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________________ आदर्श-जीवन । की सोई हुई आत्मा जरूर जागृत होगी और फैसला मेरे हकमें होगा । बड़ोदेमें तो इन पर अनेक पानी चढ़ानेवाले हैं मगर आपके कदमोंमें पहुँच कर तो चढ़ा हुआ पानी भी उतर जायगा। इसी लिए आपको न बताकर इनके पास पत्र भेज दिया। पत्रकी रजिस्ट्री इसलिए करा दी थी कि, यहाँ आ जायँगे तो ठीक ही है वरना ये फिर यह बहाना न कर सकेंगे कि मुझे पत्र मिला ही नहीं। अच्छा हुआ कि ये आ गये । अगर न आते तो मैं आपसे अर्ज करता कि,-मैंने इस तरहका पत्र भेजा है, मगर वे नहीं आये । न कुछ लिखा ही । इसलिए उनका मौनावलंबन ही एक तरहकी इनाजत है। कहा है कि . 'नानुषिद्धममुमतम् ।' इसलिए आप मुझे दीक्षा दे दीजिए । मैंने यह भी स्थिर कर लिया था कि, यदि आप मेरी प्रार्थना अस्वीकार करेंगे तो मैं श्रीसंपतविजयनी' महाराजकी तरह दीक्षित होजाऊँगा।" . .. शान्तमूर्ति मुनिमहाराजश्री १०८ श्रीहंसविजयजी महाराजके परम भक्त सुशिष्य पंन्यासजी महाराज श्रीसंपतविजयजी पाटनके रहनेवाले थे । इनका गृहस्थ नाम वाडीलाल था । ये अपनी माता आदिको समझा कर दीक्षा लेनेको उद्यत हुए । बड़ोदेमें दीक्षा महोत्सव होना स्थिर हुआ । किसीके बहकानेसे इनकी माताने दीक्षामें रुकावट डाल दी । इन्होंने माताको समझा दिया कि अच्छा मैं दीक्षा न लूंगा । माता घर चली गई । इन्हें मालूम था कि, माताकी इजाजतके बिना हंसविजयजी महाराज हरगिज दीक्षा न देंगे । कारण आत्मारामजी महा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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