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( ९३) अतः अपने साधुओंको वही काम करना चाहिये जिससे कि यह कुसंप दूर हो।
इस प्रस्तावको उपस्थित करते हुए प्रवर्तक श्रीकांतिविनयजी महाराजने कहा था कि, सामान्यतया हम साधु कहलाते हैं तो क्षमागुण अपने अंदर होना ही चाहिये । यदि क्षमा नहीं तो साधुपना ही क्या ! जहाँ क्षमागुण है वहाँ कुसंप रह ही नहीं सकता; परंतु इस समय तो उलटा · ही नजर आता है। जितना संप अपने अंदर चाहिये उतना दृष्टिगोचर नहीं होता । इसी कारण धर्मोन्नतिके बड़े २ कार्य बीचमें लटक रहे हैं। यह तो आप जानतेही हैं कि, कोई भी कार्य हो विना संपके पूरा नहीं होता। विना संप कभी किसीकी फतह न हुई है और न होगी। इस लिये आपसमें संपका होना बहुत जरूरी है।
एवं मुनिराज श्रीवल्लभविजयजीने श्रीप्रवर्त्तकजी महाराजके विवेचनका अनुमोदन करते हुए कहा कि, संपके विना किसी कार्यकी भी सिद्धि नहीं होती । जब कि अपने में संप था तबही संम्मेलनरूप महान् कार्यकी हमें सफलता प्राप्त हुई है।
यदि अपनेमें संप न होता तो दूर दूरसे अनेक कष्ट सहन कर आनेवाले योग्य मुनिराजोंके अमूल्य दर्शनोंका होना और शासनकी उन्नतिके करनेवाले अनेक धार्मिक कार्य जो कि इस सम्मेलनद्वारा प्रस्तावित कर पास किये गये हैं या किये जायेंगे उनका होना अति दुर्घट था ।
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