SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ भादर्श-जीवन । _ महाराज साहबने खीमचंदभाईसे कहा:-" क्यों भाई सुन लिया ? देखो तुम भी श्रावक हो । तुम्हें कुछ सोच विचार कर लेना चाहिए। _ 'अति सर्वत्र वर्जयेत् ।' किसी बातका अन्त लेना अच्छा नहीं होता । इसने अपनी अन्तिम इच्छा भी प्रकट कर दी है । क्या अब भी तुम सोचते हो कि यह वापिस घर जायगा ?" . सीरीचंद सेठ बीचहीमें बोल उठे:-“ कृपानाथ ! अभी इन्हें भोजनादिसे निश्चिन्त हो लेने दीजिए बादमें शान्तिके साथ सब कुछ निश्चित किया जायगा । उठिए खीमचंद सेठ ! भोजनके लिए चालिए।" खीमचंदभाई बोले:- छगनको भी साथमें ले चलो । आज दोनों भाई साथ ही. भोजन करेंगे।" आपने कहा:-" आज चर्तुदशी है। मेरे उपवास है । मैं आकर क्या करूँगा ? " खीमचंदभाई बोले:-" कुछ खाना मत । मेरे सामने बैठा ही रहना । मुझे संतोष होगा।" राजके सिंघाड़ेका यही दस्तूर है । इसलिए आप कुछ दिनके बाद मातर गाँव में गये और वहीं आपने सच्चे देव श्रीसुमतिनाथ स्वामीके सामने मुनिवेष धारण कर लिया । माताको समाचार मिले । वह दुखी होती हुई आई और इन्हें दीक्षा लेनेकी इजाजत दे दी। तब गुरुमहाराजने इन्हें संस्कारोंद्वारा अपनाया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy