SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ आदर्श जीवन। - सामानेमें प्रतिष्ठाके समय आपके पास एक मुसलमान सज्जन-जो वहाँके रईस और निकटके ग्रामके. "स्कूलके मास्टर थे-आया करते थे । आपके पास आने जानेसे उनके दिलमें अहिंसा और दयाके विचार पैदा हुए । आपने उन्हें एक दो किताबें भी दी । जब आप होशियारपुरमें विराजते थे तब उन्होंने आपके पास एक पत्र भेजा था। उसकी नकल यहाँ दी जाती है:___ " पीरे तरीक़त, राहे हिदायत श्रीमुनिवल्लभविजयजी महाराज ! बाद अदाए आदाब व तस्लिमाना बजा लाकर अर्ज खिदमात आलीजाह हूँ। बंदा बखैरियत और खैरोआफियत हुजूर अन्वर नेक मतलब । हजूरकी मुलाकातसे जो कुछ फायदा उठाया बयानसे बरूँ। दोनों किताबें जेर मुताला हैं। जहाँ तक मेरे इन्साफ़ने फैसला दिया है, मसला दया और अहिंसाका जैनतालीममें फौकियत रखता है । वाकईमें दया ही धर्मका मूल है। जैसे तुलसीजी साहब फर्माते हैं दया धर्मका मूल है, पापमूल अभिमान । 'तुलसी' दया न छोड़िए, जबलग घटमें प्रान । दासकी निहायत अदबसे अरदास है, दया दृष्टि फ़ाएँ । बंदा बारह तेरह रोज तक हाज़िर खिदमत होकर कदम्बोसी हासिल करेगा । बराए परवरिश एक किताब जिसमें जैनपुरुषार्थका लबेलबाब यानी रियाज़त या तप-ध्यान या मराकबा ज्ञान या मारफ़तके अमूल उर्दूमें हों तो बेहतर है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy