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________________ ( ४४ ) सकता, तब भी निर्दोष प्राणियोंका रक्षण तो गृहस्थको अवश्य करना चाहिए। इसीमें उसका भला है । साधुकों तो प्रत्येक सावद्य - हिंसा- पाप जनित व्यापारका परित्याग करना चाहिए । इसमें साधुता चरितार्थ हो सकती है । सज्जनो ! अहिंसा धर्म ( किसी प्राणीको दुःख न देने ) का प्रत्येक मतमें उपदेश है । इसकी श्रेष्ठता को भी प्रत्येक सम्प्रदाय स्वीकार करता है । किसी धर्ममें भी हिंसा करनेकी छूट नहीं दी गई । कितनेक लोग कहते हैं, अहिंसा धर्मके पालनमें जैनधर्म सबमें अप्रेसर है, सो यह बात ठीक है । परंतु मैं चाहता हूँ कि, एक एक मनुष्यका हृदय ऐसा दयामय हो जाय कि, उसके प्रभाव से संसारभर में, अहिंसामय धर्मका ही नाद सुनाई देने लगे ! ( हर्षध्वनि ) विचारपूर्वक गवेषणा करने से मालूम होता है कि, हिन्दु - मुसलमान - पारसी - ईसाई - यहूदी सभी धर्मो में अहिंसा व्रतके पालन करनेका उपदेश है । गृहस्थो ! सबकी आत्मा समान है । हर एक जीव सुखका अभिलाषी है । दुःख अथवा भय किसीको भी प्यारा नहीं । प्रत्येक प्राणी जीवनमें जितना सुख मानता हैं, उससे कई हिस्से अधिक भय उसको मरणसे है । हमारे पैर में यदि एक मामूलीसा काँटा भी लग जाता है तो उसकी वेदनासे ही हम घबड़ा उठते हैं। किसी किसीको तो वह भी असह्य हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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