________________
(१४५)
सिद्ध हुए हम ही अनंत शक्तिवाले हैं, हम ही परमात्म स्वरूप हैं । केवल कर्मके कारण ही हमारी तुम्हारी अनंत शक्ति ढकी हुई है। कैसी दुर्दशा है ? दिल भर आता है। बहुत उपदेश देने पर भी कुछ असर न होनेका कारण मेरे खयालमें एक यही है । निर्विवेक ! विवेकरूप शक्तिका विकास होनेके बदले संकोच हो रहा है, जिससे कोई भी सत्योपदेश अवश्य करणीय रूपमें ठहरता ही नहीं है और इसीसे जैन समाजकी दुर्दशा हो रही है। अपनी वर्तमान दशा और अपने पूर्वजोंकी दशाका मीलान करनेपर मालूम होगा कि अपने पूर्वज क्या थे और हम क्या हो गये हैं ? और यदि अब भी न चेते तो क्या हो जायगे ? परंतु यह दशा विद्यारूपी दर्पणके बिना नजर न आयगी । बिना दर्पणके मस्तकका दाग नहीं दिखता और बिना देखे मिटाओगे ही क्या ? इसी लिए अब तो सबसे पहिले विद्यारूपी दर्पणको तैयार करनेका उद्यम करना जरूरी है।
संप और उदारताकी आवश्यकता । __ प्यारे जैन बंधुओ ! उक्त दर्पणके लिए आपको संप और उदारताकी जरूरत है। आप खयाल करें ६ और ३ ये दोनों अंक एक सरीखे हैं । परन्तु जब ये दोनों एक दूसरेके सामने मुख करते हैं तब ६३ हो जाते हैं और जब विमुख हो जाते हैं तब ३६:ही रह जाते हैं अर्थात् उनकी कीमत घट जाती है।
इसी तरह एक १ जब अकेला होता है तब कोरा एक ही है, पर जब एक १ और आ मिलता है तब ११ हो जाते हैं । इससे एकताकी बड़ी जरूरत है. । खेलमें बादशाह, रानी सब साथ होते हैं पर इक्केके आगे सब झक मारते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org