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________________ आदर्श जीवन । २७१ शान्त मूर्ति मुनि महाराज श्रीहंसाविजयजीका आपके पास एक पत्र अया था उसके उत्तरमें आपने जो पत्र लिखा था, उसमेंका सर्वोपयोगी भाग यहाँ उद्धृत किया जाता है:-- ____ + + + अपने लोग गफलतमें रह जाते हैं । यह सारा ही प्रताप अशिक्षाका है। यह आप जानते ही हैं। यदि एक भी अच्छा सुशिक्षित ऊँचे दर्जेका श्रावक हो तो सभी काम अच्छी तरह हो सकते हैं। मगर अफसोस इस बात का है कि. लाखों श्रावकोमें एक भी ऐसा नहीं है जिसका प्रभाव चाहिए वैसा, प्रत्येक स्थानके श्रावकों पर पड़ सके । ऐसा होनेपर भी लोगोंकी नींद नहीं टूटती । यह दशा शोचनीय है । हजारों लाखों रुपयोंकी आहुति प्रति वर्ष बाजे गाजे राग रंग और मेवामिष्टान्न उड़ानेमें होती हैं । मगर शिक्षाके नाम तो बस भगवानकानाम ही है । अब तो आप जैसे प्रतापी पुरुषोंका इस तरफ ध्यान जाय और निरंतर चारों तरफसे यह उपदेश होने लगे कि, अमुक कार्य तुम्हें करना ही पड़ेगा, तो संभव है हमारे लिए कभी सिर उठाकर देखनेका समय आ जाय अन्य था, अभी तो मुंहपर तमाचा मारकर लाल मुँह रखने जैसी बात हो रही है। इस बातको आप मुझसे अधिक जानते हैं । आपको विशेष लिखना मानों सरस्वतीको पढ़ाने बैठना है।" - महेसानेके श्रावकोंने एक शिक्षाकी योजना तैयार करके आपके पास भेजी थी। उसके उत्तरमें आपने जो सम्मति दी थी, वह यहाँ उद्धृत की जाती है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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