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आदर्श जीवन ।
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न मिले हों तो भी साधु कभी रातको अन्नजल नहीं लेते। अपने घरकी धन दौलत छोड़ मधुकरी माँगकर खाते हैं। करोडपति या गरीब सभी जैन साधुओंकी निगाहमें एकसे हैं। अपने पेट भरनेलायक आहार वे एक ही घरसे कभी नहीं लेते । विद्याप्राप्त करते हैं। कहीं एक महीनेसे अधिक चौमासेके सिवा नहीं रहते कभी किसी सवारी पर नहीं चढ़ते । पैदल सर्वत्र भ्रमण करते हैं, तीर्थ यात्रा करते हैं और लोगोंको आत्मकल्याणका रस्ता दिखाते हैं । हमारे साधुओंके जीवन और भाव तो श्रीभर्तृहरि के शब्दोंमें इस तरह के होते हैं,
अहौ वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा । मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयने वा दृशदि वा ॥ तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसाः
क्वचित्पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ॥ भावार्थ-हे प्रभो ! मैं किसी ऐसे पवित्र वनमें बसना चाहता हूँ कि जिसमें रहकर सर्पको और हारको, बलवान शत्रुको
और मित्रको, मणिको और पत्थरको, फूलोंकी सेजको और शिलाको, तणको और स्त्रियोंके समूहको-सभीको समान रूपसे देख सकूँ और ' शिव ' ' शिव ' रटते हुए अपना समय बिता सकूँ ।
इस साधुजीवनकी रूपरेखा; इस धाराप्रवाही विवेचनशैली तथा इस प्रभावोत्पादक और मधुरवाणीको सुनकर भटजी
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