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________________ ३८८ आदर्श जीवन । मैं तुमको श्वरोंके लिए नव वाडोंकी भी पाबंदी नहीं है। पूछता हूँ, तुमने कभी उपवास किया है ? श्रावक-हाँ कई बार। आप-तो क्या तुम उपवासवाले दिन घर-गाँव-परिवार -खाने पीनेकी सब चीजोंको छोड़कर कहीं उजाड़में चले जाते हो या किसी पहाड़की गुफामें घुस जाते हो ? __ श्रावक-क्यों ? वे चर्जि मेरा क्या कर सकती हैं ? मेरा मन काबूमें है, मैंने इनको त्याग दिया है, मुझे परभवका डर है, मैं अपना उपवास बराबर घरमें रह कर पाल सकता हूँ। __ आप-भले भाई तो क्या भगवान् स्थूलिभद्र स्वामी अपनी प्रतिज्ञाका पालन करनेमें समर्थ नहीं थे ? अवश्य थे । इतना सुनकर वह शांत हो गया । वहाँ दो तीन श्रावकोंने पूजा पाठ करनेका नियम भी किया था। वहाँसे आप सोजत पधारे । बड़े समारोहके साथ नगरप्रवेश हुआ । शहरमें दस मंदिर हैं। उनका प्रबंध ठीक नहीं होता था । इस लिए आपने उपदेशद्वारा वहाँ एक पेदी स्थापित कराई थी। उसका नाम 'शान्तिवद्धमान पेढी' रक्खा गया। उसके द्वारा अनेक मंदिरोंके जीर्णोद्धार हुए हैं। आपके पधारने पर अनेक श्रावक जो किसी कारणवश कुछ कुछ ढूंढियोंकी तरफ झुकते जा रहे थे वे वापिस अपने ठिकाने आ गये यानी. पक्के प्रभुपूजक बन गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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