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आषर्श-जीवन ।
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न्हानी छे । आप एने दीक्षा आपवामां उतावळ न करशो । हाल एने भणावो । पछी ज्यारे ए मोटो थाय अने आपने योग्य लागे त्यारे मने फरमावशो। हुं पोते आवीने बहु आनंदनी साथे एने दीक्षा अपावीश ।" .
खीमचंदभाईकी बातें सुनकर सभी साधु प्रसन्न हुए। किसीने इन्हें भव्यजीव, किसीने, उदार, किसीने सरल हृदयी और किसीने धर्मपरायण बताया । आपने भी आनंदोल्लासके साथ ये बातें सुनीं । ऐसा मालूम हुआ मानों स्वर्गका राज्य मिल गया है।
सूरिजी महाराजने कहाः—" जैसा तुम कहते हो वैसा ही होगा । तुम बेफिकर रहो। मगर साधुओंके सामने मिथ्या बोलनेसे बचना । ” फिर आपकी तरफ़ मुखातिब होकर कहाः" छगन ! तुमने अपने भाईकी बातें सुन लीं न ? शान्ति और धैर्यके साथ विद्याध्ययन करना होगा । दीक्षा तभी मिलेगी जब तुम्हारे बड़े भाई इजाजत देंगे ।"
आपको तो विश्वास हो गया था कि, अब मेरी दीक्षामें कोई विघ्न नहीं आयगा इसलिए आप प्रसन्नतासे बोले:-" मैं आपके चरणोंमें रहकर विद्याध्ययन और संयम साधनेका अभ्यास कर सकूँगा। अभी मेरे लिए इतनाही बस है । जब आप और भाई मुझे योग्य देखें तभी दीक्षा दें, दिलावें । मेरा हृदय संसारके बंधनोंसे छूटनेके लिए तड़पता था सो आज मेरी वह तड़प मिट.
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