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________________ (१४४) चारित्रपात्र, और गुणग्राही हों । तभी वे प्रतिष्ठा पात्र उच्चपद सद्तिके अधिकारी हो सकते हैं । अन्यथा वे जगतमें ज्ञानी, पंडित, इल्मदार भले कहावें, परन्तु इतने मात्रसे उनका परलोक कभी न सुधरेगा । चतुर्दश पूर्वधारी भगवान भद्रबाहू स्वामी फरमाते हैं। जहा खरो चंदन भारवाही भारस्स भागी न तु चंदनस्स। एवं खु नाणी चरणेन हीणो, नाणस्स भागीन हु सोमाईए॥१॥ इसका मतलब यह है कि जैसा चंदनका बोझा उठानेवाला गधाभारका ही भागी है, चंदनकी खुशबका नहीं ऐसे ही ज्ञानी-पंडित ज्ञान-पांडित्यकाही भागी है, परंतु वह निर्विवेकी, सदाचार चारित्रसे हीन-रहित होनेसे सद्गतिका भागी नहीं होता । जो पढ़े लिखे हैं पर चारित्र सदाचारमें तत्पर नहीं, कर्तव्य परायण नहीं वे पढ़े लिखे मुर्ख ( पंडित मूर्ख) हैं। वे (Gramophone ) ग्रामोफोनकी चूड़ीके समान हैं। जैसे गायनका असर चूडीपर नहीं होता पर जब वह गाती है तब दूसरोंपर असर जरूर होता है। ठीक इसी तरह वे चेतन परमात्माके स्वरूपका दावा करनेवाले हैं। बेशक आत्मामें अनंत शक्ति है। यही आत्मा परमात्मा होता है पर वह शक्ति प्रगट होगी तब । जब तक ऐसा न होगा तब तक वह ज्ञानी पंडित, इल्मदार मुनीम, कहानेवाले भी अन्य प्राणियोंके समान संसारमें ही इधर उधर भटका करेंगे। आत्मा ही परमात्मा है। हे वीर पुत्रो ! यदि न्यायसे देखा जाय तो कर्मयुक्त जीव संसारी कहा जाता है । कर्ममुक्त शिवसिद्ध परमात्मा कहा जाता है । बस । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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