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________________ (२५) विचार करनेसे ज्ञात हो सकेगा कि, उसमें रहस्य अवश्य समाया हुआ है। - सभ्य श्रोतृगण ! धर्मका लक्षण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-"दुर्गतौ प्रपतत्प्राणिधारणाद्धर्म उच्यते'' दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवको जो धारण करे अर्थात् उसको बचाकर सद्गतिमें स्थापन करे उसे धर्म कहते हैं । इसलिए परम सुख देनेवाले धर्म रूप पदार्थमें अपनी २ मान्यतासे विरोधका उद्भावन करना उचित नहीं । वास्तविक धर्म हमेशह एक ही तरहका होता है। उसमें भिन्नताका लेश, नाम मात्रके हि लिए होता है। जब तक विचार समूह एकत्रित होकर कर्तव्य परायण नहीं होता तब तक उद्देश्यकी सिद्धि आशा मात्र ही है। मुझे खेदके साथ कहना पड़ता है कि, 'स्वतंत्र' निरपेक्ष मान्यतासे प्रति दिन विरोध बढ़ रहा है ! कोई ईश्वरको कर्ता मानता है और कोई अकर्ता कहता है। और दोनों ही एक दूसरेको अधर्मी और अपने आपको धर्मात्मा समझ रहे हैं इतना ही नहीं किन्तु कभी २ दोनोंका उक्त विषयके निमित्तसे घोर युद्ध भी हो जाता है। नतीजा यह निकलता है कि, आपसके मेलका नाश होकर एक दूसरेके कार्यमें साहाय्य देनेके बदले उसका घोर विरोध करने लग जाते हैं। इसका फल अंतमें दोनोंके ही लिए हानिकारक साबित होता है। सज्जनो ! विचार वैचित्र्य रहने पर भी हमें मिलकर काम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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