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________________ ५२ 4 आदर्शजीवन । पीत्वा मोहमयी प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् । , मगर मोहममत्वमें - माना हुआ संसारी सुख भी उस समय होता है जब दोनों तरफसे एकसा प्रेम हो 'महोब्बतका मजा तब है, दोनों हों बेकरार, बराबर लगी हुई । दोनों तरफसे हो आग " मगर यहाँ तो उल्टा ही हिसाब है। तुम मेरा छगन मेरा छगन करते फिरते हो और लगन तुम्हारा भाव भी नहीं पूछता । तुम्हें छगनकी रट हैं और छगनको अपने स्वार्थकी अपनी मुक्तिकी । ऐसी दशामें तुम मोह रखकर क्या करोगे ? सिवा कर्मबंधन के तुम्हारे हाथ क्या आयगा ? " खीमचंदभाईके मनमें बड़ा द्वंद्व मचा हुआ था । उनकी तो ऐसी हालत हो रही थी, L ठहरे बन आती है न भागे; तेरी जबर्दस्ती के आगे ! ' न छगन घर जानेको तैयार था न उनका मन छगनको दीक्षाकी आज्ञा देना चाहता था । जबर्दस्ती भी कहाँ तक की जाय ? आखिर खीमचंदभाईके मोहका पर्दा हट गया । उनको संसार विस्तीर्ण दिखाई दिया । उन्हें साफ मालूम हुआ कि, छगन मेरे कुटुंब के घेरे में रहनेके लिए नहीं जन्मा है । इसका दायरा बड़ा है । यह जनसमाजके लिए जन्मा है । इसका कुटुंब प्राणिमात्र है १ मोहरूपी मदिरा पीकर सारा संसार उन्मत - पागल हो रहा है। I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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