SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२७) यदि उक्त भेदका कारण कर्मोको स्वीकार किया जावे जक तो कर्म करनेवाला जीव है, उसीके किये हुए कर्मका फल उसे मिलता है। ईश्वरके कर्तत्वका उससे कुछ भी सम्बन्ध नहीं । कहने का मतलब यह है कि, इस प्रकारके विरोधोद्भावनसे परस्परमें द्वेष बढ़ाते हुए लोग धर्मको ही अधर्मकी पोशाक पहना देते हैं। यदि विचार किया जाये तब कर्ता इस शब्दके साथ कुछ भी विरोध नहीं । विरोध केवल अपनी २ स्वतन्त्र मान्यतामें है । कर्ता दो प्रकारका होता है। एक 'प्रेरक' और दूसरा 'प्रकाशक' । यदि ईश्वरको 'प्रेरक' माना नाय तब तो संसारके सब कार्य ईश्वरकी ही प्रेरणासे होंगें ! यदि ऐसा है तब तो एफ मनुष्यको मार डालनेवाला दूसरा मनुष्य अपराधी नहीं ठहरना चाहिए ! क्योंकि, वह मारने में स्वतंत्र नहीं । उसको ईश्वरने जैसी प्रेरणा की, वैसा ही उसने किया। आप लोग एक निरपराध मनुष्यको अन्य किसी पुरुष द्वारा मारे जानेपर नाराज होते हो, मगर ईश्वर तो इसमें बहुत खुश हैं ! यदि 'प्रकाशक' रूपसे ईश्वरको कर्ता माना जाय तब तो किसी बातमें किसीको भी विरोध नहीं। जैसे सूर्यके प्रकाशमे यावत् कार्य होते हैं, परन्तु हमारे कर्तव्यमें उसका किसी प्रकारका भी दखल नहीं। हम अपने कार्यको प्रारंभ करनेमें और छोड़ने में स्वतन्त्र हैं। इसी तरह अपने किये हुए कार्योंके उत्तर दाता भी हम स्वयं हैं । ईश्वरकी प्रेरणाका इसमें अणुमात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy