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________________ आदर्श - जीवन । वैद्योंकी संगति में रह चुके थे इसलिए आपके हृदयसे भय बहुत कुछ निकल गया था । तो भी भाईके सामने बोलनेका हौसला नहीं पड़ता था । एक तरफ भाईका प्रबंध था दूसरी तरफ आप निकल भागनेका अवसर देखते थे । एक दिन अवसर मिल गया । छुट्टीका दिन था । देखरेख करनेवाला कोई नहीं था । इसलिए आप घर से यह कहकर रवाना हुए कि दुकान पर जाता हूँ | रवाना हुए मगर सीधे बाजारके रस्ते होकर जाना कठिन था; क्योंकि बाजार में खीमचंदभाई अपनी दुकान पर बैठे थे । सिंहके सामनेसे बकरीका भागना जितना कठिन है उतना ही आपके लिए खीमचंदभाईके सामनेसे होकर चला जाना था । अतः अपने जंगलका रस्ता लिया । गरमीका मोसिम था । अष्टमीका दिन था । आपने एकासन किया था । पैरों में जूते न थे । जमीन आगकी तरह तप रही थी । उसी जमीनमें आप धुन लगाये चले जा रहे थे । प्यासके मारे हलक सूखने लगा; पैरोंमें जल जल कर छाले पड़ने लगे; मगर आपका इस ओर ध्यान नहीं था । आप तो इस जेलखानेसे आत्माको सदाके लिए मुक्त करनेकी धुन थे; वैराग्यका प्रेमी भला इन शरीरके कष्टों की क्या परवाह करने लगा था ? वैराग्य इसीको कहते हैं । कवि दाग कहते हैं— कमाल इश्क है ए दाग़ महव हो जाना; मुझे ख़बर नहीं नफा क्या जरर कैसा । १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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