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मानने ही लग जायें, किन्तु इसपर कुछ विचार अवश्य करें इतना ही निवेदन है । मेरे विचारमें जो लोग मूर्तिपूजाके सिद्धान्तके विरोधी हैं, वे बड़ी भारी भूल में हैं । मूर्तिके माननेवाले केवल मूर्तिको ही नहीं मानते किन्तु मूर्तिवाले परमात्माको मानते हैं ( करतल ध्वनि ) प्रत्येक धर्मवाले किसी न किसी प्रकार से मूर्तिको अवश्य मानते हैं । कितनेक लोग वेदोंके पुस्तकोंका सन्मान करते हैं । कितनेक कुरानकी इज्जत करते हैं । और कितनेक बाइबलको सिरपर उठाते और चूमते हैं । परन्तु आश्चर्य यह है कि, स्वयं तो जड़ पुस्तकों का सत्कार करते हैं और देवमूर्तिको जड़ बतलाकर उसकी पूजाका विरोध करते हैं । बहुधा लोगों का कथन हैं कि, जड़मूर्ति हमारा न कुछ बिगाड़ सकती है, न कुछ सुधार सकती है। इसलिए उसका पूजन करना एक समयको व्यर्थ खोना है । मगर उन लोगों को इतना स्मरण रखना चाहिए कि, मूर्ति ईश्वरभक्तिमें आलम्बन रूप है । मानसिक स्थिरताका एक अनूठा साधन है। सज्जनो ! एकान्त स्थानमें रक्खी हुई एक सुन्दर स्त्रीकी मूर्तिको देखकर यदि एक कामी पुरुष के हृदय में देखते ही कामोत्पत्ति हो जाती है; तो क्या भगवान वीतरागकी शान्त मुद्राको देखकर एक भक्तका हृदय प्रभु भक्ति के शान्त सुधारसमें गोते खाने नहीं लगेगा ? ( करतलध्वनि) इसलिए उक्त सिद्धान्तका बहुत ही विचारपूर्वक परामर्श करना चाहिए । यद्यपि इस सम्बन्धमें बहुत कुछ कहना अवशिष्ट है,
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