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________________ ( ११८ ) लेख से भी यही बात प्रकट हुई कि वस्त्रवाले हाथ को सदा मुख पर फेंकता है इससे भी प्रतीत होता है कि सर्व काल मुखवस्त्र के मुख पर बाँधे रखने की आवश्यकता नहीं है किन्तु वार्त्तालाप के समय पर वस्त्र का मुख पर होना जरूरी है। आपके शास्त्रार्थ में एक हमें बड़ा भारी लाभ हुआ है कि हमें मालूम हो गया कि जैनमत में भी सूतक पातक को ग्रहण किया है और जैन साधुओं को उनके घरों के आहारादि के लेने की विधि नहीं है । व्यतीत संवत्सर के आठ जेठ ज्येष्ठ मुदी पञ्चमी सं० १९६१ को जो शास्त्रार्थ मध्यमें छोड़ा गया उससे यह आशय था कि ढूंढियों की ओर से सदा मुखबन्धन की विधि का कोई प्रमाण मिले - सो आज दिन तक कोई उत्तर उनकी तरफ से प्रकट नहीं हुआ, अतः उन की मूकता आपके शास्त्रार्थ के विजय की सूचिका है । ! बस इस विषय में हमारी संगति है और हम व्यवस्था याने फैसला देते हैं कि आपका पक्ष उनकी अपेक्षा से बलवान् है । आपकी विद्या की स्फूर्ति और शुद्ध धर्माचार की नेष्टा अतीव श्रेष्ठतर है. प्रायः करके जैनशास्त्रविहित प्रतीत होता है और है । हस्ताक्षर पण्डितों के Jain Education International पण्डित भैरवदत्त | पण्डित श्रीधर राज्यपण्डित नाभा । पण्डित दुर्गादत्त । । पण्डित वासुदेव । पण्डित बनमालीदत्त ज्योतिषी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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