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भादर्श-जीवन ।
_ महाराज साहबने खीमचंदभाईसे कहा:-" क्यों भाई सुन लिया ? देखो तुम भी श्रावक हो । तुम्हें कुछ सोच विचार कर लेना चाहिए।
_ 'अति सर्वत्र वर्जयेत् ।' किसी बातका अन्त लेना अच्छा नहीं होता । इसने अपनी अन्तिम इच्छा भी प्रकट कर दी है । क्या अब भी तुम सोचते हो कि यह वापिस घर जायगा ?" .
सीरीचंद सेठ बीचहीमें बोल उठे:-“ कृपानाथ ! अभी इन्हें भोजनादिसे निश्चिन्त हो लेने दीजिए बादमें शान्तिके साथ सब कुछ निश्चित किया जायगा । उठिए खीमचंद सेठ ! भोजनके लिए चालिए।"
खीमचंदभाई बोले:- छगनको भी साथमें ले चलो । आज दोनों भाई साथ ही. भोजन करेंगे।"
आपने कहा:-" आज चर्तुदशी है। मेरे उपवास है । मैं आकर क्या करूँगा ? "
खीमचंदभाई बोले:-" कुछ खाना मत । मेरे सामने बैठा ही रहना । मुझे संतोष होगा।" राजके सिंघाड़ेका यही दस्तूर है । इसलिए आप कुछ दिनके बाद मातर गाँव में गये और वहीं आपने सच्चे देव श्रीसुमतिनाथ स्वामीके सामने मुनिवेष धारण कर लिया । माताको समाचार मिले । वह दुखी होती हुई आई और इन्हें दीक्षा लेनेकी इजाजत दे दी। तब गुरुमहाराजने इन्हें संस्कारोंद्वारा अपनाया ।
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