SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 669
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९२ ) और मुनि श्रीमानविजयजी तथा मुनि श्री उत्तमविजयजीने अनुमोदन किया । बाद सर्वकी सम्मति से यह नियम पास हुआ। प्रवर्त्तकजी महाराजने प्रस्ताव पेश करते समय कहा था कि, इस नियम में विशेष विवेचनकी कोई जरूरत नहीं मालूम होती । यह स्पष्ट ही है कि, साधुका या गृहस्थका चाहे जिसका टंटा हो उसमें पड़ने से अपने पठनपाठन ज्ञान ध्यानमें अवश्य नुकसान होगा । दूसरा ऐसे झगड़ोमें पड़ने से पक्षपाती या अविश्वासु होने का संभव है । अतः जहाँ ऐसे ऐसे टंटे झगडेका कारण आपड़े वहाँ यदि अपनी शक्ति हो और शांति होती नजर आवे तो उसके समधान करनेका उद्योग करना । वरना किनारा ही करना योग्य है। मगर किसी पक्षमें शामिल होकर साधुताको दूषित करना योग्य नहीं है । प्रस्ताव बाइसवाँ । एक गुरुके परिवार के साधुओंमें ही जैसा चाहिये वैसा मेल नजर नहीं आता तब यह कैसे आशा की जा सकती है कि, भिन्न गच्छके तथा भिन्न गुरुओंके साधुओं में मेल रहे ! इस प्रकारकी स्थिति हमारे आधुनिक साधुओंकी है । इसको देख कर यह सम्मेलन अत्यंत शोक प्रदर्शित करता है और प्रस्ताव करता है कि, ऐसे कुसंगसे साधु मात्रका जो धर्मकी उन्नति करनेका मूल हेतु है वह पूर्ण होता हुआ दृष्टिगोचर नहीं आता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy