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________________ ४७४ आदर्श जीवन। कषाय आ भी जाती तो उसी वक्त नहीं तो उसी दिन के दैवसिक प्रतिक्रमण में सुलह-संप करते करा देते थे । यदि ऐसा होने पर भी कुछ कसर किसी के दिल में रह गई मालूम होती थी तो पाक्षिक प्रतिक्रमण में उसकी सफाई करा दी जाती थी। अंत में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में तो अवश्यमेव क्षमापना आप स्वयं करते थे और अन्यों से कराते थे। कभी कोई अज्ञानता वश उस बात पर ध्यान नहीं देता था तो उसको श्री कल्प मूत्र का " जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा। जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा । तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं ।" यह पाठ दिखा कर समझाते थे कि, देख भाई-बीबा ! श्री तीर्थकर महाराज ने तथा श्री गणधर देवों ने क्या फरमाया है ? " जो जीव क्षमापना करता है वो आराधक होता है, और जो नहीं करता है वो आराधक नहीं होता है । इस लिये क्षमापना करके आराधक होना योग्य है " । ऐसे प्रेम के वचनों को सुनकर अगला भी शांत होकर क्षमापना कर लेता था। यह आपको भी मालूम ही है, आप स्वयं जानते हैं, आप ने स्वर्गवासी गुरुमहाराज के चरणों में रह कर-गुरुकुल वास से खूब अनुभव संपादन किया है। आप को समझाने की कोई जरूरत नहीं है, तथापि अब आप उन महा पुरुषों के स्थानापन्नउनके पट्ट धर बने हैं, अतः आप को उनका अनुकरण करना योग्य है । श्रीगुरु महाराज आपको सहायता देखें और आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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