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________________ आदर्श जीवन । } पंन्यासजी महाराजने पत्र पढ़ा और अर्ज की :- " आप पधारिये यह सेवक हर तरहसे आपकी सेवामें रहकर यथाशक्ति भक्ति करनेको तैयार है । " ૬૮ आपने फरमाया :- “ बेशक ! परन्तु तुम खुद ही विचार लो। अभी तो पंजाबमें आये ही हैं । तत्काल उधरको कैसे जा सकते हैं ? हाँ यदि तुम हिम्मत करके पहुँचो तो उधरका काम भी सुधर जायगा और इधर तो मैं बैठा ही हूँ । थोड़ा बहुत इधर भी सुधर ही जायगा । " इस बातको सुन कर श्रीपन्यासजी महाराजने अर्ज की :- " भले आप आज्ञा फरमाइये किंकर तैयार है। आपकी आज्ञा और आपका शुभ नाम सर्वत्र सहायक होगा । इसमें जरासा भी सन्देह नहीं है; परन्तु आप मेरी इस विज्ञप्तिको ख्याल में ले लेवें । आपने जो एकासना करना शुरू किया है, चौमासा पूर्ण होनेपर इसको आगे न बढ़ाइये और अधिक तपस्या पर जोर न दीजिये । आपका शरीर तपस्याके योग्य नहीं है । तपस्या करना तो आप तपस्वी गुणविजयजीको ही सौंप दीजिये । " आपने कहा:-" भले आदमी ! क्यों तपस्याके नामसे मुझे बदनाम करता है । मुझसे तपस्या होती ही कहाँ है ? धन्य है जो तपस्या करें । हाँ मेरे एकासनेसे ही तू नाराज है तो 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002671
Book TitleAdarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages828
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size12 MB
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