हुए। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । नागौरसे विहार कर आप दो तीन स्थानोंमें ठहर वहाँके लोगोंको धर्मामृत पिला बीकानेर पधारे । __ चैत्रसुदी ९ सं०१९७८ के दिन बड़ी धूमधामसे आपकानगर प्रवेश हुआ । करीब ढाई हजार स्त्री पुरुष सामैयामें आये थे। आपने चौरासी गच्छके उपाश्रयमें जाकर मुकाम किया । वहाँ आपने भगवती मूत्र वाँचना प्रारंभ किया। जिस समय भगवती मूत्र शुरू करनेकी बात हुई उस समय लोग कहने लगे कि महाराज हम लोग इसको समझ न सकेंगे; मगर जब आपने पहले दिन भगवतीका व्याख्यान किया तब सभी वाह वाह करने लगे। व्याख्यानमें करीब डेढ हजार स्त्रीपुरुष हमेशा आते थे। वहाँ उपाश्रयके पास एक ब्राह्मण : नका नाम है मंगलचंदजी भादाणी । लखपति आसामी हैं। उन्हें आपके उपदेशसे ऐसा रंग लगा कि, वे गृहिणी सहित पक्के भक्त हो गये। उन्होंने सप्त व्यसनका त्याग किया, कंदमूल तीन सालतक नहीं खानकी प्रतिज्ञा ली और नित्यदेव दर्शनका नियम किया। उस चौमासेके लिए उन्होंने रात्रिभोजनकी भी प्रतिज्ञा ले ली। जगद्पूज्य श्रीहरिविजय मूरिजी महाराजकी जयन्तीका प्रारंभ भी आपने उसी साल प्रेरणा करके, सारे हिन्दुस्थानमें कराया । आपने भी बडे उत्साह पूर्वक वहाँ जयन्ती मनाई। ... कोचरोंके आपसमें तनाजेके कारण दो धडे थे । वे भी आपके उपदेशसे टूट गये । भाग्यशाली धर्मात्मा सेठ सुमेरम Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ आदर्श जीवन । लजी सुरानाकी प्रार्थनासे वहाँ आपने दो पूजाएँ बनाई । एक पाँच ज्ञानकी और दूसरी सम्यग्दर्शनकी। ___ अजमेर, सोजत, नागौर, बंबई, पाटन और अहमदाबाद आदि शहरोंके लोग आपको वंदना करने आये थे। पंजाबके श्रीसंघका एक प्रतिनिधि मंडल आपके पास विनती करने आया था। उस वक्त पंजाबके भाईने एक गजल गाई थी उसे हम यहाँ देते हैं। गजल । आप बिन पंजाबका अब हाल अबतर हो गया । ज्ञानरूपी धन लुटा गफलतकी नींदों सो गया ॥ १ ॥ आपकी ड्यूटी गुरूने दी थी लगा पंजाब पर । कर दो अदा ड्यूटी गुरूकी तुमको गुरु वर हो गया ॥ २ ॥ श्रीसूरि विजयानंद थे तब जगमगाता था यह देश । परलोक जबसे वे सिधारे देश बेपर हो गया ॥ ३ ॥ मुझी रही बाड़ी जो विनयानंदकी सरसब्ज थी। सींच दो जल-ज्ञानसे गर दिलमें गुरु डर हो गया ॥ ४ ॥ दीन दासोंके दुखोंको सुन दया आती नहीं । क्या वजह दिल मोम था वो अब यूँ पत्थर हो गया ॥ ५ ॥ वादा किया छ: बरसका यात्रा करेंगे घूम कर । पूरा किया है एक जुग मरुधरमें घर अब हो गया ॥ ६ ॥ भूल गये पंजाबको जिस पर कि अतिशय प्रेम था। उल्फत मरूधर (मारवाड़) से लगी वह हमसे बढ़ कर हो गया॥७॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन वो दयालु भी रुठा जिसपर भरोसा था हमें । किसको जाके दुःख सुनावें हाल अबतर हो गया ॥ ८ ॥ माफ करिए सब खता मंजूर करिए बीनती । पंजाब में अब हो चौमासा काज सब सर हो गया ॥ ९ ॥ वल्लभविजय महाराजजी वल्लभकी शक्ति आपमें । ईश्वर भी देगा दाद गर चलनेका अवसर हो गया ॥ १० ॥ इस चौमासेमें आपके साथ ( १ ) पं० श्रीललितविजयजी (२) पं० श्रीविद्याविजयजी (३) तपस्वी श्रीगुणविजयजी (४) मुनि श्रीविचारविजयजी (५) मुनि श्री अशोकविजयजी (६) मुनि रमणिकविजयजी (७) मुनि प्रभाविजयजी ( ८ ) मुनि श्रीउपेन्द्रविजयजी । ऐसे आठ साधु थे । वहाँ चार मास खमण, पाँच पास खमण, पन्द्रह अठाइयाँ, दो सौतेले और दो सौ बेले हुए थे । आपने केवल बारह द्रव्य खानेकी छूट रक्खी थी । ३९५ वहाँ एक बंगाली सज्जन चाँदमलजी ढड्डाके साथ आये थे । वे अच्छे विद्वान थे । वे महाराज साहबके साथ धर्मचर्चा करके अत्यंत प्रसन्न हुए और आपका अन्यान्य साधुओं साहत फोटो ले गये । उन्होंने कहा था, "मैं इसे जैनधर्म और जैनसाधुओंके आचरणोंका विवेचन सहित किसी बंगाली पत्र में प्रकाशित कराऊँगा । " दीवाली के दिन हमारे चरित्रनायक भगवती सूत्रका व्याख्यान बाँच रहे थे । उस दिन आपके दूसरा उपवास Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। Al0/ था। व्याख्यानमें दस बारह हँढिये श्रावक आये थे। उन्होंने आकर आपसे कई प्रश्न किये । आपने उनमेंसे कुछको उत्तर दिया; मगर उन्हें विवाद करते देख कर आपने फर्माया:-"यदि तुम्हारे गुरुओंकी इच्छा शास्त्रार्थ करनेकी हो तो महाराज गंगासिंहजी और अन्यान्य कुछ पंडितोंको मध्यस्थ नियत कर मुझे शास्त्रार्थके दिन और स्थानकी सूचना दो । यदि तुम स्वयं ही विवाद करने आये हो तो यह प्रतिज्ञा कर लो कि, यदि मैं शास्त्रानुसार तुम्हारे प्रश्नोंका सन्तोष कारक उत्तर दे दूंगा तो तुम पुजेरे बन जाओगे ?।" वे यह कह कर चले गये कि, हम विचार कर उत्तर देंगे। अब तक आतेही हैं। इस तरह सं० १९७८ का पैंतीसवाँ चौमासा बीकानेरमें समाप्त कर मार्गशीर्ष वदी ५ के दिन शामको तीन बजे आपने वहाँसे विहार किया और उदासर पधारे । उदासरमें एक जिनमंदिर है । शहरमें एक चैत्यमें प्रतिमाजी थे। बड़ी आशातना होती थी, क्योंकि वहाँके सभी श्रावक तेरह पंथी थे । आपने उन्हें समझाकर प्रतिमाजी सेठ सुमेरमलजी आदिके सिपुर्द कराई । उन्होंने प्रतिमाजीको मंदिरजीमें लाकर बिराजमान किया । वहाँ तीन नौकारसियाँ हुई थीं । बीकानेरके ढाई हजार आदमी आपके दर्शनार्थ आये थे। उदासरसे विहारकर आगे एक गाँवमें पधारे और एक कुन्बीकी झोंपड़ीमें निवास किया । - Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ___ वहाँसे आगेके गाँवमें पधारे । यहाँका ग्रामपति एक विद्वान था गोचरी फिरते हुए पं. श्रीललितविजयजी उनके घर चले गये । उनके वहाँ परमान्न ( क्षीर) का भोजन तैयार था मगर-अभी तक चूल्हेपर था वह देने लगे मुनिजीने लेनेसे इनकार किया और अपने आचारका दिग्दर्शन कराया। पंन्यासजीके कथनमे संस्कृत भाषाका बाहुल्य सुनकर ग्रामपति खुश हुए और पंन्यासजीसे गुरु महाराजकी प्रशंसा सुनकर वह आपके पास आये । वह संस्कृतमें ही बहुत देरतक आपके साथ वार्तालाप करते रहे और आपकी विद्वत्तासे प्रसन्न होकर अपने स्थानपर चले गये । इस गाममें एक भव्य उपाश्रय था मगर श्रावकोंकी कमज़ोरीसे राज्यकर्मचारी लोगोंने उसमें अपना दफ़तर रखकर अपना कुलफ लगा रखा था। ठाकुर साहिबने सोचा ऐसे ऐसे विद्वान साधु यहां आते हैं और स्थानाभावसे ठहर नहीं सकते । यह सोचकर उन्होंने हमारे चरित्रनायकके सामने ही श्रावकोंको कहा आजतक मुझे मालूम नहीं था कि यह मकान ऐसे ऐसे प्रखर विद्वानोंके ठहरनेके काम आता है । अब तुम रिपोर्ट करो मैं यथाशक्ति प्रयत्न करके मकानका कब्जा तुमको दिला दूँगा। ठाकुर साहिबका पंन्यास ललितविजयजीसे बड़ा स्नेह हो गया। क्यों कि उन्हींके द्वारा उनको गुरुदर्शनोंका और एक अदृष्ट पूर्व महर्षिसे धर्मचर्चा करनेका अव-.. सर मिला था। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ आदर्श जीवन । - - वहाँसे विहारकर आप लूणकरणसर पधारे। वहाँ ओसवालोंके साठ घर है सभी तेरह पंथी हैं। वहाँ एक मंदिरजी भी है । सेवक पूजा करता है। यहाँ आपको पानीकी बहुत तकलीफ़ पड़ी। कारण वहाँके कूओंका पानी बिलकुल खारा है । लोग चौमासेमें पानी जमा कर रखते हैं और घीकी तरह उसे काममें लाते हैं । तेरहपंथी श्रावकोंने आपको कूओंका ही पानी जो न्हानेके लिये गरम किया था दिया । वहाँ होशियारपुर संघके बीस आदमी विनती करने आये थे। लूणकरणसरसे आगेके गाँवमें एक जागीरदार हैं । आप उन्हींकी गढ़ीमें ठहरे थे । आपके उपदेशसे उनके मनपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने शिकार नहीं करने की प्रतिज्ञा लेली। वहाँसे महाजन पधारे। वहाँ एक मंदिर है और एक ही श्रावकका घर है। वह मंदिर नहीं जाता था। आपने उसको और उसकी पत्नीको दर्शनका नियम कराया। महाजनसे आप मूरतगढ़ पधारे । वहाँ आर्यासमाजी और सनातनी प्रायः आपके पास आया करते थे । उनके साथ चार दिन तक आप ईश्वर जगत्कर्ता है या नहीं इस विषयमें वार्तालाप करते रहे । यहाँके लोगोंके दिलोंमें इस तरहकी बात बैठ गई थी कि जैन लोग अशुचिको नहीं मानते हैं । इसका कारण उधरके तेरहपंथी ढूंढिये थे। आपने इस बातको जैनधर्मका शुद्धोपदेश देकर दूर किया । वहाँ आपके पैरमें एक फोडा हुआ था। इस लिए इच्छासे कुछ समय अधिक Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - ~ - वहाँ रहना पड़ा । वहाँ एक मंदिर है। श्रावकोंके तीस घर हैं। उनमेंसे आधे ढूंढिये हैं । वहाँ एक महीना बिराजे । सूरतगढ़से आप बडोपल पधारे । वहाँ एक चैत्यालय है। श्रावकोंके पाँच घर हैं। उनमें साठ आदमी हैं । सभी मंदिरमार्गी हैं । छः सात रोज आप यहाँ बिराजे । बडोपलसे विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए आप हनुमानगढ़ पधारे । वहाँ श्रावकोंके बीस घर हैं। उनमेंसे तीन पुजेरे हैं । बाकी तेरह पंथी। मंदिरमें पूजा प्रक्षालनका कोई खास प्रबंध नहीं था। आशातना भी होती थी। आपने उपदेश देकर पूजा प्रक्षालनका प्रबंध कराया और आशातना मिटाई। हनुमानगढसे आप डबवाली मंडी पधारे। यहींसे पंजाब प्रारंभ होता है । पंजाब श्रीसंघके जुदा जुदा शहरोंसे करीब तीन सौ आदमी यहाँ आये थे। वे आपके दर्शन करने और अपने अपने शहरों में पहले पधारनेकी विनती करनेके इरादेसे आये थे । करीब दो माइल तक सामैयाके लिए लोग आये थे । पंजाबका डेप्युटेशन भी सामैयामें शामिल हो गया था। सामैयेमें करीबन १५०० आदमी थे । शहरमें पधार कर आपने सार्वजनिक व्याख्यान दिया। असहयोगका उस समय पूरा जोर था । करीब दो हजार लोग व्याख्यानमें आये थे । उस समय आपने वर्तमान परिस्थितिपर जो व्याख्यान दिया था उसका बड़ा प्रभाव पड़ा। वहाँ सभी लोग अपने अपने शहरमें पधारनेकी आपसे Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । T विनती करते थे । आपने कहा:- “ संघ मिल कर मेरा जाना जहाँ मुनासिब समझे वहाँके लिए कहे । मैं वहीं पहले जाऊँगा; मगर इस बातको नक्की करते वक्त इस बातका खयाल रखना कि, पंजाबमें किसी नगर वा गाँवके भाइयोंके मनमें जुदाई या दुःख मालूम न हो । " सव श्रीसंघ पंजाबने मिलकर सर्व सम्मति से यह निश्चय किया कि महाराज साहब पहले होशियारपुरमें पधारें । वहाँ कुछ ज्यादा लाभकी संभावना है । 800 आपने श्रीसंघ पंजाब के मानकी खातर यह बात स्वीकार कर ली । परंतु साथमें इतना खुलासा कर लिया कि, अंबालानिवासी लाला गंगारामजी - जिनको कुल श्रीसंघ पंजाब मानकी दृष्टिसे देखता है की बहुत वर्षोंसे यह अभिलाषा है कि, मेरी जिन्दगीमें एक चौमासा अंबलेमें हो जावे । इस लिए मेरा इरादा अंबालेको जानेका था । पंजाबमें विचरते हुए वृद्ध मुनि महाराज श्रीसुमतिविजयी उर्फ स्वामीजी महाराज, पं. सोहनविजयजी और विचक्षणविजयजी आदि साधुओंके साथ भी बीकानेर से विहार करनेसे पहले पत्र द्वारा यह संकेत हो चुका है कि, यदि ज्ञानीने फरसना देखी होगी तो अपने सब अंबालेमें इकट्ठे हो जावेंगे । इस लिए तुम अंबालेकी तरफ आना और मैं भी उधर ही आऊँगा । क्योंकि श्रीसंघने हुशियारपुर के लिए निश्चित किया है, इस लिए मैं उधर जानेको तैयार हूँ । तुम पंजाबमें विचरते साधु मुनिराजोंको पता दे देना कि, श्रीसंघ पंजाबकी इच्छानुसार महाराज हुशियारपुर Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ४०१ पधारेंगे। आप भी होशियारपुर पधारनेकी कृपा करें। बाकी चौमासेके लिए तो मेरी भावना अंबालेहीकी है। क्योंकि, वहाँकी श्रीआत्मानन्दजैन पाठशाला ( स्कूल) की व्यवस्था कुछ ठीक करानी है और वहाँका श्रीसंघ भी इस बातको चाहता है । श्रीसंघ पंजाबने भी यही बात पास कर ली है। ___ डबवाली मंडासे विहारकर आप भटिंडे पधारे । वहाँके हिन्दु मुसलमान भी आपके स्वागतके लिए आये थे । वहाँ आपके दो सार्वजनिक व्याख्यान हुए। कई लोगोंने यहाँ मांस मदिराका त्याग किया । परस्त्रीगमन न करनेकी प्रतिज्ञा ली। भटिंडेसे आप जेतो पधारे । यहाँ भी सार्वजनिक व्याख्यान हुआ। जेतोसे कोटकपूरे पधारे । एक वैष्णव मंदिरमें उतरे । सार्वजनिक व्याख्यान हुआ। जेतो' नाभास्टेटमें और कोटकपूरा पटियाला स्टेटमें है। १ जेतो वो स्थान है जहाँ सिक्खोंका गुरुगंगसर नामा गुरुद्वारा है, जिसमें उनके यकीदे मुजिब ग्रंथ साहिबका अखंड पाठ करना सरकारकी ओरसे मना किया गया था और " शिरजावे तो जावे मेरी सीरकी सदक ना जावे" इस वापर तुले हुए अकाली-सिक्खों ने पाँच पाँच सौका जथा जाना शुरू करा दिया था। हजारों ही कैद हुए, सैंकडों मर गये, अनेक प्रकारके संकटोंका सामना किया परंतु बहादुर अकाली-पीछे नहीं हटे । आखर अपना धारा कर लिया। एकके. बदले एक सौ एक अखंड पाठ किये, सबको कैदसे रिहाई मिली और दुनियामें जी ती जागती कौम कहाई ! वाह ! धन्य है ! धमकी टेक हो तो ऐसी ही होवे । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ आवर्श जीवन । - कोटकपूरसे चाँदा पधारे । रास्तेमें चलते हुए दो साधुओंको ज्वर हो आया । अतः उन दोनोंकी उपधियाँ और झोलियाँ आपने ले लीं। इसीका नाम समयज्ञता है । कुछ आगे पंन्यासजी महाराज श्रीललितविजयजी जा रहे थे उनको खबर पड़ने पर वे ठहर गये और आपके मिलनेपर आपसे वे चीजें फिर उन्होंने ले लीं। चाँदेसे विहारकर आप तलवंडी पधारे । वहाँ एक पब्लिक व्याख्यान हुआ । जीरेके लोग वंदना करने और आपको वहाँ पधारनेकी विनती करने आये थे। तलवंडीसे विहार कर आप जीरे पधारे । वहाँ दो पब्लिक व्याख्यान हुए । व्याख्यानमें बड़े बड़े ऑफिसर भी आये थे । आपसमें दो आदमियोंके मुकदमा चलता था उसे भी आपने मिटा दिया। जीरेसे विहार कर आप सुलतानपुर, कपूरथला, कर्तारपुर, अलालपुर, आदि स्थानोंमें होते हुए खुर्दपुर पधारे । गुजराँवालेसे विहारकर स्वामी श्रीसुमतिविजयजी महाराज और पंन्यासजी श्रीसोहनविजयजी महाराज भी आपसे यहाँ आ मिले। वहाँसे विहार कर आप नसराला गाँवमें पधारे सर्व साधु भी इकट्ठे हो गये यानी हुशियारपुरसे विबुधविजयजी और विचक्षणविजयजी भी यहाँ आमिले। फाल्गन सुदी ५ के दिन आप सर्व साधुओंसहित Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन होशियारपुर पधारे । होशियारपुरमें आपके स्वागतार्थ करीब सात आठ हजार आदमी शहरके और बाहरके आये थे । बड़े समारोहके साथ जुलूस निकला । तीन घंटेतक सारे शहर में जुलूस घृ । स्थान स्थानपर भजन मंडलियाँ भजन गाकर आनंद देती थीं । स्थान स्थानपर शर्बतका इन्तजाम किया गया था । मुसलमानोंकी, सनातनियोंकी ढूँढियोंकी और जैनियोंकी, ऐसे चार, सेवा समितियाँ प्रबंध करनेके लिए साथमें थीं। जुलूस जहाँ व्याख्यानका इन्तजाम कर रक्खा था उस स्थान पर पहुँचा तब आप व्याख्यानके पाटपर विराजे । लाला दौलतरामने आपके सामनेकी चौकी पर एक सौ मुहरोंका साथिया कर वंदना की । न्योछावर भी मुहरोंहीकी की । वहाँ पंजाबके श्रीसंघने जो मानपत्र आपके भेट किया था उसकी नकल यहाँ दी जाती है । 1 ॐ अर्हम् । सरि श्रीविजयानंद – प्रशिष्यं शान्तचेतसम् । जैनधर्मधुरं वन्दे, वल्लभं मुनिवल्लभम् ॥ प्रातःस्मरणीय, पूज्यपाद, न्यायाम्भोनिधि, जैनाचार्य, श्रीमद्विजयानंद सूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजके प्रशिष्यरत्न मौढ विद्वान, जैनभूषण, मुनि श्रीवल्लभविजयजी महाराज ! हम - समस्त श्रीसंघ पंजाब, जिसमें दिल्ली, मेरठ और बीकानेर भी सम्मिलित हैं- अपनी अनन्य भक्तिभावना और उत्कृष्ट श्रद्धासे, इस होशियारपुर नगरमें आपश्रीका शुभ ४०३ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ आदर्श जीवन। स्वागत करते हुए, यह तुच्छ सम्मान आपकी सेवामें अर्पण करते हैं आशा है आप इसे स्वीकार कर हम सेवकोंकी अनुग्रहीत करेंगे। ___ गुरुराज आपश्रीके विषयमें हमारे दिलोंमें जो श्रद्धा और भक्तिभाव हैं उनको शब्दोंद्वारा प्रकट करनेमें हम सर्वथा असमर्थ हैं। ___ आपका जीवन जैनधर्मका उच्च आदर्श, सादगी और पवित्रताका एक खास नमूना है । आपका नाम ही वल्लभ नहीं आप काममें भी सच मुच ही वल्लभ हैं। आप जैसे रत्नोंहीसे जैनसमाज गौरवशाली बन रहा है। आप सत्य और प्रेमकी. जीती जागती मूर्ति हैं । इस लिए आपको सच्चे सत्याग्रही कहना चाहिए। संयम-संन्यास व्रत-ग्रहण करनेके वक्तसे ही आपने कुल बुराइयोंका सच्चे दिलसे त्याग कर दिया है, इस लिए आप सच्चे असहयोगी हैं। गुरुवय ! आपके उच्च एवं अनुकरणीय जीवनका विचार करते हुए हमारा मस्तक श्रद्धा और भक्तिभावसे नम्र होकर आपके प्रशस्त चरणोंमें झुक जाता है। अधिक क्या कहें हम लोग आपश्रीके गुणानुवादमें सर्वथा असमर्थ हैं। पूज्य मुनिराज! स्वर्गवासी गुरुमहाराज (आत्मारामजी) के बादमें आपने पंजाबके जैन समाज पर जो उपकारमयी ममता रक्खी है उसके लिए हम आपके सदा ही ऋणी रहेंगे। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन ! आपका असीम विद्या प्रेम किसीसे छिपा हुआ नहीं है । बंबईका 'श्रीमहावीर जैनविद्यालय' और पालनपुरका 'जैन एज्युकेशनल फंड' आदि संस्थाएँ - जो आपके द्वारा स्थापित हुई हैं - आपकी शिक्षाभिरुचिकी जीती जागती मिसालें हैं । इसके सिवा गुजरात, काठियावाड़ और मारवाड़ आदि देशों में पैदल भ्रमण करके शिक्षाप्रचार और समाज सुधारके लिये आपने जो परिश्रम उठाया है उसके लिए, जैन समाज आपका सदा आभारी रहेगा । ४०५ पंजाब भूमिके लिए आजका दिन बड़े ही सौभाग्यका है । इस समय आपश्रीका यहाँ पर पदार्पण करना एक विशेष गौरवकी बात है । इस वक्त पंजाब के श्रीसंघकी जो काया पलटी है, वह आपके ही अतिशय विशेषका फल है । जैन समाज के स्त्री पुरुषोंका, इस समय मलमल और रेशमके स्थानमें, केवल खद्दर और गाढेके वेशमें नजर आना, आपके आगमन प्रभावका ही प्रत्यक्ष फल है । अन्तमें आपश्रीके पवित्र चरणों में हमारी सविनय प्रार्थना है कि, आप अपने शिष्य परिवार सहित इस पंजाब भूमि-जिसने श्रीविजयानंद सूरि जैसे धर्मोद्धारक रत्न पैदा किये हैं - में बहुत समयतक विचर कर इस भूमिको सच्चा और अनुकरणीय धर्मक्षेत्र बनानेकी कृपा करें और इस भूमिमें भी कोई ऐसा पौदा लगावें कि, जिसके अमर फलोंसे हम Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ आदर्श जीवन। और हमारी सन्ताने अमरता लाभ करके सच्चे सुखको प्राप्त कर सकें। फाल्गुन शुक्ला ५ शुक्र-) हम हैं आपके तुच्छ सेवक, वार, सं० १९७८ समस्त पंजाबके जैन । ता. ३-३-२२ ) __ आपने इसके उत्तरमें कहा था कि,-" आप लोगोंने मेरा इतना सत्कार किया है, इसको मैं अपना नहीं प्रातःस्मरणीय गुरु महाराजका मान समझता हूँ और इसी लिए इसको ग्रहण करता हूँ। यदि आप लोगों में सच्ची गुरुभक्ति है, तो आप लोग अपने अन्तःकरणसे मेरा-नहीं गुरु महाराजका एक ऐसा स्मारक करो कि जिसके कारण स्वर्गीय गुरुदेवकी आत्माको परम संतोष हो, और मैं भी आनंदका उपभोग कर सकूँ। वह स्मारक है, पंजाबमें एक 'आत्मानंद जैनकॉलेज' की स्थापना करना । गुरु महाराज अकसर फर्माया करते थे कि, पंजाबमें जब देवस्थान काफी हो जायँगे तब सरस्वती मंदिर तैयार कराऊँगा । सज्जनो ! पंजाबमें देवस्थान काफी तादादमें बना कर आपने गुरुदेवकी एक भावनाको पूर्ण किया अब दूसरी भावनाको पूर्ण कर यानी सरस्वती मंदिर बनाकर गुरुदेवके आत्माको परम संतोष प्रदान कीजिए और गुरुऋणसे मुक्त होइए । "आपके मानपत्रकी सार्थकता मैं उसी दिन समझूगा जिस दिन आप यहाँ गुरु देवके नामका कॉलेज बना देंगे; जिस Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४०७ दिन मैं कोसों दूरसे आत्मानंद जैन कॉलेजकी बिल्डिंगको देख सकूँगा उसी दिन मैं समझूगा आपने सच्चे दिलसे मुझे मानपत्र दिया है। जिस दिन भारतवर्षके कौने कौनेमें यह चर्चा होगी कि जैनधर्मके सच्चे धारक-सच्चे ज्ञाता-साथ ही ऐहिक विद्यामें पारंगत तो आत्मानंद जैन कॉलेजहीसे निकलते हैं, उस दिन मैं समझूगा मेरे जीवनकी, बड़ीसे बड़ी ऐहिक साधनाको तुमने पूर्ण कर दिया है । जब तक ऐसा नहीं होता तब तक मैं समझूगा तुम्हारा 'आत्मारामजी महाराजकी जय' 'वल्लभ विजयजीकी जय' बोलना बुलाना और मेरा ग्रामानुग्राम पंजाबमें भ्रमण कर उपदेश देना सब निरर्थक हैं । शासन देव तुम्हें सद्बुद्धि और शक्ति दे कि, तुम इस कामको पूरा कर सको।" पंजाबके श्रीसंघमें एक बिजलीसी दौड़ रही थी। उस वक्त उनके हृदयमें जो भाव थे वे वर्णनातीत हैं। सैकड़ों आँखें स्वर्गीय गुरुदेवके स्मरणसे तर हो रही थीं। पंजाब श्रीसंघने उसी दिन पंजाब महाविद्यालय-कॉलेजके लिए चंदा लिखना शुरू किया। करीब दो लाख रुपये लिखे गये । पुरुषोंमें ही नहीं स्त्रियोंमें भी इतना उत्साह था कि अनेकोंने अपने जेवर उतार उतार कर विद्यालयके लिए दे दिये। तीन दिन जल्सा रहा । सार्वजनिक व्याख्यान भी होते रहे। पं. मदनमोहनमालवीय वहाँ आये थे । उनसे भी आपका श्रीजिमनमंदिरमें मिलना हुआ था। करीब आध घंटे तक भाप और मालावियाजी वातोलार करते रहे। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । महावीर जयन्ती भी बड़े ठाटबाटके साथ मनाई गई । वहाँ और भी महत्त्वकी बातें आपके उपदेश से आत्मानंद प्रकाशके उन्नीसवें वर्षके फाल्गुनके उद्धृत करते हैं । " ૪૦૮ Xx X अपवित्र केसरका पूजामें उपयोग नहीं करनेका ठहराव हुआ । प्रभु पूजाके समय हाथसे कते सूतका हाथसे बना हुआ खादीका कपड़ा ही पहनना, मिलका या चरबीवाला अपवित्र कपड़ा पहनकर प्रभुकी पूजा नहीं करना, अंगलूहने प्रभुके शरीर पोंछने के कपड़े भी ऐसे ही पवित्र होने चाहिए । मंदिरमें नैवेद्य देशी शक्करका ही रखना चाहिए इत्यादि स्तुत्य प्रस्ताव किये गये थे । " जिस समय आप पंजाब पधारे थे उस समय सारे देशमें खादीका दौर दौरा था । आपके हृदयमें जब ब्यावर में थे तभीसे विचार उठ रहा था कि, मिलके कपड़े पहनना धार्मिक दृष्टिसे अनुचित है या उचित ? अन्तमें आप इस परिणाम पर पहुँचे कि अनुचित है । कारण मिलके कपड़ोंमें चरबी लगती है और चरबी हिंसा हुए बिना नहीं आती इस लिए बीकानेर से ही आपने शुद्ध खादीका पहनना प्रारंभ कर दिया था । होशियारपुर से विहार कर आप फगवाडे पधारे । फगवाड़ेमें ढूँढिये और पुजेरे सभी श्रावकोंने आपका सामैया किया था । फगवाsसे विहार कर फिलोर पधारे । वहाँसे आहार करके हुई उन्हें हम अंकमेंसे यहाँ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ४०९ दुपहर बाद विहार किया। चलते चलते रात हो जानेसे मार्गहीमें एक आमके वृक्षके नीचे आपने रात बिताई। . वहाँसे लुधियाने पधारे। बड़े समारोहके साथ आपका नगरप्रवेश हुआ । उपाश्रयमें व्याख्यानमें करीब एक हजार आदमी हिन्दु मुसलमान सभी जमा हुआ करते थे। जगहकी कमी होनेसे वहाँ दो कोठोंकी दीवारें तोड़ देनी पड़ी । एक मुसलमानने अपने कुटुंबके सात आदमियों सहित मांसाहारका त्याग कर दिया। एक ब्राह्मणका लड़का बड़ा ही शराबी था। आपके उपदेशसे उसने शराबका त्याग कर दिया और व्याख्यानमें ही सबके सामने प्रतिज्ञा की कि, आजके बाद यदि मुझे कोई शराव पीते देख लेगा या मुझे शराब पिये हुए बता देगा तो मैं उसे पर्चास रुपये दूँगा। इतना ही नहीं उसने पचीस रुपये भी अन्यत्र रख दिये। वहाँसे जब आप रवाना होने लगे तब हिन्दु मुसलमान आदि सबने आपसे वहीं चौमासा करनेकी विनती की । उन्होंने यह भी कहा कि,-" यदि आप यहीं चौमासा करें तो हम तीस चालीस हजार रुपये लगाकर एक पाठशाला स्थापित कर दें।" आपने फर्माया:-" पंजाबके सारे संघने मिलकर अंबालेमें चौमासा स्थिर कर दिया है, इस लिए संघको मान देकर मैं चौमासा अंबालेहीमें करूँगा।" Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आत्मानंद जैन प्रकाशमें प्रकाशित हुआ था कि । " x++ वल्लभविजयजी महाराजकी अध्यक्षतायें ( लुधियानेमें प्रातः स्मरणीय विजयानंद सूरीश्वरजीकी) जयन्ती मनाई गई थी। सवेरे इसके लिए दो हजार भाई बहिन जमा हुए थे । +++ श्रावकों ने जयन्तीकी याददाश्त सदा रखनेके लिए यह प्रतिज्ञा की थी कि, वे कभी चरबीवाले अपवित्र वस्त्र और रेशमी वस्त्र लग्नादि किसी भी प्रसंगपर उपयोगमें न लायँगे । इससे हजारोंका खर्च बचनेकी संभावना है । इस तरह गुरु भक्ति कर जयन्ती मनाई गई थी । " - ४१० लुधियानेसे विहार हुआ तब आपको पहुँचानेके लिए आपके साथ सैकड़ों लोग - श्रावकों के अलावा हिन्दु मुसलमान सिक्ख आदि भी - करीब एक माइलतक गये थे । विहार करते हुए आप सं० १९७८ के अषाड़ कृष्ण ६ के दिन अंबाले पहुँचे । बड़े समारोहके साथ आपका नगरप्रवेश हुआ । जब जुलूस उपाश्रय में पहुँचा तब लाला गंगारामजीने १००) रु. और १३) रु. अन्य दो महाशयोंने दानमें दिये और वे रुपये आपके उपदेशसे क्रमशः कांग्रेस और खिलाफत कमेटियोंको इस शरतपर दिये गये कि, नंगे भूखोंको कपड़ा और भोजन दिया जाय । वहाँ जब आपने व्याख्यान दिया तब करीब एक हजार स्त्री पुरुष थे । आपके व्याख्यानका जनता पर बड़ा असर हुआ उसका सार यह था । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन जो चाहो शुभ भावसे, निज आतमकल्यान । तीन सुधारो प्रेमसे, खान, पान पहरान ॥ आपके इस उपदेशसे अंबालेके श्रीसंघने एकत्र होकर जो प्रस्ताव किया था वह हम " आत्मानंद जैन सभा " अंबालेकी सालाना रीपोर्टसे यहाँ उद्धत करते हैं, “(१) कोई भाई विवाह, गमी या अन्य अवसरों पर चढ़ावा और सौगातमें ऐसा कपड़ा न देवे जिसमें चरबीकी पान दी हुई हो और इस लिए धर्म विरुद्ध और अपवित्र हो, तथा रेशमी कपड़ा, जो लाखों कीड़ोंकी हिंसासे बनता है । (२) चरबीसे बना हुआ साबन भी आगेको कोई न बरते ।" ___ एक प्रस्तावके लिए फुट नोटमें लिखा है कि,-"जो वख अशुद्ध समझे गये हैं; उनका नवीन बनवाना तो बिलकुल ही बंद हो चुका है । केवल पिछले बने हुए, मौजूद हैं उनका किसी तरह घरमें उपयोग कर लेना खुला रक्खा गया है । श्रीमंदिरजीमें जाना और सामायिक, प्रतिक्रमण, देवपूजामें इन वस्त्रोंका उपयोग बिल्कुल नहीं करना; तथा अशुद्ध केसरका पूजामें उपयोग नहीं करना एवं अशुद्ध खाँडकी बनी मिठाई श्रीमंदिरजीमें नहीं चढ़ाना यह प्रतिज्ञा तो होशियारपुरमें श्रीमहाराज साहबके प्रवेश समय ही श्रीसंघ पंजाबने कर ली थी।" आपके उपदेशसे वहाँका मिडल स्कूल हाइ स्कूल बनाया Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ आदर्श जीवन। गया और उसके लिए वहींसे बाईस हजार रुपयोंकी सहायता भी मिली। बिल्डिंगके लिए भी कई महानुभावोंने कमरे बनवा देनेके लिए धन दिया। कार्तिक शुक्ला ५ सं० १९७९ के दिन एक पुस्तकालय स्थापित हुआ। उसकी उद्घाटन क्रिया गुजराँवालानिवासी लाला जगन्नाथजीके हाथसे हुई थी । उसके लिए करीब तीन हजार पुस्तकें आपने दीं। इनमें कई ग्रंथ तो बड़े प्राचीन छः छः सौ बरसके पुराने लिखे हुए हैं । ग्यारह श्राविकाओंने पुस्तकोंकी अलमारियाँ ज्ञानभक्तिके निमित्त बनवा दी थीं। __इस चौमासेमें तपस्याएँ भी खूब हुई थीं। उनमें सबसे ‘अधिक, उल्लेखनीय मुनि महाराज श्रीगुणविजयजी तपस्वीकी थी। उन्होंने ७६ दिनमें केवल ७ दिन ही खाया था। तपस्वीजीके पारणेवाले दिन पूजा पढ़ाई गई और जीवदयाके लिए चंदा एकत्र हुआ। ___ इस तरह सं० १९७९ का छत्तीसवाँ चौमासा आपका आनंद पूर्वक अंबालेमें समाप्त हुआ । - चौमासेमें सामानेके लोग आपके पास प्रतिष्ठा करानेके लिए सामाने पधारनेकी विनती करने आये थे । तदनुसार अंबालेसे विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए आप पटियाले 'पधारे । आपके आगमन समाचार सुनकर वहाँके कई स्थानकवासी और जैनेतर भाई आपको लेनेके लिए सामने आये न्थे । पटियालेमें मंदिरमार्गियोंका खास कोई जत्था नहीं है। - | Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । तो भी पटियालेवाले अन्य भाइयोंने आपको वहीं पर मास कल्प करनेकी विनती की थी; परन्तु सामानेकी प्रतिष्ठाके दिन नजदीक आ गये थे इस लिए आप वहाँ न ठहर सके । __ पटियालेसे विहारकर आप सामाने पधारे । समारोहके साथ आपका सामैया हुआ । जैनेतर लोग भी बहुतसे आये थे। वहाँ पर जैन और जैनेतर लोगोंमें किसी कारणवश मुकदमा चल रहा था। आपने दोनों तरफके लोगोंको समझाकर आपसमें फैसला करा दिया । संवत् १९७९ माघ सुदी ११ को श्रीशांति नाथ प्रभुकी प्रतिष्ठा बड़ी घामधूम और आनंदोत्साहके साथ हुई। . सामानेसे विहार कर आप नामे पधारे । नामेमें स्थानकवासियोकी बस्ती अधिक है। उन्होंने अपने उपाश्रयमें पधारकर व्याख्यान बाँचनेकी प्रार्थना की। इस लिए आप वहीं जाकर व्याख्यान बाँचने लगे। उनके हृदयमें आपके लिए बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई। करीब दस दिनतक आप वहाँ विराजे थे । नाभेसे विहार कर आप मालेरकोटले पधारे । वहाँ बड़े उत्साहके साथ आपका स्वागत हुआ । जुलूसमें मालेरकोटलाका सरकारी बाजा आदि सामान भी था। __ आपके वहाँ हमेशा व्याख्यान होते थे । उनमें जैनसे जैनेतर लोग ही अधिक जमा हो जाते थे। ___ वहाँ अनेक सज्जनोंने मांस मदिराका त्याग कर दिया । दो मुसलमान भाई भी मांसाहार छोड़ आपके पूर्ण भक्त बन गये। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आदर्श जीवन । तपस्वी गुणविजयजीने चैत्र वदि अष्टमीको तेले तेले पारना वरसी तप प्रारंभ किया । अहमदाबादनिवासी जौहरी भोगीलाल ताराचंदकी प्रेरणासे श्रीचारित्र-पूजा उर्फ ब्रह्मचर्य-पूजाकी शुरूआत भी आपने मालेरकोटलाहीमें की थी । इस समय मालेरकोटलाके श्रीसंघका उत्साह कुछ अपूर्व ही था। चौमासेके लिए बहुत ही बिनती की गई; परंतु आपकी इच्छा होशियारपुर चौमासा करनेकी थी, इस लिए एक कल्प करके आपने मालेरकोटलेसे विहार किया। ___ मालेरकोटलेमें श्रीमहावीर जयंतीका अच्छा उत्सव हुआ था। अहमदाबाद निवासी वकील केशवलाल प्रेमचंद मोदी बी. ए. एल्. एल्. बी. आपके दर्शनार्थे वहाँ आये थे। उन्होंने भी श्रीमहावीरजयंतीके उत्सवमें हाथ बटाया था। दिनमें आपका और पं० श्रीललितविजयजी महाराजका प्रभावशाली व्याख्यान हुआ था। दुपहरको पालखी धूमधामसे फिराई गई थी और खूब ठाठसे श्रीमहावीर पंचकल्याणक पूजा पढ़ाई गई थी । पं० श्रीललितविजयजी महाराजको कुछ कदर संगीतका बोध है और कोटलाके लाला नगीनचंद आदि कई श्रावक भी गायन कलाके अभ्यासी हैं । इससे वहाँ पूजाका कुछ और ही रंग आया था। ___ मालेरकोटलेसे विहार कर लुधियाना होते हुए आप होशियारपुर पधारे और सं०१९८० का सैंतीसवाँ चौमासा आपने होशियारपुरमें किया । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. पृ. ४१५. चरित्रनायक तपस्याके समय। मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४ . Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आपके उपदेश से वहाँ श्रीआत्मानन्द जैन लायब्रेरी खोली थी जो अच्छी हालत में चल रही है । चारित्रपूजा आपने यहीं समाप्त की । यहाँ आपने यथाशक्ति तपका आराधन भी किया। यूँ तो आप हमेशा अष्टमी चतुर्दशीको व्रत करते हैं, अन्य तिथियोंको एकासना करते हैं । परन्तु बीकानेरसे विहार करते हुए यह अभिग्रह धार लिया था कि, जबतक पंजाबके किसी खास बड़े शहरमें पहुँच न जाँय तबतक रोज एकासना करना और आठ द्रव्यसे अधिक द्रव्य खाने पीनेके उपयोगमें नहीं लेना । बादमें हमेशाके लिए यावज्जीवन दश द्रव्यसे अधिक द्रव्य नहीं लेना | जिस रोज भूल हो जावे और अधिक द्रव्य उपयोगमें आ जावें उसके अगले रोज जितने द्रव्य अधिक उपयोगमें लिए होवें उनसे दुगुने कमती कर देना । आपका प्रथम प्रवेश होशियारपुरमें हुआ । एकासनाकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई । साधुओंके कहने कहानेसे कुछ रोज दो वक्त आहार करते रहे; परंतु आपका दिल मानता नहीं था फिर आपने एकासना शुरू कर दिया । उपवासके पहले और अगले दिनके सिवाय हमेशा एकासना शुरू कर दिया । साथमें अमुक, धारा, धार्मिक काम पूरा न हो लेवे तबतक गुड़ शक्कर आदि मीठा या मीठेका बना कोई भी पदाथ नहीं खाना । इस प्रकारकी प्रतिज्ञा धारण कर ली । पूर्वोक्त अभिग्रह-प्रतिज्ञाके होते हुए भी इस चतुर्मासमें ४१५ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ आदर्श जीवन। आपने दश द्रव्योंमेंसे भी एक और कम कर दिया। चतुर्दशी पूर्णिमा और चतुर्दशी अमावास्याका छठ-बला करना शुरू कर दिया । बारह तिथि मौनव्रत स्वीकार कर लिया। पं० ललितविजयजी महाराजकी व्याख्यानादिमें सहायता मिलनेसे आप अपनी निर्धारित तपस्यादि कायसिद्धिमें सिद्ध हस्तसे हो गये। सत्य है योग्य उत्तर साधक मिलनेसे ही कार्यकी सिद्धि होती है । इस चतुर्मासमें कई सूत्रोंका स्वाध्याय भी आपने किया। आपके मनमें कई वर्षोंसे यह अभिलाषा हो रही थी कि कभी मैं इस जिन्दगीमें अट्ठम-तेला कर सकूँगा? सो वो अभिलाषा भी पूर्ण हो गई। बड़े आनंदसे तेला हो जानकी खुशीमें लाला गुज्जरमलजी नाहर गोत्रीयके पौत्र लाला दौलतरामजीने सहर्ष १०१) रुपये जीवदयामें दिये। उनका अनुकरण करके श्रीसंघ होशियारपुरने और भी कुछ रकम जीवदयाके निमित्त इकट्ठीकी और कुल रकम बंबई जीवदयामंडलके नियंता सेठ लल्लुभाई गुलाबचंद झवेरी बल साडनिवासीको भेज दी। __इस वर्ष पर्युषामें व्याख्यानका कार्य पं. ललितविजयजी महाराजके सुपुर्द होनेसे आपने निश्चिन्ततासे व्रत-बेला और तेला करके पर्युषण पर्वका आराधन कर अपने जन्मको सफल माना । समयकी बलिहारी ! कहाँ तो तेला करते हुए झिझकना-होगा या नहीं इस प्रकार सशंक होना और कहाँ लेके साथ सांवत्सरिक पर्वके रोज कल्पसूत्र-बारांसोका Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | सुनाना ! अब आपके आत्माको यह निश्चय हो गया कि तेले तककी तपस्या तो मैं सहर्ष कर सकता हूँ और इसी उत्साहसे गत वर्ष लाहौर और इस वर्ष गुजराँवालामें तेलेकी तपस्या आपने की थी; परन्तु " जहा लाहो तहा लोहो " वाला हिसाब ! अब आप चौला चार उपवास लगातार करनेकी अभिलाषा कर रहे हैं ! शासन देवता आपकी अभिलाषा पूर्ण करें ! वाचक वृन्दके दर्शनार्थ होशियारपुरकी तपस्या समयकी तस्वीर साथमें दी गई है । आपकी कृश शरीरावस्थाको देखकर पं० ललितविजयजी महाराज बहुत कुछ कहा करते थे; परन्तु प्रतिज्ञाके नामसे वे भी लाचार हो जाते थे । एक दिन बंबईसे किसी भाग्यवान धर्मात्माका पत्र होशियारपुर पहुँचा, जिसमें यह इशारा था कि, श्रीमहावीर जैन विद्यालयकी दश वार्षिकी मर्यादा पूर्ण होनेपर आई है अब आपको इसकी तरफ भी नजर करनी चाहिए । पत्रको पढ़कर आप विचारमें पड़े आपको विचार में पड़े देख, हाथ जोड़, चरणोंमें नमस्कार कर नम्रभावसे पं. ललितविजयी महाराजने विज्ञप्ति की :" सगुरो ! ऐसी क्या बात है ? " ४१७ आपने वह पत्र पंन्यासजी महाराजको दे दिया और कहा:- “ इसे पढ़ लो और यदि कुछ हिम्मत है तो यथाशक्ति हाथ बटाओ । " २७ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । } पंन्यासजी महाराजने पत्र पढ़ा और अर्ज की :- " आप पधारिये यह सेवक हर तरहसे आपकी सेवामें रहकर यथाशक्ति भक्ति करनेको तैयार है । " ૬૮ आपने फरमाया :- “ बेशक ! परन्तु तुम खुद ही विचार लो। अभी तो पंजाबमें आये ही हैं । तत्काल उधरको कैसे जा सकते हैं ? हाँ यदि तुम हिम्मत करके पहुँचो तो उधरका काम भी सुधर जायगा और इधर तो मैं बैठा ही हूँ । थोड़ा बहुत इधर भी सुधर ही जायगा । " इस बातको सुन कर श्रीपन्यासजी महाराजने अर्ज की :- " भले आप आज्ञा फरमाइये किंकर तैयार है। आपकी आज्ञा और आपका शुभ नाम सर्वत्र सहायक होगा । इसमें जरासा भी सन्देह नहीं है; परन्तु आप मेरी इस विज्ञप्तिको ख्याल में ले लेवें । आपने जो एकासना करना शुरू किया है, चौमासा पूर्ण होनेपर इसको आगे न बढ़ाइये और अधिक तपस्या पर जोर न दीजिये । आपका शरीर तपस्याके योग्य नहीं है । तपस्या करना तो आप तपस्वी गुणविजयजीको ही सौंप दीजिये । " आपने कहा:-" भले आदमी ! क्यों तपस्याके नामसे मुझे बदनाम करता है । मुझसे तपस्या होती ही कहाँ है ? धन्य है जो तपस्या करें । हाँ मेरे एकासनेसे ही तू नाराज है तो 1 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । -AAAAAAA. चौमासेतककी मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हो लेवे उसकेबाद निरंतर एकासना न करूँगा; परंतु जहाँतक मेरा वश चलेगा छूटे मुँह भी न रहूँगा । अष्टमी चतुर्दशीका उपवास तिथिको एकासना तो जैसा चलता है चलता ही रहेगा। बाकीके दिनोंमें बेसना -दो वक्त आहार करता रहूँगा। अब और कुछ कहना है तो ‘वह भी कह दे।" पंन्यासजी महाराजने कहा:-" जब तक मैं आपकी सेवामें वापस न आऊँ तबतक आप दश द्रव्य कायम रक्खें, निर्वाह छःसे या चारसे चाहे जितने द्रव्योंसे आपकी इच्छा के अनुसार कर लेवें; परन्तु दशसे कमती द्रव्यकी प्रतिज्ञा न करें। आपने जो मीठेकी प्रतिज्ञा की है उसके पूर्ण करनेमें मेरी शक्ति और भक्तिका भी कुछ अंश स्वीकरनेकी अर्ज है।" आपने इन सब बातोंको सहर्ष मंजूर किया । चौमासे बाद पंन्यासजी महाराजने सीधा बंबईकी तरफ विहार किया और गुरुकृपासे ठीक धारे हुए समय पर बंबई पहुँच गये। अहमदाबादसे पं०श्रीउमंगविजयजी महाराज, मुनि श्रीनरेन्द्रविजयजी महाराज और मुनि श्रीअमर विजयजी महाराज भी सपरिवार इनके साथ आये थे। - पं० ललितविजयजी महाराजके बंबई पहुँचते समय बंबईके श्रीसंघको आपने एक पत्र भेजा था, जो इस. मुजिब था। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० आदर्श जीवन। www . श्री श्वेतांबर जैनसंघ प्रति विज्ञप्ति । मैं नीचे सही करनेवाला, सकल श्रीश्वेतांबर जैनसंघ (खास करके बंबई निवासी श्रीसंघ) की सेवामें विज्ञप्ति करना चाहता हूँ कि कुछ समयसे श्रीसंघ बंबई की-उनमें भी मुख्यतया महावीर जैनविद्यालयके मेंम्बरोंकी-इच्छा बम्बईमें आनेके लिए प्रदर्शित की गई, मगर मैं पंजाबमें बहुत दूर बैठा हूँ, सहसा बंबई नहीं पहुँच सकता इस लिए और पंजाबमें कई नवीन जिनमंदिर बने हुए हैं उनकी प्रतिष्ठा करना है इसलिए मैं आप श्रीसंघकी इच्छाको मान न देसका इसके लिए आशा है श्रीसंघ कुछ खयाल न करेगा । तो भी फूल नहीं तो फूलकी पखड़ी ही सही इस, हिसाबसे यथाशक्ति समाजकी सेवा होनी ही चाहिए यह सोचकर मैंने अपनी हार्दिक इच्छा पंन्यास ललितविजयजीको बतलाई कि, महावीर जैनविद्यालयकी योग्य सेवा बहुत समय हुआ हम कुछ न कर सके । श्रीमहावीर जैनविद्यालयके कारण समाजमें कितनी जागृति हुई है, यह बात उसके वार्षिक रिपोर्ट से भली भाँति मालूम हो जाती है। जिस दिनसे यह संस्था स्थापित हुई है उसी दिनसे यदि इसकी उचित सार सम्भाल ली जाती तो आज इस संस्थाका स्वरूप कुछ और ही होता, मगर अभाग्यवश ऐसा न हो सका। इस लिए प्रेरणा कर उसकी तरफ समाजको आकर्षित करनवाले की खास आवश्यकता है। संस्थाको मदद करनेवा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.ainelibrar पंन्यासजी म० श्रीललितविजयजी उनके दाहिने हाथ. पं०म० श्री उमंगविजयजी. १ मुनि म० अमर. विजयजी २. बाएँ हाथ मुनि श्रीनरेंद्र विजयजी म०१ मुनि श्री मनोहरविजयजी महाराज, २. पृ. ४२०, मनोरंजन प्रेस, बम्बई. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। vvvvvv लोंके दस बरसतक मदद देनेके वचन थे उनका समय भी अब अनकरीब ही पूरा होनेवाला है । इस लिए इस बरसकी मुद्दत समाप्त हो इसके पहले ही यदि प्रेरककी तरह उपदेश द्वारा समाजकी सेवा हो सके तो जैन समाजको उन्नति की पायरी पर पहुँचानेवाले महावीर जैनविद्यालयकी नींव मजबूत हो जाय । आदि। मेरी भावनाको मान दे कर पंन्यास ललितविजयजीने अर्ज की कि,-" यदि आपकी ऐसी ही इच्छा हो और मुझे वहाँ जाने के योग्य समझते हों तो प्रसन्नतापूर्वक मुझे जानेकी आज्ञा दी जिए, मैं हर तरहसे हरेक तकलीफ को बर्दाश्त कर वहाँ शीघ्र ही पहुँचूँगा और यथाशक्ति समाजकी सेवा कर आपकी इच्छा को पूर्ण करूँगा।" श्रीमहावीर जैन विद्यालय इन्हींकी उपस्थितिमें स्थापित हुआ था, इसलिए जैसा सद्भाव उसके प्रति मेरा है वैसाही, मेरा विश्वास है कि, उनका भी है। बंबई के श्रीसंघसे भी वे भली भाँति परिचित हैं, इसलिए वे समाजसेवाके कार्य में अवश्य प्रयत्न करेंगे और समाजका ध्यान उस तरफ भली प्रकार आकर्षित कर सकेंगे। इसी आशयसे मैंने पंन्यास ललितविजयजीको आज्ञा दी कि ऐसे समाजसेवाके कामको अवश्यमेव करना चाहिए; मेरी मान्यता है कि, तुम कर सकते हो, इस लिए बंबईके श्रीसंघकी इच्छा को मान दे, यथासाध्य प्रयत्न कर, यह चौमासा तुम्हें वहीं जाकर करना चाहिए। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । मेरी इस आज्ञाको मान, हाथ जोड स्वीकार कर सं० १९८० कार्तिक शुदी २ (गुजराती) को पंजाबके होशियारपुरसे विहार कर मार्गमें प्रायः विशेष किसी भी स्थानपर न ठहर, निरंत लंबा विहार करते हुए, लगभग बारह सौं माइलकी (पैदल) मुसाफिरी कर करीब सात महीने में बंबई. पहुँचनेवाले हैं । यह काम कुछ कम हिम्मत का नहीं है । __इनके साथ यद्यपि इनके शिष्य मुनि प्रभाविजयजी, गुरुभक्ति की खातिर, होशियारपुरसे ही इनके साथ आये हैं तथापि, बंबई जैसे बड़े शहरमें चार साधु विशेष हो तो शासनकी शोभा के साथ ही कार्यसिद्धिमें भी विशेष मदद मिले, इस हेतुसे पंन्यास उमंगविजयजीको पत्र लिख उनके साथ बंबई जानेकी प्रेरणा एवं आज्ञा की। यद्यपि इनकी विशेष इच्छा न थी तथापि मेरी आज्ञा एवं शान्तमूर्ति१०८श्री हंसविजयजी महाराजकी प्रेरणा और तथा आज्ञाको मान, तथा पंन्यास ललितविजयजीके साथ पहलेसेही धार्मिक प्रेम होनेसे और दोनोंने पदवी साथही ली है, इस संबंधको विचार कर वे बंबई, अहमदाबादसे विहारकर अपने शिष्य मुनि चरणविजयजीके साथ आये हैं। इस प्रसंगपर स्वर्गवासी मुनि महाराज श्री माणिकविजयजीके शिष्य मुनि श्रीनरेन्द्रविजयजी और स्वर्गवासी मुनि महाराज दादा श्रीकेवलविजयजीके शिष्य मुनि श्रीअमरविजयजी अपने शिष्य मुनि कान्तविजयजीसहित साथमें पधारे हैं। यह खुशी की बात है । आशा है पंन्यास Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | ललितविजयजी, पंन्यास उमंगविजयजी आदि सातों साधु परस्पर प्रेमका वर्ताव रक्खेंगे और सभी एक ही ध्येयके लिए समाजसेवाका प्रयत्न करनेमें किसी तरहकी कसर न रक्खेंगे । बंबईका जैनसंघ भी आये हुए मुनियोंको अपनायेगा और यथाशक्ति श्रीमहावीरजैनविद्यालय द्वारा जैनसमाजकी उन्नतिको बढ़ाने की कोशिश करनेमें पीछे पैर नहीं रक्खेगा | इतना लिख, हृदयकी भावनाका यत्किंचित परिचय करा, पंन्यास ललितविजयजी, पंन्यास उमंगविजयजी आदि सात साधुओंको एवं श्रीसंघको धन्यवाद देता हुआ और बंबईके श्रीसंघकी इच्छाको, मैं स्वयं वहाँ पहुँच, पूर्ण न कर सका इसके लिए उससे क्षमा चाहता हुआ विरमता हूँ । ताजा कलम – विशेष प्रसन्नताकी बात यह हैं कि, जैनाचार्य श्री १००८ श्रीविजयवीरसूरिजी महाराजका चौमासा भी अपने शिष्यसमुदाय सहित बंबई में है, इससे बंबई के श्रीजैनसंघ को अधिक लाभ मिलेगा। आशा है बंबईका श्रीजैनसंघ इस सुनहरी अवसरका अच्छी तरहसे लाभ उठायेगा । इसी तरह आचार्य महाराज श्रीविजयवीरसूरि भी श्रीमहावीर जैनविद्यालयका निरीक्षण कर उसमें किसी तरहकी कमी दिखाई दे तो उसे दूर करने की कार्यवाहकों से प्रेरणा करेंगे और स्वयं भी योग्य सेवा कर अपने आत्माको कृतार्थ करेंगे एवं समाजको उसका कर्तव्य समझायँगे | अमृतसर ( पंजाब ) वैशाख सं १९८० } मे हूँ समस्त श्रीजैन संघका दास, मुनि वल्लभविजय । ४२३ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ आदर्श जीवन। - सामानेमें प्रतिष्ठाके समय आपके पास एक मुसलमान सज्जन-जो वहाँके रईस और निकटके ग्रामके. "स्कूलके मास्टर थे-आया करते थे । आपके पास आने जानेसे उनके दिलमें अहिंसा और दयाके विचार पैदा हुए । आपने उन्हें एक दो किताबें भी दी । जब आप होशियारपुरमें विराजते थे तब उन्होंने आपके पास एक पत्र भेजा था। उसकी नकल यहाँ दी जाती है:___ " पीरे तरीक़त, राहे हिदायत श्रीमुनिवल्लभविजयजी महाराज ! बाद अदाए आदाब व तस्लिमाना बजा लाकर अर्ज खिदमात आलीजाह हूँ। बंदा बखैरियत और खैरोआफियत हुजूर अन्वर नेक मतलब । हजूरकी मुलाकातसे जो कुछ फायदा उठाया बयानसे बरूँ। दोनों किताबें जेर मुताला हैं। जहाँ तक मेरे इन्साफ़ने फैसला दिया है, मसला दया और अहिंसाका जैनतालीममें फौकियत रखता है । वाकईमें दया ही धर्मका मूल है। जैसे तुलसीजी साहब फर्माते हैं दया धर्मका मूल है, पापमूल अभिमान । 'तुलसी' दया न छोड़िए, जबलग घटमें प्रान । दासकी निहायत अदबसे अरदास है, दया दृष्टि फ़ाएँ । बंदा बारह तेरह रोज तक हाज़िर खिदमत होकर कदम्बोसी हासिल करेगा । बराए परवरिश एक किताब जिसमें जैनपुरुषार्थका लबेलबाब यानी रियाज़त या तप-ध्यान या मराकबा ज्ञान या मारफ़तके अमूल उर्दूमें हों तो बेहतर है, Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । नहीं तो फिर किसी भाषामें हों जरूर तलाश करके रख छोड़ें। हुजूरकी दया से बंदेको इस वक्त किसी किताब या ग्रंथकी जरूरत नहीं । लेकिन धर्मके फूल सूँघनेका निहायत शौक है । बाकी सबकी खिदमत में सलाम कुबूल हो । ज्यादा आदाब फकत । 95 खादिमुल्फ़कीर मुन्शी शरेहुसेन सामानवी । होशियारपुरका चौमासा समाप्त होनेपर आप काँगड़ेकी यात्रा के लिये पधारे । काँगड़ेका नाम पहले नगरकोट था । प्राचीनकालमें वह ' त्रिगर्त्त' के नाम से विख्यात था । उस समय अनेक जैन और जिनमंदिर भी वहाँ थे । इस समय वहाँ एक स्थानपर भगवान श्री आदिनाथकी एक भव्य मूर्ति है । जो किलेमें होनेके कारण गवन्मेंटके अखतियार 1 और कबजे में है । जैनसमाजका कर्त्तव्य है कि, वह प्रयत्न करके उस मूर्तिको अपने अधिकारमें ले और सेवापूजाका प्रबंध करे । * ४२५ आपके साथ होशियारपुरके कई श्रावक श्राविका यात्रार्थ गये थे । एक छोटासा संघ हो गया था । काँगड़ेकी यात्राकर आप वापिस होशियारपुर पधारे । और वहाँसे अन्यत्र विहार किया । काँगड़ा तीर्थका वर्णन ★ सुना गया है कि हमारे चरित्रनायकने इसके लिए प्रयत्न जारी किया था मगर कामयाब नहीं हुए । अब दुबारा फिर भी कुछ प्रयत्न करना चाहते हैं । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ आदर्श जीवन। PvA.ARMAANAAAAAAMRA.. विज्ञप्तित्रिवेणी नामा पुस्तक-जो भावनगर (काठियावाड) की श्रीजैनआत्मानन्दसभाने छपवाया है पढ़नेसे बखूबी. मालूम हो जाता है। (सं० १९८१-८२) होशियारपुरसे विहार कर मियानी, उरमड आदि स्थानोंके जीवोंको उपदेशामृत पिलाते हुए आप 'जंडियाला गुरु" पधारे । वहाँके लोग बाजेगाजेके साथ आपका सामैया करनेके लिये सामने आये, मगर आपने विचार कर लिया था कि, जबतक मनोरथ पूर्ण न होगा तब तक कहीं भी जुलूसके साथ नगरप्रवेश न करेंगे । तदनुसार आपने संघसे कहा:-" उरमडमीयानीमें भी विनाही वाजेके मैं गया हूँ यहाँभी उसी तरह जाऊँगा।" ___ संघमें उदासीनता छा गई । मगर क्या करता लाचार था । बाजे लौटा दिये गये । बाजोंके धूमधड़ाके बिनाका शान्त जुलूस निकला । लोग इस शान्त जुलूससे विशेष प्रभावान्वित और अन्तद्रष्टा बने । आपका विचार शीघ्र ही गुजराँवाला पधार कर स्वर्गीय गुरुदेवकी समाधीकी चरणवंदना करनेका था; परन्तु लाहोर आदि रास्तके स्थानोंमें प्लेग हो जानेके कारण श्रावकोंके आग्रहसे आपको वहीं ठहरना पड़ा। जंडियालेमें कई दिनोंसे आपसमें कलह चल रहा था । आपके प्रयाससे वह मिट गया । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन तपस्वीजी श्रीगुणविजयजी महाराज. (आचार्य महाराजकी सेवामें ) पृ. ४२७ मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४२७ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr महावीरजयन्तीका सार्वजनिक उत्सव किया गया । हिन्दु मुसलमान सभीने इस उत्सवमें भाग लिया। तपस्वीजी श्रीगुणविजयजी महाराज तेले तेलेके पारणेसे वार्षिक तप कर रहे थे । वैशाख सुदी ३ ( अक्षय तृतीया) सं० १९८१ के दिन वह तप निर्विघ्न पूरा हुआ और उन्होंने पारणा किया । उस अवसर पर श्रीसंघने खुशीमें पूजा पढ़ाई । कई भव्योंने ज्ञान दान दिया । जितनी रकम हुई थी वह सभी जंडियालेके श्रीसंघके सुपुर्द कर दी गई । और उसका स्काँलार्शप फंडकी तरह उपयोग करनेका उपदेश दिया गया। उसकी व्यवस्था हुई कि जंडियालेका कोई जैन विद्यार्थी अगर उच्च शिक्षा प्राप्त करनेके लिए कहीं बाहर जाना चाहता हो; मगर आर्थिक बाधाके कारण न जा सकता हो तो उसको स्कॉलर्शिप दी जाय । उसी समय यह बात काममें भी लाई गई । अर्थात् एक लड़केको १० दस रुपये मासिक दिये जाना स्थिर हुआ। ___ स्वर्गीय गुरु महाराज श्रीआत्मारामजीके बनाये हुए जैनतत्त्वादर्शको पुनः छपवा कर मामूली कीमतपर बिकवानेकी योजना भी वहाँ की गई। अभी वह अमलमें नहीं लाई गई। उम्मीद है अब गुरुकुलका काम ठीक चल पड़नेपर वह योजना भी अमलमें लाई जायगी। जंडियाला गुरुसे विहार कर आप अमृतसर पधारे । अमृतसरमें भी विना ही धूमधामके आपने प्रवेश किया। गुजराँवालेका Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨૮ आदर्श जीवन । श्रीसंघ आपसे विनती करने आया । गुजराँवालेके संघमें कुछ फूट दिखाई दे रही थी, इस लिए आपने फर्मायाः " पहले आपसी फूट मिटा लो, फिर सभी एक दिल होकर विनती करने आना।" लाहोरका संघ भी आपके पास विनती करने आया और उसने निवेदन किया कि,-" यदि गुजराँवालेका श्रीसंघ आपसी कलह मिटा ले तो आप चौमासा करने गुजराँवालेमें पधार जायँ अन्यथा लाहोरमें चौमासा करें ।" . ___आप अमृतसरसे विहार कर लाहोर पधारे। स्पर्शना बलवान है। आपका सं० १९८१ का अड़तीसवाँ चौमासा लाहोरमें ही हुआ। X चौमासेमें आपके उपदेशसे पंचरंगी तपस्या हुई। तपस्वियोको पारणालाला फग्गूशा खजानचीमलने कराया, उन्होंने साधर्मीवात्सल्य भी किया था। पर्युषण करनेके लिए अनेक गाँवोंके भव्य श्रावक लाहोरमें आये थे । पर्युषणका जल्सा लाहोरके श्रीसंघने बड़े उत्साहसे किया। __ लाहोरमें आत्मानंद जैनमहासभाका सालाना जल्सा भी हुआ था। जब आपका चौमासा बीकानेरमें था तब पंजाबके श्रीसंघके पास जीरावासीश्रीयुत बाबूराम जैन एम्. ए. की मारफत आपने संगठनका संदेशा पहुँचाया था, जिसको अमलमें लाते Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ४२९ vvvnravMP4 हुए श्रीसंघ पंजाबने गुजराँवाला शहरमें एक खास मीटिंग कायम की। क्योंकि पं० श्रीसोहनविजयजी महाराज तथा वृद्ध महात्मा स्वामीजी महाराज श्रीसुमतिविजयजीका चौमासा वहाँ था। सर्वानुमतसे "श्रीआत्मानन्द जैन महासमा" श्रीसंघ पंजाबके संगठन रूप कायम की गई। इस वर्षे इस सभाका यह चौथा सालाना जल्सा था । पालीतानके मुंडकेके संबंधमें सं० १९८१ के कार्तिक सुदीमें अहमदाबादके सेठ भोगीलाल ताराचंद जौहरीने आपके पास एक पत्र भेजा था, उसका आवश्यक भाग यहाँ दिया जाता है___fxxx श्वेतांबर जैनोंके लिए, निकट भविष्यमें एक महत्त्वका प्रश्न उपस्थित होनेवाला है। xxxxxxएजंसीने, बंबई सरकारने, और सेक्रेटरी ऑफ स्टेटने भी अपने विरुद्ध फैसला दिया है। इतिहास लंबा है । हृदयशोकसे भर आता है । [डकाकी ( अमुक रकम दे कर बंद कराया था उसकी) चालीस बरसकी मुद्दत ता. ३१ मार्च सन १९२६ के दिन पूर्ण होती है । (पालीताने के) दरबारके हकमें फैसला मिला है इस लिए वे विशेष रकम माँगेंगे । यह बात स्वाभाविक है। जैनसाधु पादचारी होनेसे, दूरसे आवश्यकताके समय तत्काल ही नहीं आ सकते, इस लिए तीर्थ शिरोमणि, मुकुट. समान सिद्धाचलजीके कामकी लागणीसे प्रेरित होकर आप शीघ्र ही इस तरफ़ पधारनेकी कृपा करें।x xxxx Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । 46 इस समय फिरसे कौल करार होनेवाले हैं, इसके लिए खास बुद्धिमान, विचारशील नेताओंको मिल कर योजना तैयार करनी चाहिए। मेरी बुद्धिके अनुसार इस काममें आपकी खास आवश्यकता है । आपको विशेष आग्रहके साथ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है । आपके हृदयमें तीर्थका हित ओतप्रोत भरा हैं, इस लिए कृपा कर मार्ग में आव श्यकतानुसार ही विश्राम ले, यथासाध्य शीघ्र ही इधर पधारें । मेरी यही नम्र प्राथना है । × × × × ४३० 44 लाहोर सरकारकी तरफसे पुरातत्त्वकी खोज करनेवाले श्रीयुत हीरानंदजी शास्त्रीने, फर्नहिल नीलगिरिसे लिखा था: - “ भागमलजीने उवाईसूत्रकी प्रति और त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र पर्व ८, ९ और १० वाँ आपकी आज्ञानुसार भेज दिये हैं । बड़ी ही कृपा है । धन्यवाद करता हूँ । उवाई सूत्र पढ़कर भेज दूँगा । मेरा विचार है कुछ समय आपके पास व्यतीत करूँ । जब संभव होगा लिखूँगा । मैं चाहता हूँ जैनधर्मके ग्रंथ पढ़ कर उनको छापूँ और टीका टिप्पणी उनपर लिखूं, जैसा याकोबी साहब योरपमें करते हैं । देखें कब विचार पूरे होते हैं। यदि इतना दूर न होता तो कुछ न कुछ अबतक लिख देता । कभी कभी कृपापत्र भेजा कीजिए । " गवर्नमेंट कॉलेज लाहोरके प्रॉफेसर बाबू बनारसीदासजी जैन एम. ए. ( ऑफ लंदन ) सन् १९२४ में लंदन गये हैं । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४३१ ये बड़े ही सज्जन, मिलनसार और धर्मात्मा सज्जन हैं। विद्वान होते हुए भी उनके हृदयमें अभिमान नहीं है । इन पंक्तियोंके लेखकके साथ वे बड़े ही प्रेमके साथ मिले थे। बंबईके जैन नेताओंने उनका यहाँ अच्छा सत्कार किया था। जिस दिन वे जहाजमें बैठे उस दिन कई नेता उन्हें पहुँचाने गये थे और श्रीफल भेट में देकर उनकी यात्रा सफल होनेके लिए शुभ भावना की थी। उन्होंने पं० महाराज श्रीललितविजयजीको लिखा है___ " xxxx गुरुमहाराजकी ( वल्लभ विजयजी महाराजकी) कृपासे अबतक अभक्ष्यको हाथ नहीं लगाया और आशा है नहीं लगाऊँगा ।xxxx" - आपने चरित्रपूजा रची वह 'वर्द्धमान ज्ञानमंदिर । उदयपुरके भेट भेजी गई थी। उसके संचालक यति श्रीअनूपचंदजीने लिखा है-" xxxx चरित्रपूजाकी पुस्तक विवेचनसहित मिली । पढ़ कर बहुत आनंद हुआ। यहाँपर अठाई महोत्सव शुरू हुआ उसमें यह पूजा बड़े आनंदके साथ पढ़ाई गई । ( खरतर गच्छीय ) कृपाचंद्रजी महाराज व श्रोतागण पूजा सुनके बहुत प्रसन्न हुए। xxxx" ___ लाहोरके चौमासेका संक्षिप्त वर्णन, और आपको आचार्यपद पर स्थापित करनेका एवं आपके द्वारा लाहोरमें की गई प्रतिष्ठाका सविस्तर वर्णन लाहोरकी आत्मानंद जैनसभाने प्रकाशित कराया है उसको हम यहाँ उद्धृत करते हैं। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ आदर्श जीवन। . ... लाहोरे शहर में प्रतिष्ठा तथा आचार्य पदवी का समारोह ! नमो विश्वप्रधानाय, विश्वविश्रुतकीर्तये । सर्वसम्पन्निधानाय, वर्द्धमानाय वेधसे ॥ १ ॥ प्रारम्भिक निवेदन। पंजाबकी विख्यात राजधानी इस लाहोर शहरमें जैनधर्मके प्राचीन जीर्णोद्धृत देवमंदिरकी प्रतिष्ठा और मुनि श्री १०८ वल्लभविजयजी महाराजको बड़े समारोहसे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करना यह दो काम इतने महत्त्वके हुए हैं कि वर्तमान जैन इतिहासमें इनका स्थान एक विशेष गौरवको लिए हुए होगा । इन दो शुभ कार्योंके निमित्त जैन जनताने जिस श्लाघनीय उत्साहका परिचय दिया है उसका जिकर तो इतिहासके पृष्टोंमें खास तार पर करने लायक. है । यह कहना कुछ अत्युक्ति न होगी कि आज चार सौ. वर्षके बाद इन दो शुभ कार्यों ( प्रतिष्ठा तथा आचार्य पदवी) की पुनरावृत्ति करते हुए पंजाबके और खास कर लाहौरके जैनसमाजने जो श्रेय प्राप्त किया है उसकी तुलना यदि असम्भव नहीं तो कठितर अवश्य है ! धार्मिक और ऐतिहासिक दोनों ही दृष्टियों से ये बड़े महत्व के हैं । xxxx Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । _ 'तीर्थभूता हि साधवः । शास्त्रकारों ने साधु महात्माओंको तीर्थस्वरूप लिखा है। तीर्थ उसको कहते हैं जिसके आलम्बनसे मनुष्य अपनी आत्मामें विकास प्राप्त कर सके अर्थात् जिसके जरियसे आत्माका 'उद्धार हो सके । तीर्थके शास्त्रकारों ने स्थावर और जंगम ऐसे दो भेद भी किये हैं। स्थावर वे हैं जो सदा एक ही स्थानमें स्थिर रहते हैं जैसे शत्रुञ्जय, रैवताचल और सम्मेत शिखरादि। जंगम तीर्थ उनको कहते हैं जो चलते फिरते और सदाके लिए कहीं पर स्थिर नहीं रहते, वे जंगम तीर्थ साधु मुनिराज हैं । वे जहाँ कहीं भी जाते हैं वहाँ पर उनके उपदेश द्वारा अनेक जीवोंका उद्धार होता है। बहुत से ऐसे जीव हैं जो कि महात्माओंके सदुपदेशसे प्रबुद्ध हो कर अपनी बिगड़ी हुई जीवनचर्याको सदाके लिये सुधार लेते हैं। बहुतसे लोगों पर इन महापुरुषोंके विशुद्ध जीवनका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे उससे प्रभावित होकर आजन्म प्रभावना युक्त कार्योंमें ही सतत लगे रहते हैं। इस लिये शास्त्रकारोंने महात्मा पुरुषोंको तीर्थकी उपमासे अलंकृत किया है। एक उदाहरण लीजिये । आजसे अनुमान साठ वर्ष पहले पंजाके जैन समाजकी वह सुदशा नहीं थी जो कि सौभाग्यवश उसे आज प्राप्त है । उस समय वह अपने Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ आदर्श जीवन। anoonamranimurnamorrenimarwari असली स्वरूपको बिलकुल ही भूला हुआ था । देवपूजन, देव, गुरु एवं धर्म के यथार्थ स्वरूपसे वह बिलकुल ही वंचित था । परन्तु प्रातःस्मरणीय स्वर्गवासी जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्द सूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजने स्वयं प्रबुद्ध हो कर जब उसे प्रबोधित किया तब वह-जैन समाज-समझा कि इससे प्रथम उसने जिस मार्गका अवलंबन किया हुआ था वह वस्तुतः उन्मार्ग था । उसके लिये प्रशस्त मार्ग वही है जिसका निर्देश उक्त महापुरुष कर रहे हैं । अतः उसने अपने उसी प्राचीन प्रशस्त मार्गका सतत अनुसरण किया। इसके प्रमाणमें पंजाबकी इस समय विद्यमान सच्ची धार्मिक जागृति प्रस्तुत है । उसमें इस वक्त देवविमानोंके सदृश देवमंदिर भी विद्यमान हैं, सच्चे साधु मुनिराज भी वहाँ न्यूनाधिक संख्यामें मौजूद हैं और संख्याके अनुरूप सद्बोध प्राप्त श्रावकवर्ग भी है। तात्पर्य कि महापुरुषोंके उपदेशालम्बनसे मनुष्यके आत्मविकासमें बड़ी भारी इमदाद मिलती है । तदनुसार उक्त स्वर्गवासी गुरु महाराजके बाद पंजाबको यदि किसी ने अपने विशिष्ट उपकारसे आभारी किया हो तो वे मुनि महाराज श्रीवल्लभाविजयजी हैं। अनुमान १३ वर्ष के बाद आपश्रीका जबसे फिर पंजाबमें पधारना हुआ तबसे पंजाबके जैन समाजमें कुछ अपूर्व ही जागृति पैदा हो रही है। उसने अपनी सामाजिक त्रुटियोंको बहुत अंशोंमें पूर्ण किया, तथा Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। अपनेमें होनेवाली शिक्षाकी कमी को अब वह पूर्णरूपसे अनुभव करने लगा है। यदि महाराजश्री अपने पवित्र चरणकमलोंसे इस भूमिको कुछ समय तक पवित्र करते रहे तो वह दिन बहुत नजदीक है जब कि वह ( पंजाबका जैनसमाज) अपनी सामाजिक और धार्मिक शिक्षामें रही हुई अत्यन्त अपूर्णताको पूर्ण करनेमें पूर्णतया समर्थ हो जायगा । एवं लाहौर जैसे विशाल क्षेत्रमें जैन समाजकी अत्यल्प संख्याके होने पर भी इतने बड़े उत्साहपूर्ण समारोहका होना और उसमें पूर्णतया सफलता प्राप्त करना यह सब कुछ उक्त मुनि राज ( श्रीवल्लभविजयजी महाराज ) के आदर्शजीवन का प्रभाव, प्रशस्तोपदेश और पूर्ण कृपाका ही विशिष्ट फल है ! यह कथन निस्संदेह, अत्युकि शून्य और तथ्य पूर्ण है। जीर्णोद्धार । यहाँ पर भगवान सुविधिनाथ स्वामी का एक प्राचीन जैन मंदिर था। उसकी अत्यन्त जीर्ण दश को देखकर महाराजश्रीके सदुपदेशसे यहाँ-लाहौर के श्रीसंघके मनमें उसके पुनरुद्धारकी शुभ भावना पैदा हुई । यद्यपि यहाँ पर अपने जैन समुदायकी संख्या बहुत कम और उसमें भी धनाढ्य कोइ नहीं प्रायः सभी मध्यस्थितिके लोग हैं तथापि इस धार्मिक काममें लोगोंने इतना उत्साह दिखलाया कि थोड़े ही दिनोंमें देवविमानके समान एक विशाल शिखरबद्ध मंदिर तैयार कर दिया । स्थानकी संकीर्णता होने पर भी उसकी बना Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । वट इतनी सुन्दर और चित्ताकर्षक है कि दर्शकोंका दर्शन करते हुए जी नहीं भरता । सचमुच ही यह देवमंदिर लाहौर - के श्रीसंघकी पुण्यश्रीका एक उज्ज्वल आर्दश है । ४३६ देवप्रतिमाओंका लाना । देवमंदिरके तैयार होजाने पर 1 अब यहाँके श्रीसंघको उसकी प्रतिष्ठा और उसमें सद्यः भगवान वीतरागदेवकी प्रतिमा स्थापन करने का खयाल हुआ । तदनुसार वे इस शुभ कार्यके लिए प्रयास करने लगे । उस समय सादड़ी ( मारवाड ) की अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर कॉनफ्रन्स हो चुकनेके बाद महाराज श्रीवल्लभविजयजी खुड़ाला ( मारवाड़ ) में विराजमान थे । सादड़ीके बादका द्वितीय चतुर्मास आपने वहीं पर किया था । यहाँसे लाला प्रभदयाल और लाला माणिकचन्दजी उक्त कार्यकी सम्पन्नताके लिये आपके पास खुड़ालेमें पहुँचे और पहुँचते ही अपना भाव आपको कह सुनाया । महाराजश्रीने वहाँ ( खुड़ाला - सादड़ी ) के पंचोंकी सम्मति लेकर श्रीवरकाणातीर्थराजसे वहाँके मैनेजर मूता सरदारमलजीकी मारफत इनको तीन मूर्तियाँ दिलवाई, जिनमें मूलनायक भगवान श्री शान्तिनाथ थे, जो कि लाहौरके उक्त मंदिर में इस समय नीचेकी वेदीमें प्रतिष्ठित किये गये हैं और ऊपरकी वेदीमें श्रीसुविधिनाथ भगवानकी वही अति प्राचीन मूर्ति विराजमान की गई है, जो कि प्रथम इस मंदिर में प्रतिष्ठित थी । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । लाहौरका चतुर्मास । प्रभु प्रतिमाओंके लानेका कार्य परिपूर्ण हो जानेके अनतर अब यहाँके श्रीसंघके मनमें उनको प्रतिष्ठित करनेकी विशुद्ध भावना जागृत हुई; परन्तु इसकी पूर्तिका होना अधिTia महाराजश्री के हाथमें था । तदर्थ सबसे प्रथम श्रीसंघने आपश्रीकी सेवा में अपनी भावनाको पहुँचाया । उस समय महाराजजी साहिब जंडियालागुरुमें विराजमान थे । अमृतसर में लाहौर के श्रीसंघने महाराजश्रीको बड़े ही विनीत भावसे लाहौर पधारनेकी प्रार्थना की और अपना प्रतिष्ठा सम्बन्धी इरादा आपसे स्पष्टतया अर्ज किया; परंतु आपने अपना भाव लाहौर होते हुए सीधे गुजराँवाला पहुँचने का बतलाया । तदनुसार आप लाहोर में पधारे और ज्येष्ठ शुदी अष्टमीका स्वर्गवासी गुरु महाराजका जयन्ती महोत्सव आपने लाहोर में ही किया । लाहोर में कुछ दिन विराजने और चतुर्मासके अति निकट होने पर भी पंजाबकी जैन जनताको तो यही दृढ विश्वास था कि महाराजश्रीका यह चतुर्मास निस्संदेह गुजराँवालेमें ही होगा और स्वयं महाराजजी साहिबका विचार भी पूर्णतया स्वर्गवासी गुरुमहाराजके चरणोंमें ही चतुर्मास करने का था [ इसी लिये स्वामीजी आदि कुछ साधुओंने विहार भी कर दिया था जिसके लिये स्वामीजीका चतुर्मास वहीं पर हुआ । ] परन्तु इस बलवती क्षेत्रस्पर्शना और लाहोर ४३७ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ आदर्श जीवन । श्रीसंघके पुण्याति कन इस कदर जोर मारा कि आपश्रीका चतुर्मास लाहौर में ही हुआ। इससे प्रथम आप श्रीका लाहोरमें चतुर्मास नहीं हुआ था। प्रतिष्ठा की तैयारी । महाराज श्रीवल्लभविजयजीका चतुर्मास लाहौर में होना निश्चित हुआ देख लाहौरनिवासियोंके हर्ष और उत्साहका पारावार न रहा । उन्होंने तत्काल ही महाराजश्रीकी सेवामें उपस्थित होकर, प्रतिष्ठाके मुहूर्तका निश्चय करने और तदर्थ आमंत्रणपत्रिका प्रकाशित कराकर वितीर्ण करनेकी शुभ अनुमति माँगी । तदनुसार प्रतिष्ठाका शुभ मुहूर्त विक्रम सं० १९८१ मार्गशीर्ष सुदी पञ्चमी सोमवारका स्थिर हुआ । मुहूर्तके निश्चित हो जाने पर अब धीरे २ प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्यकी तैयारी होने लगी । समय नजदीक आने पर पंजाबके हर एक शहर, कसबा और ग्राममें आमंत्रण पत्रिकाएँ भेजी गई तथा देशान्तरस्थ सद्गृहस्थोंको भी आमंत्रण भेजा गया । प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्रबंधके लिये एक प्रबन्धकारिणीसमिति बनाई गई उसने प्रतिष्ठा सम्बन्धी इस महान कार्य को बड़ी ही योग्यता से किया । भक्तनिवास-जहाँ पर महाराजजी. साहिब विराजमान थे-के नज़दीक राजा ध्यानसिंह की हवेली में एक बड़ा ही विशाल और सौंदर्यपूर्ण मण्डप बनाया गया, उस में महाराज श्रीवल्लभविजयजी पं० श्रीसोहनविज Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । यजी तथा बाहिर से आनेवाले अन्यान्य विद्वानों के प्रभावशाली व्याख्यान तथा भजन मंडलियों के मनोहर भजन हुआ करते थे । इसी शोभनीय विशाल मंडप में प्रातः स्मरणीय महाराज श्रीवल्लभविजयजी तथा पंन्यास श्रीसोहनविजयजी को समस्त चतुर्विध संघने एक मन होकर क्रमशः आचार्य और उपाध्याय पदवी से समलंकृत करके अपनी कृतज्ञता का परिचय दिया । आमंत्रणके पहुँचते ही पंजाब के सभी साधर्मी बन्धुओं ने इस शुभ कार्य में हमारी हरएक प्रकार से सहायता की । अंबाला, होशियारपूर, गुजरांवाला, नारोवाल, मालेरकोटला, लुधियाना और जंडयाला आदि जिन २ शहरों में सोना चांदी के रथ पालकी, आसे, चामर और चाँदनी आदि बहुमूल्य सामान लेने के लिये यहाँ से जो आदमी गये उनको वहाँ २ के श्रीसंघ ने और भी प्रोत्साहित किया तदर्थ हम उनके कृतज्ञ हैं । ४३९ मार्गशीर्ष शु० द्वितीया शुक्रवार से पंचमी सोमवार तक का प्रोग्राम था । इस अवसर में अपने दिलों में पूर्ण उत्साह को लिये हुए लोग अधिकाधिक संख्या में आने लगे । बाहर से आने वाले बंन्धुओं की सुविधा के लिये स्टेशन पर स्वयंसेवक मौजूद रहते थे । पंजाब के अलावा काठियावाड़, गुजरात, मारवाड़, और बंगाल आदि मान्तों से भी कई एक सम्भावित सद्गृहस्थ इस अवसर पर पधारे थे । उत्सव में Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पधारे कुल स्त्री पुरुषों की संख्या अनुमान चार से पाँच सहस्र की थी । 7 ४४० व्याख्यान - नवीन मुद्रित प्रोग्राम के अनुसार, शुक्रवार की रात उक्त मंडप में, न्यायाचार्य पंडित सुखलालजी संघवी और पंडित हंसराजजी शास्त्री के, सामाजिक विषय पर बड़े ही रोचक व्याख्यान हुए । शनिवार को सवेरे ८ बजे के करीब महाराज श्रीवल्लभविजयजी का एक बड़ा ही सार गर्भित धर्मोपदेश हुआ। दो पहर के दो बजे पंन्यासजी श्री सोहनविजयजी महाराज ने बड़ी ओजस्वीनी भाषा में जैन समाज के सामयिक कर्त्तव्य को सूचित किया । रात्रि को पंडित हंसराजजी का ' वर्त्तमान समय में जैन समाज को किसमार्ग का अनुसरण करना चाहिये' इस विषय पर एक छोटा सा लेकीन भावपूर्ण, भाषण हुआ । अनन्तर बोधपूर्ण कई एक भजनों के बाद सभा विसर्जित हुई । , सवारी - रविवार का दिन बड़ा ही उत्साहपूर्ण था ! आज के दिन भगवान् की सवारी बड़ी ही धूमधाम से निकलनेवाली थी । सोने चांदी के रथ और पालकियाँ सुसज्जित हो रहे थे । महेन्द्र ध्वजा फहरा रही थी | तात्पय्य यह कि सवारी का सभी सामान तैयारी के पूर्ण यौवन में था । प्रातःकाल महाराज श्री का एक बड़ा ही पुरअसर उपदेश हुआ। इसके बाद रथ आदि की बोलियाँ हुई अनन्तर लोग भोजन के लिये भोजनशाला में चले गये । । 3 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ४४१ ठीक बारह बजे के करीब बड़ी धूमधाम से भगवान् की सवारी निकाली गई और शहर के नियत स्थानों से होती हुई करीबन आठ बजे वापिस लौटी । सवारी के साथ जनता की भीड़ बेशुमार थी, जिधर देखो उधर ही स्त्रीपुरुषों का समूह नज़र आता था। सवारी का क्रम-सब के आगे नपीरियों का मनोहर बाजा था। उसके पीछे पुतलियों वाली महेन्द्र ध्वजा फरकाती हुई चल रही थी। उसके बाद एक गतका बाज़ी का कर्तव्य दिखाती हुई मंडली जारही थी । उसके पीछे मोटरों पर सजी हुई सोना चाँदी की पालकियों और रथों के साथ चलती हुई एक २ भजन मंडली अपने मनोहर भजनों द्वारा दर्शक जनता को मुग्ध कर रही थी और उनके साथ २ चलनेवाले वेंड भी अपनी नवीन वादन कला का खूब ही परिचय देरहे थे। सवारी की लम्बाई तकरीबन आधे माइल के थी। सवारी के दरम्यान में एक सुन्दर मोटर पर बड़ी सजधज के साथ विराजमान की हुई स्वर्गवासी गुरुमहाराज (श्री आत्मारामजी) की ऑइल पेंटिंग छबी थी वह दर्शकों के दिलों पर अपूर्व प्रभाव डाल रही थी। सबके पीछे भगवान् का जो गङ्गा जमनी ( सोने चाँदी का मिश्रित ) स्थ था उसके आगे ओसिया की सुप्रसिद्ध भजन मंडली अपना अद्भुत नाटकीय कर्तव्य दिखा रही थी तथा इस रथ के आगे लाहौर का सुप्रसिद्ध जो वेंड बज रहा था उसका मधुर नाद तो अभी तक कानों में Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܪ܇ ܕܕܕ܇܇܆܇ ܀ ܂ ४४२ आदर्श जीवन। www. wwwwwwwwwwww गूंज रहा है। अमृतसर, जंडयाला, होशयारपुर, पट्टी, कसूर, रोपड़ और अम्बालादि शहरों की भजन मंडलियों ने अपने उत्तमोत्तम भजनों द्वारा जनता को खूब ही आनन्दित किया। तथा ओसिया की भजन मंडली का अभिनय तो दर्शकों के लिये बिलकुल ही नई चीज़ थी। इसलिये जैन समाज की उसके साथ इतनी भीड़ थी कि कहीं २ पर तो उसके अभिनय के लिये स्थान बनाने में ही बड़ा हैरान होना पड़ा ताथा। इस भजन मंडली के दर्शन हम को बीकानेर निवासी श्रीमान् सेठ सुमेरमलजी सुराणा और उदयचन्दजी रामपुरिया की मेहरबानी से हुए तदर्थ हम उनके आभारी हैं। _प्रतिष्ठा-सोमवार का दिन बड़ा ही सौम्य और मंगलजनक था । उसरोज भगवान् श्रीशांतिनाथ को गद्दीपर विराज मान करने और परमपूज्य महाराज श्री वल्लभाविजयजी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने की शुभ क्रिया का सम्पादन बड़े ही समारोह से किया गया। लाहौर शहर में ये दो कार्य ऐसे हुए हैं जो कि वर्तमान जैन इतिहास में निस्सन्देह स्वर्णाक्षरोंसे अंकित करने योग्य हैं। - आवश्यक उपयागी क्रिया हो चुकने के बाद ठीक नौं बजकर पैंतीस मिनिट पर भगवान् बड़े ही उत्साह और समारोह के साथ गद्दी पर विराजमान किये गये । भगवानको गद्दीपर विराजमान करने और रथयात्रा की बोलियोंके तथा भेटके कुल मिलाकर १२५४० रुपयेकी मंदिरजी मैं आमदनी हुई थी। . Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४४३ www यह प्रतिष्ठा जैनाचार्च श्रीमद्विजयवल्लभ मूरि महाराज के पवित्र करकमलों से हुई। यह संघ के लिए उत्तरोत्तर पूर्णतया कल्याणकारी, मंगलकारी और अभ्युदयकारी होगी ऐसा हमारा (श्रीसंघ का) दृढ एवं अटल विश्वास है । शासनदेव से हमारी बार २ प्रार्थना है कि वे हमारे इस विश्वास में अणु मात्र भी फर्क न आने देवें । आचार्य पदवी प्रदान आचार्य पदवी को इससे बढ़कर और सौभाग्य क्या हो सकता है कि वह बहुत समय से जिस अनुरूप वर की प्राप्ति के लिये घोर तपस्या कर रही थी वह उसे मिल गया। उसकी आचाय पदवी की-दीर्घ कालीन तपश्चर्या ने अपना फल दिखाया तथा समस्त संघ के विनीताग्रह और बड़ों की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए आचार्य पदवी को विभूषित करने में महाराज श्रीवल्लभविजयजी ने भी जो उदारता दिखाई है तदर्थ आप श्री को अनेकानेक साधुवाद ! आपकी आचार्य पदवी का संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है। इन्कार · तपोगण गगन दिनमणि श्रीमद्विजयानन्द मूरि आत्मारामजी महाराज के स्वर्गवास होने के बाद, पंजाब श्री संघ की इच्छा, पूज्यपाद महाराज श्रीवल्लभविजयजी को ही, स्वर्गवासी गुरुमहाराज की इच्छा के अनुसार, उनके पट्ट पर विभूषित करने की थी; परन्तु महाराजश्रीने इस पर. अपनी सर्वथा अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि, मेरे सिर पर अभी Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ आदर्श जीवन। कई बड़े बैठे हैं, जो कि मेरे से कई गुणा अधिक इस पदवी के लिये योग्य हैं। अतः श्रीसंघ को उन्हीं महात्माओं में से किसी एक को इस पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिये । __ इस विचार विमर्श में महाराज श्रीकमलविजयजी आचार्य बनाये गये जो कि अभी विद्यमान हैं । परन्तु बहुत से वर्षों के बाद पंजाब श्रीसंघ अपने दीघ अनुभव द्वारा किसी और ही नतीजे पर पहुँचा । उस को अपनी आशालता सर्वथा मुझाई हुई प्रतीत होने लगी। वह समझने लगा कि अब पंजाब की डगमगाती हुई नौका का कर्णधार सिवाय महाराज श्रीवल्लभविजयजी के दूसरा नहीं हो सकता । इस विशाल क्षेत्र की अवनति को देखकर, सिवाय इनके और किसी के दिल में थोड़ा बहुत भी दर्द होता हो, ऐसा समझना भूल है। अब तो उसको यह पूर्ण विश्वास हो गया कि, जिस महापुरुष ने, पंजाब की इस वीर भूमि में, वीर निर्दिष्ट धर्म बीज को वपन करके अंकुरित और पल्लवित किया, उस महापुरुष का अंगुली निर्देश, जिस आदर्श गुरुभक्त पर था (वही वल्लभविजयजी) इस उछरते हुए धर्म पौदे के आलवाल-थाले-को जलसे परिपूर्ण करेगा और उसको, अपनी देखरेखमें रख, उसकी सेवाकर, फलायगा फुलायगा। इसी उद्देश्य से पंजाबके श्रीसंघने अनेक बार महाराज श्रीवल्लभविजयजी महाराजकी सेवामें, पंजाब के जैनशासन की बागडोर अपने हाथ में लेने की विनीत प्रार्थनाएँ की। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्दश जीवन। wwwwwwrror जिनमें सादड़ी ( मारवाड़ ) की अखिल भारतवर्षीय श्वेता-- म्बर जैन कानफ्रन्स के अधिवेशन और महाराजश्रीके होशयारपुर के प्रवेशोत्सव पर, पंजाब के समग्र जैन समाज की तरफ से की गई संमिलित प्रार्थनाएँ खास तौर पर उल्लेख करने योग्य हैं। इसी प्रकार कुछ समय बीत जाने पर पंजाब का सोया हुआ भाग जागा । गुरुभक्तिके आदर्श की जीती जागती मूर्ति, अपने चरण कमलों द्वारा बम्बई, गुजरात, काठियावाड़ मेवाड़, मारवाड़ और यू० पी० आदि देशों को पवित्र करती हुई १३-१४ वर्षों के बाद फिर पंजाब में पधारी । पधारते ही सबसे पहले उसका ध्यान समाज की विश्रृंखलता पर पहुँचा। उससे होने वाली भयंकर हानि पर विचार करते हुए समाज में संगठन पैदा करने की उसे नितान्त आवश्य कता प्रतीत हुई । तदर्थ श्रीआत्मानन्द जैन महासभा नाम की एक महती संस्था कायम की गई। वह आजतक कई सामा-- जिक सुधारोंमें अपनी सफलता का परिचय देचुकी है। . होशियारपुरका प्रवेश--विक्रम सम्वत् १९७८ फाल्गुन सुदी पञ्जमी को महाराज श्री का प्रथम प्रवेश होशियारपुर में हुआ। आप श्री का प्रवेश तो प्रथम अम्बाले में होना था परन्तु स्वर्गवासी लाला गुलाबराय गुज्जरमल की फर्म के मालिक लाला दौलतराम मुनिलाल जी आदि श्रीसंघ होशियारपुर के विशेष आग्रह और स्थानान्तरीय श्रीसंघ का उस Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ आदर्श जीवन । में अनुमोदन होने से अम्बाले की बजाय आपका प्रथम प्रवेश होशियारपुर में हुआ । आपके प्रवेश के समय श्रीसंघ पंजाब ने जैसा उत्साह दिखाया वैसा आपकी इस वक्त की आचार्य पदवी से पहले कभी नहीं देखा गया था। उसी उत्साह में विद्यालय के लिए एक लाख के करीब चंदा जमा हुआ और तीन लाख के करीब लिखा गया था। उस की व्यवस्था अभी तक ज़ेर तजवीज़ है । उस समय महाराज श्री की सेवा में समस्त श्रीसंघ की तरफ से एक मानपत्र पेश किया गया था और शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने की बड़े विनीत भाव से प्रार्थना की गई थी। इस से प्रथम सादड़ी (मारवाड़) की जैन कानफ्रन्स के समय भी आप से आचार्य पदवी के लिये अनुरोध किया गया था। परन्तु आपने इस वक्त भी श्रीसंघ को पूर्ववत् ही निराश किया। अब लाहौर की प्रतिष्ठा के समय फिर श्रीसंघ ने आपकी सेवा में उपस्थित हो कर उसी प्रार्थना को दोहराया । मगर आपको सम्मत होते न देख कर संघ ने, साधु शिरोमाण प्रवर्तक श्री कान्तिविजय जी महाराज, शान्तमूर्ति मुनिप्रवर श्रीहंसाविजय जी महाराज, आदर्श गुरुभक्त पंन्यास श्री सम्पद्विजय जी महाराज और परम वृद्ध साधु स्वभाव मुनि श्रीसुमतिविजयजी महाराज की पवित्र सेवा में, अपनी उक्त शुभेच्छा प्रदार्शत करते हुए प्रार्थना की कि, आप इस विषय में श्रीसंघ पंजाब की इमदाद करें। जिससे कि वह शीघ्र ही अपने शु- मनोरथ में सफलता प्राप्त Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४४७ कर सके । श्रीसंघ पंजाब को इस से बढ़कर और कोई खुशी नहीं हो सकती कि, उक्त मुनि महाराजों ने श्रीसंघ की उक्त प्रार्थना का आशा से बढ़कर स्वागत किया। तदर्थ श्रीसंघ आपका सदा के लिये कृतज्ञ रहेगा। अब तो संघ के पाओं में और भी बल आगया स्वामी जी महाराज तो यहाँ मौजूद ही थे, प्रवर्तक जी महाराज और श्रीहंसविजय जी आदि के तार पहुँच चुके थे इस लिए अब महाराज श्रीको इन्कार की गुंजाशय न रही । संघके मुखियों ने आपश्रीकी सेवा में, उपस्थित होकर, बड़े नम्र शब्दोंमें प्रार्थना की " श्रीसंघ पंजाबकी चिरन्तन आशालता को अब आप श्री अवश्य पल्लवित करें। स्वगवासी गुरु महाराज के बाद पंजाब के लिए आपश्री ने जो २ कष्ट सहन किये हैं उनमेंसे हम एक का भी बदला देने के लायक नहीं। आप हमारे विनय या अविनय पर कुछ भी ध्यान न देते हुए सिर्फ गुरु महाराज के " मेरे बाद तुम्हारी सार संभाल वल्लभ लेगा" इन वचनों का खयाल करके इस 'भार को अपने कंधों पर उठाने की कृपा करें।" समाज नेताओं के इन वचनों को सुनकर आप कुछ समय तो मौन रहे, फिर बोले:-" परन्तु मेरा बड़ों के साथ व्यवहार तो वैसा ही रहेगा जैसा कि प्रथम था और अभी है।" यह सुनकर संघ की खुशी का पार न रहा । बच्चे २ के दिल में उत्साह और हर्ष बाल्लयों उछलने लगा। बाहर से आये हुए लोगों के ठहरने के स्थानों में सूचना करा दी, गई कि कल Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ आदर्श जीवन । unnanor प्रात:काल ही ६ बजे पहले सब लोग मंडप में हाज़िर हो जावें, महाराज श्री को 'आचार्य पद' पर प्रतिष्ठित किया जायगा। सच हैभागती फिरती थी दुनिया, जब तलब करते थे हम । जब से नफरत हमने की, वह बेकरार आने को है ॥ (स्वामी रामतीर्थ) . आचार्य पद प्रतिष्ठा-सोमवार को प्रातःकाल ६ बजे से पहले ही स्त्री पुरुषों से सारा पंडाल खचाखच भर गया । मध्य में चाँदी का समवसरण स्थापित था जिसमें चारों तरफ विराजमान प्रभुमूर्तियाँ दर्शकों को, भावना वृद्धि द्वारा, कृतार्थ कर रही थीं। इस समय मंडप की शोभा कुछ अपूर्व ही थी जिस समय महाराज श्रीवल्लभाविजयजी वयोवृद्ध स्वामी श्री सुमतिविजयजी महाराजको साथ लिए हुए अपने शिष्य परिवार सहित मंडप में पधारे, उस समय उपस्थित जनता ने " भगवान महावीर स्वामी, स्वर्गवासी गुरु महाराज और आप श्रीकी जय" के बुलन्द नारों से आपका बड़े ही हर्ष के साथ स्वागत किया। इस समय लोगों के दिलों में जो अपूर्व उत्साह दिखाई देता था उसका वर्णन इस क्षुद्र लेखनी के सामर्थ्य से बाहिर है । हमारा यह विश्वास है कि यदि एक सप्ताह प्रथम आपकी आचाय पदवी सम्बन्धी विज्ञप्ति प्रकाशित हो जाती तो पंजाब का तो एक भी स्त्री पुरुष उस रोज़ ( आचार्य पदवी के रोज, घर में न रहता । सब के सब लाहौर में पहुँचते जा | Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRB पदवीप्रदान. Jain Education Intemational Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ४४९ mummymarAmAAAAAAAAAAAAM हाँतक बनता अन्य प्रान्तों से भी एक बड़ी संख्या में लोग उपस्थित होते । हमारे पास आज तक उपालम्भ के पत्र और तार आही रहे हैं। मगर लाचार, हमें स्वीकृति ही ऐन वक्त पर मिली, जिसके लिए सखेद हम उन अनुपस्थित सज्जनों से क्षमा माँगते हैं जो कि इस शुभ अवसर की प्राप्ति से वंचित रहे और इस शुभ अवसर की राह बहुत दिनों से देख रहे थे। चादर की बोली-सब से प्रथम महाराज श्री पर जो चादर ओढाने की थी उसकी बोली स्वनाम धन्य स्वर्गवासी लाला हीरालाल जीके सुपुत्र लाला माणिकचन्द जी मुन्हाणी लाहौर वालों ने ११०१ रुपये में ली, और उपाध्याय पदवी के लिये ओढाई जाने वाली चादर की बोली को ७०१ रुपये में स्वनाम धन्य स्वर्गवासी लाला ठाकुरदास जी खानगा डोंगरां वाले के सुपुत्र श्रीमान् लाला प्रभदयाल जी दुग्गड लाहार वालों ने लिया । मानपत्र प्रदान–चादरों की बोली हो चुकने के बाद समस्त श्री संघकी तरफ से आपश्रीको एक मानपत्र दिया गया जिसको कि उपस्थित चतुर्विध संघ के समक्ष पंडित हंसराजजी ने पढ़कर सुनाया वह अक्षरशः नीचे दिया जाता है: . नमः सत्योपदेशाय सर्वभूतहितैषिणे । वीतदोषाय वीराय विजयानन्दसूरये ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पूज्यपाद श्रीवल्लभविजयजी महाराज की पवित्र सेवा में । ४५० श्रीमन्तः ! हम समग्र पञ्जाब के जुदे २ शहरों, कसबों, और ग्रामों के निवासी जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक लोग आज इस पञ्जाब की राजधानी लाहौर शहर में एकत्र होकर समग्र पञ्जाब के जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ की हैसियत से आपश्रीको, स्वर्गवासी जैनाचार्य न्यायाम्भोनिधि श्रीमद्विजयानन्द सूरि उर्फ आत्माराम जी महाराज के पट्टपर आचार्यपद से विजयवल्लभ सूरि इस नाम के साथ प्रतिष्ठित करते हैं । योग्यता आपकी आयु इस वक्त ५४ सालकी है। दीक्षा लिये आपको आज ३७ वर्ष हुए। आप बाल ब्रह्मचारी हैं। आपका चरित्र निःसन्देह निरवद्य और पवित्रतम रहा है। ज्ञान की दृष्टिसे भी आपका स्थान बहुत ऊँचा है । स्वर्गवासी गुरु महाराज के पास से विद्या और अनुभव प्राप्त करने का आपको अच्छा अवसर मिला, आपने भक्तिपूर्वक गुरुचरणों में रहकर उस अवसर से लाभ भी पूरा उठाया । आपकी विनीतता, बुद्धिमत्ता और समय सूचक चातुरी से आकर्षित होकर गुरु महाराजने भी अपने सद्गुणों का मुख्य भाजन आपही को बनाया । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन ४५१ ~ n/ movie - सेवा विक्रम सम्वत् १९५३ में महाराज जी साहिब का जब स्वर्गवास हुआ तबसे पञ्जाब को सम्भालने का सारा भार आपके ऊपर आया, आपने हम पञ्जाब निवासियों के धार्मिक स्वत्वों का संरक्षण करते हुए समस्त जैन समाज की भी अमूल्य सेवा करने में कुछ बाकी नहीं रक्खा । यद्यपि आपकी जन्भूमि गुजरात देश है तथापि आपका अधिकतर जीवन पञ्जाब में ही बीता। आप जब गुजरात में गये तो वहाँ समय देख कर सामयिक शिक्षाकी ओर सबका ध्यान खींचा। जहाँ पर भी आप गये वहाँपर विद्याभिवृद्धि और धार्मिक शक्ति बढ़ाने की दृष्टि से ही आपने प्रयत्न किया। उसके फल स्वरूप श्री महावीर जैन विद्यालय आज बम्बई में मौजूद है। जहां रहकर हरसाल अनेक विद्यार्थी विद्याकी भिन्न २ शाखाओंमें उत्तीर्ण होते हुए धार्मिक शिक्षा भी प्राप्त करते हैं। यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं कि उक्त विद्यालय जैसी दूसरी संस्था जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में कहीं भी नहीं एवं पालनपुरका एक बोर्डिंग भी आपके शुभ प्रयत्न की साक्षी देरहा है, फिर मारवाड़ जैसे विकट प्रदेश में भी आपने विद्या के लिये अथक परिश्रम किया। ___ आफ् काठियावाड़ आदिमें १३ वर्ष तक भ्रमण करके हमारे सौभाग्यसे फिर पंजाब में पधारे । आप जब से इधर पधारे Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ आदर्श जीवन। ह तबसे हम लोगोंकी धार्मिक और समाजिक उन्नति के लिये निरंतर प्रयास कर रहे हैं तदर्थ हम आपके कृतज्ञ एवं ऋणी हैं। सम्मति यद्यपि अमली तौर से आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करनेका सौभाग्य हम को आज ही प्राप्त होता है; परन्तु हमारे हृदय पट पर तो आप उसी दिन से आचार्यरूप से विराजित हैं जिस दिन कि स्वर्गवासी गुरुमहाराजने पञ्जाब श्रीसंघ के मुखियों से यह कहा था कि पंजाब का भार हमारे बाद में वल्लभ उठायगा उन मुखियों में से स्वनाम धन्य लाला गंगारामजी जैसे आज भी कई एक वृद्ध पुरुष यहां पर मौजूद हैं जो गुरुमहाराज की सम्मति को प्रत्यक्ष रूप से कार्य में परिणत होते देख अपने को कृतकृत्य मान रहे हैं। - अनिच्छा और उदारता - गुरु महाराज के स्वर्गगमन के बाद पंजाब के श्रीसंघ ने आपको ही उनके पद पर प्रतिष्ठित करनेका निश्चय किया लेकिन आपने इस पर अपनी सर्वथा अनिच्छा प्रकट करते हुए यह उदारता भी दिखाई कि मुझ से जो बड़े इस वक्त मौजूद हैं उनमें से ही किसी को इस पद पर नियुक्त किया जावे । तदनुसार श्री कमलविजयजी महाराज आचार्य बनाये गये जो कि अभी विद्यमान हैं। यद्यपि आचार्य श्री कमलविजय मूरि जी गुण और चारित्र की दृष्टि से सारे जैन समाज में Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ४५३ mm संमानित हैं तथापि वृद्धावस्था के कारण विहार की अशक्ति, गुजरात और पंजाब का बृहदन्तर इन दो कारणों से पंजाब का खास बोझ उठाने में सर्वथा असमर्थ हैं। प्रसंग और स्थान • आपका वयापर्याय, दीक्षापर्याय और ज्ञानपर्याय ये तीन तो यथेष्ठ हैं ही लेकिन आपकी धर्म विद्या और समाज सेवा भी किसी अंश में कम नहीं, इसी लिये इस शुभ अवसर पर आपश्री को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करनेका हमने संमिलित रूप से निश्चय किया है। क्योंकि इस पूर्ण उत्तरदायित्व पद के योग्य इस समय हम आप ही को पाते हैं। आज तकरीबन् ४०० वर्ष के बाद इस लाहौर शहरमें फिर मंदिर प्रतिष्ठाका सुअवसर प्राप्त होता है तथा इसी शहरमें श्रीजिन सिंह और भानुचन्द्र क्रमशः आचार्य और उपाध्याय पदवी से विभूषित हुए थे। ऐसे ऐतिहासिक स्थान में आज हम सब लोग उन्हीं दो कामों [प्रतिष्ठ और आचार्यपद] की पुनरावृत्ति करने का सौभाग्य हासिल कर रहे हैं यह कुछ कम हर्ष की बात नहीं। ___ आज यहां पर केवल पंजाब का श्रीसंघ ही उपस्थित नहीं बल्कि काठियावाड़ गुजरात और मारवाड़ के संभावित बड़े २ गृहस्थ भी उपस्थित हैं। जिनमें दानवीर सेठ मोतीलाल मूलजी बम्बई-राधनपुर। सेठ गोविन्दजी वैरावल-( काठियावाड़) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ आदर्श जीवन। धर्मप्रिय सेठ सुमेरमल जी सुराणा बीकानेर और सेठ पूंजलाल सातभाई वगैरह ( अहमदाबाद ) आदि सद्गृहस्थों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। हम को यह कहते हुए और भी आनन्द होता है कि हमारे इस शुभ इरादे-आचार्यपद देने को मुनि श्रीसुमतिविजयजी, साधु शिरोमणि प्रवर्तक श्री कांतिविजय जी और शान्तमूर्ति मुनि प्रवर श्री हंस विजयजी महाराज ने भी अपनी समुचित अनुमति द्वारा अपनाकर परिपुष्ट किया है । अतः हमारी आपके चरणों में बड़े विनीत भावसे प्रार्थना है कि आप इस आचार्य पदको सुशोभित करें। ____ आपके हाथों से देशकालोचित प्रभावना जनक अनेक कार्य हों और शासन की विजयपताका उत्तरोत्तर अधिक फहरावे. यही हमारी शासनदेव से बार २ प्रार्थना है। विनीतपंचनदीय, जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक वीर सं० २४५१. आत्म० सं० २९. विक्रम सं० १९८१ मार्गशीर्ष शु० ५ चन्द्रवार. समस्त श्रीसंघ, स्थान-लाहौर. ) इस मान पत्रको पढ़ चुने के बाद उपस्थित चतुर्विध संघ को सम्बोधित करते हुए पंडित जी ने कहा कि,-" इस समय संक्षेप से दो बातें आप से मुझे जरूर निवेदन करनी हैं । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । प्रथम-जो चादर इस वक्त श्रीसंघ की तरफ से महाराज श्री पर ओढाई जाने वाली है वह कपड़े के लिहाज़ से तो अत्यन्त विशुद्ध एवं पवित्रतम है ही; परन्तु इस चादर में एक और विशेषता है, इसका मूत मेरे पूज्य पितृकल्प पंडित हीरालाल जी शर्मा ने अपने हाथ से काता है और इस पर सैकड़ोंही नहीं बल्कि हज़ारों ही "उपसग्गहर" तथा 'नव स्मरण' के पाठ हुए हैं (हर्षध्वनि) द्वितीय-जिस समय महाराज श्री की दीक्षा राधनपुर में हुई थी उस समय हमारे, जैन समाज के नेता दानवीर सेठ मोतीलाल मूलजी वहाँ पर मौजूद थे, उस वक्त दीक्षा का सब प्रबन्ध आप के हाथ से हुआ था और आज जब कि आप श्री को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है तब भी सेठ साहिब यहाँ पर आप लोगों के समक्ष विद्यमान हैं। इससे इनकी पुण्य श्री के अतिरेक का अन्दाजा आप लोग बखूबी लगा सकते हैं। "* महाराजश्रीके कीमती वचन-पंडित जी के बोल चुकने के बाद महाराज श्री उठे और आप ने फरमायाः * बडे दुःखसे कहना पडता है कि धर्मपरायण दानवीर सेठ मोतीलाल मूलजी इस वक्त संसार में नहीं हैं । लाहौरसे आते ही कुछ दिन बाद बम्बई में उनका देहान्त हो गया । ऐसे उदारचेता धर्मात्मा पुरुष का जैन समाजमें से सदा के लिये विछुड जाना बडे ही दुःख की बात है। पंजाब में आपका यह प्रथम आगमन सदा और सबके लिये अंतिम हो गया । समस्त भारतवर्षके जैन समाजको आपके विनयोगका दुःख है। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ आदर्श जीवन । " उपस्थित चतुर्विध संघ मुझे जिस गुरुतर पद पर प्रतिष्ठित कर रहा है उसकी जिम्मेदारी को मैं जानता हूँ। उस पद के अनुरूप मेरे में योग्यता कितनी है इसका भी मुझे पूरा ख्याल है। मैं यह भी अच्छी तरह से जानता हूँ कि मेरे से वयोवृद्ध, दीक्षावृद्ध और ज्ञानवृद्ध, मेरे देश के मेरे शहर के मेरे परम उपकारी-जिनका उपकार मेरी नस २ में समाया हुआ है-प्रवर्तक श्रीकान्तिविजय जी महाराज, शान्तमूर्ति श्रीहंसविजय जी महाराज, तथा अनन्य गुरु भक्त पंन्यास श्री सम्पद्विजय जी महाराज और मेरे पास में विराजमान परम वृद्ध स्वामी श्रीसुमतिविजयजी महाराज मेरे सिरताज मुनिराज मेरे सिर पर अभी विद्यमान हैं; तथापि श्रीसंघ का विशेष आग्रह और उक्त महापुरुषों का अनुरोध एवं विशिष्ट कृपा तथा विशेष कर स्वर्गवासी गुरु महाराज के वचन का पालन इस गुरुतर भार को उठाने के लिये मुझे विवश कर रहा है। जिस के लिये मैं लाचार हूँ। स्वर्गवासी गुरु महाराज पंजाब के थे। उन्हों ने इस वीर भूमि पंजाब में वीर परमात्मा के निर्दिष्ट किये हुए धर्मवीज को आरोपित, अंकुरित और पल्लवित करने में जो२ असह्य कष्ट सहे हैं वे सब मेरे हृदयपट पर पूरे तौर से अंकित हैं । मैंने इसी उद्देश्य से अपने शिष्य वर्ग में से, सोहनविजय, ललितविजय, उमंगविजय और विद्याविजय इन चार को पंन्यास बनाया; क्योंकि वे चारों ही पंजाबी हैं और गुरुभक्ति में ये चारों ही एक से एक बढ़ कर हैं। इन चारों ही गुरुभक्तों को मैं अपनी चार भुजाएँ समझता हूँ। इन चारों को आज से इस बात को अपने Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४५७ हृदय पट पर लिख लेना चाहिये कि गुजरात देश में जन्म लेने पर भी हमारे गुरु ने स्वर्गवासी गुरुमहाराज के लगाये हुए धर्म वृक्ष को सुरक्षित रखने का बीडा उठाया है तो हमारा यह सब से प्रथम कर्तव्य होगा कि हम अपने जीवन में पंजाब को कभी न भूलेंगे। शिष्य का धर्म है कि वह गुरु का सर्वथा अनुगामी हो । इसके सिवाय एक बात और है । आप लोग मुझे आचार्य 'पदवी दे रहे हैं। मैंने उसे जिन हेतुओं से स्वीकार किया उनका मैं दिग्दर्शन करा चुका हूँ। यदि यह सब कुछ ठीक है तो मैं आपसे कहता हूँ कि इस आचार्य पदवी के साथ ही पंन्यास सोहनविजय को उपाध्याय पदवी दी जावे । यद्यपि मेरे शिष्य वर्ग में इस समय उक्त पदवी के योग्य ललितविजय है। वह इससे (सोहनविजय से ) दीक्षा में बड़ा और ज्ञानसे अधिक है। परन्तु पंन्यास पदवी प्रथम इसकी हुई है । यदि पंन्यास ललितविजय यहाँ पर मौजूद होता तो निस्सन्देह यह पदवी उसी को दी जाती; मगर यह भी इस पदवी के योग्य ही है और पंजाब के ऊपर इसका ममत्व सबसे बढ़कर है । इस लिये उक्त पदवी मैं इसी को देनी उचित समझता हूँ। मैंने स्वामी जी महाराज तथा यहाँ पर उपस्थित अन्य साधुओं से भी इस बारे में परामर्श कर लिया है। क्या आप सब को यह बात मंजूर है ?" आपके इस कथन का समस्त संघ ने एक आवाज़ से . Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । समर्थन किया । इसके अनन्तर पंन्यास श्री सोहनविजय जी को मुखातिब करके, महाराज श्री ने फरमायाः “ तुम को इस वक्त श्री संघ की तरफ से जिस पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है उस की गुरुता का तुम को अब पूरा ख्याल रखना होगा । तुम्हारे स्वभाव में कुछ उतावलापन है इस उतावले पन की जगह अब तुम्हें अपने हृदय में गम्भीरता को स्थान देना चाहिए । जो कुछ भी करना समझ सोच कर करना जो कि परिणाम में शुभ फल का देने वाला हो । तथा आज से लेकर अपने को एक बात का खास ख्याल रखना होगा । कोई भी नया काम करना हो तो अपने सिर पर जो बड़े हैं- ( प्रवर्तक जी महाराज, श्री हंसविजय जी महाराज, पंन्यास श्री सम्पद्विजय जी महाराज और स्वामी श्री सुमति विजय जी महाराज आदि मुनिराज ) उनकी सम्मति के बगैर नहीं करना तथा अपने से छोटे साधुओं की भी सलाह लेना जरूरी है । तात्पर्य यह कि जो कुछ भी करना सम्मति से करना । इसी में श्रेय है ! यह बात खास लक्ष्य में रखनी चाहिए कि कोई भी पुरुष सेवक हुए बिना सेव्य नहीं "" ४५८ बन सकता । आचार्य पद की क्रिया - इसके बाद शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आचार्य पद की जो आवश्यक क्रिया थी वह की गई और ठीक साढ़े सात बजे महाराज श्री को आचार्य पदवी की और साथ ही पंन्यास श्री सोहनविजय जी पर उपाध्याय - Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन पदवी की चादर ओढ़ाई गई । अनन्तर समवसरण की प्रदक्षिणा करते हुए आचार्य श्री पर और उपाध्याय जी पर चारों ओर से वासक्षेप मिश्रित चावलों की खूब ही दृष्टि हुई और जयकारों तथा बैंड बाजों की तुमुल ध्वनि के साथ यह शुभ क्रिया समाप्त हुई । आपकी इस आचार्य पदवी के समय तकरीबन ७४, ७५ शहरों के लोग उपस्थित थे, उन सब की लिस्ट परिशिष्ट में दर्ज है । तथा पंजाब के अतिरिक्त अन्य प्रान्तों के भी बहुत से सद्गृहस्थ इस समय हाज़िर थे। उन में दानवीर सेठ मोतीलाल मूलजी जे. पी. (बम्बई - राधनपुर), सेठ गोविन्द जी खुसाल ( वेरावल - काठियावाड़), सेठ नवीनचन्द हेमचन्द (मांगरोल ), धर्म मूर्ति सेठ सुमेरमल जी सुराणा, सेठ उदयचन्द जी रामपुरिया (बीकानेर), सेठ पूंजाभाई - छगनलाल - कालीदास सात भाईया ( अहमदाबाद ), श्रीयुत मगनलाल हरजीवनदास (भावनगर), बाबू टीकमचन्द जौहरी ( देहली ) बाबू चंद्रसेन ( बिनौली ) और लाला उमरावसिंह खिवाई (मेरठ) आदि सद्गृहस्थों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । तथा महाराज श्री के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने की खुशी में सेठ मोतीलाल मूलजी की तरफ से एक साधर्मिवात्सल्य हुआ । बोलियाँ — इस प्रकार उत्साह पूर्वक आचार्य पदवी का कार्य सम्पूर्ण होने के बाद भगवान् को गद्दी पर विराजमान ६५३ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । करने की बोलियाँ होने लगीं। इन बोलियों के बोलने में यद्यपि यथाशक्ति सभी ने अपना पूर्ण उत्साह बतलाया था तथापि गुजराँवाला श्री संघ का उत्साह कुछ विशेष देखने में आया । इसी अवसर पर लाहौर निवासी बाबू मोतीलाल जी जौहरी ने एक सोने की जड़ाऊ कंठी मूलनायक श्री शांतिनाथ जी के भेट की । ४६० बोलियों का कार्य समाप्त हो चुकने के बाद जैनधर्म भूषण आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी महाराज श्री मंदिर जी में पधारे और ठीक नौ बजकर पैंतीस मिनट पर भगवान् श्री शांतिनाथ गद्दी पर विराजमान किये गये । शुभ क्रिया उक्त श्रीके पवित्र करकमलों से सम्पादित हुई । भजन व्याख्यान और इनाम । । सोमवार की रात्रि को पंडाल में एक महती सभा हुई । सभापति का आसन दानवीर सेठ मोतीलाल सूलजी ने ग्रहण किया । जुदा २ भजन मंडलियों के भजन होने के बाद पंडित हंसराज जी शास्त्री का सामाजिक विषय पर एक छोटा सा भाषण हुआ । इसके अनन्तर मंदिर के पुजारियों तथा अन्य कर्मचारियों को सभापति के हाथ से इनाम दिलाया गया। बाद में ओसिया की भजन मंडली ने शिक्षापूर्ण एक अभिनय किया और कुछ अन्य भजनों के बाद सभा विसर्जन हुई । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । आचार्य श्री का उपदेश। आज पूर्णाहुती का दिन है परन्तु खुशी की बात तो यह है कि आज के दिन भी मंगल है । और सैठ साहिब के साधर्मिवात्सल्य ने तो इस मंगल को और भी मंगलमय बना दिया ! लोग जाना चाहते थे लेकिन इसी कारण से उन्हें रुकना पड़ा। ठीक आठ बजे के करीब आचार्य श्री विजयवल्लभ मूरि जी महाराज सभामें पधारे और अनुमान दो घण्टे तक आपने बडा ही शिक्षापूर्ण उपदेश दिया । आपने पंजाब निवासियों की कन्दमूल भक्षण की तरफ बढ़ी हुई अभिरुचि की आलोचना करते हुए केशी स्वामी और गौतमगणधर के प्रसंग में, साधुओं को वस्त्र किस प्रकार के और कितने मूल्य के रखने चाहिएँ यह बतलाकर आधाकर्मी आहार के विषय में बहुत कुछ मनन करने लायक बातें कहीं। इस उपदेश के दरम्यान में ही प्रसंगवश आपने कहा कि आप लोग सिद्ध क्षेत्रपालीणा की यात्रा करने के लिये जाते हैं । वहाँ स्टेशन के नजदीक ही अपनी एक श्री यशोविजय जैन गुरुकुल नाम की संस्था है और जैनबालाश्रम नाम की एक संस्था शहर में है। क्या आपने कभी इसको देखा है ? यदि न देखा हो तो आज से याद रखें कि जब कभी भी पालीताणे में जायँ इन संस्थाओ के दर्शन किये बिना नहीं आवें । यहाँ पर Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ आदर्श जीवन। आज चार रोज से श्री यशोविजय जैन गुरुकुल की तरफ से दो आदमी चन्दे के लिये आये हुए हैं। यदि यह लोग आने से पहले खबर देते तो मैं इनको तुरन्त ही जवाब लिखा देता । इन लोगों का चन्देके निमित्त यहाँ पर आना समुद्र का छपडियों से जल मांगने आने समान है। परन्तु यह लोग यहाँ पर आकर खाली चले जावें इस में भी शोभा नहीं । इस लिये ये लोग जिस ग्राम में आवें वहाँ इनकी यथाशक्ति मदद करनी योग्य है। ___ इसके सिवाय एक और बात की तरफ आपका ध्यान खींचता हूँ कि सिद्धक्षेत्र पालीताणा में पहाड़ पर भगवान ऋषभदेव के चरणों के नजदीक ही अपने परम उपकारी स्वर्गवासी गुरुमहाराज की एक मूर्ति विराजमान है । उस जगह पर जो कुछ भी काम हुआ है वह कितना रमणीय और शोभास्पद है वह तो आप में से जिन लोगों ने वहाँ जाकर दर्शन किये हैं उनको मालूम ही है । उसकी सुन्दरता के बनाने में जो कुछ भी द्रव्य लगा है उस में पंजाब निवासियों के सिवाय और किसी का एक पैसा नहीं, यदि चाहते तो गुजरात, काठियावाड़ और मारवाड़ आदि देश का कोई एक ही सदगृहस्थ इतना काम बनवा सकता था; परन्तु पंजाब पर जो उनका खास उपकार हुआ है उसकी स्मृति कायम रखने के लिये ही ऐसा नहीं किया गया । मगर अपने घर का काम काज छोड़कर, अपने वक्त का भोग देकर Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । केवल गुरुभक्ति के निमित्त अपनी पूरी देखरेख में, जिन सज्जन ने इस कामको कराया है उन विनति गुरुभक्त को धन्यवाद देने में पंजाब श्री संघ को अवश्य आगे आना चाहिये । वे सज्जन श्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर के मंत्री हैं और श्रीयुत वल्लभदास त्रिभुवनदास गाँधी उनका नाम है । " ( इस पर होशियारपुर निवासी लाला गोरामल के सुपुत्र लाला अमरनाथ ने कहा- “ श्री आत्मानन्द जैन महा सभा पंजाब की तरफ से उनको एक स्वर्णपदक दिया जावे और उसपर जो खर्च होगा सो मैं अपने पास से दूँगा ।' इसका उपस्थित सभी अन्य सज्जनों ने समर्थन किया । ) इसके बाद आपने स्त्रीवर्ग को सम्बोधित करके कहा :- " मैं इस वक्त आप से भी दो बातें कहूँगा । प्रथम- आप हाथ का जेवर - जो रत्नचौक या हाथ की मैंहदी के नाम से पुकारा जाता है- आगे को नया न बनवावें । मुनासिब तो यह है कि पहला बना हुआ भी न पहनें। इसके पहनने से एक तो हाथ सर्वथा काम करने से रुक जाता है और दूसरे चोर बदमाश को इसके खोसने में कुछ परिश्रम नहीं उठाना पड़ता । इस लिये ऐसे जेवर का न पहनना ही अच्छा है । द्वितीय - कपड़े पर १० तोले से अधिक गोटा न लगवावें और सलमे सितारे को तो छोड़ ही देना चाहिए। इन दोनों बातों की निस्बत महा सभा के दफ्तर से सब शहरों में पत्र आवेंगे जिस किसी माता या बहन को ये बातें पसन्द आयें वह अपना नाम वहाँ ४६३ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आदर्श जीवन । लिखा देवे ।" और भी कई उपयोगी कामों की तरफ सभासदों का ध्यान खींचते हुए उपदेश के साथ ही आपने सभा को विसर्जित किया। आभार और उपसंहार लाहौर में होने वाली प्रतिष्ठा और आचार्य पदवी का संक्षिप्त विवर्ण हमने पाठकों की सेवा में उपस्थित कर दिया। इतने बडे कार्य की सम्पादनता में हमें जो सफलता प्राप्त हुई है वह सब स्वर्गवासी गुरु महाराज की कृपा और यहां पर विराजमान साधु मुनिराजों का अनुग्रह तथा बाहर से आने वाले साधर्मि बन्धुओं की मेहरबानी का नतीजा है। सब से प्रथम हम स्वामि श्री सुमतिविजय जी महाराज को धन्यवाद देते हैं कि जिन्हों ने हमें हरएक प्रकार से प्रोत्साहित किया। तथा श्री देव श्री जी आदि सतियों के भी हम कृतज्ञ हैं कि हमारे इस उत्सवमें जंडयाला से विहार करके पधारी। पंजाबके अतिरिक्त बम्बई आदि प्रान्तों से आनेवाले धर्मबन्धुओंके हम विशेष आभारी हैं कि जिन्हों ने इतनी दूर से आकर हमारे उत्सव की शोभा को बढ़ाया। विशेष कर लाहौर तथा स्यालकोट के परम्परा वाले स्थानिक वासी भाइयों को तो जितना धन्यवाद दिया जाय उतना कम है । इस मौके पर उन्हों ने हमारी आशा से बढ़कर मदद की है। और साथ में हम अपने यहां के दिगम्बरी भाइयों की इमदाद के भी बहुत २ मशकूर हैं, तथा राजा ध्यान Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। AAAAAAAAAAAAA. सिंह की हवेली के मैनेजर ठाकुर कंधारासिंह जी साहिब और राय साहिब लाला रघुनाथसहाय हैड मास्टर द्यालसिंह हाई स्कूल तथा राय साहिब लाला दीनानाथ की धर्मपत्नी आदि सदगृहस्थों का भी हम अत्यन्त आभार मानते हैं कि जिन्हों ने हमको मंडप और रिहायश का मकान देकर हमारे उत्सव को पूर्ण सहायता दी । अन्त में शासनदेव से प्रार्थना है कि संघ में सदा शान्ति रहे । _. आचार्यपद हो जाने के बाद सैकडों तार और चिट्ठियाँ मुबारिक वादीके आपके पास आये-उनमेंसे अनेक साधुओंके हैं और अनेक श्रावकोंके हैं । चिहियोंको यहाँ उद्धृत करते हैं, तार परिशिष्टमें दिये गये हैं । साधुओंमें अनेक आत्मारामजी महाराजके संघाड़ेके हैं और अनेक दूसरे संघाड़ेके भी हैं । मुनि महाराजाओंके अभिनंदनपत्र । जामनगरस्थ मु० मंडल त० श्री लाहोर श्रीयुत वि० व० सू० जी उ० सोह० वि० जी सप० यथा० साथ मा० हो । आपका पत्र तथा श्रीसंघका तार आनंद पूर्ण मिला है। पढकर आनंदमें वृद्धि हुई है । गुरुमहाराजकी कृपासे सारा कार्य आनंद पूर्वक समाप्त हुआ यह खुशी की बात है। आपको जिस धर्म क्षेत्र में श्री १००८ गुरु महाराज की तरफ से विद्या और विनय शीलता आदि सगुणों की प्राप्ति Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। mmmmmmmmmmmine हुई उसी क्षेत्र में श्री संघने आपको गुरु महाराज के पट्ट पर अभिषिक्त किया यह आपके लिये बड़े गौरव की बात है। अब आप की और श्री संघ की इसी में शोभा है कि आप गुरु महाराज के कदमों पर चलते हुए शासन की शोभा में उत्तरोत्तर वृद्धि करें । श्री जी महाराज धर्म चर्चा के समय अपने वचनामृत से धर्माभिलाषियों की भावनाओं को पूर्णतया भरपूर करते हुए कहा करते थे कि,-संसार ताप से अत्यन्त तपे हुए जीवों को वीर परमात्मा की अमृतमयी वाणी सुना कर शान्त करने का सतत प्रयत्न करते रहना यही हमारा सच्चा धर्म धन है । यदुक्तम् शास्त्रं बोधाय दानाय धनं धर्माय जीवितम् । वपुः परोपकाराय धारयन्ति मनीषिणः ॥ १॥ वाद विवाद के समय कई एक कम समझ कटुक रवभाव रखने वाले मनुष्य निष्कपट या सत्य कहने पर भी गर्म हो पड़ते थे; परंतु आप तो सदा शान्त और प्रसन्न वदन ही रहते थे। विपक्षी लोग कितने ही गर्म हों मगर आप तो सदा शान्ति से ही उत्तर दिया करते और अपनी शान्त गम्भीर मुद्रा में विकृति का अणु मात्र भी प्रवेश नहीं होने देते थे। इस पर आप श्री से कभी पूछा गया तो आपने यही उत्तर दिया कि सुजनो न याति विकृतिं परहितनिरतो विनाशकालेपि । छेदे हि चन्दनतरु सुरभयति मुखं कुठारस्य ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन - अज्ञ लोक एक प्रकार के बालक होते हैं। जैसे कोई रोग अस्त हठी बालक ओषधि पीने से इनकार करता है और उत्तम वैद्य अपने मधुर वचनों द्वारा उसे समझाबुझा कर ओषधि पिला देता है और वह रोग से मुक्त होजाता है, इसी प्रकार साधु महात्माओं का फजे है कि वे पास में आये हुए अबोध से अबोध मनुष्य को भी किसी न किसी प्रकार से सद्बोधामृत पिला कर सुबोध करने का प्रयत्न करें। व्याख्यान देते समय क्रोध बिलकुल नहीं करना। क्रोध से विचार शक्ति नष्ट होजाती है। सरल से सरल प्रश्न का भी उत्तर देते नहीं बनता । क्रोध जैसा भयंकर विष और कोई नहीं। यदुक्तम् द्रुमोद्भवं हन्ति विषं नहि द्रुमं, नवा भुजंगप्रभवंसुनंगम् । अदः समुत्पत्तिपदं दहत्यहो हंहोल्वण क्रोधहलाहलं पुनः ॥ उपदेश देते समय साधु यदि क्रोध के वशीभूत हो जाय तो वक्ता श्रोता दोनों को ही कर्म का बन्ध होता है। इसलिये साधु पुरुष को प्राणिमात्र से मैत्री रखनी चाहिये और उसकी भाषा बड़ी ही शान्त एवं मधुर हो । शेख सादी एक जगह फरमाते हैं दिलागर तवाजे कुनी अखतियार शवद खलक दुनिया तुरा दोस्तदार ।। ___ साधु पुरुषों के द्वारा प्रेम भाव से उपदेश मिलने पर धर्मान्वेषक जिज्ञासु लोग अवश्य धर्म में दृढ़ होते हैं और धर्म के रासिक बनते हैं। वीतरागदेव के प्रपौत्र मुनि महाराज, पाट पर Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ आदर्श जीवन । बैठ कर वीतरागदेव के समाधि मार्ग का उपदेश करें और श्रोता गण उस उपदेशामृत से अपने आत्मा में शान्त भाव को प्राप्त करें इसी में सार है। सांसारिक कार्यों में व्यग्रता को प्राप्त हुए मनुष्य कुछ समय शान्ति प्राप्त करने के लिये ही साधु मुनिराजों के पास उपदेशामृत का पान करने के वास्ते आते हैं, न कि. इधर उधर की व्यर्थ बातों के सुनने और अपनी व्यग्रता को बढ़ाने के लिये उनका आगमन होता है। पाट पर बैठ कर व्याख्यान वाँचने वाले को किसी राज्य की तर्फ से किसी तरह की अमलदारी नहीं मिली हुई । उसको तो इस स्थान से मात्र लघुता रूप सद्गुण की अनुपम शिक्षा ग्रहण करने की है, इसलिये पाट पर बैठने से पहले, मैं कौन हूँ, किस के पाट पर बैठता हूँ और आगे को मेरे लिये क्या २ कर्त्तव्य है इत्यादि बातों का अवश्य विचार कर लेना चाहिये। तथा व्याख्यान दाता को इतना और भी ख्याल रखना चाहिये कि व्याख्यान में इस प्रकार के विषय की चर्चा हो जिससे कि सुनने वालों को कुछ न कुछ सद्धोध और शान्त रस की प्राप्ति हो। साधु पुरुषों के कथन और आचरण का उपयोग मात्र धर्माभिवृद्धि के लिये है। इसके विपरीत बन्धुओं के पारस्परिक क्लेश, और परस्पर की ईर्षा आदि बीभत्स कार्यों के लिये साधु पुरुषों को अपने उच्चार और विचार का कदापि उपयोग नहीं करना चाहिये । इस वास्ते महात्मा पुरुष अलग रहते हुए भी सब से मिले हुए और सब से मिलते हुए भी सब से अलग हैं। एक Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। उर्दू कवि ने इस भाव को बहुत अच्छी तरह से व्यक्त किया है। अलग हम सब से रहते हैं मिसाले तार तम्बूरा । जरा छेड़े से मिलते हैं मिला ले जिसका जी चाहे ॥ साधु महाराज की मुख मुद्रा को देखते ही उसकी गम्भीरता और शान्तता का प्रभाव यदि श्रोताओं पर पड़े तभी वे शान्त भाव से साधु मुनिराज के उपदेशामृत को भली भाँति 'पान कर सकते हैं । कहा भी है चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा । चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये, शीतलः साधु संगमः ॥ इस लिये साधु पुरुषों को सदा शान्त भाव में ही रमण करना चाहिये । परोपकार साधुओं का एक विशिष्ट गुण है । यदि कोई प्रतिपक्षी कष्ट भी दे तब भी साधु पुरुषों को तो दीपक की तरह उसके अज्ञानान्धकार को कष्ट सह कर भी दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। अपने को जलाकर और को रोशन करना । यह तमाशा हमने फकत चिराग में देखा ॥ 'परोपकार के कार्य में कष्टों के उपस्थित होने पर भाग जाना 'परोपकारी का काम नहीं । ऐसा कोई समय नहीं था और न होगा जब कि सारा संसार एक ही रंग में रंगा हुआ नज़र आवे । सभी लोग अवगुणान्वेषी और सभी गुणग्राही नहीं होते। संसार में यदि गुणग्राही लोग हैं तो अवगुण देखने वालों की भी कमी नहीं; परन्तु परोपकारी पुरुष इन बातों की कुछ भी Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । परवाह नहीं करते । वे कष्टों के पहाड़ों को चीरते हुए अपने ध्येय स्थान पर पहुँचकर ही बस करते हैं । कष्ट सहन किये बिना कुछ नहीं बनता, पुराने उदाहरणों को छोड़िये एक ताजा ही उदाहरण लीजिये__ श्री १००८ गुरु महाराज साहिब ने जितने कष्ट सहे हैं उनकी गणना करनी कठिन है । यदि वे इस कदर कष्टों को न सहते और दृढता पूर्वक उनका मुकाबिला न करते तो आज जो कुछ धर्म प्रभावना दृष्टि गोचर हो रही है यह कभी देखनी नसीब न होती । महाराज श्री अपने पूर्व कष्टों का कभी ज़िकर करते तो सुनकर आँखों में आँसू भर आते । इस लिये मात्र मानी हुई बड़ाई काम नहीं आती, किन्तु आचार में आया हुआ बड़प्पन ही काम की चीज़ है । विचार कर देखा जाय तो जितने भी महन्त आज तक हुए हैं वे सुख की शय्या पर सोते हुए नहीं किन्तु अनेक विध कष्टों की कंटीली शय्या पर तपस्या करने से हुए हैं । महत्व प्राप्त करना कुछ मामूली सी बात नहीं। __इसके अलावा नायक बने, इस से यह कदापि समझने का नहीं कि हमारे आश्रय तले रहा हुआ अन्य साधुवर्गमात्र हमारी हाँजी के लिये ही है, किन्तु छोटे साधु जो हैं वे बड़ों के संयम पालने में और शासन की शोभा वृद्धि में कई प्रकार से मददगार हैं ऐसा विचार करने का है। मयूर अपने छोटे बड़े अनेक प्रकार के पिच्छसमूह से ही शोभा देता है। छोटे Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ४७१ बड़ों के सहारे अपने संयम का पालन करते हैं और बड़े अपने दीर्घ कालीन विशिष्ट अनुभव द्वारा समय २ पर उनको समुचित्त शिक्षण देते हुए उन से संयम पलाते हैं । इस प्रकार परस्पर के प्रेम भाव से ही शासन शोभा और धर्माभिवृद्धि में प्रगति होती है । महत्व की शोभा केवल लघुत्व पर ही अवलम्बित है। नमन्ति सफला वृक्षा नमन्ति सज्जना जनाः । - आप जानते हैं कि यह समय कुसंप के बढ़ाने का नहीं किन्तु जहाँ तक होसके उसको कम करने का है। परम पूज्य महाराज जब विद्यमान थे तब वे साधुओं और श्रावकों के साथ कितना प्रेम रखते थे, तथा साधुओं और श्रावकों में परस्पर कितना प्रगाढ़ प्रेम था उसका स्मरण आते ही आजकल की दशा पर अश्रुपात हुए बिना नहीं रहता । वे महा पुरुष एक ही थे परन्तु उनके समय में जो २ काम हुए हैं उनका तो आज स्मरणमात्र ही रह गया । इसमें सन्देह नहीं कि अधिक महात्मा यदि आपस में मिलकर काम करें तो काम अवश्य अधिक हो मगर ऐसा भाग्य कहाँ ? यदि मुनिनायक और साधारण मुनिराज अपने दिल में कुछ नम्रता को स्थान दें तो शासनोन्नति के अनेक प्रशंसनीय कार्य होसकते हैं परन्तु ऐसा सद्भाग्य मिलना बहुत कठिन है। ___ आपस में कुसम्प बढ़ने बढ़ाने का मुख्य कारण अभिमान है। इस अभिमान शब्द में से यदि ‘मा और न' निकाल Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । 4 दिया जावे तो तमाम जगत् विजय नाद से गूँज उठे । इस और न' को निकालने का उपाय छोटे बड़े दोनों को ही विचारणीय है । ऐसा होने से ही शासन की उन्नति होसकती है अन्यथा नाम मात्र की ही उन्नति है, कषाय धर्म और संयम दोनों के ही विघातक हैं इसी लिये इनके त्याग का शास्त्रों में बार २ उपदेश दिया है । जैन शासन में भले ही मुनियों और पदवीधरों की वृद्धि हो यह एक विशेष खुशी की बात है । परन्तु इसके साथ यदि वे अपनी २ शक्ति के अनुसार देश देशान्तर में भ्रमण करके सदुपदेश द्वारा लोगों में वास्तविक धर्म की अभिरुचि पैदा करें और उन्हें वीतराग देव के समाधि मार्ग के रसिक बनावें तथा एक दूसरे से प्रेम पूर्वक मिलें, प्रेम पूर्वक वार्तालाप करें एवं मिलते ही एक दूसरे के अन्तःकरण में आनन्द की उर्मियाँ उठने लगें और हिलमिल कर धर्म सम्बन्धी कार्यों का विचार करें तभी शासन की शोभा तथा उन्नति में यह वृद्धि उत्तरोत्तर वृद्धि कर सकती है । ४७२ गृहस्थ लोग आपस में मिलते समय अपने पुराने से पुराने वैर विरोध को छोड़ कर बड़े प्रेम भाव से मिलते और वार्तालाप करते हैं | अपने साधु कहलाते हैं और उस पर भी वीतरागदेव के शासन के अनुयायी हैं। अपने में समता गुण की अधिकता देख कर ही अन्य गृहस्थ लोग धर्म में प्रवृत्त हो सकते हैं, इस लिए वीतरागदेव के अनुयायी साधु वर्ग में Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४७३ समता गुण जितना अधिक हो उतना ही अच्छा है, इसी में शासन की शोभा है। यदि जिन शासन रसिक मुनि लोगों में समता गुण का अभाव हो तो लोगों की उनके प्रति अवश्य हलकी नजर होगी। लोग उन्हें तुच्छ दृष्टि से देखेंगे, ऐसी दशा में उक्त वृद्धि और साधुता शासन की शोभा के लिए नहीं किन्तु शासन को शरमाने के लिये ही हो सकती है। इस लिये मुनिजनों का समता गुण ही अधिकतया शासन की शोभा है। __ आप गुरु महाराजकी सेवा भक्ति में निरन्तर लगे रहे, पंजाब में महाराज जी साहिब रूप सूर्यास्त होने के बाद उन क्षेत्रों में आपके हाथ से अनेक प्रभावनाजनक शुभ कार्य हुए तथा निरन्तर भ्रमण करके बहुत कुछ उमति की। इससे आकर्षित होकर श्रीसंघने आपको गुरु महाराज के पट्ट पर अभिषिक्त किया यह खुशी की बात है । अब आगे को आपके द्वारा अधिकाअधिक धर्म कार्य हों और शासन की शोभा में उत्तरोत्तर वृद्धि हो तथा अन्य मुनिराज भी उसका अनुसरण करें तो उसकी शोभा भी आप को ही है। विशेष में मैं याद दिलाता हूँ कि, १००८ श्री स्वर्गवासी गुरु महाराज श्रीमद्विजयानन्द सूरीश्वरजी तथा गुरु जी महाराज श्री १००८ श्रीलक्ष्मीविजय जी महाराज जी की विद्यमानता में प्रायः ऐसा प्रसंग आने ही नहीं पाता था । कदापि दैव योग सकारण या निष्कारण किसी को छमस्थपने की लहरसे Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ आदर्श जीवन। कषाय आ भी जाती तो उसी वक्त नहीं तो उसी दिन के दैवसिक प्रतिक्रमण में सुलह-संप करते करा देते थे । यदि ऐसा होने पर भी कुछ कसर किसी के दिल में रह गई मालूम होती थी तो पाक्षिक प्रतिक्रमण में उसकी सफाई करा दी जाती थी। अंत में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में तो अवश्यमेव क्षमापना आप स्वयं करते थे और अन्यों से कराते थे। कभी कोई अज्ञानता वश उस बात पर ध्यान नहीं देता था तो उसको श्री कल्प मूत्र का " जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा। जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा । तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं ।" यह पाठ दिखा कर समझाते थे कि, देख भाई-बीबा ! श्री तीर्थकर महाराज ने तथा श्री गणधर देवों ने क्या फरमाया है ? " जो जीव क्षमापना करता है वो आराधक होता है, और जो नहीं करता है वो आराधक नहीं होता है । इस लिये क्षमापना करके आराधक होना योग्य है " । ऐसे प्रेम के वचनों को सुनकर अगला भी शांत होकर क्षमापना कर लेता था। यह आपको भी मालूम ही है, आप स्वयं जानते हैं, आप ने स्वर्गवासी गुरुमहाराज के चरणों में रह कर-गुरुकुल वास से खूब अनुभव संपादन किया है। आप को समझाने की कोई जरूरत नहीं है, तथापि अब आप उन महा पुरुषों के स्थानापन्नउनके पट्ट धर बने हैं, अतः आप को उनका अनुकरण करना योग्य है । श्रीगुरु महाराज आपको सहायता देखें और आप Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन ऐसे कार्य करने लायक हो जावें, जिनसे कि श्री गुरु महाराज का - श्री १००८ श्री मद्विजयानन्द सूरीश्वर जी महाराज का शुभ नाम जगत् में अधिक से अधिक रोशन होवे । आपके साथ धम स्नेह होने से आपको योग्य समझ कर इतनी सूचना शुद्धान्तःकरण पूर्वक लिखी है । आशा है आप इसमें से सार ग्रहण करेंगे, तथापि मेरे लिखे हुए मतलब में किसी प्रकार भी अप्रीति होने का कारण बन जावे तो उसकी बाबत मिच्छामि दुक्कडं देता हुआ मैं अपने लेख को समाप्त करता हूँ । मैं हूँ आपका शुभचिन्तक - मुनि-कां० वि० वन्देवीरम जामनगर ( काठियावाड ) (२) श्रीयुत वल्लभाचार्य ता० उपाध्यायजी आदि सर्व मुनिराज योग्य अहमदावाद थी हंसवि०ता० पंन्यासजी आदिनी' मालुम थाय तार पहोच्यो आनंद थयो आपनो पत्र ता० मान पत्र वांची आनंद थयो 'तमारी पदवी थी श्री मूरि पण खुशि थया छे छापेली मानपत्रनी पांच नकलो. मोकलावशो ४७५ ( ३ ) ता० १-१२-२४. आचार्य अजितसागर सूरि ठे० आंबलीपोल जवेरेवाडा अमदाबाद. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । लाहोर मध्ये श्रीमान् जैनाचार्य विजयवल्लभ सूरि जी तथा उपाध्याय सोहन विजयजी विगेरे योग्य सुख साता और वंदना आपको ता० १-१२-२४ को प्रातः काल में आचार्य पद की क्रिया समग्र पंजाब संघ की तरफ से हुई उनकी तार द्वारा खबर पढ़ते ही हम अत्यंत आनंदित हुये हैं और आप जैसे धर्मोद्धारक को यह अमूल्य पद शोभास्पद है । आपके द्वारा जैन शासन के उद्धार के अनेकानेक कार्य बनते रहें यह हम शासनदेव से प्रार्थना करते हैं । विनय संपन्न पंन्यास सोहन विजयजी को उपाध्याय पद दिया जिससे बहुत खुश हुए हैं। ले० हेमेन्द्रसागर की वंदना । १००८ वार स्वीकारें अमदाबाद. ४७६ ( ४ ) सीनोर । श्री श्री श्री आचार्य उपाध्याय जी तथा सुमति विजयजी आदि योग मुकाम सीनोर थी मुनि अमरविजय आदि ठा०३ना तरफ थी वंदना सुख साता यथा योग्य वांचनी, लाहौर से आया पत्र वांच के आनंद हुआ। हम तो अब सब वात से थके हुवे हैं । आपने गुरुमहाराज का पद लिया है सो खूब दीपावना यही हमारा आशीर्वाद है । सब साधुओं को वंदना सुख साता यथा योग्य कहना । मिती १९८१ ना मागसर दि ८. Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ دی جین سویتنامیر آرتی منڈل گوجرانوالہ 20 .؟ . KY بات شادی توی تری گن مینی پانچ سوانی تری مستی نے ہی مہاراج تیس श्री مین ایفری مین ولی کی باج آیا سیاہی ان کے کی عبارات ناسی اس کمپ اس شب چند जैन श्वेतांबर आरती मंडल गुजराँवाला. आदर्शजीवन. His , . . Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवर्श जीवन । १७७ मु० लाहोर आचार्य महाराज श्री श्री श्री वल्लभ विजयजी उपाध्यायजी सोहन विजयजी आदि योग्य धीनुज थी मुनि मोतीविजय पद्मविजय मणिविजय ठा० ३ ना वंदनानुवंदना. त्यांना समाचार छापा द्वारा वांची अत्यंत आनंद थयो छ । वलाद-मागसर वदि १ श्री परमोपकारी शांतदांत त्यागी वैरागी गंभीर धर्म स्नेही परम कृपालु परम पूज्य भट्टारक आचार्य महाराज ना गुणे करी विराजमान गुरुदेव श्री श्री श्री १००८ श्रीयुत विजय वल्लभ सूरीश्वर महाराजजी आदिना चरण कमलमा सेवक विवेक विजयनी वंदना अवधारसो जी, तथा मुनि श्री समति स्वामीजी तथा तपस्वी जी तथा पंन्यासजी श्री उपाध्यायजी श्री सोहन विजय जी तथा पंन्यासजी श्री विद्याविजय विचारविजय सागरविजय समुद्रविजय उपेंद्रविजय आदिने वंदनानुवंदना कहसो जी. वलादमा आजे वदी १ ना रोजे आव्यो छु.. आपनी सुखसाता ना समाचार अवसरे लखवा कृपा करसो जी. सेठ फूलचंद खेम चंद तथा मोहनलाल ना मुख जवानी. थी लाहौर ना समाचार सांभळीने घणो आनंद थयो छ । मागसर सुदि ९ श्री डभोडा परम पवित्र पूज्य मुनिराज श्री १००८ श्रीमान् श्री वल्लभ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आदर्श जीवन। विजय जी महाराजजी विगैरे मुनिराजों योग्य सेवक मान, विवेक, संतोष तरफ से वंदनानुवंदना सुखसाता पूर्वक आनंद साथे मुनि श्री पं० ललितविजयजी के पत्र से आपको आचार्य पद मिल्या वांचकर बहोत हर्ष हुवा। आप पद के योग्य हो 'अच्छे अच्छे धर्म के कार्य करते हो। (८) डभोडा। श्री परमपूज्य विद्वान शिरोमणि श्री श्री श्री १००८ गुरु जी महाराज श्री आचार्य महाराज श्री वल्लभविजय जी आदि परिवार योग्य विवेकविजयनी वंदना अवधारसो जी, आजे पं० ललित वि० उमंगवि० ना पत्र थी आप साहेबजी नी पदवी ना समाचार जाण्या. आनंद थयो. अवसरे सुखसाता ना समाचार देशो जी. द० विवेकविजय सुदि ९ लाहोर मध्ये शान्त दान्त परम पूज्य परमोपकारी एवा अनेक गुणेकरी विराजमान आचार्य महाराजजी श्री विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराजादि कपडवंज थी लि: सेवक कीर्तिबेनी वंदना १००८ वार अवधारशोजी. बीजुं आप श्री जीनी कृपा थी आनंद छे. आप श्री जी ने आचार्य पदवी तथा पं. महाराजजी श्री सोहनविजय जी महाराजजी ने उपाध्याय पदवी सांभली अत्यानंद थयो छे. मागसर सुदि १२. सेवक कीर्तिनी वंदना। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । द. सेवक छोटा कीर्तिकी त्रिविध त्रिविध वंदना पूर्वक बडी खुशी हुई । अमारा आत्मा बहुत आनंद भया ए काम बहुज अच्छा हुआ है आपका पुण्य तेज है, प्रथम कान्फरन्स वखत पण करने की श्रावकों की मरजी हुई पण आपने ना पाडी तो अब दूसरे को ठपका का वखत नहीं रहा और सब लोक बडी खुशीसे ए काम करने को सामिल हुए और प्रतिष्ठाका मामला में बडी धाम धूमके साथ हुई अमारे को जरा मनमें दिलगिरी पैदा हुई पण अमदाबाद से और पं. ललितविजयजी की चिट्ठी से सुनके बड़ा आनंद हुआ है । ૩ ( १० ) वन्दे श्री वीरमानन्दम् । १००८ पूज्यपाद आचार्य भगवान् श्रीगुरु महाराजजी स'परिवारकी सेवा में लाहौर । घाटकोपर से सेवक वर्ग की १००८ वार वंदना स्वीकार होवे । कल रात्रिको प्रतिक्रमण बाद मणिलाल सूरजमलकी मारफत, तार द्वारा, आपकी आचार्य पदवी का समाचार सुन कर जो आनंद हुआ है, ज्ञानी महाराजही जानते हैं । इस खुशीमें क्या लिखूँ ? मारे खुशीके विवश हो रहा । बस इतना ही लिखता हूँ कि आजका दिन मेरे लिए तो क्या स्वर्गवासी, प्रातःस्मरणीय, जैनाचार्य, न्यायांभोनिधि, श्रीमद्वि Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vinANAhvvvvvvny NAarvvvv - ४८० आदर्श जीवन । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmarwar जयानन्दमूरि-आत्मारामजी-महाराजजीको सच्चे गुरु तरीके माननेवाले हर एक जैन बच्चेके लिए स्वर्णाक्षरों में लिख लेने वाला हुआ है, क्योंकि “ मेरेबाद पंजाबकी सार संभाल वल्लभ लेवेगा" इस गुरु वचनको श्रीसंघ पंजाबने आजके रोज आप को उन गुरु महाराज के पट्ट पर कायम करके सत्य कर दिया है। मैं श्री संघ पंजाबको अनेकशः धन्य वाद देता हूँ और शासन देव से प्रार्थना करता हूँ कि आपका इकबाल बहुत बढ़े, ताकि गुरु महाराजका नाम अधिक रोशन होवे ।। __ मंगलवार. ) आपके चरणों के किङ्करमार्गशीर्ष शुक्ला षष्ठी-सप्तमी-- ता. २-१२-२४. ललित की अनेकशः वंदना। (नोट) यहाँ घाटकोपरमें इस बातकी खुशी सकल श्री संघमें फैल गई है । कल अष्टमीको श्रीफलकी प्रभावना तथा पूजा पदाने का श्रीसंघ का विचार है । कुछ साधर्मिवात्सल्य या अमुक रकम महावीर जैन विद्यालय को इस प्रसंग की खुशी में देनेका विचार भी श्रीसंघ का है जो बने सो खरा । द० सेवक ललित की वंदना । लघु सेवक की त्रिकाल वंदना स्वीकारनी जी सेवकों की चिरकाल की आशा आज सफल आपश्री जी ने करी है और सेवक वर्गकी पदवियों की शोभा भी अब ही हुई है जो आप श्री तख्त नशीन हुए हैं। सच्चा वारसा आप श्रीजीकोही प्राप्त हुआ है। x x x x द० सेवक उमंगकी वंदना। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । (११) श्री वीर संः २४५१ विः १९८१ श्री आत्म सः २९ मागसर सुदी १० प्रातः स्मरणीय चारित्र चूडामणि यतिपति शासन सुभट कलिकाल कल्पवृक्ष मुनिचक्र चूडामाण शांतदातादि सकल सद्गुण विभूषित परोपकारनिष्ठ श्री श्री श्री १००८ जैनाचार्य श्री विजयवल्लभमरि जी महाराज आदिनी सेवामा लाहोर, ओलपाड ( सूरत ) थी सेवक विनयनी वंदणा नी साथे मालूम थायके आपनी पदवी नो तार सूरत आवेल त्यांथी मने आजरोज खबर मल्या, तेथी लखवानुं के लायक ने लायक मान मले तेमां आनंद थाय ए स्वाभाविक छे. दः सेवक विनयनी वंदना स्वीकारशोजी. दोशी जमनादास भगवानजीनी वंदना १००८ वार आपनी पवित्र सेवामा स्वीकारशोजी. जत लखवान के आपने आचार्य पदवी मळी तेथी अमे बहु खुशी थया छीये। श्रीमद् विजयधर्मसूरिगुरुभ्यो नमः । मीती मार्गशीर्ष वदी १४ धर्म संः ३. शांत्यादि अनेक गुणगणालंकृत शासनोन्नतिकारक विद्वद्वर्य श्रीमान् विजयवल्लभमूरिजी महाराज आदि ठाणा सर्वनी पवित्र सेवा मां मु० लाहोर, सविनय १००८ वार वंदना साथे विनंती के आपनो पत्र मल्यो हतो......................"विशेष पहेलो पत्र लख्या बाद "जैनपत्र" थी आप श्रीने आचार्य Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। wwwnwww पदवी थयाना समाचार जाणी अमो सर्वे घणाज खुशी थया छीए, आगरानो संघ पण खुशी थयो छे, आप जेवा योग्य पुरुषो ने योग्य पदवी थई ते घणुंज ठीक थयुं छे । ली. सेवक जयंतिविजयनी वंदना। (१३) कपड वंज। स्वस्ती श्री लाहौर मध्ये शांत दांत महंत त्यागी बैरागी छत्रीस गुण युक्त परम पूज्य पवित्र परमोपकारी धैर्य गंभीर अनेक उपमा लायक श्री श्री श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वर महाराजजी साहिबनी सेवा मां, कपडवंज थी ली. क्षमा श्री जी म. माणिक्य श्री वसंत श्री, सर्वनी वंदना कोटी वार आपना पवित्र चरणों में कृपा करके स्वीकार करनाजी और आपको पद प्रदान का मंगलकारी श्रेष्ठ समाचार जैन से और कुंकुम पत्रीसे जानकर बहुत आनंद हुवा है जी। योग्य बात बनने से हर्ष हुवे इस में नबाई क्या है ? प्रथम से ही सब जगा में उपकार कर रहे होजी । अच्छा अच्छा धर्मका काम किया है जी। - मंगल अस्तु ली. माणिक्य श्री. “सद् गृहस्थोंके अभिनंदन पत्र । (हिन्दी) फर्नहिल नीलगिरीज। १२-१२-१९०४ श्रीमन्तो महानुभावा मुनिवराः सपशेयम्, चिरंजीवी भाग Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । मल्ल से ज्ञात हुवा कि थोड़े दिन हुए जैनसमाज ने श्रीमानों को जैनाचार्य की पदवी से सत्कृत किया है, मैं सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। यद्यपि आप जैसे महात्मा पदवी की या उपाधि की इच्छा नहीं रखते तथापि हम सबका कर्त्तव्य है कि उनका सत्कार करते हुए अपनी कृतज्ञता बतलायें, बहुधा ऊँची पदवी आप जैसे महात्माओं के शुभनाम के साथ ही शोभा प्राप्त करती है। विनीत हीरानंद शास्त्री. बीकानेर। ता.१४-१२-१९२४ श्रीमान् मान्यवर सद्गुणालंकृतधर्मनिष्ठ परोपकार व्रत परायण विद्यावारिधि जैनाचार्य श्री १००८ श्री वल्लभविजयजी महाराज आचार्यजी महोदय योग्य जयदयाल शर्मा का सविनय प्रणाम प्राप्त हो । श्रीमानों को आचार्य पद की प्राप्ति सुनकर चित्त को अत्यंत ही प्रमोद प्राप्त हुआ। वास्तव में यह पद आप जैसे विद्यावारिधि सौजन्यादि गुणाकर महानुभावों के योग्य ही है। श्री सर्वक्ष प्रभु से मेरी हार्दिक प्रार्थना है कि आप चिरायु होकर अपने सद्ज्ञान विद्या आदि सद्गुणों के द्वारा देश का चिर समय तक कल्याण करें। जयदयाल शर्मा शासी। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ४८४ आदर्श जीवन। श्री आत्मानंद जैन सभा, अंबाला शहर । ४ दिसबर १९२४ स्वस्ति श्रीमत्पाजिनं प्रणम्य तत्र श्री लाहोर शुभ स्थाने विराजमान पूज्यपाद परमोपकारी श्री जैनाचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयवल्लभमूरिजी महाराज उपाध्याय श्री सोहन विजय जी महाराज श्रीसुमतिविजय जी महाराज श्री पंन्यास विद्याविजयजी महाराज तथा अन्य सर्व साधु समुदाय की सेवा में दासानुदास भागमल्ल की वंदना नमस्कार १००८ वार अभु ट्रिओमिके पाठ सहित स्वीकार होजी। आगे निवेदन यह है कि सेवक कल ही गुडगाओं से वापिस आया है । वहाँ की परीक्षा में मैं आर हमारे स्कूल के मास्टर बिलायतीराम दोनों प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण हुए। - यहाँ आते ही लाहौर के प्रतिष्ठा महोत्सव के आनंददायक समाचार सुने । विशेषकर आप दोनों मुनि महाराजों की पदवियों का हाल सुनकर चित्त इतना प्रसन्न हुआ कि उस प्रसन्नता को वर्णन करने के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं। क्या ही अच्छा होता यदि में भी अपनी आँखों से वह दृश्य देख पाता। परंतु मुझ जैसे निर्भाग्य के भाग्य में यह शुभ अवसर कहाँ ? ___ आपकी इन पदवियों पर एक बार और बधाई देता हूँ और समाज की दक्षता पर मुग्ध होरहा हूँ जिन्होंने ऐसे स्वर्णमय अवसर का ऐसा अच्छा उपयोग किया। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४८५ यही इच्छा है कि समाज के सिर पर आपका छत्र अनंत काल तक झूलता रहे और यह समाज उन्नति को प्राप्त हो । सेवकभागमल्ल मौद्गल । जयपुर। ता. ९-१२-२४ स्वस्ति श्री लाहोर शुभ स्थान सकल शुभोपमाकरी विराज मान पूज्य श्री १०८ श्रीयुत आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ मूरिजी महाराज साहब की पवित्र सेवा में दास गुलाबचंद ढड्डा की सविनय वंदना मालूम होवे, आपका कृपा पत्र मिला। पढ़कर आनंद हुवा । मेरी दिली चाहना पंदरा बरस से आपको परमोपकारी स्वर्गवासी सूरीश्वर की गद्दी पर देखने की थी, आपकी दयालुता, योग्यता, धर्मज्ञता, विद्वत्ता, उपकार, तप, जप, क्षमा वगैरह गुणों को लेकर आपको इस पद पर पंदरा बरस पहिले ही देखने की इच्छा थी, परंतु समय आने पर फल मिलता है । मुझे अगर जरा भी सूचना किसी द्वारा इस शुभ क्रिया की मिल जाती तो मुझे कुछ भी तकलीफ होते हुवे भी मैं अवश्य हाजर होता, परंतु मैं इस बात के लिए बिलकुल अंधेरे में था, हालां के मैंने कई दफे यात्रा में विचार भी किया था कि प्रतिष्ठा के समय आचार्य पदवी दी जावे तो अती Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आदर्श जीवन। - श्रेष्ठ हो । दाख पके जब कव्वे का कंठ रुक जावे, वाकइ, आपको मूरि पद प्रात्प होने से जितनी उमंग की लहरोंसे हृदयकमल प्रफुल्लित हुवा उस से कई दरजे जियादा मेरी बद किसमती पर अफसोस और रंज हुवा, जिसको मैं लिख नहीं सकता। खैर भावी प्रबल, आत्माको संतोष इस ही बात पर दिया जाता है कि २८ वरसके बाद हमारे उपकारी महात्माके योग्य पट धर को हमने अपना शिरताज देखा । इस दासकी प्रार्थना यही है कि आप सिंह जैसे प्रबल, चंद्रमाके जैसे उज्जवल, सूर्य जैसे तेज प्रताप वाले होकर, बलीके जैसे शूरवीर होकर जैन जैसे दयालु होकर स्वपरोपकारार्थ आरोग्यतापूर्वक इस पृथिवी पर विचर कर सब जीवोंके तारनेवाले बनें, कलम जियादा कहना नहीं करती इस वास्ते आचार्य श्री १०८ श्रीयुत विजयवल्लभ मूरि महाराजकी जय बोलते हुवे इस अरजीको समाप्त करता हूँ। फकतदास गुलाबचंद ढढा । 156 | A Harrison Road, Calcutta. 17-12-94. श्री मान्यवर १००८ श्री आचार्य वल्लभविजयजी महाराज १००८ श्री उपाध्याय श्री सोहनविजयजी महाराज मुनि मंडल जोग कलकत्ते से दयालचंद का वंदना । तार श्रीसंघका आया जिसमें आपके आचाय वा उपाध्याय पदपर विभूषित होनेकी खबर थी। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । ४८७ श्रीसंघने जो उपाधियाँ आपको दी हैं वह बहुत उचित ही किया क्योंके बडे गुरु महाराजजीके बाद पंजाब में जरूरत ही थी। .. द. दयालचंद । १५६ । A हैरीसनरोड कलकत्ता 17-12-24 श्रीजैन श्वेताम्बर संघ लाहोर जोग लिखी कलकत्ते से दयालचंद का जय जिनेश्वरदेव । आपका तार मिला । आपके शुभ समाचार पढ़कर बड़ी खुशी हुई कि आप लोगों ने आचार्य पदवी से श्री वल्लभविजयजी महाराज को वा “उपाध्याय पदवी" से श्री सोहन विजयजी महाराज को विभूषित करा। पंजाब देश में ही इस कार्य की होने की निहायत आवश्यकता थी, जो कुछ हुआ, बहुत ही उचित हुआ, आपके इस कार्यपर आप लोगों को धन्यवाद दिया जाता है। __आपका सेवक-- दयालचंद । श्रामान् शासनरक्षक पूज्यपाद आगमज्ञाता श्री १००८ श्री विजयवल्लभ मुरीश्वरजी महाराज की सेवामें लाहोर, अनेकशः वंदना सहित निवेदन कि स्वास्थ्य सुखवृत्ति के समाचार दीर्घ समय से ज्ञात नहीं हुवे, प्रसंगोपात लिखने की Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। .....vvvvvvvvvvvvvvv कृपा करें, आचार्यपद समर्पण समय में क्षुद्रात्मा को स्मरण नहीं किया इसका अत्यंत खेद है लेकिन आनंद तो इस बातका है कि पंजाब ने समग्र भारत के जैनसंघकी इच्छा 'संपूर्ण की, विशेष क्या लिखू आनंद असीम है । छोटी सादड़ी । चंदनमल नागोरी । ता. ११-१२- ९२४ (८) श्रीभद् वीराय नमः। स्वस्ती श्री लाहोर नगरे महाशुभस्थाने शांत दांत सूर्यसमान तेजस्वी चंद्रसमान शीतल स्वभावी कल्पवृक्षसमान परोपकारी भारंडपक्षीसमान अप्रपत्त संसारी जीवोंको दुःखरूपी समुद्र से पार करने के लिये नौका समान इत्यादि अनेक शुभ गुणगुणालंकृत शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज उपाध्याय श्री सोहनविजयजी मुनि श्री सुमति विजयजी पं. विद्याविजयजी, तपस्वी गुणविजयजी,विचारविजयजी,समुद्रविजयजी, सागरविजयजी,आदि महाराज साहेब की सेवा में मुंबई से सादड़ी श्रीसंघ की वंदना १००८ वार अभुडिओमी अभ्यंतर सहित अवधारना जी, वि० विनंती साथ लिखना है कि आप श्रीका कृपापत्र नहीं सो आप श्री अमूल्य वक्त लेके लिखने की कृपा करनाजी। वर्षा ऋतुमें कृषाण लोक मेघ की राह देखते हैं उसी तरह, हम भी आप श्रीका अमृततुल्य उपदेशक पत्र की राह देखते हैं। यहाँपर देवगुरु Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । महाराजजी की कृपासे सुखशांति है। आप श्रीकी सुखसाता की सदा चाहना रखते हैं और आप श्रीने श्रीसंघ के आते आग्रह से आचार्य पद का ग्रहण किया है उसीसे हमको बहोत आनंद प्राप्त हुवा है । देवाधिदेव से हाथ जोड़के यही प्रार्थना हम करते हैं कि ऐसा शुभ अवसर हमको वारंवार प्राप्त हो । सं. १९८१ पोसवदी २ शनिवार । से. सागरमल की १००८ वार वंदना स्वीकारशोजी. से. दीपचंद की १००८ वार वंदना से. सेंसमल की १००८ वार वंदना से. तेजमल की १००८ वार वंदना से. सिरदारमल की १००८ वार वंदना मुम्बई। १२-१२-२४ “ आनंदित अनुमोदन विनंती पत्रिका ।" पूज्य महान उपकारी १००८ श्री अमर नाम विजयवल्लभ मूरि महाराज के चरण में ली. आपका दासानुदास गुरुभक्ताभिलाषी प्रभु गुण गायक प्राण सुख मानचंद के १००८ वंदना आप चरणमें कबूल करेंगे । शुदि १० मी के दिन मु० श्री बालापुर में उत्सव प्रसंग में मैं गया था, वहाँ सुस्वप्न देखा सुस्वर सब सुने सुवास आई, मन प्रफुल्लित हुआ, अंतरीक जी और भांडुक जी की यात्रा करके आज मुंबई आया । पूज्य पं० ललितविजय Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anAAREENAATANHARAN आदर्श जीवन । mammoonmoovecommon जी महाराज को वंदना काज गया । मन की खुशाली जाहेर की उन्हों की खुशाली और आनंद की क्या बात है? सच्ची गुरु भक्ति का प्रभाव छुपा नहीं रह सकता है । शुभ प्रसंग की सब हकीकत का सारांश पंन्यास जी ने मुझे कहा । सुन कर बहात ही हर्षे हुआ । जो बात न्याय दृष्टि से विरुद्ध पक्षकार भी कुबूल करे उस में दो मत हो ही नहीं सकते हैं, लायक को लायक मान मिलने से मनुष्य तो क्या पर दैव भी अनुमोदना करते हैं । पूज्य मुनि महाराजों और सुज्ञ श्रावकों ने इस शुभ कार्य के लिए जो प्रेरणा की है उनको भी धन्यवाद है। पंच महाव्रत धारी साधु मुनिराज मंडल में आपको सर्वोत्तम अध्यक्ष पदवी जो दी गई है उसको परम पूज्य आचाय महाराज १००८ श्री विजयानंद मूरि महाराज की परंपरा में सुर्वण अक्षर मय बनाव समझता हूँ और चाहता हूँ कि शासनदेव की सहायता से उस परम पद को आप दे दीप्यमान कर दिखावें। तथास्तुलि० दासानुदास प्राणसुख मानचंद । (१०) जीरा। १९-१२-२४ मूरिजी महाराज दामे इकबाल हू अजजानब राधामल्ल ईश्वरदास नथुराम बाबूराम बाद वंदना नमस्कार दस्त बस्ता इच्छामी के पाठ से १००८ वार Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । मारुज आंके, आप श्रीजीने आचार्यपद की गद्दी को ज़ीनत बखश कर सब पर बहुत महरबानी की है, हम आपके अज़हद मशकूर हैं और आपको बहुत बहुत मुबारकवाद देते हैं और शासन देवता से दुआ करते हैं कि आप श्रीकी जिन्दगी बहुत लम्बी हो, और जैनसमाज और जैनशासन की दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की कर सकें। ( ११ ) पूज्य मान्यवर गुरुजी विजयवल्लभसूरिजी की पवित्र सेवा में नागपुर से प्यारेलाल की वन्दना स्वीकृत हो, कुछ दिन हुए भाई दौलतराम का पत्र मिला था, जलसे का तमाम हाल मालूम हुवा, और आपको आचार्यपद से भाइयों ने विभूषित किया समाचार पढ़कर अत्यंत हर्ष हुवा, और इस दास की तरफ से बधाई स्वीकृत हो । भवदीय दासानुदास प्यारेलाल जैन ( १२ ) ४९१ पटियाला, नथुरामजैनी अग्रवाल । श्रीमान् पूज्य श्री १००८ श्री श्री आचार्य महाराज श्री मुनि वल्लभविजयजी महाराज वा श्री उपाध्यायजी महाराज श्री श्री मुनि सोहनविजयजी महाराज और सब मुनि राजगान के १७-१२-२४ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ आदर्श जीवन। AADHAA चरणों में विनय पूर्वक निहायत आदाब से वंदना नमस्कार मालूम हो, प्रतिष्ठा का हाल सुनकर दिलको बहुत आनंद और खुशी हुई और मुझको यह सुनकर और अजहद खुशी हुई कि श्रीसंघ पंजाब ने आपको ही अपनी सर परस्ति के लिए आचार्य पदवी और सोहनविजयजी महाराजको उपाध्याय पदवी दी है, बेशक आप इसी लायक हैं। तोताराम दीनदयाल दुर्गादास की तरफसे आपके चरणोंमें नमस्कार पहुचे। २१-मग्गर--१९८१ (१३) रियास्त, मलेरकोटला मुन्शी करीमबखश। ता. ७-१२-२४ १००८ श्री श्री श्री श्री श्री, श्रीमद् विजयवल्लभ मूरि धर्माचार्यजी महाराजके पवित्र चरणों में इस दास की विनंती मंजूर होवे, मुबारक हो मुबारक हो मुबारक हो कि हुजूर के कमल चरणोंसे आचार्य पदवी की गद्दी फेज़याब हुई तमाम दुनिया को उसकी खुशी है । (१४) श्री २४५१ सि० श्री लाहोर महा शुभस्थाने पूज्य परमदयाल ज्ञान सागर पंचाचार पालक षट्त्रिंश गुणे करी सुशोभित श्री Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्दश जीवन | १००८ श्री श्री मद् आचार्य श्री श्री विजयवल्लभ सूरि जी आदि मुनि मंडल की सेवामें आसपुर (मेवाड ) से आपके चरण कमलोपासक तारावत: चंपालाल - निहालचंद आदि परिवार की द्वादशावर्त्त वंदना विनय स्वीकारियेगा | जैनपत्र आया उसमें मगसर सुदि ५ साडा सात बजे श्री जी को श्री संघने योग्य सो टच के सोनेमें हीरे माफिक पद समर्पण के समाचार पोस सु० ५ को बांचकर अत्यानंद हुआ, वारंवार श्री संघका धन्यवाद है, इस देशमें ४०० घर १००० मनुष्य हैं वो सर्व एक आवाज से धन्यवाद देते हैं श्री संघको और आप तो गुणवान ही हैं, सेवकों को समाचार १ माह के बाद मिले ऐसे कर्मवश पड़े हैं कि कर्मों की बलिहारी मिति पोष शुदि १०-१९८१ निहालचंद की वंदना सविनय द्वादशावर्त्त स्वीकारियेगाजी श्रीयुत उपाध्याय जी श्री १०८ श्री सोहन विजयजी महाराज जी से मेरी सविनय वंदना अभुट्टिओमि अभितर सहित स्वीकारियेगाजी । ( १५ ) ४९३ می श्री श्री १००८ श्री श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की चरण सेवामें सोजत ( मारवाड ) निवासी समग्र श्री शांति वर्धमानजी तथा श्री महावीर लायब्रेरी के जैन श्वेताम्बर समस्त संघ नम्रवंदना के साथ अपने हार्दिक प्रेम का प्रकाश इस - सोजत ता. ७-१-२५ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवर्श जीवन । माफिक करते हैं कि, पंजाब समग्र श्री जैन संघ ने एकत्र होकर लाहोर जैसे केपिटल स्थान में आप श्री को सूरि पद से विभूषित किया वह पत्र हमारे यहां पहुंचा, सोतो संघ की भक्ति गुरु प्रति होनी ही चाहिये, परन्तु आप श्री को स्वर्गवासी श्री मद्विजयानंद मूरिमहाराज ने पहिले ही से यह भार आपके लिये रोशन किया हुआ है, वैसे ही आपश्री कृतज्ञता सेवा धर्म, स्व सिद्धांत प्रतिपादन के भावों से निभ्रन्ति (१) होते हुए सानंद यहां एकत्र होकर पंजाब के पत्र को सुनते हैं। हम आपके अनुक्रम विधान कार्य निश्चितात्मा पर प्रसन्नता प्रगट करते हैं कि आप इस भारतवर्ष में स्वर्गवासी सूरीश्वर जी के बाद आनंद से समय समाप्त कर इस पदवी को सुशोभित कर रहे हैं। इस अवसर पर हमारे हृदयांकित विचार आप श्री की तरफ आकर्षित हैं। विविध प्रकार से आपके शासन काल में स्वयं परिज्ञान जो कुछ कार्य वाई करते हुए, न्याय तथा शासन सेवा के निमित्त हित दरसाया है उसकी प्रशंसा हम पूर्णतया नहीं कर सकते, प्रत्युत हम में से कई शखसों ने आप से धर्मोपदेश सुनने का आनंद और सौभाग्य अनुभव किया है, और इसी से हम आप की न्याय तत्परता शैली से पूरण परिचित हैं। जिस प्रेम और निष्पक्ष भावों से संसार के प्राणिमात्र पर आपकी करुणा दृष्टि हो रही है उसके लिए हम आपकी हार्दिक कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं। जिन मनुष्यों को आपके पूर्ण परिचय का सुअवसर मिला Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । है उन हृदयों का आपके सामाजिक नैतिक तथा धार्मिक जीवन के सभ्य व्यवहार ने अतिशय आकर्षित कर लिया है । यहाँ पर श्री महावीर लायब्रेरी तथा शांति वर्धमान जी देव की पेढी तथा श्री वर्धमान जैन कन्या पाठशाला की स्थापना आपके उपदेश प्रेरणा का ही कारण है कि जिनका निरीक्षण राज के बड़े ओफिसरों ही ने नहीं वरन श्रीमान् His Highness Maharaja Sahib Bahadur of Jodhpur और कई मुनिराजों ने संस्थाओं में पधार करके प्रजाहित कार्य में प्रेम प्रदर्शित किया अतः आपकी सादगी का साधारण जीवन वर्णन किया जाय तो एक दफतर की आवश्यकता है । आप श्री मान पूज्यवर हमारे feas के हार और एक जैन संसार में अनुकरणीय आचार्याधिराज हैं। हम को सम्पूर्ण आशा है कि आपके आगामी जीवन में भी हमारे साथ सहानुभूति बनी रहेगी, और उसके प्रताप से हमें उज्ज्वल सफलता प्राप्त होती रहेगी। आपकी शासन सेवासे भारत वर्ष की प्रजा का उपकार और उद्धार होगा, चंद्रमा का मुख विश्व सेवा से ही उज्वल है । आप पञ्चमी गति गामी मुनिराजों में केंद्र हो, यदि आपकी शक्ति का संघठन हमारे अंदर न होता, तो आज मारवाड के गाय भैंस लरडी बकरी के अभय दान में आप की बनाई संस्था सौभाग्य प्राप्त करने का गौरव रखती है वह अवसर कहाँ था, आप श्री की चरण सेवा में रहने वाले मुनि मंडल को यहाँ का संघ वंदन लिखाता है और आशा रखता है, कि यही मंडल जगत को एक्यता का पाठ समझा कर पालन करने में चमत्कारिक शक्ति फैलावेगा । ४९५ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । भंडारी चैनराज, खीबराज, मुता मूलचंद रातडीया रतनचंद व हीरालाल सुराणा मुता जोरावरमल्ल कोचर किशोरीलाल, रीखबदास मदनराज कुशलराज आदि सकलसंघकी वंदना १००८ वार अवधारशोजी । सद्गृहस्थों के अभिनंदनपत्र [ गुजराती. ] श्रीजैन आत्मानंद सभा भावनगर । ता. ८-१२-१९२४ मागसर सुदि १३ सोमवार, अनेक गुण गणालंकृत परमकृपालु पूज्य पवित्र आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराजनी पवित्र सेवा मां लाहौर विनंति पूर्वक अपूर्व आनंद सहित जणाववा रजा लइये छीये के आ सभानी लांबा वखतनी अभिलाषा आकांक्षा श्री पंजाबना श्रसिंघे आप कृपालु श्री ने आचार्य पद आपी ने पूर्ण करी छे ते माटे पंजाबना श्रीसंघ ने लाखो धन्यवाद देवा साथे आ सभा पोतानो पण अपरिमित आनंद हर्षना आंवेष पूर्वक जणावे छे, साथै परमात्मानी पवित्र अंतः करण थी प्रार्थना करे छे के आप आ आचार्य भगवाननुं उच्च पद दीर्घायु थई भोगवो अने शासन सेवा करवा निरंतर विशेष भाग्यवान थावो ! बस ! - हृदयना पूर्ण उमळका साथे आ सभा पोतानो आनंद अने भावना आ रीते आपनी सेवामां रजू करे छे । प्रथम आचार्य पदवी देवा अने अपाया पछी हर्ष जाहेर ४९६ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । करवा - अभिनंदन आपवा एम बे वखत आ सभा तरफथी श्रीपंजाबना श्रीसंघ ने तारो करवामां आव्या हता ते सहज जाणवा माटे लख्युं छे । लि० नम्रसेवक गांधी वल्लभदास त्रिभुवनदास (आखी सभानी वती) नी १००८ वार वंदना अवधारशोजी. लि० सेवक - गुलाबचंद आनंदजी नी १००८ वार वंदना अने आ पदवीनो आनंद स्वीकारशोजी । -- ४९७ ( २ ) श्रीमहावीर जैन विद्यालय - मुंबई. ता. ३-१२-१९२४ अनेक गुण गणालंकृत श्री मन्मुनिमहाराज श्रीआचार्य श्री विजयवल्लभ सूरिजी नी पवित्र सेवा मां लाहोर आप श्रीने आचार्य पदवी श्रीसंघे पंचमीना रोज आपी ते संबंधमां अमारी मेनेजींग कमेटी पोतानो संतोष जाहेर करवा वंदना पूर्वक मने फरमास करे छे के आप आवा पदने सर्व रीते योग्य छो. आखी मेनेजींग कमेटी नी वंदना स्वीकारशोजी. श्रीसंघे आपने आकुं अनुपम मान आपी पोताना गौरवमां वधारो कर्योछे । श्रीमहावीर जैन विद्यालयनी मेनेजींग कमेटीना हुकमथी सेवक मोतीचंद गिरधर कापडीया नी वंदना अवधारशोजी । ३२ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - 6 . श्रीवीरायनमः श्री माहावीर जैन विद्यालयना विद्यार्थीओनी मळेली आजनी सभा प्रातः स्मरणीय परम पूज्य मुनि महाराज श्री १००८ श्रीमद् वल्लभविजयजी श्रीने पंजाब ना श्रीसंघे बहुमान पूर्वक अर्पण करेल आचार्य पदवी माटे परमोल्लास प्रदर्शित करे छ, जैन समाज ना जीवन रूप अने संस्कृति ना बीज रूप श्री महावीर जैन विद्यालय ना संस्थापक तरिके ना एओ श्री ना अविरत परिश्रमो माटे मात्र शब्दोथीज जे काइ आभार अने पूज्य भाव नी लागणी दशोवी शकाय ते प्रस्तुत प्रसंगे अंतः करण पूर्वक एओ श्री ना चरण कमल मां नम्रता पूर्वक अर्पण करे छ। ) लि. श्री महावीर जैन विद्यालयना मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी । ... वी० सं० २४५१ . विद्यार्थी गणनी . सविनय नम्र वंदना. (8) । श्री जैनवनिताविश्राम । सुरत ता० ९-१२-१९२४ - परम पुज्य आचार्य महाराज श्री वल्लभाविजय जी साहिब ......."वि. आप श्री ने आचार्य पदवी नी बात जाणी अमो आप ने अभीनन्द आपीए छीए. ल० जैन वनिताविश्राम ना.. व्यवस्थापक Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन - मीयांगाम ता० १२-१२-२४ आचार्य महाराज श्री श्री श्री श्री श्री वल्लभविजय मूरि जी आदि ठाणा मु० लाहौर ली० शा० शिवलाल छगनलाल नीवंदना १००८ वार स्वीकारशोजी वी० अमे देवगुरु महाराज नी कृपा थी कुशल छीए ली. आप श्री ने समस्त जैन श्वेताबर संघे आचार्य पदवी अर्पण करी तेथी हमारा अंतर ना ऊंडा अभीनंदन छे.. मीयांगाम ता० १२-१२-२४ आचार्य श्री श्री श्री श्री श्री वल्लभविजय सूरि तथा आदि मुनिराज मु० लाहौर ली० दलाल शठ दलसुख गुलाबचंद नी वंदना १००८ वार स्वीकारसोजी ली० मारा अंतर नो जे विचार घणा वखत परनो हतो ते आशा मारी सफल थई तेथी घणोज आनंद थयो. आप श्री ने आचार्य पदवी श्री जैन श्वेतांबर संघे अर्पण करी ते मां मारी सहानुभूती छे. आजेज अमोये तार करयो छ । श्रीमढुवा यशोवृद्धि जैन बालाश्रम । ___ता. १६-१२-१९२४ स्वस्ति श्री लाहोर महाशुभस्थाने पूज्याराधे परमपूज्य Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० आदर्श जीवन । परमोपकारी अनेक गुणोंकरी विराजमान पूज्य आचार्य महाराज श्री श्री श्री वल्लभविजयजी तथा उपाध्याय महाराज श्री सोहनविजयजी महाराज साहिब तथा मुनिमंडलनी अखंड पवित्र सेवामां श्री महुवाबंदर थी ली. सेवक गुलाबचंद माणकचंद पारेख ( सुप्री. यशोद्धि जैन बालाश्रम ) ना १००८ वार वंदणा अवधारशोजी. सविनय लखवार्नु के--आप साहेब ने आचार्यपद अने महाराज श्री सोहन विजयजीने उपाध्यायपद मल्यु, जाणी खुशी थयोछु साथे साथे केळवणीना कार्यों करो छो तेथी विशेषकरी आपने प्राप्त थयेल पदवी ने वधारे उज्वल करो, तेवी मारी श्रीवीर प्रभु पासे याचना छ । आप श्रीए श्री महावीर विद्यालय, जुनागढ, श्रीदेवकरण मूलजी जैन बोर्डिंग, पालनपुर जैन बोर्डिंग, बीकानेर हाई स्कूल, अंबाला हाई स्कूल, पंजाब मां साडात्रण लाखनु केलवणीफंड गोलवाड मारवाड माटे एक लाखनुं फंड विगेरे घणे ठेकाणे आप श्रीए केळवणी नो उद्धार कर्योछे, ते बात बिन संदेह छ । लि. सेवक गुलाबचंद माणक चंद महुवाबंदर काठियावाड. (८) श्री जैनशासननभोगणदीप्तदिप्तिः, मिथ्यातमोविघटनाय समृध्य मूर्तिः। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। ५०१ स्याद्वाद पूर्ण जिनपागमपारदश्वा, मूरीश्वरो विजयताम् मुनिवल्लभोऽयम् ॥१॥ स्वस्ति श्री पार्थ जिनं प्रणम्य मुनिवृन्द चरण रज परि पुनित महाशुभस्थाने लाहोर नगर मध्ये शांत, दांत, त्यागी वैरागी, परमप्रभावक, शासनधोरी मुनिगणमार्तड, शासन सम्राट, वादिगजकेसरी, निग्रंथचूडामणि शांतमूर्ति, कलिकाल कल्पवृक्ष, विद्वद्रत्न, व्याख्यान कला कोविद, अनेक सिद्धांत पारगामी, श्री जैन शासन प्रबोधपंकज सहस्ररश्मि मूरिपुरंदर, मरिचक्र चक्रवर्ति, इत्यादि अनेक गुणालंकार विभूषित पूज्यपाद आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ मूरीश्वर जी ना चरणारविन्द युग्ममां, श्रीवेरावल बंदर थी ली? मूरि दर्शनोत्कंठित समस्त संघनी १००८ वार वंदणा अवधारशो जी, विशेष अमने जाणीने आनंद थयो छे के श्री सघे लाहोर मां आप साहेब ने सूरीश्वरनुं पद प्रदान कर्यु छे अने ते पद आपनी शासन सेवानी प्रवृत्ति, शासन सेवानी निशदिन उत्कंठा, जैन शासन नो विजय वावटो फरकाववानी आपनी अभिलाषा अने आपना उत्तम स्वभाव मां सोनुं अने सुगंध जेवी योग्यता ने पामे छे, अमो खरे खर मानी शकीये छोये के श्री संघे योग्य महात्मा ने योग्य स्थान आप्यु छे तेथी आप श्री ने समर्पल मूरि पद सवथा योग्यज छे अने ते शुभ खबर मलतां अमे बहु आनंदीत थया छीये, विशेष आप साहेबजी अमोघ उपदेश द्वारा जगत ने पावन करता सौराष्ट्र Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ आदर्श जीवन। भूमि मां पधारी अमो ने दर्शन आपी कृतार्थ करशो ए शुभ आशा राखी आपने अभिनंदन आपीए छीए ।। .. वीर निर्वाण संवत् २४५१ मौन एकादशी. - ॐ शांतिः ली. अमे छीए दर्शनाभिलाषी सेवको श्री वेरावल जैन संघ । शा० खुशाल करमचंद, द. देवकरण खुशालनी वंदणा अवधारशो जी। शा० जेचंद खीमजी द० पोते वंदणा अवधारशो जी। शा० हंसराज वशन जी नी सही छे द० पोते वंदना १००८ वार अवधारशो जी। शा. वीरजी रामजी द० गीरधर वीरजी नी वंदणा अवधारशो जी। - वशा, सोमचंद. खीमजी, द० वशा, नेमचंद माणकचंद नी वंदणा अवधारशो जी । मुम्बई। २-१२-२४ परम पुज्य परम कृपालु परमोपकारी अनेक शुभ गुण गणालंकृत श्रीमद्विद्वर्य आचार्य महाराज श्री श्री श्री श्री श्री १००८ श्रीमान् विजयवल्लभ मूरि जी महाराज तथा उपाध्याय जी श्री सोहन विजय जी महाराज सपरिवार योग्य श्री लाहोर. मुंबई थी ली. दासानुदास मणिलाल नी वंदना १००८ वार अवधारवा कृपा करशोजी । गई काले सांजना श्री संघ | Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। पंजाब नो तार आचार्य तथा उपाध्याय पदवी नो मळयो सर्वने घणो आनंद थर्ड रह्यो छे । दासानुदास मणिलाल मूरजमल. (१०) मुम्बई। ता. ७-१२-१९२४ रविवार पुज्य आचार्य महाराज श्री वल्लभ विजय जी नी पवित्र सेवा मां लाहोर । आप साहिबने गया सोमवारे आचार्य पदवी आपवा मां • आवी ते खबर सांभळी घणो आनंद थयो छे. आप ये पद ने तद्दनज लायक होवा छता स्वीकार करता न होता, परंतु आप साहिब हंसविजय जी महाराज अने कान्तिविजय जी महाराज नी आज्ञा मांज चालता होवा थी तेमना दबाण ने लेईनेज आ पद स्वीकार कर्यु छे ते आपना वडीलोये वखत ने अनुसरी काम कर्यु छ । मूलचंद हीरजीनी वंदना स्वीकारशोजी. (११) पालणपुर । ता०१-१२-२४. स्वस्ती श्री लाहौर महा शुभ स्थाने आचार्य महाराज श्री वल्लभाविजय जी महाराज साहेब ना चरण कमलमा अत्र श्री Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । पालणपुर थी लि० श्री संघ समस्त नी वंदना १००८ वार अव. धारसोजी. आज रोज मुंबई थी मणीलाल मूरजमल्ल ना तार थी अमारा जाणवामां आव्यु छे के पंजाबना श्री संघ तर्फथी आजे • आपने आचार्य पद आपवानुं छे आ समाचार सांभळी श्री संघ मां घणोज आनंद थयो छे अने आ संबंधी श्री पंजाब ना श्री संघे घणुंज उत्तम कर्यु छे तेथी अत्रे ना श्री संघ तर्फ थी तार १ मुबारकबादी नो पंजाब ना श्री संघ उपर कर्यो छे। ता. ३-१२-१९२४ स्वस्ति श्री लाहोर महाशुभस्थाने पूज्याराधे सर्वेशुभोपमा लायक आचार्य ना छत्रीश गुणेकरी विराजमान आचार्य महाराज श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री वल्लभविजय जी महाराज नी पवित्र सेवामां मुंबई बंकर थी ली० आपना चरण कमल ना दास आज्ञांकित सेवक पारेख त्रीभोवन मलुकचंद कागदी नी वंदणा १००८ वार अवधारशो जी, विशेष विनंती साथ लखवानुं के आप साहब ने मागसर सुदी ५ ने दिवसे सकल संघनी समक्ष आचार्य पदवी आप्या ना शुभ समाचार सांभळी अमो घणाज खुशी थया छीये। १९८१ ना मागसर सुदि ८ वार बुधवार द० सेवक त्रिभुवन मलुकचंद नी वंदना १००८ वार अवधारशोजी. अमारा भाइ न्यालचंद देवजी नी वंदना १००८ वार अवधारशो जी. आजे घाटकोपर महाराज साहब पासे भयो Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । हतो त्यां संघ तरफ थी देरासर जमां पूजा श्रीफल नी प्रभावना करवामां आवी हती । (१३) ता० ४-१२-१९२४ परम पूज्य आचार्य महाराज श्री १००८ श्री वल्लभविजय जी महाराज साहेब तथा श्री संघ समस्त मु० लाहोर बडोदरा थी लि० वैद्य बापुभाई हीराभाई तथा वैद्य मणिलाल नी १००८ वार वंदना स्वीकारशी जी बाद लाहोर ना श्री संघनो तार आज रोजे मळयो तेनी हकीकत जाणी सर्वे श्री संघ खुशी थयो छे, आप श्री ने आचार्य पदवी मळी तथा मुनि ( पंन्यास ) सोहन विजय जी ने उपाध्याय पदवी आपी, पंजाब ना संघे आप साहेबो नी जे अपूर्व भक्ति करी ते बद्दल लाहोर ना संघ ने धन्यवाद घटे छे, आप श्री आचार्य ने माटे सर्वोत्तम लायक छो तेथी आप जेवा लायक ने लायक पदवी मळवा थी अत्रे नो संघ घणोज खुशी थयो छे, संघ समस्त ना तरफ थी तार आज रोजे कर्यो छे एटले अमे जुदो तार कर्यो नथी आपना कृपा कांक्षी वापुभाई वैद्य ना सपरिवार नी वंदना स्वीकारशो जी । ५०५ ( १४ ) श्री वडोदरा. ता. ८-१२-२४ परमपूज्य आचार्यजी महाराजजी साहेब श्री विजयवल्लभ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन | सूरीजी महाराजजी साहेब. तथा श्री उपाध्यायजी महाराज साहेब आदि मुनि मंडलनी पवित्र सेवमां श्री वडोदराथी ली ० आपनो सेवक चिमनलाल विगेरेनी वंदना १००८ बार अवधारसोजी आप साहेबना दर्शननो पत्र घणाज दिवसथी नथी तो सेवक पर पत्र लखवा आपना कोमल हस्तने जरा वार तस्दीदेशोजी. आप साहेब आचार्य पदवी पाम्या छो तेम उपाध्यायजी महाराज सो. वि. थया छे जे थी हमारा दिल मां हर्ष रेतो नथी हमने तो शुं पण वडोदरानो श्री संघ घणोज खुशी थई गयो छे । . ( १५ ) ५०६ वदि ८ वार शुक्र स्वस्ति श्री लाहोर मध्ये छत्रीस गुणधारक बाल ब्रह्मचारी महाव्रत धारी जीवदया गुण भंडार श्री श्री श्री आचार्य महाराज श्री वल्लभ सूरीश्वर तथा उपाध्यायजी सोहनविजयजी वगेरे साधु मंडल, सुरत बंदरथी ली ० तलकचंद दयाचंद तथा धर्मचंद वीगेरेना १००८ वार वंदना आपना चरण सेवामां कबूल करशो, "विशेष लखवानुं के भावनगरनुं चोपानीयुं आत्माराम सभानुं वांची घणोज आनंद थयो छे तेमज जैन पेपर वांच्युं तथा प्रजामित्र वांची वाकेफ थया छीए अती आनंद थया छीए, अमो तुमारो उपगार घडीपण वीसरता नथी, तुमो उपगारी मुनि महाराजनी धर्मलाभनी राह जोतो बैठो छु । रतनचंदना वंदना वांचशोजीः Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन (१६) . ता १३-१२-२४ स्वस्ती श्री लाहौर महा शुभस्थाने पूज्याराधे सर्वे शुभ उपमां लायक पंच महाव्रतधारी आचार्य महाराज श्री श्री श्री वल्लभाविजयजी तथा आदि ठाणा सर्वेनी पवित्र सेवामां एतान श्री मुंबइ बंदरथी ली. सेवक छोटालाल मोतीचंद ना तथा सह कुटुंब ना १००८ वार वंदना स्वीकारसोजी. जत लखवानुं जे आपनी आचार्य पदवी सांभळी अमो तथा सह कुटुंब बहुत खुशी थयो छीये. बीजुं श्री हमेश थी सासन नी सेवा बजावता आच्या छो अने हवे थी विशेष बजावशो अवी पूण आशा छ, शासनदेव आपनी कीर्ति ने तथा जिन्दगी ने आबाद राखो। बीजु आचार्य महाराज श्री श्री श्री आत्माराम जी नी पण अज मननी इच्छा हती, मुनि महाराज श्री वल्लभविजयजी शासननी रक्षा करशे, तेओ श्री नी मननी इच्छा श्री संघे पूरी पाडी छे, जो के आपने आचार्य पद लेवानी इच्छा न हती, पण संघना आग्रहथी तथा प्रवर्तकजी महाराज श्री कांतिविजयजी नी तथा हंस विजयजी नी आज्ञा थी संघनो बहुज आग्रह होवा थी लीधेल छ, शासन. देवता आपनी रक्षा करो एम हुँ प्रभु पासे मांगुं हुं । (१७) सुरत-वडा चउटा ता०३-१२-२४: मु० लाहोर मध्ये पुज्यपाद आचार्य श्री वल्लभविजय जी तथा उपाध्याय श्री सोहन विजयजी आदि ठाणा जोग श्री. Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५०८ आदर्श जीवन। सुरत थी लि. सेवक शा० फकीरचंद खीमचंद तथा नानकचंद भाई चंद नी वंदना १००८ वार अवधारशो जी.. . जत लखवानुं के लाहोर वगेरेना तार समाचार कांति विजय जी ना उपर जामनगर मध्ये आवेला ते वखते हुँ मारा पुण्योदय थी अचानक जामनगर गयेलो हतो, ते वखते आप नी आचार्य पदवी ना समाचार वांची घणोज आनंद थयो छे, दरेक तार मारा वांचवा मां आव्यो हतो तेथी विशेष आनंद थयो हतो। ली० सेवक नी वंदना स्वीकारशो। श्री लाहोर परम पुज्य गुरु महाराज श्री वल्लभ विजय जी आदि महाराज नी पवित्र सेवा में भावनगर बंदर थी ली. आप नो चरण उपासक सेवक मास्तर माणक लाल नानजी भाई तथा ची० भाई बाबूराम तथा श्राविकादि नी १००८ वार वंदणा स्वीकारशोजी. आज रोज श्रीजैन आत्मानंद सभा उपर अत्रे तार हतो तेथी जाण्यु जे आपने तथा पंन्यास श्री सोहन विजयजी ने श्री आचार्य अने उपाध्याय महाराज नी पदवी श्रीजैन संघ तरफ थी अर्पण करवा मां आवी ते जाणी परम आनंद थयेल छे, आप ते पदवी ने खरेखर लायक हता अने ते छेवटे पदवी आपवामां आवी तेथी अति हर्ष थयेल छे. द० पोते ता. ४-१२-२४ गुरु Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । - (१९) मुंबई. १-१२-२४. परम पुज्य परमोपकारी सदगणालंकृत श्रीमद् मुनि महाराज श्री १००८ श्री वल्लभविजयजी नी पवित्र सेवा मां मु० लाहोर। __ ली. मुंबई थी श्रावक लल्लु भाई गुलाबचंद हरिचंद मगन लाल ना सविनय १००८ वार वंदना स्वीकारशो........... वळी आप जेवा परमोपकारी अनेक शुभ गुणालंकृत प्रातः स्मरणीय मुनिराज ने आजना मांगलीक दीवसे श्रीजैन शासन ना. स्थंभ रूप श्रीमद जैनाचार्य नी पदवी श्री लाहोर ना संघे आपवानी जे उत्तम तक मेळवी छे, ते जाणी अमोने अत्यंत आनंद थयो छे, आप श्री जेवा उत्तम चरित्र ना धारनार गुणी मुनि राज ने जैनाचार्यनी पदवी आपवा मां आवी छे ते घjज योग्य थयुं छे. आ समाचार जाणी अत्रे सर्व ने घणो आनंद थयो छे, परमात्मा प्रत्ये अमारी एटलीज प्रार्थना छे के आप श्री जेवा गुणी अने परमोपकारी मुनि राज दीर्घायुष्य भोगवी जैन शासन नी कीर्तिमां वधारो करे. अस्तु ! द० मगनलाल ना १००८ वार सविनय वंदना अवधारशोजी (२०) श्री पार्श्वजिन प्रणम्य श्री लाहोर नगरे, शांत दांत त्यागी वैरागी शासनोद्धारक आदि अनेक शुभ गुणालंकृत पूज्य आचार्य महाराज श्री श्री १००८ श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज आदि समस्त ठाणा नी पवित्र सेवा मां योग्य, Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० आदर्श जीवन। श्री मुंबई बंदर थी ली. चीमनलाल जी प्रतापजी विगेरे नां १००८ वार वंदना अवधारशोजी । विशेष आपे मगशर शुद ५ रोज आपनी इच्छा न होवा छतां अनेक मुनिवर्य अने श्रावक समुदायना आग्रह थी आचार्य पद अंगिकार कया ना समाचार सांभळी अमो अति आनंदित थया छीए। - चीमनलाल नी वंदना. मगसर सुदि १० शुक्रवार द० सेवक छगनलाल पानाचंद नी १००८ वार वंदना अवधारशो जी। (२१) मुंबई. ता० ११-१२.२४ स्वति श्री लाहोर महा शुभ स्थाने पुज्याराधे परम पुज्य ......शासनोद्धारक जैन धर्म प्रवतेक एवा अनेक गुणे करी विराजमान श्री मद् आचार्य श्री विजयवल्लभ मूरि महाराज तथा आदि मुनि महाराज समस्त जोग श्री मुंबई थी ली. आपना दर्शनाभिलाषी आपना चरणकमलनी सेवा ना अभिलाषी सेवक खंभातवाळा (चोकशी) कस्तूरचंद मगनलाल तथा आपना सेवक उजमसी नी वंदना १००८ वार अवधारशो जी. अने आप साहिबनी आचार्य पदवी ना सयाचार सांभळी अत्यानंद थयो छे... " आपना सेवक कस्तूर नी वंदना १००८ अवधारशोजी' 'मगशर शुद १५ गुरुवार.... Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । (२२) पुज्य आचार्य सूरी जी बल्लभ विजयजी उपाध्याय सोहन विजय जी आदि ठाणा । मुंबई थी ली० नाना भाई बेन रुकमणी परिवार सहित १००८ वंदना अवधारशोजी । आपने संघे आचार्य पदवी आपी ते जाणी अमारा मनने घणा हर्ष पूर्वक आनंद थयो छे, आचार्य पदवी थवानी ते अत्रे कोईने पण खबर न होती श्रीसंघ ना तार थी खबर थई छे आनंद थयो छे । ता. २२-१२-२४ ५११ ( २३ ) स्वस्ति श्री लाहोर महा शुभ स्थाने अगणित गुण गणालंकृत गात्र परम पात्र मुनि महाराजाओ ना सिरताज छत्रीस गुणेकरी विराजमान आचार्य महाराज श्रीमान् विजयवल्लभ सूरि जी महाराज सपरिवार नी सेवा मां । मुंबई थी ली० आपना आज्ञाकारी सेवक पानाचंद प्रेमचंद तथा मोहनलाल पानाचंद तथा पदमशी पानाचंद आदि सकल परिवार नी वंदना १००८ बार अवधारशोजी. आप साहेबनी आचार्य पदवी ना समाचार मने बहुज मोडा मळया छे, तेथी तार करावी शक्यो नथी. आपनी आचार्य पदवी थी आखा संसार ने अपार हर्ष थयो छे, स्वर्गवासी श्री आत्माराम जी महाराजनी हयाती थीज आप भाव थी तो आचार्य छो, द्रव्य थी संसार नी रूढ़ी प्रमाणे हमणा आप Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ आदर्श जीवन । Arr...... .. ..AAMANNA आचार्य थया छो ते बहुज खुशी नी वात छे. आप चिरकाल सुधी जीवो, शासन नी ध्वजा फरकावो. मिति मागशर वद नोम रविवार. सेवक खीमचंद देवजी नी वंदना १००८ वार अवधारशो. पानाचंद प्रेमचंद नी वंदना १००८ वार स्वीकारशो. (२४) मुंबई १९-२-१९२४. श्रीमद् महाराज श्री श्री श्री आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी तथा उपाध्यायजी श्री श्री सोहन विजयजी आदि ठाणा, मुंबइथी ली० सुश्रावक गुलाबचंद सोभागचंद तथा अमारा माताजी परसनबाई तथा सरस्वतीबेन विगेरेनी वंदना १००८ स्वीकारशोजी".....आप साहेब ने लाहोर ना संघे आचार्य पदवी आपी ते जाणी हमो घणाज खुशी थयाछीए. आपश्रीने हमोए तार को हतो ते मळयो हो । * ली.गुलाबचंद सोभागचंद ना १००८ वंदना स्वीकारशो (२५) मुंबई मौन एकादशी वन्दे जिनवर्धमानम्. मूरि श्रीवल्लभमानंदम् वन्दे प्रातःस्मरणीय सर्वोत्कृष्ट सम* * इस पत्रमे तारका भेजना लिखा है परन्तु नहीं मालूम क्या कारण ? तार मिला नहीं है। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन । यज्ञ, परम पूज्य आचार्य महाराज श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वरजी नी पवित्र सेवामा निवेदन विशेष श्रीपंजाब समस्त श्रीसंघे आप पूज्यश्रीने संपूर्ण रीते योग्य एवी श्रीसूरि पदवी थी अलंकृत करेल छे ते योग्यज थयुं छे. तेने माटे हुँ मारो श्री संघ प्रत्ये हार्दिक आनंद जाहेर करूं छु । लि० आज्ञांकित सेवक भोगीलालना सविनय वंदना. (२६) सुरचंद० न० महेता. व मीती मारगसरवद १ (गुजराती) १३२ भुलेश्वर रोड शुक्रवार मुंबई नं. २ परम पूज्य पंच महाव्रत नाधारणहार छत्रीस गुणकरी वीराजमान श्री १००८ श्री आचार्य महाराज श्रीविजयवल्लभ मूरीश्वरजी तथा श्री उपाध्याय महाराज श्रीसोहनविजयजी महाराज तथा पंन्यासजी श्रीविद्याविजयजी गणी तथा महातपस्वीजी श्रीगुणविजयजी आदि ठाणा, जोग लाहोर, मुंबई थी श्रावक सुरचंद महेतानी वंदना १००८ वार चरण कमलमांअवधारशो जी. आप सर्वे साहबो सुखसातामां हेशीजा, अत्रे श्रीगुरुदेव महाराजनी कृपाथी कुशल मंगल वरते छे जी, आप साहेबने श्री आचार्य पदवी स्थापन थइ ते जाणी अति आनंद थयो छे, आप श्री दीर्घ आयुषी थाओ श्रीजैन शासननी उन्नति करता आव्या छो अने विशेष करो, लायक ने लायक - पदवी स्थापन थइ तेथी श्री संघमां घणो आनंद फेलाणो छ। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ आदर्श जीवन (२७) मुंबई ५-१२-२४ . स्वस्ति श्री शहर लाहोर मध्ये पंच महाव्रतधारी छत्रीस गुणेकरी विराजमान छः काय रक्षक शीलांगधारी शांत दांत गांभीयादिक गुणे विराजित, विद्याविशारद, शासन रक्षक परमोपकारी श्री श्री श्री १००८ आचार्य श्रीविजयवलभ सूरीश्वरजीनी पवित्र सेवामां मुंबइ बंदर थी ली. जवेरी सारा भाई भोगीलाल नी १००८ वार वंदना स्वीकारशोजी। विशेष आप साहिब ने आचार्य पद थी विभूषित थयेला जाणी अमने घणो आनंद उत्पन्न थयो छेः आपना जेवा रागी अने ममत्व रहित साधु महात्मा ने कोई पण पदवीनी अभिलाषा होती नथी, छतांपण आपनी विद्या तथा गुणो जेनो विकस्वर घणाय लांबा वखत थी थयेल छे, तेमज आ महान पद माटेनी आपनी योग्यता घणा लांबा वखत थी थयेली छे तेनो आज व्यवहारी रूप देखी अमने अति आनंद थयो छे आप जैन शासनना एक धोरी महात्मा छो अने खास करी आपना महान गुरुदेव ने पगले चाली पंजाब जेवी भूमी मां धमनी विजय फरका फोरववा आप जे श्लाघ्य प्रयत्न करो छो, ते त्यांना सर्व जीवो ऊपर उपगार अने शासननी अभिद्धि नुं कारण छे, आपनुं दृष्टांत बीजा साधुओं ने अनुकरणीय छ । अमो आशा राखीये छीये के आप जे प्रमाणे शासन नां महान कार्यो करता आव्या छो तेवाज महान कार्यो दीर्घायुषी थई करता रहेशो एवी नम्र इच्छा छ । सेवक साराभाई नी वंदना स्वीकारशोजी. Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : आदर्श जीवन । (२८), लाहौर नगर, तत्र शांत दांत त्यागी वैरागी शासनोद्धारक आदि अनेक शुभ गुणालंकृत परम पुज्य आचार्य महाराजनी पवित्र सेवामां योग्य मुंबई बंदर थी ली० नीचे सही करनाराओ नी १००८ वार वंदना अवधारशोजी, वि० अमोजे गये परमरोज आप साहिबे परम पवित्र आचार्य पद ग्रहण करवाना समाचार सांभळी अमो सौ अत्यंत खुशी थया छीए. आपने आचाय पद अर्पण करवानो परम पुज्य शासन प्रभावक स्वर्गस्थ आचार्य श्री विजयानंद मूरि जी नो खास विचार हतो, परन्तु तेओ साहिबना स्वग गमन बाद आप दरेक रीते आचार्य पद माटे लायकात धरावता छतां आप ते पद ग्रहण न करतां श्रीमद् विजयकमल सूरीश्वरजी ने वडिल समजी तेमने ते पद ग्रहण कराव्यु हतुं, त्यार बाद पण अनेक अग्रगण्य व्यक्तिओ तरफ थी अनेक वार आपने आचार्य पद ग्रहण करवा माटे अत्यंत आग्रह हतो छतां आप ते माटे तद्दन निःस्पृह हता, तेमज हालमा पण अमारा सांभळवा अने जाणवा मुजब आप पद ग्रहण करवा निस्पृह हता, परन्तु अनेक मुनि वय तथा श्रावक समुदाय ना खास आग्रह अने अत्यंत प्रेरणाथी आपे आपनी इच्छा न होवा छतां ग्रहण कर्यु ते अत्यंत योग्यज कर्युछे, जेथी अमो सौ घणाज आनंदित थया छीए, आप तीर्थोद्धार ना तथा शासनोद्धार ना अनेक कार्यों करो, अने शासन देवता तेमां आपने सहाय थाओ, एम अमे सौ इच्छीए छोए । मागशर शुद ८ ने बुधवार Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ आदर्श जीवन । छगनलाल पानाचंद मास्तरना १००८ वार वंदना अव धारशोजी. रतनचंद जीवराज नवलाजीनी वंदना अवधारशोजी । सहसमल्ल हंसाजीनी वंदना अवधारशो. मुंबई. १७-१२-२४ द० सेवक मणिलाल त्रिकमनी वंदना १००८ वार अवधारशोजी, घणा वर्षोथी, आचार्य पदवीनी झांखी करतो हतो परमा तेज पदवी में जोई नहींने हुं हाजिर नहिं तेने माटे तो घणीज दिलगीरी थई हती, पण आचार्य पदवी आप्याना समाचार थी घणोज आनंद थयो छे । (३०) घाणेराव २१-१२-२४ सव सद्गुणालंकृत परम पूज्य-पवित्र-परम माननीय, प्रातः स्मरणीय, जैनशासनोन्नत्ति कारक श्रीमान् विजयवल्लभमूरि महाराज साहेबनी पवित्र सेवामां वि. वि. लखवानुं के आपनी कुशलता चाहुं हुं बीजु लखवानुं के "जैनपत्र" नी अंदर मांगलिक समाचार वांचीने हुँ घणो खुशी थयो छु, म्हारी वत्ती श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज आदि समस्त मुनि महाराजने १००८ वार वंदणा जणावशोजी, एज. म्हारा लायक कार्य सेवा फरमावशोजी। द० सेवक गिरधर देवचंदनी वंदना मान्य करशोजी | Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। (३१) ता० २५-१२-१९२४ जंबुसर जैनाचार्य श्री १००८ श्रीमद् विजयवल्लभ मूरिनी पवित्र सेवामां मुः लाहोर, श्रीजैन धर्मोद्धारक परम पूज्य आचार्य महाराज श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जीना सदगत बाद अनेक परिषहो सहन करी पंजाब जेवा विकट प्रदेशमा विचरी जैनधर्मनी ज्योत प्रकाशीत करवा आपे करेलो अथाग श्रम माटे अत्रेनो संघ आभार माने छे.आपनो उपरोक्त परिश्रम तथा विशुद्ध चारित्र तथा संपूर्ण लायकातनो विचार करी पंजाबना समस्त संघे आप श्रीने जैनाचार्यनी पदवीथी विभूषित करवानुं शुभ पगलं भर्यु छे ते तद्दन प्रशंसनीय छे' अने अत्रेनो संघ तेने अंतःकरणना अवाजथी वधावी ले छे, परन्तु एथी विशेष आपने आचार्य पदवी थी विभूषित करवायूँ कहेतां आप आपना वडीलो तरफ जेवाने तेवाज पूज्यभाव राखवानी बतावेली इच्छाए आपना तद्दन सरस परिणामी अने निरभिमानी पणानो आबेहूब चितार बताव्यो छे. आपनी ए शुभ भावना माटे अत्रेनो संघ आपनो अंतःकरण पूर्वक आभार माने छ । ली० श्री जंबुसर जैन संघ तरफथी सेवक जगमोहन मंगलदास शाह नी वंदणा स्वीकारशोजी. काशी विश्वविद्यालय होसल न० ४।४१ ता०४-१-२५ पूज्यपाद आचार्य श्रीनी सेवामा ( लाहोर ) सादर वंदना. आप आचार्य पदवी पर बिराज्या सांभळी आजे मने जेटलो Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ आदर्श जीवन । आनंद थयो छे ते हुं पोतेज जाणुं हुं, तेनुं वर्णन समय आव्ये करीश | लि० आपना बाळको शांतिलाल, मगनलाल, अमृतलाल, ( ३३ ) श्रीसद्गुरुभ्यो नमः शान्त दान्त पंच महाव्रतादि अनेक उच्च गुणोए अलंकृत " श्री १००८ आचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरिजी महाराज तथा उपाध्याय पदालंकृत मुनिराज श्रीसोहन विजयजी महाराज आदि महात्माओनी पवित्र सेवामां, शुभ स्थान लाहोर - सुरवाडा थी लि० दर्शनाभिलाषी लालचंद, मनसुख, छगनलाल, दलसुखभाई, झवेर, नेमचंद, चीमन, सोना, बे पार्वती बेन विगेरे सर्व श्रावक श्राविकानी नम्रता पूर्वक वंदना अवधारजोशी । अत्रे आप सद्गुरुनी पूर्ण कृपाथी सुखसाता अनुभवाय छे आप परोपकारी गुरुरायने सदा सुख सातामां चाहिये छीये. दया लावी आ पापी गरीब सेवकोने पत्रद्वारा दर्शनदेवा कृपा करशोजी. विशेषमां योग्य समयानुसार आप श्रीने समस्त श्रीसंघे तरफ थी महान् पवित्र उत्कृष्ट आचार्य पदथी अलंकृत करेल 'जैन' पत्रथी जाणी अत्रे सर्वने अतिशय आनंद थयेल छे ते पवित्र पदयुक्त आप श्रीने शासनोन्नतिना संपूर्ण कार्योंमां शासन देवो सहायभूत थई चिरकाल आपश्रीनों उज्वल यश जगतमां अस्खलितपणे विस्तार पामो एज अंतरनी प्रबल भावना अने अभिलाषा छे । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जीवन। अमो दीन गरीब सेवको योग्य काम सेवा. फरमावशोजी 'पत्र पहुंचे थी जरूर प्रत्युत्तर आपी सेवको ने आनंदित करशो जी. एज नम्र विनंती. सं० ११८१ ना पोस सुदि २ शानिवार द. दर्शनातुर चरण किंकर झवेर नी सविनय वंदना १००८ वार अवधारशोजी। . नोट-कितने ही धर्मात्मा गुरुभक्तों के अन्यान्य पत्र भी आये थे, परन्तु अफसोस है के वे पत्र बे ख्याली में रद्दी में डाल दिये गये । उम्मीद है वे भाई साहिब मुआफ फरमायेंगे । प्रो. बनारसीदास जैन एम्. ए., लंडन का पत्र. . स्वस्ति श्री गुजरांवाला नगरे विराजमान श्री १००८ श्री मद्विजयवल्लभ मूरि जी जोग लन्दन से सेवक बनारसीदास का सविनय वन्दना नमस्कार वाँचना । यह समाचार सुन कर मुझे निहायत खुशी हुई है कि आप ने पंजाब के जैनियों का उद्धार करने का भार अपने जिम्मे ले लिया है अर्थात् स्वर्गवासी गुरु महाराज के लगाए हुए पौधे की आप सब प्रकार रक्षा करेंगे और इस का चिन्ह रूप आचार्य पद आप ने धारण कर लिया है । काम तो बड़ा कठिन है परन्तु आप ने गुरु महाराज के अन्तेवास में सब अवस्थाएं देखी हैं और आप यहाँ के लोगों से भली प्रकार परिचित हैं। परमात्मा आप को इस काम में सिद्धि देवें । स्वामीजी महाराज तथा अन्य मुनिराजों के चरण कमलों में वन्दना नमस्कार । BANARSJ DAS, JAIN, 112, GWER STREET, ____LONDON, W.CI. समाप्त. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० आदर्श जीवन। . पहलेसे दस या इससे अधिक ग्रंथोंके जो सज्जन ग्राहक हुए उनके शुभ नाम- ' १ श्रीसंघ पट्टी (पंजाब) प्रति १२ २ श्रीसंघ जंडियालगुरु (पंजाब) ३ लाला हीरालालजी जैन, संघवी कांगडा, होशियारपुर २५ ४ मंत्री आत्मानंद जैन सभा होशियारपुर ५ श्रीसंघ गुजराँवाला (पंजाब) , ६ सेक्रेटरी आत्मानंद जैन सभा अंबाला ७ रूपाजी लाधाजीकी कंपनी बंबई नं. २ , ८ भूताजी मूरतिंगजी बंबई .. ९ लाला दलेलसिंहजी दिल्ली १० गुलाबचंद हेमाजी मु० श्रीगाँव ( थाना) ११ जैन नवयुवक मंडल मु० हरजीका १२ ला० फग्गूमल माणिकचंद लाहोर १३ वनेचंद माणकचंद, बंबई १४ देवचंद वरदाजी, बंबई १५ एक सद्गृहस्थ, Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन उत्तरार्द्ध । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामानेके शास्त्रार्थादिका वर्णन। वि. सवत् १९५६ के सालमें मुनि श्रीकुशलविजयजी, हीरविजयजी, सुमतिविजयनी, वल्लभविजयजी, ( हमारे चरित्र नायक ) लब्धिवियनी और ललितविनयजी छः साधु शहेर समाना ( जिलापटियाला पंजाब ) में एक महीने तक रहे । मुनि श्रीवल्लभविजयनी व्याख्यान करते थे। व्याख्यान क्या करते थे मानो अमृतपान कराते थे। सेवकोंके सोये हुए दिल पुनः जागृत हो गये । बेशक वल्लभविजयजी नाम-गुण निष्पन्न ही हैं। स्वर्गीय गुरु महाराज श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरिजी महाराज ( आत्मारामनी महाराज ) ने जिस वीरशासनको उसके शुद्धरूपमें, पंजाबमें फैलाया था, उसकी सारसँभाल लेना इन्हींका कार्य है। ये सबको प्रिय लगते हैं, मगर कुमतियोंकी आँखोंमें काँटेसे खटकते हैं । सूर्य सबको अच्छा लगता है, मगर उल्लको उससे जलन है, इसका कोई क्या करे ? भाग्य उल्लूके । दूँढ़ियोंको चिन्ता हुई कि यहाँ पुजेरोंका पैर जमने लगा है और हमारा उखड़ने । बात कुछ ऐसी ही बनी है । अभी सं० १९६० के फाल्गुन महीनेमें मुनि श्रीहीरविजयजी, श्रीवल्लभविजयनी, श्रीविमलविनयजी और श्रीकस्तुरविजयजी इन चार Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) साधुओंका फिरसे शहर समानामें आगमन हुआ। मुनि श्री वल्लभविजयजीने ऐसी व्याख्यानकी झड़ी लगाई कि मेघको ईर्ष्या हो गई और वह व्याख्यान झडीको अपने जलप्रपातमें बहा लेजानेको तैयार हुआ मगर वह मुनिराजकी समानता न कर सका। हार कर चला गया। मुनिराजके वचनामृतकी झड़ी लगातार होती ही रही। उसने सच्चे धर्मवृक्षको पल्लवित कर दिया और हूँढियोंके मानको गाल दिया । इस वक्त जो धर्मका उद्योत शहर समानामें हुआ ऐसा पहले कभी उसे नसीब नहीं हुआ था । हमारे और सभी सेवकोंके (श्रावकोंके ) हौसले बहुत बढ़ गये । सबको यह निश्चय हो गया कि, बड़ोंके कथनको इन्होंने सफल किया है और करेंगे । हमारे गुरु महाराजनीको तथा मुनि श्रीवीरविजयनीको जो तकलीफें जैनाभास ढूंढियोंने दी थीं उनका बदला मिल गया। अर्थात् जैनधर्मका झंडा सदा फर्गता रहे इस गर्नसे जिन-मंदिर बनाना शुरू हो गया । दूँढियों के मुखसे बेतहाशा निकल पड़ा--" हमारे छाती पर जन्मभरके लिए यह साल हो गया।" ढूंढियोंने मंदिर न बनने देनेके लिए शक्तिभर प्रयत्न किया मगर उनको सफलता न हुई । शासनदेवकी कृपा और मुनिनीके प्रभावंसे मंदिर बनना न रुका । सभी हिन्दु-मुसलमान इस मंदिरके बननेमें खुश थे । नाराज थे केवल दूँढिये । x xxx ..: लुधियाना, जैडिआला, पट्टी, दिल्ली, गुजराँवाला, आदि Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शहरोंके श्रावक मुनिराजोंके दर्शनार्थ आये थे। पूजा-प्रभावनादि धर्मकार्य अच्छे हुए। शहरमें धार्मिक उत्साह अच्छा बढ़ा हुमा है । x xxx शहरमें उत्साह बढ़ने और धर्म तथा गुरुमहाराजकी महिमाका विस्तार होनेसे दुखी होकर दूँढियोंने छेड़ छाड़ प्रारंभ की। . एक दिन कन्हैयालाल बंब आकर पूछने लगा कि, “शास्त्रोंमें तो पानीकी एक बूंद भी रातमें रखना मना है और तुम घड़ोंके घड़े भरे पानी क्यों रखते हो ? " , मुनि श्रीवल्लभविजयजीने जवाब दिया कि,-" हम रातको पानी, उसमें कली चूना डालकर रखते हैं। इसमें चोरीकी कोई बात नहीं है। श्रीनिशीथसूत्रके चौथे उद्देशमें लिखा है कि जो साधु या साध्वी, लघुशंका या दीर्घशंका जाके शुचि नहीं करता है या शुचि न करनेवालेको मदद देता है उसे प्रायश्चित्त आता है । इस लिए हम पानी रखते हैं। मगर तुम्हारे गुरु ढूंढिये साधु नहीं रखते हैं वे क्या करते हैं ? " कन्हैयालालने पूछा:-" जरूरत पड़ने पर पानीका रखना क्या किसी सूत्रके मूलपाठमें लिखा है ?" वल्लभविजयजीने कहाः- हाँ, बृहत्कल्पके पाँचवें उद्देशमें यह बात लिखी है।" Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) - कन्हैयालालने दोनों बातें नोट कर ली और कहा कि. वह अपने पूजनीसे ये बातें पूछेगा। मुनि वल्लभविजयजीने उसे ढूंढिये साधु ऋषिराजकी बनाई. हुई 'सत्यार्थसागर नवीन ग्रंथ ' नामकी पुस्तक दिखाई और कहा-“ देखो तुम्हारे साधु ही इस विषयमें क्या लिखते हैं।" उस पुस्तकके ४ ३९ वे पेजमें यह लिखा है, प्रश्न—साधु साध्वी लघुनीत ( पेशाब करना ) बड़ी नीत. (पाखानेजाना ) होकर यदि शरीर शुचि न करे तो प्रायश्चित्त होय के नहीं ? ... उत्तर–प्रायश्चित्त होय । निशीथसूत्रके उद्देशमें कह्यो है ते. पाठ ( जो भिक्खु उच्चार पासवनं परिठ वित्ताणाय मंतंवा साइज्जइ १४०) अर्थ-जो कोई साधु साध्वी दिशामात्रा (पाखाने पेशाब ) फिर कर पानीसे शुचि न करे तो प्रायश्चित्त होय ।। जो साधु साध्वी रोगादि कारण विशेष जानकर शरीर शुचिके वास्ते रात्रिको राख मिलायकर पानी शरीर शुचि कारणे रक्खे तो कोईसा साधुका महाव्रत नहीं जाता है। क्योंकि लघुनीत बड़ीनीतकी दुर्गध जहाँ तक होगी, वहाँ तक सूत्र पढ़ना मना है। और प्रभातकाले पडिकमणा कैसे करे और व्याख्यान सूत्रका कैसे करे ? जो शुचि शरीर न हो; असिझाइ रहे तो सूत्रमें असिझाइ टालनी कही है। कन्हैयालालने पूछा- "तुम्हारा रजोहरण छोटा क्यों है ? Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुनि महाराजने कहा-“ महानिशीथ सूत्रमें लिखा है कि, जो साधु विना प्रमाणके रजोहरण रखता है अथवा रखनेवाटेको सहायता देता है उसे प्रायश्चित्त आता है। वह पाठ इस तरह है " जे भिक्खु अइरेग पमाण रयहरणं धरेइ धरतंवा साइजह ते सेवमाणे आवज्जइ मासियः परिहारहाणं उग्धाइयं ।” सो तुम अपने गुरुओंसे बत्तीस शास्त्रोंके मूलपाठमें रजोहरणका प्रमाण पूछ लो और फिर मिलालो । जिसका प्रमाण मिले वह सही और जिसका प्रमाग न मिले वह भगवानका साधु नहीं।" इस बातका भी उसने नोट कर लिया और वह यह कह कर चला गया कि, इसका भी उत्तर मँगवाऊँगा; मगर आज तक कोई उत्तर नहीं मिला इससे स्पष्ट है कि, इंन हूँढियोंमें जरूर पोल ही भरी हुई है; क्योंकि यदि ऐसा न होता तो ढूंढियोंके वर्तमान पूज सोहनलालजी और मयारामजीसे पूछकर कन्हैयालाल जरूर उत्तर देता बस सिवाय हठके और कुछ नहीं है। एक दिन कर्मचंद बंबने जोरमें आकर कहा कि-" प्रश्न व्याकरणके मूलपाठमें लिखा है कि जिनप्रतिमाकी पूजा करनेवाला मंद बुधिया है।" महाराज श्रीवल्लभविजयजीने पूछा-" यदि ऐसा पाठ न निकले तो क्या करना ? " Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचंद-यदि ऐसा पाठ न निकलेगा तो मैं ढूँढकपंथ छोड़ दूंगा । यदि निकल आयगा तो तुम क्या करोगे? मुनिजीने बड़े हौसलेके साथ उत्तर दिया--" एक प्रश्न व्याकरण ही क्या यदि किसी भी जैनशास्त्रमें ऐसा मूलपाठ निकल आवे कि, जिनप्रतिमा पूजनेवाला मंदबुधिया ( मंद बुद्धिवाला ) होता है तो मैं ढूँढक पंथ स्वीकार कर लँगा।" - अच्छा किसी पढ़े हुए साधुसे पूछ कर आपके पास आऊँगा।" कह कर कर्मचंद चला गया । मगर सोहनलालजी, मयार.मजी आदिके होने पर भी आज तक उसने मुँह नहीं दिखाया । इसी तरह लाला देवीचंद दुग्गड़के पुत्र लाला सुरजनमलने भी प्रण किया था कि, यदि सोहनलालनी पंडितोंकी सभामें बैठकर तुम्हारे साथ चर्चा न करेंगे तो मैं ढूँढक पंथ छोड़ दूंगा सो प्रतिज्ञा पूरी करने में पूरे ही सूरमें निकले । चर्चाके लिए जो सभा बुलाई गई थी उसमें एकत्रित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी जैनेतर सज्जनोंने जो निर्णय चर्चाकी सभाका प्रकाशित किया था वह पूरा यहाँ उद्धृत किया जाता है। इसके नीचे करीब सत्तर उन व्यक्तियोंके नाम हैं जिन्होंने सभाकी तरफसे यह विज्ञापन प्रकाशित किया था। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्रीवल्लभविजयजी की जयपताका अथवा ढूंढकमतपराजय शहर समाना रियास्त पटियाला के ब्राह्मण क्षत्रिय महाजन जिनको यद्यपि जैनमत से कोई संबंध नहीं परंतु सत्य के प्रकट करने में कोई हानि न समझ कर सर्व साधारण को विदित करते हैं कि हमारे इस शहर में तारीख ५ फरवरी सन् १९०४ शुक्रवार के दिन महाराज श्रीआत्मारामजी की समुदाय के साधु, मुनि श्रीहीरविजयजी आदि ४ साधु पधारे और भावड़ों के मुहल्ला व मकान में जो तबेले के नामसे मशहूर है उतरे, प्रतिदिन कथा हुआ करती थी, एक दिन कथा में देवीचंद के पुत्र सुरजनमल भावडा दुग्गड गोत्रीयने कई क्षत्रिय महाजनों के समक्ष प्रतिज्ञा की, कि मैं सोहनलालनी साधु की साधु वल्लभविजयजी के साथ चर्चा कराऊँगा । यदि सोहनलालनी चर्चा न करेंगे तो मैं ढूंढ़िया पंथ छोड़ दूंगा, इस पर भावड़ों के सिवाय हम लोगों ने साधु मुनिराजों से प्रार्थना की कि यद्यपि आपका महीना पूरा होनेवाला है और हम लोग यह भी जानते हैं कि साधु किसी खास कारण के विना एक मासोपरांत नहीं ठहरते, किंतु यह भी एक धर्मका कार्य है, धर्म के वास्ते अधिक ठहरने में कोई हानि नहीं, Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) " कदाचित आपके चले जाने के पीछे ढूंढ़िये कहें कि पूजेरे साधु भाग गये, इसलिये यावत् ढूंढिये साधु यहां न आवें और कोई निर्णय न होजाय, तावत् आपका यहां से जाना उचित नहीं । हमारी इस प्रार्थना को महात्माओं ने सानंद स्वीकार किया और कहा कि तुम निश्चिंत रहो यावत ढूंढिये साधु आकर यहां से विहार न कर जांयगे तावत् हम यहां से न जांयगे, परंतु उन का विहार कैथल से समाना की ओर होना चाहिये । इस पर समाना के तीन आदमी साधु सोहनलाल और मयाराम आदि को शहर समाना में लानेके लिये केथल गये और कैथल से विहार कराकर अपने साथ ले आये, और ९ मार्च १९०४ बुधवार को सोहनलालजी शहर समाना में आगये, उनके सेवकों ने उनसे चर्चा के वास्ते कहा जबकि अनुमान ९७ क्षत्रिय, ब्राह्मण, महाजन भी विद्यमान थे । सोहनलाल जी के वार्तालाप से यह प्रकट हुआ कि वह चरचा से सर्वथा विमुख हैं क्योंकि साधु वल्लभविजयजी ने कहा था कि दो वा चार पंडितों को मध्यस्थ करके खुले मकान मैं चरचा की जाय । सोहनलालजी ने इस पर यह उत्तर दिया कि हम अपने स्थान को छोड़कर दूसरे के स्थान पर नहीं जासक्ते, जिसको कोई शंका हो वह हमारे यहां आकर शंका दूर कर ले, पंडितों की कोई जरूरत नहीं, पंडित लोग क्या जानते हैं ? यह सुन वहां बैठे हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, महाजन गुस्से में आये कि बड़े • Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) अफसोस की बात है कि जब पंडित नहीं जानते तो क्या गधे चराने वाले कुम्हार जानते हैं ? मालूम होता है कि ये सब अपठित एकत्र होरहे हैं और इसी कारण यह अपना स्थान छोड़कर पंडितों के सामने शास्त्रार्थ करना पसन्द नहीं करते, अस्तु इनकी इच्छा हमें क्या । सब लोग अपनी अपनी दुकानों पर आ बैठे, किन्तु जगत् आरसी सदृश है जैसा देखेगा वैसा कहेगा, बाजारमें धूम मच गई कि ढूंढिये साधु पुजेरे साधुओं के साथ किसी प्रकार भी बातचीत करने के योग्य नहीं, यह सुनकर ढूंढिये भावड़ो ने सोहनलाल जी के पास जाकर कहा कि इस बातमें बड़ी हीनता है किसी तरह से उत्तर दिया जाय तो श्रेय है । सोहनलालजी ने अपने सेवकों को ऐसा पत्थर पकड़ाया कि जो धरा जाय न उठाया जाय, अर्थात् यह बतलाया कि आत्मारामजी ने जैनतत्वादर्शके पृष्ठ ४०९ पर सूत्र महानिशीथ के तीसरे अध्ययनका पाठ लिखा है, सो यह पाठ महानिशीथ के तीसरे अध्ययनमें नहीं है । इस धोखे में आकर सुरजनमल भावडा ने पूज्य बक्षीराम को यह प्रतिज्ञा लिख दी कि यदि महानिशीथ के तीसरे अध्ययन में जैनतत्वादर्शका पूजा बाबत लिखा हुआ पाठ निकल जायेगा तो मैं ढूंढियापन्थ त्याग दूंगा । यह बात पूज्य बक्षीराम ने स्वीकार करली और प्रतिज्ञापत्र दोनों की ओर से लिखे गये, जिसपर तारीख १६ मार्च १९०४ बुधवार को दिनके एक बजे अनाजमंडी के बीच कटड़ा में सभा Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) लगाई गई । साएवान, दरी और मेज़ आदिक से सभास्थान सुसज्जित किया गया, लाला रलाराम व जगन्नाथ व लाला वखशीराम साहिब तथा शहर के चौधरी विद्यमान थे। और उस समय सर्व जाति के अनुमान १००० आदमी विद्यमान थे और सरकारी पोलीस का भी प्रबन्ध था। अनेक पुरुषों से परिवरे हुए साधु हीरविजयजी, वल्लभविजयनी, विमलविजयनी, कस्तूरविजयजी, चारों साधु अपने शास्त्र लेकर बड़े आनन्द और प्रेम से सभामंडप में आ पहुंचे । सनातनधर्मीय लाला जगन्नाथ, लाला रलाराम, लाला बखशीराम, बिहारीमलकी आज्ञा लेकर लाला रलाराम जगन्नाथ की दुकान पर अपने आसन जमा लिये और साधु वल्लभविजयनी ने खड़े होकर जैनधर्म का स्वरूप वर्णन करना प्रारम्भ किया और कहा कि प्रायःलोगों को ढूंढियों और पुजेरों का भेद मालूम न होने से ढूंढियों और पुजेरों की भिन्नता मालूम नहीं होसक्ती । ढूंढियों और पुजेरों में इतना फरक है कि जितना रात और दिन का । ढूंढिये मूर्तिपूजा से सर्वथा इन्कार करते हैं और पुजेरे मूर्तिपूजा को जैनशास्त्रानुसार स्वीकार करते हैं। पुजेरे साधु दिशामात्रा करके शुची निमित्त रातको कली चूना डालकर अपने पास पानी रखते हैं और द्वंढिये साधु सर्वथा पानी नहीं रखते । जैनमत के शास्त्र निशीथसूत्र के चौथे उद्देशे में कहा है कि जो साधु दिशा मात्रा हो करके शुद्ध न हो, उसको दण्ड आता है । जब यह ढूंढिये साधु Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) रात को अपने पास पानी नहीं रखते, तो शुचि किस तरह करते हैं ? जैनशास्त्रों में सूतकपातक माना जाता है परन्तु ढूंढिये बिलकुल नहीं मानते । इत्यादि विषयों का वर्णन होने लगा तो ढूंढिये भावड़े झट चमक उठे और कोलाहल करने लगे कि इन विषयों को छोड़कर पहिले हम को महानिशीथ का पाठ दिखाओ, यद्यपि सब लोग इन्हीं विषयों को सुनना चाहते थे परन्तु ढूंढियों के कोलाहल और आग्रह से सब लोगों ने प्रार्थना की कि महाराजनी इनकी शांति के लिये पहिले आप पाठ ही दिखला दें। इस पर उसी समय महानिशीथ के तीसरे अध्ययन का पाठ जैनतत्वादर्श पृष्ठ ४०९ के साथ पूज्य बक्षीराम द्वारा उनको दिखलाया गया । महानिशीथ सूत्रानुसार गृहस्थी को मूर्तिपूजन सिद्ध किया गया, साधु बल्लभविजयजीने कहा कि यदि यह अर्थ जो पूजा के विषय में सूत्र महानिशीथ का बताया गया है असत्य है तो तुम्हारे ढूंढिये साधु सोहनलाल व मायाराम आदि जो यहां हैं उनको बुलाकर हमारे सामने निर्णय करालो, मूर्तिपूजन सत्य है वा असत्य है। यदि असत्य है तो महानिशीथ सूत्रानुसार असत्य करके दिखावें, नहीं तो मूर्तिपूजन का निर्णय हमारी तरफ से सिद्ध होगया। उसी समय ढूंढिये भावड़ों ने जाकर अपने साधुओं से कहा कि महाराज आज हमारे मत की बड़ी हानि हुई है आप चलकर उनको उत्तर दें, नहीं तो हमको उन से निरुत्तर होना पड़ता है । यद्यपि ढूंढिये साधु पहिले. कह Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) चुके थे कि हम दूसरे के स्थान पर या सभा में नहीं जासकते परन्तु भावड़ों के कहने से अपनी प्रतिज्ञा को छोड़ना पड़ा और भावडों के साथ तीन साधु कटड़े में आये; किन्तु सोहनलाल व मायाराम जो बड़े साधु थे, उन में से कोई भी न आया । तीनों साधुओं को सभा के चौधरियों ने कहा कि महाराज आप इन साधुओं के निकट आकर अपना जो कुछ वादविवाद है निर्णय करलेवें । परन्तु उन्होंने यह बात स्वीकार न की और सभा से जुदे एक किनारे पर बैठकर अपने सेवक भावड़ों को अपना जो कुछ मन्तव्य था कह सुनाया। सभा के लोगोंने साधु वल्लभविजयजी से प्रार्थना की कि यदि वे तीनों साधु इस जगह नहीं आते तो आप ही उनके पास चले और वार्तालाप करके हमें सत्यासत्य से विदित करें । यह बात सुनते ही वल्लभविनयजी उन तीनों साधुओं के पास जा खड़े हुए और कहा कि जो कुछ तुमने कहना है सो कहो, हम उसका जवाब देंगे। ढूंढिये साधुओं ने कहा कि हम तुम्हारे साथ चरचा करने को नहीं आये । तब लोगों ने कहा,-तो क्या यहां कोई तमाशा था जो देखने आये हो ? ढूंढियोंने कहा कि हम तो इन भावड़ों के कहने से पूज्य बक्षीराम को पाठ सुनाने आये हैं, तब लोगोंने साधु वल्लभविजयनी को कहा कि महाराज आप अपने आसन पर पधारे, ये तो बोलने से भी कांपते हैं, आपके साथ प्रश्नोत्तर क्या करेंगे । इस पर स्वामी वल्लभविजयनी अपने आसन Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) पर जा बिराजे और दूढियोंने जो कुछ मुंहमें आया सच झूठ बोला। ढूंढियों ने अपने सेवकों और पूज्य बखशीराम को महानिशीथ का पाठ सुनाना प्रारम्भ किया । पूज्य साहिब ने ढूंढिये साधुओं को ऐसा निरुत्तर किया कि वह बोलने से भी अशक्य हुए और जहां पूजा का पाठ आया ढूंढिये साधुओं ने वहां अंगूठा दे दिया । पूज्य बक्षीराम ने कहा कि अंगूठा उठाकर यह पाठ पढ़ो, सुनते ही ढूंढिये साधुओं के होश उड़गए । लोगों ने तालियां मारनी शरू करदीं, यदि उस समय पुलिस का प्रबन्ध न होता तो जाने ढूंढ़िये भावड़े कितने लोगों की दया पालते ? वाह खूब दयाधर्म निकाला है, ऐसे दयाधर्म की बलिहारी । लाचार अपना सा मुंह लेकर ढूंढ़िये कटड़े से बाहर निकल अपनी कोठी में जा घुसे, ढूंढ़ियों के पलायन करने के पीछे बड़ी धूमधाम और अंग्रेज़ीबाजे से बाज़ार में स्वामी आत्मारामजी की जय बुलाते और श्रीपार्श्वनाथजी के भजन गाते और खुशियां मनाते श्रीहीरविजयजी और श्रीवल्लभविजयनी आदि साधुओं को जहां वे उतरे हुए थे वहां पहुंचा दिया। उस समय अनुमान ५०० आदमी मकान तक साथ आए । इस खुशी में पुजेरे भावड़ों की तर्फ से सब को परशाद बांटा गया। इस सर्व वृत्तांत का सार यह है कि हमारी संमति में पुजेरों का जो कुछ कहना व मानना है, सर्वथा जैनशास्त्रानुसार है और मूर्तिपूजा के विषय में जो कुछ. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) पुजेरों का कहना है, सो सत्य है । ढूंढ़िये जो अपवित्रता के गर्त में पड़े हुए हैं, सर्वथा असत्य हैं। सत्य है, जैसा पीवे पानी, वैसी बोले बानी । ढूंढ़िये मैला पानी पीते हैं और वैसे ही असत्य और अप्रमाणिक बोली बोलते हैं । शहर के लोगों की इच्छा थी की अगले दिन अर्थात् १७ मार्च १९०४ को फिर सभा लगा कर दोनों ही पक्षों के साधुओं की वार्तालाप सुनेंगे, परन्तु यह बात सुनते ही साधु सोहनलाल और मायाराम आदि १४ साधु प्रातः चल दिये, उनके दो दिन पीछे अर्थात् ता० १९ शनिवार को साधु हीरविजयजी व वल्लभविजयजी आदि बड़ी खुशीके साथ शहर नाभाकी तरफ़ प्रस्थित हुए । ' १ यह वर्णन आत्मानंद जैन पत्रिकाको सं० १९५६ की फाइल से लिया गया है । लेखक. Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ धर्मतत्व।” ( स्थान बड़ौदा, ता ९-३-१३ रविवार. ) ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदश्चैव, ओंकाराय नमो नमः ।। सभ्य महानुभावो ! आज मैं अपने पूज्य महात्मा सभापतिजीकी आज्ञासे आपके समक्ष कुछ बोलनेके लिये खड़ा हुआ हु। परंतु मेरे बोलने में यदि कहीं पर किसी तरहकी त्रुटि या स्खलना मालूम हो तो, सज्जनों का जो स्वभाव होता है उसके अनुसार ही आप लोग भी उसपर ध्यान न देते हुए केवल सार मात्रके ग्रहण करने में ही अपनी उदारता दिखलाएँगे ऐसा मुझे विश्वास है । और सदा ऐसी ही उदार बुद्धि रखनेके लिए आपसे मेरा निवेदन है । सदगृहस्थो ! वाणी (शब्द) को शास्त्रककारोंने पानीकी उपमा दी है, अर्थात् पाणी और वानी ये दोनों आपसमें बहुत ही सादृश्य रखते हैं। जैसे एक ही कूएका पानी कुल्या ( आड़ ) द्वारा भिन्न२ मार्गों में होता हुआ उद्यानके सर्व वृक्षोंको तृप्त करता है । जो पानी आमके पेड़को दिया गया है उसीसे नीमका वृक्ष भी सेचन किया गया है, परंतु आमके वृक्षमें उसकी मधुर रसमें परिणति होती है और नीमका पेड़ उसको कटु रसम Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) परिणत कर लेता है । इसी तरह वक्तासे मुखरूपी कूएसे निकलता हुआ शब्दरूप जल, श्रोताओंके कर्णरूप कुल्याद्वारा अनेक अन्तःकरण रूप वृक्षोंका सिंचन तो एक जैसा ही करता है, मगर उसके रसकी परिणति उनके स्वभावके अनुसार होती है। जैनाचार्य श्रीहरिभद्रसूरिनी एक स्थानमें लिखते हैं कि " एकतड़ागे यद्वत्पिबति भुजंगमो जलं तथा गौश्च । परिणमति विषं सर्प तदेव गवि जायते क्षीरम् ॥" यद्यपि साँप और गौ दोनों एक ही तालाबमें पानी पीते हैं पर साँपमें तो वह विषके स्वरूपको धारण करता है और गौके शरीर में उसे दुग्धका रूप प्राप्त होता है । इसी तरह जिस जलके प्रभावसे उद्यानमें अनेक प्रकारके सुन्दर पुष्पोंकी उत्पत्ति होती ह, वही तीक्ष्ण कांटोंका भी उत्पादक होता है । तात्पर्य कि, जैसे जलमें स्वच्छता और मधुरताका स्वाभाविक गुण होने पर भी अन्याय पदार्थोके संयोगसे उसके रसमें परिवर्तन हो जाता है। इसी तरह वाणी चाहे कैसी भी सरस और हितकर हो, तो भी श्रोता उसको अपने स्वभावके अनुकूल बना लेता है । इसी लिए सब श्रोताओं पर वक्ताकी वाणीका एक जैसा असर नहीं होता । वक्ताके विचारोंका श्रोताओं पर अच्छा या बुरा असर होना उनके अन्तःकरणके स्वभाव पर निर्भर है। इसमें वाणीका कुछ दोष नहीं, उसका अच्छे या बुरे रूपमें परिवर्तन श्रोताके आशय पर अवलबित है । इसलिए मेरे शब्दोंके विषयमें नुक्ता Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) चीनी न करते हुए उसके मात्र सरल आशयको ग्रहण करनेमें ही आप अपनी उदारता और सहृदयताका परिचय देंगें ऐसी मुझे आशा है । सद्गृहस्थो ! सुखकी अभिलाषा प्राणिमात्रको है, वह चाहे अमीर हो या गरीब, धनी हो चाहे निर्धन, संसार में छोटे से छोटे कीटसे लेकर बड़े से बड़े जानवर तक एवं साधारण मनुष्यसे लेकर इन्द्र आदि देवताओं तकमें ऐसा कोई भी जीव नहीं जो सुखकी इच्छा न करता हो ! पर सुखका साधन वही वस्तु है, जो कि मेरे आजके व्याख्यानका विषय है । शास्त्रकारोंने सब तरह के सुखका कारण धर्मको ही बतलाया है । इसलिये धर्मका पालन करना ही मनुष्य का सबसे पहला कर्तव्य ( फर्ज ) है । गृहस्थो ! एक बात पर विचार करते हुए मुझे बहुत आश्चर्य होता है । धार्मिक भाव अथवा धर्मके अनुष्ठान से मनु-ष्यको सुख मिलता है; यह हिन्दु, मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि सभी सम्प्रदायें पुकार रही हैं, और जिधर देखो उधर ही धर्म नामकी घोषणा सुनाई देती है । इससे मालूम होता है कि धर्म सबको प्यारा है और सभीने उसे ऐहिक और आमुष्मिकपरलोक सुखका हेतु माना है । परन्तु आज जितनी मारामारी लड़ाई बखेड़ा और परस्पर ईर्षा - द्वेष चल रहे हैं वे केवल धर्मके ही नामसे चल रहे हैं ! जो धर्म सुख और शान्तिका देनेवाला माना जा रहा है, उसीके नामसे आपस में भयंकर मारामारी *. 2 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) चले ! इससे मालूम होता है कि, धर्मके वास्तविक रहस्यसे लोग अभी बहुत कम परिचित हैं ! अन्यथा इतना भेदभाव न हो ! सज्जनो ! मेरा माना हुआ धर्म अच्छा और तुम्हारा बुरा ! इस प्रकार वृथा ही कोलाहल मचानेवालों के सिवा, आत्मा कोई पदार्थ है, और वह अपने शुभ अशुभ कर्मके प्रभावसे देव मनुष्य और तिर्यच आदि अनेक प्रकारकी उच्च नीच गतियोंमें भ्रमण करता है, इस सिद्धान्तको भ्रमयुक्त और कपोल कल्पित बतानेवाले भी संसारमें बहुत मनुष्य हैं ! उन्हें यह सिद्धान्त बहुत ही उपहासास्पद मालूम होता है ! परन्तु एक निर्धन और दूसरा धनवान, एवं एकका जन्मसे ही प्रतिभाशाली होना, और दूसरेका अनेक प्रकारके प्रयत्न करनेपर भी आजन्म मूर्ख रहना, अवश्य कोई हेतु रखता है । क्योंकि कार्यका भेद कारण भेद पर ही अवलंबित है। इस लिए आप्त पुरुषोंने उक्त भेदका कारण जो कर्मको बतलाया है, वह बहुत ही ठीक मालूम पड़ता है। शास्त्रकारोंका कथन है कि, जीवात्माके साथ ऐसी किसी वस्तुका संबंध अवश्य है जिससे अपने में एकत्व होनेपर भी अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है । कल्पना करो, एक ही पिताके दो पुत्र हैं। दोनों ही रूप और लावण्य में समान नजर आते हैं, पर जब उनके आंतरिक विचारों पर दृष्टिपात किया जावेगा तब भेद स्पष्ट ही ज्ञात हो जायगा। इस लिए आत्माके साथ संबंध रखनेवाला और परस्पर भिन्नताका नियामक पदार्थ कर्म है, यह Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) निर्विवाद है । आत्माके साथ कौंका संबंध कब हुआ ? इसका संक्षेपसे सरल और स्पष्ट उत्तर यही है कि, वह अनादि है । जैसे बीज और वृक्षका संबंध प्रवाहसे अनादि है, इसी तरह जीव और कर्मका भी अनादि संबन्ध है। सज्जनो ! आत्मा, मुक्त और संसारी भेदसे दो प्रकारका है। जिस आत्माने अनेक प्रकारके कर्मजन्य बन्धनोंको तोड़ कर मोक्षको प्राप्त कर लिया है वह मुक्त कहलाता है । इसके विपरीत अर्थात् कर्मोंसे जो बद्ध है वह संसारी अथवा बद्ध आत्मा कहलाता है । इस लिए जिस साधनके द्वारा-आत्मागे गुप्त रूपसे रहनेवाली ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि अनन्त शक्तियोंके यथावत् प्रकट होनेपर निरतिशय आनंद रूप मोक्षको यह आत्मा प्राप्त हो, उसका नाम धर्म है। अर्थात् आत्माको वैभाविक-हीन दशासे निकाल कर उन्नतिकी पराकाष्टामें पहुंचानेवाला जो कोई साधन है, उसे शास्त्रकारोंने धर्मके नामसे व्यवहृत किया है। अब आप विचार सकते हैं कि, जो धर्म इस प्रकारके सुखका देनेवाला हो, फिर उसके नामसे इतनी मारामारी चले ! इसका कोई अवश्य कारण होना चाहिए । जब तक इस कारणका अन्वेषण न किया जाय तब तक एकताकी आशा करना मनोरथ मात्र है ! . गहस्थो ! परस्पर धर्मोकी विभिन्नता रहने पर भी किसी प्रस्तुत शुभ कार्यके लिए भेदभावको त्यागकर सबको एकमत Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) होकर काम करना चाहिए ! यह जमाना अब परस्पर मिलकर काम करनेका है। शब्दोंके गोरख-धंदेमे ही फंसकर' कर्तव्य भ्रष्ट होते हुए अपना सर्वस्व खो बैठना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है । प्रकृतिका एक २ पदार्थ हमें ऐक्यके विश्वव्यापक सिद्धान्तकी शिक्षा दे रहा है । ऐक्यमें कितना बल है ? इसके अनेक प्रत्यक्ष उदाहरण देखने में आते हैं । सूतके बारीक बारीक डोरे अपनी भिन्न २ दशामे रहे हुए जरासा धक्का लगने पर सहजमें ही टूट जाते हैं । परन्तु अब वे एक दूसरेके साथ मिल जाते हैं, तब उन्हें ऐक मदोन्मत्त हस्ती भी तोड़नेके लिए समर्थ नहीं हो सकता! सजनो ! अपनी पाँचो अंगुलियाँ एक जैसी नहीं हैं और एकका काम दूसरी नहीं कर सकती। ऐसा होनेपर भी यदि कोई प्रश्न करे कि इनमें श्रेष्ठ कौनसी है ? तो इसका उत्तर देना कठिन है। क्योंकि अपने २ कार्यमें सभी श्रेष्ठ हैं । सभी अंगुलियाँ जब साथ मिलती हैं तभी कार्य होता है इसी तरह जब हम दूसरेको हलका न समझते हुए परस्पर मिलकर काम करनेमें प्रवृत होंगे तभी सफलताका मुँह देख सकेंगे! ( करतल ध्वनि) वास्तविक ऐक्य आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें है । जिस वक्त यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति मनुष्यको होती है, उसी समय सूर्यके प्रकाशसे अन्धकारकी तरह भेद भावका सदाके लिए नाश हो जाता है । यही तात्विक , विचार Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) धर्मसे प्राप्त होता है । इस लिए धर्म में सबकी अभिरुचि भी न्यून अथवा अधिक देखने में आती है। परन्तु अपनी २ मान्यताके अनुसार उसमें बहुत भेद भाव देखनेमें आता है इसका कारण यही मालूम पड़ता है कि, वस्तुमें जो अपेक्षा रही हुई है, उसकी तरफ हम दृष्टि नहीं देते । यदि अपेक्षासे पदार्थका विचार किया जाय तो भेद भाव नाम मात्रके ही लिए रह जाता है। गहस्थो ! यदि संसारके तमाम धर्मोको सर्वथा जुदा जुदा ही माना जाय, तब तो उसका कर्तव्य भी जुदा, उसमें कथन किया पुण्य पाप भी जुदा, उससे होनेवाली मुक्ति भी जुदी, और अन्तमें ईश्वर भी जुदा २ ही मानना पड़ेगा । यद्यपि ऐसा माननेवाले नजर भी आ रहे हैं, मगर इसका कारण यही है कि लोग हठ और आग्रहसे अपने ककेको ही खरा मान रहे हैं । आन संसारमें हिंदु, मुसलमान और ईसाई ये तीन धर्म अधिक प्रसिद्ध हैं ! इनमें हिन्दु यदि " अहिंसा परमोधर्मः " का ढंढोरा पीटते हैं तो मुसलमान भाई इससे विपरीत ही अपनी मान्यता बतला रहे हैं ! और ईसाई महाशय. दोनोंसे ही जुदा राग आलाप रहे हैं । अब प्रश्न होता है कि हिन्दुओंका ईश्वर भूल रहा है ? या मुसलमान भाइयोंके खुदाने गलती खाई ? क्योंकि दोनों ही ईश्वरको मानते और उसकी आज्ञाके मुताबिक चलनेको धर्म मानते हैं। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दोनोंके लिए ईश्वरका भिन्न २ उपदेश है । इमलिए दो ईश्वरों में एककी भूल तो मंजुर करनी ही पड़ेगी। परंतु विचारसे देखा जाय तो किसीके ईश्वरकी भूल नहीं, भूल सिर्फ अपनी ही है । अपने ही वस्तु स्थिति पर उचित विचार नहीं करते । यदि पानीके दृष्टान्त पर विचार करें तो इस बातका खुलासा बहुत ही जल्दी हो सकता है । एक ही नलकेसे एक ही जैसा पानी सबको मिलता है, मगर उसी पानीको लेकर एक आदमी तो “ हिन्दुका पानी " और दूसरा “ मुसलमानका पानी" कहकर पुकार रहा है । इसपर प्रश्न उपस्थित होता है कि, एक ही स्थानसे वह पानी लाया गया । और एक जैसा ही उसका रूप स्वाद और वज़न है फिर उसमें हिन्दु और मुसलमानपना कहाँसे आया ? इसके उत्तरमें यही कहा जा सकता है कि, पानीमें तो फरक नहीं परन्तु जुदे २ बर्तन-घड़ा वगैरामें पड़नेसे वह हिन्दुका और मुसलमानका कहालाया है । अर्थात् हिन्दुके बर्तनमें प:नेसे हिन्दुका, और मुसलमानके बर्तन में पड़ने से मुसलमानका । इसी तरह आत्माके संबंन्धमें समझना चाहिए । शरीर रूप बर्तन में जब तक यह आत्मा विद्यमान है, तभी तक इसके विषयमें अनेक प्रकारके भेद भावोंकी कल्पनाएँ की जाती हैं । शरीरके सम्बन्धसे कोई इसको ब्राह्मण, कोई क्षत्रिय, कोई पुरुष, कोई स्त्री, कोई उच्च और कोई नीच मान रहा है। परन्तु आत्मामें उच्चता और नीचता मात्र कर्मके अनुसार है । कुल गोत्रकी Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) उच्च नीचता आत्मामें हमेशांके लिए नहीं है । इस विषयपर महात्मा आनंद घनजीने बहुत ही ठीक कहा हैअवधू ऐसो ज्ञान विचारी । वामें कौन पुरुष कौन नारी ॥अवधू०॥ बामनके घर न्हाती धोती, जोगीके घर चेली। कलमां पढ़कर भइरे तुरकड़ी, आपो आप अकेली ॥ आत्माकी उन्नत्ति और अवनति उसके अच्छे बुरे विचारोंपर अवलंबित है। जैसे गंदा पानी अमुक प्रयोगसे साफ किया हुआ पीने लायक बन जाता है, इसी तरह मलिनात्मा भी सत् कर्मके अनुष्ठानसे निर्मल हो जाता है । ( करतल ध्वनि ) ___ महानुभावो ! धर्मका रहस्य समझनेके लिए किसी तत्त्वपर जब तक अमुक अपेक्षा, अथवा किसी एक दृष्टिको लेकर विचार न किया जाय, तब तक धर्मके नामसे पड़ी हुई भेदभावकी विकट ग्रंथिका सुलझना बहुत कठिन है । धर्मकी एकताके विना सामाजिक उन्नति और देशोन्नतिका होना मुशकिल है। धर्म सुखका एक मुख्य साधन है यह बात निर्धात है परन्तु उसको उचित रीतिसे कार्य क्षेत्रमें न लानेसे वह दुःखका कारण भी हो सकता है, और हो रहा है। इसका कारण अपनी २ स्वतंत्र मान्यता है । भिन्न २ प्रकारकी मान्यताओंसे धर्म भी सर्वथा भिन्न २ .एक दूसरेका विरोधी हो रहा है । परस्परके आघात प्रत्याघातोंसे विभिन्नताकी दावाग्नि उत्तरोत्तर अपना अधिक Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) प्रचंड रूप दिखा रही है ! यदि ऐसा ही रहा तो आशा नही कि भारतको सुखकी शय्या कभी स्वप्नमें भी नसीब हो सके ! सद्गृहस्थो ! पदार्थ मात्रमें अपेक्षा रही हुई है । वस्तुत्वका विचार करनेके लिए “ अपेक्षावाद " का मिद्धान्त बहुत उपयोगी है। आज जितना मतभेद दृष्टि गोचर हो रहा है उसका निराकरण, अपेक्षावादके सिद्धान्त द्वारा बड़ी सुगमतासे हो सकता है । अब मैं इस बातको एक उदाहरणसे बतलाता हूँ। स्नान करनेसे शरीरकी सफाई होती है, वह शृंगारकी मुख्य सामग्री है, यदि देवपूजाके उद्देश्यसे किया जाय तो वह (. स्नान ) धर्म कार्यमें उपयोगी होनेसे धर्म भी कहा जा सकता है। परन्तु बहुतसे आदमी स्नानमें ही धर्म मान रहे हैं ! यदि यह बात सर्वथा ठीक हो तब तो वेश्याको सबसे अधिक धर्मात्मा कहना चाहिए ! क्योंकि वह तो दिन भरमें चार पाँच दफा स्नान करती है। इसलिए मात्र सौन्दर्य वृद्धिके लिए जो स्नान है वह धर्म नहीं किन्तु देवपूजाके निमत्त किया गया स्नान देव पूजा जैसे धार्मिक कृत्यमें उपयोगी होनेसे धर्ममें परिगणित किया जा सकता है । तात्पर्य कि, किसी दृष्टिसे स्नानादि कर्म, धर्मके नामसे निर्दिष्ट किये जा सकते हैं, सर्वथा उनको धर्ममें समाविष्ट करना सत्यका निस्संदेह गला घोटना है। इसी तरह हरएक कर्तव्य विषयका अपेक्षावादकी पद्धतिद्वारा Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) विचार करनेसे ज्ञात हो सकेगा कि, उसमें रहस्य अवश्य समाया हुआ है। - सभ्य श्रोतृगण ! धर्मका लक्षण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-"दुर्गतौ प्रपतत्प्राणिधारणाद्धर्म उच्यते'' दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवको जो धारण करे अर्थात् उसको बचाकर सद्गतिमें स्थापन करे उसे धर्म कहते हैं । इसलिए परम सुख देनेवाले धर्म रूप पदार्थमें अपनी २ मान्यतासे विरोधका उद्भावन करना उचित नहीं । वास्तविक धर्म हमेशह एक ही तरहका होता है। उसमें भिन्नताका लेश, नाम मात्रके हि लिए होता है। जब तक विचार समूह एकत्रित होकर कर्तव्य परायण नहीं होता तब तक उद्देश्यकी सिद्धि आशा मात्र ही है। मुझे खेदके साथ कहना पड़ता है कि, 'स्वतंत्र' निरपेक्ष मान्यतासे प्रति दिन विरोध बढ़ रहा है ! कोई ईश्वरको कर्ता मानता है और कोई अकर्ता कहता है। और दोनों ही एक दूसरेको अधर्मी और अपने आपको धर्मात्मा समझ रहे हैं इतना ही नहीं किन्तु कभी २ दोनोंका उक्त विषयके निमित्तसे घोर युद्ध भी हो जाता है। नतीजा यह निकलता है कि, आपसके मेलका नाश होकर एक दूसरेके कार्यमें साहाय्य देनेके बदले उसका घोर विरोध करने लग जाते हैं। इसका फल अंतमें दोनोंके ही लिए हानिकारक साबित होता है। सज्जनो ! विचार वैचित्र्य रहने पर भी हमें मिलकर काम Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) करना चाहिए । परस्परके मेलसे परस्पर अवलोकनका लाभ होता हैं । परस्पर अवलोकन ( एक दुसरेके सामने देखने ) से मूल्य बढ़ता है; बस मूल्य बढ़ना ही उन्नति है। आप लोग रोज देखते हैं कि, ६३ का अंक तब बनता है जब ६ और ३ इन दोनोंका मुख एक दूसरेके सामने होता है। परन्तु वही जब अपने मुखको एक दूसरेसे फिरा लेते हैं तब वे ६३ के ३६ बन जाते हैं। ( करतल ध्वनिः ) इसी तरह जिस समय भारतीय धार्मिक साम्प्रदायिक मनुष्योंमें परस्पर मेल था और वे एक दूसरेको प्रेमभरी दृष्टि से देखते थे उस वक्त भारतवर्षका गौरव ६३ के अंकके समान अधिक था, परन्तु जबसे इसमें विमुखताका प्रवेश हुआ तब से यह ६३ की कीमतके बदले ३१ की कीमतका रह गया। ईश्वरको कर्ता और अकर्ता मानकर व्यर्थ कोलाहल मचानेके सिवा, यदि सत्य वस्तु क्या है ? इसकी खोज की जाय तो, लाभ बहुत हो । कितनेक लोगोंका कथन है कि, इस संसारको ईश्वरने ही बनाया है। वह जैसा चाहे वैसा करता है। यह कथन यदि ठीक ही मान लिया जावे तब तो किसीको राजा और किसीको रंक, किसीको अमीर और किसीको गरीब, एवं किसीको सुखी ओर किसीको दुःखी भी ईश्वरने ही बनाया होगा ! मगर सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मको इस प्रकारके नाटकसे क्या लाभ होता होगा? यह भी एक विचार णीय है। क्योंकि, वह कृतकृत्य है । रागद्वेषसे रहित है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) यदि उक्त भेदका कारण कर्मोको स्वीकार किया जावे जक तो कर्म करनेवाला जीव है, उसीके किये हुए कर्मका फल उसे मिलता है। ईश्वरके कर्तत्वका उससे कुछ भी सम्बन्ध नहीं । कहने का मतलब यह है कि, इस प्रकारके विरोधोद्भावनसे परस्परमें द्वेष बढ़ाते हुए लोग धर्मको ही अधर्मकी पोशाक पहना देते हैं। यदि विचार किया जाये तब कर्ता इस शब्दके साथ कुछ भी विरोध नहीं । विरोध केवल अपनी २ स्वतन्त्र मान्यतामें है । कर्ता दो प्रकारका होता है। एक 'प्रेरक' और दूसरा 'प्रकाशक' । यदि ईश्वरको 'प्रेरक' माना नाय तब तो संसारके सब कार्य ईश्वरकी ही प्रेरणासे होंगें ! यदि ऐसा है तब तो एफ मनुष्यको मार डालनेवाला दूसरा मनुष्य अपराधी नहीं ठहरना चाहिए ! क्योंकि, वह मारने में स्वतंत्र नहीं । उसको ईश्वरने जैसी प्रेरणा की, वैसा ही उसने किया। आप लोग एक निरपराध मनुष्यको अन्य किसी पुरुष द्वारा मारे जानेपर नाराज होते हो, मगर ईश्वर तो इसमें बहुत खुश हैं ! यदि 'प्रकाशक' रूपसे ईश्वरको कर्ता माना जाय तब तो किसी बातमें किसीको भी विरोध नहीं। जैसे सूर्यके प्रकाशमे यावत् कार्य होते हैं, परन्तु हमारे कर्तव्यमें उसका किसी प्रकारका भी दखल नहीं। हम अपने कार्यको प्रारंभ करनेमें और छोड़ने में स्वतन्त्र हैं। इसी तरह अपने किये हुए कार्योंके उत्तर दाता भी हम स्वयं हैं । ईश्वरकी प्रेरणाका इसमें अणुमात्र Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) भी सम्बन्ध नहीं । वह मात्र द्रष्टा रूपसे सर्वदा विद्यमान है। इस लिए गंभीर विचार करनेसे इस प्रकारके शुष्क विवादोंको दूर करके सबको आपसमें मेल बढ़ाना चाहिए । धर्मका रहस्य सबके लिए एक ही है ! वह आत्माका स्वाभाविक गुण है । उसीके समझनेसे आत्माको उन्नत दश की प्राप्ति होती है ! (करतल ध्वनि) ___गृहस्थो ! धर्मके निमित्तसे लोगों में अधिक मत भेद होनेका एक और भी कारण है । लोग स्वधर्म और परधर्मके रहस्यको न समझकर किसी वक्त बड़े २ अनर्थ भी कर बैठते हैं। वे लोग यही समझते हैं कि, हमारे बाप दादाके वक्तसे जो कुछ रस्मोरिवाज चले आते हैं वे ही धर्म हैं । चाहे वे कैत ही क्यों न हों ! परंतु स्वधर्म और परधर्म शब्दके वास्तविक अर्थपर विचार करें तो मालूम हो जायगा कि, इसमें कितना रहस्य समाया हुआ है । स्व नाम आत्माका है। वस्तुके स्वभावका नाम धर्म है । अतः आत्माका जो स्वभाव वही स्वधर्म है । इसी लिए भगवद्गीताके अन्दर लिखा है कि “ स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः” स्व-( अपने ) धर्ममें यदि मृत्यु भी हो जाय तो भी अच्छी है मगर परधर्म-दूसरेका धर्म भयका देनेवाला है। - इस श्लोकका बहुतसे आदमी यही अर्थ समझ रहे हैं Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) कि, जो अपने बाप दादा करते चले आए हैं वही अपना धर्म है । उसीके अनुष्ठानसे अपना कल्याण होनेवाला है, दूसरेका जो धर्म है वह चाहे कैसा ही अच्छा हो मगर उससे कल्याणके बदले भय ही होगा ! यदि इस लोकका यही अर्थ माना जाय तब तो परमार्थके बदले अधिक अनर्थकी ही सम्भावना है । बापदादा जिसको करते चले आए हैं उसीको धर्म कहा जाय तब तो अधर्मका नाम ही उठ जाय ! शास्त्रोपदेशकी कुछ भी जरूरत न रहे ! दुनियासे सज्जनो ! यदि बाप दादा जिसे करते थे वही धर्म हो तब तो क्षमा कीजिए आज इस जगह पर उपस्थित अधर्मी पदवी से विभूषित होना पड़ेगा । ( करतल ध्वनि) सभीको आज जिस तरह की सभा एकत्रित हो रही है, सभ्यगण जिन २ पौशाकों में सुसज्जित हुए जिस प्रकार बैठे हुए हैं, क्या आजसे तीन चार पीढ़ी प्रथम अपने बाप दादा इस ढंगसे और इस ड्रेससे कभी बैठे या बैठते थे ? यदि नहीं तो क्या हमारे इस आचारसे धर्म कहीं भाग गया ? अथवा हम अधर्मी हो गए ? यदि बाप लूला हो, लंगड़ा हो, निर्धन हो, खूनी हो, तो क्या बेटे को भी वैसे ही होना चाहिए ? बाप यदि अंधा होकर युवा अवस्था में ही गुजर जाय तो क्या पुत्रको भी आँखों से अंधा होकर युवावस्था में ही प्राण दे देने चाहिए ? नहीं नहीं ऐसे Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) तो न कोई करता है और नाहीं किसीको करना चाहिए। इस लिए स्वधर्म क्या और परधर्म क्या इसका प्रथम तात्पर्य समझना चाहिए | स्वधर्म अर्थात् आत्माका धर्म । परधर्म नाम मायिक पदाथका जो धर्म नाम स्वभाव | इसका तात्पर्य यह है कि, आत्माका जो धर्म है वह ग्रहण करने योग्य है, और मायिकपौगलिक धर्म त्यागने योग्य है। आत्मिक धर्मकी प्राप्ति निवृत्ति मार्ग अनुमरणसे होती है, निवृत्ति मार्गका अनुष्ठान मायिक धर्मके त्याग विना नहीं हो सकता । इस लिए आत्मस्वभावमें रमण करना और असार मायिक पदार्थोंका त्याग करना ही स्वधर्मके अनुष्ठान और परधर्मके त्यागसे बोधित होता है । आशा नहीं कि इस प्रकार के उपदेश में किसीको विवाद हो । सभ्य पुरुषो ! शास्त्रकारोंने ज्ञान, दर्शन और चारित्र इस रत्नत्रयीको मोक्षका मार्ग बतलाया है । अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा यह आत्मा मायिक - पौद्गलिक यावत् उपाधियोंसे रहित होकर सत् चित् आनंद परमात्मरूपको प्राप्त कर लेता है । फिर उसके लिए कोई कर्तव्य अवशिष्ट नहीं रहता, इसीका नाम वास्तविक सुख है । इसीके लिए प्राणिमात्र प्रयत्न शील हो रहे हैं । यही अलौकिक सुख, धर्मके सतत अनुष्ठानसे प्राप्त होता है । परंतु इतना ख्याल रखनेकी अवश्य जरूरत है कि, जब तक देव और गुरुकी पहचान न हो तब तक धर्मके रहस्यकी प्राप्ति होनी मुशकिल है । उसपर भी इतना ध्यान 1 " Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) जरूर रखना चाहिए कि, केवल नाम मात्रसे सिद्धि नहीं हो सकती, केवल राम नाम उच्चारण मात्रसे कुछ नहीं बनता, किन्तु उनके आचरणोंको अपने हृदयमें अंकित करके अपने आचरणोंमें निर्मता लाते हुए यदि नामका स्मरण पूजन किया जाय तब ही उद्धार हो सकता है । हरएक मनुष्यको यह समझ लेना चाहिए कि, संसार में जो सामान्य जीव था वह उक्त ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रनत्रयीके अनुष्ठानसे समस्त कर्मोके क्षय द्वारा उन्नतिको प्राप्त होकर परमात्म दशाको प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार यदि मैं भी उसी मार्ग पर चलूँ तो मैं भी किसी समय वैसा ही हो सकता हूँ ! अर्थात् जिस निरतिशय आनंदको वे आत्मा प्राप्त हुए हैं वह वस्तु सत् कर्मके अनुष्ठान द्वारा मेरे लिए भी अवश्य साध्य है। सद्गृहस्थो ! मनुष्य जन्म चिन्तामणिके समान है। इसे प्राप्त करके इससे लाभ उठाना ही विशेष बुद्धिमत्ता है। अब चाहे तो इससे लाभ उठा लो, और चाहे इससे वृथा खो दो, यह आपका अखत्यार है । बस इतना ही कह कर मैं अपने व्याख्यानको समाप्त करता हूँ । क्योंकि अब सूर्यास्त होनेका समय बहुत ही निकट आ गया है, इस लिए धर्मके नियमको मान देकर व्याख्यानके सार पर विचार करनेके लिए आपसे अनुरोध करता हुआ अपने कथनको विराम देता हूँ। ॥ ॐ शांति ३ ॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वजनिक धर्म। ( स्थान-बड़ौदा, ता. १६-३-१३ रविवार. ) र मो मा ग म म मा दं द्वे ह या ग द ल नं भ पः एते यस्य न विद्यन्ते, तं देवं प्रणमाम्यहम् ॥ प्रिय सज्जन महाशय ! मैंने गत रविवारके व्याख्यानमें देव और गुरुका कुछ नाम मात्रसे वर्णन किया था । आनके व्याख्यानमें उक्त विषयका कुछ सविस्तर वर्णन आपको सुनाऊँगा । आप मेरे गत व्याख्यानके श्रवणसे इस विचारपर आ गये होंगे कि, वस्तु स्थितिमें धर्मके विषयमें सबका समान स्वत्व है। और धर्म सबके लिए एक जैसा है । एवं प्राणिमात्रके लिए अनुष्ठेय है । जब धर्म सबके वास्ते एक ही है, तब देव भी एक ही होना चाहिए । और उसका उपदेश भी परस्पर अविरुद्ध और सबके लिए एक जैसा ही होना आवश्यक है। यदि देव मिन्न २ माने जायँ तो उनका उपदेश भी भिन्न २ ही मानना होगा । उपदेशकी भिन्नतासे उपदिष्ट मार्गकी भिन्नता स्पष्ट ही ह। तब तो आत्म शुद्धिकी समान उपलब्धि सबके लिए अशक्य है । इस लिए प्रथम देव तत्वपर विचार करनेकी जरूरत है। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) सद्गृहस्थो ! आजकल दुनियामें देवके अनेक नाम सुननेमें आते हैं। कोई किसी नामका उच्चारण करना मानता है और कोई किसीका । परन्तु वे नाम यदि गुण निष्पन्न हैं तब तो कुछ भी विवाद नहीं। क्योंकि वस्तुमें रहे हुए भिन्न २ गुणोंके अनुरूप, अनेक नामोंकी कल्पना हो सकती है । मगर इतना स्मरण अवश्य रखनेकी जरूरत है कि, नामके उच्चारणमें जिस गुणका बोध होता है वह गुण नामवाले में भी विद्यमान है या कि नहीं ? मतलब कि गुणनिष्पन्न देवका ही हमें स्मरण करना आवश्यक है । देव कैसा होना चाहिए ? इसका वर्णन व्याख्यानारम्भके मंगल श्लोकमें आ चुका है। उक्त श्लोकका तात्पर्य यह है कि, मोह-माया-राग-मद-मल-मान-दंभ और द्वेष निसमें नहीं ऐसे देवको मैं प्रणाम करता हूँ। महात्मा हरिभद्रसूरि एक स्थानमें लिखते हैं,-"भवबीजाङ्कुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।" अर्थात् संसार में जन्म और मरणको उत्पन्न करनेवाले राग और द्वेषादि जिसके विनाश हो चुके हैं वह ब्रह्माके नामसे प्रसिद्ध हो, विष्णुके नामसे प्रख्यात हो, अथवा हरके नामसे कहा जाता हो, चाहे जिसके नामसे प्रसिद्ध हो, उसे मैं नमस्कार करता हूँ ! तात्पर्य कि, नाम मात्रमें किसी तरहका आग्रह नहीं, मतलब केवल नामवाले के प्रशस्त गुणोंसे है। सज्जनो ! सब जगहमें धर्म शब्दकी घोषणा सुनाई देती है। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न २ मतवाले एक दूसरेसे अपने धर्मको अधिक प्रिय और पवित्र समझते हैं, तो क्या वे सभीके सभी झूठे हैं ? नहीं। प्रत्येक मतमें कुछ न कुछ सत्यताका अंश अवश्य है ! परन्तु यह सत्यता कहाँसे आई ? इस सत्यताके स्रोतका मूल कारण क्या है ? और वस्तुस्थिति क्या है ? इसका परामर्श करना हमारा सबका काम है । परमात्मा किसीको स्वयं आकर कुछ नहीं समझाता ! इसलिए हेयोपादेयका-छोड़ने और ग्रहण करने योग्यका - विचार करना यह अपना ही कर्तव्य है । इस विषयमें मैं अपने अनुभवका एक दृष्टान्त सुनाता हूँ। ____ अमृतसर ( पंजाब ) के पास मानावाला नामका एक गाम है, दैवयोगसे एक वक्त स्वर्गवासी प्रसिद्ध महात्मा जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजके साथ वहाँ मेरा जाना हुआ । वहाँपर हीरासिंह नामका एक नम्बरदार है। भिक्षाके समय गाममें मेरा जाना हुआ। गाममेंसे साधुके योग्य शुद्ध आहार मात्र उक्त नम्बरदारके घरसे तक (छाछ ) मिली, और लोगोंसे ज्ञात हुआ कि गाममें यह नम्बरदार ही कुछ सम्पन्न पुरुष है । बहुतसे लोग उसके घरसे थोड़ी २ छाछ ले जाते हैं । उसमें और, पानी मिलाकर अपना अपना निर्वाह चलाते हैं। उस एक घरकी छाउसे कितने ही घर छाछवाले बन रहे हैं । स्थानपर आकर उक्त स्वर्गवासी गुरु महाराजसे नम्बरदारके घरका सब हाल कह सुनाया। उस वक्त आपने कहा कि, Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) जैसे इस गाममें छाछका मूल स्थान उक्त नम्बरदारका घर है, और अन्यान्य लोग उसके घरसे छाछ लाकर उसमें अपनी तर्फसे थोड़ा २ पानी मिलाकर छाछवाले बन रहे हैं। इसी तरह धर्मका मूल स्थान ईश्वर है और उसका उपदेशरूप धर्म भी एक है। 'परन्तु भिन्न२ मार्गानुयायी लोग उसे ग्रहण करके अपनी कल्पनाके अनुरूप बनाकर धर्मज्ञ बन रहे हैं । जैसे छाछमें पानी मिलाने पर भी मूल छाछका अंश उसमें बना रहता है, ऐसे ही जुदे २ मतोंमें भी न्यून अथवा अधिक रूपमें वास्तविक धर्माश अवश्य है ! वही अंश मनुष्यको अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। इसलिए जलमिश्रित तक्रकी तरह कल्पना मिश्रित धर्माश भी धर्मरूपसे भासमान हो रहा है । अतः निखिल धर्मों में रहे हुए सत्यांशका ग्रहण करना ही विवेकी पुरुषोंका काम है । आहा ! महात्माओंके सारगर्भित कैसे निष्पक्ष विचार होते हैं ! सज्जनो ! परमात्मा सबके लिए समान है। हमारी स्वतन्त्र कल्पनाएँ उसकी अप्रतिहत ज्ञान सीमाको अणुमात्र भी विचलित नहीं कर सकती । परन्तु जब तक परमेश्वरके वास्तविक स्वरूपको हम अच्छी तरह समझ न सकें तब तक ईश्वर विषयक निर्धात मानसिक विचारों की स्थिरता दुष्प्राप्य है । इसलिए 'देव-परमात्माके स्वरूपका कुछ परामर्श करना प्रथम आवश्यक है। प्रत्येक धर्मवाला ईश्वरको क्षमावान, दयालु, और निर्दोषपरम पवित्र मानता है। यथार्थमें परमात्मा निर्दोष, निर्विकार और Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग ही है । जो क्रोधी, रागी, एवं अन्य किसी विकारसे युक्त है, उसे कोई भी बुद्धिमान ईश्वर नहीं मान सकता । इसलिए जिसमें किसी प्रकारकी भी सांसारिक उपाधि, न हो, वही ईश्वर हो सकता है । यह मान्यता जैनोंकी ही नहीं, किन्तु अन्य धर्मानुयायी भी इसे मुक्त कंठसे स्वीकार करते हैं। सभ्य श्रोतृ वृन्द ! जब मैं पंजाबमें विचरता था तब बहुतसे लोगोके मुँइसे सुना करता था कि “ पढ़ी गीता तो घर काहेको कीता " अर्थात् यदि गीताका अध्ययन किया, तो फिर घर करनेकी क्या आवश्यकता ? इसका खुलासा मतलब यह है कि, गीतामें कहीं कहीं इतना पारमार्थिक रहस्य भरा हुआ है कि, यदि कोई उसका मनन द्वारा निदिध्यासन करे तो हृदयपट अवश्य ही वैराग्यके प्रशस्त रंगसे रंगे विना नहीं रह सकता । अन्यथा यूँ तो पोपट ( तोता ) की राम राम रटनाकी तरह सभी गीता पाठी हैं ! उसी गीतामें लिखा है कि वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ अ. ४ श्लों.१ . जिनका राग, भय और क्रोध नष्ट हो गया है, और मत्परायण होकर जो मेरी उपासना करते हैं ऐसे बहुतसे मनुष्य, ज्ञान और तपके द्वारा पवित्र होकर मेरे शरीरको पाप्त हुए हैं। अब विचारना चाहिए कि, ईश्वरीय रूप प्राप्त करनेके लिए जब Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) रागद्वेषसे मुक्त होनेकी आवश्यकता है तब तो सिद्ध हुआ कि, ईश्वर परमात्मा रागद्वेषसे सर्वथा मुक्त ही है । इसी लिए परमात्मा वीतराग कहा जाता है । ( सहर्षनाद ) सज्जनो ! शैव, वेष्णव, मुसलमान, और ख्रिस्ती आदि धार्मिक सजन अपने २ धर्म प्रवर्तक देव ईश्वरको यदि निर्दोष और निष्कलंक मानते हैं, तथा यह मान्यता वस्तुतः ठीक है, तब तो कहना होगा कि, अपने सबमैं मात्र नामका ही फर्क है, न कि नामवालेका । एवं यह भी स्वीकार करना होगा कि, धर्मके नामसे ही हममें भिन्नता है, धर्म भिन्न २ नहीं । तथा ईश्वर वस्तु भी एक ही है उसमें भेद केवल निजकी कल्पना है । इसलिए वस्तु स्थितिकी शोध की जाय तो झगड़ा बहुत जल्दी निपट जाता है। गृहस्थो ! मोक्षरूप अनंत सुखकी प्राप्तिके लिए बाह्य वेष ही नितान्त आवश्यक नहीं । लाल पीला अथवा अन्य किसी प्रकारका कपड़ा पहनने मात्रसे ही कल्याण हो जायगा ऐसी मान्यता केवल बालपन है । तात्विक सुख प्राप्तिका साधन मात्र अंतरंग शुद्धि है। अंतरंग शुद्धिसे ही समभाव की प्राप्ति होती है। समभाव ही मोक्ष प्राप्तिका निकट साधन है। बाह्य वेष तो केवल ऊपरके सव्यवहारकी रक्षाके लिए है । इसलिए बाह्य वेषमें भिन्नता रहने पर भी यदि आंतरिक Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) वेष समभावपना जीवमें आ जावे तो निस्सन्देह वह मोक्षको प्राप्त कर सकता है । यही महर्षियोंका कथन है“ सेयंबरो व आसंबरो व बुद्ध व अहव अन्नो का। समभावभावियप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥" बस इसीसे उन्नतिकी अभिलाषा सफल हो सकती है। सुज्ञ श्रोतृगण ! जैनधर्म, खास किसी व्यक्ति अथवा जातिका धर्म नहीं, किन्तु सार्वजनिक है । व्यक्ति मात्रका अनुष्ठेय है। हरएक मनुष्य इसे बड़ी खुशीसे अपने व्यवहारमें ला सकता है। जैन ' नाम है, जिन परमात्माके उपदेश किये हुए धर्मके अनुष्ठान करनेवालेका । जिन शब्द 'जि' धातुसे बना है। जिसने राग द्वेषादि अन्तरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त करली हो, वह जिन कहाता है । जिन किसी खास आदमीका नाम नहीं, किन्तु जिसे उक्त अधिकार प्राप्त हो चुका हो, ऐसा हरएक महापुरुष जिनके नामसे व्यवहृत किया जा सकता है । इसलिए हम, रागद्वेष रहित उक्त जिनको गुणनिष्पन्न शंकर, ब्रह्मा, विष्णु, हर, महादेव आदि जिस नामसे पहचानना चाहें पहचान सकते हैं! अतः इस प्रकारकी व्यक्तिका उपदेश ( धर्म ) यावत् मनुष्योंके लिए समान है। इसलिए उक्त धर्मको सार्वजनिक कहने में कोई त्रुटि मालूम नहीं देती । ( करतल ध्वनि) Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९) - सभ्य पुरुषो ! संसार में आज तक जितने धर्म प्रवर्तक मर्यादा शील अवतारी पुरुष हुए हैं, उनमेंसे आज एक भी विद्यमान नहीं है । अतः प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो कुछ निर्णय हो नहीं सकता। इसलिए देवके सत्य स्वरूपके निर्णयके लिए अब मात्र दो वस्तुएँ हमारे पास हैं । जिनमें एक तो उनका जीवनचरित्र, और दूसरी उनकी प्रतिमा-मूर्ति । उनका जीवन किस प्रकारका था ? उनमें निर्दोषता अथवा सदोषता कहाँ तक थी ? इत्यादि बातें जीवनचरित्रोंसे अच्छी तरह समझमें आसकती हैं। तथा मूर्तिके देखनेसे मूर्तिवालेकी अवस्थाका चित्र भी बखूबी समझमें आ सकता है। जिसकी प्रतिमा-मूर्तिका देखाव शान्त है तो समझ लो कि उस मूर्तिवाला भी शान्त है। यदि मूर्तिकी आकृति क्रोध अथवा काममयी देखने में आती है, तो मूर्तिवाला भी क्रोध और कामसे मुक्त हुआ नहीं समझा जा सकता । इसलिए बुद्धिमानको समझ लेना चाहिए कि, उक्त मूर्तिवाला बनावटी देव है, उसमें देवके सच्चे लक्षण नहीं हैं । मुझे यहाँपर प्रसंगवश कुछ मूर्तिपूनाके सम्बन्धमें, कहना पड़ता है । क्योंकि, कितनेक मनुष्य अकारण ही मूर्तिपूजाके घोर विरोधी हो रहे हैं । इस विरोधका कारण क्या है ? यह मेरी समझसे बाहिर है । और मेरा उन लोगोंसे यह भी आग्रह नहीं कि, उक्त सिद्धान्तको वे Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) " मानने ही लग जायें, किन्तु इसपर कुछ विचार अवश्य करें इतना ही निवेदन है । मेरे विचारमें जो लोग मूर्तिपूजाके सिद्धान्तके विरोधी हैं, वे बड़ी भारी भूल में हैं । मूर्तिके माननेवाले केवल मूर्तिको ही नहीं मानते किन्तु मूर्तिवाले परमात्माको मानते हैं ( करतल ध्वनि ) प्रत्येक धर्मवाले किसी न किसी प्रकार से मूर्तिको अवश्य मानते हैं । कितनेक लोग वेदोंके पुस्तकोंका सन्मान करते हैं । कितनेक कुरानकी इज्जत करते हैं । और कितनेक बाइबलको सिरपर उठाते और चूमते हैं । परन्तु आश्चर्य यह है कि, स्वयं तो जड़ पुस्तकों का सत्कार करते हैं और देवमूर्तिको जड़ बतलाकर उसकी पूजाका विरोध करते हैं । बहुधा लोगों का कथन हैं कि, जड़मूर्ति हमारा न कुछ बिगाड़ सकती है, न कुछ सुधार सकती है। इसलिए उसका पूजन करना एक समयको व्यर्थ खोना है । मगर उन लोगों को इतना स्मरण रखना चाहिए कि, मूर्ति ईश्वरभक्तिमें आलम्बन रूप है । मानसिक स्थिरताका एक अनूठा साधन है। सज्जनो ! एकान्त स्थानमें रक्खी हुई एक सुन्दर स्त्रीकी मूर्तिको देखकर यदि एक कामी पुरुष के हृदय में देखते ही कामोत्पत्ति हो जाती है; तो क्या भगवान वीतरागकी शान्त मुद्राको देखकर एक भक्तका हृदय प्रभु भक्ति के शान्त सुधारसमें गोते खाने नहीं लगेगा ? ( करतलध्वनि) इसलिए उक्त सिद्धान्तका बहुत ही विचारपूर्वक परामर्श करना चाहिए । यद्यपि इस सम्बन्धमें बहुत कुछ कहना अवशिष्ट है, Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) परन्तु प्रसंगान्तर होनेसे इसको यहीं पर छोड़ता हुआ अपने प्रस्तुत विषय पर आता हूँ । सभ्य वृन्द ! देव कैसा होना चाहिए ? उसकी परीक्षा किस तरह करनी चाहिए ? इस बातको मैंने आपसे बतला दिया है । आप लोग उस पर विचार करेंगे, ऐसी मुझे आशा है । अब देवके साथ गुरुके स्वरूपका ज्ञान करना भी आवश्यक है । गुरु कैसा होना चाहिए, उसमें किन बातोंका होना लाजमी है ? इस पर विचार करना बहुत जरूरी है । क्योंकि, धर्म और अधर्मका यथार्थ ज्ञान होना गुरुओं पर अवलम्बित है । धर्मरूप नौका गुरु कर्णधार हैं। संसार में आज जितने साधु दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे गुरु पदके योग्य तभी हो सकते हैं, जब उनमें साधुताके गुण विद्यमान हों। अन्यथा चातुर्मासमें उत्पन्न होनेवाले इन्द्रगोप नामके एक क्षुद्र कीटकी तरह नाम मात्र धारण करनेसे कुछ सिद्ध नहीं ! जैसे वह कीट इन्द्रगोप इस नाम मात्रसे इन्द्रकी रक्षा नहीं कर सकता इसी प्रकार साधु इस नाम मात्रसे कभी भी आत्म साक्षात्कार नहीं हो सकता ! इसलिए सच्ची साधुता प्राप्त करने की आवश्यकता है । साधुका आचार बहुत ही शुद्ध होना चाहिए । साधु -- श्रेष्ठ काम करनेवालेको संस्कृत भाषामें साधुकार कहते हैं । उसीका प्राकृत भाषा में साहुकार बनता है। जैसे सच्ची दुकान चलाने के लिए प्रामाणिक सद्व्यवहारी साहुकार होने की जरूरत है, ऐसे ही धार्मिक दुकान चलानेके लिए भी साधु रूप साहुकार की Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) आवश्यकता है ! ( करतल ध्वनि ) जो मनुष्य साधुके अनुरूप आचरण रखता है उसे आप सन्यासी कहो, उदासी कहो, वैरागी कहो, मतलब कि-किसी नामसे वह परिचयमें आवे, परन्तु वह आत्मा और संसारके उद्धारमें प्रयत्न शील होना चाहिए ! एक भाषाके कविने साधुके स्वरूपका चित्र बहुत ही अच्छा खींचा है। साधुके लक्षण बतलाता हुआ कवि कहता है कि" साधु सो जो साधे काया, कौड़ी एक न रखे माया । लेना एक न देने दो, ऐसा नाम साधुको हो ।" अर्थात्-साधु उसे कहते हैं जो आत्मसाधनमें प्रवृत्त हो। आत्मसाधन कब हो सके ? जब कौड़ी मात्र भी अपने पास माया न रखे ! माया दो प्रकारकी । एक द्रप्य-माया, दूसरी भाव-माया । द्रव्य-माया तो धन, लक्ष्मी वगैरह प्रसिद्ध ही है । छल, कपट वगैरह भाव-माया कही जाती है । जो मनुष्य इस दो प्रकारकी मायामेंसे किसीसे भी संबंध नहीं रखता वही आत्म-साधन कर सकता है। जब सब तरहकी मायासे रहित हो गया तो फिर न किसीका लेना रहा और न किसीका देना रहा । मात्र एक परमात्माका नाम ही लेना उसके लिए अवशिष्ट रहा । एवं न किसीको वर देना और न शाप । क्योंकि उक्त दोनों कामोंसे रागद्वेषकी वृद्धि होती है। रागद्वेषकी वृद्धि ही साधुताकी विरोधिनी है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) । सज्जनो । संसार में सारे झगड़ों का मूल जर, जोरु और जमीन ये तीन वस्तुएँ हैं । इन्हींके निमित्तसे अनेक अनर्थ हो रहे हैं। आज आप लोग जिस स्थानमें पधारे हैं यह भी इन्हीं तीनोंके झगड़े को मिटानेके लिए नियत किया गया है । ( करतलध्वनि ) इसलिए इन तीनों उपाधियोंसे साधुको सदा मुक्त रहना चाहिए। इनमें भी सबसे अधिक अनथका मूल जर-धन है । बाकी की दो उपाधियाँ तो इसीका रूपान्तर हैं । धनका उचित रीति से संपादन, रक्षण और व्यय करना गृहस्थके लिए तो शोभास्पद है मगर साधुके लिए कलंक रूप है । क्योंकि, गृहस्य और साधुके धर्म भिन्न २ हैं । यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो कहना होगा कि, यदि गृहस्थके पास कौड़ी न हो तो वह गृहस्थ कोड़ीका और साधुके पास कोड़ी हो तो वह साधु कौड़ीका ! ( करतलध्वनि ) मतलब कि गृहस्थ द्रव्यस शोभा देता है, और साधु त्यागले । अतः साधुको द्रव्यादिके संसर्गसे सदा मुक्त रहने की आवश्यकता है । साधुके लिए शास्त्रों में मुख्यतया पाँच नियमोंके पालन करनेकी आज्ञा दी है। उनमें प्रथम नियम अहिंसा है । प्रत्येक सूक्ष्मसे स्थूल पर्यन्त प्राणिमात्रकी रक्षा करना अहिंसा कही जाती है। इस नियमका पालन करना साधुको परम आवश्यक है । जीवरक्षामें तत्पर रहना गृहस्थका भी धर्म है । परन्तु गृहस्थ सर्वथा अहिंसा व्रतका पालन नहीं कर Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) सकता, तब भी निर्दोष प्राणियोंका रक्षण तो गृहस्थको अवश्य करना चाहिए। इसीमें उसका भला है । साधुकों तो प्रत्येक सावद्य - हिंसा- पाप जनित व्यापारका परित्याग करना चाहिए । इसमें साधुता चरितार्थ हो सकती है । सज्जनो ! अहिंसा धर्म ( किसी प्राणीको दुःख न देने ) का प्रत्येक मतमें उपदेश है । इसकी श्रेष्ठता को भी प्रत्येक सम्प्रदाय स्वीकार करता है । किसी धर्ममें भी हिंसा करनेकी छूट नहीं दी गई । कितनेक लोग कहते हैं, अहिंसा धर्मके पालनमें जैनधर्म सबमें अप्रेसर है, सो यह बात ठीक है । परंतु मैं चाहता हूँ कि, एक एक मनुष्यका हृदय ऐसा दयामय हो जाय कि, उसके प्रभाव से संसारभर में, अहिंसामय धर्मका ही नाद सुनाई देने लगे ! ( हर्षध्वनि ) विचारपूर्वक गवेषणा करने से मालूम होता है कि, हिन्दु - मुसलमान - पारसी - ईसाई - यहूदी सभी धर्मो में अहिंसा व्रतके पालन करनेका उपदेश है । गृहस्थो ! सबकी आत्मा समान है । हर एक जीव सुखका अभिलाषी है । दुःख अथवा भय किसीको भी प्यारा नहीं । प्रत्येक प्राणी जीवनमें जितना सुख मानता हैं, उससे कई हिस्से अधिक भय उसको मरणसे है । हमारे पैर में यदि एक मामूलीसा काँटा भी लग जाता है तो उसकी वेदनासे ही हम घबड़ा उठते हैं। किसी किसीको तो वह भी असह्य हो Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) जाती है । तब जो लोग जंगलमें फिरनेवाले निरपराध अनाथ हरिण आदि जानवरोंका शिकार करके खुशी मनाते हैं ! एक तुच्छ जिव्हा सुखके लिए उन बिचारोंके प्राण लेते हैं । उनका यह आचरण कहाँ तक ठीक है ? यह बुद्धिमान स्वयं विचार लेवें । आनन्दमें बैठे अथवा फिरते या चरते हुए वन्य पशु पक्षियोंपर जिस वक्त शिकारी लोग गोली वगैरहका वार करते हैं उस वक्त उन जानवरोंकी जो दशा होती है उसको देखकर ऐसा कौन दयालु मनुष्य है जिसका हृदय दुःखके अनिवार्य स्रोतमें बह न जाय ? मगर वाहरे ! शिकारीके दिल ! तेरे पर उसका अणुमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता ! ! कितनेक मृगयाप्रेमी महाशय उक्त कर्मको धर्मकी पोशाक पहनानेके बहाने ईश्वरीय आज्ञा बतलाते. हैं। मगर यह काम ईश्वरकी आज्ञा तो नहीं, किन्तु उसकी आज्ञासे विरुद्ध है। अतएव धर्म नहीं, अधर्म है । प्राणिमात्रको अपनी आत्माके समान समझना ही मनुष्यमें मनुष्यत्व है! यही परम धर्म है। इसलिए "अहिंसापरमो धर्मः" के सिद्धान्तको जीवन पर्यन्त अपने हृदय पर अंकित कर लेना चाहिए। महानुभावो : अधिकतर हिंसा तो मांसाहारके निमित्तसे हो रही है। मांस खानेका निषेध हिन्दु शास्त्रोंके सिवा अन्यत्र भी देखा जाता है। पारसी भाइयोंके पुस्तक शाहनामेमें लिखा. है कि, हमारा जरथोस्ती धर्म ऐसा पवित्र है कि, इममें न तो पशुको मारकर खानेकी आज्ञा है और न शिकार करनेकी। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) इसी तरह मुसलमान भाइयोंके धर्म पुस्तकमें भी मनुष्यको उपदेश देते हुए कहा है कि - " तू अपने पेटको पशु पक्षियोंकी कबर न बना" तथा ईसाइयोंको भी आज्ञा की गई है कि, तू हिसा मत कर । तू मेरी तरह पवित्र होकर रह ! तू जंगलके किसी भी पशुका मारकर उसका मांस न खाना । सूक्ष्म विचारसे देखें तो मांसाहारकी छूट किसी भी धार्मिक ग्रंथमे आपको न मिलेगी । सज्जनो ! सूक्ष्म विचारको छोड़ स्थूल दृष्टिसे ही विचार किया जाय तो भी मांसाहार आपको युक्तिसंगत प्रतीत न होगा । आप लोग न्याय मंदिरमें बैठे हुए हैं, इस लिए आशा ह कि, न्यायको अपने हृदयये अवश्य स्थान देंगे। जब कोई हिंदु मर जाता है तो उसके साथ स्मशान में जानेवाले आदमी अपने आपको अपवित्र समझते हुए स्नान करते हैं, और कपड़े धोते हैं । अब विचारना चाहिए कि, मुर्दे के साथ जाने अथवा स्पर्श करने मात्र से अपवित्रता आ जाती है ! तो क्या मुर्देको पेटमें डालने से डालनेवाला पवित्र रह सकेगा ? ( करतल ध्वनि ) एक भी लहूका छींटा बदन पर या कपड़े पर पड़ जाय तो मांस खानेवाले महाशय उसे मलमल कर धोते हैं, मगर अफसोस कि, उसी रुधिर लहूके लोथड़े ( मांस ) को अपने पेटमें डालते हुए अणुमात्र भी नहीं हिचकते ! (तालियाँ) हमारे मुसलमान भाई अपने पवित्र धाम मक्का शरीफकी यात्रामें Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) हरएक तरहके जीवकी हिंसाकी मना ही करते हैं ! इससे सिद्ध होता है कि, उनके कथनानुसार ही ईश्वरको कुरबानी प्यारी नहीं! यदि उक्त कर्मसे ईश्वरको प्यार होता तो वह (खुदा ) अपने स्थान पर उसका निषेध न करता । गृहस्थो ! मांसाहार शास्त्रविरुद्ध है इतना ही नहीं किन्तु सृष्टिक्रमसे भी विरुद्ध ह । सृष्टिमें मनुष्योंकी अपेक्षा पशुओंमें प्राकृत नियमके पालनका वर्ताव स्पष्ट देखनेमें आता है और वे उक्त नियमको पालन करते देखे भी जाते हैं। सिंह चाहे कितना ही क्षुधासे पीडित हो परंतु वह मांसके सिवा अन्य वस्तु ( घास वगैरह ) को कदापि न खायगा ! एवं गायको चाहे कितना ही कष्ट प्राप्त हो मगर वह मांसको कदापि नहीं खा सकती। मनुष्यके स्वाभाविक आहारका विचार करनेसे मालूम होता है कि, मनुष्य मांसाशी नहीं है । मांसाहारी और फलाहारी पशु समुदायके मध्यमें यदि मनुष्यको खड़ा किया जाय तो उसका सादृश्य फलाहारी पशुओंसे ही हो सकता है । जो नीव स्वाभाविक मांसाहारी हैं उनको रात्रिमें अधिक दिखाई पड़ता है, भागनेसे पसीना नहीं आता, उनके दान्त तीखे होते हैं और वे जीभसे लप लप करके पानी पीते हैं। मगर जिन पशुओंका स्वाभाविक आहार वनस्पति है उनका व्यवहार मांसाशी जीवोंकी अपेक्षा सर्वथा विपरीत देखा जाता है। अर्थात् वे रात्रिमें नहीं देख सकते, उन्ह अधिक चलनेसे पसीना आता है, दात उनके Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) चपटे होते हैं, और वे होठोंसे पानी पीते हैं। उदाहरणके लिए सिंह और गौ समझिए । मनुष्य के सम्बन्धमें विचार करनेसे उसकी तुलना वनस्पतिका आहार करनेवाले गाय आदि जानवरसे ही हो सकती है । मांसभोजी सिंह आदि पशुओंके सदृश समझ कर उसे वृथा ही दयाहीन हिंसक बनाना सत्य और न्यायका ही नहीं, बल्के मनुष्यत्वका भी नाश करना है ! जो लोग सृष्टिक्रमसे विरुद्ध होनेपर भी अपने क्षणभरके मजेके लिए अनाथ पशुओं के मांससे अपने मांसकी पुष्टि करते हैं उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि, उनके लिए इसका परिणाम बहुत भयंकर होगा । प्रकृतिके यहाँ किसीका भी लिहाज नहीं । इसलिए यदि आपको अहिंसा धर्मसे प्रेम है, और आप संसारमें शांति चाहते हैं तो मांसाहार के प्रचारको रोकिए । ( हर्षध्वनि ) इसके सिवा सत्य भाषण करना साधुका दूसरा नियम है । यह नियम गृहस्थ के लिए भी सर्वदा अनुष्ठेय है । सत्यका कितना प्रभाव है, और सत्य बोलनेसे आत्मा कितना उन्नत हो सकता है, यह आप लोग स्वयं ही विचार कर सकते हैं । इस लिए सत्य पर विशेष विचार न करता हुआ अब साधुके अदत्तादानविरमण रूप तीसरे नियम पर कुछ आप लोगोंके ध्यानको खींचता हूँ । अदत्तादानका अर्थ है विना दिये हुए लेना । साधुको विना दिये किसीके किसी भी पदार्थको ग्रहण करना अनुचित है । किसीके देने पर भी साधुको वही वस्तु ग्रहण करनी चाहिए जो कि उसके ग्रहण करने योग्य हो । 3 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) साधुको इतना ध्यान हर वक्त रखना चाहिए कि, उसका प्रत्येक आचरण निष्पाप हो । गृहस्थोंके लिए साधुका एक भी व्यवहार भार भूत न होना चाहिए ! साधुको क्षुधा निवृत्तिके 'लिए अन्न लानेका अधिकार भी एक गृहस्थके घरसे नहीं ! उसे माधुकरी वृत्तिले निर्वाह करनेकी शास्त्रों में आज्ञा है । जिस तरह मधुकर-(भौंरा) अनेक पुष्पों पर बैठता हुआ वहाँसे थोड़ा थोड़ा रस लेकर अपना निर्वाह करता है, और पुष्पोंको किसी प्रकारकी क्षति भी नहीं पहुँचती । इसी तरह साधुको अनेक घरोंसे थोड़ी थोड़ी भिक्षा लेकर अपना निर्वाह करना चाहिए ! गृहस्थके घरसे साधुको उतनी ही भिक्षा लेनी चाहिए जितनीसे गृहस्थको फिर नई बनानेकी आवश्यकता न पड़े। जो लोग उक्त शास्त्रीय नियमका भंग करते हैं, वे लोग संसार में उपकार रूप होनेके बदले निस्सन्देह भार रूप हैं ! ___ चतुर्थ नियम साधुका ब्रह्मचर्य है। यह इतना व्यापक और आवश्यक है कि, इस पर ही समस्त विश्वकी धार्मिक स्थिति अवलंबित है । ब्रह्मचर्य संसारके समस्त रत्नों में से एक अमूल्य रत्न है। जिस साधुके पास यह रत्न मौजूद है, वह जौहरी है ! वह धनवान है ! वह राजा है ! वह महाराजा है ! वह मालामाल है ! कहाँ तक कहूँ ? उसके पास तमाम दुनियाकी दौलत है। जिस साधुने इस अमूल्य रत्रको क्षण मात्रके विषयसुखके बदलेमें बेच दिया है वह ठगा गया, इतना ही नहीं किन्तु सड़े Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) हुए कुत्तेकी तरह उसकी घृणित दशा प्रतिव्यक्तिके अनादरका विषय हो पड़ती है । (तालियाँ) साधुके और नियमोंके पालनमें दैवयोग से यदि त्रुटि भी हो जाय तो संतव्य है। परन्तु ब्रह्मचर्य व्रतके भंगका अधिकार साधुको किसी भी अवस्थामें नहीं है। प्राण भले ही कल जानेवाले हों तो आज जाएँ मगर ब्रह्मचर्य व्रतमें क्षति न आनी चाहिए। . सभ्य श्रोतृ गण ! कामरूप महा तस्करसे आत्मरूप धनको शरीररूप दुर्गमें सुरक्षित रखनेके लिए ब्रह्मचर्य एक बड़ी मजबूत अर्गला है; इसलिए ब्रह्मचर्य की सुरक्षामें साधुको बहुत सावधान रहना चाहिए । साधुके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य गृहस्थका भी अनूठा भूषण है । गृहस्थ यद्यपि सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने में बाध्य है, तथापि उसे स्वस्त्री संतोष और परस्त्री त्याग व्रतमें तो अवश्य दृढ रहना चाहिए । मोक्षरूप उन्नत प्रासादमें सदाके लिए निवासका होना ब्रह्मचर्य रूप सोपान पर ही निर्भर है। कहाँ तक कहूँ यह ब्रह्मचर्य आंतरिक दिव्य ज्योति है ! जीवनमें प्राण है ! आत्मिक दिव्य संपत्तिका मूल स्थान है ! जिसने इसे खोया उसने सर्वस्व खोया ! ( हर्षनाद)। साधुका पाँचवाँ नियम है परिग्रहत्याग। अर्थात किसी भी वस्तुमें ममत्वका न रखना । अगर साधु ही सांसारिक पदार्थोपर ममत्व रखने लग जाय तो साधु और गहस्थमें सिवा वेषके और कोई अधिकता नहीं। साधुको पैसा रखना स्त्री रखनी, Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) मकान बनाना, ये तीनों काम त्याज्य हैं । जो इन तीनोंको रखते हैं वे साधुतासे कोसों दूर हैं । साधु कहलानेवालेको कमसे कम अपने वेषकी विडम्बना पर तो अवश्य ध्यान देना चाहिए ! इस लिए संसार और आत्माकी भलाई में तत्पर रहकर सादी सरल निष्कपट और सच्ची जिन्दगी बसर करना साधुताका सच्चा स्वरूप है । सज्जनो ! मैंने जो कुछ कहा है वह किसीपर आक्षेप बुद्धिसे नहीं कहा, मैंने केवल वस्तुस्थिति पर आपके सामने विचार किया है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच यमोंको यथावत् पालन करनेवाला साधु, तथा राग और द्वेषसे सर्वथा मुक्त देव एवं उसका कहा हुआ धर्म, इन तीनों रखोंको परीक्षापूर्वक ग्रहण करना ही मनुष्य के वास्ते उचित है । उक्त रत्नत्रय ही आत्मिक शान्ति देनेवाले हैं; और येही सार्वजनिक धर्मके मूल स्रोत हैं और इन्हीका नामान्तर सबका हितकारी सुखकारी सार्वजनिक धर्म है । · सभ्यो ! मैंने आज आपका बहुतसा समय लिया है मगर परस्पर धार्मिक विचारोंमें समयका व्यय करना उचित ही है । मेरे कथनपर आप लोग कुछ विचार करनेकी उदारता दिखावेंगे ऐसी आशा रखता हुआ मैं अब अपने व्याख्यानको समाप्त करता हूं || ॐ शान्तिः ३ ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः ॥ दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवन्तु लोकाः ॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || 300 || मुनिसम्मेलन । परलोकवासी प्रातःस्मरणीय जैनाचार्य्य न्याय भोनिधि श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वर ( श्री आत्मारामजी ) महाराजके साधुओंकी १३ जून सन् १९१२ गुरुवारको देश गुजरात राजधानी बड़ौदा उपाश्रय जानीशेरी में एक महती सभा हुई थी । सभापतिके असनको जैनाचार्य श्रीविजयकमलसूरिजीने सुशोभित किया था । पहेले दिनकी कार्रवाई । मंगलाचरण | प्रारंभ में मुनि परिषदकी निर्विघ्न समाप्तिके लिये देवस्तुति और गुरुस्तुति की गई । भुनिसम्मेलनके उद्देशपर मुनिराज श्रीवल्लभविजयजीका व्याख्यान । सभापतिजीकी आज्ञासे मुनिराज श्रीवल्लभविचयजीने यात्रामें अनेक कष्ट सहन करके देश देशांतरोंसे आये हुए मुनिराजों को सादर अभिमुख कर कहा कि, Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) महाशयो ! आज जो आपलोग यहाँपर एकत्रित हुए हैं इसका हेतु क्या है ? क्या यह नवीन ही शैली है या पहेले भी ऐसे सम्मेलन हुआ करते थे ? इत्यादि प्रश्नोंका मनुष्योंके हृदयमें उठना एक स्वाभाविक बात है। इस बातके विवेचन करनेसे पहले यह कहदेना अवश्य उचित होगा कि, यह परिषद केवल साधुओंकी ही है। इसमें अन्य किसीको सिवाय साधुके बोलनेका या दखल देनेका सर्वथा अधिकार नहीं, यह बात ध्यानमें रहे। __यह सभा किस लिये की गई है ? इसका उद्देश क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर देनेसे पहले मुझे तीसरे प्रश्नपर विचार कर लेनेकी आवश्यकता है। महानुभावो ! हमने यह कोई नवीन आडंबर खड़ा नहीं किया है । इसे सभा कहो, सम्मेलन कहो, इकडे होना कहो या वर्तमानकाल के अनुसार ( जमाने हालके मुताबिक ) कॉन्फरन्स कहो ! भतलब सबका एक ही है । ऐसी ऐसी सभायें या सम्मेलन प्रथम भी हुआ करते थे यह बात इतिहासोंसे बखूबी मालूम हो सकती है । हमारे पूर्वनोंने इस संमेलनसे क्या क्या फायदे उठाये हैं इस बातको भी हमें इतिहास अच्छी तरह बतला रहा है। कालचक्रके प्रभाव ( जमानेकी गर्दिश ) से बीचमें लुप्तप्रायः हुए हुए उन्नतिकर इस उत्तम मार्गको नवीन समझना एक भूल Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) है । पुरातन मुनि कर्त्तव्यको ही फिरसे उत्तेजित करनेके लिके यह उद्योग है। अच्छा ! अब यह सम्मेलन किस लिये हुआ है, वह मैं आपको बतलाता हूँ। ऐसे सम्मेलन करनेसे अपने मुनि दूर दूर देशोंसे आकर एक स्थानमें मिलते हैं इससे दर्शनका लाभ होता है; एक दूसरेकी पहिचान नहीं है वह भी होती है, और आपसमें प्रीतिभाव बढ़ता है। उससे जो धर्म संबंधी कार्य हों उनमें एक दूसरेकी मददका मिलना और अपने इस सम्मेलनको देख कर अन्य भी इस प्रकारसे धर्मोन्नतिके लिये सम्मेलन करना सीखें जिससे दिनपरदिन शासनकी उन्नति हो । इसके अलावा एक महत्वका कारण यह भी है कि, अपने साधु तो फिरते राम होते हैं । एक स्थानमें सिवाय चतुर्मासके रहते ही नहीं। शेषकाल बिहार में फिरते गुजरता है । चतुर्माप्समें सबका मिलना मुश्किल, भिन्न भिन्न स्थानों में चतुर्मास होनेसे परस्पर मिलनेका समय वर्षों तक भी हाथ नहीं आता। ऐसी हालतमें कोई मनुष्य अपने किसी स्वार्य की सिद्धिके लिये आपसमें कुसंप करानेका, एक दूसरेकी सच्ची झूठी बातोंसे एक दूसरेके कान भरकर यदि आपसमें विक्षेप डाले या डाला हो तो इस प्रकारके संमेलनसे जो अंदरकी कोई आँटी पड़ गई हो वह फौरन ही सत्य बातके प्रतीत होनेपर निकल जाती है। यह कोई थोड़े लाभका कारण नहीं है । और मोटेसे मोटा फायदा Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो यह है कि अपने में एकताकी मजबूती होगी । इस ऐक्यकी जरूरत प्राचीन वा अर्वाचीन हरएक वक्तमें थी और है । यदि हमारेमें एकता होगी तो ही हम हर एक धर्मकार्यको पूरा कर शासनकी उन्नति कर सकेगें, और अपने इस कार्यका अनुकरण अन्य भी करेंगे । उससे भी हमको फायदा होगा। संमेलनमें संख्याध साधु विद्वानवर्गके एकत्रित होनेसे उन विद्वानोंके जदे जुदे आशय वा तरह तरहके अनुभवी विचारोंके प्रकट होनेका भी यह एक उत्तम साधन है । जब कभी किसी धर्म संबंधी कार्यको तरक्की कर उसे ऊँचे दरजे पर पहुँचाना हो या कोई भी सुधारा करना हो तो ऐसे सम्मेलनसे ही हो सकता है, क्योंकि अगर किसी एक कार्यको कोई अकेला साधु करना या कराना चाहे तो उसमें कई प्रकारके विघ्न आ उपस्थित होते हैं; मगर वही कार्य सर्वकी संमति या सम्मेलनसे उठाया जावे तो फौरन ही वह भले प्रकार शिरे पहुँचेगा । (पूरा होगा) उसमें जैसी मदद चाहें वैसी मदद हर तर्फसे मिल सकती है। हर एक कार्य आसानीसे हो सकता है। इत्यादि बड़े बड़े फायदे सम्मेलनमें समाये हुए हैं। कायदे यानी नियम सम्मेलन करके बाँधे जायँ तो वे सर्व मान्य और पायेदार मजबूत रह सकते हैं । अकेला चाहे कोई कितना ही प्रयास करे तो भी उस पर न कोई गौर ही करता है और न उसका किसी पर वजन ही पड़ता है " अकेला एक दो ग्यारा " इस लिये इस प्रकारके मुनि संमेलनकी आवश्यकता Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे बहुत अरसेसे मालूम हो रही थी इस लिये यह संमेलन देख कर मेरा चित्त आनंदसे फूला नहीं समाता । वह मेरी आशा आज पूर्ण हुई आप जैसे महात्माओंके दर्शनका जो लाभ हुआ है वह साधारण से आनंदकी बात नहीं है। आप लोग जो दूर दूर देशांतरोंसे महान संकटोंको सहन करके पधारे हैं इससे साफ प्रकट है कि आप भी इस संमेलनकी आवश्यकताको स्वीकारते हैं ऐसा मैं मानता हूँ। महाशयो ! अब मैं सभापति श्रीआचायेनी महाराजसे अपना भाषण करनेकी प्रार्थना करके बैठ जाता हूँ । इसके बाद ___ समापति आचार्य महाराज श्रीविजयकमलसूरिजीने, अपना व्याख्यान ( भाषण )-जो कि लिखा हुआ था-मुनि श्री वल्लभविजयनीको ही सुनानेके लिये कहा । आपकी आज्ञा पाते ही मुनिश्रीने उसे ज्यूँका त्यूँ पढ़ सुनाया। आचार्य श्रीमद्विजय कमलसूरीश्वरजीका व्याख्यान । मान्य मुनिवरो ! मुझे कहते हुए बड़ा ही आनंद हो रहा है कि, परम पूज्य न्यायांभोनिधि श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वरजी प्रसिद्ध नाम श्रीमद् आत्मारामजी महाराजका शिष्य परिवार जितनी संख्यामें आज यहाँ एकत्र विराजमान है, उतनी संख्यामें Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) पहले कभी भी कहीं एकत्रित नहीं हुआ था ! इस मुनि सम्मेलनका पूर्ण मान मुनिश्री वल्लभविजयजीको है; क्यों कि, इस तरह मुनिमंडलको एकत्र होनेकी प्रेरणा इन्होंने ही की थी, और उसी सूचनानुसार हम तुम यहाँ इकट्ठे हुए हैं। मुनिवरो ! यह मुझे अच्छी तरह याद है कि, आप सब दूर दूर प्रदेशसे बहुतसे परिषहोंको सहन करके यहाँ पधारे हैं, जिसको देखकर मुझे वह आनंद हो रहा है जो अकथनीय है। महाशयो ! आप सब जानते ही हैं कि कितनेक अरसेसे हरएक धर्म, हरएक समाज, और हरएक कौम वाले अपनी अपनी परिषदें, कॉन्फ्रेंन्से करते हैं और उसके द्वारा धर्ममें, समाजमें, कौममें जो खामियाँ हैं उनको दूर करनेका प्रयत्न करते हैं। ... अपने जैन कौमके नेता गृहस्थोने भी समाज और धर्मकी उन्नतिके लिये ऐसी कॉन्फ्रेंस करनेकी शुरूआत की थी और सात स्थानोंपर हुई भी थी; परंतु खेद है कि, उत्साही प्रचारकोंकी खामी होनेसे हाल कॉन्फ्रेंन्स सोती हुई मालूम देती है। अपने श्वेतांबर संप्रदायके अनुयायी समग्र साधुओंको कितनाक काल पूर्व ही ऐसे साधुसंमेलन करनेकी आवश्यकता थी; परंतु परस्पर चलते हुए कितनेक मतभेदादि कारणोंसे मुनिवर्ग संमेलनादि कार्य नहीं कर सका ! अपना अर्थात् साधु Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) ओंका कर्त्तव्य उच्च तत्वोंका अधिक प्रचार कर अर्हन् परमात्मा श्रीमहावीर भगवानने जगतके उद्धार निमित्त जो रस्ता बताया है उसे जगतवाप्ती जीवोंको दिखानेका है; परंतु दुखके साथ कहना पड़ता है कि, उस तर्फ अपनी दृष्टि जैसी चाहिये वैसी नहीं रहनेके सबब तथा अंदर अंदरके अमुक मत भिन्न होनेके कारण हम तुम अर्थात् समग्र मुनिवर्ग उपरोक्त स्वकर्तव्यका पालन नहीं कर सके। अपने पूज्य पूर्वर्षियोंने अपनी अगाध और अलौकिक शक्तिसे जो जो महान् कार्य किये थे उन्हीं महर्षियोंकी संतान कहलानेवाले हम तुम उनके जैसे काम करने तो दूर रहे, परंतु जो वे कर गये हैं उसे सँभालनेकी शक्ति भी हम तुममें नहीं रही । क्या यह बात लज्जास्सद नहीं है । जिस समय हजारों हिन्दु बलात्कार स्वधर्मसे भ्रष्ट हो रहे थे, संसारमें आदर्श रूप पवित्र हिन्दुओंके मंदिर तोड़े जा रहे थे, ऐसे घोर अत्याचारी राजाओंके राज्यमें भी अपने पूर्वाचार्योंने अपनी आत्मशक्ति और अतुल विद्वत्तासे पवित्र जैनधर्मकी जयपताका सारे भारतवर्षमें उड़ाई थी। हम तुम तो प्रतापी ब्रिटिश शाहनशाह नामदार पंचम ज्याके शांतिप्रिय राज्यमें तथा विद्याविलासी श्रीमान् महाराजा सयाजीराव गायकवाड़के जैसे उत्तम राज्यों में भी धर्मोन्नति नहीं कर सकते यह देखकर मुझे बड़ा खेद होता है। अपने पूर्वाचार्योंकी अतुल विद्वत्ताका उदाहरण पाटण, Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) खंभात, जैसलमेर, लींबडी आदिके ज्ञानभंडार सारे संसारको दे रहे हैं। हम तुममें वर्तमान समयके अनुसार नये ग्रंथ बनानेकी शक्ति तो दूर रही; परंतु जो अमूल्य ज्ञानका खजाना पूर्व महर्षि अपने लिये रख गये हैं उसे समझनेकी भी पूरी शक्ति नहीं यह कितने दुःखकी. बात है। महाशयो । मैं पहले ही कह चुका हूँ कि समग्र साधु समुदायके एकत्र होनेकी बहुत जरूरत थी, क्योंकि, एकत्र होनेसे पृथक पृथक गच्छोंमें या एक ही गच्छके भिन्न भिन्न समुदायोंमें जो परस्पर मतभेद तथा भिन्न भिन्न विचारादि हैं, वे दूर हो सकते हैं। और आपसमें प्रीतिभाव उत्पन्न होता है। परंतु वर्तमान स्थितिका अवलोकन करनेसे मुझे मालूम हुआ कि, श्वेतांबर संप्रदायके समग्र साधुओंका एकत्र होनेका हाल कोई भी संयोग नहीं है । बिलकुल न होनेसे तो केवल अपने (श्री आत्मारामजी महाराजके ) समुदायके साधुओंका ही एक सम्मेलन हो तो बहुत अच्छा है । ऐसा मेरा विचार था ही कि इतनेमें मुनि श्रीवल्लभविजयनीकी तरफसे सूचना हुई और शासनदेवकी कृपासे वह मेरा मनोर्थ और मुनिश्री वल्लभविजयजीके श्लाघनीय उद्यमका फलरूप कार्य यह संमेलन नजर आ रहा है। - साधुसंमेलन होनेकी खबर सुनकर सब जैनसमाज खुश होगा और यही कहेगा कि यह विचार अत्युत्तम है । इसको Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) अमलमें लानेकी पूर्ण आवश्यकता है। परंतु व्यवहार दृष्टिसे मालूम होता है कि, “ श्रेयांसि बहु विनानि" इस नियमानुसार बीचमें आफतके पहाड़ भी खड़े हैं; क्यों कि साधु सम्मेलनकी शुरूआत करनी और निरंतर अमुक समयके बाद सम्मेलन होना चाहिये, ऐसा सिलसिला जारी रखना यह काम साधुओंकी हालकी स्थिति तथा संकुचित वृत्ति आदिकी तर्फ ख्याल करनेसे सुगम नहीं मालूम होता । क्यों कि ऐसे सम्मेलनों द्वारा होनेवाले फायदोंकी तर्फ दृष्टि किसी पुण्यशाली पुरुषकी ही होती है । सम्मेलनोंद्वारा किये हुए नियमोंको जब अमलमें लानेकी आवश्यकता होती है तब उस तरफ बिलकुल दुर्लक्ष जैसा दिखाई देता है । जहाँ. ऐसी स्थिति हो वहाँ सम्मेलनोंद्वारा हुए नियमोंको यथार्थ मान मिलना और उनका उत्साहपूर्वक पालन करना असंभव नहीं, परन्तु मुश्किल तो अवश्य है । अस्तु । ऐसा होनेसे अपनेको निराश होना नहीं चाहिए । प्रयत्न करना अपना कर्तव्य है और इस कर्तव्यकी तर्फ उत्साहपूर्वक लगे रहेंगे तो कभी न कभी अवश्य सफलता प्राप्त होगी। ____ मान्य मुनिवरो ! ममाने हालमें विद्या प्राप्त करनेके अनेक साधनोंके होनेपर भी कितनोंने, उच्च विद्या प्राप्त की, यह छिपा हुआ नहीं है। उस जमानेकी तरफ खयाल करो कि, जिस समय महामहोपाध्याय न्यायविशारद श्रीमद् यशोविनयजी तथा Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय श्रीमद् विनयविजयनीने काशी जैसे दूर प्रदेशमें जाकर कैसी मुसीबतसे विद्या प्राप्त की थी ! मगर इस जमानेमें जहाँ चाहें वहाँ अच्छेसे अच्छे पंडित रखकर विद्याभ्यास कर सकते हैं । इतनी अनुकूलता होनेपर भी साधुओंमें उच्च ज्ञानकी बहुत हामी नजर आती है। कितनेक साधु सामान्य ज्ञान अर्थात् साधारण कथा ग्रंथ बाँचने जितना बोध हुआ कि, बस सब कुछ आ गया । ऐसा मानकर आगे अभ्यास करना बंद कर देते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिये । किंतु अच्छी तरह न्यायशास्त्रादिका पूरा अभ्यास करना चाहिये । यह खूब ध्यानमें रखना कि उँचे प्रकारके विद्याध्ययनके विना साधुओंका महत्व टिके, ऐसा समय अब नहीं रहा। इस लिये जैनसमुदायमें विद्याकी वृद्धि हो, ऐसे प्रयत्नकी बहुत जरूरत है । जब ऐसा होगा तभी समुदाय, समान और आत्माकी उन्नति होगी। शास्त्रोंमें भी “पढम नाणं तओ दया" "ज्ञानाहते न मुक्तिः" इत्यादि फरमान हैं। _अपनेमें अर्थात् श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजीके शिष्य समुदायमें देशकालानुसार प्रायः आचार संबंधी शिथिलता नहीं है तो भी, भविष्यके लिये समयानुसार कितनेक नियम करनेकी. आवश्यकता मालूम देती है । भिन्न भिन्न संप्रदायके साधुओंकी पृथक पृथक प्रवृत्ति देखकर भय है कि, अपने साधुओंमें भी संगत दोष न लग जाय, इस लिये भी कितनेक नियम करनेकी जरूरत है । कितनेक अन्य साधु विहारमें अपने उपकरण आदि Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थसे उठवाकर चलते हैं, कपड़े गृहस्थसे धुलवाते हैं, और केशढुंचन ( रोगादि कारणके अतिरिक्त ) भी बहुतसे साधु छोड़ बैठे हैं; तथा कितनेक साधु गुरु आदि वृद्ध पुरुषोंसे, गुप्त पत्रव्यवहार करते हैं इत्यादिक कितनीक बातें ऐसी हैं जिनके लिये कुछ बंदोबस्त न किया जाय तो उनसे किसी समय हानिकारक परिणाम आनेका संभव है। कितनेक साधु देशकालका विचार किये विना शिष्य परिवार बढ़ानेके लालच में फँस कर ऐसे ऐसे कार्य करते हैं, जिससे कि धर्मकी और कौमकी न सही जाय, ऐसी बदनक्षीबदनामी जैनेतर लोग करते हैं, और इस पवित्र धर्मकी तरफ घृणित विचार प्रगट करते हैं। इस बातके लिये भी अपनेको कोई ऐसा प्रबंध करनेकी जरूरत है, जिससे कि धर्मकी अवहेलनारूप घोर कलंक अपने सिरपर न आवे ! यह जमाना खंडन मंडन या कठोर भाषाके व्यवहार करनेका नहीं है। किंतु शांततापूर्वक अर्हन् परमात्माके कहे सच्चे तत्वों को समझा कर प्रचार करनेका है। वर्तमान समयमें प्रचलित राज्य भाषा जो कि, इंग्लिश है उसका ज्ञान भी साधु ओंमें होनेकी जरूरत है। कितनेक साधुओंकी इतनी संकुचित्त वृत्ति है कि, उपाश्रयके बाहर क्या हो रहा है ? इसकाभी पता नहीं है ! यही कारण है, जो जैन जातिकी संख्या Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिदिन घटती जाती है ! जबके अन्य जातियाँ अपनी उन्नतिको नदीके पूरके समान बढ़ा रही हैं। तो जैन जाति जो कि उन्नतिकी ही मूर्ति कही जा सकती है, उसको अपनी उन्नतिमें योग्य ध्यान नहीं देना अतीव चिंतनीय है। महानुभावो! सोचो ! यदि ऐसी ही स्थिति दो चार शताब्दि तक रही तो, न मालूम, जैनजातिका दरज़ा इतिहासमें कहाँ पर जा ठहरेगा ? इस लिये अपनेको इन बातोपर विचार कर ऐसा प्रबंध करना चाहिये, जिससे कि अपने समुदायकी तरफसे धर्मकी उन्नति प्रतिदिन अधिकसे अधिक हो और उसकी छाप दूसरे समुदायपर भी पडे । अपने साधुओंकी संख्या अन्य सिंघाड़ेके साधुओंसे अधिक है इससे जहाँ जहाँ जिन जिन स्थलोंमें साधुओंका जाना नहीं होनेसे हजारों जीव जैनधर्मसे पतित होते जाते हैं, ऐसे क्षेत्रोंमें विचरना, और उनको उपदेश देकर धर्ममें दृढ़ करना । यदि अपने साधु ऐसा मनमें विचार लेवें तो, थोड़े ही कालमें बहुत कुछ उपकार हो सकता है । बहुतसे साधु केवल बड़ेबड़े शहरों में ही विचरते हैं, इससे बिचारे ग्रामोंके भाविक जीव वर्षांतक साधुओंके दर्शन और उपदेश बिना तरसते रहते हैं। इससे आपने साधुओंको चाहिये कि, जहाँ अधिकतर धर्मकी उन्नति हो, वहाँ पर ही चतुर्मासादि करें। महाशयो ! मैंने आपका समय बहुत लिया है. परंतु Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) 1 अपने साधुओंका सम्मेलन होनेका पहला ही प्रसंग है, जिससे प्रथम आरंभ मजबूत काम होना चाहिये, ताके भविष्य में यह अपना प्रथम संमेलन औरोंके लिये उदाहरण रूप हो जाने । अतः मैं आशा करता हूँ कि, सब मुनिमंडल इस बातको लक्षमें रखकर इस कार्यमें सफलता प्राप्त करेगा । अब मैं इतना ही कहकर अपने भाषणको समाप्त करता हूँ । २. ( इसके बाद नियमानुकूल जो प्रस्ताव और विवेचन हुए वे क्रमशः लिखे जाते हैं । ) प्रस्ताव पहला । अपने समुदायके प्रत्येक साधुको चाहिये कि, वर्त्तमान आचार्य महाराज जहाँ चतुर्मास करनेके लिये कहें, वहाँ ही किया जाय; यदि किसीकी इच्छा किसी अन्य क्षेत्रमें चतुर्मास करनेकी हो, और आचार्य महाराज वहाँकी अपेक्षा और कहीं चतुर्मास करने में अधिक लाभ समझते हों तो, उनकी आज्ञानुसार दूसरे ही स्थानपर प्रसन्नतापूर्वक चतुर्मास व्यतीत करना चाहिये । यह प्रस्ताव उपाध्याय श्रीवीरविजयजी महाराजने पेश किया था; जिसकी पुष्टि मुनिराज श्रीहंसविजयजी महाराजने बड़ी अच्छी तरहसे की थी । आखिर सर्व मुनियोंकी सम्मतिके अनुसार प्रथम प्रस्ताव पास किया गया । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताव दूसरा। बिना किसी खास कारणके अपने साधुओंको, एक चतुसिके ऊपर दूसरा चतुर्मास उसी क्षेत्रमें नहीं करना । तथा चतुर्मास पूरा होते ही शीघ्र विहार करदेना चाहिये । यदि किसी खास कारणसे आचार्य महाराज आज्ञा फरमातो, चतुर्मासके ऊपर दूसरा चतुर्मास करनेमें हरकत नहीं । यह प्रस्ताव मुनि श्रीहंसविनयजी महाराजने पेश किया था । जिसकी पुष्टि मुनि श्रीचतुरविजयजीने अच्छी तरहसे की थी। प्रस्तावपर विवेचन करते हुए मुनि श्रीहंसविजयजी महाराजने कहा था कि, “बहना पानी निर्मला, खड़ा सो गंदा होय ।। साधू तो रमता भला, दाग न लागे कोय ॥" ___याने गंगादिका बहता प्रवाह जैसे स्वच्छ रहता है, वैसे ही रमते अर्थात् देशदेशमें विचरते साधु निर्मल रहते हैं। उनके किसी प्रकारका दाग भी नहीं लग सकता; परंतु जैसे छपड़ी ( खाबोचिया ) का खड़ा पानी गंदा हो जाता है, वैसे ही, एकके एक ही स्थानमें रहनेवाले साधुको दोष लगनेका संभव होता है, अतः साधुको एक स्थानमें रहना योग्य नहीं इत्यादि । अंतमें सर्वकी सम्मतिसे यह भी पास किया गया । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) प्रस्ताव तीसरा। अपने समुदायके मुनियोंको एकल विहारी नहीं होना चाहिये, अर्थात् दो साधुसे कम न रहना चाहिये । यदि किसी कारणसे एकके ही रहनेका प्रसंग आवे तो श्रीमद् आचार्य महाराजकी आज्ञा ले लेना चाहिये। यह नियम मुनिराज श्रीवल्लभविजयजी महाराजने पेश किया था। जिसपर मुनि श्रीप्रेमविजयजीने पूर्णतया पुष्टि दिये बाद सर्व मुनियोंकी संमति अनुसार यह प्रस्ताव पास किया गया । ___ इस नियमको उपस्थित करते हुए, मुनिराज श्रीवल्लमविजयजीने मुनिमंडलके ध्यानको आकर्षित कर कहा कि, शास्त्राज्ञानुसार साधुको दोसे कम, और साध्वियोंको तीनसे कम नहीं रहना चाहिये । जहाँ कहीं इस शास्त्राज्ञासे विपरीत हो रहा है, वहाँ स्वच्छंदता आदि अनेक दोषोंका समावेश हुआ नजर आ रहा है ! अतः इस बातमें श्रावक लोगोंका भी कर्त्तव्य समझा जाता है कि, जब कभी किसी अकेले साधुको देखें तो शीघ्र ही उसके गुरु आदिको खबर कर देवें ताकि, एकल विहारियोंको कुछ खयाल होवे; परंतु, श्रावकोंको उपाश्रयका दरवाजा खुला रखना, और सौ डेढ़सौ रुपये की, पर्युषणाके दिनोंमें पैदायश करनी, इस बातका ही खयाल नहीं रखना चाहिये ! Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) प्रस्ताव चौथा. कोई साधु, जिसके पास आप रहता हो उससे नाराज होकर चाहे जिस किसी अपने दूसरे साधुके साथमें जा मिले तो, उसको विना आचार्य महाराजकी आज्ञाके अपने साथ हरगिज न मिलावे । - इस प्रस्तावको पेश करते हुए मुनि श्रीविमलविनयजीने खुलासा किया था कि, इस प्रस्तावका मतलब यह है कि, किसी दूसरे साधुका चेला नाराज होकर अपने गुरुको या गुरुभाई आदिको छोड़कर आया हो उसको कितनेक साधु अपने पास रख देते हैं ऐसा नहीं होना चाहिये । कारण कि, ऐक्यमें त्रुटि और शिष्यको गुरुकी बेपरवाही होनेका संभव है। आनेवालेके मनमें यूं आ जाता है कि, ओह । क्या है। बस । मैं जिसके साथमें जी चाहेगा उसके साथ जा रहूँगा । मुझे गुरुकी क्या परवाह है। इतना ही नहीं । बलकि, किसी गुन्हा ( कसूर ) के होनेपर अगर गुरुने कुछ हितशिक्षा दी हो, तो उसकी हितशिक्षाको उलटी मना, दूसरेके पास जाकर अवर्णबाद बोल, गुरुको ही झूठा ठहराकर आप सच्चा बननेकी चेष्टा करता है । इसका आपसकी प्रीतिभावमें विघ्न डालनेके सिवाय, अन्य किंचित् मात्र भी फायदा नजर नहीं आता। इत्यादि कारणोंको लेकर इस नियमके पास होनेकी परम आवश्यकता है। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ६८ ) इसको मुनि श्रीजिनविजयजीने पुष्टि करते हुए कहा कि, पूज्य मुनिवरो ! मुनि श्रीविमलविजयजी महाराजने जो प्रस्ताव पेश किया है, इसपर मुनि सम्मेलनको विचार करनेकी पूरी आवश्यकता है, इस नियमके पास होनेसे, कई प्रकारके फायदे हैं। प्रथम तो, यही बड़ा लाभ होगा कि, साधुओंकी स्वच्छंदता बढ़नी बंद हो जावेगी नहीं तो आपसमें अर्थात् गुरु शिष्यों में या गुरुभाई आदिमें छदमस्थ होनेसे, साधारण भी बोलचाल या खटपट हो गई हो, तो झट दूसरे साधुके पास जाने के इरादेसे, यह जानके कि क्या हैं ! यहाँ नहीं मन मिला तो दूसरे के पास जा रहेंगे, समुदाय से पैर बाहर रखनेकी, मरजी हो जायगी और जब ऐसा होगा तो विनयादि गुण, जो खास मुनिके भूषणरूप हैं उनका नाश होगा | यह तो आप अच्छी तरह जानते हैं कि आजकलके साधारण जीवोंमें कितना वैराग्य और विरक्त भाव है । इस लिये इस नियमके करनेसे स्वछंदताका कारण नष्ट होगा क्योंकि, जब कोई नाराज हो कर दूसरे साधुके पास जानेका इरादा करेगा तो वह पहले इस बातको अवश्य विचार लेगा कि, मैं दूसरे के पास जाता तो हूँ परंतु आचार्य महाराजकी आज्ञा बगैर तो अन्य रखेंगे ही नहीं और जब आचार्यश्रीकी आज्ञ मँगाऊँगा तो सारा वृत्तांत ही प्रगट हो जायगा । फिर तो, जैसी आचार्यनीकी मरजी होगी तदनुसार बनेगा इत्यादि विचार स्वयं ठिकाने आ जावेगा और ऐसा होनेसे वह गुण प्रगट होगा कि Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) जिस गुणके प्रभावसे साधुमें सहनशीलता परस्पर प्रीतिभाव (संप) की वृद्धि होगी । अतः इस नियमको पास करनेके लिये जोरके साथ मैं मुनिमंडलके ध्यानको आकर्षित करता हूँ। · अंतमें यह प्रस्ताव सर्वकी संमतिके अनुसार पास किया गया. प्रस्ताव पाँचवाँ। जिसने एक दफा दीक्षा लेकर छोड़दी हो उसको विना श्री आचार्य महाराजकी आज्ञाके, दुबारा दीक्षा नहीं देनी चाहिये। संवेग पक्षके अलावा अन्यके लिये भी जहाँतक हो सके वहाँतक आचार्य महाराजकी आज्ञानुसार ही कार्य करना ठीक है । ___ इस प्रस्तावको पन्यास श्रीदानविजयनीने पेश करते हुए कहा कि, जो एक वार दीक्षा छोड़कर चला गया हो और वह पुनः दीक्षा लेने आवे तो उसके लिये इस अंकुशकी खास जरूरत है । कारण कि, वह मनुष्य किस कारण दुबारा दीक्षा लेता है, यह समझनेकी शक्ति जितनी मोटे पुरुषोमें होती है उतनी सामान्य साधुमें नहीं होती । कदाच दूसरी बार भी दीक्षा लेकर फिर छोड़ दे। इसलिये आचार्य महाराजकी सम्मति लेनी चाहिये । इस प्रस्तावकी पुष्टि मुनि श्रीललितविजयजीने की थी बाद मे यह प्रस्ताव सर्व सम्मतिसे पास किया गया । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) प्रस्ताव छठा। साधु प्रायः मोटे मोटे शहरोंमें और उसमें भी खासकर गुजरात देशमें ही, चतुर्मास करते हैं; परंतु साधुओंके विहारसे अलभ्य लाभ हो, ऐसे स्थलों में जैसे कि, मारवाड़, मेवाड़, मालवा, पंजाब, कच्छ, बागड़, दक्षिण, पूर्व वगैरह देशोंमें साधु ओंका जाना थोड़ा मालूम देता है। साधुओंके न जानेसे जैनधर्म पालनेवाले संख्याबंध अन्यधर्मी हो गये, और होते जाते हैं इस बातपर, इस मुनिमंडलको मानपूर्वक ध्यान देना चाहिये, और सम्मति प्रगट करनी चाहिये कि, साधुओंको गुजरात छोड़ हिन्दुस्तानके हरएक हिस्सों में विहार करनेकी तनवीन करनी चाहिये। इस प्रस्तावको मुनिराज श्रीवल्लभविजयजी महाराजने पेश करते हुए कहा कि-" महाशयो ! आप अच्छी तरह जानते हैं कि, साधु मोटे मोटे शहरों में संख्याबंध पंदरा पंदरा बीस बीस हमेशह पड़े रहते हैं। लेकिन, ऐसे बहुत ग्राम खाली रह जाते हैं जहाँपर शहरोंके बनिसबत अलभ्य लाभ हों कितनेक साधु तो विहारकी सुगमता और आहार पाणीकी सुलभताको देखकर गुजरात देश छोड़ अन्य देशोंमें जानेकी इच्छा भी नहीं करते । जाना तो दरकिनार । फिर ख्याल करो कि जो साधुओंके लिये परिषह सहन करनेकी भगवतने आज्ञा फरमाई है उसका Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) अनुभव क्योंकर हो सक्ता है। परिचित स्थानमें तो जिस वक्त साधु महाराज गोचरी लेनेको पधारते हैं उस वक्त मुनियों के पीछे श्रावकोंके टोलेके टोले साथ हो लेते हैं। कोई तो इधरको खींचता है कि, इधर महाराज, इधर पधारो और कोई अपनी ही तरफ । लेकिन, जहाँ पंजाब मारवाड आदि स्थानोंमें कितनेक ठिकाने श्रावकोंके घर ही नहीं, या वह लोग अन्य धर्मपालन करने लग गये हैं वैसे स्थानोंमें विहार होवे तो, परिषहोंका भी अनुभव हो । ___महाशयो ! अपने साधुओंको तो प्रायःयह अच्छी तरहसे. अनुभव है कि विना साधुओंके हजारों जैन अन्यधर्मवालों के सतत परिचय होनेसे उनके ही अनुयायी होते जाते हैं । अपने महान आचार्योने जिन्हें प्रतिबोधकर जैन धर्ममें दृढ किया था आज हम उन्हें मिथ्यात्वमें पड़ते देखकर भी कुछ ख्याल न करें, या परीषहोंसे डरके मारे अपनी कमनोरी बतलाकर गुजरातमे ही पड़े रहें, यह हमें शोभनीय नहीं है । महाशयो ! अपने जैन श्रावकोंकी संख्या दिनपर दिन घटती जाती है उसका दोष अपनेही ऊपर है । एक समय ऐसा था कि एक देशसे दूसरे देशमें जाना बड़ा ही मुश्किल काम था। अन्य धर्मवालोंकी तर्फसे राजाओंकी तर्फसे चोर और लुटेरोंकी तर्फसे, साधुओंको विहारमें बड़ी मुसीबतें पड़ती थीं। ऐसे विकट समयमें भी अपने पूर्वाचार्योने दूरदूर देशोंमें जाकर, लोकोंको प्रतिबोधकर जैनधर्मी Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) बनायाथा | आजतो प्रतापी नामदार गवर्मेन्ट सरकार अंगरेज बहादुर के राज्यमें साधुओंकों बिहार के साधन ऐसे सुलभ हैं कि, जी चाहे वहाँ बेधड़क विचरते फिरें । किसी प्रकारका भय नहीं है। ऐसे शासनमें अगर चाहो तो उनसे भी अधिक कार्य कर सक्ते हो; लेकिन, अफसोसके साथ कहना पड़ता है कि, उन्नति करनी तो दूर रही, हाँ अवनतिका रस्ता तो पकड़ा ही हुआ है । जरा पालीतानाकी तर्फ ख्याल करो । तीर्थकी आड़ लेकर कितने साधु साध्वी दरसाल वहाँके वहाँही समय गुजारते हैं। कभी बहुत जोर मारा तो भावनगर, और उससे अधिक अनुग्रह किया तो अहमदाबाद, बस इधर उधर फिर फिरा, फिर पालीतानाका पालीताना । श्वसुर गृहसे पितृगृह और पितृगृहसे श्वसुरगृह ज्यादा जोर मारा कभी मातुलगृह ( मोसाल - नानके) के जैसा हाल हो रहा है ! वहाँ आकर पानी आदिकी शुद्धि कितनी और किस प्रकार रहती है सो साधु साध्वी क्या श्रावक श्राविका भी अच्छी तरह जानते हैं कि, राग दृष्टिके वश हो भक्ति के बदले भुक्ति की जाती है ! यदि वह साधु साध्वी जुदे जुदे स्थानोमें चतुर्मासादि करें, तथा, अन्यान्य देशमें विहार करें तो, कितना बड़ा भारी लाभ साधु साध्वी और श्रावक श्राविका दोनों ही पक्षको होवे ! बेशक! मेरा कहना कइयों को नागवार गुजरेगा मगर न्यायदृष्टिसे सोचेंगेतो यकीन है कि वो स्वयं अपनी Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल स्वीकार करेंगे। इमलिये अपनी कमजोरीको छोड़कर चुस्त बनो ! मेरी यह खास सूचना है कि, हरएक साधु अपने संघाड़ेके आलावा भी जो हो, याने श्वेतांबर संप्रदायके हरएक साधुको गुजरात तथा मोटे २ शहरों परसे मोह ममत्व छोड़कर गामोंमें जहाँ कि साधुओंका विहार नहीं और जहाँ साधुओंके लिये श्रावक लोक अपने यहाँ पधारनेकी पुकार कर रहे हैं ऐसे स्थानों में साधुओंका विहार होना चाहिये । ऐसे स्थानों में विहार होनेसे बड़ा ही लाभ होनेका संभव है। नीतिकारोंका कथन है कि-अति सर्वत्र वर्जयेत्-क्षीरान्नसे भी किसी वक्त चित्त कंटाल जाता है ! बरात वगैरह जिमणवारोंमें जहाँ नित्यप्रति मिष्टान्न ही भोजन मिलाता है वहाँ भी मिष्टान्नसे अरुचि होती नजर आती है । मैं नहीं कह सकता कि यह बात कहाँतक सत्य है। मगर मेरा ख्याल है कि, अगर पाँच सात वर्षपर्यंत साधु साध्वी अनुग्रह दृष्टिसे क्षेत्रोंके ममत्वको त्याग मरु मालवा मेवाड़ादिकी तर्फ सु नजर करें तो उमीद है कि दिनोंकी पुष्टिद्वारा धर्मोन्नति अधिकसे अधिक होवे । एक तर्फ उपराउ.परी भोजन मिलनेसे अजीर्ण वृद्धि होती है उसकी रुकावट होजानेसे अनीर्णकी शांतिद्वारा तंदुरुस्त हालतसे पुष्टि होगी। और दूसरी तर्फ भोजनका सांसा पड़नेसे भूखमरेकी शांतिद्वारा तंदुरस्त हालतकी प्राप्तिसे पुष्टि होगी । अन्यथा याद रखना ! जितनी आजकल साधु साध्वियोंकी बेकदरी हो रही है, Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) आयिंदाको इससे अधिक ही होगी ! क्या यह थोड़ी बेकदरी है ? साधु साध्वियोंके शहरमें होते हुए भी कितनेक अमीर लोक तो क्या गरीब भी उस तर्फ नजर करते झिजकते हैं ! यह किसका प्रभाव ? एकके एक ही स्थानमें ममत्व बाँधकर रहेनेकाही ना कि, अन्य किसीका ? क्या कभी आपने सुना था या सुना है ? कि स्वर्गवासी महात्मा श्रीमद्विजयानंद सूरि ( आत्मारामनी ) महाराजजी अमुक उपाश्रयमें या अमुक स्थानमें ही रहते थे ? कभी भी नहीं । बस यही कारण समझिये जो कि उनकी निसबत कुल हिंदुस्तानके जैनोंके मुख से एक सरीखाही उद्गार निकलता है; क्यों कि, उन्होंने कोई अपना नियत स्थान नहीं माना था ! और नाही वे अमुक अमुक सेठके गुरु खास करके कहे जाते थे. और कहे जाते हैं। जिसका कारण उन महात्माका यह ख्याल ही नहीं था कि, अमुक हमारा भक्त श्रावक और अमुक नहीं ! बलकि वो इस बातको खूब जानते थे कि, श्रावक वगैरहके ममत्वमें जो कोई फँसता है या फँसेगा उसको गुरुके बदले शिष्य बननेका समय आता है ! अवश्य आयगा ! क्यों कि, जब किसीके साथ ममत्वका संबंध हो जायगा तो उस वक्त उसका कहना अवश्य ही मानना पड़ेगा। अगर न मानेगा तो झट वो फरंट हो जायगा । जिसका जरा दीर्घदर्शी बन विचार किया जाय तो, हम तुमको तो क्या प्रायः कुल आलमको ही अनुभव सिद्ध हो रहा है कि, आजकल प्रायः कितनेक साधु सेठोंके प्रतिवं Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमें ऐसे प्रतिबद्ध हुए होंगे कि, शेठका कहना साधुको तो अवश्य ही मानना पड़ता है ! सेठ चाहे साधुका कहना माने या न माने यह उसकी मरजीकी बात है । तो अब आप लोक ख्याल करें, ऐसी हालतमें शेठ गुरु रहे कि साधु ? सत्य है निनवचनसे विपरीताचरणका विपरीत फल होताही है । इस लिये यदि साधुको सच्चे गुरु बने रहना हो तो शास्त्राज्ञाविरुद्ध एकही स्थानमें रहना छोड़, ममत्वको तोड़, गुरु बनना चाहते शेठोंसे मुखमोड़, अन्य देशोंके जीवोंपर उपकार बुद्धि जोड़, अप्रतिबद्ध विहारमेंही हमेशह कटिबद्ध रहना योग्य है; ताकि, धर्मोन्नतिके साथ आत्मोन्नतिद्वारा निन कार्यकी भी सिद्धि हो. मैं मानता हूँ कि, मेरे इस कथनमें कितनाक अनुचित भाग होगा मगर, निष्पक्ष होकर यदि आप विचारेंगे तो उमीद करता हूँ कि, अनुचित शब्दके नका (१) आपको अवश्यही निषेध करना पड़ेगा; तथापि किसीको दुःखद मालुम हो तो, उसकी बाबत मैं मिथ्या दुष्कृत दे, अपना कहना यहाँही समाप्त करताहूँ। इस प्रस्ताव पर मुनि श्रीचतुरविजयजीने अच्छी पुष्टि की थी। बाद सर्वकी सम्मतिसे यह प्रस्ताव बहाल रखा गया । प्रस्ताव सातवाँ। अपने साधुओंमें अवश्य लोच करनेका जैसा रिवाज है Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७ ) वैसे का वैसाही रखना, अगर चक्षु प्रमुख रोगादि कारणसे, क्षुर मुंडन करवाना पड़े तो, गुरु आज्ञासे महीने मेहीने शास्त्रानुसार क्षुरमुंडन करवाना; लेकिन, क्षुरमुंडन करवानेवालेने चार वा छै महीने तक केश न बढाना । प्रस्ताव आठवा। कितनेक गृहस्थी लोग उपाश्रयमें कपड़ा लाते हैं और साधुओंको वेहराते हैं यह शास्त्र विरुद्ध है । अतः अपने साधु गृहस्थीके मकान पर जाकर जरूरत हो उतना ले आवे किंतु, उपाश्रयमें लाया हुआ नहीं वेहरे (लेवें)* * इस प्रस्तावपर सभापतिजीकी आज्ञानुसार महाराज श्रीवल्लभविजयजीने श्रावक श्राविका वर्गको उद्देश करके कहा था कि, शास्त्रोमें श्रावक श्राविकाको मातपिताकी उपमा दी है। जैसे मातापिता निजपुत्रको अहितसे रोक हितमें प्रेरणा करते हैं, ऐसे ही मातापिता तुल्य श्रावक वर्गको चाहिये कि, वे निजपुत्रके समान साधुकी अहितसे रक्षा कर उसके हितमें प्रवृत्ति करें । इसलिये आपको शास्त्रकारकी आज्ञानुसार जो आज्ञा सभाध्यक्षजीकी तर्फसे सर्व साधुमंडलने स्वीकृत की है उसपर ध्यान देना योग्य है । हाँ वस्त्रकी प्रार्थना करना आपका धर्म है । साधुको जरूरत होगी तो आपके मकानसे यथा योग्य गुर्वादिकी आज्ञानुसार ले आवेगा, परंतु, तुम लोग जो गठड़े के गठड़े उठा उपाश्रयमें लाकर साधुको देते हो मेरा ख्याल है कि, साधुओंको एक प्रकारकी शिधिलतामें आप लोग मदद देते हो । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) प्रस्ताव नवमाँ | बाल, वृद्ध, ग्लान आदि किसी खास कारणके विना, अपना साधु अपनी उपधि उपकरण गृहस्थसे न उठवावे । प्रस्ताव दशवाँ । चतुर्दशी के दिन बाल, वृद्ध, ग्लान ( बीमार ) के सिवाय, अपने सब साधुओंको उपवास (व्रत) करना । ( विहार में यतना ।) प्रस्ताव ग्यारहवाँ । अपने साधुओंको कमसेकम सौ (१००) श्लोकका स्वाध्याय ध्यान दररोज अवश्य करना । अगर जिससे न हो सके तो वो एक नमस्कार मंत्रकी माला ही फेर लेवे । प्रस्ताव बारहवाँ | सोने चाँदीकी या उसके जैसी चमकवाली चश्मेकी फेम ( कमानी ) नहीं रखनी । प्रस्ताव ७ सातवेंसे १२ वे पर्यंत छै प्रस्ताव सभापतिजीकी तर्फसे आज्ञारूप जाहिर किये गये थे; जिनको, उसीवक्त, उपस्थित हुए सर्व साधुओंने स्वीकार कर लिया था । इतना कार्य होने के बाद दूसरे दिनके लिये दो बजे से चार बजे तकका टाइम मुकर्रर करके प्रथम दिनका काम समाप्तकिया गया । Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) दूसरा दिन । -10000/बराबर दो बजे सभापति श्रीआचार्य महाराजजी मुनिमंडल सहित आबिराजे । श्रावकश्राविका वा अन्य प्रेक्षकगणोंसे स्थान उसी प्रकार भर गया। प्रस्ताव तेरहवाँ। __ साधुके आचार विचारमें किसी प्रकारकी हानि न आवे इस रीतिपर अपने साधुओंको जैनोंसे अतिरिक्त अन्य लोगोंको भी जाहिर व्याख्यानद्वारा लाभ देनेका रिवाज रखना चाहिये, तथा और किसीका व्याख्यान पबलिकमें जाहिर तरीके होता हो तो उसमें भी, द्रव्य, क्षेत्र काल, भावको देखकर साधुको जानेके लिये छूट होनी चाहिये । हाँ इतना जरूर होवे कि,हर दो कार्यमें रत्नाधिक ( बड़े ) की आज्ञा विना प्रयत्न न किया जावे । मुनिराज श्रीवल्लमविजयनीने इस निमको पेश करते हुए विवेचन किया कि, महाशयो! यह नियम जो मैंने आपसाहिबोंके समक्ष पेश किया है जमानेके लिहानसे वह बड़े ही महत्वका और धर्मको फायदा पहुँचानेवाला है। जैनेतर लोगों में जैनेधर्मके तत्वोंका प्रचार करनेका यही सुगम उपाय है। लोगोंको धर्मके तत्व समझानेका जो अपना फरज है उसके सफल करनेका अत्युत्तम समय प्राप्त हुआ है। आप जानते हैं कि, अपनी सुस्तीके कारण कहो, या Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) बेदरकारीसे कहो, अन्य जिस किसीका दाव लगा उसने अपने तत्वको समझाकर अपने पीछे लगा लिया। जिनमें कितनेक लोग तो जैनधर्मके तत्वोंसे अनभिज्ञ होनेसे ही अन्यके पीछे लग जाते हैं। और कितनेक एक दूसरेकी देखादेखी । यही हाल अब भी चल रहा है तथापि नैनोंकी आँखें नहीं खुलतीं । कितनेक लोग जैन धर्मके तत्वको विना समझे कुछ अन्यका अन्य ही पुस्तकोंमें लिखकर विना किसीको दिखाये अपनी मरजीमें आया वैसा ऊटपटांगसा छपवाकर एकदम जाहिर करदेते हैं । जिसका परिणाम जैनधर्मपरसे लोगोंकी श्रद्धा उठ जानेका हो जाता है। इस लिये यदि जाहिर व्याख्यानद्वारा जैनधर्मके तत्व लोगोंके सुननेमें आवे तो आशा की जाती है कि, घने लोगोंको अपनी भूल सुधारनेका मौका मिलजावे। यह कोई बात नहीं है कि, आप लोग बाजारमें खड़े होकर ही सुनावे । बेशक । जिस प्रकार उपाश्रयमें बैठकर सुनाते हैं उसी तरह सुनावें, मगर स्थान ऐसा साधारण होवे कि जहाँ आनेसे कोई भी झिझक न जावे । यद्यपि उपाश्रय ऐसा साधारण स्थान ही होता है क्यों कि, उसपर किसीकी खास मालकियत नहीं होती है, तथापि लोगोंमें खास करके यही बात प्रचलित हो रही है कि, उपाश्रय अमुक एक व्यक्तिका है । हम वहाँ किसतरह जावें । कदापि गये और किसीने कह दिया कि, क्यों साहिब ! आप यहां क्यों आये ? इत्यादि कई प्रकारकी कल्पनाएँ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) कर घने भोले जीव अलभ्य लाभसे वंचित रहते हैं। तो उनको ऐसा समय ही न मिले इस प्रकारकी व्यवस्थाका करना जानकार श्रावकोंका कर्त्तव्य समझा जाता है । मतलब कि, जिस तरह हो सके अपनी वृत्तिकी रक्षापूर्वक जाहिर व्याख्यानद्वारा लोगोंको फायदा पहुँचानेका और अन्य समाजोंमें जाकर स्वयं किसी न किसी बातका फायदा लेनेका या समाजस्थ सभ्य लोगोंको फायदा देनेका ख्याल अवश्य रखना चाहिये । ऐसा होनेसे पूर्ण आशा है कि, मात्र उपाश्रयमें ही बैठकर केवल श्राद्ध वर्गके आगे उपदेश दिया जाता है उससे कईगुणा अधिक लाम होगा। यदि एक जीवको भी शुद्ध धर्मके तत्वका श्रद्धान होजावे तो मेरा ख्याल है कि सारा जिंदगीका दिया उपदेश सफल हो जावे । बाकी जो श्राद्ध वर्ग है सो तो है ही. परंतु उसमें भी विद्याभ्यासकी खामीके कारण परमार्थको समझनेवाले प्रायः थोड़े ही निकलेंगे। घने तो केवल जी महाराजही, कहनेवाले होगें। यह बात कोई आप लोगोंसे छिपी हुई नहीं है। इस लिये, जमानेकी तर्फ दृष्टि करनी अपना फरज समझा जाता है । शास्त्रकारोंका भी फरमान द्रव्यक्षेत्रकाल भावानुसार वर्तन करनेका नजर आता है। ऐसा होनेपर भी यदि जमानेको मान न दिया जावे तो मैं कह सकता हूँ कि उसने शास्त्र या शास्त्रकारोंको मान नहीं दिया। आप जानते हैं आजकलका जमाना कैसा है ? आजकलका Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) जमाना प्रायः सुधरा हुआ और सत्यका ग्राहक हो रहा है। सैंकड़ों मनुष्य असली शुद्ध तत्वको चाहनेवाले आपको मिलेंगे; मगर शांतिपूर्वक उन्हें समझानेकी जरूरत है। मेरा कहना यह नहीं मानता है, इसलिये यह नास्तिक है । इसके साथ बात करनी योग्य नहीं है। ऐसी ऐसी तुच्छताको अपने दिलमें स्थान ही नहीं देना चाहिये । जबतक अगलेके दिलकी तसल्ली न हो वो एकदम आपके कहनेको कैसे स्वीकार कर सकता है ? यदि आपके कथनको सत्यही सत्य मानता चला जावे तो उसका समझाना ही क्या। वो तो आगेही श्रद्धालु होनेसे समझा हुआ है । मैं मानता हूँ कि, भगवान् श्रीमहावीरस्वामीजी तथा श्रीगौतमस्वामीजीका बयान ऐसे मौके पर ख्याल करना अनुचित नहीं समझा जायगा । श्रीगौतमस्वामी श्रीमहावीरस्वामीके पास किस इरादेसे आये थे ? परंतु श्रीमहावीरस्वामीके शांत उपदेशसे उनकी शंकाओंका योग्य समाधान होनेसे सत्य वस्तु झट ग्रहण करली । यहाँ श्रीमहावीरस्वामीने यह ख्याल नहीं किया है कि, यह वादी बनकर आया है, इससे क्या बोलना । बलकि हे इंद्रभूते ! हे गौतम ! इत्यादि मिष्ट वचनोंसे आमंत्रण देकर उनको समझाया । जबकि, हमतुम वीरपुत्र कहाते हैं तो वीर अपने पिताश्रीका अनुकरण करना हम तुमको योग्य है न कि, अननुकरण । इस लिये शांतिके साथ अनुग्रह बुद्धिसे यदि उन लोगोंको धर्मके तत्व तथा धर्मका रहस्य समझाया जावे तो मैं Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) यकीन करता हूँ कि आपको बड़ा ही भारी लाभ होवे । • महाशयो। प्रतापी गवर्मेटके शांतिमय राज्यमें यह शांतिमय जमाना वहते गंगाके निर्मल पानीकी तरह है। जितना जिससे पिया जावे पी लो । कोई रोकनेवाला नहीं । हरएक धर्मवाला अपने अपने धर्मके तत्वोंको समझानेके लिये जगह जगह जाहिर व्याख्यान देता नजर आ रहा है । अगर इससे वंचित है तो केवल जैनसमाज ही है । अपने पूर्वर्षि महात्माओंने जो लाखों जीवोंको जैनधर्मके अनुयायी बनाया है, वो केवल उपाश्रयमेंही बैठकर नहीं बनाया; किंतु राजदरबार आदि अन्यान्य स्थानों में उपदेश देकरके ही बनाया है। यदि वे महात्मा आजकलकी तरह उपाश्रयमें ही बैठे रहते तो, कईएक राजा महाराजा सामंत मंत्री शेठ शाहुकार व अन्य लाखों मनुष्य जैनधर्मी किस तरह होते ? भगवान् महावीरस्वामीने जैनधर्मका कंट्राक्ट ( ठेका ) किसी खास अमुक व्यक्ति या जातिको नहीं दिया है। किंतु उन्होंने तो दुनियाके उपकारार्थ धर्म फरमाया है । जैनधर्म अमुक जाति या अमुक देशका नहीं है। जैनधर्म सारे जगत्का धर्म है । जरा चारों ओर विचारदृष्टिको फिराकर देखोगे स्वतः मालुम हो जायगा। दयाकी बाबत जनधर्मकी छाप हरएक दुनियाके धर्मपर कैसी जबर बैठी है । जो लोग पक्षपातके गेहरे गढ़ेमें गिरे हुए हैं उनको भी अपनी कलम व ज़बान मुबारिकसे जाहिर करना पड़ता है कि, दयाकी बाबतमें Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) जैन सबसे आगे बढ़ा हुआ है । मान्य मुनिवरो। यदि इसी प्रकार जैनधर्मके रहस्य व तत्वोंका भली प्रकार वर्णन किया जावे तो क्या लोगों पर असर कुछ भी न होवे ? नहीं नहीं अवश्य ही होवे । इसलिये “गई सो गई अब राख रहीको" इस कहावत मूनिब आगेके लिये हुशियार होनेकी जरूरत है। मैनें आपका बहुत समय लिया है कृपया उसे दरगुजर कर, जो कुछ प्रकरणके असंगत या अनुचित छद्मस्थताके कारण कहा गया हो उसकी बाबत शुद्धांतःकरणपूर्वक मिथ्या दुष्कृत दे समाप्त करता हुआ, अपना प्रस्ताव पुनः मुनिमंडलके समक्ष पेश कर बैठ जाता हूँ। ____इस प्रस्तावके अनुमोदनपर मुनि श्रीविमलविनयजीने कहा कि, मान्य मुनिवरो ! मेरे परोपकारी गुरुजी महाराजने जो यह प्रस्ताव आप लोगोंके समक्ष विवेचनपूर्वक उपस्थित किया है इसपर कुछ कहनेके लिये मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। क्यों कि कहाँ तो सूर्य और कहाँ खद्योत ? कहां समुद्र और कहां जलबिन्दु ? इसी तरह कहाँ तो आपका कथन ! और कहाँ उसपर मेरा कुछ कहना ! इस लिये मैं आपके प्रस्तावका अक्षर अक्षर सन्मानपूर्वक स्वीकार करता हुआ इतनी प्रार्थना करता हूँ कि, जाहिर व्याख्यान देनेका अभ्यास जिनका हो उनके पाससे थोडा २ समय लेकर हमेशह सीखना चाहिये, और बड़ोंको भी कृपा कर उन्हें बोलनेका थोड़ा थोड़ा अभ्यास कराना चाहिथे, ताकी एक दिन आम खास ( पबलिक ) में Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) बेधड़क व्याख्यान ( भाषण-लैक्चर ) दे सके ! कोई कितना ही पढ़ा लिखा हो तोभी जिसे बोलनेका अभ्यास नहीं है वह हरगिज भी नहीं बोल सकेगा । जाहिर व्याख्यानोंसे क्या लाभ है ? वह थोड़े ही समयमें आपको हस्तगत होगा । बाद इस विवेचनके सर्वकी अनुमतिसे यह प्रस्ताव पास किया गया । प्रस्ताव चौदहवाँ। अपने साथमें चौमासा करनेवाले या विचरनेवाले साधुके नामका पत्र, आवे तो उसको खोलकर बाँचनेका अधिकार मंडलीके बड़े साधुको ही है । यदि वो योग्य जाने तो उस साधुको समाचार सुनावे, या पत्र देवे, उनका अखतियार है । इसलिये बड़ेके सिवाय दूसरेको पत्रव्यवहार नहीं करना चाहिये । यदि अपनेको कोई कहींसे जरूरी समाचार मंगवाना हो तो, जो अपने साथ बड़े हों उनके द्वारा मंगवाना उचित है। यह प्रस्ताव मुनि श्रीललितविजयजीने पेश किया था जिसकी पुष्टि मुनि श्रीविमलविजयजी मुनि श्रीतिलकविजयनी तथा मुनि श्रीकपूरविजयजीने अच्छी तरह की थी। अंतमें सबकी राय मिलनेपर प्रस्ताव पास किया गया । प्रस्ताव पंद्रहवाँ। जैनेतर कोई भी अच्छा आदमी जीवदया आदि धर्मसंबंधी Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (<9) उपदेश वगैरहका उद्यम करता हो तो, उसको भी अपने साधुओंने यथाशक्ति मदद करनेका प्रयत्न करना । यह प्रस्ताव प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराजने पेश करते हुए मालूम किया था कि, अपना धर्म दयामय है । 'अहिंसा परमोधर्मः ' यह जैनका अटल सिद्धांत है । दया के लिये जो काम हमें खुद करने चाहिये वह कार्य अगर कोई दूसरा करता हो तो, अपनेको यह समझना चाहिये कि, यह हमारा ही कार्य करता है; इस लिये ऐसे मनुष्यों को मदद पहुँचाने का ख्याल हमको हमेशह रखना चाहिये । इस पर मुनि श्रीवल्लभविजयजी महाराजने पुष्टि करते हुए कहा था कि, श्रीमान् प्रवर्तकजी महाराजजीने जो कुछ " जैनेतर धर्मोद्यत पुरुषको यथाशक्ति मदद पहुँचानेका अपने साधुओं को ख्याल रखना चाहिये " फरमाया है, वह अक्षरशः सत्य है । यह अपना अवश्य ही कर्तव्य है. । मान्य मुनिवरो ! मैं यकीन करता हूँ कि, आपके उपदेशका परमार्थ मुनिमंडल तो समझ ही गया होगा; परंतु जो अन्य रंग विरंगी पगड़ियाँवाले प्रेक्षकगण उपस्थित हैं उनमें शायद कोई न समझा हो तो, वो समझ लेवें कि, साधुओंकी मददसे यही मुराद है कि, योग्य पुरुषोंको उपदेशद्वारा योग्य प्रबंध जहाँतक हो सके करा देवें । साधुओंके पाससे उपदेशके Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) सिवाय और धनधान्यादिकी मदद हो ही नहीं सकती ! क्यों कि साधुको रुपया पैसा रखना जैनशास्त्रका हुक्म नहीं है। इतना ही नहीं बलकि, निष्पक्ष हो विचार किया जावे तो, किसी धर्मशास्त्रमें भी साधुको धन रुपया पैसा रखनेकी आज्ञा नहीं ! जैनदृष्टिसे या पूर्वाचार्योंकी दृष्टिसे देखा जाय तो पैसा रखनेवाला दर असल साधु ही नहीं माना जाता लोगों में भी प्रायः सुनने में आता है कि, धन गृहस्थका मंडन है और साधुका भंडन है । गृहस्थके पास कौड़ी न हो तो वो कौड़ीका और साधुके पास कौड़ी हो तो वो कौड़ीका। ___अंतमें सर्वकी सम्मति अनुसार यह नियम स्वीकार किया गया । प्रस्ताव सोलहवाँ। __ अहमदावादके मोहनलाल टल्लुमाई नामक मनुष्यके निकाले हुए हेन्डबिलमें, अपने परमपूज्य परमोपकारी जगद्विख्यात आचार्य महाराज श्रीमद्विजयानंद सूरि तथा प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराज तथा मुनि वल्लभविनयजी पर अश्लील आक्षेप किये हैं । जिससे पंजाब वगैरह देशोंके श्रावक वर्गका दिल अत्यंत ही दुःखी हुआ था। उस. वक्त अपने साधुओंने और खास कर प्रवर्तकनी महाराज तथा वल्लभविजयजीने शांततापूर्वक उनको समझाकर शांत Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) किया और झगड़ेको बढने न दिया। उसका यह संमेलन अनुमोदन करता है और यदि कोई समय भविष्यमें ऐसा प्रसंग आवे तो ऐसे ही शांतता रखने के लिये यह सम्मेलन सम्मति देता है। इस प्रस्तावके उपस्थित करते हुए पंन्यास श्रीसंपतविजयजी महाराजने कहा था कि, साधुओंका यही धर्म है कि, अगर कोई गालियाँ दे या इससे भी आगे बढ़कर कोई शरीर पर चोट पहुँचाने आवे तो भी शांति रखनी चाहिये । जब साधु होकर भी शांति न रखी तो वो साधु ही काहेका ? साधारण समयमें तो सभी प्रायः शांतता रखते हैं, लेकिन ऐसे विकट प्रसंगमें शांतता रहे, तो ही साधुपनेकी परीक्षा होती है। पूर्वोक्त हेन्डबिल, येभी एक ऐसा ही प्रसंग प्रवर्तक श्री कांतिविजयनी वगैरहके लिये था। उनकी तथा हमारे पूज्यपाद गुरुवर्य श्रीआत्माराम नी महाराज कि, जिनके लिये तमाम हिन्दुस्तान के जैन ही नहीं बलकि जैनेतर लोग भी मगरूर हैं, उनके निसबत भी विना ही कारण मगज भी फिर जाय ऐसे अश्लील शब्दोंका उपयोग किया है। तो भी श्रीप्रवर्तकनी महाराज तथा वल्लभविजयजीने शांतता धारण करके पंजाबादि देशोंके श्रावकोंके दुखे हुए दिलोंको भी शांत किया.+ जिससे + सभ्य वाचकवृंद ! मुनियों के क्षमा धर्मका तो अनुभव आपको. प्रत्यक्ष ही होगा ! परंतु ऐसे ऐसे पूज्य महात्माओंकी बाबत खोटी नजर Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (<<) बढता केश अटक गया. इससे अपनेको यही सार लेना चाहिये कि अपनेकोभी ऐसे प्रसंग पर शांतता रखनी चाहिये । महाराजने अच्छी इस पर पंन्यास श्रीदानविजयजी पुष्टि की थी। प्रस्ताव सत्रहवाँ । नवीन साधुको जबतक पाँच प्रतिक्रमण, दशबैका लिकके चार अध्यन, जीवविचार, नवतत्व और दंडक अर्थ सहित न हो जावें, तबतक व्याकरणआदि अन्य अभ्यास में नहीं जोड़ना । प्रस्ताव अठारहवाँ । साध्वियो और गृहस्थियोंके पास कपड़े न धुलवानेका जो रिवाज अपने में है, उसको वैसा ही कायम रखना, और अन्य कोई मुनि उपरोक्त काम करता हो तो उसको मिष्ट भाषणद्वारा हित शिक्षा देकर उस कामसे छुड़ाने का प्रयत्न करना । करनेवालेको परभवमें क्या सजा होगी ? वह तो अतिशय ज्ञानी ही जानते हैं; मगर पापका फल थोड़ा, या बहुत, इसलोकमें भी मिल जाता है । इस शास्त्रीय नियमानुसार विनाशकाले विपरीत बुद्धिः इस मुजिब क्षमाप्रधान साधुओं पर हमला करता करता कितनेक गृहस्थों पर भी मोहन लल्छुने अपने हैंडबिल में अनुचित्त शब्दोंसे हमला किया ! जिसका तात्कालिक फल अमदावादकी अदालतसे तीन प्रेसवालोंको और मोहन लल्लुको सजा मिलचुकी है ! ( लेखक ) Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) प्रस्ताव उन्नीसवाँ । आजकल प्रायः कितनेक सामान्य साधु भी ऊंची जातके और बहु मूल्यके धुस्से वगैरह कपड़े रखते नजर आते हैं। इस रिवाजको यह सम्मेलन नापसंद करता है और प्रस्ताव करता है कि, अपने साधुओंको आजपीछे पंजाबी या बीकानेरी कंबल अथवा वैसा ही और प्रकारका कम कीमतका कंबल काममें लाना चाहिये। नंबर १७-१८ और १९ ये तीन प्रस्ताव भी सभापतिजीकी तर्फसे बतौर आज्ञाके सूचन किये गये थे। निनको सर्व मुनिमंडलने खुशीके साथ स्वीकार करलिया। प्रस्ताव बीसवाँ। जिसको दीक्षा देनी हो उसकी कमसे कम एक महीनेतक यथाशक्ति परीक्षा कर उसके संबंधी माता, पिता, भाई, स्त्री आदिको रजिष्टरी पत्र देकर सूचना कर देनी और दीक्षा लेनेवालेसे भी उसके संबंधियोंको जिस वक्त वो अपने पास आवे उसी समय खबर करवा देनेका ख्याल रखना। यह प्रस्ताव प्रवर्तकनी श्रीकांतिविजयजी महाराजने पेश करते हुए कहा था कि, प्रायः अपने साधुओंमें आज तक दीक्षा संबंधी कोई खटपट या झगड़ा ऐसा नहीं उठा है जिससे हमें Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) कोई आदमी कुछ कह भी नहीं सकता, तो भी एक सामान्य नियमके कायम करनेसे भविष्यमें हमको चिंता करनेका कारण न रहेगा । यह नियम ऐसा है कि, जिससे धर्मकी हीलना होती बंध हो जायगी । कई एक वक्त दीक्षा लेनेवालेके सगेसंबंधियोंको बड़े क्लेशका कारण हो पडता है । और उससे निकम्मे खर्चमें उन्हें उतरना पड़ता है । आजकल कोई दीक्षा लेनेवाला किसीके पास आता है तो, कितनेक साधु प्रायः उसकी परीक्षा किये वगैर झट दीक्षा दे देते हैं, जिसका परिणाम ऐसा बुरा होता है कि, लोकोंकी धर्म में अप्रीति हो जाती है। एक ऐसा बनाव मेरे ध्यानमें है कि, किसीने एक शखसको दीक्षा दे दी, वह चौथे दिन ही उपाश्रयमें से अच्छे २ चंदरवे पूठिये तथा पुस्तक वगैरह जो हाथ आया लेकर रातोरात रफूचक्कर हो गया ! यह विना परीक्षा कियेकाही फल है। पूर्वोक्त बनाव अपने संघाड़ेमें नहीं बना तो भी अपनेको यह नियम जरूर करना चाहिये कि, कमसे कम एक महीना तक तो उसकी परीक्षा अवश्य करनी । बादमें योग्य मालूम हो तो दीक्षा देनी। ऐसा होनेसे दीक्षा लेनेवालेके चालचलनका पता लग ज.यगा और उसको साधुओंकी रीतिभाँतिका भी प्रायः कितनाक ज्ञान हो जायगा, साथ ही इसके इस बातकी भी जरूरत है कि, जब कोई दीक्षा लेने वास्ते आवे तो उसके संबंधियोंको सूचना कर देनी चाहिये, जिससे कि कई प्रकारके क्लेशद्वारा धर्ममें हानि न पहुँचे । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) इस प्रस्तावका मुनि श्रीवल्लभविजयजी, मुनि श्रीदौलतविजयनी, मुनि श्रीकीर्तिविजयजी, मुनि श्रीलावण्यविजयजी, मुनि श्रीजिनविजयजीने अनुमोदन किया था। ___ यह प्रस्ताव सर्वकी सम्मतिसे पास किया गया । बाद इसके समय हो जानेसे दूसरे दिनके लिये सूचना देकर कार्य बंद किया गया । तीसरा दिन। ता. १४ जून १९१२ शुक्रवार प्रातःकाल आठ बजे सभापतिजी व अन्य मुनिमंडलके प्रेक्षक गण सहित उपस्थित हो जानेपर सभापतिजीकी आज्ञानुसार मंगलाचरणपूर्वक तृतीय दिनका कार्य प्रारंभ हुआ । प्रस्ताव इक्कीसवाँ। साधुओंके या श्रावकोंके भीतरी झगड़ोंमें अपने साधुओंको शामिल न होना चाहिये । कोई धार्मिक कारणसे शामिल होनेकी आवश्यकता हो तो आचार्य महाराजकी आज्ञा मँगवाकर उसके मुताबिक वर्ताव करना। यह प्रस्ताव प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराजने पेश किया Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) और मुनि श्रीमानविजयजी तथा मुनि श्री उत्तमविजयजीने अनुमोदन किया । बाद सर्वकी सम्मति से यह नियम पास हुआ। प्रवर्त्तकजी महाराजने प्रस्ताव पेश करते समय कहा था कि, इस नियम में विशेष विवेचनकी कोई जरूरत नहीं मालूम होती । यह स्पष्ट ही है कि, साधुका या गृहस्थका चाहे जिसका टंटा हो उसमें पड़ने से अपने पठनपाठन ज्ञान ध्यानमें अवश्य नुकसान होगा । दूसरा ऐसे झगड़ोमें पड़ने से पक्षपाती या अविश्वासु होने का संभव है । अतः जहाँ ऐसे ऐसे टंटे झगडेका कारण आपड़े वहाँ यदि अपनी शक्ति हो और शांति होती नजर आवे तो उसके समधान करनेका उद्योग करना । वरना किनारा ही करना योग्य है। मगर किसी पक्षमें शामिल होकर साधुताको दूषित करना योग्य नहीं है । प्रस्ताव बाइसवाँ । एक गुरुके परिवार के साधुओंमें ही जैसा चाहिये वैसा मेल नजर नहीं आता तब यह कैसे आशा की जा सकती है कि, भिन्न गच्छके तथा भिन्न गुरुओंके साधुओं में मेल रहे ! इस प्रकारकी स्थिति हमारे आधुनिक साधुओंकी है । इसको देख कर यह सम्मेलन अत्यंत शोक प्रदर्शित करता है और प्रस्ताव करता है कि, ऐसे कुसंगसे साधु मात्रका जो धर्मकी उन्नति करनेका मूल हेतु है वह पूर्ण होता हुआ दृष्टिगोचर नहीं आता । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३) अतः अपने साधुओंको वही काम करना चाहिये जिससे कि यह कुसंप दूर हो। इस प्रस्तावको उपस्थित करते हुए प्रवर्तक श्रीकांतिविनयजी महाराजने कहा था कि, सामान्यतया हम साधु कहलाते हैं तो क्षमागुण अपने अंदर होना ही चाहिये । यदि क्षमा नहीं तो साधुपना ही क्या ! जहाँ क्षमागुण है वहाँ कुसंप रह ही नहीं सकता; परंतु इस समय तो उलटा · ही नजर आता है। जितना संप अपने अंदर चाहिये उतना दृष्टिगोचर नहीं होता । इसी कारण धर्मोन्नतिके बड़े २ कार्य बीचमें लटक रहे हैं। यह तो आप जानतेही हैं कि, कोई भी कार्य हो विना संपके पूरा नहीं होता। विना संप कभी किसीकी फतह न हुई है और न होगी। इस लिये आपसमें संपका होना बहुत जरूरी है। एवं मुनिराज श्रीवल्लभविजयजीने श्रीप्रवर्त्तकजी महाराजके विवेचनका अनुमोदन करते हुए कहा कि, संपके विना किसी कार्यकी भी सिद्धि नहीं होती । जब कि अपने में संप था तबही संम्मेलनरूप महान् कार्यकी हमें सफलता प्राप्त हुई है। यदि अपनेमें संप न होता तो दूर दूरसे अनेक कष्ट सहन कर आनेवाले योग्य मुनिराजोंके अमूल्य दर्शनोंका होना और शासनकी उन्नतिके करनेवाले अनेक धार्मिक कार्य जो कि इस सम्मेलनद्वारा प्रस्तावित कर पास किये गये हैं या किये जायेंगे उनका होना अति दुर्घट था । K .. Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) मान्य मुनिवरो ! संसार में संप एक ऐसा पदार्थ है कि, जिसके प्रभावसे साधारण स्थितिकी जातियँ भी आज उन्नति के उच्च आसनपर बैठी हुई संसार भरके लिये संपकी शिक्षाका उदाहरण बन रही है । संपकी योग्यताका यदि गंभीर दृष्टिसे विचार किया जाय तो यह एक ऐसा सूत्र है कि, इसके नियमको उल्लंघन करनेवाला कभी कृतकार्यता ( कामयाबी - सिद्धि ) का मुख देखताही नहीं । इसके नियमका शासन स्याद्वाद मुद्राकी. तरह संसार के प्रत्येक पदार्थ में दृष्टिगोचर हो रहा है । आप अधिक दूर मत जाइये जरा अपने हाथकी तर्फही ख्याल करें । एक एक अंगुलि भिन्न भिन्न कार्य में सर्व अंगुलियाँ एक समान होती हुई भी एक अंगुलिका काम दूसरी अंगुलि नहीं कर सकती है । जैसे कि, पाँचोही अंगुलियों में से विवाहादि प्रसंग में तिलक करनेका काम जो कि अंगुष्टका है वह काम अन्यसे नहीं किया जाता । ऐसेही यदि किसीको खिजानेके लिये जैसे अंगूठा खड़ा किया जाता है और उसको देख कर सामनेका आदमी झट खीज जाता है यह कामभी और अंगुलि नहीं कर सकती । अंगुष्टके साथ की अंगुलि जैसे बोलतेको चुप करानेके लिये, या किसीको तर्जना करनेके लिये काम आ सकती है, और अंगुलि इस संकेतका ज्ञान कदापि नहीं करा सकती। पांचोही अंगुलियोंको दो इधर और दो इधर ऐसे विभाग में बांटने का काम जैसा मध्यमा बिचली अंगुलि कर सकती है अन्य अंगुलिसे वो काम Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) कदापि नहीं हो सकता । इष्टदेव के पूजनमें इष्टदेवको तिलक करनेका काम अनामिका चौथी अंगुलिका है वो काम अन्य अंगुलिसे नहीं किया जाता । इसी प्रकार कनिष्टिका पंचमी अंगुलिका काम स्कूलों मास्तरसे लघुनीति- पेसाब करनेको जानेके लिये छुट्टी मांगनेका है वो काम अन्य अंगुलिसे नहीं हो सकता । या मुद्रिका पानेका ख्याल प्रायः जितना कनिष्टिकाका होता है इतना अन्य किसी अंगुलिका नहीं। जिसका कारणभी यही मालूम देता है कि, चलते हुए आदमीकी वही अंगुलि खुली रहती है । औरतो प्रायः दाण में आजाती हैं | तो दूरसे मुद्रिकाकी चमकभी मालूम नहीं हो सकती । एवं पंचोंही अंगुलिय निज निज कार्यके करनेमें समर्थ होनेसे अपने स्थान में सबही बड़ी हैं । इस मुजिब चाहे कोई छोटा हो या बड़ा हो, अमीर हो या गरीब हो, साधु हो या गृहस्थ हो अपने अपने अधिकारमें अपने अपने स्थानमें निज निज कार्यके करने में सबही बड़े हैं । कसी और सूईकी तर्फ ख्याल किया जावे । सीने के काम में सूईही बड़ी मानी जायगी और खोदनेके काम में कसीही बड़ी मानी जायगी । परंतु जो काम सबका साधारण है, वो काम तो सबके एकत्र होनेसेही हो सकता है, जैसा कि पांचोंही अंगुलियोंके मिलने से पैदा हुए 'थप्पड़' का काम, जब पांचोंका मेल होता है तबही होता नजर आता है। यदि पांचोंमेसे कभी अंगुलि जुदी रहे तो थप्पड़का काम नहीं हो सकता । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) अथवा पांचों अंगुलियोंके मिलनेसेही दाल चावल आदिका 6 ग्रास " ठीक ठीक उठाया जाता है, यदि पांचोंमेंसे एकभी अंगुलि बराबर साथमें ना मिले तो ग्रास नहीं उठाया जाता । जिसमें भी बडी अंगुलियोंको संकुचित होकर छोटीके साथ मिलकर काम करना पड़ता है । यदि बड़ी अंगुलियाँ संकुचित न होवे तो उनक मेलमें फरक पड़जानेसे निर्धारित कार्यकी भी सिद्धि यथाथ नहीं होती । सभ्य श्रोतृगण | आपने देखा, संप कैसी वस्तु है । पूर्वोक्त हस्तांगुलिके दृष्टांत से केवल संपकी ही शिक्षा लेनी योग्य है, इतनाही नहीं; बलकि, जैसे ग्रास ग्रहण करनेके समय बड़ी अंगुलियों के संकुचित हो, छोटीके साथ मिलकर काम करनेसे कार्यसिद्धि होती है, ऐसेही कार्यसिद्धिके लिये बड़े पुरुषों को किसी समय गंभीर बन छोटोंके साथ मिलकर ही काम ना योग्य है, नाकि, अपने बड़प्पनके घमंडमें आकर काम बेगाड़ना योग्य है । नीतिकारोंका कथन है - स्वार्थभ्रंशोहि मूर्खता - अपने मानमें तना स्वार्थका नाश करना, आला दर्जेकी मूर्खता है। मानके करने से प्रीतिका नाश होता है. शास्त्रकारोंकाभी फरमान है कि, माणो विषय-भंजणो--मान- विनय नम्रता गुणको नाश करता है । जहाँ नम्रता नहीं वहाँ प्रीतिका क्या काम ? और विना प्रीति संपका तो नामही कहाँ ? जब संप नहीं तो फिर बस ! कोई कैसा ही उत्तम कार्य करना क्यों न चाहे Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७) कदापि सिद्ध होनेका संभव नहीं । अतः संपकी अतीव आवा कता है । “ संप त्यां जंप ” इस गुजराती कहावतमें कितनी गंभीरता है। इसका विचार कर अपने हृदयकमलो कदापि इसको पृथक् नहीं होने देना चाहिये । दुनियाके लोग करामात करामात पुकारते हैं मगर मेरी समझमें-जमात ही करामात है। जमात ( समुदाय ) से अशक्य शक्य हो जाता है । जरा ख्याल करिये । कीड़ी कितना छोटा जानवर है; परंतु जमात मिलकर एक बड़े भारी साँपको खींचनेकी ताकत पैदा कर सकती है । तंतुमें वो सामर्थ्य नहीं परंतु तंतु समुदायसे हाथी बाँधा जाता है। इसलिये संपरूप सूत्रसे सबको ग्रथित होनेकी जरूरत है। संपरूप सूत्रसे बँधे हुए भी इतना ख्याल अवश्य करना योग्य है कि, जैसे ' झाडू' जब तक डोरीके बंधनमें होता है तबतक ही कचवर ( कचरे ) को निकाल सफाईके कामको कर सकता है, परंतु जब उसका बंधन छूट जाता है या टूट जाता है तो कचवरका निकालना तो दूर रहा उलटा वो आपही कचवर बन मकानको गंदा कर देता है । इसी प्रकार यदि हम संपसे बद्ध होंगे तो कई प्रकारकी कुरीतिरूप कचवरको निकाल सुधारारूप सफाइको करसकेंगे । वरना स्वयं ही कचवर बनने जैसा हो जायगा । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) प्रस्ताव तेईसवाँ। आजकाल कितनेक साधु लोग शिष्य बनानेके लिये देशकालके विरुद्ध वर्ताव करते हैं, जिससे जैनधर्मकी अवहेलना होनेके अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार मुनियोंको भी कभी २ अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं । इस लिये यह सम्मेलन इस प्रकार दीक्षा देकर शिष्य करनेकी पद्धतिको और इस प्रकार दीक्षा देनेवाले और लेनेवालेको अत्यन्त असन्तोषकी दृष्टिसे देखता है और प्रस्ताव करता है कि, अपने समुदाय के साधुओंमेंसे किसीको ऐसी खटपटमें नहीं पड़ना चाहिये । जो कोई मुनि ऐसी खटपटमें पडेगा उसके लिये आचार्यनी महारान सख्त विचार करेंगे। इस प्रस्तावके उपस्थित होनेपर मुनि श्रीचतुरविजयजी महाराजने कहा था कि, आजकल इस प्रकारकी दीक्षासे साधु ओंकी हदसे ज्यादह निंदा होती सुननेमें आती है। जिससे कितनेक जैन या मैनेतर लोकोंके मनमें साधुओंपर अप्रीति होती जाती है। कितनीक जगह तो बिचारे श्रावकोंको सैकड़ों बलकि हजारोंके खर्चमें उतरना पड़ता है, जो कि, साधुओंके लिये विचारणीय है । तथा ऐसी खटपटमें पड़नेसे साधुको अपने ज्ञान ध्यानसे चूक रातदिन प्रायः आर्त ध्यान करनेका मौका आ पड़ता है। इतना ही नहीं श्रावकोंकी वा अन्य Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९) लोगोंकी खुशामद करनेका समय भी आ जाता है। और कभी झूठ भी बोलनेका प्रसंग आ पड़े तो आश्चर्य नहीं। इत्यादि रोकनेके लिये इस नियमकी जरूरत है। यदि सत्य कहा जावे तो ऐसी खटपटमें साधुओंको उत्तेजन देनेवाले श्रावक लोगही होते हैं । जो कभी श्रावक लोग ऐसी बातमें द्रव्य वगैरहकी -सहायताद्वारा मदद दे उत्तेजन न देखें तो ऐसी खटपटका कभी जन्म ही न होने पावे । इस लिये इस बातका श्रावकोंकोभी ख्याल करना चाहिये कि, देशकाल विरुद्ध दीक्षा देनेवाले साधुको मदद न करें। प्रस्ताव चौबीसवाँ। नामदार शाहनशाह पंचमन्यौ की शीतल छायामें वीरक्षेत्र ( बड़ौदा ) जहाँ कि, श्रीमंत महाराजा सयाजीराव गायकवाड सरकार विराजते हैं उनके पवित्र राज्यमें धर्मोन्नति निमित्त यह सम्मेलन आनंदके साथ समाप्त हुआ है इस लिए यह सम्मेलन “परमात्मासे प्रार्थना करता है कि, उन्होंके इस पवित्र राज्यमें ऐसे धर्म कार्य हमेशाही निर्विघ्नतासे होते रहें और सर्वदा ऐसी ही शांति बनी रहे । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) उपसंहार। इसके अनंतर सभापतिजीका व्याख्यान ( आपकी आज्ञासे मुनिराज श्रीवल्लभविजयजी महाराजने ) जो पढ़कर सुनाया था वह नीचे दर्न किया जाता है। "सभापतिजीका व्याख्यान।" मान्य मुनिवरो ! आपकी शुभ इच्छासे मुनि सम्मेलनका कार्य निर्विघ्नतापूर्वक समाप्त हुआ, आपके प्रशंसनीय उत्साहको देखकर मुझे बहुत ही आनंद हो रहा है । मुझे पूर्ण आशा है कि भविष्यमें भी आपके सद् उद्योगसे ऐसे ही महत्वशाली और धर्म उन्नतिके कार्य होते रहेंगे। महाशयो ! आजकल एकताकी बहुत खामी है । पिता पुत्रके बीच, गुरु शिष्यके अंदर, भाई भाईके मध्यमें, स्त्री पुरुषके दरमियान जिधर देखो उधर ही प्रायः मतभेद दिखाई देता है । परंतु अपने अर्थात् पूज्यपाद श्रीमद्विनयानंद सूरि श्रीआत्मारामजीके शिष्यसमुदायमें इसका समावेश अभीतक नहीं हुआ, यह बड़े ही हर्षकी बात है। ऐसी एकता सदैवके लिये बनी रहे इस बातका स्मरण रखना आपका परम कर्तव्य है। अपने में Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) इस समय कैपा सम्प है इस प्रश्नका उत्तर यह मुनिसम्मेलन अच्छी तरहसे दे रहा है। - मुनिवरो ! यह एकतारूप तंत्र बड़ा ही प्रभावशाली है। उन्नतिके प्रशस्त मार्गमें चलने वा चलानेवाले सत्पुरुषों के लिये इस महामंत्रका अनुष्ठान बरा ही हितकर है। इसकी कृपासे धर्मकार्यमें विघ्न उपस्थित करनेवाले अदृश्य जंतु बहुत ही शीघ्र दूर हो जाते हैं। इसके महत्वका अनुभव आप स्वयंही कर लीजीये। ___आपके एकता रूप अभेद्य किले की प्रौढ दीवारको तोड़नेके लिये यत्न करनेवाले बहुत से क्षुद्र मनुष्य मुँहके बल गिरे होंगे, ऐसा मेरा विश्वास हैं । एकताके साम्राज्यमें किसीकी ताकत नहीं जो अपना उलटा दखल जमा सके। यदि आप एकताके सच्चे अनुरागी न होते तो यह सौभाग्य आपको कदापि न प्राप्त होता जो कि इस वक्त हो रहा है। यह मुनिसम्मेलन जैनधर्ममें बहुत दिनके पीछे प्रथम ही हुआ है। इस सम्मेलनको देख बहुतसे महानुभावोंके चित्तका आकर्षित होना एक स्वाभाविक बात है; परंतु जैन समाजके लिये यह सम्मेलन विशेष हर्षजनक होगा ऐसी मुझे आशा है। . महाशयो ! मुझे फिर कहना चाहिये कि इस कार्यमें जैसी आप लोगोंने सहानुभूति प्रकट की है, वह विशेष प्रशंसनीय है। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) यदि ऐसा न होता तो, इस कार्य में मुझे वह सफलता कदापि न प्राप्त होती जो इस वक्त हुई है, इस लिये आपके इस सेंद् उद्योग और प्रेमका मैं बहुत आभार मानता हूँ । मुनिसम्मेलनमें पास किये गये प्रस्तावों मेंसे आचार संबंधी नियम कोई नवीन नहीं है; क्यों कि, अपने समुदाय में आचार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार जैसा चाहिये गुरुकृपासे प्रायः वैसा ही है; परंतु भविष्य में भी कदाचित् कुछ न्यूनता न हो इस लिये ऐसे प्रस्तावोंका पास करना उचित समझा गया है । जाहिर भाषण देनेसे धर्मकी कितनी उन्नति हो सकती है इस बातका उत्तर समयके आन्दोलन से आपको अच्छी तरहसे मिल सकता है । साथमें यह भी स्मरण रहे कि, सम्मेलन में पास हुए नियमोंको जबतक आप अमल में न लावेंगे तब तक कार्यकी सिद्धिका होना सर्वथा असंभव है । आत्म उन्नति और धर्म उन्नतिका होना कर्त्तव्यपरायणता पर ही निर्भर है । दीक्षा संबंधी जो नियम पास किया है उसकी तर्फ पूरा ख्याल रखना | आजकल जो साधु निंदाक पात्र हो रहे हैं उनमें से अधिक भाग वही है जो शिष्य वृद्धि के लालचसे अकृत्यमें तत्पर हो रहा है । अपना समुदाय यद्यपि इस लांछन से अभीतक वर्जित हैं, तथापि संगति दोषसे भविष्य में भी ऐसे कुत्सित आरोपका भागी न हो इस लिये इसका स्मरण रखना जरूरी है । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) महाशयो ! अब मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता, अपने व्याख्यानको समाप्त करता हुआ इतना कहना अवश्य उचित समझता हूँ कि, श्रावकवर्य गोकलभाई दुल्लभदासने इस सम्मेलन के लिये जो परिश्रम उठाया है और बड़ौदा के श्रीसंघ सम्मेलन में आये हुए सैंकड़ों स्त्री पुरुषोंकी जो भक्ति की है वह सर्वथा प्रशंसनीय है । अंत में अर्हन् परमात्मासे प्रार्थना करता हुआ आपसे कहता हूँ कि, परकल्याण को ही स्वकार्य समझ निरंतर धर्म उन्नतिमें ही तत्पर रहना आपका परम कर्तव्य है । " उपसर्गाः क्षयं यान्ति छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । 66 मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ १ ॥ " सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारणं : ८८ “ प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ॥ २ ॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः सभापतिजी के व्याख्यान के अनंतर जयध्वनिपूर्वक सभा विसर्जन हुई । " लेखक प्रार्थना । " प्यारे पाठको ! मैं इस सम्मेल में स्वयम् उपस्थित था इसलिये जो कुछ मेरे देखने व सुननेमें आया है वही अपनी लेखनीद्वारा उद्धृत कर आपकी सेवामें निवेदन किया गया है । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) " धावतस्खलन क्वापि " इस न्यायसे यदि कुछ लिखनेमें त्रुटि रह गई हो तो कृपया क्षमा करें । आपका कृपाभिलाषी हीरालाल, शर्मा। मैनेजर श्रीआत्मानंद जैन लायब्रेरी ___ 'अमृतसर' (पंजाब) सम्मेलनमें उपस्थित महात्माओंके नाम. १ श्री १००८ श्री आचार्य महाराज श्रीविजय कमलसूरि. २ श्री १०८ श्री उपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयनी. ३ श्री १०८ श्री प्रवर्तकनी महाराज श्रीकांतिविजयजी. ४ श्री १०८ मुनिमहाराज श्रीहंसविजयजी. ५ पंन्यासनी महाराज श्रीसंपत्विजयजी. ६ मुनि महाराज श्री वल्लभविजयजी. ( हमारे चरित्रनायक ) ७ मुनि श्रीमानविनयजी. ८ पंन्याप्तनी श्रीदानविनयजी. ९ मुनि श्रीचतुरविजयजी १० मुनिश्री विवेकविजयजी. ११ मुनिश्री लाभविजयनी १२ मुनिश्री कीर्तिविजयजी. १३ मुनिश्री दौलतविजयजी. १४ मुनिश्री नयविजयनी. १५ मुनिश्री अनंगविजयजी. १६ मुनिश्री हिम्मतविजयजी. १७ मुनिश्री नेमविजयजी. १८ मुनिश्री प्रेमविजयजी. १९ मुनिश्री उत्तमविजयजी. २० मुनिश्री ललितविजयजी. Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) २१ मुनिश्री सोमविजयजी. २३ मुनिश्री संतोष विजयजी. २५ मुनिश्री दुर्लभविजयजी. २७ मुनिश्री नायक विजयजी. २९ मुनिश्री विमलविजयजी. ३१ मुनिश्री कुसुमविजयजी. ३३ मुनिश्री शंकरविजयजी ३५ मुनिश्री मेघविजयजी. ३७ मुनिश्री विबुधविजयजी. ३९ मुनिश्री तिलकविजयजी. ४१ मुनिश्री विचारविजयजी. ४३ मुनिश्री पुण्यविजयजी. ४५ मुनिश्री मित्रविजयजी. ४७ मुनिश्री समुद्रविजयजी. ४९ मुनिश्री मेरुविजयजी. २२ मुनिश्री धर्मविजयजी. २४ मुनिश्री लावण्यविजयजी. २६ मुनिश्री सोहनविजयजी. २८ मुनिश्री मंगलविजयजी. ३० मुनिश्री कस्तूरविजयजी. ३२ मुनिश्री पद्मविजयजी. ३४ मुनिश्री उमंगविजयनी. ३६ मुनिश्री विज्ञानविजयजी. ३८ मुनिश्री जिनविजयजी. ४० मुनिश्री विद्याविजयजी ४२ मुनिश्री विचक्षण विजयजी. ४४ मुनिश्री तरुणविजय नी. ४६ मुनिश्री कर्पूरविजयजी. ४८ मुनिश्री लक्षण विजयजी. ५० मुनिश्री उद्योतविजयजी. Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६) सातक्षेत्रों में पोषक क्षेत्र कौन ? ( स्थान, लालबाग बंबई । ) " गृहस्थो ! विषयकी गम्भीरता का खयाल करनेसे स्खलना होनेका सम्भव है तथापि आप सज्जनोंसे मुझे आशा है कि उसे सुधार लेंगे। जैन शास्त्रों में सात क्षेत्रोंके नाम ये हैं; साधु, साध्वी श्रावक, श्राविका, निनप्रतिमा, जिनमन्दिर और ज्ञान । कहीं कहीं यात्रा और प्रतिष्ठाको क्षेत्र कहा है । कहीं जीवदयाको भी; परन्तु पिछले क्षेत्रोंका समावेश पूर्वोक्त सात क्षेत्रोंमें हो जाता है । साधु और साध्वियोंका एक वर्ग है और उनका धर्म अणगार धर्म कहलाता है। श्रावक और श्राविकाओंका एक वर्ग है और उनका धर्म सागार धर्म कहलाता है। जैनशास्त्रमें एक संविग्न पक्ष भी कहा है । परन्तु उसका अन्तर्भाव साधुधर्ममें हो जाता है । पहले कहे हुये अणगार और सागार धर्मको सर्व विरति और देशविरति भी कहते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये चार जीव क्षेत्र हैं। ये पुरुषार्थ करनेवाले हैं और अन्तिम तीन क्षेत्र अपने आप कुछ नहीं कर सकते किन्तु उक्त जीवक्षेत्रोंके सहायक हैं। इन चार जीवक्षेत्रोंको Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) चतुर्विध प्त कहते हैं। श्रावक न हों, तो चतुर्विध सङ्घ नहीं बन सकता, न सातक्षेत्र ही रह सकते हैं। श्रावक शब्द तीन अक्षरोंसे बना हुआ है। उनके अर्थ जानने से स्पष्ट मालुम होगा । 'श्रा पाके ' धातुसे 'श्रा ' बना है;-' श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्ति इति श्राः ' ' श्रा' का अर्थ है तत्त्वोंको जाननेवाले । तत्वशब्दमे जीवा जीवादि नव पदार्थ लिये जाते हैं और देवगुरु धर्मरूप तीन तत्त्व भी लिये जाते हैं । 'डुंवप' बीज सन्ताने धातुसे 'व' बना है;' वन्ति गुणवस्सु क्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीतिवाः ' इसका अर्थ है बोना । बोनेके लिये क्षेत्र और बीजकी जरूरत रहती है। क्षेत्रोंका परिचय पहले ही दिया गया है, बीजके जाननेकी आवश्यकता है । इमान्दारी अर्थात् साहूकारीसे जो धन पैदा किया जाय वह बीज है । साह्कार शब्दके लिये संस्कृतमें साधुकार शब्द है। धनरूप बीनका उक्त क्षेत्रोंमें बोना इसका मतलब साधु साध्वियोंको धन प्रदान करना नहीं है। यदि ऐसा मतलब लिया जायगा तो पाँचों व्रत उड़ जाएंगे, एकका भी ठिकाना न रहेगा । निर्दोष अन्न, पानी, स्थान, पात्र आदि देकर उनकी धर्म क्रियामें मदद पहुँचाना बोना है। ' कृ विक्षेपे ' धातुसे • क' बना है; किरन्ति क्लिष्टरको विक्षिपन्तीति काः' भीतरी सचित कर्मोको उड़ा देनेवाला 'क' कहलाता है। उक्त तीनों गुणों से युक्त जो होगा वह श्रावक है, चाहे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) वैश्य कोई भी क्यों न हो। धर्म सबके लिये समान है, नो चाहे उसका पालन करे । पहले कह चुका हूँ कि जीवदया भी क्षेत्र है । जीवोंको बचाना अपने शास्त्रोंका सिद्धान्त है, तदनुसार आप हजारों रुपये खर्च करते हैं । क्या इससे आपका उद्देश्य सिद्ध होता है ? आप जिनसे जी । छुड़ाते हैं उनके व्यापारमें कोई कमी नहीं दिखलाई देती । जबतक वे जीवहिंसाकी बुराइयोंको न जानेंगे तबतक अपना क्रूर कर्म नहीं छोड़ेंगे। इसके लिये उपदेशक, पुस्तके, ट्रेक्ट आदि साधनोंको काममे लाना चाहिये । अपनी मर्यादाका उल्लङ्घन न करके समयानुसार अगर हो सके तो साधुओंको खड़े होकर उपदेश देने में मेरी समझसे कोई अनुचित बात नहीं है। अनुचित काम वह है जिसके करने से अन्तःकरणकी वृत्ति मलिन हो । सिद्धसेन दिवाकरका वृद्धवादीसे जहाँ शास्त्रार्थ हुआ वहाँ कोई सभा नहीं थी किन्तु जङ्गल था । अहीर ( Cowherd ) मध्यस्थ थे, सिद्धन दिवाकर अपना पक्ष संस्कृत भाषा में सुनाते थे और वृद्धवादी ग्रामीण भाषा बोलते थे। मध्यस्थ अहीरोंने फैसला दिया, " वृद्धवादी पण्डित हैं, सिद्धसेन नहीं " बाद वृद्धवादीने सिद्धसेनसे कहा " यहाँ मध्यस्थ पण्डित नहीं थे इस लिये शहर में जाकर किसी योग्य व्यक्तिकी मध्यस्थतामें शास्त्राथ करें । " उत्तरमें सिद्धसन दिवाकरने कहा, " शास्त्रार्थ हो चुका जब कि मैंने समय ही नहीं पहिचाना तब तो मेरा हार जाना Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९ ) ठीक ही है । " मतलब यह है कि बड़ा आदमी खड़ा होकर और इतर लोग बैठकर सुनें यह रिवाज इस जमाने में अनुचित नहीं समझा. जा सकता । सभाओं में राजा महाराजाओं का खड़े होकर बोलना क्या अनुचित समझा जाता है ? रुचि पैदा करने के लिये जमाने के अनुसार काम करने में कोई हर्ज नहीं, जीव बचाना हमारा उद्देश्य है । प्रतिदिन दश हजारमेंसे एक भी जीव बचा सकें, तो वर्ष में तीनसौ साठ बचाये जा सकते हैं, यह कम लाभ नहीं है । केवल उपदेशादि कामोंसे भी उतना लाभ नहीं हो सकता जितना कि बाल्यावस्था में ही सांसारिक शिक्षा के साथ बालकोंको धार्मिक शिक्षा देने से हो सकता है । इस विषय में एक दृष्टान्त मेरे बाचने में आया है; -मदिरासे बचनेका उपदेश करनेवाला कोई उपदेशक एक स्कूल में आया, स्कूल मास्टरने उससे पूछा, " आप कब से उपदेशका काम करते हैं और कितने मनुष्योंने मदिरा पीनेका व्यसन छोड़ा ? " उत्तर में उपदेशकने कहा, "दश वर्षसे उपदेश देता हूँ, " और जितने लोगों को उसने व्यसन से छुडाया था, गिना दिया । स्कूल मास्टरने कहा, विद्यार्थियोंसे मदिरा के विषय में उनकी क्या राय है पूछ लीजिये । " उपदेशकके पूछने पर सत्र विद्यार्थियोंने एक स्वर से मादरापानकी बुराइयाँ कह सुनाई । " आप हमारे सद्गृहस्थो ! शास्त्रकारोंने पोषक क्षेत्र कौन है, सो कह दिया है; परन्तु वह अपनी समझमें नहीं आया अथवा समझकर उपेक्षा Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) की जा रही है। जो बड़ा हो वह पोषक । अपने अपने स्वरूपमें सब बड़े हैं । पाँच उँगलियों से किसे प्रधान कहा जाय ? जमानेके अनुसार यदि विचार नहीं करोगे तो जैसा अबतक चलता आ रहा है वैसा ही चलेगा । जिसके अधीन सारे क्षेत्र हैं उसे खोज निकालो। मेरी समझके अनुसार वह क्षेत्र श्रावक श्राविका हैं। उनके रहनेस मन्दिर और प्रतिमा हैं। साधु साध्वियोंके पास कौनमा धन है जिससे वे मन्दिरादिकी रक्षा करेंगे? प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार आदिमें साधु क्या कर सकते हैं ? साधु साध्विया भी लो इन्हींमेंसे होती हैं । उपदेशके अतिरिक्त साधु साध्वियाँ और क्या कर सकती हैं ? श्रावक श्राविकायें सब क्षेत्रोंका मूल हैं । जिसका मूल ढीला उसकी सब चीजें ढीली । यदि वे ढीले हैं तो पुष्ट होनेका प्रयत्न करें। एक राजाके चार लड़के थे। चारोंको उसने लोहा, चाँदी, सोना और रत्नोंकी खाने बाँट दीं । किसीने उस लोहेकी खान पाये हुये लड़केसे कहा, आपके पिताने अन्याय किया है क्योंकि यह समान विभाग नहीं कहा जा सकता। लड़केने कहा जिन खानोंको तुम श्रेष्ठ समझे हुये हो, बिना मेरे उनसे क्या काम निकलेगा ? जब तक कि मैं लोहे के हथियार रत्नोंकी खान खोदनेके लिये नहीं देऊँ ? इसी तरह श्रावक श्राविकारूप क्षेत्रके पुष्ट होने पर दूसरोंका काम चल सकता है। ___ सद्गृहस्थो ! समुद्रका पानी किसीके काममें नहीं आता, नदियोंसे हजारों प्राणियोंका गुजारा होता है । समुद्र तुल्य देव Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) प्रतिमा, मन्दिरोंका द्रव्य किसी दूसरेके उपयोगमें नहीं आ सकता। मेरा अभिप्राय क्या है, ठीक समझो । किसी माताके चार लड़कोंमेंसे एक बीमार हुआ। वह ( माता) तीनोंका ख़याल छो कर बीमार लडकेकी शुश्रूषा करती है, तो क्या माताका अभिप्राय तीनों लडकोंके विषयमें अनुचित समझा जायगा ! हर्गिज़ नहीं, बल्कि उचित ही समझा जायगा; क्योंकि तीनों लड़के तन्दुरुस्त हैं, इनकी हानि होनेका सम्भव नहीं । पर यदि बीमारकी खबर माता न लेवे तो हानिकी सम्भावना है और उसका व्यवहार भी अनुचित समझा जा सकता है। सात क्षेत्रोंमेंसे साधनक्षेत्र प्रायः पुष्ट देखने में आते हैं, लाखों रुपये मन्दिरोंके नमा हैं। ऐसा सुनने में आता है। उनपरसे ममत्त्व हटाकर यदि खर्च किया जाय तो हिन्दुस्तान के कुल मन्दिरोंका उद्धार हो सकता है। ऐसी हालतमें साधकक्षेत्र श्रावक श्राविकाओंके उद्धारका विचार न किया जायगा . तो कितना नुकसान पहुंचेगा इसका अनुमान करना भी मुश्किल है। इस लिये बीमार लड़केकी सेवा, शुश्रूषाकी तरह; शिथिल प्रायः श्रावक श्राविकारूप क्षेत्रको मनबूत करनेमें,उसकी रक्षा करने में इस समय यदि अधिक व्यय किया जाय तो मेरी समझसे अनुचित नहीं समझा जा सकता । नदीके समान यह श्रावक श्राविकारूप क्षेत्र परिपूर्ण होगा तो अन्य सब क्षेत्रोंको भली भाँति फायदा पहुंचानेवाला कहो, चाहे पोषक कहो, बराबर हो सकेगा। इस समय जहाँ खर्च करनेकी जरूरत है वहाँ खर्च करते Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) नहीं हो अन्यत्र हजारों रुनये उड़ा देते हो । श्रावकों में से अधिकांश तो चौबीस तीर्थङ्करोंके नाम तक नहीं जानते । खेतीहर (कृषक ) भी क्षेत्रकी परीक्षा करके बीज बोता है। किस समय, किस क्षेत्र में, । कौनसा बीज, किस प्रकार बोना चाहिये यदि इस बातका ध्यान नहीं रखते हो, तो तुम खेतीहरसे भी गये बीते हो । गृहस्थो ! हम तुम दोनों मिलकर काम करना चाहे तो हो सकता है । एकसे काम नहीं हो सकता । हाँ कितने ही कार्य हमारे ( साधुओंके ) बिना भी तुम कर सकते हो । साधु न होनेसे विवाह बन्द न रहेगा, सामायिक पौषधादि भी बन्द न रहेंगे, परन्तु छ: छ: महीने पहाड़ोंमें रहकर भी साधुओंको तुम्हारे पास आकर हाथ पसारना पड़ता है । सारांश यह है कि तुम्हारा हमारा परस्पर धार्मिक सम्बन्ध है । लक्ष्मी स्वभावसे चपल है. धर्म के काम में विलम्ब नहीं करना और बुरे कामों में विलम्ब करना अच्छा है । सामर्थ्य के रहते हुये भी अपनी जातिका, 1 अपने धर्मका उद्धार न करोगे तो दूसरा कौन करेगा ? शास्त्र के अनुसार जो कहोगे साधु मानने को तैयार हैं। जो श्रावक होगा वह शास्त्रका उल्लङ्घन कर साधुको कदापि कुछ नहीं कह सकता । साधुओंकी सार सम्भाल लेना, श्रावकोंका परम कर्तव्य है। श्रावकको जनशास्त्र में साधुके मातापिताकी उपमा दी है, - " अम्मापि उसमाणे श्रावकको साधुका राजा कहा है, सादूणं सहो राया " तब तुम्हारा फर्ज है कि सात क्षेत्रों में जहाँ त्रुटि मालूम देवेशिथिलता मालूम देवे उसे दूर करनेका प्रयत्न करो । ८८ 99 Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) नाभेका शास्त्रार्थ । ___ ढूंढियोंसे ६ प्रश्न । (१) जैनमतके शास्त्रानुसार जैनमतके साधुका भेष कैसा होना चाहिये अर्थात् साधु को कौन कौन चीज़ ज़रूरी चाहिये और किस किस कारण के वास्ते रखनी चाहिये जिनमें उनकी कितनी ? सूतकी कितनी इत्यादि, इसमें इस बातका भी निर्णय हो जावेगा कि मुख दिनरात बँधा रहे या खुला ही रहे ॥ नोट-इस प्रश्नका मतलब यह है कि ढूँढिये साधु एक कपड़े के टुकड़े को डोरेमें पाकर कानों के साथ लटका कर मुख को दिन रात बाँध रखते हैं सो जैनमत के शास्त्रों से बिलकुल विरुद्ध है। (२) दिशा पिशाब होकर शुचि करनी चाहिये या नहीं ? यदि करनी चाहिये तो ढूँढिये साधु रात्रि को पानी बिलकुल नहीं रखते ह सो जब दिशा पिशाब होते हैं तब क्या करते हैं ? __ नोट-इस प्रश्न का मतलब यह है कि दूँढिये साधु रात्रि को जंगल जाते हैं तो पानी विना शुचि कैसे करते होंगे, बुद्धिमान् आप ही विचार लेंवे । लज्जा के कारण इस बात को साफ साफ जाहिर नहीं करते हैं, जब कोई पूछता है तो कहते हैं जतन करते हैं सो न जाने क्या जतन करते हैं ? यदि इस बात में किसी को शंका होवे तो वह दूँढिये साधु साध्वीको चौबीस तीर्थकरकी कस्म देकर तहकीकात कर सकता है। . (३) जूठे बर्तनों का मैला पानी साधु को लेना योग्य है या Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) नहीं ? ढूंढिये मैला पानी लेते और पीते हैं । आम लोग प्रायः जानते हैं। ( ४ ) शास्त्र कितने मानने और उसमें क्या प्रमाण है ? नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि प्राचीन अर्थ मानने. या नहीं ? व्याकरणादि का पढ़ना योग्य है या नहीं ? यद्यपि ढूँढिये इन बातोंको नहीं मानते हैं परन्तु जैनशास्त्र क्या फरमाता है सो देखना योग्य है। (५) सूतक पातक मानना चाहिये कि नहीं ? उस घर का आहार पानी लेना योग्य है या नहीं ? ढूंढिये इन बातों का परहेज नहीं करते हैं। (६) जैनमत के शास्त्रानु सार गृहस्थी को इष्टदेव की मूर्ति का पूजन करना योग्य है या नहीं ? ___ पूर्वोक्त ६ प्रश्नों का जैनशास्त्रानुसार कोई भी उत्तर दूँढियोंकी तरफ से नहीं मिला है। इस वास्ते न्यायवान् सत्य को पसंद करनेवाले धर्मात्मा महाराजा साहिब H. H. महाराजा हीरासिंह बहादुर नाभापति के पंडितगण ने अपने न्यायशील धर्मात्मा स्वामी महाराजा साहिब की आज्ञानुसार पूर्ण विचार करके फैसला लिखकर रजिस्टरी कराके मुकाम रायकोट जिला लुधियाने में लाला देवीचंद चंबाराम की मार्फत महाराज श्रीवल्लभविजयजी को भेजा । पढ़कर उन महात्माने वह फैसला सर्वके लाभार्थ हमको भेज दिया । हमने देखकर जो कुछ आनंद मनाया, परमात्मा ही जानते हैं। जिह्वा से कहा नहीं जाता है और लेखनी से लिखा नहीं जाता है। यदि हमारे उस आनंद का किसी को अनुभव करना हो तो वह इस फैसले के Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) पढ़ने से अपने आपको जो कुछ आनंद प्राप्त होवे उसके साथ तुलना कर लेवे। ___ बस इस बात पर हम आनंद के वश होकर श्रीजैनधर्म की, श्रीमहाराज श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वर श्रीआत्मारामजी महाराजकी, तथा नाभानरेश महाराज हीरासिंहजी बहादुर की जय बुलाने से नहीं रुक सकते हैं, बेशक धर्मी राजा हों तो ऐसे ही हों; महाराज साहिब ने अपनी न्यायकला द्वारा दूध और पानी को पृथक् २ करके दिखा दिया है, इस बात पर हम ऐसे धर्मात्मा न्यायवान् महाराजा साहिब को बारबार धन्यवाद देते हैं और प्रार्थना करते हैं कि महाराजा साहिब के तेज प्रताप ऋद्धि पुत्र पौत्रादि की प्रति दिन वृद्धि होवे साथ में अपने भूले हुए भाइयों से अरज गुजारनी मुनासिब समझकर हितशिक्षा रूप लिखा जाता है कि इस रीति का फैसला होने पर भी यदि आप अपने हठवाद को छोड़ने का उद्यम न करेंगे तो जरूर पक्षपात के प्रवाह में आपको गोते मारने पड़ेंगे। __ अब नाभा में हुए शास्त्रार्थ का फैसला–जिसका वर्णन प्रथम किया गया-लिखा जाता है। ( यह फैसले की अक्षरशः-हूबहू नकल है।) फैसला शास्त्रार्थ नाभा। ॐ श्रीगणाधिपतये नमः । श्रीमान् मुनिवर वल्लभविजयजी, पंडित श्रेणी सरकारनाभा इस लेख द्वारा आप को विदित करते Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) हैं । गतसंवत्सर में आपने हमारे यहाँ श्री १०८ श्रीमन्महाराजाधिराज नाभानरेशजी के हज़र में छः ६ प्रश्न निवेदन करके कहा था कि यद्यपि जैनमत और जैनशास्त्र भी सर्वथा एक हैं परंच कालांतर से हमारे और ढूंढियों में परस्पर विवाद चला आता है बलकि कई एक जगा पर शास्त्रार्थ भी हुए हैं परन्तु यह बात निश्चय नहीं हुई कि अमुक पक्ष साधु है । श्रीमहाराज की न्यायशीलता और दयालुता । देशांतरों में विख्यात है इससे हमें आशा है कि हमारे भी परस्पर विवादका मूल आपके न्यायप्रभाव से दूर हो जावेगा । भगवदिच्छासे इन दिनों में ढूँढियों के महंत सोहनलालजी यहाँ आये हुए हैं उनके सन्मुख ही हमें इन छः ६ प्रश्नों का उत्तर जैनमत के शास्त्रानुसार उनसे दिलाया जावे। आपके कथनानुसार उक्त महंतजी को इस विषय की इत्तला दी गई, आपने इत्तला पाकर साधु उदयचंदजी को अपने स्थानापन्न का अधिकार देकर उनके हानि लाभ को अपना स्वीकार करके शास्त्रार्थ करना मान लिया था । 3.5 तदनंतर श्री १०८ श्रीमन्महाराजाधिराजजी की आज्ञानुसार हम लोगों को शास्त्रार्थ के मध्यस्थ नियत किया गया । तिस पीछे कई दिन तक हमारे सामने आपका और उदयचंदजी का शास्त्रार्थ होता रहा शास्त्रार्थ के समय पर जो प्रमाण आपने दिखलाये सो शास्त्र विहित थे । आपकी उक्ति और युक्तियाँ भी निःशंकनीय और प्रामाण्य थीं । प्रायः करके श्लाघनीय हैं । उक्त शास्त्रार्थ के समय पर और इस डेढ वर्ष के अंतर में भी जो Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) इस विषय को विचारा है उससे यह बात सिद्ध नहीं हुई कि जैनमत के साधुओं को वार्तालाप के सिवाय अहोरात्र अखंड मुखबंधन और सर्वकाल मुखपोतिका के मुख पर रखने की विधि है। केवल भ्रांति है। केवल वार्तालाप के समय ही मुखवस्त्र के मुख पर रखने की आवश्यकता है। हमारे बुद्धिबल की दृष्टि द्वारा यह बात प्रकाशित होती है कि आपका पक्ष ढूँढियों से बलवान् है। ___ यद्यपि आपका और ढूंढियोंका मत एक है और शास्त्र भी एक हैं। इसमें भी सन्देह नहीं, साधु उदयचन्दजी महात्मा और शांतिमान् हैं परंच आपने जैनमत के शास्त्रों में अतीव परिश्रम किया है और आप उनके परम रहस्य और गढर्थिको प्राप्त हुए हैं । सत्य वो ही होता है जो शास्त्रानुसार हो और जिसमें उसके कायदों से स्वमत और परमतानुयायिओंको शंका ना हो, शास्त्र के विरुद्ध अंधपरंपराका स्वीकार करना केवल हठधर्म है। पूर्व विचारानुसार जब आपका शास्त्र और धर्म एक है और उसके कर्ता आचार्य भी एक हैं फिर आश्चर्य की बात है कि कहा जाता है कि हमारे आचार्यों का यह मत नहीं है और ना इन ग्रन्थों के वोह कर्ता हैं ! आप देखते हैं कि हमारे भगवान् कलकी अवतार की बाबत जहाँ आप देखोगे एक ही बृत्त पावेगा ऐसे ही आपके भी जरूरी है। __ आपके प्रतिवादी के हठ के कारण और उनके कथनानुसार हमें शिवपुराण के अवलोकन की इच्छा हुई । बस इस विषय में उसके देखने की कोई आवश्यकता नहीं थी । ईश्वरेच्छा से उसके Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) लेख से भी यही बात प्रकट हुई कि वस्त्रवाले हाथ को सदा मुख पर फेंकता है इससे भी प्रतीत होता है कि सर्व काल मुखवस्त्र के मुख पर बाँधे रखने की आवश्यकता नहीं है किन्तु वार्त्तालाप के समय पर वस्त्र का मुख पर होना जरूरी है। आपके शास्त्रार्थ में एक हमें बड़ा भारी लाभ हुआ है कि हमें मालूम हो गया कि जैनमत में भी सूतक पातक को ग्रहण किया है और जैन साधुओं को उनके घरों के आहारादि के लेने की विधि नहीं है । व्यतीत संवत्सर के आठ जेठ ज्येष्ठ मुदी पञ्चमी सं० १९६१ को जो शास्त्रार्थ मध्यमें छोड़ा गया उससे यह आशय था कि ढूंढियों की ओर से सदा मुखबन्धन की विधि का कोई प्रमाण मिले - सो आज दिन तक कोई उत्तर उनकी तरफ से प्रकट नहीं हुआ, अतः उन की मूकता आपके शास्त्रार्थ के विजय की सूचिका है । ! बस इस विषय में हमारी संगति है और हम व्यवस्था याने फैसला देते हैं कि आपका पक्ष उनकी अपेक्षा से बलवान् है । आपकी विद्या की स्फूर्ति और शुद्ध धर्माचार की नेष्टा अतीव श्रेष्ठतर है. प्रायः करके जैनशास्त्रविहित प्रतीत होता है और है । हस्ताक्षर पण्डितों के पण्डित भैरवदत्त | पण्डित श्रीधर राज्यपण्डित नाभा । पण्डित दुर्गादत्त । । पण्डित वासुदेव । पण्डित बनमालीदत्त ज्योतिषी । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९) उक्त फैसले के आने पर श्रीमुनिवल्लभविजयजी ने श्रीमान् नाभा नरेश को एक पत्र लिखा, उसकी अक्षरशः नकल आगे देते हैं । श्रीमान् महाराजा साहिब नाभापति जी जयवन्ते रहें, और रायकोट से साधु वल्लभविजय की तर्फ से धर्मलाभ वांचना, देवगुरु के प्रताप से यहाँ सुखशान्ति है, और आपकी हमेशह चाहेत हैं। समाचार यह है कि आपके पण्डितों का भेना हुआ फैसला पहुँचा । पढ़ कर दिल को बहुत आनन्द हुआ। न्यायी और धर्मात्मा महाराजों का यही धर्म है, कि सच और झूठ का निर्णय करें जैसा कि आपने किया है। कितने ही समय से बहुत लोगों के उदास हुए दिल को आपने खुश कर दिया । इस बारे में आपको बार बार धन्यवाद है। अब इस फैसले के छपवानेका इरादा है, सो रियासत नाभा में छपवाया जावे या और जगह भी छपवाया जा सकता है ? आशा है कि इसका जबाब बहुत जलद मिलेगा । ता० १४-१-१९०६ द० वल्लभविजय, जैनसाधु ॥ पूर्वोक्त पत्र के उत्तर में नाभानरेशकी तरफसे पण्डितों के नाम पत्र लिखा, उसकी नकल नीचे मूजिब है:ब्रह्ममूर्त पण्डित साहिबान कमेटी सलामत-नम्बर ११९३. इन्दुल गुजारिश पेशगाह खास से इरशाद सादर पाया कि बावाजी को इत्तला दीनावे कि जहाँ उन का मनशा हो वहाँ इसको तबअ करावें यह उनको इखतियार है, जो कुछ पंडितान ने बतलाया Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) वह भेजा गया है, लिहाजा मुतकालफ खिदमत हूँ कि आप बमनशा हुक्म तामील फर्मावें ।१०माघ संवत् १९६२.अज़ सरिशतह ड्योढी। पन्नालाल, सरिशतहदार । इस पत्र के उत्तर में कमेटी पंडितान ने श्रीमुनि वल्लभाविजय जी के नाम पत्र लिखा, उसकी नकल नीचे मूजिब है:___ ब्रह्मस्वरूप बावा साहिब जी श्रीमहात्मा वल्लभविजयजी साहिब साधु सलामत । नम्बर ७७६ सरकारवाला दाम हश्मतहू से चिट्ठी आपकी पेश होकर बदी जवाब बतवस्सुल ड्योढी मुबारिक व हवालह हुक्म खास बदी इरशाद सदूर हुआ कि बावा जी को इत्तला दी जावे कि जहाँ उन का मनशा हो, तबअ करावें । बखिदमत महात्मा जी नमस्कर दस्त बस्तह होकर इल्तिमास किया जाता है कि जहाँ आपका मनशा हो छपवाया जावे, और जो फैसला तनाजअ बाहमी साधुआन् महात्मा का जो जैनमत के अनुसार पण्डितान ने किया था, आपके पास पहुंच चुका है, मुतलअ हो चुका है। तहरीर ११ माघ संवत् ११६२ ।। द० सपूर्णसिंह, अज़ सरिशतह कमेटी पण्डितान । गुजराँवालाका शास्त्रार्थ । "जैन पत्र सम्पादकजी महाशय, कृपाकर इस लेखको अपने पत्रमें छपवाकर प्रसिद्ध कर दीजिएगा। जिस समय यहाँ प्रतिष्ठा महोत्सव बड़ी धामधूमसे हुआ, उस उत्सवको देखत ही ढूँढक भाइयोंके पेटमें मारे द्वेषके ज्वलाएँ उठने Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) लगीं। फल यह हुआ कि उन्होंने एक छोटीसी किताब छपवाकर, श्रीआत्मारामजी महाराजके विरुद्ध सनातन धर्मावलंबी भाइयोंको खड़ा किया, तथा द्रव्यादिसे उनकी सहायता करने लगे। किताबमें ऐसे वाक्य लिखे हुवे थे,--- आत्मारामजी पुजेरेने अपने बनाये 'अज्ञान तिमिर भास्कर' नामक ग्रन्थमें लिखा है कि वेदोंमे नरमेध, गोमेध तथा अश्वमेध आदि यज्ञोंका विधान है। ब्राह्मण लोग, मनुष्य गाय, घोड़े आदि प्राणियोंको मारकर यज्ञ करते थे। ब्राह्मण भाइयो ! क्या यह बात सच्ची है ?" इस किताबको देखकर, सनातन धर्मावलंबी बहुत बिगड़े। उन्होंने नोटिस दिया, जिसका आशय यह था,-" आत्मारामजी महाराजने अज्ञान तिमिर भास्करमें। हमारे शास्त्रोंसे जो जो प्रमाण हिंसा साबित करनेके लिये दिये हैं, उनको सत्य ठहरानेके लिये आप लोग अपने पण्डितोंको बुलावें, हम लोग भी अपने पण्डितोंको बुलाते हैं । अगर इस नोटिसका जवाब नहीं दोगे तो आत्मारामजी मिथ्यावादी समझे जायेंगे।" __इस नोटिसको पाकर जैन भाइयोंकी ओरसे उत्तरमें नोटिस दिया गया । उसमें यह प्रार्थना की गई थी,-" श्रीमान् आत्मारामजी महाराजने अज्ञानतिमिर भास्करमें वेदादि शास्त्रोंसे जो २ प्रमाण दिये हैं वे सत्य हैं। किताब छपेको इक्कीस वर्ष हुए अभी तक किसी महाशयने उसके विषयमें तकरार नहीं उठाई। आप लोगोंको यदि सन्देह हुवा हो, तो, अज्ञान तिमिर भास्करमें दिये हुए प्रमाणोंको अपने शास्त्रोंसे मिलाकर स्वयं देख लेवे, अथवा अपने पण्डितोंको Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) दिखला कर निर्णय कर लेवें । यदि आपके पास पुस्तकें न हों, तो हमारे पास आकर देख लेवें, क्योंकि आपसमें विरोध फैलाना अच्छा नहीं है, और गुप्त बातोंको पबलिक ( सर्व साधारण ) में जाहिर करना, हम लोग अच्छा नहीं समझते हैं, फिर आपकी इच्छा ।" इस नोटिसको पाकर वे लोग शान्त नहीं हुए, किन्तु शास्त्रार्थ करनेके लिये उत्तेजित करने, तथा अपने पण्डितोंको बुलानेका प्रबन्ध करने लगे। श्रीसंघ गुजराँवालाने भी मुनिराज श्रीवल्लभावजयजी महाराजको तारद्वारा सूचित किया, मुनिराज श्री दिल्लीमें चौमासा करना चाहते थे पर इस समाचारको सुनते ही फिर पंजाब आने वास्ते लौटे । पाठकगण ! सख्त गरमीके दिनोंमें चलनेके कारण पैरोंमे सूजन आ गई थी अतएव श्रावक भाई आग्रहसे अपने २ ग्रामोंमें विश्राम लेनेके लिये आग्रह करते थे, लेकिन जैन शासनकी किसी प्रकार हेलना न हो, इस लिये मुनिराज बड़े वेगसे विहार करने लगे। ऐसे ही मुनिराज धन्यवादके पात्र हैं ! और जैन पंडित श्रीव्रजलालजीको तारद्वारा सूचना दी । वे महाशय सूचना पाते ही यहाँ आ गये। ___ इधर सनातनी भाइयोंने पं० भीमसेन शर्मा, विद्यावारिधि पं० ज्वालाप्रसादजी मिश्र तथा पं० गोकुलचंदजी आदिको बुलाया। प्रथम पं० भीमसेनजी आये, उन्हें लेने वास्ते ढूँढक भाई भी स्टेशनपर गये थे, इतना ही नहीं बलकि पण्डितजीके गलेमें अपने हाथोंसे पुष्प माला भी डालते रहे ! तथा सनातन धर्मकी जयमें जय मिलाते थे। दूसरे दिन, सनातनी भाइयोंकी ओरसे सायंकालके चार बजे Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) नोटिस तथा एक पत्र मिला, जिसका आशय यह था,-" आज सायंकालके ६ बजे ब्रह्म अखाड़े में सभा होगी, हमारे पं० भीमसेननी शास्त्रार्थ करनेकेलिये तैयार हैं। आत्मानन्दी पुजेरे भी अपने पण्डितको लावें । यदि आत्मानन्दी नहीं आयेंगे तो पं० भीमसेनजीका व्याख्यान होकर सभाका कार्य समाप्त किया जायगा तथा जैनोंका' पराजित होना प्रसिद्ध कर दिया जायगा" इस नोटीसको पाकर जैनलोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ कि न तो कोई मध्यस्थ, न पुलिसका प्रबन्ध । फिर भी घंटेकी फुरसत ( अवकाश) देकर शास्त्रार्थके लिये बुलाना, सभास्थान भी ब्राह्मणोंका, सभापति भी उन्हींके पक्षपाती पं० लालशङ्करजी, मानों यह एक गुड़ियोंका खेल ही इन लोगोंने समझ लिया ! पाठकगण, सच्ची बात तो यह है कि वेदमें हिंसा है यह बात दुनियामें जाहिर है। बंबई शहरकी धर्मसभाने २६ प्रश्न निकाले थे । जिनमेंसे आठवें और ग्यारहवें प्रश्नका जवाब तारीख ३० जुलाई सन् १९०४ के — बंबई समाचार ' में छपा है, जिसमें खुलासा वेदमें हिंसा लिखी है ! परन्तु सनातन धर्मावलंबियोंने तथा उनके पं० भीमसेन शर्माने जोशमें आकर तथा पक्षपातका चश्मा चढाकर विचार किया कि ब्राह्मण क्षत्रियादि हजारों मनुष्य हमारे पक्षमें हैं। जैनी कुल थोड़ी संख्यामें, फिर भी ये जैनी हमारे सन्मुख बोलते हैं ? इस लिये इन्हें शास्त्रार्थमें चालबाजीसे अथवा लड़ाई दंगेसे दबाना और प्रसिद्ध कर देना कि जैनी हार गये। पर जैन लोग उनका अन्तःकरण अच्छी तरहसे जानते थे अतएव थानेदार तथा पुलिस को साथमें लेकर जैन पं. व्रजलालजीको सभामें ले गये। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) सभामें सनातनी, आर्यसमाजी, ढूँढक, सिख, मुसलमान आदि ५००० पाँच हजारके लगभग मनुष्य एकत्रित ( इकट्ठे ) हुए थे। थोड़ी ही देरमें पं० भीमसेनजीका भाषण प्रारम्भ हुआ जब भाषणके समाप्तिका समय कुछ बाकी था, इतनेमें जैन पं. व्रजलालजीने पत्रमें लिखकर सभापतिको सूचना दी कि दश मिनिट बोलनेकी इजाजत ( आज्ञा ) मुझे मिलनी चाहिये। अनन्तर सभापतिकी आज्ञा पाकर उठकर वे बोलना चाहते थे, इतनेमें पं० भीमसेनजी बड़े आवेशसे बोल उठे कि-"प्रतिपक्षी जैनी ही बोल सकता है, न कि ब्राह्मण ! इस लिये बोलनेकी इजाजत आप को नहीं दी जायगी।" उत्तर देते हुए पण्डितजीने गम्भीरतासे कहा कि,-" मैं जैनी हूँ अतएव आपका रोकना अनुचित है।" तदनन्तर पं. भीमसेन जीने कहा कि, यह हमको लिख दो । पंडितजीने लिख दिया, और उच्च स्वरसे कहा कि,---जैनी बननेका कारण वेदविहित हिंसा है।" ___यह सुनकर सभामें कोलाहल मच गया। मारे गुस्सेके पं० भीमसेनजीकी आँखें लाल हो गई। तदनन्तर इजाजत पाकर पण्डितजीने यह कहा;--" श्री आत्मारामजी महाराजने अज्ञान तिमिर भास्करमें वेदादिशास्त्रोंके जिन प्रमाणोंसे गोमेध, नरमेघ, तथा अश्वमेधादि दिखलाए हैं, तथा उन प्रमाणोंका जैसा हिन्दीभाषामें अनुवाद किया है, उनको सत्य सिद्ध करनेकेलिये हम तैयार हैं, परन्तु मध्यस्थ जरूर होना चाहिये । जो निष्पक्षपाती तथा संस्कृत भाषाके पदोंका Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) अर्थ समझनेकी अच्छी योग्यता रखता हो । पं० भीमसेनजीका यह कहना कि,-" पबलिक मध्यस्थ है, दूसरे मध्यस्थकी आवश्यकता नहीं । " बिलकुल गलत ( अनुचित ) है । गोया पं० भीमसेनजी अपने मुखसे ही सिद्ध करते हैं कि, हम सच्चा शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते । यदि योग्य मध्यस्थ नहीं मिल सकते हों, तब तो पं० भीमसेनजीका कहना कुछ मान भी लिया जाता; किन्तु इन्हीं सनातनी भाइयोंने, आर्यसमाजके साथ शास्त्रार्थ करनेके समय, मेयो कॉलेजके प्रिन्सिपल थिबो साहब, तथा क्विन्स कॉलेजके प्रिन्सिपल बेनिस साहबको मध्यस्थ बनानका आग्रह किया था अतएव मैं सम्पूर्ण सभासदोंसे निवेदन करता हूँ कि, वे ही निष्पक्षपात बुद्धिसे विचार करें, ऐसे शास्त्रार्थमें मध्यस्थकी जरूरत है अथवा नहीं ? बलके मध्यस्थका निषेध सम्बधी पं० भीमसेनजीका व्याख्यान, साफ जाहिर करता है कि मध्यस्थके रहनेपर हमारी चालबाजी चलेगी नहीं; किन्तु पोल खुलजायगी।" बस इतना ही जैन पं० ब्रजलालजी कहने पाये थे कि सभापतिने कहा,-" समय हो गया, बोलना बंद करिए।" अभी दस मिनिट पूर्ण नहीं हुए, किन्तु पाँच मिनिट बाकी ( शेष ) थे, अतएव इस अन्यायको देखकर कई लोगोंने कह दिया कि पक्षपात हो रहा है, पर वहाँ कौन सुनता है । बडी जल्दीसे पं० भीमसेनजीने उठकर कहा कि," वादी, प्रतिवादी दोनों यदि चाहें तब मध्यस्थ नियत किया जाता है, हम लोग मध्यस्थको नहीं चाहते हैं, क्योंकि उसमें रिश्वतखोरी ( घूसदेना ) Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) होती है। अब समय हो गया, अतएव सभा बन्द की जाती है, कल फिर सभा होगी।" तदनन्तर दोनों पक्षवाले,-" जैन धर्मकी जय !" “ सनातन धर्मकी जय ! " पुकारते हुये सुरक्षित अपने अपने घर गये । सभास्थलमें कोई २ बहादुर अपनी बहादुरी दिखलानेकी चेष्टा करते थे, पर पुलिसने भी बहादुरीका फल हवालातमें बन्द होना पड़ेगा, इत्यादि कहकर शान्त किया। __ दूसरे दिन मुरादाबादके पं० ज्वालाप्रसादजी, तथा मेरठके पं० गोकुलचंदजी आ गये, और सभा की गई । व्याख्यानमें जैनियोंको मनमानी गालियाँ देकर पं० ज्वालाप्रसादजीने विद्यावारिधि पदवीकी सार्थकता दिखला दी ! तथा पं० भीमसेनजी भी अपनी वृद्धावस्थाकी शान्ति दिखलाकर लोगोंको मात करते थे ! बिचारे ढूँढक भाइयोंकी बड़ी दुर्दशा होती थी ! क्योंकि खर्च भी देना और सभामें पण्डितोंकी गालियाँ भी सुनना । अन्तमें, परिणाम यह हुआ कि लोगोंमें अत्यन्त अशान्ति फैल गई। प्रति क्षण मारपीट होनेकी सम्भावना होने लगी, अतएव पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट बहादुरको सब प्रबन्ध करना पड़ा। उन्होंने कहा कि,-" दोनों पक्षवाले लोग, अपने २ पण्डितोंको लेकर, कल सवेरे सात बजे कोतवालीमें हाजिर हो । जज साहब व चटर्जी साहब संस्कृतके जानकार हैं उनके समक्ष तुम्हारा फैसला करा दिया जायगा” ___ यहाँ पाठकोंको यह दिखलाना आवश्यक है कि, जैनोंकी ओरसे पं० भीमसेनशाको एक रजिष्टर पत्र भेजा गया था, परन्तु उन्होंने Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) लिया नहीं । पत्रका आशय यह था कि, आप ब्राह्मण स्मृति आदि ग्रन्थोंमें किन २ ग्रन्थोंको प्रमाण मानते हैं ? " खैर ! पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट साहबसे सनातन धर्मसभाके सेक्रेटरी पं० केदारनाथने कहा कि, हम पाँच प्रश्न जैनियोंको देते हैं, वे कल सवेरे इन प्रश्नोंका जवाब लिखकर लावें । उसी समय जैन भाइयोंकी ओरसे भी रजिस्टरपत्र दिखलाया गया, और कहा गया कि, इस प्रश्नका उत्तर, सनातनी पण्डित भी लिखकर लावें । दूसरे दिन सवेरे सात बजे दोनों पक्ष कोतवालीमें उपस्थित हुए। उसी समय साहब आ गये । पुलिस इन्स्पेक्टर द्वारा भीड हटवाई गई । चुनेहुए शिक्षित लोगोंको छोड़कर, अन्य लोग बाहर कर दिये गये तथा फाटक बन्द कर दिया गया। - श्रीमान् पं० ज्वालासाहब डिस्ट्रिक्ट जज तथा हेडमास्टर चटर्जी साहब मध्यस्थ किये गये थे। पाठकगण, यहाँ मध्यस्थके विषयों कुछ लिखना अप्रासंगिक नहीं समझा जायगा । मध्यस्थ जज साहब ब्राह्मण कुल तिलक, निष्पक्षपाती अमृतसर निवासी थे। आपके पूर्वज भी बड़े बड़े अधिकारी थे । धान्दोलनके कारण परस्पर बढ़ी हुई अशान्तिको पक्षपातरहित होकर दूर करनेके कारण, आप जैनीमात्रके धन्यवादके पात्र हैं। और ऐसे ही संस्कृतज्ञ मि. बी. सी. चटर्जी बी. ए. हेडमास्टर भी उपस्थित थे। मौलवी नजीरहुसेन, मौलवी सय्यद कलन्दरहुसेन, डिस्ट्रिक्ट सुपरवाइझर,आर्यसमाजके नेता मि० आत्माराम अमृतसरी आदि प्रतिष्ठित हिन्दु, मुसल्मान तथा राजकर्मचारी भी उपस्थित थे। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) कार्य प्रारम्भ हुआ। जजसाहबने सनातनी भाइयोंसे पूछा कि, अज्ञान तिमिर भास्करको छपे कितने दिन हुए ? उत्तरमें कहा गया, इक्कीस वर्ष । फिर जज्जसाहबने पूछा कि, इतने दिनतक क्यों तकरार नहीं उठाई गई ? उन्होंने कहा, अभीतक किताब देखनेमें नहीं आई थी। अनन्तर एक जैन भाईने कहा कि यह बात गलत है, क्योंकि पं० भीमसेनजीने कहा था,-"एक वार मैं इस किताबका खण्डन कर चुका हूँ।" __ फिर सनातनी भाइयोंकी प्रार्थनानुसार जजसाहेबने कहा,-" कलः पाँच प्रश्न जैनियोंको दिये थे वे लावें ।" __ जैनियोंकी ओरसे लिखित प्रश्नोंके उत्तरकी कॉपी जजसाहबके सन्मुख रक्खी गई और कहा गया कि, हम लोगोंने सनातानयोंको जो प्रश्न दिये थे उनका उत्तर चाहते हैं। " जज साहबके माँगनेपर पं० भीमसेनजी बोले कि, प्रथम हमारे प्रश्नका जबाब दिया जाय पीछे इनके प्रश्नका जवाव दूंगा; क्यों कि प्रथम हमारी ओरसे प्रश्न किये गये थे। । उसी समय जैनियोंकी तरफसे रजिस्टर पत्र दिखलाकर कहा गया कि, प्रथम हमारी ओरसे ही प्रश्न किया गया था । तपास करनेपर यही बात सच्ची निकली। तदनन्तर जज साहबने जैन पं० ब्रजलालजीसे कहा कि, आप अपने प्रश्न सुना देवें, पश्चात् प्रश्न सुन कर, उन्होंने पण्डित भीमसेनजीसे पूछा कि,—“ मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् " इस महर्षिके सूत्रानुसार ब्राह्मण ग्रन्थको वेदत्व प्राप्त है, अतएव मैं आपसे पूछता हूँ कि, ब्राह्मण ग्रन्थ वेद हैं वा नहीं ? . . Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९) पाठको ! यहाँ यह लिखना आवश्यक है कि, सनातन धर्मावलंबीमात्र ब्राह्मण ग्रन्थोंको वेद मानते हैं और उन्हींमें गोमेध तथा नरमेध बड़े विस्तारसे लिखा है। अतएव पं० भीमसेनजीने बड़ी चालाकीसे उत्तर दियाथा कि, “ मूल वेदमेंसे गोमेध तथा नरमेध दिखलाओ, " इससे उपर लिखा पूछा गया था। पं० भीमसेनजीने कहा,-" ब्राह्मण ग्रंथोंको वेद मानता हूँ परन्तु मैं जैनी पण्डितसे पूछता हूँ कि, वे मूल वेदमेंसे गोमेध तथा नरमेध दिखलावें। जज साहब पं० भीमसेनजीसे बोले,-"मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्" इस वचनसे ब्राह्मण ग्रन्थोंको वेदत्व प्राप्त है, उसे आप स्वीकार भी करते हैं। बस अब आपको जैन पं० व्रजलालजी अपनी इच्छानुसार संहिता अथवा ब्राह्मणभागसे नरमेध तथा गोमेध दिखलावेंगे। यह आपका आग्रह करना कि, मूलमेंसे ही दिखलावें, अनुचित है। __पं० भीमसेनजीने कहा,-" ब्राह्मण ग्रंथ, मूल वेदका व्याख्यान हैं, अतएव मूलका आग्रह किया जाता है।" ____ जज साहबने कहा, “ इसमें क्या प्रमाण है कि, ब्राह्मण ग्रन्थ मूल वेदका व्याख्यान हैं ? फिर यह शङ्का उठती है कि वह व्याख्यान वेदानुकूल है अथवा नहीं ? " ___ तदनन्तर पं० ज्वालाप्रसादनी बोलने लगे। उन्होंने भी पिष्टपेषणसाही किया जिसे सुनकर जज साहबने स्पष्ट कह दिया कि आप लोग बराबर उत्तर नहीं देते हैं। इतनेमें तीसरे सनातनी पण्डितने कहा कि, " गौणमुख्ययो Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) मुख्ये कार्यसम्प्रत्ययः " इस न्यायसे संहिता मुख्य तथा ब्राह्मण ग्रन्थ गौण हैं. अतएव जैन पण्डितको मूल वेदसे ही हिंसा बतलानी चाहिये । " - जज साहबने कहा, " ऐसा क्यों ? यह न्याय इस स्थलके लिये नहीं आप लोग विचारकर बोलें । " ( इतना कहकर हँस दिये और सनातनी पण्डितोंसे बोले कि . ) " आपलोगों में किसीने भी उत्तर ठीक नहीं दिया खैर ! जैन पं० ब्रजलालजी ! आप मूल वेदमें हिंसा बतला सकते हैं या नहीं ? उत्तरमें पण्डितजीने कहा कि, "हमारा यह पक्ष ही नहीं है, क्यों कि आत्मारामजी महाराजके बनाए हुये अज्ञानतिमिरभास्करके लेखको सत्य सिद्ध करना यही हमारा पक्ष है । यदि मूल वेदके विषयमें आप निर्णय करना चाहते हों तो, स्वयं पं० ज्वालाप्रसादजीने तथा पं० भीमसेन शर्माने अपनी लेखनीसे ही मूल वेदमें हिंसा सिद्ध की है । " इस वाक्यको सुनकर जज साहबने कहा, – “ दिखलाओ। " शीघ्र ही पं० ज्वालाप्रसादजी मिश्रका - " मिश्र भाष्य" दिखलाया गया, जिसमें अश्वको मारकर उसके मांसको पकाना इत्यादि अश्वमेध यज्ञका वर्णन लिखा था ! वैसे ही पं० भीमसेनजीका लेख दिखलाया गया । उन्होंने साफ लिखा है, –“ वेदमें लिखा है कि आए हुए ब्राह्मण वा क्षत्रिय राजा वा अतिथिके लिये बड़े बैल वा बड़े बकरे को पकावे । " इन वाक्यों को सुनकर सनातन धर्मावलंबी तथा उनके पं० भीमसेनजी व ज्वालाप्रसादजी कुछ भी नहीं बोल सके । तदनन्तर मध्यस्य पुरुषोंने कहा कि जो कुछ मतलब है हम खूब Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) समझ गये हैं। मगर हम भ्रातभावसे आपसमें राजीनामा हो जावे और ऐसे क्लेश वृद्धिको प्राप्त न होवें इसमें अच्छा समझते हैं। आखिरकार मध्यस्थ पुरुषोंका वचन मान्य रखना मुनासब समझागया और परस्पर भ्रातृभावका राजीनामा लिखा गया ! यह वृत्तान्त जैसा मेरे अनुभवमें आया पाठकवृन्दको सूचनार्थ लिखा गया है। यदि इसमें कुछ न्यूनाधिक लिखा गया हो, तो दोनों ही पक्षवाले मुझपर क्षमा करें। K. C. Bhutt. ( २६ जुलाई १९०८) ( नोट ) इस कार्यमें शहर जलंधरनिवासी यतिजी केसरऋपिजीने भी प्रशंसनीय मदद दी थी। इनकी धर्म पर पूर्ण श्रद्धा है। पढ़े हुए भी ये प्रायः यतिवर्गमें उच्च कोटिके लायक हैं। यदि इनके जैसा ख्याल अन्य यतिवर्गका होवे तो जैनधर्मोन्नति शीघ्र ही हो जावे । इतना ही नहीं बलकि जैनधर्मपर झूठे आक्षेप करने बालोंको खूब शिक्षा मिल जावे। “ पंडित भीमसेनजी शर्माके उद्गार" गुजराँवाला पंजाब । जैनधर्मावलम्बी लोगोंमें कई फिर्के होने पर भी हुँडेरे और पुजेरे ये पंजाबमें विशेष कर हैं। पुजेरे जैनियोंमें एक आत्माराम साधु हो चुका है। उक्त साधुने एक पुस्तक अज्ञान तिमिर भास्कर नामक छपाया था जिसमें वेदादि मान्य शास्त्रोंकी ऋषि महर्षियोंकी Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) और विशेषकर ब्राह्मण मात्रकी खब निन्दा की है। वेदको हिंसादि अधर्म फैलाने वाला कहा है । सब सनातन धर्मी आर्यसमाजी और स्वा० दयानन्दको भी हिंसक अधर्मी लिखा है। पंजाबमें नागरीका प्रचार कम है इससे उस पुस्तकका हाल सब कोई नहीं जानते थे । हुँडेरे जैनियोंने पुजेरोंका खंडन करते हुए अज्ञान तिमिर भास्करका अनुवाद करके दो तीन ट्रेक्ट उर्दू छपा दिये। जिनको देखकर सनातन धर्मी पबलिकमें बड़ी हलचल पैदा हो गई कि सनातन धर्मके वेदादि शास्त्रोमें मनुष्यका तथा गौका मारना लिखा है तो हम वेदको छोड़ देंगे । हुँडेरोंकी चालाकी यह थी कि सनातन धर्मी दलको अपने शत्रु पुजेरोंका विरोधी बना दें तो इन दोनोंमें खूब झगड़ा हो । सो यदि सनातन धर्मी ऐसा कहते कि हम जैनधर्मके सभी फिर्कोको वेदविरुद्ध तथा नास्तिक मानते हैं, हम सभीका खंडन करेंगे तो एक पुजेरोंके साथ झगड़ा कम होता । सो न हुआ किन्तु पुजेरोंसे बखेड़ा बढ़ गया । शास्त्रार्थ होनेकी बात चीत चली । इटावेसे पं० भी० श० और मुरादाबादसे पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र तथा मेरठसे पं० गोकुलचंदजी गुजराँवालेमें पहुँचे । गुजराँवालेमें चार दिन बड़े समारोहसे सभा हुई । पहिले दिनकी सभामें कुछ जैन लोग आये। पुजेरे जैनियोंकी ओरसे कोई पण्डित नहीं था । काशीकी जैन पाठशालामें पढ़नेवाला एक ब्राह्मण विद्यार्थी ( जिसने लघु कौमुदी भी ठीक नहीं पढ़ पाई थी ) शास्त्रार्थके लिये आया था। अनुमानसे जाना गया कि कुछ लोभ देके उसे वेद विरोधी बनाया गया था। जब सभामें वह विद्यार्थी बोलनेको खड़ा किया गया तब सनातन Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) धर्मियोंने पूछा कि तुम कौन हो?" उसने कहा-“ मैं काशीकी जैन पाठशालाका अध्यापक ब्राह्मण हूँ।” तब सनातन धर्मियोंने कहा कि,-"यहाँ जैनियोंके साथ शास्त्रार्थ है, क्या तुमने वेदोक्त धर्म त्याग दिया है ? क्या तुम जैनी हो गये हो ?" ऐसा सुनकर विद्यार्थीका चहरा बिगड़ गया और कुछ घबरा गया । तो भी लोभवश मिथ्या बोला कि, मैनें वैदिक धर्म छोड़ दिया मैं जैन हो गया हूँ। तब कहनेकी इजाजत होनेपर भी उससे कुछ न कहा गया । केवल यही कहा कि गुजराँवालाके कलक्टर साहब सभापति हो । २२ प्रबन्ध कर्ता हों कोई अंगरेज मध्यस्थ हो तब शास्त्रार्थ होना चाहिये । सनातन धर्मकी ओरसे पबलिकको सुनाया गया कि शास्त्रार्थ टालनेके लिये यह इनकी बहानेबाजी है । सभामें सिद्ध किया गया कि वेदमें मनुष्यको तथा गौको कदापि मत मारो इनकी रक्षा करो ऐसा साफ २ लिखा है ।प्रमाण दिखाये गये, आत्मारामको मिथ्यावादी, जैनियोंको निर्दयी हिंसक नास्तिक सिद्ध किया गया। तीन चार दिन तक जैनोंको सब प्रकार सभामें बुलाया पर घबड़ाके नहीं आये, डर गये। सनातन धर्मका जय जयकार होके सभा विसर्जन हुई। ब्राह्मण सर्वस्व मासिकपत्र संपादक पंडित भीमसेन शर्मा-भाग-६-अंक १२ पृष्ठ ४५७-४५८ । पूर्वोक्त दोनों अखबारोंके लेखोंको देखकर वाचकवृंद स्वयं विचार कर सकें इस वास्ते यह उद्यम किया गया है, न कि पक्षपात करनेकेलिये । इस वास्ते वाचकवृंदसे सविनय प्रार्थना है कि वे निष्पक्ष पात हो स्वयं निर्णय कर लेवें इति । (विशेष निर्णय नामक पुस्तकसे उद्धृत ) Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) बारहवीं श्वेतांबर जैनकान्फरेंस सादड़ी (मारवाड़) के समय दिया हुआ भाषण । ॐनमः वीतरागाय। यस्य निखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । ( भावार्थ—जिसमें एक भी दोष नहीं है और जिसमें सारे गुण विद्यमान हैं उसको मैं नमस्कार करता हूँ। वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महादेव हो या जिन, हो । ) ___ मान्य मुनिवरो ! सुशीला साध्वियो ! सभ्य सद्गृहस्थो और सन्नरियो ! आप सर्वका यहाँ पर उपस्थित होना कुछ अन्य ही कथन कर रहा है। रंग बिरंगी विचित्र पगड़ियों और लाल पीले अनेक प्रकारके कपड़ों व गहनोंसे सुसज्जित दो दलोंका एकत्रित होना तो अनेक विवाह ( शादी) जीमनवार आदि प्रसंगोंमें ही संभव है। परन्तु आपसे ही क्या ? सारी दुनियासे उल्टे रस्ते चलनेवाले हमारे दोदल जो आपको दिखलाई देते हैं उससे साफ जाहिर होता है कि, यह प्रसंग सांसारिक नहीं है, किन्तु धार्मिक है। इस लिए मैं भी यहाँ कुछ बोलनेका अधिकार रखता हूँ। मेरा विचार और अधिकार । महाशयो ! यहाँ जो कुछ कहूँगा अपना निजका विचार कहूँगा। उसको मानना न मानना उस पर विचार करना न करना आपका Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) अख्तियार है। मेरे पास तो क्या जैन साधुमात्रके पास ऐसी सत्ता नहीं है जिसके बलसे आप पर किसो किसमका जोर या फर्ज डाला जा सके ? जैसा कि साँझवर्तमानमें सुलहके उत्सवमें शामिल नहीं होनेका करवीर पीठके जगद्गुरु श्रीशंकराचार्यका अपने अनुयायियोंको फर्मान जाहिर हुआ है। __ जैन गुरुओंको उपदेशका अधिकार है आदेशका नहीं । सज्जनो ! आपके पास प्रतिनिधित्व (Deligation) सूचक चिन्ह फूल हैं। मेरे पास रजोहरण धर्मध्वज है। आपके पास कागजका कटा हुआ टिकिट है मेरेपास कपड़ेका बना हुआ वेष है । आपको जैन कॅन्फरेंस-जैन महासभाके इस अधिवेशनके तीन दिनोंका प्रतिनिधित्व मिला है मुझे जैनशासनका हमेशाके लिये प्रतिनिधित्व मिला है। आपको आमंत्रण पत्रिका द्वारा अपने अपने ग्राम-नगर संस्थाकी तरफसे अधिकार प्राप्त हुआ है । मुझे-प्रातः स्मरणीय मरहूम जैनाचार्य श्रीमद्विविजयानंदसरि श्रीआत्मारामजी महाराजके हस्तसे समस्त श्रीजैनसंघकी तरफसे अधिकार प्राप्त है । प्राप्त अधिकारको यथाशक्ति अमलमें लाना अपना कर्तव्य समझ कर ही इस समय मैं उद्यत हुआ हूँ। कॉन्फरेंसकी आवश्यकता । सजनो ! ऐसी सभाओंकी कितनी आवश्यकता है सो आप सब जानते हैं । इस सभाके स्वागत कमेटीके प्रमुखने और सभाध्यक्षने अपने अपने वक्तव्यमें भली प्रकार जाहिर कर दिया Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) कई लोगोंको है । अन्यान्यस्थानोंमें ऐसी अनेक सभाएँ हो रही हैं । यदि इस सप्ताहको सभासप्ताहका नाम दिया जाय तो योग्य ही है । सभा ओंका उद्देश उन्नतिके सिवा और कोई नहीं है । यह बात सत्य ही माननी पड़ती है। मगर कभी कभी उससे विपरति कार्य होता सुनाई या दिखाई देता है । जिससे अरुचिसी हो जाती है । मेरी समझमें यह उनकी बड़ी भारी भूल है । इस तरह करनेसे पक्ष पड़ जाता है । एक दूसरे पर परस्परमें इल्जाम या दोष लगा देते हैं, उसका परिणाम बुरा होता है । संपके स्थान में कुसंप प्रीतिकी जगह अप्रीति, सुधारकी जगह बिगाड़, हो जाता है । इस लिए प्रिय महाशयो ! व्यक्तिगत कार्यको आगे खड़ाकर समष्टिका नाश करना बुद्धिमत्ता नहीं है । बड़ी मुश्किलसे, अनेक कष्ट सहनकर धन व्ययकर तीन दिनके लिए जो सम्मेलन होता है, उसमें तकरारी बातको स्थान न देकर जिस मुद्देकी बात के लिए, जिस उद्देशसे एकत्रित होते हैं उसका ही निराकरण होना उचित समझा जाता है । शान्तिकी योजना । बेशक यदि अशान्तिका कोई प्रश्न हो जिससे समाजपर बुरा असर होने की संभावना हो, कुसंपका बीज बोया जाता हो उसके लिये न्यायको मान देकर सभ्यतासे गंभीरता के साथ परस्पर विचाका मलानकर शान्त चित्तसे समाज के हितकी खातिर, थोड़े ही समयमें यदि निराकरण होता दिखलाई देवे तो कसरत रायसे कर देना योग्य है | परन्तु एक तुच्छसी बातकी खातिर अपना ही कक्का Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) खरा किये जाना और समाजको धक्का दिये जाना आधी आधी रात सारी सारी रात एक ही बातको उठा लिए जाना योग्य नहीं है। महरबानो! यदि आपको अपने समाजका, जैन समाजका अपने स्वामी भाइयोंका, अपनी धर्मात्माबहनोंका, अपनी सन्तानका अरे! अपने पिता महावीरके शासनका कुछ भी दर्द हो, आप की नस और रगरगमें धर्माभिमान या मनुष्यत्वका अंश भी हो तो अपने, अपनी समाजके हितके लिए आपको अशान्ति, क्लेश और कुसंपको समाजसे धक्का देकर शान्ति, प्रेम और संपका वास करानेके लिए जुदा जुदा इलाकोंके मुख्य मुख्य समाजके प्रतिष्ठित नेताओंकी एक खास सभा कायम करनी चाहिए । जरूरतके वक्त वह सभा जहाँ योग्य समझा जाय एकत्र हो कर जो खुलासा अपने हस्ताक्षरोंसे जाहिर करे सर्व समाजमें मान्य हो जावे । मेरी समझमें यह बात क्या गृहस्थ और क्या साधु सबको पसंद आयगी। ____ महाशयो ! पीछे भी ऐसी प्रणाली चलती थी ऐसा जैन इतिहाससे मालूम होता है। श्रीधर्मघोष सूरि महाराजने जैनधर्मसे विरुद्ध चलनेवाले श्रावकोंको शिक्षा ( दंड ) देने के लिए अठारह श्रावक कायम किये थे । जिनमें श्रीमालकुलतिलक यशोधवल नामक खजानचीका पुत्र जगदेव मुख्य था। जिस जगदेवको श्री हेमचंद्रसूरिने बाल कविका बिरुद किया था। विद्याकी खामी दूर करो। - प्यारे जैन भाइयो ! आपने समझ लिया होगा कि, पिछले हमारे जैन भाई सुशिक्षित, धनाढ्य, अधिकारी और प्रतिष्ठित होते थे । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) जिससे वे धार्मिक और सामाजिक यावत् राज्यकार्यमें भी प्रवीण होते थे । आजकल अपनी कैसी दशा हो रही है सो आपसे छुपी हुई नहीं है । जिसका मुख्य कारण, जहाँतक मेरा खयाल पहुँचता है,. विद्याका अभाव नहीं तो भी कमी तो अवश्य है। मुझे कहना पड़ता है कि हिन्दुस्तानमें प्रायः क्या हिन्दु, क्या मुसलमान, क्या इसाई, क्या पारसी, क्या आर्य समाजी, क्या सिख, सबके कॉलेज सुनाई देते हैं, परन्तु जैनोंका एक भी कॉलेज-महाविद्यालय नहीं है। जिस समाजमें सबसे अधिक विद्या-ज्ञानका प्रेम कहा जाता है; माना जाता है उसमें कोटीश्वरोंके विद्यमान होते हुए भी विद्याका क्षेत्र संकचित ही बना रहे, यह थोड़े दुःखकी बात नहीं है ! कमसे कम हिन्दुस्तानमें तीन जैन कॉलेज होनेकी आवश्यकता है। एक गुजरातमें ऐसे स्थान पर हो कि, जिसका लाभ गुजरात, काठियावाड़ कच्छ और दक्षिण सब ले सकें । एक मारवाड़में ऐसे स्थान पर हो कि जिसका लाभ मारवाड़, मेवाड़, मालवा सबको मिले । एक ऐसे स्थान पर हो कि जिसका लाभ पंजाब, बंगाल, संयुक्त प्रांत आदि सबको मिले। कॉलेजकी आशा । महानुभावो ! बड़े हर्षकी बात है कि पंजाबमें जैन कॉलेजकी संभावना महोदय सभापतिजीने आपके आगे प्रकट कर ही दी है, तो भी प्रसंग होनेसे पंजाबी भाइयोंको याद दिलानेके लिए स्वर्गवासी गुरु महाराजका उच्च आशय मैं सुना देना चाहता हूँ। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिनका जिक्र है । लुधियानेमें कुछ आसर्यमाजी भाइयोंने श्रीमहाराज साहबसे अर्ज की कि, आप देव मंदिर तो बनवाये जाते हैं, मगर देवमंदिरके रक्षकोंके उत्पादक देववाणी-सरस्वतीके मंदिरकी भी जरूरत है। . श्रीमुखने, आहा ! क्या ही उस वक्त समयसूचकताका जवाब दिया ! सुनकर सब खुश हो गये । आपने फर्माया था,-" इस वक्त इनको देवभक्त बनानेकी जरूरत है, इस लिए देवमंदिर बनते हैं। जब यह कार्य पूर्ण हो जायगा खुद ब खुद देववाणीका खयाल हो जायगा।" __ बेशक महापुरुषोंकी वाणीमें भी देववाणीकाही असर होता है । आपका कहना ज्योका त्यों ही मेरे अनुभवमें आ रहा है। धीरे धीरे पाठशाला हाइ स्कूलके रूपमें प्रविष्ट हो कॉलेजके रूपमें आनेकी संभावना हो रही है। ___ महाशयो ! मेरे अंदर भी इस बातका बीज उस वक्तका बोया हुआ धीरे धीरे अंकुरके रूपमें प्रकट हुआ आपको नजर आता होगा । परंतु वह सद्गुरूका बोया हुआ बीज सफल तब ही माना जायगा, जब सरस्वती मंदिर बन कर उसमेंसे देव-देववाणीके रक्षक सरस्वतीपुत्र उत्पन्न होंगे । मुझे कहनेका अधिकार नहीं, मगर रहा भी नहीं जाता, जितना आप लोगोंका लक्ष्मीके प्रति प्रेम है यदि थोडासा भी सरस्वतीके प्रति होवे तो आपका उभय लोकमें भला होवे। परंतु अफसोस ! आपने एकको जितना मान दिया है उतना ही बल्के उससे भी अधिक दूसरीका अपमान कर रक्खा है । लोक | Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) में भी नूतन प्रेमपाशबद्ध होकर पुरातन स्त्रीका अपमान करते हैं। परंतु राज्यभयसे, लोकापवाद भयसे या ज्ञातिबंधनके भैयसे उसका निर्वाह तो उसे अवश्य ही करना पड़ता है । अफसोस सरस्वतीका इतना भी निर्वाह नजर नहीं आता । मैं सत्य कहता हूँ ! आप लोगोंकी जो बिगड़ी हुई दशा दिखलाई या सुनाई देती है, उसे आपके किये अपमानसे कुपित हुई सती सरस्वतीके शापका ही प्रभाव समझना चाहिए । इस लिए उसको मनाओगे तब ही आपका सौभाग्य बढ़ेगा। गुजराती भाइयोंकी आशा छोड़ दो। महानुभावो! मुझे सहर्ष कहना पड़ता है कि आप सब क्या गुजराती, क्या मारवाड़ी, क्या पूर्वी क्या पंजाबी इसी मारवाड़ भूमिके पुत्र हैं। सौभाग्यवश आप सब क्या ओसवाल, क्या श्रीमाल, क्या पोरवाल अपनी मातृ भूमिमें उपस्थित हुए हैं । आप सबको मिलकर मातृभूमिका उद्धार करना होगा । जब आपकी मातृभूमिका उद्धार होगा याद रखना आपका, आपके धर्मका, प्रभु वीर भगवानके शासनका तभी उद्धार होगा । जिनमें गुजराती भाई तो इस भूमिसे बिल्कुल निर्मोही हो चुके हैं। इन्होंने अपना खानपान, पहेरवेश, बोलचाल, रीतिरिवाज, रंगढंग सब ही प्रायः बदल लिया है। इससे इनकी आशापर रहना तो मुझे ठीक नहीं मालूम देता। __ यहाँ तक जिन्होंने जवाब दे दिया कि, कभी हमारे पर मारवाड़ी भाई हक न जमा लेवें, अपना गोत तक भुला दिया। आप यूँ न समझें कि, महाराज मारवाड़में हैं इस लिए मारवाड़ियोंको अच्छा Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) लगानेके लिए गुजराती भाइयोंकी तरफ कड़ी नजर से देखा जाता है । नहीं, नहीं, मेरा जन्म बड़ोदा - गुजरातमें है और मेरी दीक्षा आपके सामने बैठे हुए नवमी कॉन्फरन्सके माजी प्रमुख सेठ मोतीलाल मूलजीके शहर राधनपुर में हुई है । मेरी दोनों ही अवस्थाकी मातृभूमि गुजरात है । मुझे गुजरातकी भूमिका मान है । परंतु मैं जिस आशयसे कह रहा हूँ उस पर लक्ष्य दिया जायगा तो मेरा कहना आपको अवश्य न्याय संपन्न दिखलाई देगा । जितने पुराने बड़े बड़े भव्य राणकपुरजी सरीखे मंदिर मरुभूमिमें दिखाई देते हैं, गुजरात में नहीं दिखाई देंगे । गुजरातमें जाकर इन अपूर्व मंदिरोंके लिए गुजराती भाइयोंने कितना द्रव्य भेजा ? हाँ गुजरातमें प्रकट होते नये नये तीर्थोंके लिए मारवाड़ी भाइयोंसे द्रव्य लिया तो जरूर होगा । इस हालतमें बतलाइए गुजरातकी आशा पर बैठ रहना ठीक है ? कदापि नहीं । रहा पूर्व और पंजाब । सो उधर तो इतनी वस्ती ही नहीं । वे अपना काम आप ही निभा लेवें तो गनीमत है । बस तेलीके बैलकी :: तरह इधर उधर घूमघाम कर फिर मारवाड़ी भाइयों पर ही दृष्टि आ ठहरती है। इसमें शक नहीं कि मारवाड़ी व्यापारी हैं, धनाढ्य हैं, श्रद्धालु हैं, परंतु विद्याके अभावसे विवेकका वियोग हो जाने से हठीले ज्यादा नजर आते हैं । जिस बातको पकड़ लेते हैं छोड़ते... नहीं । यद्यपि यह बड़ा भारी अवगुण है, परन्तु मेरे लिए, नहीं, नहीं आप सबके लिए, वीर प्रभुके शासनके लिए वह गुणरूप होता नजर आता है । आप समझ लेंवे, इस वक्त जिस कामके लिए मारवाड़ी भाइयोंने हाथ लंबाया है, हठ पकड़ लिया तो बस जयजयकार समाजका उद्धार हुआ ही पड़ा है । इसमें शक नहीं । Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) महाजन डाकू मत बनो। आप सुनकर खुश होंगे मारवाड़ी भाइयोंने श्रीमानंद जैनविद्यालय गोड़वाड़ स्थापन करनेका निश्चय कर लिया है। जिसके लिये चंदा फंड जारी है। करीब दो ढाई लाखकी रकम लिखि गई है। मैं उम्मीद करता हूँ इसी तरह इनका उत्साह जारी रहा तो यह रकम दश लाख तक पहुँच सकती है और जैन कॉलेजका उद्देश बहुत ही जल्दी पूरा हो सकता है। देखना चाहिए अब मारवाड़ी भाई मुझे कितना सच्चा बनाते हैं। हुंडी तो लिखी गई है अब सिकरनेकी देरी है। यदि सिकर गई तो वाह ! वाह ! वरना समझा जावेगा बाहिरसे हमें मीणे-डाकुओंने लूटा और अंदरसे महाजनडाकूओंने लूटा। ___महाशयो ! समय अधिक होता जाता है। मेरा कथन कहीं कहीं आपको चुभता भी होगा; परंतु आप जानते हैं, मातापिताका दिल जब दुखता है तब कटु औषध ही पुत्रको पिलाते हैं। मेरा दिल अंदरसे दुखता है तभी आपकी, समाजकी दुर्दशाको सुधारके लिए इतना कहता हूँ। यदि आप इसको हितबुद्धिसे, गुरुबुद्धिसे निःस्वार्थ हमारे भलेके लिए ही कहते हैं, इस आशयसे स्वीकारेंगे तो आपका, आपके बालबच्चोंका, आपके समाजका हित होगा, और यदि उल्टा समझेंगे तो आपका ही अहित है। परंतु मुझे तो उपकार दृष्टिसे, हितबुद्धिसे, अनुगृह बुद्धिसे, कहनेमें एकांत हित ही हित है। वीतरागकी दुकानके सच्चे मुनीम ।। महानुभावो! तीर्थंकर भगवान वीतराग देवकी दुकानके सच्चे Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) मुनीम-जो साधु मुनिराज कहाते हैं यदि किसी किस्मकी बेईमानी न करें तो हानिका तो काम ही नहीं बल्के, वृद्धि पाते पाते परमात्मा स्वरूप खुद परमात्मा बन सकते हैं। दुकान मौजूद है, सौदा मौजूद है। मुनीम होशियार होना चाहिए । यदि मुनीम सच्चाईसे काम करता रहेगा, दिन दिन बढ़ती ही होगी । यदि कोई बेईमानी की तो वह काँदेकी वासकी तरह जाहिर हुए विना न रहेगी। आखिरमें उस बेईमान मुनीमका दिवाला निकल जायगा । मुँह काला हो जायगा । इस लिए वीतरागकी दुकानमें वीतराग बनने बनानेका ही सौदा होना चाहिए। जहाँ वीतराग बनने बनानेके सौदेके सिवाय-रागद्वेषकी परिणतिकी कमी-हानिके सिवाय-अन्य कोई सौदा रागद्वेष, ईर्षी, ममता, माया अहंकार आदिकी वृद्धिका नजर आता है वह वीतरागकी दुकान नहीं, वह वीतरागकी दुकानका मुनीम नहीं, वह ज्ञान नहीं, वह ज्ञानी नहीं, वह समझ नहीं, वह समझवाला नहीं। भगवान हरिभद्रसूरि महाराज फरमाते हैं। तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिनुदिते विभाति रागगणाः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकर किरनाग्रतः स्थातुम् ॥ १॥ भावार्थ इसका यह है कि, वह ज्ञान नहीं है जिस ज्ञानके होने पर रागादिका समूह दिखाई दे। अंधेरेमे सूर्यकिरणोंके आगे खड़े रहनेकी शक्ति कहाँ हैं ? कर्तव्यपरायण होना चाहिए। महाशयो!ज्ञानका फल वैराग्य होना चाहिए। इस लिए ज्ञान, पांडित्य, समझ, इल्म तभी सफल माना जाता है, जब उसके स्वामी सदाचारी Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) चारित्रपात्र, और गुणग्राही हों । तभी वे प्रतिष्ठा पात्र उच्चपद सद्तिके अधिकारी हो सकते हैं । अन्यथा वे जगतमें ज्ञानी, पंडित, इल्मदार भले कहावें, परन्तु इतने मात्रसे उनका परलोक कभी न सुधरेगा । चतुर्दश पूर्वधारी भगवान भद्रबाहू स्वामी फरमाते हैं। जहा खरो चंदन भारवाही भारस्स भागी न तु चंदनस्स। एवं खु नाणी चरणेन हीणो, नाणस्स भागीन हु सोमाईए॥१॥ इसका मतलब यह है कि जैसा चंदनका बोझा उठानेवाला गधाभारका ही भागी है, चंदनकी खुशबका नहीं ऐसे ही ज्ञानी-पंडित ज्ञान-पांडित्यकाही भागी है, परंतु वह निर्विवेकी, सदाचार चारित्रसे हीन-रहित होनेसे सद्गतिका भागी नहीं होता । जो पढ़े लिखे हैं पर चारित्र सदाचारमें तत्पर नहीं, कर्तव्य परायण नहीं वे पढ़े लिखे मुर्ख ( पंडित मूर्ख) हैं। वे (Gramophone ) ग्रामोफोनकी चूड़ीके समान हैं। जैसे गायनका असर चूडीपर नहीं होता पर जब वह गाती है तब दूसरोंपर असर जरूर होता है। ठीक इसी तरह वे चेतन परमात्माके स्वरूपका दावा करनेवाले हैं। बेशक आत्मामें अनंत शक्ति है। यही आत्मा परमात्मा होता है पर वह शक्ति प्रगट होगी तब । जब तक ऐसा न होगा तब तक वह ज्ञानी पंडित, इल्मदार मुनीम, कहानेवाले भी अन्य प्राणियोंके समान संसारमें ही इधर उधर भटका करेंगे। आत्मा ही परमात्मा है। हे वीर पुत्रो ! यदि न्यायसे देखा जाय तो कर्मयुक्त जीव संसारी कहा जाता है । कर्ममुक्त शिवसिद्ध परमात्मा कहा जाता है । बस । Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) सिद्ध हुए हम ही अनंत शक्तिवाले हैं, हम ही परमात्म स्वरूप हैं । केवल कर्मके कारण ही हमारी तुम्हारी अनंत शक्ति ढकी हुई है। कैसी दुर्दशा है ? दिल भर आता है। बहुत उपदेश देने पर भी कुछ असर न होनेका कारण मेरे खयालमें एक यही है । निर्विवेक ! विवेकरूप शक्तिका विकास होनेके बदले संकोच हो रहा है, जिससे कोई भी सत्योपदेश अवश्य करणीय रूपमें ठहरता ही नहीं है और इसीसे जैन समाजकी दुर्दशा हो रही है। अपनी वर्तमान दशा और अपने पूर्वजोंकी दशाका मीलान करनेपर मालूम होगा कि अपने पूर्वज क्या थे और हम क्या हो गये हैं ? और यदि अब भी न चेते तो क्या हो जायगे ? परंतु यह दशा विद्यारूपी दर्पणके बिना नजर न आयगी । बिना दर्पणके मस्तकका दाग नहीं दिखता और बिना देखे मिटाओगे ही क्या ? इसी लिए अब तो सबसे पहिले विद्यारूपी दर्पणको तैयार करनेका उद्यम करना जरूरी है। संप और उदारताकी आवश्यकता । __ प्यारे जैन बंधुओ ! उक्त दर्पणके लिए आपको संप और उदारताकी जरूरत है। आप खयाल करें ६ और ३ ये दोनों अंक एक सरीखे हैं । परन्तु जब ये दोनों एक दूसरेके सामने मुख करते हैं तब ६३ हो जाते हैं और जब विमुख हो जाते हैं तब ३६:ही रह जाते हैं अर्थात् उनकी कीमत घट जाती है। इसी तरह एक १ जब अकेला होता है तब कोरा एक ही है, पर जब एक १ और आ मिलता है तब ११ हो जाते हैं । इससे एकताकी बड़ी जरूरत है. । खेलमें बादशाह, रानी सब साथ होते हैं पर इक्केके आगे सब झक मारते हैं। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) इससे भी समझा जाता है कि एका बड़ी चीज़ है । आप सब इक्के हो कर आपसमें मिलजुल जो कुछ करना चाहोगे बड़ी सुगमताके साथ कर सकोगे। संप तो क्या अमीर क्या गरीब सबका चाहिए। परंतु उदारता तो केवल अमीरोंकी ही होनी चाहिए। दाता और कृपण ये दो नाम धनाढ्यके लिए ही बख्शिश हैं। गरीबोंका इन पर कोई दावा नहीं । दुनिया में गरीबको न कोई दाता कहता है न कंजूस ही । धनवान अमीर होकर दान करे तो दाता कहाता है । यदि जमा ही करता रहे दान करे ही नहीं तो वह कंजस कहाता है। मतलब; ये दोनों पदवियाँ अमीरोंके लिए रजिस्टर्ड हो चुकी हैं। अब दोनों से आपको जो रुचे सो स्वीकार करें । आपका-अमीर वर्गका अख्तियार है। परंतु यह याद रखना कि, दाताका नाम प्रातःकालमें लोग खुशीसे लेते हैं और कंजसका नाम लेना तो दूर रहा कभी भूलसे लिया जाय या सुनाई दे तो उसके नाम पर सब यूँकते हैं और कहते हैं हाय हाय किस पापी कंजूसका नाम लिया । बस अमीर बने हो तो अपने नाम पर थुकाओ मत । उदार बनो । लक्ष्मीको भेजकर सरस्वतीको आमंत्रण दो । सरस्वतीके बिना घरमें अज्ञानांधकार है । अंधकारमें रहना लक्ष्मी पसंद नहीं करती । वह सदा शाप दिया करती है, कि हाय मैं किस अँधेरे कैदखानेमें आई ! वह मौका ही देखा करती है कि, मैं किधरसे भागू ? याद रखना ऐसी हालतमें यदि वह रूठकर भाग गई तो फिर इस भवमें तो क्या कई जन्मोंमें भी तुम्हारे पास नहीं फटकेगी । इस लिए यदि लक्ष्मीको प्रसन्न रखना चाहते हो तो ज्ञानरूपी सर्यकी Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) किरणोंको घरमें आने दो । ज्ञान प्रकाशके आते ही लक्ष्मी प्रसन्न हो आपका घर कभी न छोड़ेगी। पाठशाला-विद्यालय-स्कूल-कॉलेजसे फायदा । सज्जनो ! थोड़ी समझवाले महाशयोंका यह कहना होता है कि जिनको पढ़ना पढ़ाना होगा आप ही अपना उद्यम कर लेंगे । समाजके पैसोंसे पाठशाला-विद्यालय-स्कूल-कॉलेज बनवानेकी क्या जरूरत है ? अंग्रेजी पढ़ जायँगे तो उल्टे श्रद्धाहीन नास्तिक हो जायेंगे। बेशक मुझे कहना होगा, कि किसी अंशमें उनका कहना या मानना ठीक है; परंतु उसमें भूल किसकी है? इस बातका खयाल उन महाशयोंको नहीं आया है । यदि अंग्रेजी विद्यामें ऐसी शक्ति है तो मेरे सामने बैठे हुए श्रीश्वेतांबर जैन कॉन्फरन्सके पिता गुलाबचंदजी ढढ्ढा एम. ए. और श्रीमहावीर जैन विद्यालयके ऑनरेरी सेक्रेटरी मोतचिंद कापड़िया सॉलिसिटरको उसका असर क्यों न हुआ ? ___ आपको मानना ही होगा कि, इनको बचपनमें धर्मका शिक्षण मिला है। बस यही उद्देश पाठशाला आदि जारी करनेका है । लोग अपने मतलबके लिए सांसारिक शिक्षण तो देते और लेते हैं; परंतु धार्मिक शिक्षणका वहाँ कोई प्रबंध नहीं। ऐसी हालतमें अंग्रेजी पढे लिखोंमें यदि श्रद्धाका ह्रास या अभाव हो जाय तो कोई आश्चर्य नहीं, इसी वास्ते उनकी श्रद्धा बनी रहे और वे अपनी समाजकी उन्नतिको चाहें इसके लिए ही धार्मिक शिक्षणके प्रबंधकी अत्यावश्यकता है। राज्यभाषा न सीखे और अकेला ही धार्मिक शिक्षण ले यह तो होना ही असाध्य है । एक साधु भी यदि राज्य भाषा जानता Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) हो तो बहुत काम कर सकता है । तो गृहस्थ जिसे व्यापारादिसे अपना निर्वाह करना है उसका तो कहना ही क्या? इस लिए धार्मिक शिक्षण वे खुशीसे लें। और साथ साथ व्यावहारिक शिक्षण भी उन्हें देना जरूरी है। जिसके लालचसे वे धार्मिक अभ्यास करें। आप सबको इस बातका पूरा अनुभव है। जिस रोज उपाश्रयमें पतासे या श्रीफलकी प्रभावना होती हैं कहीं उपाश्रयमें जगह भी नहीं मिलती । आपके सामने ये श्रीमहावीर जैन विद्यालयके विद्यार्थी बैठे हैं । विद्यालयमें दाखिल हुए उस समय जैन किस चिडियाका नाम है इतना भी इनको ज्ञात न होगा। परंतु इस वक्त धार्मिक अभ्याससे और प्रखर पंडित व्रजलालजीके सहवाससे इनमें एक नया ही जीवन आया दिखाई देता है कि, जिससे यह जैन समाजकी जाहोजलाली-उन्नति देखनेको उत्सुक हो रहे हैं। यह सब प्रताप अपने स्वतंत्र प्रबंधका है । इस लिए महाशयो ! यदि अपने समाजकी उन्नति चाहते हो तो अपनी स्वतंत्र पाठशाला आदि अवश्य होने चाहिए, जिसमें अपनी इच्छानुसार धार्मिक शिक्षाका प्रबंध हो सके । महानुभावो ! समय अधिक हो गया। मैं बोलते थक गया। आप सुनते नहीं थके होंगे तो बैठे तो थक ही गये होंगे । आखिरमें गवैया प्राणसुखका गाया हुआ पद आपको याद दिलाता हूँ। मेरे बोलनेके प्रवाहमें कहीं त्रुटि रह गई हो, कहीं असंबद्ध या अनुचित बोला गया हो तो उसकी बाबत मिच्छामि दुक्कडं देता हुआ मैं अपने वक्तव्यको यहीं समाप्त करता हूँ। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९) आत्मानंद जयंती। [ यह व्याख्यान आपने सं १९७१ के ज्येष्ठ सुदी ( को आत्मानंदजयन्तीके समय लालबागमें दिया था ।] महाशयो ! यद्यपि आजका दिन जयन्तीका है तथापि मैं इसको खुशीका दिन नहीं समझता; अफसोसका दिन समझता हूँ। मनुष्यको दुःख उसी समय होता है जब किसी ऐसे मनुष्यका वियोग होता है जिसके कारण उसका लाभ होता है, अथवा यूँ कहिए कि उसी मृत मनुष्यके लिए लोग शोक करते हैं जिसके कारण उनका कोई मतलब बिगड़ता है; उनका कोई स्वार्थ नष्ट हो जाता है। इस स्वार्थी दुनियामें कोई तबतक दुःख नहीं करता जबतक उसके स्वार्थमें व्याघात नहीं पहुँचता। सज्जनो ! आप कहेंगे कि, साधुओंको शोक करनेकी क्या आवश्यकता है ? मैं कहूँगा शोक शोकमें भी भेद होता है। एक प्रशस्त होता है और दूसरा अप्रशस्त । अपने निजी नुकसानके कारण जो शोक किया जाता है वह स्वार्थपूर्ण, और मोहगर्भित अप्रशस्त शोक है । मगर जब एक मनुष्य यह विचार कर शोक करता है कि एक उपकारी महात्मा उठ गये हैं उनकी जगहको अब कौन पूरेगा ? तब उसका शोक निःस्वार्थ और भक्ति पूर्ण प्रशस्त शोक कहलाता है । मैं जिस शोककी बात कहता हूँ, वह अप्रशस्त नहीं प्रशस्त है । अप्रशस्त शोक कर्म बंधनका कारण होता है और प्रशस्त शोक कर्म निर्जराका। .. Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) शासन नायक चरम तीर्थंकर भगवान श्रीमहावीर स्वामीके निर्वाणके समय गौतम स्वामीने जो विषाद किया था, उसका कारण उनका कोई निजी स्वार्थ न था । वह स्वार्थरहित और भक्तिगर्भित था । जिसका फल उत्तरोत्तर सारे कर्मोंको क्षय करनेवाला और मोक्षदायी हुआ । शास्त्रकारोंका कथन है कि, अहंकारोपि बोधाय, रागोपि गुरुभक्तये । विषादः केवलायाभूत्, चित्रं श्रीगौतमप्रभो ॥ सज्जनो ! हमें भी यहाँ इसी प्रकारका शोक प्रदर्शित करना है। जिन महापुरुष के गुणका अनुकरण करके शोक प्रदर्शित किया जाय, उन महापुरुषके गुणोंका जरासा भी अनुकरण न किया जाय तो मैं कहूँगा कि, फोनोग्राफ में और हममें कोई भी अंतर नहीं है । हाँ फोनोग्राफ जड़ है और हम चेतन हैं; अन्यथा फोनोग्राफ में भरी हुई कोई भी चीज जैसे प्रगट हो जाती है वैसे ही हमारे अंदर भरी हुई चीज भी मुँहके द्वारा - भाषणके रूपमें प्रकट हो जाती हैं; मगर उसका अनुकरण और उसपर अमल न करनेसे फोनोग्राफसे जुदा हो, उससे उच्च होनेका अभिमान नहीं कर सकते हैं । इस लिए हमें चाहिए कि हम फोनोग्राफ न बन कर्तव्य कर, उससे भिन्न हो, अपनी चैतन्य शक्तिको इसी प्रकार विकसित करें जिस प्रकार कि ऊपर गौतम स्वामीके उदाहरणमें वर्णन की गई है । सज्जनो ! हमें अब यह विचारना है कि, हम जिन पूज्य प्रातःस्मरणीय स्वर्गीय श्रीमद्विजयानंद सूरि महात्माकी जयन्ती मनानेके लिए आज एकत्रित हुए हैं उनका किस तरह अनुकरण करनेसे 感 Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) हमारा शोक मनाना सफल हो सकता है। सच कहा जाय तो जयन्तीका उद्देश यही है, केवल बाहरी धूम धाम करनेका नहीं। धूम धाम तो केवल लोगोंके दिलोंको आकर्षित करनेके लिए की जाती है । सभामेंसे एक भाईने अफसोस जाहिर किया है । कुछ अंशोंमें उसका ऐसा करना ठीक भी है, तो भी बम्बईकी जैनोंकी बस्तीके प्रमाणमें और लालबाग स्थलके प्रमाणमें जितने लोग जमा हुए हैं उन्हें देखकर मुझे तो क्या हरेकको प्रसन्नता हुए बिना न रहेगी। मेरा अनुमान है कि, पर्युषणों के या किसी खास बड़े पर्वके दिनके सिवा कभी इतने मनुष्य शायद ही जमा होते हों । हाँ लड्डू और दूधपाक पूरीवाले दिनकी बात जुदा है । ( हास्य ) ___ महानुभावो ! इस शुभ कामके लिए आपने अपना अमूल्य समय खर्च किया है यह वास्तवमें प्रशंसनीय है । मगर यदि सच कहा जाय तो तुमने जो कुछ किया है या करोगे वह तुम्हारे हितहोके लिए है। इसमें तुमने किसी पर अहसान नहीं किया है । अगर इसी तरह थोड़ेमेंसे भी थोड़ा समय निरंतर निकाल कर धर्ममें बिता ओगे तो तुम्हारे आत्माका उद्धार होगा । अन्यथा अगर फुर्सत फुर्सत ही पुकारते रहोगे तो जब तक दम है तब तक फुर्सत न मिलेगी और जब दम निकल जायगा तब तुम्हें कोई यह न पूछेगा कि, तुम्हें फुर्सत है ? ( हास्य) प्रसंगवश मुझे कहने दीजिए कि, माँडवी स्कूल विद्यार्थी मंडलके मैनेमरकी महनतसे विद्यार्थी मंडलने जो काम किया है उसे आप खुद देख चुके हैं। वह स्तुतिके पात्र है । साथ ही अफ्सो Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) सके साथ कहना पड़ता है कि, हमें जिस सभ्यताको धारण करना चाहिए उस सभ्यताकी हमें जरासी भी खबर नहीं है। पाँच दस हजार आदमी जमा हों तो भी शान्तिसे सभी सुन सकें, हमें ऐसी शान्ति रखनी चाहिए उसकी जगह गड़बड़ करके न स्वयं सुनना न दूसरे को सुनने देना; क्या यह हमें शोभा देता है ? मैं जानता हूँ कि दुनियाका ढंग जुदा है ? 'सत्य मिरची झूठ गुड' झूठी बातें गुडके समान मीठी लगती हैं; परन्तु सच्चीबातें मिरचीके समान तीखी लगती हैं। सिरसे पैर तक झाल फूट उठती है। ___ हम जिन महात्माकी जयन्ती मनानेके लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं उन महात्मामें इससे उल्टा गुण था । वे 'झूठ मिरची सत्य गुड' इस सिद्धान्तको माननेवाले थे। इसी लिए आज जैसे अमुक, अमुक सेठके गुरु और अमुक, अमुक सेठके गुरु कहलाते हैं वैसे ही वे अमुक सेठके गुरु नहीं कहलाते थे। कारण वे सेठियोंके कथनानुसार चलना पसंद नहीं करते थे; वे जानते थे कि उनकी गुरुता कैसे रह सकती है। वे सेठ ही क्या हरेक श्रावकको धर्मोपदेश द्वारा अपने हुक्ममें चला सकते थे । वे भली प्रकार समझते थे कि, साधु और श्रावकोंके आपसमें धर्मके सिवा दूसरा कोई संबंध नहीं है, इसी लिए उन्हें किसीकी परवाह रखनेकी आवश्यकता न थी । आज तो ऐसी दशा हो रही है कि सेठका कहना गुरुको मानना ही चाहिए; सेठ चाहे गुरुका कहना माने या न माने । इसका मतलब सेठ गुरु होता है या गुरु गुरु होता है सो तुम खुद सोच लेना । ( हास्य ) सज्जनो ! स्वर्गीय महात्मामें किस तरहकी बेपरवाही थी और : Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) कितना साहस था इस बातका मैं तुम्हें दिग्दर्शन कराऊँगा । 'पं० हंसराजजीने जिस अज्ञान तिमिर भास्करकी बात कही है, वह जब छपवानेके लिए प्रेसमें दिया जानेवाला था तब कई लोगोंने कहा:--" महाराज ! आप साधु हैं। आप कानून नहीं जानते । इसके छपनेसे ' मानहानि का केस दायर होनेकी संभावना है।" ___महाराजने फर्मायाः--" भाई हम साधु हैं । हम धन नहीं रखते इसी लिए तुम्हें पुस्तक छपानेके लिए सूचना देनी पड़ती है । तुम्हारे हितके लिए तुम धन खर्चा या न खर्चों यह तुम्हारी इच्छा है; अन्यथा इसमें मानहानि जैसी कोई बात नहीं है और यदि होगा तो उससे तुम्हें कोई हानि नहीं होगी । पुस्तक बनानेवाला में मौजूद हूँ। जिसको मानहानिका केस करना होगा वह मुझपर करेगा । तुम निश्चिन्त रहो; बेफिक्र रहो । अंग्रेज सरकारका राज्य है । जब ऐसे न्यायी राज्यमें भी हम अपने धर्मपर आक्रमण करनेवालोंको, शास्त्रानुसार जवाब दे, अपने धर्मकी रक्षा करनेके न्याय्य हकका उपयोग न किया जायगा तो कब किया जायगा ?" __ आहा ! कितनी धर्मकी लगन ! कैसी हिम्मत ! बेशक दुनियामें - साहसी मनुष्य कभी अपने निश्चित विचारोंको दूसरोंके कहनेसे, या भय दिखानेसे नहीं छोड़ता । वह तो उन्हें पूरा ही करता है। मैं तुम्हें गये बरस स्वर्गीय पूज्य महात्माका चरित्र सुना चुका हूँ उससे विशेष मैं कुछ न कहूँगा; मगर मैं इस बार यह बात विषद रूपसे बताऊँगा कि वे कैसे साहसी, ज्ञानवान, गंभीर, निरभिमानी, निर्भय और स्पष्टवक्ता थे ? जवान तो कब का धर्मकी बात विचा Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) महाशयो ! स्वर्गीय महात्मा कैसे ज्ञानवान थे, इस विषयमें कई वक्ता कह चुके हैं। उनके कथनसे तुम्हें उनके ज्ञानका अंदाजा हो गया है । मैं जो कुछ कहता हूँ उस पर ध्यान दोगे तो उनके ज्ञानके विषयमें पूर्णरूपसे जान सकोगे। __ श्री १०८ श्री बुद्धिविजयजी ( बूटेरायजी ) महाराजके पाँच शिष्य थे । श्री मुक्तिविजयजी ( मूलचंदजी ) महाराज, श्री वृद्धिविजयजी (वृद्धिचंदजी) महाराज श्रीनीतिविजयजी महाराज, श्रीखांतिविजयजी महाराज और पांचवें स्वर्गीय महाराज कि, जिनकी जयन्ती मनानेका आज हम लाभ उठा रहे हैं। पाँचवें महाराजकी अपेक्षा श्रीमूलचंदजी महाराज प्रायः गुजरातमें विशेष प्रसिद्ध हैं और श्रीवृद्धिचंद्रजी महाराजको काठियावाड़में लोग विशेष जानते हैं। श्रीनीतिविजयजी महाराज और श्रीखांतिविजयजी महाराजको भी काठियावाड़ी ही प्रायः जानते हैं। खांतिविजयजी महाराज काठियावाड़में कई स्थानोंमें दादा खांतिविजयजी तपस्वीके नामसे प्रसिद्ध हैं । मगर पाँचवें महात्मा तो गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, मारवाड़, मालवा, मेवाड़, पंजाब आदि सारे हिन्दुस्थानमें प्रसिद्ध हैं। इतना ही नहीं विदेशोंमें-विलायतमें भी लोग उन्हें जानते हैं। . इसका कारण क्या है ? इसका कारण यही है कि, इस सदीमें इनको जितना ज्ञान था उतना किसीको नहीं था । इस बातको सभी जानते हैं। जिनमें जितना पानी होता है उतनी ही उनकी दूर देशोंमें कीमत होती है । मोतीमें पानी होता है, इसी लिए उसकी कीमत होती है। जिसमें जितना पानी उतनी ही उसकी कीमत । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) - अहमदाबादमें शान्तिसागरको जवाब देनेमें ये महात्मा ! तीन थुईवालोंको जवाब देनेके लिए ये महात्मा ! स्थानकवासियोंको, सम्यक्त्वसार नामक पुस्तकका उत्तर देनेके लिए ये महात्मा ! दयानंद सरस्वतीके, जैनधर्म पर किये गये आक्षेपोंका उत्तर देनेके लिए ये ही महात्मा ! और वैदिक धर्मवालोंको जवाब देनेके लिए भी ये ही महात्मा ! कितनी विद्वत्ता ! कितना प्रताप ! (धन्य ! धन्य ! की ध्वनि !) __ सज्जनो ! स्वर्गीय महाराजके ज्ञान गुणसे मुग्ध होकर ही, श्रीसंघने पालीतानेमें उन्हें, उनकी इच्छा न होते हुए भी, आचार्य पदवी दी थी। इस विषयमें भरूचके सेठ अनूपचंदनी अपनी पुस्तक प्रश्नोत्तर चिन्तामणिमें अच्छा प्रकाश डाल गये हैं । मुझे कहने दीजिए कि, उस जमानेमें बड़े भाग्यसे लोगोंको एक आचार्य मिले थे । प्रसन्नताकी बात है कि, भाग्यवश जैनोंमें आज पाँच छः आचार्य विद्यमान हैं। आचार्य श्रीविजयकमल सरि, आचार्य श्रीविजयनेमि सूरि, आचार्य श्रीभ्रातृचंद्र सूरि, शास्त्रविशारद श्रीविजयधर्म सूरि, शास्त्रविशारद, योग्यनिष्ठ श्रीबुद्धिसागरसूरि, शास्त्र विशारद श्रीकृपाचंद्र सूरि । स्वर्गीय एक ही आचार्य महाराजने अपने समयमें अनेक प्रकारसे जैनधर्मकी उन्नतिके कार्य कर जैनोंको उपकृत किया है। इसी तरह वर्तमानके आचार्य महाराज भी यथाशक्ति अपनेसे. हो सके उतने धर्मकी उन्नतिके कार्य कर लोगोंका उपकार करें तो धर्मकी इतनी उन्नति हो कि, जिसका अंदाजा नहीं किया जा. सकता है। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) प्रसंगवश मुझे कहना पड़ता है, थोड़े दिन पहले रतलामके एक श्रावकका पत्र मुझे मिला है, उसमें लिखा है कि, यहाँ एक ब्रह्मचारी आये हुए हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर 'वेदमुनि कृत ब्रह्मभाष्य ' नामा भाष्य रचा है, जो निर्णय सागर प्रेसमें छपकर तैयार हो गया है । उसमें सप्तभंगी, स्याद्वाद, नवतत्व आदिका खंडन किया गया है और स्याद्वाद पर अडतालीस दोष लगाये गये हैं। उसका योग्य उत्तर देनेकी आवश्यकता है । यद्यपि, चाहे जैसा, उत्तर तो दिया जायगा; भगवानका शासन जयवंत है, कोई न कोई उत्तर जरूर देगा तथापि इसका योग्य उत्तर योग्य भाषामें वर्तमान आचार्यों से अथवा पन्यासों से कोई दे तो वह विशेष महत्व का हो । इस बातको सभी जानते हैं कि एक सामान्य व्यक्तिकी अपेक्षा किसी प्रतिष्ठित पदवीधरकी रचना विशेष प्रतिष्ठित होती है। सज्जनो ! अब मैं मरहमकी गंभीरताका कुछ परिचय कराऊँगा । हमें गंभीरताकी खास जरूरत है । मैं जानता हूँ कि समय बहुत ज्यादा हो चुका है। लोग ऊँचे नीचे होने लग रहे हैं । बार बार जेबोंमेंसे घड़ियाँ निकालकर देखी जा रही हैं । मगर इन घड़ियोंकी अपेक्षा अपने जीवनकी घड़ी देखोगे तो मालूम होगा कि, कितना समय हो गया है और कितना बाकी है। भाग्योदयसे यह शुभ प्रसंग हाथ आया है। इसे स्थिर चित्तसे सफल कर लेना चाहिए । जैसे सांसारिक कार्योंकी चिन्ता रहती है वैसे ही बल्के उससे भी अधिक धार्मिक कार्योंकी चिन्ता रखनी चाहिए । जब तम Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) अपने बाप दादोंकी द्रव्यरूपी पुँजीके मालिक बने हो, उसका बराबर हिसाब रखते हो और उसे बढ़ानेकी चिन्ता करते हो, तब उन्ही बापदादोंकी धार्मिक पूँजीको तुम लापरवाहीसे क्षीण होने देते हो यह कितने दुःखकी बात है। __संसारकी नश्वर पूँजीके लिये जितनी जहमत उठाई जाती है। जितना प्रयत्न किया जाता है उतना ही यदि परमार्थकी धार्मिक पूँजीके लिए-जो आत्माकी खास ऋद्धि है-प्रयत्न किया जाय तो यह आत्मा अत्यंत उच्च बन सकता है। हमेशा याद रखना चाहिए कि, दुनियामें सांसारिक उन्नतिका मूल कारण धार्मिक उन्नति ही है। मर्यादाके-धर्मके आदेशोंके अनुसार जो संसारमें वर्तता है वही संसारमें उन्नति कर सकता है। कोई बता सकता है कि मर्यादाहीन अनीतिमान मनुष्यने भी कभी उन्नति की है । कदापि नहीं । धार्मिक उन्नति आत्माके गुण, जैसे जैसे प्रकट किये जाते हैं वैसे ही वैसे आत्मिक उन्नति बढ़ती जाती है कि, जिससे अंतमें मोक्ष मिलता है। यहाँ मैं इतना कहूँगा कि, गुण प्रकट करनेके लिए अवलंबनकी आवश्यकता पड़ती है। इस लिए आत्मिक गुण प्रकट करनेकी इच्छा रखनेवालोंको, स्वर्गीय महात्माके समान महात्मा पुरुषोंका, आदर्शकी तरह, अवलंबन करना चाहिए । सच्चे अवलंबनका त्याग करनेहासे इस दुनियामें आजकल हम कितने पीछे पड़ गये. हैं ? यह बात विचारणीय है। कई कहते हैं कि, आजकल पंचमकाल है। मैं पूछता हूँ कि, पंचमकाल सबके लिए है या फकत जैनोंहीके लिए है। जो जैन, Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) एक दिन बड़े धनिक थे वे ही जैन आज गरीब व्याकुल दिखाई देते हैं और जो गरीब थे वे आज धनिक बन गये हैं। इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि जैन गुणियों या गुणोंका आलंबन छोड़, शिक्षाविहीन हो, पुरुषार्थ हीन बन गये हैं और अपनी निर्बलताको वे कलियुग या पंचम कालके बहाने तले छिपाते हैं। पंचम कालमें केवलज्ञान आदि अमुक शक्तियाँ ही विकसित नहीं होती हैं अन्यथा प्रत्येक शक्तिको मनुष्य अपने पुरुषार्थके अनुसार विकसित कर सकता है । विचार करोगे तो अंग्रेन, पारसी आदि इसका आदर्श तुम्हें मालूम होंगे । इस लिए पंचम कालके अपंग कारणको आगे कर अपने प्रमादको उचित बताना और अपनी जवाबदारीसे छूट जाना अनुचित है। हम आज जिन महात्माकी जयन्ती मना रहे हैं वे महात्मा पंचमकाल-कलियुग के थे या चतुर्थ काल-सत्ययुग-के थे ? हमको स्वीकार करना पड़ेगा कि, वे भी पंचमकालहीके थे । अन्तर इतना ही है कि, उन्होंने अपने बलको प्रस्फुटित किया था और हम नहीं करते। उनका जीवन धन्य हो गया और हमारा नहीं। ____ महानुभावो! स्वर्गीय आचार्य महाराजमें गंभीरता कैसी थी ? और उसके कारण वे अपने सामने आनेवाले उद्धतसे उद्धत मनुष्यको भी कैसे शान्त कर देते थे और कैसे उसके हृदय पर अपना प्रभाव जमा देते थे उसके एक दो उदाहरण मैं तुम्हें दूंगा। ___मालेरकोटलेमें एक मुल्लाँ सृष्टि-रचनाके संबंधमें प्रश्न करनेके लिए आचार्यश्रीके पास आया। चर्चा में वह बराबर उत्तर न दे सका, इस लिए, एक तो मुसलमान, फिर मुल्ला और मुसलमानी Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९) राज्य, मुल्लाजीका मिजाज गरम हो गया । सत्य है जूठा पड़े, कोई उत्तर न मिले तो क्रोध करके लड़नेके सिवा दूसरा क्या करे ? तो भी आचार्यश्रीने शान्त भावसे कहा:-" मुल्लाजी ! गुस्सा न करो । हम काफिर तो काफिर ही सही, मगर क्या एक बातका उत्तर दोगे ? " मु०-शौकसे । ___ आ०-हिन्दुओंका—जिनको आप काफिर बताते हैं-बनानेवाला कौन है ? अपने धर्मके अनुसार बताना हमारी मान्यताकी तरफ़ न देखना। मु०-इसमें कौनसी बात है ! जब कुल कायनात ( सृष्टि ) को बनानेवाला खुदा है तब हिन्दुओंको बनानेवाला भी खुदा ही है। __ आ०-अच्छा मुल्लाजी जरा सोचिए कि, जिन हिन्दुओंको तुम काफिर कहते हो उन हिन्दुओंको खुदाने क्यों बनाया ? क्या वह जानता नहीं था कि ये काफिर मुझसे खिलाफ ( विरुद्ध ) चलेंगे। मुल्लाजी शान्त हो गये और थोड़ी देरके बाद "फिर हाजिर होऊँगा" कह कर चले गये । बाहर जाकर लोगोंसे कहने लगे,-" बेशक ! इनके साथ मेरा मत नहीं मिलता; मगर यदि कोई सच्चा फकीर हो तो ऐसा ही हो; दुनियाकी परवाह नहीं, मकर-फरेब-दगाबाजीसे दूर; खुश मिजाज शान्त स्वभाववाला, गंभीर और सच्चा हो ।” - पहाशयो ! देखा आपने कि मुसलमान भी पीठ पीछे गुण गाने लगा । यह फल किसका है ? यह है गंभीरता और समझानेके उत्तम ढंगका। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) मुझे सखेद कहना पड़ता है कि, अनेक ऐसी प्रकृतिवाले होते हैं कि, अगर कोई कुछ पूछने आता है तो उसे अपने माने हुए शास्त्रोंके प्रमाण देकर मनानेका प्रयत्न करते हैं। अगर वह नहीं मानता है तो उसे तुम नास्तिक हो, तुम्हें धर्मपर श्रद्धा नहीं है आदि ऐसे कटु शब्दोंका पान कराते हैं कि, वह फिर कभी उनके पास नहीं आता । इतना ही नहीं वह जहाँ जाता है वहीं उनकी निंदा करता है । मगर उन महाशयोंको यह खयाल नहीं आता कि, अगर वह हमारे माने हुए शास्त्रोंके प्रमाणोंको स्वीकारताही होता तो वह इस तरह उल्टे सीधे हमसे प्रश्न क्यों करता ? और अपने समान शास्त्रोंपर श्रद्धा रखनेवालेको मना दिया तो इसमें बड़ी बात कौनसी हो गई ? सच्ची बड़ाई तो तब है जब श्रद्धाहीन भी समझानेसे और सहवाससे श्रद्धावान बन जाय । ऐसी शक्ति आचार्यश्रीमें थी। इसका उदाहरण मैं ऊपर दे चुका हूँ। वे लोग भी भली प्रकार जानते हैं जिन्हें उनके दर्शनोंका और व्याख्यान श्रवणका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ___ आचार्यश्रीमें ऐसी कला थी कि, वे सामनेवालेके मान्य शास्त्रोंके अनुसार ही उसे समझा देते थे और अपना सिद्धान्त उसके गले उतार देते थे । वे इस महामूत्रका हमेशा पालन करते थे कि,- सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात् सत्यमाप्रियं ।। (सत्य और प्रिय बोलो । अप्रिय सत्य न बोलो) उनके हृदयपटपर महावीर स्वामीके साथ जो संवाद हुआ था वह बराबर अंकित था। जब गौतमस्वामी भगवान महावीरके पास आये थे तब वे शिष्यकी | Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ : तरह न आये थे, वे वादीकी तरह, भगवान महावीरको, इन्द्रजालिया समझ, जीतनेके लिए आये थे । मगर महावीर स्वामीने उन्हें ऐसे मधुर शब्दों द्वारा संबोधन किया और उनके मान्य शास्त्रोद्वारा ही उन्हें समझाया कि, वे तत्काल ही समझ गये । क्या इस बातको हम जानते नहीं हैं ? जानते तो हैं, मगर उसका आशय समझनेमें फर्क रह जाता है। जैसे एकही कूएका पानी सारे बगीचेमें जाता है; मगर जैसा पौदा होता है वैसा ही उस पर पानीका असर होता है; बबूलके पौदेसे काँटोका वृक्ष होता है और आमके पौदेसे आमका वृक्ष । वैसे ही एकसी वाणी भी ग्राहक और पात्रके अनुसार परिणत होती है। महानुभावो ! स्वर्गीय महाराज साहबकी गंभीरताका एक दूसरा उदाहरण सुना, जो दो उद्देश बाकी रहे हैं उन्हें संक्षेपमें वर्णन कर, मैं अपना भाषण समाप्त करूँगा। ___ जीरे ( पंजाब ) में एक ईसाई आचार्यश्रीके पास आया और उद्धताके साथ बोला:-" तुम अहिंसा अहिंसा चिल्लाकर मांस खानेकी मनाई करते हो; मगर तुम खुद मांसाहारसे कहाँ बचे हुए हो ? " इस बातको सुन कर साधुओंके हृदयमें दुःख हुआ । श्रावकोंकी त्योरियाँ बदलीं । वे कुछ बोलना चाहते थे, इतनेहीमें आचार्यश्रीने उन्हें रोककर कहा:- भाई उतावले न बनो । गुस्सा न करो ! इसके कहनेसे हम मांसाहारी नहीं बन जाते। यह किस हेतुसे हमें ऐसी बात कह रहा है उस हेतुको समझ लें।" .. आचार्यश्रीकी इस बातको सुनकर आगत ईसाईको बड़ी शर्म आई । उसके दिलने कहा,- तूने बड़ा बुरा किया कि, ऐसे महा Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) त्माको कठोर शब्द कहे । अब क्या हो सकता है ? जो भाषा वर्गणा नकल गइ वह निकल ही गई। ___ आचार्यश्रीने पूछा:-" तुम कैसे कहते हो कि हम भी मांसाहारसे नहीं बच सकते हैं ? " ईसाईः-तुम दूध पीते हो या नहीं ? आचा०-पीते हैं। ई०-तो बस, दूध मांस और खूनसे ही बनता है । जब मास और खूनसे बना हुआ दूध पी लिया तो फिर बाकी रहा ही क्या ? मांस नहीं खाना और दूध पीना यह कहाँका न्याय है ?. .. ____ आ०-बेशक, दूधकी पैदाइश इसी तरह होती है। इसी लिए जैनमानते हैं कि व्याई हुई भैंसका पन्द्रह रोज, गायका दस दिन और भेड बकरी वगैरहका दूध आठ दिनतक नहीं पीना चाहिए। कारण उसके दूध रूपमें परिणमन होनेमें कसर रहती है । जब वह दूधके रूपमें परिणमन हो जाता है। तब जुदा ही पदार्थ बन जाता है। इस लिए इसमें कोई हानि नहीं समझी जाती है। यह कोई दलील नहीं है कि जिससे पदार्थ बनता है उसको भी पदार्थका खानेवाला जरूर खावे । अन्नके खेतसे गंदी चीजें डाली जाती हैं; ईख, खरबूजा वगैरहकी पैदाइश गंदगीकी खादसे ही होती है, तो कोई यह कहेगा कि अन्न खरबूजा आदि पदार्थोंको खानेवाला गंदगी भी जरूर खाय ? गंदगी खाकर पुष्ट बने हुए सूअरका मांस खानेवाला इंसाई क्या गंदगी भी खायगा ? सुनो, तुमने जिस तरहका सवाल किया है उसी तरहका जवाब भी तुम्हें मिलेगा । अगर Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ( १६३ ) तुम्हारे कथनको तुम ठीक समझते हो और यह कहने की हिम्मत कर सकते हो कि, अन्नादि खानेवाला ईसाई गंदगी भी खाता है तो हमें भी तुम अपनी अकलके अनुसार जैसा मुनासिब समझो मान लो । हमारा इसमें कोई नुकसान नहीं है । हम तो यहीं मानते हैं कि, अन्नादि गंदगी नहीं है । गंदगी जुदा पदार्थ है और अन्न जुदा पदार्थ है । इसी तरह लोहू मांस जुदा पदार्थ हैं और दूध जुदा पदार्थ है । इस लिए यह कभी सिद्ध नहीं हो सकता है कि, दूध पीने वाला मांसाहारी है । 0 ईसा - महाराज ! आपने तो मुझे बड़े चक्करमें डाल दिया । इसका जवाब और क्या हो सकता है कि, या तो मांस खानेवाला गंदगी खानेवाला बने या मांस खाना छोड़ दे । आचा० -- ( उसे ठंडा देखकर ) अगर तुम्हारा यह पक्का विश्वास है कि, जिसका दूध पीना उसका मांस भी खाना चाहिए तो बच्चा माताका दूध पीता है इस लिए उसे माताका मांस भी, तुम्हारी मान्यता के अनुसार, खाना चाहिए । ईसाई- अरे तोबा ! तोबा ! महाराज आप साधु हो कर क्या कहते हैं ? माता बच्चेको पालती है। बच्चेका फर्ज है कि, वह जितनी हो सके उतनी माताकी सेवा करे । वह उपकार करनेवाली है । उपकार करनेवाले पर अपकार करना महानीचताका काम है । आचा० - वाह ! जब तुम इतना जानते हो तब जान बूझकर उल्टे रस्ते क्यों चलते हो ? हम साधु हैं इसी लिए तो तुम्हारी भलाई के लिए तुम्हे सच्ची बात कह रहे हैं । केवल बचपनहीमें दूध पिलाने 1 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) 3 वाली माता जब उपकार करनेवाली है तब जन्म भर दूध, घीं खिलाकर पुष्ट रखनेवाले पशु क्या उपकारी नहीं हैं । माता तो थोड़े ही दिनतक दूध पिलाती है; मगर पशु तो जिन्दगी भर दूध पिलाते हैं। अगर उपकार करनेवाली माताकी सेवा करना उचित है तो फिर जन्मभर घी, दूध पिलाकर उपकार करनेवाले पशुओंकी भी सेवा करना चाहिए या उन्हें मार कर खा जाना चाहिए ? अगर इन्साफ कोई चीज है तो तुम खुद ही इस बातको भली. प्रकार समझ लोगे । ईसा० महाराज ! मैंने आपको तकलीफ दी क्षमा कीजिए, मगर आपके वचनसे मेरा मन बदल गया है । मैं सच्चे दिलसे कहता हूँ कि जहाँतक मेरा वश चलेगा मैं खुद तो मांस खाऊँगा ही नहीं दूसरों को भी खानेसे रोकूँगा । फिर वह नमस्कार कर चला गया । सज्जनो ! गंभीरता और मधुरताके फल आपने देखे । अब मैं आचार्यश्रीकी निरभिमानताका परिचय कराऊँगा । पंडित हंसराजजी बता चुके हैं कि, आचार्यश्री प्रतिष्ठा या मानके भूखे न थे। उसीको पुष्ट करते हुए मैं कहूँगा कि, उनको मानसे बिलकुल प्रेम न था । वे हमेशा सत्यस प्रेम करते थे । स्वयं अकेले न थे । उनके ओंका परिवार था । यदि वे अपने आप दीक्षित हो क्या कोई उन्हें बाहर निकाल देता ? मगर नहीं, उन्हें शास्त्रकी रीति पसंद थी । यदि उन्हें मनःकल्पित रीति ही रखनी होती तो वे ढूँढियापन ही क्यों छोड़ते ? अपने आप दीक्षित होना जैन शास साथ पन्द्रह साधु कर फिरते तो Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) नकी रीति नहीं है । इस लिए आचार्यश्रीने बाईस बरस तक ढूँढियापनमें बिताया था उतने समयमें जितने दीक्षित हुए जितनोंने सम्वेगदीक्षा ली थी उन सबको वंदना करना स्वीकार कर उन्होंने संवेग दीक्षा ली और जगतको अपनी निरभिमानताका प्रमाण दिया । उसका फल यह हुआ कि वे पहलेकी अपेक्षा अधिक आदर सत्कारके भागी हुए। इस बातको हमें हमेशा याद रखना चाहिए। वे कैसे निर्भय और विचारशील थे इस विषयमें श्रीयुत मोतीचंद कापडिया सॉलिसिटर कह चुके हैं। इसमें मैं थोड़ा और जोइँगा । आचार्यश्रीने जैन प्रश्नोत्तर ग्रंथमें लिखा है कि, जैनोंकी भिन्न भिन्न जातियोंके एकत्र होनेसे जैनोंकी उन्नति होगी। वह बात आज नहीं मगर कालांतरमें कुछ कालके बाद होती दिखाई देती है। उसे तुम खुद न करोगे; मगर जमाना धीरे धीरे जबर्दस्ती तुमसे करा लेगा। ____ महाशयो ! स्वर्गीय आचार्यश्रीके अनेक गुणोंका वर्णन किया गया है। उनका अपनेसे हो सके उतना अनुकरण कर जयन्ती मनानेके उत्साहको सफल करना चाहिए । एक क्षत्रिय वीरका वर्णन बगैर जोशके नहीं हो सकता । जोशमें यदि मुझसे कुछ अनुचित बोला गया हो तो, आपने उसकी उपेक्षा की है यह बतानेके लिए स्वर्गीय आचार्य महाराजके नामकी और शासननायक प्रभु श्रीमहावीर स्वामीके नामकी जय बोलें ! मैं अपना स्थान ग्रहण करता हूँ। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती। [ यह भाषण आपने चैत्र शुक्ला १३ सं० १९७४. ता०५४-१७ के दिन, बड़ोदेके जानी शेरीके उपाश्रयमें, महावीर जयन्तीके समय दिया था।] परम पूज्य प्रवर्तकजी महाराज, मुनिमंडल, सुश्रावक और श्राविकाओ! आजका प्रसंग ऐसा है कि, जिसकी सभाके लिए नवीन सभापति चुननेकी या प्रस्ताव करनेकी आवश्यता नहीं है । श्रमण भगवंत महावीर स्वामीकी तस्वीर प्रमुख स्थानपर विराजमान की गई है, वे ही सबके प्रमुख हैं और हम उनके गुणगान करनेके लिए एकत्रित हुए हैं । प्रतिष्ठित श्रीकान्तिविजयजी महाराज हम सबमें बड़े एवं गुणी हैं। उनकी हाजिरीमें और उनके सामने हम अपना काम चलाते हैं, इस लिए नवीन सभापति चुननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आज भगवान महावीरका जन्म दिन है। हम प्रति वर्ष जयन्ती मनाते हैं । पर्युषण पर्वमें भगवान महावीरका जन्म चरित्र बँचता है और भादवा सुदी १ के दिन उनके जन्म-वाँचनका उत्सव, सारा संघ, प्रत्येक स्थान पर, करता है; मगर वह दिन वास्तवमें जन्म दिन नहीं है । हममें जयन्ती मनानेका रिवाज नया नहीं है। तीर्थकरोंके च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल और मोक्ष ऐसे पाँच कल्याणक होते हैं। हरेक कल्याणकके दिन कल्याण महोत्सव करना चाहिए । वर्तमान चौबीसीमें कौनसे तीर्थकरका कौनसा कल्याणक किस दिन आता है ? यह बात बतानेवाला तख्ता मैंने आज सवेरे ही उपाश्रयमें देखा है। Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) पूज्यपाद हरिभद्र सूरि महाराजने आजसे १५०० वर्ष पहले ' यात्रा पंचाशक ' नामक ग्रंथ रचा है, उसमें कल्याणक उत्सव मनानेकी आज्ञा दी गई है। (यहाँ आपने शास्त्रोंके प्रमाण दिये थे) इनसे सिद्ध होता है कि यद्यपि हममें जयन्ती मनानेकी प्रथा नवीन नहीं है तथापि समयानुसार हम इसको नवीज पद्धतिसे मनाते हैं इस लिए हमें यह नवीन लगती है। गृहस्थोंमें अपने जन्मवाले दिन और अपने पिताके जन्मवाले दिन आनन्द मनानेका रिवाज है। प्रपिता और पितामह और उनके पहलेके पूर्वजाका यद्यपि गृहस्थ मानते हैं तथापि उनके जन्म दिन न तो याद रखते हैं और न उनका उत्सव ही करते हैं। अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं। वे सभी हमारे पूज्य हैं। तो भी हम उनके कल्याणक नहीं मना सकते हैं । वर्तमान चौबीसीके सभी तीर्थकरोंके कल्याणकका उत्सव करें तो वर्ष भरमें १२० दिन चाहिए, जो वर्षका तीसरा भाग होता है। इस लिए उन सबके कल्याणक भी यद्यपि हम नहीं मना सकते हैं, तथापि जिन भगवान महावीरके शासनमें हम हैं और जिनके पुत्र कहलानेका हमें अभिमान है उनक कल्याणकके दिनकी तो हम आराधना कर सकते हैं इस लिए जितनी हो सके उतनी उत्तमताके साथ उनके कल्याणक मनाने चाहिए। ., जो पुत्र अपने पिताका जन्म दिन आनंदमें बिताते हैं, अपने पिताके सद्गुण याद करते हैं; पिताने जो उपकार उस पर किये हैं Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८) उन्हें स्मरण कर अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं और यदि पिता जीवित होते हैं तो उनकी सेवाभक्ति कर अपना कर्तव्य करते हैं वे ही पुत्र सुपूत कहलाते हैं। __ जयन्ती मनानेसे हमींको लाभ है। भगवान तो कर्मोंका नाश कर परम पदको प्राप्त कर चुके हैं । इस लिए उनकी तो सदा विजय ही है । हमें तो अब उनके गुणोंका स्मरण कर शक्तिके अनुसार उन गुणोंको सम्मान दे हमें अपना ही जय करना है। जो भगवान महावीरको माननेवाले हैं, उनके लिए यह जयन्तीका दिन तन, मन और धनसे उत्सव करने योग्य है, जो उन्हें मानते नहीं हैं वे जयन्ती मनावें या न मनावें उनसे हमें कोई मतलब नहीं है। - ये वीर कैसे हो गये हैं उनका यथार्थ चरित्र कहनेकी मेरी शक्ति नहीं है। उनके सम्पूर्ण गुण तो जो उनके जैसा होता है वही जान सकता है। तो भी पूर्ण पुरुषोंने उनके गुणोंका वर्णन किया है उनमेंसे कुछ कहूँगा। - भगवानका 'वीर' नाम अन्वर्थ है। जो नाम गुणसे उत्पन्न होता है उसे अन्वर्थ कहते हैं। 'वीर' नाम गुणसे हुआ है। उन्होंने वीरताके जो काम किये हैं और अपनी जो वीरता प्रकट की है उनके कारण · वीर' कहलाते हैं। वास्तवमें तो, इनका, मातापिताका दिया हुआ, नाम वर्द्धमान था । वीरका प्रभाव अपने हृदयमें स्थापित करनेके लिए वीर जयन्ती मनाई जाती है Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो विशेष सुशोभित होता है वह 'वीर' है। जो वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित होता उसे वीर नहीं कहते, जो आत्मिक गुणोंसे सुशोभिंत होता है उसे वीर कहते हैं। जिनमें जरासा भी दोष न हो, जो निर्दोष हों, और देदीप्यवान हों ऐसे गुणोंवाले सभी ‘वीर हैं। शत्रुओंका नाश करनेसे, कर्मोंका नाश करनेसे भी वीर कहलाते हैं। इस तरह वीर शब्दके अनेक अर्थ होते हैं। उपर्युक्त गुण उनमें थे। हमें भी अपनेमें उन गुणोंको उत्पन्न करना चाहिए। वीर, वीर कहनेसे हमारी भलाई न होगी । जगतमें कर्मवीर, दान वीर, शूरवीर, योगवीर आदि अनेक प्रकारके वीर कहलाते हैं। भगवान महावीर दानवीरं थे। वे क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न हुए थे । दान करनेका गुण क्षत्रियोंहीमें होता है । राज्यमें ब्राह्मण भले राज्यगुरु कहलानेका दावा करते हों; मगर उनमें दान गुण नहीं होता उनमें तो शिक्षा और भिक्षावृत्तिका ही गुण होता है । वैश्योंमें लोभवृत्ति होती है इस लिए वे भी वास्तविक दान नहीं कर सकते हैं। भगवंतने किसी तरहका भेद भाव न रख जगतके सभी लोगोंको दान दिया था। उन्होंने एक वर्षमें तीन अरब, अठासी करोड, अस्सी लाख सोनये (उस समय चलता सोनेका सिक्का) दानमें दिये थे। ऐसे अवतारी पुरुष ब्राह्मणों या वैश्योंमें उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। - भगवानने दान देते समय, धर्मी या अधर्मी, गुणी अथवा निर्गुणी, गरीब अथवा अमीर, इस तरहका कोई भेद न रख सभी को, अनु Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) कंपासे, दान दिया था। इससे वे हमें अनुकंपा दान देना सिखा गये हैं । जो गृहस्थ होकर अपनी शक्तिके अनुसार दान नहीं देता है वह वास्तवमें वीर पुत्र नहीं है। __वीरताका गुण शुद्ध क्षत्रियके बिना दूसरोंमें उत्पन्न नहीं हो सकता है । भगवान ध्यानवीर भी थे । ध्यान अर्थात् चपलताका अभाव । तुम्हारा हमारा चित्त जैसे चंचल और चपल है वैसे भगवानका नहीं था । ऐसी शक्ति प्रकट करके हम भी उनके समान हो सकते हैं। चपलताका दोष नाश करनेके लिए हम यदि अभ्यास करेंगे तो अवश्यमेव, कुछ अंशोंमें ध्यानमें आगे बड़ सकेंगे। भगवान ज्ञानवीर भी थे। उन्होंने जगतके पदार्थोंको उनके यथार्थ रूपमें जाना था । संसारमें कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जिससे प्रभु अज्ञात या अजान हों । जिनमें अजानपन हो वे ज्ञानवीर नहीं कहला सकते । भगवान महावीरने अज्ञानके सभी आवरणोंको खपा दिये थे, इसी लिए वे ज्ञानवीर कहलाते हैं। ___ कर्मवीर भगवंत आत्मिक गुणोंको प्रकट करनेमें कायर न थे । यह काम होगा या नहीं, ऐसी शंका उनको कभी नहीं होती थी। जिसके मनमें कार्य प्रारंभ करनेके पहले ही ऐसी शंका उत्पन्न होने लगती है कि, यह कार्य मुझसे पूरा होगा या नहीं ? वह काम कभी उससे पूरा नहीं होगा। जिस समय भगवान संसारको छोड़ दीक्षाग्रहण कर विचरण करने लगे, उस समय इन्द्रने आकर विनती की- " भगवान आपको बहुत कष्ट उत्पन्न होनेवाला है इस लिए यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपकी मददके लिए यहीं रहूँ।" Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१) उस समय भगवानने कहाः-हे इन्द्र ! दूसरोंकी ! सहायतासे कभी काँका नाश नहीं होता; दूसरोंकी सहायतासे कभी केवलज्ञान नहीं होता । किसी भी तीर्थकरने केवलज्ञान उत्पन्न करनेके लिए न किसीकी मदद ली है न भविष्यमें ही लेंगे। इससे भगवानने हमें स्वात्मावलंबी बननेका उपदेश दिया है। संसारमें कोई भी कार्य परावलंबनसे नहीं होता । भगवानमें संपूर्ण रूपसे स्वावलंबनका गुण था और अपनी आत्मिक ऋद्धि प्रकट करनेके लिए उन्होंने किसीकी सहायता नहीं ली थी। ___ योगवीरका अभिप्राय यह है कि, वे आलसी, प्रमादी या कायर न थे। वे कर्तव्य परायण थे इसी लिए वे योगवीर कहलाते हैं। इन गुणोंका आराधन करनेसे हम भी योगवीर हो सकते हैं। आत्मा ध्याता, ध्येय, ध्यान इन दोंमें पहुँचनेके लिए योग निमित्त है। बाहिरी उपाधियोंको सर्वथा मिटा कर यदि भगवान महावीरके इन गुणोंको अपने हृदयमें स्थापित न करेंगे तो ये गुण हमें कदापि प्राप्त न होंगे । प्रत्येकको निमित्तकी आवश्यकता है। प्रतिमा ध्यानका साधन है । इनकी प्रतिमाद्वारा यदि हम इनका ध्यान करें तो हममें योगके कुछ अंश आ सकते हैं । प्रतिमाके निमित्तसे गृहस्थोंको द्रव्य और भावसे तथा साधुओंको भावसे योगका साधन करना चाहिए । साधुओंको भाव पूजाका अधिकार है । भगवानने संसारका त्यागकर, अपना ज्ञान प्रकटा उपदेश दिया है कि, तीर्थकरोंके कल्याणकोंका आराधन करो। कल्याणकका अर्थ-कल्य माने सुख और अण माने बुलाना, अर्थात् Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२) कल्याणकका आराधक सुखका बुलानेवाला होता है। यानी आराधन करनेवाला सुखी होता है। उनके चरित्रका ध्यान करनेसे उनके गुणोंकी छाप हृदयमें डालनेसे हम बुरे कामसे बच सकते हैं और सुखकी प्राप्तिके साधन जुटा सकते हैं। __ भगवानके चरित्रमेंसे एक बात खास हमारे ध्यानमें लेने योग्य है । भगवानके जीवने एक बार कुलका मद किया था; अहंकार किया था, वह कर्म उनको भोगना पड़ा था। भगवान महावीरके समान उच्च कोटिके जीवको भी जब उस कर्मके प्रतापसे भिक्षुक कुलमें उत्पन्न होनेका प्रसंग आया था । तब आजकलके लोग जो कुलका मद, जातिका मद, धनका मद, बलका मद, आदि अनेक प्रकारके मद कर अनर्थ करते हैं; सत्कार्यमें योग नहीं देते, कई बार तो वे अच्छे कर्मों के भी बीचमें आते हैं-कैसे ऐसे कोका फल भोगनेसे बच सकेंगे? इससे उन्हें यह उपदेश ग्रहण करना चाहिए कि, इन मदोंके कारण जो कर्म बँधते हैं उनसे अनेक भव भ्रमण करने पड़ते हैं, इस लिए भगवानकी जयन्ती मना, किसी प्रकारका मद नहीं करनेका गुण हमें ग्रहण करना चाहिए। भगवानने उपर्युक्त गुण प्रकट करनेके लिए महान् प्रयत्न किया था। उसमें उन्हें अनेक कष्ट सहन करने पड़े थे तो भी वे निस्पृह वृत्तिसे दृढ रह कर चलायमान नहीं हुए थे। संसारको छोड़नेवाले साधुओंको चाहिए कि, वे भगवानके गुणोंका अनुकरण करें और Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) अपना चारित्र पालते वक्त किसी भी तरहके अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग हों तो उनसे विचलित न होकर अपने चारित्रमें दृढ रहें । दुनियाकी हरेक चीजको आँखोंवाले देख सकते हैं । जिनके आँखें नहीं हैं, वे कुछ भी नहीं देख सकते । जिनके विवेक चक्षु हैं, वे भगवान वीरके चरित्रमें बहुतसी उत्तम बातें देख सकते हैं, जिनके विवेक चक्षु नहीं हैं उन्हें उनके चरित्रमें कुछ भी दिखाई नहीं देगा | भगवान के चरित्रमेंसे मुख्यतया हमें जो कुछ सीखना है वह यह है कि, वीरता के कार्य कर हमें अपना वीरपुत्र नाम सार्थक करना चाहिए । यदि हम वीरताके कुछ भी कार्य न करें तो उनके चरित्रसे हमें कोई लाभ नहीं है । यदि हम वीरताका गुण प्रकट करेंगे, वीरताका गुण प्रकट करनेके लिए वीरकी उपासना करेंगे तो सेव्य सेवक भाव निकल जायगा और हम अवश्य मेव उनके समान ( कर्मको नष्ट करने के लिए ) वीर हो सकेंगे । 1 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि शिष्ट। +++ ++ + +++++++ + + +++ + + Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्देवीरम् । धण्णा ते जीयलोए गुरवोणिवसंति धण्णा ण विसो धण्णो जस्स हिययंमि ॥ गुरुण हियए वसइ जोउ ॥१॥ खामेमिसव्व जीवेमित्ती मे सव्वभूएस -सव्वे जीवा खमंतु मे॥ वेर मज्झंण केणइ ॥१॥ क नफर अ ___विद्या संध्यो दयोद्रेका-दविद्यारजनीक्षये ॥ आत आ नमस्तस्मा कस्म चित्परमात्मन ॥१॥ त त the tect FEnt 可訂江衍市可订立 444AAD 324A roFFFER 阳两对肝病讨 464644 4 | ALA 부 전에 부부의 편 Faster वेक शीर्षे मुकुटस्वभा स्वान्तभूगर्वविनाशम श्वाव्रताली महिमप्रभा दीमुखी तो हदिनो व्यभा भि म्मेनहीनो भजतेसना पीडितांगोपिसमोक्षजा खनभवन्तं लभते सुशै वि | म | ले लो के स | व | दा [मः न मो भांजनानां जयतात्प्रमो सकल शास्त्र पटिष्ट मुनिश्वर । व्रजवरिष्ट गरिष्ट गुणैः शुभैः । विबुधनिष्पतिम्प्रतिभान्वित । हितविचारविलासनिकेतन ? मुनिपवल्लभतेचरणद्वयं । सततमाश्रयतानतिसंततिः । सुरभिपद्मसमूहमुपेत्यकिं । व्रजितुमन्यतइच्छतिषट्पदी ॥२॥ सम्यगाराधितपर्व, महत्पyषणाभिदं । यथाशक्तिसमाश्रित्य, देशकालादिकारणं ॥३॥ तत्राप्याराधितंसम्य-गभविष्यन्मुमुक्षणां । भवादृशां प्रभावाच, श्रीसंधैः हर्षपुरितैः ॥४॥ प्रतिक्रमणनामानं, साध्वाचारं चिरंतनं । वल्लभानन्ददंकृत्वा, विचक्षणजनप्रियं ॥ ५॥ सांवत्सरे पर्वणि सर्वमान्ये, प्रत्येक जोः क्षामितोपराधः । पूज्यैर्विमानैः क्षमते जनार्य, कृपांविधायक्षमणीय इश ॥ ६॥ (कलापकं) कृपावता भवतां कृपयात्र कुशलं तत्र त्यमपि तत्रभवतांकुशलं प्रेषणीयं For Prive १९७ersonal use Only- श्रीयुत sanelibrary.org Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [क] [ इसमें आपके लिए लोगोंने जो प्रशंसाके उद्गार · निकाले वे दिये गये हैं।] आवोजी वल्लभविजय ऋषिराया। मार्ग जैन दर्शाया ॥ वल्लभ जिनमत वल्लभ स्वामी । वल्लभजननी जाया ॥ कालभ चारित्र कंठ सरस्वती । वल्लभ नाम धराया ॥ १ ॥ पंडितराज धर्म उपकारी । परम धालु सुखदाया ॥ सर्व जीवों पर करुणासागर । जैन जहाज चलाया ॥ २ ॥ स्वामी गुरु तीर्थ अभिलाषी । धर्म समाज टिकाया ॥ पोसे बिन तेरे कौन स्वामी । बूटा आत्म लगाया ॥ ३ ॥ हो सुनी वीर वचन परकाशी । अर्पण कीनी काया ॥ अर्थी अर्थ बचाये अपना । निगुर्णी गुण नहीं गाया ॥ ४ ॥ मन चाहे चिन्तामणि पाऊँ । कल्पवृक्षकी छाया । पुण्यवानसे मिले सहेली । बिन पुण्य पाये गँवाया ॥ ५ ॥ लाख करोड़ी तेरी आन माने । छड्डन न तेरा पाया ॥ हम गरीब तेरी किस गिनतीमें । जो इतना चिर लाया ॥ ६ ॥ सिंह मार्गमें निराधार चाले । आप तो निरपरवाया ॥ हम परवाई दर्शनके प्यासे । क्यों कर मुझे भुलाया ॥७॥ तुम तो,मेघ सम हम शिष्य मूर्ख । गुरुसम धन वर्षाया। मन मेरा मीन बाज जल तड़फत । मृग प्यासा जलचाया॥ ८ ॥ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) पंछी नहीं पिंजरेमें पाऊँ । दर्शन आसा धाया ॥ बैल नहीं जे रसड़ी बाँधू । टकता नहीं टकाया ॥ ९ ॥ जोगी नहीं जे जोगमें जोडूं । भुलदा नहीं भुलाया ॥ दर्शन चाहा चंचल चित्त वाटे । निशदिन दौड़ दुड़ाया॥ १० ॥ सर्व साथ संघ आप लै आवो । नैन चैन दर्शाया ॥ शशि सम शीत सदा क्रांति । भ्रांति पाप उड़ाया ॥ ११ ॥ अतिशय गरमी अतिशय सरदी । क्या पंजाब कि पाया ॥ बाज तेरे कौन इधर पधारे । करुणा निध तु जाया ॥ १२ ॥ आवो देश पंजाब पधारो । रहे तेरी साया ॥ संजमवंत महन्त महामुनि । तुमरी मुझे सहाया ॥ १३ ॥ केशोंसे चरणन रज चाटू । नैन नीर दोन पाया ॥ कुंकुमचंदन नवअंग पूनँ । खुशी खुशी रंग रंगाया ॥ १४ ॥ -लाला खुशीराम । गुरु वल्लभकी बानी है अमृतभरी ! ॥ अंचली ॥ वल्लभविजय महाराज बसें दिलोजानमें । . उन्हीं गुरुका नाम धरूँ अपने ध्यानमें ॥ ऐसे गुरु महाराज हो सारे जहानमें । ___तारोंमें चाँद जिस तरह हो आस्मानमें ॥ मैं गुन गुरुके क्या कहूँ ? बरसाते हैं झड़ी ॥ गु० ॥१॥ चौकीपै गुरु जिस घड़ी सजते व्याख्यानमें । ..मानों शजर फूलोंके थे गुरुकी जबानमें ॥ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७९) वर्षा दहनसे फूलोंकी होती मकानमें। वो रस भरीसी बानी जो पड़ती थी कानमें । महिमा कथाकी क्या कहूँ हीरोंकी फुलझड़ी ॥ गु० ॥२॥ समताका वास गुरुके हिरदें बिराजता ।। करनेसे दरस जिनके अज्ञान भाजता ॥ दूषणसे रहित बिल्कुल आनंद गाजता । ज्ञानीको खुशी होती मूरख है त्रासता ॥ सनअतें गुरुकी क्या कहूँ ? लाखों भरी पड़ी ॥ गु० ॥ ३ ॥ बिन ज्ञानके हिरदेमें बिल्कुल अंधेर है। नामको इन्सान पर मिट्टीका खेल है ।। निंदा जो गुरुकी करें किस्मतका फेर है। -: जानेमें उनके नरकको हरगिज न देर है । आती है दया देख बात मूर्खता भरी ॥ गु० ॥ ४ ॥ चंदाके निकलनेकी खुशी सब जहानमें । चकवी व चोर रोते हैं चुर चुर मैदानमें ॥ सूरजकी कला तेज है सारे जहानमें।। उल्लू खुशी करता नहीं सूरजकी शानमें । ऐसे ही लोग वादी गुरुसे नाखुशी खरी ॥ गु० ॥ ५॥ थोडसिी सिफत करता हूँ गुरुकी बयान मैं। • इक बार कोई आगया सुनने बखानमें ॥ कुगुरको तजके होगया सत्गुरके ध्यानमें । . सूत्रोंका अर्थ आगया उसकी पहचानमें । तारीफ मुझ नादानसे हरगिज न जाकरी । गु० ॥६॥ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) जिनवरका दर्श करके तू जीवन सुधार ले। ___वल्लभ हैं गुनकी खान यह निश्चय तू धार ले ॥ गुरु बिन मिले न ज्ञान ये मनमें विचार ले। ___ कहता दसौंदीराम ये हिरदेमें धार ले ॥ नादान छोड़ भावना अज्ञानकी भरी ॥ गु० ॥७॥ -श्रीयुत दसौंदी राम । (३) १ बोल बाला हो वल्लभविजयका, है जो प्रशिष्य आनंदविजयका। ___कह रहे हैं वे सबको सुनाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर । २ जन्म अच्छे घराने में पाया, सरपे था वालदी का भी साया। कहते दुनियासे अब दिल हटाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ॥ ३ दुनिया तोहै यह बिलकुल ही फानी, चार दिन की ही बस जिदगानी। __लेना क्या है यहाँ दिल लगाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ॥ ४ पुण्य पहिले जन्म में किया था, जिससे मानुष जन्म यह लिया था। पुण्य वैसे ही अब भी कमाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ।। ५ पाओं में अपने काँटा लगे जो, दरद करती है हरदम जगह वो। मत करो जुल्म दिल में यह लाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ।। ६ हरगिज़ हरगिज़ न रेशम को पहनो, मेरी हिन्दु मुसलमान बहनो। बनता यह लाख जानें गंवाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ॥ ७ पहिले कीड़ों को मेहनत से पालें, फिर गरम पानी में सब डुबा लें। कारखानों में देखो यह जाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ॥ ८ खाँड मुतलक न खाओ विदेशी, होती है इससे पापों में बेशी। मिलता क्या पेट कबरें बनाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ।। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८१) ९ आई जबसे यहाँ पर फशीनें, धर्म और कर्म सब हम से छीनें। ___ चलती पुों में चरबी लगाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ॥ १० इन मशीनों को भट्टी में डालो, खड्डी चरखे घरमें लगा लो। . ___ खुद बुनो सूत घर में कताकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ।। ११ हिन्दवाले भी खुशहाल होंगे, दूर बीमारी और काल होंगे। देखना फिरा जरा चश्म वा कर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ॥ १२ कोई कमजोर हिन्दी न होगा, कोई डरपोक हिन्दी न होगा । ___ खाएँगे दूसरों को खिलाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ॥ १३ ये ही उपदेश देते मदामी, ताकि हो दूर सारी गुलामी । कह दिया जो कि शर्मा ने गाकर, पालो मुक्ति कर्म को खपाकर ।। –श्रीयुत भागमल शर्मा । (४) श्रीमद्गुरुवर्य-श्रीवल्लभविजय-स्तुत्यष्टकम् । (वल्लभविभक्त्यष्टकम् ।) उपजातिवृत्तम् । महागुरुश्रीमुनिसत्तमाऽऽत्मा-रामाभिधाचार्यपदाब्जभङ्गः । तद्वाक्सुधापानचकोरचेता, न “वल्लभः" कस्य स “वल्लभो" ऽस्ति॥१॥ तपःप्रकर्षण रिपञ्जयन्तं, गीर्भिनृचेतांस्यनुरञ्जयन्तम् । स्वधर्ममर्माणि निदर्शयन्तं, वन्देत को नो "मुनिवल्लभं" तम् ॥ २ ॥ संसारसिन्धोर्यदि ते तितीर्षा मुक्तिश्रियाँ चापि मुदां दिधीर्षा । तदाऽमुना लोचनवल्लभेन, वाचः शृणक्ता "मुनिवल्लभेन" ॥ ३ ॥ जैनागाम्भोनिधिमन्थनाय, स्फुटीकृतज्ञानमहापथाय । १ मुक्तिश्रियां चापि मुदा दिधीर्षा. Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) जना भवार्तिप्रविनाशकाय, नमः कुरुध्वं "मुनिवल्लभाय" ॥ ४ ॥ शमादयो याद्ध गुणाः समग्राः, समेत्य दाढादिह संवसन्ति । मन्ये ततोऽमीभिरुमाश्रयोऽन्यो, लब्धोनुस्वपो "मुनिवल्लभा " नो॥ ५ ॥ जनैश्चकोरैरिव पीयमाना, अतीव माधुर्यरसं दधानाः । वाणीसुधाः कं न हि तर्पयन्ति, मुखेन्दुजाता "मुनिवल्लभस्य" ॥ ६ ॥ सदा जिनेन्द्रान्परिवन्दमाने, स्वभक्तलोकैः परिवन्द्यमाने । जना भजध्वं भवसागरेस्मिन् , सारं सुभक्तिं “मुनिवल्लभे"ऽस्मिन् ॥ ७ ॥ महागुरुश्रीमुनिनायकात्मा–नन्दाह्वयाचार्यकृपैकपात्र ! संसारतः प्राणिन उद्धरन्सन्-विराज नित्यं "मुनि वल्लभ' ! त्वम् ॥८॥ ( उपगीतवृत्तम् ) 'मुनि' राजस्य सुललितं, 'वल्लभ'विजयस्य सत्स्तोत्रम् । 'भवि'कं नित्यानन्दो 'जय'दं कृतमान्धृतानन्दः ॥९॥ ॥ इति गुरुस्तुत्यष्टकम् ॥ -श्रीयुत पं० नित्यानंद शास्त्री आशु कवि। आर्याभिनन्दनपत्रम् । समस्तजिनरत्नानां, धर्माणामतुलोमहान् । आचार्य विजयानन्दो, विभुर्विजयतेतराम् ॥ १॥ . तपादपङ्कजरजः समुपास्यधीरस्त्यक्त्वा रमां स च रमाविजयो महात्मा श्रीमज्जिनेन्द्रशुभशासनकर्णधारो, हारो बभूव जिवरत्नजुषां जनानाम् ॥२॥ तेषां शुभाचरणलोकवशीकृताना-मात्मामिरामजनशोकविशोषकरणाम् ॥ धर्मात्मनामुपगतः किलशिष्यभावं, श्रीहर्षपूर्व विजयोत्तरनामधेयः ॥ ३ ॥ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) संसारसारजिनधर्मविभासलास्यम् । . विज्ञानभानदमनीकृतगोजदोषम् ।। शश्वत्प्रतापभवरोगनिरासिवैद्यम् ॥ ॥ आर्याः नमन्ति सततं चरितामृतंयम् ॥ ४ ॥ तच्छासनामृतनिपीत सुलब्ध बोध ! श्रीवल्लभेति जनवल्लमभाविभावः आनन्दधाममाधिगम्य यशो यदीयम् आर्याः सदा कलुषताञ्जहतीह चित्रम् ॥ ५ ॥ यद्धर्मशासनविधौ निशिवासरं हि। सुज्ञाः विहाय कलुषं कलिकालजातम् । स्वैरं चरन्ति जनसंसदि वीतरागास्तस्मै यतीन्द्रपतये गदनङ्किमस्ति ॥ ६ ॥ लोके ललामललितालपनाविलासम्, __ भावं निपीयरसिकाः विरसाः भवन्ति । तद्पादभानुभवनैशनिरासकन्तु, चित्रम्भवेत्सुजन संसदि किम्विचित्रम् ॥ ७ ॥ पाञ्चालभालमधिगम्य यशो यदीयम् । विज्ञानवारिविमलीकृतमुद्विभाव्य लोकोत्तरोपकृतिरद्यविभाति किन्नु शश्वच्चकार तिलक किल किं न चित्रम।।८।। गायन्ति कीर्तिरधुनापिच गुर्जरीयाः, कैर्वा जनैर्न विदितं सुकृतन्तदीयम् । कीतिर्विभातिशिखरेऽभ्युदयस्य किम्वा सूर्यस्यनोभवति कुत्रचिदंशुपातः ॥ ९॥ मार्तण्ड एष भगवान् किमु धर्मएव, स्वाचारशासनविधौ स्वयमेव जातः । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) भाषा सुभाषण विधौ गुरुरेवनान्यः । इत्थंजना प्रतिजनन्निगदन्ति शश्वत् ॥ १० ॥ यतीन्द्र सम्प्राप्त गुणस्य वैभवनके समर्थाः कथितुं गुरूं विना । पिपीलीकाऽपीच्छति लङघितुं नगं तथैव वाचा गदितं मयाधुना ॥ ११ ॥ सर्वशास्त्रगरिष्ठस्यकुमारान्त शिवम्थच शिष्यः कृष्णपुराख्येs हम अर्पयामिसतांमुदे । ११ । विद्यारत्नालङ्कारपदवीकेन द्वारकाप्रसादशर्मणाङ्कृतिरियम् । ( ६ ) || श्री वीतरागायनमः 66 विद्या धर्मेण शोभते "" श्री वर्द्धमान ज्ञानमन्दिर उदयपुर की अपील | जैन समाज की सेवामें । प्रधान संस्थापक शासन प्रभावक श्रीमद् जैनाचार्य विजय वल्लभसूरिजी महाराज [ स्थापित सम्बत् १९७७ विक्रम ] महानुभावो इस दिव्य भूमि' मेवाड ' का जिसमें उक्त संस्था स्थापित हैपरिचय देना अनावश्यक है, क्योंकि इसका केवल शुभ नाम ही इसके लिये पर्याप्त है । जैन संसारमें इस वीर भूमि का क्या स्थान है ? वह इतिहास के प्रेमियोंसे छिपा नहीं है । यह वही पवित्र भूमि है, जिसमें आज भी परम पवित्र जगदाधार जगतवत्सल प्रथम तीर्थकर देव 'श्री केसरीयाजी' महाराज विराजमान हैं । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) __ यह वही धर्म एवं कर्मभूमि है जिसमें शिरोमाण तप गच्छीय शाखा का प्रादुर्भाव हुआ था। __ यह वही रत्नप्रसविनी भूमि है, जिसने स्वनाम धन्य भामाशाह जैसे दानशीर एवं स्वदेशीप्रेमी, तोलाशाह कर्माशाह जैसे धार्मिक नर-रत्नों को जन्म दिया । अस्तु एक दिन वह था कि जैन जाति सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक उन्नति के शिखर पर पहुँची हुई थी। आज दिनों दिन उसका हास देख कर कौन ऐसा जैन होगा जिसको इस पर शोक न होता हो, किन्तु सज्जनो, शोक केवल प्रदर्शित करनेसे काम नहीं चलेगा । समय कार्य करनेका है। सब जातियाँ उन्नति की ओर बढ़ रही हैं। हम दिनों दिन पिछडे जा रहे हैं। हमारी अवनति का मूल कारण, समाजमें चारों ओर अविद्याका साम्राज्य होना तथा जैन सिद्धान्तों की अनभिज्ञताका होना है। जिस जैन धर्मने सारे संसारको, कल्याणका मार्ग बतलाया, सुख और शान्ति का पाठ पढाया, उसी धर्म के अनुयायी, अविद्या एवं धार्मिक सिद्धान्तों की अनभिज्ञता के कारण दिनों दिन दुखी हो रहे हैं। ___ अविद्याको मिटानेके लिये और जनतामें विद्या फैलाने के लिये कई प्रकारके साधन हैं । उपदेश देना, पुस्तकालयों पाठशालाओं और वाचनालयों आदिका खोलना भी आधुनिक समयमें शिक्षाप्रचार के मुख्य साधन हैं। इस देशकी राजधानी उदयपुर जैसी विशाल नगरीमें-जो ' श्री केसरीयाजी महाराजके विराजमान होनेके कारण समस्त जैन बन्धुओंका प्रधान स्थान ( अड्डा ) है-जैन संसारके हितार्थ एक वृहत जैन संस्थाकी बहुत कालसे आवश्यकता थी; जिससे स्थानीय एवं समस्त जैन बन्धु तथा जैनेतर, यथावकाश ज्ञानकी Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) वृद्धि कर सकें तथा धार्मिक सिद्धातोंका मनन कर अपने जीवनका लाभ उठा सकें। इस अभाव की पूर्ति के लिये स्थानीय यति वर्य श्रीअनूपचन्द्रनी महाराजके अविरल उद्योगसे सम्वत् १९७७ वि० में श्री वर्द्धमान ज्ञानमन्दिर' नामक संस्था स्थापित हुई। इस संस्थाका उद्घाटन, परम पवित्र वीर परमात्माके अनन्य भक्त अतुल पुरुषार्थी, जैन मुनि-शिरोमणि, शान्त, दान्त, धीर, वीर श्रीमद् जैनाचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरिजी महाराजके पवित्र करकमलोंसे हुआ है। इस संस्थाने, धार्मिक ज्ञान प्रचार के लिए तथा जनतामें सेवाभाव जागृत करने के उद्देश से शीघ्र ही ' (१) श्रीवर्द्धमान-ज्ञान-मंदिर ( पुस्तकालय ) ( २ ) श्रीवर्द्धमान पाठशाला ( ३) श्रीवर्द्धमान औषधालय, नामक तनि उपयोगी संस्थाएँ स्थापित कर दी हैं । श्रीवर्द्धमान ज्ञानमन्दिर ( पुस्तकालय) का उद्घाटन भी उपरोक्त श्रीमद् जैनाचार्य के करकमलोंसे ही हुआ है। इस समय पुस्तकालय में करीब ३००० पुस्तकें हैं, जिनमें करीब २५०० के बहु मूल्य जैन धार्मिक ग्रन्थ हैं । इससे लाभ उठाने वाले सज्जनोंकी संख्या वर्ष में कई हजार तक पहुँचती है । इस नगरमें अपने ढंग का यह एक ही पुस्तकालय है । यह शहर जैन जातिका केन्द्र होनेके कारण तथा श्री केसरीयाजी महाराजकी यात्राके निमित्त, प्रति वर्ष कई मुनिराज अपने शिष्य-वर्ग सहित पधारते रहते हैं, उनके लिये तथा श्रावक वर्ग के लिए यही एक मात्र पुस्तकालय है, जिसको अभी तक तीनों समुदायोंके जैन मुनिराजोंकी सेवा करनेका सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। तथा इसकी सेवासे Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) उनको समयपर आवश्यक ग्रंथ मिल जानेसे बड़ा ही सन्तोष रहता है । आशा है कि ऐसे लोकोपकारी पुस्तकालयको सभी, उन्नतिको चरम सीमापर पहुँचा हुआ देखना चाहेगें । श्रीवर्द्धमान ज्ञानपाठशाला एवं औषधालय का काम भी सुचारू रूपसे चल रहा है I " 'सर्वेगुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति' के अनुसार, भविष्य तथा वर्तमान समय में, भी द्रव्यकी सहायता के बिना इस संस्थाका उन्नतिकी ओर अग्रसर होना कठिन मालूम होता है । इसको अच्छे रूपमें चलाने के लिए कई हजार रुपयोंकी आवश्यकता है । आज कल बिना आर्थिक सहायताके संस्थाओंका चलना कठिन ही नहीं; किन्तु असंभव है । पुस्तकालय के लिए भी जैसा साहित्य चाहिए, वैसा, अर्थाभाव के कारण, संग्रह नहीं हो सका । अन्य दोनों संस्थाओंकी भी वही दशा है t I ऐसी सार्वजनिक संस्थाओंका जीवन आप ही लोगोंके हाथ है । जैन जाति सदासे दानशीलता के लिए प्रसिद्ध है । जीवनमें ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं जिनमें लाखों रुपये नातकी बातमें व्यर्थ कामोंमें खर्च किये जाते हैं । ऐसे शुभ कार्यके लिए आप लोगों से ऐसे शुभ धार्मिक अवसर " पर्युषण " पर इस लोकोपकारी संस्थाकी सहायता के लिए निवेदन किया जाता है; आशा है आप इस अवसर पर, इस शुभ कार्यमें, हाथ बँटाकर अवश्य ही अपनी उदारताका परिचय देगें । सहायता भेजने का पता:कसेकी ओल उदयपुर (मेवाड ) संवत् १९८२ भाद्रपद शुक्ला १ भवदीय-निवेदक श्रीसंघका दास मालूमसिंह दोसी. बी. एस. सी. ( बम्बई ) मंत्री - श्रीवर्द्धमान ज्ञानमन्दिर. Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८) (७) (चाल-मजा देते हैं क्या यार, तेरेबाल धुंधर वाले।) धन २ विजयवल्लभ सूरीराज डंका धरमबजानेवाले ॥ अंचली ॥ श्री गुर्जर देश मझार, बडोदा कुलश्री श्री माल। र इच्छा श्री दीपचंद गुणधाम-की इच्छा पूर्ण करनेवाले ॥ १ ॥ध० ॥ लघुवयमां सत संगसार श्री विजयानंद सूरीराज । धर लीनो मनवैराग भवदधिपार उतरनेवाले ॥२॥३०॥ गुरुसंघ विनयको धार- इच्छा सम वर्ते सार । किया जगमें अति उपकार विद्या प्रेम बढ़ाने वाले ॥ ३॥१०॥ विजयानंद सुरीश्वर बाग- था फूला हुवा गुलनार । सींचे गुरूजल पंजाब आदिपे प्रेम धराने वाले ॥४॥ध०॥ वनिताश्रम शिक्षणसार- विद्यालयका नहि पार। औषधालय और दुष्काल केलवणी फंड खुलानेवाले॥५.१०॥ पूजा निन्यानवेसार ऋषीराज लोककी धार । अष्टापद एकवी प्रकार नंदीश्वरके गुणगाने वाले ॥६॥ध०॥ आदि पारस महावीर परमेष्टी सब जगहीर। तारक तीरथ मन धीर- की रचनाकरके बतानेवाले।।७॥ध०॥ व्रत द्वादश श्राद्ध विचार- रचे रत्न त्रयी सुखकार । स्तवनादिका नहीं पार के रस्ता सरल दिखानेवाले।॥ध०॥ तब संघने किया विचार गुरुगुण मुक्ताफल माल । पद योग्य सूरी निर्धार आतम रूप बतानेवाले ॥९॥१०॥ इन्दु सर युगकर साल चंद्र मगसर पंचमी श्रीकार । साडे सात बजे शुभकार सूरीपद संघ समर्पणवाले॥१०॥३०॥ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशवसुत दोनों बाल वह आसपूर रहनार (१८९ ) रखे तुम चरणोंमें भाल । सदाशिर आशा धरनेवाले ॥ ११ ॥ ६ ॥ (<) वल्लभ-वृत्त-विलासः । g मङ्गलानन्दसदनं, सदनन्तमहोनिधिम् । प्रभुं शब्दार्थजननं, जननन्दकमाश्रये ॥ १ ॥ श्लोकी वल्लभविजयः, सूरिरुप श्लोक्यते मया श्लोकैः । आर्याणां खलु चरितं रसभरितं कं न मुखरयति ॥ २ ॥ यस्य परां गुणगीतिं तथा च लोकातिशायिनीं नीतिम् । सुजना अपास्य भीतिं शृण्वन्तो न स्मरन्त्यमृतपीतिम् ॥ वल्लभयश उपगीतिः, शमयत्यरतिं सतां मनसः । दीप्तिर्दीप्तिपतेर्द्यति, यथा तमः संहतिं जगताम् ॥ ४ ॥ अक्षरपति–प्राप्य यदीया । भाति गुणाली मौक्तिकमाला ॥ १ ॥ इह मुनि - सूर्ये तपति नितान्तम् । शशिवदनानां भवति गतिः किम् ॥ ६ ॥ अस्मिन् वल्लभसिंहे, दृष्टे दान्तिनखाग्रे । कामेभस्य निकामं, नष्टा स्याद् मदलेखा ॥ ७ ॥ श्रीवल्लभमुने: लोको, लोके माति कदापि नो । मित्रमन्त्रा यथा दुष्ट – लोके माति कदापि नो ॥ ८ ॥ भाति भव्यं शमदममयं वल्लभमानसम् । गद्यपद्यमयं चम्पू - काव्यं संराजते यथा ॥ ९ ॥ १ कीर्तिमान् । २ कीर्तिः । Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) वल्लभ-सूरीश्वहृद्-माणवकाक्रीडनकम् । दार्गति जैनं चरितं कति चेतो महताम् ॥ १० । महात्मवल्लभस्मृतिः सतामभीष्टकामदा । घुसन्नगस्वरूपिणी विभाति भावुका भृशम् ॥ ११ ॥ एतत्सरिस्वान्तश्लिष्टा जैनी भक्ति यो भाति । यद्वत् सम्यक् शोभां धत्ते मेघाश्लिष्टा विद्युन्माला ॥ १२ ॥ . पर्षदि भान्ती वल्लभमूर्तिः श्रोतृजनानां कर्षति चित्तम् । केलिवने किं चम्पकमाला चोरयते नो दर्शकचक्षुः ॥ १३॥ वल्लभसूरेर्देशनया बोधित आशु श्रोतृगणः । कर्हिचिदेवोद्यत्कलुषे कर्मणि बन्धं नो धरते ॥ १४ ॥ साङ्गोपाङ्गालंकृतिः सुप्रसन्ना, दोषापेता सद्सा सद्गुणाढ्या । माधुर्यश्रीशालिनी वल्लभोक्तिः, कस्मै दत्ते नो मुदं वल्लभेव ॥१५॥ भो भो भव्या ! भव-भव-भवक्लेश-दोदूयमाना ! मनाहः सद्गुणगणगृहं शान्तदान्तान्तरात्मा । आत्मारामस्मरणनिरतो वन्द्यतां वन्द्यपादोऽमन्दाक्रान्तान्तररिपुरयं वल्लभाचार्यवर्यः ॥ १६ ॥ एतत्सूरेश्चरणयुगली सेवाभाजां हृदयसरास । आतिष्ठन्ती सुविशदगुणा हंसी वैषाऽपहरति मनः ॥ १७ ॥ वल्लभ ! वल्लभ ! यास्तव पादयुम्ममदोध आनतिमार्गम् । - १ हृदेव माणवको बालकः तस्य आक्री-डनकं खेलनकम् (खिलौनेति प्रसिद्धम्)। २ अति द्राक् शीघ्रम् । ३ ासदां देवांना नगो वृक्षः कल्पवृक्ष इत्यर्थः, तत्स्वरूपिणी तत्तल्येन्यर्थः । ४ अमन्दं यथा तथा आक्रान्ता वशीकृता आन्तरा अन्तर्भवा रिपवा.येन सः । ५ अदः इदं ( पादयुग्मम् ) अध एव अधकः नीचैः आनतिः प्रणामरतस्य मागेम्।। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनयते सकृदप्यसकृत् स उन्नतिमार्गमहो ! उपयाति ॥ १८ ॥ श्रीवल्लभषेर्वच इन्द्रवज्रा उज्जम्भितुं चेत् किल नोत्सहेरन् । दुर्वादिदुर्वादेक-पर्वतोक्ति-पक्षा अपक्षाय न तद् व्रजेयुः ॥ १९ ॥ श्रीवल्लभाचार्यगिरां समक्ष दुर्वादिनः किं प्रभवन्ति वक्तुम् । स्थातुं सहन्ते खलु किं गिरीन्द्रा उपेन्द्रवज्रायुधमक्षताङ्गा ॥ २० ॥ सम्यक्त्वलक्ष्म्या उपजातिमन्त __ यदीच्छथ द्रागाय ! भक्तिमन्तः !। श्रयध्वमाय मुनिवल्लभं तत् संतारयन्तं भविनां समाजम् ॥ २१ ॥ आख्यानकी या विपरीतपूर्वा मुनाविहोक्तिर्नहि साऽपरत्र । इति स्वचित्ते सुतरां विचार्य ____ निधत्त भो वल्लभ-देशनां द्राक् ॥ २२ ॥ साधुसाधितमनोरथोद्धता ऽखण्डपातकतमःकदम्बका । ज्ञानर्धामनिधिरहंदाकृति स्त्वन्मनोनभसि वल्लभ ! स्थिता ॥ २३ ॥ स्वागतादरविधिं कुरुते यो १ वांसि एव इन्द्रस्य वज्राः । २ स्वार्थे कः। ३ अपक्षाय विलीय । 'खै क्षये' इत्यस्य रूपम् । ४ इन्द्रस्य यद् वज्रायुधं तस्य समीप इत्यव्ययीभावः। ५ आख्यानकं व्याख्यानं तसंबान्धनी । ६ अविपरीता स्वधर्मानुकूला सा चासौ पूर्वा मुख्या इति कर्मधारयः । ७ मनोरथा इत्यन्तं पृथक पदम् ; उद्धतं नाशितमित्यर्थः। ८ ज्ञानानां, धानां तेजसां च निधिः । धामनिधिः । सूर्यश्च । Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९९) वल्लभस्य मुनिवल्लभसूरेः । उत्सवोत्कलिकया किल तस्य ___ स्वागतानि कुरुते शिवलक्ष्मीः ॥ २४ ॥ अर्हत्पङ्क्तिस्ते वल्लभाचार्यवर्य ! शान्ते स्वान्तेऽलं रानते वैश्वंदेवी । तेन त्रैगुण्यात् सत्कलानां कलाप स्त्वय्येकास्मिन् भो लोक्यते चारु लोकैः ॥ २५ ॥ शुभशान्तिगृहे रमणीयतरे । मुनिवल्लभसूर्युपदेशवने । रसवत्फलदायक वाक्य-तरौ ___ मुदितोऽट कदापि कदापि सखे ! ॥ २६ ॥ मुनिवल्लभाननविधूदयिता प्रमिताक्षरा सुगमतामयिता । सुतदेशनामय-सुधाकणिका परिपीयतां वचनधोरणिका ॥२७॥ यदा ते मुने वल्लभाचार्यवर्य! स्फुरेद्देशना गारुडी मन्त्र-शक्तिः । भवेदेव-देव-प्रसादात्तदानीं । ___ महामोह-बाधा-भुजङ्गप्रयातम् ॥ २८ ॥ द्रुतविलम्बितसंशयदोलिकां १ उत्कलिका उत्कंठा । विश्वस्य जगत इयं वैश्वी सा चासौ देवी देवता इत्यर्थों ज्ञेयः । ३ त्रैगुण्यात् अर्हत्पङ्क्तेश्चविंश यात्मिकायाः त्रिगुणितः द्वासप्तत्यात्मक इत्यर्थः महापुरुषे द्वासप्ततिः कला वसन्तीति जैनानां मतम् । ४ धोरणी श्रेणी। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) त्यजत मे शृणतोक्तिमतोलिकाम् । अयि जनाः ! सुदृढासनमास्यतां विजयवल्लभसूरिरुपास्यताम् ॥ २९ ॥ चपलाऽऽशु कुधी-हरिणीप्लुता न्यभितनोतितमां भव-कानने । परमुत्कट-वल्लभ-केसरि ध्वनिमवाप्य जवेन पलायते ॥ ३०॥ गृहस्थतायां व्यवहारपद्धति सुचातुरी प्राप्तमिव व्यवस्थिताम् । जगत्यमुष्मिन् मुनिराज-वल्लभः सुवैश्य-वंशस्थतया व्यराजत ॥ ३१ ॥ संसारसिन्धोलसारतां विदन् , गार्ड्स परिव्यक्तुमिवैतदेधेकम् । श्रीमाञ्जयानन्दशुभाभिधानक-सरीन्द्रवंशानुगते विराजते ॥ ३२ ॥ श्रीमन् ! मुने ! तब विशदप्रभावती शीतांशुतोऽप्यतिरुचिरा चिरान्तिा । कीर्तिः श्रयस्युदधिमुपागता ततोगम्भीरता भजति भवन्तमीहितम् ॥३३ .. धन्यस्त्वं स्मरजयमल्ल वल्लभर्षे ! यत्पर्णागमसुरहस्यपूरिते स्वे । . एकाग्रे हृदि परमप्रहर्षिणीह ...... श्रीतीर्थङ्करनिकरं करोषि गुप्तम् ॥ ३४ ॥ . १ न विद्यते तोलः साम्यं यस्याः सा तथोक्ता तां अतुल्यामित्यर्थः । २ एतस्य संसारसिन्धोः एधकं वर्धकम् । ३ श्रीमान् भवानित्यर्थः। ४ विजयानन्द इति पूर्णे नाम। - Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) आचार्य ! सज्जनवनस्पतिसंविकास लीलावसन्त ! तिलकादनगौरकाणाम् । व्याख्यानदक्ष ! भवतो भव-तोयराशि निस्तारसाधनमिह प्रविदन्ति भव्याः ॥ ३५ ॥ स्वगुरुमभिविनीतः स्वस्वभावेन शीतः । सफलसकलकार्यः श्रीयुतो वल्लभार्यः । स्फुरति जिनपदाब्जे यस्य चेतःप्रवृत्तिः प्रकटिततरभूपो भक्तिसीमाऽलिनीव ॥ ३६ ।। श्रमणकशिरोमाणिक्य! त्वां नु वल्लभ! वल्लभं, स्वनयनपथाध्वन्यीकृत्य प्रकृत्यविदूषितम् । बहुलबहुलं विध्यन्त्युप्रैः कटाक्षशरैः परं, .. धृतयममहासन्नाहत्वाद् हा हरिणक्षिणाः ॥ ३७ ॥ मुने ! भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा जगति गतिहीना गुरुगुणा विचिंत्यौचित्येन त्वयि परगुरौ वासमयिताः । यथान्विष्यान्विष्य प्रथममथ मेरौ शिखरिणी हितं लीलावासं स्थिरमनुभजन्ते सुमनसः ॥ ३८ विभाति भवतो मुने ! सुभर्वनेन पृथ्वी क्षणा-... द्विभाति गृहणी यथा सुभँवनेन पृथ्वीक्षणा । अतः समुचितं भवाञ् शुचिमहो महारांमति __सुकीर्तिरपि कीर्तिता शुचिमहोमहा राजति ॥ ३९ ॥ . १ मुनीनां (तिलकात्)। २ भ्रमरीव । ३ धृतसंयमकवचत्वेन । ४ परास्ता इत्यर्थः। ५ ( मेरौ) पर्वते अग्रे ईहितमिति छेदः। ६ सुजन्मना । ७ सुग्रहेण । ८ आयतनेत्रा । ९ विमलोत्सवः । १० महान् राजेष आचरति । ११ शुचि श्वेनं महः तेजः यस्य तथाभूतश्चन्द्रः तद्वत् महः तेजो यस्याः सा श्वेतक्यान्तरित्यर्थः। .. Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५) सम्यक्त्वप्रवराऽशतद्रुतिमिता शुद्धा सदेरावती रम्या चारुविपाशिका खलु महाधी-चन्द्रभागा मुने!। स्थाने पञ्चनदीकृतेष्टि-झरिणीसूतिस्त्वयाऽऽत्मस्थितिस्तस्मात्पञ्चनदीय इच्छति सुधीशार्दल ! विक्रीडितम् ॥ राजत्कान्त्यातपत्रो गुरुवरविजयानन्दसेवी महात्मा साधीयः शिष्यसेनः परिलसितरजोहारि सञ्चामरोऽयम् विध्वस्ताभ्यन्तरारिललितसचिवको वल्लभाचार्यराजो नित्यानंदामृतश्री वरवर-वरण-स्रग्धरात्मा विराज्यात् १ अयमर्थः-हे सुधीशार्दूल ! पण्डितपुङ्गव ! मुने! त्वया आत्मस्थितिः स्थाने युक्तं पञ्चनदीकृता पञ्चापदेशाकृता, तस्मात् ततः पञ्चनदीयः मनुष्य इत्यर्थः । विक्रीडितं केलिं इच्छति । अस्या (भवदात्मस्थितौ) इति शेषः । कथम् ? इत्यत आहसम्यक्त्वेति। सम्यक्त्वेन (सम्यग)ज्ञानेन प्रवरा,। पञ्चनदपक्षे सम्यक्त्वेन समीचीनतया प्रवरा । शतं शतप्रकारण द्रुतिः चापल्येन इतस्ततो गमनं तदभावं इता प्राप्ताः; अन्यत्र शतद्रुः सतलज' इति प्रसिद्धा नदी तया तिमिता आर्दीभूता। शुद्धा इति स्फुटम् । सदा इरावती प्रशंसायां मतुप् प्रशस्तवाणीसहितेत्यर्थः । अन्यत्र इरावती 'रावी' इति प्रसिद्धा नदी तया रम्या । चारुः तथा विपाशिका पाशहीना अन्यत्र चारः विपाशा "व्यासा" इति ख्याता नदी यत्र । महती धी एव चन्द्रभागा 'चनाब' इति प्रथिता नदी यंत्र तथा इष्टिः इच्छा मनोरथ इत्यर्थः सैव झरिणी 'जेलम' इति प्रख्याता नदी तस्याः सूतिः प्रभवस्थान; इति रूपकेण साम्यम् । २ वल्लभः आचार्याणां राजा इति तस्य राजतां प्रकटयति । राजन् देदीप्यमानः कान्तिः कान्तिविजयप्रवर्तक एवं आतपत्रं छत्रं यस्य सः। राजापि विराजमानकान्तिकं आतपत्रं धरति । तथा रजोहारि रजोहरण तस्य चामरम् । तथा ललितः ललितविजयमुनिः सचिवो मन्त्री यस्य । अन्यत् स्पष्टम् । एतादृश आचार्यराजः विराज्यात् । कथंभूतः सन्नत आह-नित्यं आनन्दो यत्र तथाभूता या अमृतश्रीः मुक्तिलक्ष्मीः तस्या या वर-वरस्य श्रेष्ठभतुः वरणनक स्वयंवरमाला तस्या धर आत्मा यस्य सः । इत्यन्ते आशंसनम् । कविनाऽन्ते नित्यानन्द इति स्वनामापि सूचितम् । शम् Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) वल्लभवृत्तविलासं श्रुतबोधानुक्रमोक्तसवृत्तम् । अकुरुत नित्यानंदो लालतविजय-धीमद्नुरोधात् ॥ इति श्रीयोधपुरवास्तव्येन दाधीचकासल्योपाख्येन आशुकविकविभूषण-कविराजेन पण्डितनित्यानन्दशास्त्रिणा रचितो वल्लभवृत्तविलासः समाप्तः । श्रीमद्विजयवल्लभाभ्युदयम् । कविमण्डली— [ सहर्षोद्गारमुच्चैः ] दिष्टया वल्लभ एष तारकंपतिः सन्मङ्गलात्मा स्फुटं . प्राक् चन्द्रप्रभवस्ततः परगुरोहर्षाद् गुरुत्वं गतः । जाग्रत्कान्यतया मतः किल ततो दुर्वादिशैलेऽशनी____ भावं बिभ्रदभूतपूर्वमधुना सूर्यासनं लब्धवान् । [ इत्यादि पुनः पुनः पठति.] श्रावकमण्डली [निशम्य] अयि भोः सुकोमलकाव्यकलाकलापालापकुशले ! कविमण्डलि ! अमन्दमकरन्दस्यन्दसिक्तानीव सुधारसमयानीव परमाश्चर्यगर्भितानीव किं कर्णपूरीकारयसि कौतूहलेन सुरम्यरचनानि वचनानि । अहो ! एतैनितान्तं चित्रीयते नश्वेतः । किं तारकपतिश्चन्द्रः क्रमशस्तत्तद्ग्रहरूपमवगाहमानोऽधुना भानुतां बिभात ? . कविमण्डली. १ चन्द्रोऽपि । २ बुधोऽपि । ३ शुक्रतया इत्यपि । ४ शनित्वमपि । ५ सर्यस्यासनमित्यपि । Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) किं नामात्राश्चर्य्यम् ? एष मुनिराजः श्रीवल्लभविजयो दिष्टयाऽधुना सूरिपदमलंकृतवानिति समुचितमेव सत्यमेवाभिनन्दितवत्यस्मि एनम् । श्रावकमण्डली विदुषि ! यद्येतेन निरवद्येन पद्येन अमन्दानन्दसन्दोहला भवती भवती अमुमर्थं ध्वनयति, नयति च मामपि एतादृशीं सदृशीं दशां तर्ह्यहं अधिकाधिकाधिकाराधिगमाऽसमसमाचार सञ्चारणेन परमकृपाक्रीता भवि • तास्मि भवत्याः । कविमण्डली श्रवणरसिके ! श्रवणीयं खलु इदं श्रवणीयं सावधानम् । एष हि मुनिमहानुभावः—— श्रीमालिवैश्यान्वय - खे विराजता श्रीदीपचन्द्रेण वटोदरे पुरे । इच्छात उत्पादित उच्छलच्छविर्लोकैर्य आलोक इवावलोकितः ॥ इति पितुर्नाम्नो दीपचन्द्रस्य नामैकदेशनिर्देशेन दर्शितं चन्द्रप्रभव इति । अथ पुनः उद्गच्छत्तपगच्छकाच्छगगनाभोगोपभोगोष्णगो रात्मारामपराभिधान - विजयानन्दाख्यसूरीशितुः । तत्पादाम्बुज सेवनभ्रमरितस्वेन प्रशिष्येण यः श्रीलक्ष्मीविजयाऽर्चि' —— हर्षविजयाख्येनर्षिणा दीक्षितः ॥ अत एवोपश्लोकितं परगुरोर्हषद् गुरुत्वं गत इति । तत एष मुनिशिरोमणिः १ भ्रमरीकृतात्मना । २ अर्ची पूजकः शिष्य इत्यर्थः । Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) गुरुसमधिगताऽर्हत्सिद्धसिद्धान्तमर्मा, सुमतिमदुपलब्धव्याकृतिन्यायतत्त्वः । अति बहुपटिमानं प्राप्तवान् काव्यशास्त्रे, सुरगुरुरिव वाचोयुक्तिमाधत्त युक्ताम् ॥ एनमेवाशयमनुसृत्य स्थाने वर्णितं प्राधान्येन जाग्रत्कान्यतया मत इति । तदनन्तरमनन्तरोक्तामविदृप्यवैदुप्यशक्तिं चावगाहमान एक । महाशयः सभासु भासुरमतिः स्वमतं सममण्डयत् । दुर्वादिगिरिपक्षांश्च वज्रवत् समखण्डयत् ॥ एतदेवाभिप्रेत्य सुनिपुणं भणितं दुर्वादिशैलेऽशनीभावं बिभ्रदिति । अधुना तु महामान्यम्उज्जाग्रज्जिनधर्मशासनहितार्थप्रार्थ्यमानोत्तम न्यायाम्भोनिधि—–सूरिवर्य–विजयानन्दाप्तपूर्वाज्ञया । प्राप्तप्रागधिकारमेनमधुना पञ्चापजः प्रागिव, संमत्याऽऽर्हतसंघ आर्यविदुषां सूरेः पदं प्रापयत् ॥ एतदभिप्रत्यैव सूर्यासनं लब्धवानिति युक्तमुक्तम् । 'श्रावकमण्डली अहो ! परमाह्लादोदाधिनिमग्नमिव मदीयं मानसं पुलकितानी - वाङ्गानि, आस्वाद्यरसाप्लुतमिव प्रसादसदनं वदनं, तृप्ते इव कौतुक - श्रवणप्रवणे श्रवणे । परं कृपया विशदयतु विषययुगलकम्; पूर्वं तावत् ' प्रागिव ' इति । कदा कं कुत्र पञ्चाप- संत्रः सूरिपदं प्रापितः ? अथ च आर्यविदुषामिति तन्नामस्फुटीकरणेन पुनातु Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत सुरसरसनां रसनां स्वकीयां, मदीयं च कौतहलमयं श्रवणयुगलम् ॥ कविमण्डली-एषा करोमि अभूल्लवपुरेऽत्रैव पूर्वं वर्षचतुःशतात् । भानुचन्द्र उपाध्याय आचार्यो जिनसिंहकः ॥ एतेन भवत्याः प्रथमः प्रश्न उत्तरेण विशदीकृतः । अथ च–आर्यविद्वांसस्तुगुर्वाज्ञाऽभ्यनुवर्तका जिनजुषां पुंसां सुखावर्तका, दुर्मागात् सुनिवर्तका अपमति-ध्वान्तैकसंवर्तकाः । - ये राजन्ति प्रर्वतका इति मताः शान्त्याः समावर्तकाः हृद्रने ननु कस्य कान्तिविजया न म्युश्चिरं नर्तकाः ॥ अपि च आत्मारामोऽभिरमित आत्मारामे हि येन सः। सुमति ति सुमतिविजयो विजयोदयी ॥ तृतीयस्तु महात्मा समायाते सम्यक् सलिलधरकाले सपदि यः ।। स्थिरं वासं वासं रचयति मुदां मानसैमितः । तथा शेषे काले भुवि भुवनभूत्यै विहरति - यथा हंसो हंसोपमितसयशा हंसविजयः ॥ १ अत्रैव लवपुरे लाहोरनगरे इति मनोनिर्दिष्टस्य लवपुरस्य बहिः प्रकटीकरणम् । २ 'प्रहेति नियमेन संयोगपरोऽपि 'तिः' अत्र लघुरेव । ३ मानेन संमानेन संगतः। हंसोऽपि जलधरसमये मानसं सर इतो भवति । Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) इत्यादयोऽन्येऽपि आर्यविद्वांस उन्नेयाः । इति भवत्या अपराऽपि शङ्का समाहिता । अत एव सांप्रतं सांप्रतं समभिनन्दितं मया--- [" दिष्टया वल्लभ एष" इत्यादि पुनः पठति ]. श्रावकमण्डली----- [समाकर्ण्य ] आर्ये ! कविमण्डलि ! कृतार्थीकृतास्मि भवत्या एतेन गुरुवरोच्चतमसमुचितपदप्राप्तिरूपपरमप्रमोदवृत्तश्रावणेन । कविमण्डलीअपरं पुनस्ते प्रमोदविषयं विशदीकरोमिसूरीभय तदा तं व्यधादेयं शोभनं ह्यपाध्यायम् । - यः पंन्यासॉल्ललितोमङ्गक-विद्यामुनीन् व्यधक्त प्राक् ।। श्रावकमण्डली अहो ! उत्तरोत्तरशुभसमाचारप्रदानादात्मवशीकरणेनापि नाहं भवत्या अनृणीभावं प्राप्तमुत्सहे । [ इति मुहुमुहुः पादयोः पतित्वा ] धन्यो दुर्लभदर्शनोऽयममृतश्रीवल्लभो वल्लभो __ धन्यः पञ्चनदीयसंघ उदितश्री-कीर्तितः कीर्तितः । धन्यस्त्वं च शुभाभिनन्दनविधौ सत्पेशला पेशला धन्या तच्छ्रवणादहं पुनरघप्रोद्धर्षणार्द्धषणा ॥ कविमण्डलीकिमितः परं स्पृहणीयम् ? तथाप्याशासे अज्ञानध्वान्तराशिप्रविदलनपटुः सद्विवेकप्रकाश१ युक्तम् । २ अयं वल्लभसूरिः। ३ शोभनविजयम् । ४ ललितविजयं, उमङ्गविजयं, विद्याविजयमुनि च। ५ सुचतुरा। ६ मनोहरा । ७ पापनाशकात् तच्छ्रवणात् । ८ हर्षोन्मुखी। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) संचाराप्तप्रशंसो मृदुतरवचनापूर्वपीयूषवर्षी । नक्षत्रैर्वा स्वशिष्यैः सह चरणविधिप्राप्तसंपूर्णदाक्ष्यैश्चन्द्रो वा वल्लभार्यो जनकुमुदगणं बोधयन् सन्विराज्यात् ॥ इति हृदय-शीतलता कृतिचन्दनं सुमुनिसेवकसाधितवन्दनम् । इति मया रचितं बुधनन्दनं विजयवल्लभसूर्यभिनन्दनम् ॥ इति श्रीयोधपुरवास्तव्येन आशुकवि-कविभूषणकविराजेन पण्डित. नित्यानन्दशास्त्रिणा रचितं विजयवल्लभाभ्युदयं समाप्तम् । भक्तामरपादपूर्तिरूपासूरिराजस्तुतिः ॥ वर्ण्य कथं लवपुरं ननु यत्र शान्ति दत्त्वा पदं प्रतिनिधेर्हरिविष्टरस्थः । आशंसयद् विजयवल्लभसूरिमादा___ वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ १ ॥ यः संघदत्तपदआईतभक्तिवीरो, ____ मात्सर्यरोषमदमोहमहीषुसीरः । स्वार्थ विहाय परमार्थरतं कवींद्रम, स्तोण्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥ २ ॥ श्रीवीरशासननिकेतनकेतनाभ, सरेः पदं शमपदं जनजीवनाभम् । सूरीश! भूरितरभारभरं विना त्वा मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम ? ॥ ३ ॥ १ प्रथा विस्तृतामा लक्ष्मी शोभा यस्य । २ जिन इव इन्द्र आत्मा यस्य । Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) शाब्देतिहासभिषगागमनक्रचक्रं,. ज्योतिष्कमन्त्रसमतन्त्रतरङ्गलोलम् । विज्ञाननीतिनयतर्कमयं विना त्वां, __को वा तरीतमलमम्बनिधिं भजाभ्याम् ? ॥ ४ ॥ अज्ञानतापहरणाय गुरो! प्रजानां, पञ्चाम्बुनीवृति विभो विहृतं त्वया यत् । नो चित्रमत्र जनको भयदेऽपि देशे, ___ नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्? ॥५॥ धर्माङ्कुरः प्रकटितो भविचित्तभूमौ, तत्रोपदेशजलदः किल नाथ ! हेतुः । माधुर्यमुद्भवति यत्कलकण्ठकण्ठे, __ तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः ॥ ६ ॥ अद्यापि यत् समवलोकनमार्गमेति, जैनव्रतोपचितिरोधिजनः क्वचिद्यः । चित्रं न तत्र, यदि कोऽपि ददर्श दर्या, सूर्याशुभिन्नमिव शावरमंधकारम् ॥ ७ ॥ वाणी निपीय जनवल्लभ ! वल्लभां ते, वैराग्यमागतवती सुजनस्य बुद्धिः । पात्रस्य गौरवमिदं विसिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युतिमुपैति नन्दबिन्दुः ॥ ८ ॥ दृष्ट्वा मुखं तव विभो प्रशमं प्रसन्नं, लोकेऽत्र लोकनिवहाः प्रमदं भजन्ते । प्रद्योतनं समुदितं खलु वीक्ष्य किं नो, ... पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि ? ॥ ९ ॥ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) दक्षिार्थमागतवतोऽसुमतोऽनुगृह्य, ____दत्सेऽपवर्गपदवी पदवीं स्वकीयाम् । तस्यैव जन्म सफलं जगति स्वकीय भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ १० ॥ ये सत्यशोधनपराः बहवोऽन्यधर्माः, . पीत्वेह भङ्गरचनं वचनं त्वदीयम् । गृह्णन्ति नैव खलु ते कुमतं सुधाशी, क्षारं जलं जलनिधरशितुं क इच्छेत् ? ॥ ११ ॥ वृद्धोऽपि बोधलवलेशयुतः समन्तात् , - पादं विमुंचति पथे नहि दुर्विदग्धः । संपूर्णबोधकलितस्य तवैव चित्रं, ___ यस्ते समानमपर न हि रुपमस्ति ॥ १२ ॥ शास्त्रार्थवादनिपुणोऽपि नु भीमसेनो, ___ भीमस्त्वया खलु जितः प्रसभं स्वयुक्त्या । चन्द्रस्य बिम्बमिव तस्य मुखं तदाभूत् , यद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम् ॥ १३ ॥ मा वंचिताःस्युरवबोधचयैः सुशीलाः, संसारवालकचया इति सद्विचाराः । सन्त्यत्र नाथ ! भवतो भवतोदरूपाः, कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ? ॥ १४ ॥ तेषां प्रचारवशतः किल वरिपूर्व विद्यालयो विरचितो जिनधर्मशिक्षः । १ पदवी मार्गः २ ना पुरुष । ३ रूपंxस्वभावं जले जडेxअज्ञाने । ४स्वयुक्त्यायुक्तियुक्तं-विशेषनिर्णय-भीमज्ञानत्रिंशिकारूपं ग्रंथयुग्मंविरचय्येति परामर्शः । ... Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४) ईर्ष्यालयो धुवति तं किमु, घोरवातैः किं मंदारादिशिखरं चलितं कदाचित् ? ॥ १५ ॥ विद्यालयस्य सुफलं विभुवीरनाम्नो, विद्याप्रकाशलसितं जिनधर्मयुक्तम् प्रीत्या वदन्ति शिशुवृन्दमवेक्ष्य लोका, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ चण्डद्युतिर्निजगवा न मनोगुहानाम, हर्ताः तमो स्खलनदं मलिनं जनानाम् । तस्माद्वदामि जगतीह भयेन शन्यः, सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ॥ १७ ॥ नित्यं प्रसन्नवदनं सदनं कलाना____ मानन्ददं कुवलयस्य तवार्य जाने । प्रौढप्रभावमपि तापहरं जनानां, विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम् ॥ १८ ॥ पीयूषयूषनिभयुक्तिधरोक्तिमेधै राप्लाविता यदि रसा बहुधान्यवधैः । आचार्यमानिनिवहैर्नदकृन्मदान्धैः, कार्य कियज्जलंधरैर्जलमारननैः ॥ १९ ॥ वाचंयमेश! चरणे रमते जनाना___ माध्यात्मिकेषु न च संप्रतिकालजेषु । चेतो यथा सुरमणौ लभते प्रमोद, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥ २० ॥ १ जलधरैः जडधरैः डलयोरैक्यात् । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५) सर्वांगसुंदरतया जितकामदेव ! . त्रैलोक्य मोद जनने सुररत्नतुल्यः । चित्रं तदेव तव यन्न रमाविलासः, ___ कश्चिन्मनोहरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥ २१ ॥ जैनेन्द्रशासनमिदं प्रसभं प्रकाशं, : __स्थाने निनाय सुखदं नु तवैव वाणी । आलस्यदं प्रमददं तरणिं तमोद, - प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥ २२ ॥ संसारजीवभरचित्तचकोरचन्द्रा__ चारं विचारमखिलं चरणं त्वदीयम् । शुद्धां गिरं च कथयन्ति निरीक्ष्य लोका, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ॥ २३ ॥ देदीप्यमानकरुणानिलयं पवित्रं, स्याद्वादभङ्गनयमानसराजहंसम् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य महाप्रभावं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४ ॥ वैधव्यमूलरुगरंतुददुःखभाजा मज्ञानसिन्धुनलपूरसमाप्लुतानां । विश्रामधामकरणादबलाजनानां, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥ १ भवान्तरे भवमध्ये। Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६), आनन्दसरिचरणाब्जमधुव्रताय, विश्वार्तिवारणसमर्पितजीवनाय । दुर्बोधसुप्तनरनेत्रविभाकराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदाधशोषणाय ॥ २६ ॥ क्रोधाग्निधूमभरशोणितनेत्रयुम्मो, ___ मायोरगीविषविकारविदूषितात्मा । मानोदकोक्षितवपु र्नु मया जगत्यां, ___ स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ नित्यं व्रतादिभवकान्तिकदम्बकेन, देदीप्यमानकचपुञ्जविभाग ! नाथ ! । आस्यं विभाति भवतोऽत्र महाप्रकाशं, बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति ॥ २८ ॥ अज्ञानगाढतिमिरं तव गोविलासैः, बालस्य वृद्धवयसः करपीडनात्म। नाशं गतं व्यसनदं समजीवबंधो ! ___ तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥ २९ ।। म्लानंयुगावनितलं विमलं विधाय, शुभ्रं यशो धवलयत् सुरलोकमार्गम् । मन्ये गतं मुनिवरेश ! तवैव शीघ्र, मुच्चैस्तटं सुरगिरेवि शातकौम्भम् ॥ ३० ॥ रत्नत्रयं हृदयमध्यविराजमान, संसारसागरशरण्य ! मुने ! तवेदम् । Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७) मन्येऽस्ति नाथ ! भुवने विमलं हि भावि, प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥ ३१ ॥ वाणीं सुधारसझरी, शिवमार्गयानं, ___ सर्वेऽन्यधर्मनिरता अपि ते निपीय । मत्वाहि मुक्तिरमणीरमणानि पाद पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ।। ३२ ।। सामाजिकोन्नतिपरा मनसः प्रवृत्ति र्याता यथो तव तथा न मुने ! परस्य । यादृग् विभो भवति निश्चलता ध्रुवस्य, तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥ ३.३ ॥ पूजाविरोधिनिपुणार्यसमाजभाजां, . ___गन्तुं भवार्णवतले तरिभञ्जकानाम् । एतादृशं सुपथवर्तनलोपकानां, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदा श्रितानाम् ॥ ३४॥ अध्यात्मवेषमिषसंयमिनाममाजां, बालादिवृद्धवयसां खलु वंचकानाम् । माध्वीकतुल्यवचसां कुविकल्पजालं, ___ नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥ ३५ ॥ वामाविलासवरभोगभरेन्धनोधै वृद्धिं गतं भविनरोषितबोधिबीजम्, कामानलं मुनिवरेश्वर! चित्तजातं, ..' त्वन्नामकीर्तनजलं समयत्यशेषम् ॥ ३६॥ : Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८) मिथ्याप्रवादजलपूर्णतटाकमग्न मेकान्तपक्षधुतलक्षणलक्षिताक्षम् । दूरीकरोति मुनिपास्तमयं द्विजिह्व त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥ ३७॥ सूरीश ! सूरभव ! भूतभयंकराघ, . __ भव्यांगिनां निजकृतं सहसा जगत्याम् । उच्चण्डचण्डकरकान्तिकदम्बकेन, - त्वत्कीर्तनात्तम इवाशुभिदामुपैति ॥ ३८ ॥ साहित्यशर्कररसामृतरितायाः, . सन्न्यायभंगनयनक्रसुदुस्तरायाः। पारं परं गतभयं हि सुरापगायाः, ___ त्वत्पादपङ्कजवनायिणो लभन्ते ॥ ३९ ॥ आचार्य ! वर्यबहुशिष्यगणैर्वृतस्य, जैनेन्द्रशासनविलोपिजनस्य चाये। शास्त्रार्थमत्र भवदीयसुशिष्यवर्गाः, ___ त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्वजन्ति ॥ ४० ॥ सिद्धौषधिं समुपिलभ्य मुने! भवन्तः, ___ कर्माग्नितापपरितापितदेहयष्टीम् । संत्यज्य मोक्षरमणीरमणत्वमाप्य, मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥ ४१ ॥ सम्यक्त्वमाप्य शिवमार्गनिबन्ध नं भो, लोकेशलोकसमभावविभूषितांग ! . . . . . . Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०९) शिष्याः प्रकाशमित पूर्णकलाकमिन्दोः सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥ ४२ ॥ संपूर्णरोगभयभतपिशाचबाधा, देहं विभो न परमार्दति सा कदाचित् । एकाग्रमर्थपरिचिन्तनया त्रिसंध्यं, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ।। ४३ ॥ मुक्तालतां तव नुतिं सुगुणां सुवर्णा, नित्यं प्रसादसहितां रहितां कलहैः कण्ठे विचक्षणजनः किल यः करोति तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ ४४ ॥ -मुनि श्रीविचक्षणविजयनी । गजल ! ( रेखता) विजय वल्लभ सुरीवरका । जिने देखा तिने पाया । हृदय आनंद मनमोदन । आत्म अनुभवरस जाया ॥ वि० ॥ मधुर हैं वस्तुएँ जितनी । इकट्ठी संपसे मिलतीं । समय सम वाणी जो बोले । जगत उसका ही सब होले॥ वि० ॥ शशी वसु निधी शशी वर्षे । मगसर सुदी पंचमी सोमे । ज्ञान-तप-संयमी शोधी, सुरि पद स्थापें जन क्षेमे ॥ वि० ॥ मिलें लवपुरमें आकरके, विविध देशोंके जन सुंदर। अनपम शुभ उत्सवसे, करे आचार्य गुण मंदिर ॥ वि० ॥ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१०) श्री न्यायाम्भो निधी सूरी, श्री विजयानंद बुध धुरी । उन्हीं के पट-गगन-चंदा, शान्त मरत है सुखकुंदा ॥ वि० ॥ प्रतिष्ठितसे प्रतिष्ठित हैं, शान्त तपी पुष्पदंत देवा । लेकोत्तर ठाठ हुआ भारी, चतुर्विध संघ करे सेवा ॥ वि० ॥ काम उत्तम हुए दोनों, बरस शत चारमें नाहीं । दशा लवपूरकी जागी, बसे जो सुखी इन माहीं ॥ वि० ॥ धन्य धन गाम पुर नगरी, जो इस विध धर्म को चाहें । तन मन धनसे शोभित, करत जो चाल. शिव राहे ॥ वि० ॥ अती अनुमोदना मेरी, आत्म लक्ष्मी अन्तर कुमुदे । प्रगट आतम हीरो चमके, वरे शिवलब्धि मन सुमुदे ॥ वि०॥ कर्ताःश्री मद्विजयवल्लभ सूरि भक्त मुनि श्री लब्धिावजयजी महाराज । परिशिष्ट (ख) [ इसमें वे तार दिये गये हैं जो आचार्य पद देनेके लिए आए थे। Copy of telegrams received at Lahore before Acharyapad. 1. To Sohanvijayji, Jain House, Bazaz Hatta, Lahore. Never miss to recognise Vallabhvijayji as acharya before Sangh to be met on Parthishtha. Reconcile Sumtivijayji any how. Kantivijayji, Jamnagar. Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (233) 2. TO President Lala Motilal, Clo. Bhagat Niwas, Mitha Bazar Jain Atmanand Sabha, Lahore. Recd. you might have read wire of Sohan vijayji. We are willing for Acharya Padvi to Vallabhvijay. Parvartak Shree Kantivijayji, Jamnagar. 3. To Moti Lal, President, Atmaram Jain Sabha, Bhagat Nivas Saidmitha Street, Lahore. Received wire. Parvartakji is informed by wire. He must have replied. Our wish same as Parvartakji and Punjab Sangha I glad this matter. Hansvijayji, Ahmedabad. 4. To. Sumtivijayji, Bazaz Hatta, Jain House, Lahore We all Munimandal request you to give Acharya padvi to Vallabhvijayji. You being head you must do this anyhow. Munimandal, Ghat Koper, Bombay. 5. To Sohanvijaiji, Jain House, Bazar Hatta, Lahore. Give Acharya padvi to Vallabhvijayji tomorrow anyhow. Lalitvijay, Bombay. Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (288) 6. To Motilal Mulji, Jain House, Bazaz Hatta, Lahore. Give acharya padvi to Vallabhvijayji any how to-morrow. reply wire. Dahyabhai Kapurchand, Javeri, Bombay. 2. Copy of above to Govindji Khushal. 3. Copy to Navinchandra Hemchand, 4. Copy to Kali Das Sevachand. 5. To Motilal Mulji, Jain House, Bazaz Hatta, Lahore City. You are leader in Sangha. Vallabhvijayji has much respect for you, you have conscientiously worked for him upto now; therefore give acharya padvi to Vallabhvijay to-morrow first December in your presence. Don't miss. Kantivijayji and Hansvijayji have full consent time is scarce; therefore Devkaranbhai and other leaders can't reach. you are leading chief of Bombay Wire having finished the work. Wilful Lalitvijayadi, Munimandal, Bombay. 7. TO Jain Swetamber Sangh, Lahore. We recommend to give Maharaj Sree Vallabhvijayji acharya padyi certain on Magsar Sudi panchmi. Jain Atmanand Sabha, Bhavnagar. Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (233) oftere ( 7 ) र इसमें बे तार हैं जो हमारे चरित्रनायक को अभिनंदनके मिले थे ] Copy of telegrams received by Shrimad Acharya Shri Vallabh Vijayji at Lahore. On their being appointed as Acharya on 31st December, 1924. 1. Hearty congratulations upon getting the honour of an Acharya. Maganlal Pitamber Dalsukh Gulabchand Sakarchand Nagji Nemchand Pitamber Malukchand Shivlal Chhaganlal etc. Dalsukh Chhagan, Khemchand, Miyagam. 2. Extremely pleased at your getting padvi of Acharya trusting shall work more for good of world than at present. May God Sasan Bless you with more glory and life. Chhotalal Motichand, Bombay. 3. All members highly glad reading news of Acharya padvi for Vallabhvijayji and Upadhyay for Johanvijayji. Hearty congratulations. Atmananda Sabha, Bhavnagar. 4. Hearty congratulation Jain Sangh Lahore apon conferring Acharyapad on Maharajsaheb. Manager Jain Vanita Vishram, Surat. Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (888) 5. My hearty congratulations on your appointment as an Acharya distinction befitting your dignity. Hazarimal, Jobari, Delhiwala, Rampur. 6. Extremely pleased for Acharyaship bestowed upon your lordship. Shree Hansvijayji, Jain Free Library, baroda.. 7. Baroda Jain Sabha heartily congratulate Maharaj Shri Vallabhvijayji being Acharya and Maharaj Shri Sohanvijayji being Upadhyay. Amthalal Nanabhai Gandhi, Baroda. 8. Hearty congratulation hearing Acharyapad given to Vallabhvijayji Maharaj. Palanpur Jain Sangh, Palanpur, Gujerat. 9. We agree with you for appointing Vallabhvijayji Maharaj as Acharya wishing bright success. Acharya Ajitsagarji and Mahendrsagar, Ahmedabad 10. Right glad Punjab brothers installed Acharyaship pray accept humble Vandna. Joy no bounds. praying, starting for Gujerat. Bhojilal Tarachand, Ahmedabad. 11. Congratulation we are glad hearing Vallabhvijayjee Maharaj appointed as Acharya thanking for your devotion to Gurudeva carry our Vandana. Mulchand Ashram Vanaty, Ahmedabad. Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 994 ) 12. Hearty salutation for your Acharya padvi. Prabhudas Ramchand Photographer, Ahmedabad. 13. Hearty congratulations on Acharyapad bes towed. Mansukhlal, Hony. Secretary, Devkaran Mulji Saurashtra Veesa srimali Boarding, Junagad. 14. Exceedingly glad for degree of Acharya conferred on you and wish ever lasting success. Atmanand Jain Library, Junagad. 15. Kindly accept our hearty congratulations and ananda for degree of Acharya conferred on you. Jain Sangh, Junagad. 16. You accepted Acharya padvi so we are hearty pleasure. Ghatkopar Jain Sangh, Bombay. 17. All hearty glad for Acharya padvi to Vallabhvijayji. Heartily congratulation. Dosabhai Abhechand, Jain Sangh, Bhavnagar. TITETE ( ) [ हमारे चरित्रनायक के भक्त और समाजके कुछ धर्मभक्त प्रसिद्ध व्यक्तियोंके संक्षिप्त परिचय दिये गये हैं। ] Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) ( १ ) दानवीर सेठ मोतीलाल मूलजी जे. पी. | सेठ मोतीलाल मूलजी उन पुरुषोंमेंसे एक थे जो अपने ही भुजबलसे ऊँचे उठते हैं, उन्नत होते हैं, धनकमाते हैं सत्कार्योंमें उसे लगाते हैं और अपनी कीर्ति फैला लोगोंको अपने उपकारोंके तले दबा चले जाते हैं । इनका जन्म राधनपुर (गुजरात ) में हुआ था । घरकी स्थिति साधारण थी, इसलिए कमाई करनेके इरादेसे बंबई में चले आये और एक पेढ़ी पर पचास रुपये महीने पर नौकर हो गये । उस समय इनकी उम्र तीस बरसकी थी। धीरेधीरे वेतन बढ़ता गया और अपनी कार्यदक्षता, धर्म प्रेम परोपकार वृत्ति एवं सत्साहसके कारण ये सर्वजनप्रिय होते गये । कई बरसोंके बाद इन्होंने नौकरी छोड़ दी और दलाली करना शुरू किया। स्वतंत्र रोजगार भी करने लगे । तेतीस बरसकी आयु में इनकी धर्मपत्नीका देहावसान हो गया । वे अपने पीछे दो पुत्र रत्न छोड़ गई । सेठजीसे दूसरा ब्याह करनेका, लोगोंने आग्रह किया; मगर उन्होंने इन्कार किया और जीवन भरके लिए ब्रम्हचर्य व्रत धारण कर लिया और उसका निर्वाह किया । ऐसे पुरुष रत्न धन्य हैं ! इनके संयमके प्रभावसे लक्ष्मी इन पर प्रसन्न हुई और इनका व्यापार चमक उठा। देखते देखते ये लखपति हो गये । जब इनका धन कमानेका मार्ग प्रशस्त हो गया तब इन्होंने उस धनको सन्मार्गमें लगाना प्रारंभ किया । Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. दानवीर सेठ मोतीलाल मूलजी संघवी. पृ. २१६ उ. Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) स. १९६६ में इन्होंने राधनपुर में एक महान उद्यापन-उजमणा किया। हजारों लोग उस अवसर पर वहाँ आये । ३६०००) हजार रुपये उसमें खर्च हुए । उस समयसे उनके शहरके बाहर बनवाये हुए बँगलेमें कार्तिकी पार्णमा और चैत्री पर्णिमा पर सिद्धाचलजीका पट बाँधाजा ता है, लोग उसके भाव पूर्वक दर्शन कर साक्षात् सिद्धाचलजीकी यात्रा करने जितना संतोष मानते हैं और सेठनीकी प्रशंसा करते हैं। स. १९६६ में पूज्यपाद आचार्य महाराज श्रीविजयवल्लभ सरिजी-जो उस समय सामान्य मुनि थे-के पास पालन पुरमें आकर बड़ी ही नम्रता पूर्वक विनती की कि मैं संघ निकालना चाहता हूँ। कृपा करके आप संघमें पधारिए । आचार्य श्रीके स्वीकार करनेपर इन्होंने छरी पालते हुए सिद्धाचलजीका संघ निकाला । इसका सविस्तर वर्णन पूर्वार्द्धमें किया जा चुका है । पाठक वहाँसे देख लें। इस मौकेपर मार्गमें अनेक स्थानोंके श्री संघोंने इन्हें मानपत्र दिये थे : उस समय करीब ३५०००) हजार रुपये खर्च हुए थे। पालीतानेमें सं० १९६७ में चौमासा किया और सं. १९६८ में “नवाणुयात्रा' की आर उस समय दान पुण्य आदिमें इन्होंने १५०००) रुपये खर्च किये । सं० १९७४ में ये जब सम्मेतशिखरजीकी यात्रा करने गये तब इन्होंने १७०००) रु. जुदा जुदा धर्मालयोंमें दान दिये। ये जैसे थे धर्मप्रेमी वैसे ही विद्याप्रेमी भी थे । आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ सूरिजीके उपदेशसे इन्होंने बीस हजार रुपये इस हेतुसे Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) निकाले कि जो कोई जैन विद्यार्थी मेट्रिक पास करके आगे अभ्यास करना चाहे उसे स्कॉलरशिप दी जाय । उसी समय वह कम इन्होंने चार ट्रस्टियोंके आधीन कर दी थी । अनेक विद्यार्थी इस रकम में से स्कॉलरशिप पाकर ग्रेज्युएट हुए और सेठजीका गुण गानकर रहे हैं । जब ये " राधनपुर जैन मंडल' के सभापति थे तब एक बार मंडलकी सभामें हुनर-उद्योगके विषयकी चर्चा हुई । इन्होंने बड़ोदेके कलाभुवनमें तीन विद्यार्थियोंको तीन वर्षतक अध्ययन करनेके लिए भेजने को कहा और उनका जो खर्चा हो वह इन्होंने देना स्वीकारा | तीन विद्यार्थी गये और उनके लिए १०८०) रु. का खर्चा हुआ । 1 राधनपुरमें इन्होंने एक जैन शाला खोली । उसका सारा खर्चा ये खुद ही देते थे और अब भी उनके पुत्र दे रहे हैं। सैकड़ों बालक बालिकाएँ इससे लाभ उठाते हैं और धर्म ज्ञान प्राप्तकर धर्म में रत होते हैं । एक लाख रुपये, इन्होंने राधनपुरमें एक औषधालय स्थापित कर दान दिये । उसमें एक वैद्य और एक डॉक्टर रहता है। हजारों ही नहीं लाखों स्त्री पुरुषोंने इससे लाभ उठाया है और उठा रहे हैं। दस हजार रुपये लगाकर औषधालयके लिए इन्होंने एक उत्तम मकान भी बँधवा दिया था | औषधालयमें भेद भाव चिकित्सा होती है । अपने अन्त समयमें पचास औषधालयको और भी दान दे गये हैं । बगैर मनुष्य मात्रकी हजार रुपये इस राधनपुरमें कई बरस पहले इन्होंने एक सदा व्रत खोला और उसमें बीस हजार रुपये दिये । उनके व्याजसे सदाव्रत चल रहा है । Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१९) इन्होंने बीस हजार रुपये अपने साधनहीन श्रावक भाइयोंको मदद देनेके लिए निकाले हैं। इनके व्याजसे प्रतिवर्ष अनेक श्रावकोंको सहायता दी जाती है। करीब १५००) रु. सालानाका गुप्त दान देते थे। उसमें किसी तरहका भेद भाव नहीं रखते थे। श्री शान्तिनाथजीके मंदिरमें संघ जिमानेके लिए इन्होंने सोलह हजार रुपये दिये थे। ___ महावीर जैन विद्यालय बंबई के ये पेटरन थे। करीब इक्कीस हजार की रकम इन्होंने महावीर जैन विद्यालयके भेट की है। ___ आचार्य श्रीविजयवल्लभ सरिजीके ये अनन्य भक्त थे । होते क्यों नहीं ? बचपनहींमें दोनों कुछ समय साथ रहे । राधनपुरमें स्वर्गीय हर्षविजयजी महाराजके चरणोमें बैठकर दोनोंने एक साथ अध्ययन किया। इन्हींके सामने वल्लभविजयजी महारानकी दीक्षा हुई । वल्लभ विजयजी महाराजको ये अत्यधिक पूज्य मानते थे । ऐसा कोई काम नहीं जिसके लिए महाराज साहिबने लिखा हो या कहा हो और इन्होंने उसे नहीं किया हो । सं० १९८१ में लाहौरमें जब आचार्य पदवी अर्पण की गई उस समय ये वहाँ मौजूद थे और इस खुशीमें इन्होंने वहाँ साधर्मी वात्सल्य किया था। ___ राधनपुरके नवाब साहिबसे इनका अच्छा मेल था । श्रीशंखेश्वरजीमें एक धर्मशाला की आवश्यकता थी । वहाँ इन्होंने नवाब साहिबसे कहकर कुछ जमीन ली और उसमें एक उत्तम धर्मशाला तैयार करवाई। इसमें यद्यपि अहमदाबाद और बंबईके कुछ सेठोंकी भी सहायता ली गई थी; परन्तु विशेष रुपये तो इन्होंने ही लगाये थे। Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) - सं० १९७७ में राधनपुर की पिंजरापोलके निभाव फंडमें बीस हजार रु० का दान दिया । . राधनपुर और संखेश्वरजीके बीचमें एक जैनमंदिर बना, उसमें पाँच हजार रुपये दान दिये। सं० १९८० के दुष्कालमें राधनपुके अंदर गरीबोंको सस्ता अनाज और अनाथोंको मुफ्तमें अनाज देने के लिये पाँच हजार रुपये दिये । इसके अलावा राधनपुरके आसपासके गरीब श्रावकोंको पाँच हजार रुपये नकद गुप्त रूपसे खुद बाँटकर आये । सात हजार रुपये उसी साल राधनपुरकी पिंजरापोलको दिये। राधनपुरमें वर्द्धमान तपका खाता प्रारंभ कराके उसमें पाँच हजार रुपये दान दिये। ___ जैन कौमने इनकी कदर करके इन्हें जैनश्वेतांबर कॉन्फरेंसका सुजानगढ़में जो जल्सा हुआ था उसके सभापति चुने थे। बंबईके श्री गोडीजी पार्श्वनाथके मंदिरके मुख्य और शान्तिनाथजीके भी ये ट्रस्टी थे। ऐसी कोई धार्मिक संस्था न थी जिसके साथ इनका संबंध न हो। जैसा इनका समाजमें मान था वैसा ही सरकारमें भी था। सरकारने इन्हें जे. पी. की पदवीसे विभूषित किया था । ___ सं. १९८१ के चौमासेके दिनोंमें जब मैं पंजाबके सज्जनोंसे इनके मकानपर मिलने गया था। इन्होंने मुझे न पहचानते हुए भी अच्छा सत्कार किया था। इनके हृदयमें धनाढ्यता या पदवीका कोई अभिमान नहीं था। दूसरी बार जब इनसे मिला तब करीब दो घंटे तक Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) ये मेरे साथ धार्मिक और सामाजिक चर्चा करते रहे । अपने जीवनकी भी कई घटनाएँ इन्होंने सुनाई । मैंने जब इन्हें राजपूतानके मंदिरोंकी अव्यवस्थाकी चर्चा की तब उन्होंने कहा थाः-" हमनेगोड़ी जीके टूस्टियोंने इसका विचार किया है । कुछ कार्य भी हमने प्रारंभ कर दिया है। आदि।" ये यावज्जीवन ब्रह्मचारी तो रहे ही थे साथ ही इन्होंने अनेक तपस्याएँ भी की थीं। इन्होंने आठ आठ दस दस दिनके व्रत किये थे । एक बार तो सोलह दिनके व्रत किये थे। सं० १९७१ में जब पं० जी महाराज श्रीललितविजयजी गणीका चौमासा बंबई गौडीजीके उपाश्रयमें था तब इन्होंने लगतार २८ दिनके आम्बिल किये थे। देवदर्शनके विना ये कभी अन्नोदक ग्रहण नहीं करते थे। प्रायः पूजा और सामायिक, प्रतिक्रमण भी सदा किया करते थे। पन्यासजी महाराज श्री ललितविजयजी पंन्यासजी महाराज श्री उमंगविजयजी आदि जब सं० १९८१ में बंबई आये थे तब वालेपारलेमें प्रातःस्मरणीय आचार्य महाराज १००८ श्रीविजयानंद सरि जीकी जयन्तीके ऊपर इन्होंने जो हार्दिक भावना व्यक्त की थी वह यहाँ दी जाती है।- .. "बड़ोदेसे गुरु महाराजको ( वल्लभविजयजी महाराजको) लाये । महावीर जन विद्यालय स्थापन कराया । सूरतसे फिर गुरु महाराजने पं० ललितविजयीको भेजा और विद्यालयकी नींव पक्की हुई। अब फिर कृपालुने कृपा करके तेरह चौदह सौ. माइल पर बैठे हुए भी वहाँसे. पं० ललितविजवजी होमहावीर जनयीको भेजा आर चौदह Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२) आदिको और अहमदाबादसे पं० उमंगविजयजी आदिको हमारे उपकारार्थ भेजा । इन्होंने भी परिश्रम करके गुरुवचनको पाला । आजके समयमें भी ऐसे उपकारी गुरु महाराज विद्यमान हैं जो अपने शिष्योंको इतनी इतनी दूरसे भेज कर समाजपर उपकार करते हैं । धन्य है उन उपकारी गुरु महाराजको जो पंजाबमें बैठे हुए भी हमारे उद्धारका प्रयत्न कर रहे हैं। मेरा मन आज बड़ा प्रसन्न हुआ है। मैंने जौ साढ़े बारह हजार रुपये विद्यालयको ब्याजू दे रक्खे हैं उन्हें आजके शुभ प्रसंगपर मैं विद्यालयके भेट करता हूँ और उसका ब्याज भी माफ करता हूँ।" इस तरह धर्म और जातिके उपकारार्थ लगभग पाँच लाख रुपयेका दान दे उनकी भलाईके लिए अनेक प्रकारका परिश्रम कर सं० १९८१ के पोस वदी ४ के दिन । अपनी करीब ६५ वर्ष की आयुमें इन्होंने स्वर्गारोहण किया और अपने पीछे समाजकी सेवाके लिए दो पुत्र श्रीयुत मणिलालजी और श्रीयुत सकरचंदनीको छोड़ गये और छोड़ गये वे अपना अनुकरणीय परोपकारमय जीवन ।। . श्रीयुत लाला गंगारामजी। लाला गंगारामजी शहर अंबालेके रहनेवाले थे । वे पहले स्थानक वासी थे। स्वर्गवासी १००८ श्री मद्विजयानंद सूरिजी ( आत्मारामजी ) Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. परमश्रद्धालु लाला गंगारामजी. शहर अंबाला पंजाब. मनोरंजन प्रेस, बम्बई नं. ४ पृ. २२२ उ. Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) महाराज जब ढूंढक धर्म छोडकर शुद्ध जैन धर्मोपदेशक; शुद्ध जैनधर्मके धारी हो गये तब उन प्रभाविक महापुरुषके उपदेशसे हजारों स्थानकवासी श्रावक भी शुद्ध जैन धर्मधारी यानी मंदिर मार्गी हो गये थे। उन श्रावकोंमें लाला गंगारामजी भी एक मुख्य थे। धर्मप्रेम इन्हें बचपनहाँसे था । शुद्ध धर्मकी प्राप्ति कर इनका आत्मा और भी अपने धर्मकी तरफ झुका और दुगने उत्साहके साथ वे अपना धर्म पालने लगे। वे प्रायःहमेशा सामायिक एवं प्रतिक्रमण किया करते थे। प्रभुके दर्शन किये बगैर तो वे कभी अन्नका एक दाना भी मुँहमें नहीं डालते थे । रात्रि भोजनका भी उनके त्याग था। उनके घरके भी-तीन तीन चार चार बरसके बच्चे तक -दर्शन किये बगैर मुँहमें अन्न नहीं डालते हैं। एक बार उनके पोतेको बुखार हो आया । दिनभर वह कुछ 'न खा सका । रातके करीब दो बजे जब उसका बुखार उतरा तब उसे भूख मालूम हुई । उसने भोजन माँगा । खाना उसके सामने रक्खा गया तब बालक बोला,-" बाबा! ( पिताके पिताको पंजाबमें बाबा कहते हैं ) मैंने आज दर्शन नहीं किये हैं, मुझे पहले मंदिरजी ले चलो।" धर्मप्रेमी लालाजीने बालकको छातीसे लगाया और कहाः- “बेटा ! अभी तो मंदिरजी बंद हैं।” बालक बोला:नहीं मुझे ले चलो।" लालाजी उसे मंदिरजी ले गये । ताला बंद था। बालक निराश हुआ। जब वापिस घर आये तो उसकी माने बालकको खानेके लिए कहा। बालक बोला:--"मैं दर्शन किये बिना कुछ नहीं खाऊँगा"। Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४) घंटेभर बाद उसने फिर कहाः- बाबा ! अब चलो दर्वाजा खुल गया होगा।" मगर उस बार भी वापिस लौटना पड़ा । तसिरी बार करीब साढ़े पांच बजे बाद जब मंदिरजीके दर्वाजे खुले तब बालकने अपने बाबाके साथ जाकर दर्शन किये । उस समय उनको जो खुशी हुई वह बयान नहीं की जा सकती । बालकका धर्म पर इतना प्रेम होना उन्हींकी धर्मपरायणताका प्रभाव था। ___ मंदिर बनवानेके काममें उन्हें बड़ी दिलचस्पी थी। सामाना, रोपड और अम्बालेके मंदिर प्राय: उन्हींकी देखरेखमें हुए थे। दुकानका कामकाज अपने लड़केके भरोसे छोड़कर इन्होंने उपर्युक्त मंदिर बनवानेमें अपना समय लगाया था । मुल्तानका मंदिर भी तैयार होते समय वे कई बार जाकर देख आये थे । मुल्तानकी प्रतिष्ठाके मौकेपर तो इन्होंने बहुत ज्यादा सहायता की थी। इस लिए कृतज्ञता दिखानेके लिए मुल्तानके श्रीसंघने एक स्वर्णपदक इन्हें भेटमें दिया था। अंबालेमें कोई उपाश्रय नहीं था। इन्होंने उपाश्रयके लिए अपना एक मकान दे दिया। अंबालेमें जब प्रतिष्ठा हुई तब इन्होंने चार दुकानें और एक तबेला मंदिरजीके भेट कर दिया। अंबालेके मंदिर जीका प्रबंध मुख्यतया सब इन्हींके हाथमें था। हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र कमेटीके ये सभापति थे । धार्मिक कार्योंमें ये जहाँ बुलाये जाते थे वहीं तत्काल ही पहुँच जाते थे। पजाबसे सं० १९८१ में पंन्यासजी महाराज श्रीललितविजयजी जब बंबई आने लगे और जब उन्होंने अंबालेमें प्रवेश किया तब Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) लालाजी बीमारीमेंसे उठे थे, तो भी दो माइल तक ये नंगे पैर घरघर नदी तक उनके सामने श्रीसंघके साथ गये थे। पन्यासजी महाराजने कहा :- " लालाजी ! आपकी तबीअत खराब है और आप नंगे पैर क्यों चले आ रहे हैं ? "" ये बोले :- " गुरुदयाल ! तिर्यंचगतिमें न जाने कितनी बार भटक आया ? उस समय पैर में पहननेको क्या था ? गुरुदयाल के साथ जितना समय निकले उतना ही शुभ है । आप हजारों माइल नंगे पैर चलते हैं । हम क्या इतनेमें मर जायँगे ? ” ये जैसे धर्मप्रेमी थे वैसे ही विद्याप्रेमी भी थे। अंबालेके आत्मानंद जैन विद्यालयमें इन्होंने एक खासी रकम दी थी । इतना ही नहीं अपनी वृद्धावस्था में भी, विद्यालयके लिए चंदा जमा करनेके लिए अम्बालेसे एक डेप्युटेशन बंबई आया था उसके साथ ये आये थे । आत्मानंद जैन सभा अंबालेके जब तक ये जीवित रहे पेटरन रहे थे। सारे पंजाबका जैन संघ इनकी बातको मानता था और एक मुरब्बीकी तरह इनकी इज्जत करता था और करता है । इनके घरमें कभी कंदमूल नहीं खाया जाता है । इनके पुत्र लाला बनारसीदासजीने तो कंदमूल चक्खे तक नहीं हैं ! पंजाबकी प्यारी वस्तु आलू तक बनारसीदासजीने नहीं चक्खे । अपने समाज में जैसी इज्जत थी वैसी ही इज्जत इनकी अन्य समाजोंमें भी थी । स्वर्गीय आत्मारामजी महाराजके ये अनन्य भक्त थे। उनके कथनको ये प्रभु आज्ञाकी तरह मानते थे । जब महाराज साहिबकी तबीअत १५ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) ठीक नहीं थी, लालाजीने उनसे पूछा था:-" भगवन् आप हमें किसके भरोसे छोड़ जाते हैं ? " महाराज साहिबने फर्माया थाः-८ मैं तुम्हें ' वल्लभ ' के भरोसे छोड़ जाता हूँ।” तभीसे वे वेल्लभविजयजी महाराजपर असीम श्रद्धा रखने लगे। आत्मारामजी महाराजके बाद विजयवल्लभसूरिजी महाराज पर उनको जितनी श्रद्धा 'रही उतनी और किसीपर न रही। __ लालाजी जब सन् १९२४ में बंबई आये थे तब उनसे हमारी भेट हुई थी। बड़े ही मिलनसार, शान्त प्रकृति, सरल स्वभावी और निरभिमानी पुरुष थे । बातों ही बातोंमें उन्होंने कहा था,-" मेरे जीवनकी एक साध अबतक पूरी नहीं हुई । वह साध है वल्लभविजयजी महारानको गुरुगद्दीपर स्थापित करना ।" ___मैंने उनसे कहा थाः- लालाजी ! आप कोई पत्र क्यों नहीं निकलवाते ? गुरुदयालके नामका एक पत्र जरूर होना चाहिये ।" उन्होंने कहा था:-" आत्मानंद जैन सभावाले अगर प्रेस खरीद कर पत्र निकालनेको राजी हों तो एक हजार रुपये मैं देनेको तैयार हूँ।" न जाने क्यों आत्मानंद सभा अंबाला इस ओर ध्यान नहीं देती ? __ जिस समय वल्लभविजयजी महाराजको आचार्य पदवी दे कर पंजाबने गुरुगद्दी पर स्थापित किया उस समय लालाजीको कितनी खुशी हुई होगी उसका अंदाजा लगाना हमारी शक्तिके बाहिर है। । उनका स्वर्गवास सं०. १९८२ के असाढ़ वदी १४ के दिन लुधियानेमें हुआ। जब वे स्वर्गवासी हो चुके तब अंबालेसे उनके पुत्र लाला बनारसीदासजी और दूसरे प्रतिष्ठित सज्जन मोटरें लेकर लालाजीके शवको अंबाले लेजानेके लिए लुधियाने गये।लुधियानेवालोंने लालाजीको भेजनेसे Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शजीवन. सद्गत सेठ हेमचंद अमरचंद. पृ.२२७ उ. Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२७) इन्कार किया और कहाः-" वे जैसे तुम्हारे पिता एवं मुरब्बी थे वैसे ही हमारे भी थे । हम भी उनके पुत्र समान हैं । हम उन्हें यहाँसे नहीं लेजाने देंगे।" देहान्त होजानेके बाद तार मिलनेपर होशियार पुर, रोपड, सामाना, अमृतसर, अंबाला और लाहौरके प्रतिष्ठित सज्जन एवं संघके मुखिया भी स्मशानयात्राके पहले लुधियाने, उनका सत्कार करने पहुँच गये थे। सभीने अपने अपने शहरके संघकी तरफसे मृत देह पर दुशाले ओढाये थे । करीब ७० बरसतक चोलेमें रहकर उनका जीवनहंस सदाके लिए उड़ गया । पंजाबके श्रीसंघने गत आत्माके वियोगमें आँसू बहाते हुए चोलेकी दाह क्रिया की । संसारमें उसीका जीवन सफल है जिसके आने और जिसकी हस्तीसे दुनियाको फैज पहुँचे और जिसके चले जानेसे दुनिया आँसू बहावे । ___ लालाजी अपने अंत समयमें अपने पुत्रको आज्ञा दे गये कि वे २५ बरसतक ४००) चार सौ रुपये सालाना हस्तिनापुर मंदिर और अंबालेके मंदिर व स्कूलमें देते रहें। _उनके कुटुंबमें इस समय एक पुत्र लाला बनारसीदासजी उनकी पुत्र वधू और पौत्र विजयकुमार हैं। पौत्र गोद रक्खा हुआ है। • स्वर्गीय सेठ हेमचंद अमरचंद । - सज्जन पुरुष वे कहलाते हैं जो संसारमें आकर धर्महित, जातिहित या देशहित कुछ न कुछ कर जाते हैं, जिनका जीवन. अपने Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८) और परायेकी भावनासे ऊपर होता है और जो लोगोंको यथासाध्य संतुष्ट किया करते हैं । सेठ हेमचंद्र भी ऐसे ही सज्जनोंमेंसे एक थे। __ इनका मूल निवास माँगरोल था । इनके पितामह सेठ बंबईमें आये तभीसे इनका कुटुंब बबईमें रहता है। इनका जन्म सं० १९३६ का भादवा वदी १० के दिन हुआ था। इनकी माताका नाम श्रीमती हेमकुँवर और इनके पिताका नाम सेठ अमरचंदजी था। ज्ञातिके दशा श्रीमाली थे । इनकी शिक्षा मेट्रिक तक हुई थी। इनका पहला ब्याह सं. १९५० के साल सोलह बरसकी आयुमें हुआ था । पत्नीका नाम सौ० आनंदबाई था । इनके चार सन्तान हुई थी। दो लड़के और दो लड़कियाँ । लड़कोंका नाम है नरोत्तमदास और नवीनचंद्र लडकियोंका नाम है बहिन मेनावती और बहिन वीणावती । नरोत्तमदासका देहान्त हो चुका है। अन्य धर्मके प्रभावसे मौजद हैं। सं. १९६६ में इनकी पहली पत्नी सौ. आनंदबाईका देहान्त हो गया; मगर इच्छा न होते हुए भी छः महीने बाद इन्हें दूसरा ब्याह करना पड़ा । इसके कारण यहाँ देना उचित जान पड़ता है। १-जिस समय पहली पत्नीका देहान्त हुआ उस समय बालक सभी छोटे थे। उन्हें संभालनेवाला कोई नहीं था। २-इनके अनुज सवचंद भाई उनका व्याह हुआ उसके पाँच महीने बाद ही, अपनी बाल पत्नीको छोड़कर इस संसारसे चले गये थे, इस लिए विधवा बाई अकेली घबराती थी और कुटुंबका बोझ उठाना उन के लिए असंभवसा था । Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२९ ) ३ - इनके पिता सेठ अमरचंद्रजी अपने छोटे लड़के सवचंदका व्याह जैनविधि से करना चाहते थे । उन्होंने जैन पंडितको बुला लिया था और जातिको जिमानेके लिए सब भोजन- मिठाई वगैरा बनवा चुके थे । ठीक मौकेपर जातिके पंचोंने कहलाया कि अगर तुम जैनविधिसे ब्याह करोगे तो जाति तुम्हारे यहाँ जीमने नहीं आयगी । सेठ अमरचंद्रजीने जातिकी आज्ञाको विवश स्वीकार किया; परन्तु युवक हेमचंद्रजीका अन्तःकरण असंतुष्ट हो उठा । उनके अन्तरात्माने कहा, " धर्मविहित कार्य करना मनुष्यका कर्त्तव्य है । पंचोंका उसमें दखल देना अन्याय है | अन्यायके आगे सिर न झुकाना ही मनुष्यता है । " यद्यपि उस समय वे कुछ न बोले, तथापि पंचोंके इस अन्यायको वे न भूले । दैवयोगसे प्राप्त उस समयका उन्होंने सदुपयोग कर जातिमें, जैनविवाहविधि चलानेका संकल्प कर लिया । शहरमेंसे अनेक लड़कियोंके पिता अपनी कन्याएँ इन्हें देने को तत्पर हुए; मगर वे जैनविधिसे ब्याह कर पंचोंकी नाराजगी न उठा सकनेसे चुप हो रहे | आखिर ' सरधार ' गाँवमें- जो राजकोटके पास है - इनका व्याह जैनविधिसे हुआ । पत्नीका नाम मंगला बेन था। उनसे दो पुत्र हुए । एकका नाम प्रवीणचंद्र है ओर दूसरेका अनिलकान्त | जैनविधिसे ब्याह होने के कारण माँगरोलके दसा श्रीमालियोंमें बड़ी हलचल मची। पंच इकट्ठे हुए और उन्होंने श्रीयुत हेमचंद्र और उनके कुटुंबियों को जाति बाहिर कर दिया। इतना ही नहीं दशा श्रीमालियोंके मांगरोलके श्वेतांबर श्रीसंघने भी इनको संघ बाहिर कर दिया । अपराध Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३२) क्या था ? यह कि इन्होंने श्वेतांबर जैनविधिके अनुसार ब्याह किया था; धर्मके विरुद्ध जातिमें जो रूढि थी उसको इन्होंने छोड़ दिया था । ___दसा श्रीमालियोंमें वैष्णव भी हैं, स्थानकवासी भी हैं और श्वेतांबर भी हैं । वैष्णवोंका कार्य उचित कहा जा सकता है; क्योंकि उन्होंने अपने धर्मके विरुद्ध कार्य करनेवालेको जातिबाहिर किया था; स्थानकवासियोंकी कृति भी क्षम्य हो सकती है; क्यों कि उन्हें दोनोंमेसे एक भी विधिके साथ कोई संबंध नहीं था; परन्तु अफ्सोस तो उन लोगोंकी. कृति पर है कि, जिन्होंने श्वेतांबर होते हुए भी श्वेतांबर धर्मके अनुसार कार्य करनेवाले अपने भाईको, श्वेतांबर जैनविधिसे लग्न करनेका अपराध लगाकर संघ बाहिर कर दिया । ऐसे संघके मुखिया वास्तवमें श्वेतांबर धर्मके पालक हैं या नहीं इस बातका संदेह उत्पन्न हो जाता है। मुखियाओंकी यह कृति धर्मको लांछित करनेवाली और उनकी रूढि पनाका एक अनोखा उदाहरण है । ऐसे ही मुखियोंके कारण, धर्म अवहेलित और अपमानित होता है और धर्मविहित किन्तु रूढिके विरुद्ध कार्य करनेवालोंको संघ बाहिर करनेकी सजा देनेवाले, रूढिभक्त संघके नेताओंके कारण श्वेतांबरसंघकी नींव डगमगा उठी है और इसकी जनसंख्या बड़े वेगसे कम होती जा रही है । अस्तु । पाठक ! संघबाहिर और जातिच्युत होनेका आघात जबर्दस्त होता है । इसको वही समझ सकता है जिसको कभी इसका अनुभव हुआ है । धननाशका, और मनुप्यके मरणका आघात सहना कठिन है; मगर इस आघातको अकेले खड़े हो कर सहना विरले ही वीर पुरुषोंका काम है । सेठ हेमचंद्र ऐसे ही वीर पुरुषों से एक थे। Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) कुछ कमजोर दिलके हितु इनके पास आये और कहने लगे,"कुछ दंड देकर जातिको खुश कर लो।" ये हँसे और बोले:-" धर्म पालनेमें वाधा डालनेवाली जाति या संघके आगे सिर झुकाना मैं धर्मच्युति और अपमान समझता हूँ। मुझे देखना है कि तुम लोगोंमें सच्चे धर्मात्मा कितने हैं और दौंगी कितने हैं ? " मांगरोलके पंचोंने और संघने बंबईके दसा श्रीमाली पंचों और श्वेतांबर संघको लिखा कि हमने श्रीयुत हेमचंद अमरचंदको जाति और संघसे बाहिर कर दिया है तुम भी कर देना । बंबईमें जातिवालोंने भी मांगरोल जातिवालोंका अनुकरण किया; परन्तु संघने इन्कार कर दिया । इतना ही नही बंबईके श्वेतांबर संघने इस धर्मवीरका सत्कार किया। ___ कलकत्तावाले सेठ जेठाभाई जयचंद और बंबईवाले सेठ मोतीचंद देवचंद भी कुछ महीनोंके बाद आसोजमें मांगरोल खास इसी झगड़ेको मिटाने के हेतु आये हुए थे । उन्होंने संघके मुखियों एवं पंचोंको कहा कि," आप लोगोंने हेमचंद भाईको अपनेसे अलग करनेका कार्य बिलकुल ही अनुचित किया है।" मगर इन लोगोंकी बातोंपर कोई ध्यान नहीं दिया गया। ___ आसोजमें आंबिलकी ओलियाँ आता हैं । सेठ हेमचंदजीके घरसे आंबिल करनेवालोंके लिए आठ दिन तक खानपानकी सुविधा कर दी जाती है। उपरोक्त दोनों सेठोंने संघनेताओंसे कहा कि-" आंबिल करनेवाले लोगोंके धर्म पालनेमें बाधा डालना अनुचित है। आपको बाधा हटाकर लोगोंको सरलतासे धर्म पालने देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होगा तो हम हेमचंद भाईके साथ रहेंगे।" Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) अपने नेतृत्वके अभिमानमें इनके कथनकी कोई परवाह न की गई। दोनोंने सेठ हेमचंदजीके यहाँ जाकर आंबिल किया । इसका परिणाम यह हुआ कि वे भी संघबाहिर कर दिये गये । बड़े लोगोंका कथन है कि - ' यतो धर्मस्ततो जयः । ' जहाँ धर्म है वहीं जय है । धीरे धीरे लोगोंके साहस बढ़े और सच्चे धर्मपर चलनेवाले हेमचंद भाईके साथ करीब डेढ सौ घर आ मिले। डेढ बरस तक मुकदमा चला। आखिर में पंचों और संघके नेताओंने धर्म और धर्मवीरके आगे सिर झुकाया । आपसमें फैसला हुआ और हेमचंद भाईको वापिस जाति और संघमें मिला लिया । सच है जो • सिर साँढे धर्म पालते हैं उन्हींकी धर्म रक्षा करता है । ' अन्याय रोकने के लिए हेमचंद्र भाईका उदाहरण अनुकरणीय है । ८ V हेमचंदभाई बारह व्रतधारी श्रावक बननेके इच्छुक थे। नौ व्रत तक वे पालने लग गये थे । उनके घरमें देरासर था और सदा सामायिक पूजन आदि किया करते थे । अपने घर में उन्होंने ऐसा नियम बना रक्खा था कि, सारा कुटुंब एक ही साथ सामायिक करे । तदनुसार छोटे बड़े सभी एक साथ बैठकर सामायिक किया करते थे । सामायिकमें जीवविचार, नवतत्त्व, कर्मग्रंथ आदि तात्विक ग्रंथोंहीका वाचन और मनन वे प्रायः किया करते थे और सारे कुटुंबको उनका रहस्य समझाया करते थे । अपने अनुजकी विधवा - गंगास्वरूप - श्रीमती मणि बहिनके साथ वे अपनी छोटी बहिनकासा व्यवहार रखते थे । घरका सारा काम काज इन्हींकी सलाहसे करते थे । इन्हें नियमित रूपसे धार्मिक शिक्षा Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) दिया करते थे। दुकानसे घर आते ही वे पहले अपने सभी कुटुंबियों और नौकरोंकी प्रसन्नताके समाचार पूछते थे । अगर किसीके चहरे पर उदासी दिखाई देती या किसीका सिर दुखता सुनते तो पहले उसकी खबर लेते । घरमें जो औषध होती उसका उपयोग करते अन्यथा झटसे डॉक्टरको टेलिफोन कर देते । वे नौकरको भी अपने घरका ही आदमी समझते थे। उनकी रसोईमें जीमनेवाले क्या नौकर और क्या बाहिरके आदमी सभीके लिए एकसी रसोई होती थी । आम वगैरा कोई भी नई चीज खानेकी घरमें आती तो कुटुं बियोंकी तरह उनके नौकरोंको भी बराबरका हिस्सा मिलता था । इनके पिता सेठ अमरचंदजी स्वर्गीय आत्मारामजी महाराजक संघाडे पर बहुत भक्ति रखते थे । इनके हृदय में भी वह मौजूद थी । हमारे चरित्रनायक आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरिजी के एक बार इन्होंने दर्शन किये थे। तभीसे इनके हृदयमें भक्तिभावका संचार हो गया था। जब बंबईमें आपका दूसरा चौमासा सं० १९७० में हुआ था, तब आप दादरमें इन्हीं सेठ हेमचंद अमरचंदके बंगले में ठहरे थे । सेठ आपके व्यवहार, उपदेश, निस्पृह भाव और साम्य दृष्टिसे मुग्ध हो गये । इन्होंने आजतक किन्हींको आंतरिक श्रद्धासे नहीं माना था, परन्तु उस समय से हमारे चरित्रनायकको उन्होंने संपूर्ण श्रद्धा माना और तबसे वे हमारे चरित्रनायककी आज्ञा पूरी तरहसे पालने लगे थे । वे कहा करते थे कि - " अगर मुझे गुरुमहाराज हुक्म दें तो मैं जलती अग्निमें तक कूदने को तैयार हूँ । ” I जब महावीर जैन विद्यालय स्थापन करनेका हमारे चरित्रनायकने उपदेश दिया और अनेक तरहकी वाघाओंका विचार किया Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) जाने लगा तब हेमचंद भाईने हमारे चरित्रनायकसे कहा था:-- गुरुदेव ! आप केवल आज्ञा दीजिए और हमारी पीठपर रहिए । हम सब कठिनाइयोंको दूर हटा देंगे। वह कौनसा उक़दा है जो वा हो नहीं सकता? हिम्मत करे इन्सान तो क्या हो नहीं सकता ? ( वह कौनसा गूढ प्रश्न है जिसकी मीमांसा नहीं हो सकती है ? और वह कौनसा कार्य है जो मनुष्य हिम्मत करे तो हो नहीं सकता है ? ) महावीर जैनविद्यालयके लिए इन्हीं हेमचंद भाईने दस हजार रुपयेकी रकम सबसे पहले भरी थी और ये कहा करते थे कि, अगर जीवित रह गया तो अपने दूसरे जैन बंधुओंकी सहायतासे इसे एक आदर्श विद्यालय बना दूंगा । मगर दुर्दैवको यह बात स्वीकार न हुई उसने विद्यालयकी स्थापनाके एक बरस बाद ही इस सच्चे गुरुभक्त विद्याके सच्चे उपासक, धर्मके सच्चे पालक, कुटुंबके सच्चे प्रतिपालक सबको एकदृष्टि से देखनेवाले समदृष्टा और मिथ्यात्वमय रूढियोंके ध्वंसक नरवीर को सं० १९७१ वैशाख वदी १३ के दिन विक्राल कालके मुँहमें लेजाकर डाल दिया । ___ इन्होंने जैसे जैनविवाह विधि समाजमें प्रचलित करनेका आचरणीय उपदश दिया वैसे ही इन्होंने बालविवाहके बुरे रिवाजको समाजसे निकालनेका भी दृढ संकल्प कर लिया था । इन्होंने अपने पुत्रोंको पचीस बरसकी उम्रमें और पुत्रियोंको अठारह बरसकी उम्रमें ब्याहनेका निश्चय किया था । इनके लड़के लड़कियोंकी बड़ी आयु देख कर लोग इन्हें ताने दिया करते थे, रहस्यमें अनेक बातें कहा करते थे; Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५) मगर ये थे कि सब तरहकी बातें सहकर भी अपने संकल्पसे नहीं हटे थे। जिस समय इनका देहान्त हुआ उस समय इनके बड़े लड़के नरोत्तमदासकी आयु १८ बरसकी और इनकी बड़ी कन्या श्रीमती मैनावती देवीकी उम्र सोलह बरसकी थी। इनके बाद यद्यपि मैनावती देवीका ब्याह थोडेही अर्सेमें इनके कुटुंबियोंको करना पड़ा था; परन्तु इनके लड़के श्रीयुत नरोत्तमदासने साफ शब्दोंमें कह दिया था कि, मैं पिताजीकी इच्छानुसार जबतक पचीस बरसका न होऊँगा तबतक ब्याह न करूँगा । दैवयोगसे यह वीर भी बाईस बरसकी अवस्थाहीमें इस संसारसे चल बसा । उनकी द्वितीय पत्नी श्रीमती मंगला बेनका देहान्त भी सं० १९७६ में हो गया था। उन का स्वभाव बड़ा ही सुशील और स्नेही था । उनके हृदयमें कभी अपनेसे पहले पत्नीकी संतानके प्रति दुर्भाव उत्पन्न नहीं हुआ। वे सभीको अपने बालकोंके समान ही समझती थीं। ये अपनी सन्तानको उच्च शिक्षा दिलानेके बड़े पक्षपाती थे । यद्यपि इन्हें मेट्रिक तक ही तालीम मिली थी; तथापि वे अपने सब लड़के लड़कियोंको ग्रेज्युएट बनानेकी इच्छा रखते थे। लड़के तो क्या उनकी पुत्रियाँ भी वे मरे उस समय-बड़ी मेट्रिकमें और छोटी श्रीमती वीणावती देवी इंग्लिश फिफ्थ स्टांडर्डमें अभ्यास करती थीं; मगर सेठके साथ ही उनके विचार भी चले गये। उनके दूसरे लड़के श्रीयुत नवीनचंद्रजी इंग्लिश सिक्स्थ स्टांडर्ड तक ही पढ सके पीछे इन्हें अध्ययन छोड़ कर दुकानमें लगना पड़ा। Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) सेठ हेमचंद भाईके मातापिता तो पहले ही कालधर्मको प्राप्त हो गये थे । वे जाते समय उनके घरमें चार लड़के, दो लड़कियाँ, सेठानी और उनके अनुजकी मुशीला विधवा श्रीमती मणि बेन को छोड़ गये थे। कुटुंबका सारा बोझा मणि बेन पर पड़ा, क्योंकि ये ही सबमें बड़ी थीं मगर वाहरे देवी ! इन्होंने अपने ज्येष्ठ बंधुके समान स्नेह करनेवाले जेठसे जो शिक्षा पाई थी उसे व्यर्थ न जाने दिया । मणि बेनने सबको अपनी स्नेहकी पाँखोंमें लिया और ममत्त्वके साथ जेठकी सन्तानको यथावत पाला पोसा । घर गृहस्थीका जो कार्य पहलेसे जैसे चला आ रहा था वैसे ही ये बराबर चलाती रहीं । किसी बालकको यथासाध्य यह अनुभव न होने दिया कि आज उनके सिरपर कोई नहीं है। सेठजी पिताके परम भक्त थे। उन्हों ने अपने पिताकी आज्ञाका कभी उलंघन नहीं किया। उनका दस्तूर था कि वे जैसे नियमित रूपसे प्रभुके दर्शन किये बिना अन्नजल नहीं लेते थे वैसे ही अपने पिता के दर्शन किये बिना भी अन्नोदक नहीं लेते थे। पिताकी अनुपस्थितिमें वे अपने पिताके फोटोका दर्शन कर लिया करते थे। सेठजीके सद्गुण इनके कुटुंबियोंको भी विरासतमें मिले हैं। सेठजीकी तरह इनका कुटुंब भी मिलनसार धनके मिथ्या अभिमानसे रहित और सादा मिजाज है। जो कोई इनके घर मिलने जाता है, ये लोग बड़े आनंदसे उससे मिलते हैं; प्रेमसे वार्तालाप करते हैं और यथोचित उसकी आवभगत करते हैं । इन पंक्तियोंका लेखक जब इनके बंगले पर गया तब इन लोगोंने इसके साथ बड़ी Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदशजीवन. दानवीर सेठ देवकरण मूलजी संघवी. पृ. २३७ उ. www.jainelibrary.ords Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७) ही सज्जनताका व्यवहार किया। किसी तरहकी जान पहचानके बिना ऐसा सौहार्द दिखाना बड़े ही उच्च हृदयके मनुष्योंका कार्य है। साध्वी मणीबेन तो साक्षात सौजन्यकी मूर्ति ही मालूम होती हैं। सेठ हेमचंद्रजी जैसे महावीर जैन विद्यालयसे स्नेह करते थे वैसे ही उनका कुटुंब भी करता है। और उसने विद्यालयको सोलह हजारकी रकम और दी है । इस तरह आजतक सेठ हेमचंद्र अम. रचंदकी पेढीसे महावीर जैनविद्यालयको, छब्बीस हजारकी रकम मिली है । आशा है उनके पुत्ररत्न श्रीयुत नवीनचंद्र, प्रवीणचंद्र और अनिलकान्त भी अपने पिताके पदचिन्हों पर चलकर उनकी सत्कीर्तिको बढानेका प्रयत्न करेंगे। दानवीर सेठ देवकरण मूलजी। सेठ देवकरण मूलजी उन महान व्यक्तियोंमेंसे एक हैं, जो पाँच सात रुपये मासिककी नौकरीसे जीवन प्रारंभ करते है; धीरे धीरे आगे बढ़ते हैं, लक्षाधिपति बनते हैं, लक्ष्मीका अपनी सेविकाकी तरह उपयोग करते हैं, परोपकारमें खुले हाथों धन खर्चते हैं और इसीमें जीवनका आनंद मानते हैं। इनका जन्म सं० १९२१ के पोस सुदी ७ के दिन मांगरोलमें हुआ था। ये ज्ञातिके वीसा श्रीमाली हैं। मांगरोलसे ये वनथली रहने गये थे और वनथलीसे धन कमानेकी तलाशमें बंबई आये और सं० १९३६ में इन्होंने ६) छः रु. मासिक वेतनपर एक कपडेकी दुकान पर नौकरी कर ली । इनकी होशियारीसे सेठ इन पर प्रसन्न रहते थे। Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) धीरे धीरे बेतन बढ़ता गया और सं० १९४४ में तो ये अपनी होशिया के कारण करसनदास लखमीदासकी पेढीमें हिस्सेदार होग ये । फिर इन्होंने सं० १९५३ में देवकरण नारायणजीके नामसे अपनी अलग दुकान खोल ली, सं० १९५६ में देवकरण मूलजीके नामसे अपनी पेढी चलाई और लाखों रुपये कमाये । - धर्म और विद्यापर इनका प्रेम पहलेहीसे है। ये नियमित रूपसे सेवा पूजा किया करते हैं। यदि कभी पूजा नहीं कर सकते हैं तो भगवानके दर्शन किये विना तो ये कभी अन्न जल ग्रहण नहीं करते हैं। जिस उत्साह और होशियारीसे इन्होंने धन कमाया उसी उत्साह और होशियारीसे उसे खर्च भी किया। उन्होंने जो धन धर्मार्थ और विद्या प्रचारार्थ खर्च किया उसकी सूची हम यहाँ दे देते हैं .१२५०००) जूनागढ देवकरण मूलजी वीसा श्रीमाली जैन बोर्डिंग। २९०००) श्रीमहावीर जैनविद्यालय बंबई । ४००००) सम्मेत शिखरका संघ निकाला और उसमें हर्ष मुनि जीमहाराजको भेजे। १०००००) वणथलीमें मंदिर बनवाया और प्रतिष्ठा करवाई। ७००००) मलाडमें मंदिर बनवाया । ३१०००) जामनगरमें विश्रांतिगृह करवाया । २००००) सीहोरमें धर्मशाला बनवाई । १५०००) वनथलीमें धर्मशाला बनवाई । ५०००) जूनागढ गिरनारजीर्णोद्धारमें । ८०००) वणथली कन्याशालामें । ४४३०००) Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३९) इनके अलावा सिद्ध क्षेत्र जैनबालाश्रमको एक अच्छी रकम दी। पालीतानेके जलप्रलयके समयमें खुदने एक बहुत बड़ी रकम दी और दूसरोंसे भी ३६०००) रुपये की मदद करवाई। गिरनारपर प्रतिष्ठा करते समय अच्छा खर्च किया। मलाड प्रतिष्ठा करने में भी बहुतसा खर्चा किया। सार्वजनिक दानसे जितनी जन संस्थाएँ चलती हैं उनमेंसे शायदही कोई ऐसी संस्था होगी जिसको इनसे मदद न मिली हो । बंबईमें जितने चंदे जैनियोंकी संस्थाओंके हुए उनमें एक भी चंदेकी फेहरिस्त ऐसी न मिलेगी जिसमें इनका नाम न हो । इस तरह 'परचूरण करीब आठ लाख रुपये दानमें दिये । इनके दानकी सारी रकम इकट्ठी की जाय तो वह लगभग बारह लाखकी होती है। ... पाठकोंको आश्चर्य होगा कि सं० १९३६ में जो व्यक्ति ६। रुपये मासिकमें नौकर हुए थे वे ही सं० १९८२ में लक्षाधिप ही नहीं लाखोंके दानी कैसे हो गये ! मगर इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। कहा है,-' धर्म करत संसार सुख' धर्मका प्रभाव ही ऐसा ही है। धर्ममें सेठ देवकरण भाइको विशेष रूपसे लगानेवाले, स्वर्गीय पूज्य मोहनलालजी महाराजके शिष्य मुनि श्रीहर्षविजयजी महाराज थे। कहा जाता है कि उनकी कृपासे ही ये पूर्ण धर्मात्मा भी बने और धनिक भी। ___ इनकी दानशीलतासे प्रसन्न होकर समाजने इनको दानवीर की पदवी दी, और बंबईकी वीसा श्रीमाली कौमने इनको मानपत्र दिया । जब इनको मान मिला तब इन्होंने हमारे चरित्रनायक आचार्य महा Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४० ) राज १००८ श्री विजयवल्लभसूरिजी के पास एक पत्र भेजा था, वह पूर्वार्द्धमें दिया गया है। उससे मालूम होता है कि, इन्होंने मुनि श्री हर्षविजयजी महाराजके बाद हमारे चरित्रनायक पर पूर्ण श्रद्धा की है और इन्होंने जितना दान दिया है. अथवा इनमें जितनी दानशीलता है वह सब हमारे चरित्रनायकके सदुपदेशका ही प्रभाव है। ये जैसे धर्म प्रेमी हैं वैसे ही विद्या प्रेमी भी हैं। इनके दानकी सूची बताती है कि, विद्याके प्रचार में भी इन्होंने लाखों खर्चे हैं। ये जातीय कार्योंमें अच्छा भाग लेते हैं। श्री जैन श्वेतांबर कॉन्फ रेंसके कार्यवाहक हैं, स्टेंडिंग कमेटीके सभासद हैं, कन्वेन्शन रिसेप्शन कमेटी के सभापति थे, श्री महावीर जैन विद्यालयकी कमेटीके प्रारंभ से ही सभासद और खजानची हैं, माँगरोल जैन सभाके प्रमुख हैं, लालबाग जैन उपाश्रय और मंदिरके बहुत बरसोंसे ट्रस्टी हैं, श्री भायखाला मंदिरके रिसीवर हैं, श्री मोहनलालजी जैन सेण्ट्रल लायब्रेरीके ट्रस्टी और सेक्रेटरी हैं, जामनगरके विश्राम मंदिरकी व्यवस्थापक कमेटीके मेम्बर और खजानची हैं, श्री सिद्ध क्षेत्र जैनबालाश्रमके सेक्रेटरी. हैं, श्री जैन एसोसिएशन ऑफ इण्डिया के उपसभापति हैं, बंबईकी जीवदयामंडलीके मेम्बर हैं श्री वीरतत्त्व प्रकाशक मंडल के खजानची हैं और बंबई में जब दुष्काल मंडल तथा इन्फ्लुएंजा कमेटी हुई तब ये उनके मेम्बर बने और बड़े उत्साहसे उनमें काम किया । रोजगार भी इनका अच्छा है। ये माधवजी मिलके सेलिंग एजंट और कपड़ेके बहुत बड़े व्यापारी हैं। Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________