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(१०) लगाई गई । साएवान, दरी और मेज़ आदिक से सभास्थान सुसज्जित किया गया, लाला रलाराम व जगन्नाथ व लाला वखशीराम साहिब तथा शहर के चौधरी विद्यमान थे।
और उस समय सर्व जाति के अनुमान १००० आदमी विद्यमान थे और सरकारी पोलीस का भी प्रबन्ध था। अनेक पुरुषों से परिवरे हुए साधु हीरविजयजी, वल्लभविजयनी, विमलविजयनी, कस्तूरविजयजी, चारों साधु अपने शास्त्र लेकर बड़े आनन्द और प्रेम से सभामंडप में आ पहुंचे । सनातनधर्मीय लाला जगन्नाथ, लाला रलाराम, लाला बखशीराम, बिहारीमलकी आज्ञा लेकर लाला रलाराम जगन्नाथ की दुकान पर अपने आसन जमा लिये और साधु वल्लभविजयनी ने खड़े होकर जैनधर्म का स्वरूप वर्णन करना प्रारम्भ किया और कहा कि प्रायःलोगों को ढूंढियों और पुजेरों का भेद मालूम न होने से ढूंढियों और पुजेरों की भिन्नता मालूम नहीं होसक्ती । ढूंढियों और पुजेरों में इतना फरक है कि जितना रात और दिन का । ढूंढिये मूर्तिपूजा से सर्वथा इन्कार करते हैं और पुजेरे मूर्तिपूजा को जैनशास्त्रानुसार स्वीकार करते हैं। पुजेरे साधु दिशामात्रा करके शुची निमित्त रातको कली चूना डालकर अपने पास पानी रखते हैं और द्वंढिये साधु सर्वथा पानी नहीं रखते । जैनमत के शास्त्र निशीथसूत्र के चौथे उद्देशे में कहा है कि जो साधु दिशा मात्रा हो करके शुद्ध न हो, उसको दण्ड आता है । जब यह ढूंढिये साधु
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