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________________ ( ३३ ) सद्गृहस्थो ! आजकल दुनियामें देवके अनेक नाम सुननेमें आते हैं। कोई किसी नामका उच्चारण करना मानता है और कोई किसीका । परन्तु वे नाम यदि गुण निष्पन्न हैं तब तो कुछ भी विवाद नहीं। क्योंकि वस्तुमें रहे हुए भिन्न २ गुणोंके अनुरूप, अनेक नामोंकी कल्पना हो सकती है । मगर इतना स्मरण अवश्य रखनेकी जरूरत है कि, नामके उच्चारणमें जिस गुणका बोध होता है वह गुण नामवाले में भी विद्यमान है या कि नहीं ? मतलब कि गुणनिष्पन्न देवका ही हमें स्मरण करना आवश्यक है । देव कैसा होना चाहिए ? इसका वर्णन व्याख्यानारम्भके मंगल श्लोकमें आ चुका है। उक्त श्लोकका तात्पर्य यह है कि, मोह-माया-राग-मद-मल-मान-दंभ और द्वेष निसमें नहीं ऐसे देवको मैं प्रणाम करता हूँ। महात्मा हरिभद्रसूरि एक स्थानमें लिखते हैं,-"भवबीजाङ्कुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।" अर्थात् संसार में जन्म और मरणको उत्पन्न करनेवाले राग और द्वेषादि जिसके विनाश हो चुके हैं वह ब्रह्माके नामसे प्रसिद्ध हो, विष्णुके नामसे प्रख्यात हो, अथवा हरके नामसे कहा जाता हो, चाहे जिसके नामसे प्रसिद्ध हो, उसे मैं नमस्कार करता हूँ ! तात्पर्य कि, नाम मात्रमें किसी तरहका आग्रह नहीं, मतलब केवल नामवाले के प्रशस्त गुणोंसे है। सज्जनो ! सब जगहमें धर्म शब्दकी घोषणा सुनाई देती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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