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________________ आदर्श-जीवन । - • माईके दिलमें अब अगला संदेह बाकी नहीं रहा था; क्योंकि आप नियमित रूपसे सभी काम किया करते थे; इसलिए उन्होंने प्रसन्नतासे इजाजत दे दी। वे खुद घर चले गये। __ आपके लिये यह स्वाधीनताका पहला दिन था। आपने मुनि महाराज श्रीहर्षविजयजीके साथ जी खोलकर बातें की और निश्चय किया कि, अपने आप वापिस घर न जाऊँगा । यदि भाई साहब आयेंगे तो जैसा मौका होगा किया जायगा । आप मुनिराजोंके साथ अहमदाबाद पहुँचे। उसी दिन आपके भाई खीमचंदनी बाहर ही आमिले। दो चार चपत लगाये कान पकडकर आगे किया । आप रोते धोते भाईके साथ घर चले गये। इस बार पूरी देखरेख होने लगी । एक क्षणके लिए भी आप अकेले नहीं रह सकते थे। इच्छा न रहने पर भी नियमित रूपसे स्कूल जाना पड़ता था। आ के भाई अपने साथ ले जा कर स्कूल मास्टरके सिपुर्द कर आते थे; उसे सावधान कर आते थे और शामको छुट्टी होते ही वापिस स्कूल आकर ले जाते थे। पहले कभी बाहरकी हवा न लगी थी, इसलिए आप अपने भाईसे बहुत ज्यादा डरते थे; कहीं बाहर निकलनेका साहस भी नहीं होता था । अब बाहरकी हवा खा चुके . थे; कर्मरोगके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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