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________________ आदर्श-जीवन। खीमचंदभाईने मन ही मन कहा,-."घरके लोग ही जत्र मेरे विरुद्ध इसे सहायता देते हैं तब मेरे अकेलेके किये क्या होगा ?" उनका मोहावरण कुछ हटा । वे सोचने लगे,-मैं क्यों अपराध करूँ ? क्यों अन्तराय कर्मको बाँधूं ? यह विवाहित नहीं है कि, इसके चले जाने पर मेरे सिर दुखद उत्तर दायित्वकाजवाबदारीका--भार आपड़ेगा । यदि विवाहित होता तो भी मैं क्या कर सकता था ? श्रीकान्तिविजयजी महाराज और श्रीहंसविजयजी महाराज भी तो विवाहित ही थे। वे अपनी पत्नियों और कुटुंबके लोगोंको छोड़कर चले गये; किसीने क्या कर लिया ? यदि इसके भाग्यमें साधु ही बनना लिखा है तो फिर मेरे लाख उपाय करने पर भी वह न मिटेगा और यदि नहीं लिखा है तो यह चाहे जितनी कोशिश करे कभी साधु न बन सकेगा । सच है-- येदभावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा ! इति चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः किं न पीयते ।। वे फिर सोचने लगे,-हरिभाई सूबा, मगनलाल मास्टर, वाडीलाल १. गृहस्थावस्थामें इनके नाम क्रमशः छगनलाल और छोटालाल थे । २ भावार्थ-~-जो अनहोनी है वह कभी न होगी और जो होनी है वह कभी न टलेगी। यह विचाररूपी ओषधि चिन्ताको मिटानेवाली है । इसलिए इसको पीना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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