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“ धर्मतत्व।”
( स्थान बड़ौदा, ता ९-३-१३ रविवार. )
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदश्चैव, ओंकाराय नमो नमः ।।
सभ्य महानुभावो ! आज मैं अपने पूज्य महात्मा सभापतिजीकी आज्ञासे आपके समक्ष कुछ बोलनेके लिये खड़ा हुआ हु। परंतु मेरे बोलने में यदि कहीं पर किसी तरहकी त्रुटि या स्खलना मालूम हो तो, सज्जनों का जो स्वभाव होता है उसके अनुसार ही आप लोग भी उसपर ध्यान न देते हुए केवल सार मात्रके ग्रहण करने में ही अपनी उदारता दिखलाएँगे ऐसा मुझे विश्वास है । और सदा ऐसी ही उदार बुद्धि रखनेके लिए आपसे मेरा निवेदन है । सदगृहस्थो ! वाणी (शब्द) को शास्त्रककारोंने पानीकी उपमा दी है, अर्थात् पाणी और वानी ये दोनों आपसमें बहुत ही सादृश्य रखते हैं। जैसे एक ही कूएका पानी कुल्या ( आड़ ) द्वारा भिन्न२ मार्गों में होता हुआ उद्यानके सर्व वृक्षोंको तृप्त करता है । जो पानी आमके पेड़को दिया गया है उसीसे नीमका वृक्ष भी सेचन किया गया है, परंतु आमके वृक्षमें उसकी मधुर रसमें परिणति होती है और नीमका पेड़ उसको कटु रसम
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