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आदर्श जीवन ।
रहे थे । उनके चहरेसे मालूम हुआ कि, उन्हें व्याख्यानमें बड़ा आनंद आ रहा है और वे तल्लीन होकर उसे सुन रहे हैं ।
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जब व्याख्यान समाप्त हो चुका तब मुन्सिफ साहब बोले:" मेरी आयु पचास बरससे कुछ ज्यादा ही होगी । बचपनहीसे मुझे धर्मकी बातें सुननेका शौक है । किसी मजहबका व्याख्यान हो, - धर्मकथा हो मैं यथासाध्य सुननेके लिए जरूर जाता हूँ । ये लोग मुझे अच्छी तरह जानते हैं । मैं गुणग्राही हूँ । जहाँसे गुण मिलता है मैं वहींसे गुणग्रहण करता हूँ । किसीकी प्रशंसा उसके सामने ही करना अनुचित है, तो भी मुझसे यह कहे विना नहीं रहा जाता कि, मुझे आजके व्याख्यानमें जैसा आनंद मिला है वैसा आनंद उम्र में कभी नहीं मिला ; आनंदकी अनुभूति शब्दोंके द्वारा प्रकट नहीं की जा सकती । व्याख्यान क्या कल भी होगा ? "
हमारे चरित्रनायकने फर्मायाः – “ साधुओंका और काम ही क्या है ? गृहस्थोंके अन्नजलसे साधुओंका निर्वाह होता है इस लिए साधुओंका कर्त्तव्य है कि, वे बदलेमें गृहस्थोंको उपदेश दें, उन्हें धर्मकार्यमें लगे रहनेकी प्रेरणा करें और उन्हें उनके उद्धारका मार्ग बतावें, उस मार्ग पर चलनेमें उन्हें सहायता दें | इस लिए जब तक हम यहाँ रहेंगे तब तक अपना कर्तव्य करते ही रहेंगे । "
मुन्सिफ साहबने पूछा:- “ आप कब तक यहाँ विराजेंगे ? आपने उत्तर दिया:-" जब तक यहाँके अन्नजल हैं। "
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