________________
(४५)
जाती है । तब जो लोग जंगलमें फिरनेवाले निरपराध अनाथ हरिण आदि जानवरोंका शिकार करके खुशी मनाते हैं ! एक तुच्छ जिव्हा सुखके लिए उन बिचारोंके प्राण लेते हैं । उनका यह आचरण कहाँ तक ठीक है ? यह बुद्धिमान स्वयं विचार लेवें । आनन्दमें बैठे अथवा फिरते या चरते हुए वन्य पशु पक्षियोंपर जिस वक्त शिकारी लोग गोली वगैरहका वार करते हैं उस वक्त उन जानवरोंकी जो दशा होती है उसको देखकर ऐसा कौन दयालु मनुष्य है जिसका हृदय दुःखके अनिवार्य स्रोतमें बह न जाय ? मगर वाहरे ! शिकारीके दिल ! तेरे पर उसका अणुमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता ! ! कितनेक मृगयाप्रेमी महाशय उक्त कर्मको धर्मकी पोशाक पहनानेके बहाने ईश्वरीय आज्ञा बतलाते. हैं। मगर यह काम ईश्वरकी आज्ञा तो नहीं, किन्तु उसकी आज्ञासे विरुद्ध है। अतएव धर्म नहीं, अधर्म है । प्राणिमात्रको अपनी आत्माके समान समझना ही मनुष्यमें मनुष्यत्व है! यही परम धर्म है। इसलिए "अहिंसापरमो धर्मः" के सिद्धान्तको जीवन पर्यन्त अपने हृदय पर अंकित कर लेना चाहिए।
महानुभावो : अधिकतर हिंसा तो मांसाहारके निमित्तसे हो रही है। मांस खानेका निषेध हिन्दु शास्त्रोंके सिवा अन्यत्र भी देखा जाता है। पारसी भाइयोंके पुस्तक शाहनामेमें लिखा. है कि, हमारा जरथोस्ती धर्म ऐसा पवित्र है कि, इममें न तो पशुको मारकर खानेकी आज्ञा है और न शिकार करनेकी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org