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________________ ३७४ आदर्श जीवन। थी । यति प्रतापचंद्रजी आचार्य महाराज श्रीविजयकमल मुरिजीकें यतिपनेके-गुरुभाई थे। __ यति अनूपचंद्रजी और मनसाचंद्रजी हमारे चरित्रनायकके पास गये और उन्होंने विनती की कि, हम अपने पुस्तकालयकी उद्घाटन क्रिया आपके शुभ हाथोंसे कराना चाहते हैं। आपने इस बातको स्वीकार किया । सं० १९७७ के वैशाख बिद ३ के दिन इस पुस्तकालयकी आपके हाथोंसे उद्घाटन क्रिया हुई । नाम 'श्रीवर्द्धमानज्ञानमंदिर ' रक्खा गया । इसमें इस समय करीब ढाई हजार पुस्तकें हैं । - जिस वक्त संघ उदयपुरसे रवाना हुआ उस वक्त विहारके लिए तैयारी की हुइ, कमराँ बाँधे हुए हमारे चरित्रनायक आचार्यश्री विजयनेमिमूरिजीकी तबीयतका हाल पूछनेको और उनसे मिलनेको उस धर्म शालामें पहुँचे जहाँ वे ठहरे हुए थे । जाकर सुखसाता पूछी, आचार्यश्री बड़े खुश हुए। चलनेकी जल्दी थी तोभी उनके आग्रहसे करीब डेढ़ घंटे बैठना पड़ा । इस आखरी मुलाकातमें आचार्यश्रीने अपना सच्चा अन्तःकरणका उद्गार निकाला । उन्होंने कहा "वल्लभ विजयजी! मैं नहीं समझता था कि तुम इस प्रकारकी सज्जनता दिखलाओगे और शिष्टाचार करोगे । मेरे मनमें तुम्हारे लिए बहुत कुछ भरा हुआ था; परंतु तुम्हारे इस आनंद जनक समागमसे वह सब निकल गया।" , आपने कहा:-"बड़ी खुशीकी बात है । आप जानते ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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