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________________ २६० आदर्श जीवन । की कि उनके साथ ही प्रायः सभी भाई बहिन,-जो उस समय वहाँ उपस्थित थे और जिनकी संख्या लगभग तीन हजार थी,-गद्गद स्वरमें बोल उठे,-" महाराज ! आप दयालु हैं। हम पर दया करें और एक चौमासेकी भिक्षा तो अवश्यमेव देवें । आपके रहनेसे हमे अपूर्व लाभ होगा।" - आपने भी विचार कर देखा तो विदित हुआ कि, इस समय श्रावक उत्साहमें हैं, इस लिए वे अवश्यमेव कोई न कोई संस्था धार्मिक संस्था कायम कर सकेंगे। इस लिए अच्छा जैसी श्रीसंघकी इच्छा कह कर वहीं चौमासा करनेकी सम्मति दे दी। । कुछ दिनके बाद एक संस्था स्थापित करना निश्चित हुआ । इस बातका विचार होने लगा कि, संस्थाका नाम क्या रक्खा जाय ? किसीने आपका नाम, किसीने स्वर्गीय आचार्य महाराजका नाम और किसीने संयुक्त नाम संस्थाके नामके साथ साथ रखनेकी सूचना दी। . हमारे चरित्रनायकने स्पष्ट शब्दोंमें कहाः-“मैं संस्थाके साथ अपना नाम जोड़नेकी अनुमति तो किसी भी दशामें नहीं दे सकता । रही गुरु देवका नाम जोड़नेकी बात, सो इसके लिए यद्यपि मुझे किसी तरहका विरोध नहीं है। गुरुदेवके नामसे कोई भी संस्था कायम हो इसके लिए मुझे अत्यंत खुशी है; तथापि मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि संस्थाके नामके साथ अमुक व्यक्ति विशेषका नाम जुड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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